Wednesday, October 9, 2024

बाइबिल : कसौटी पर

 




बाइबिल : कसौटी पर 

श्री शिवपूजनसिंह कुशवाहा 

 ईसाई 'बाईबिल' को अपना परम प्रामाणिक ग्रन्थ मानते हैं । जिस प्रकार आर्य लोग वेदों को ईश्वरीय ज्ञान मानते हैं, उसी प्रकार ईसाई भी 'बाईबिल' को ईश्वरीय ज्ञान मानने का दावा करते हैं । वेदों को तो पाश्चात्य विद्वान् भी ईश्वरीय ज्ञान मानते हैं (पाश्चात्यों की दृष्टि में वेद ईश्वरीय ज्ञान" ( जयदेव ब्रदर्स, आत्माराम पथ, बड़ौदा द्वारा प्रकाशित) परन्तु बाईबिल को अभी मानने के लिये कोई उद्यत नहीं है । बाईबिल का 63 व्यक्तियों  मिलकर संकलन किया है और उसमें परस्पर विरुद्ध बाते हैं। बहुत सी बातें विज्ञान के विरुद्ध भी हैं । बाईबिल के दो भाग हैं - एक ओल्ड टेस्टामेन्ट, दूसरा न्यू टेस्टामेन्ट । सम्प्रति ईसाई लोग 'न्यू टेस्टामेन्ट ' मानते हैं और 'ओल्ड टेस्टामेन्ट' को प्रामाणिक नहीं मानते हैं । 'ओल्ड टेस्टामेन्ट' को केवल यहूदी ही प्रामाणिक मानते हैं, परन्तु दोनों भाग 'पवित्र धर्मशास्त्र' के नाम से विक्रय होते हैं। 

'बाईबिल' में सृष्टि को बेडौल लिखा है । इससे इनका ईश्वर सर्वज्ञ ज्ञात नहीं होता है और न बाईबिल ईश्वरीय ज्ञान प्रतीत होता है। 'आदम' को ईश्वर को अपने स्वरूप में उत्पन्न होना लिखा है तो ईश्वर के सदृश आदम क्यों नहीं हुआ ? इससे तो ज्ञात होता है कि ईसाईयों का ईश्वर आदम के समान है ।

यदि इनका परमात्मा सर्वज्ञ होता तो शैतान श्रौर धूर्त सर्प को नहीं बनाता। इनका ईश्वर कसाई के समान प्रतीत होता है जो यह आदेश देता है  कि हर एक जीता चलता जन्तु तुम्हारे भोजन के लिए होगा......' (उत्पत्ति 9/3-4) परमात्मा की दृष्टि से सभी प्राणी उसके पुत्र के समान है, उनको मरवा कर दूसरे को मिलाना महापाप है ।

ईश्वर का बछड़े का मांस खाना भी जंगलियों की कहानी से कम नहीं है। बाईबिल में शव को दफनाने का वर्णन सर्वथा विज्ञान के विरुद्ध है। आधुनिक वैज्ञानिक भी शव को जलाना उत्तम मानते हैं। ईश्वर का बैलों की बलि और वेदी पर रक्त छिड़कवाना भी बर्बरता ही है। (बाइबिल में वर्णित बर्बरता तथा अश्लीलता का दिग्दर्शन -जयदेव ब्रदर्स, बड़ौदा से प्राप्य)

यह थोड़ा सा दिग्दर्शन 'ओल्ड टेस्टामेन्ट' से कराया गया। 'न्यू टेस्टामेन्ट' में यीशु मसीह के जन्म से लेकर मृत्यु तक की चर्चा है । बाईबिल का मुख्य आचार्य मूसा था, जो क्रोधी, हत्यारा, मिथ्यावादी था । वह विषयी था क्योंकि वह अक्षतयोनि कन्याओं को अपने लिए मँगवाता था । इस तरह की चर्चा  (गिनती अध्याय 31) में आई है।

'लय व्यवस्था' में भी ऊटपटांग बातें है, जहाँ लिखा है कि बलिदान की खाल याजक की होगी। ईश्वर के लिए तो सभी जीव-जन्तु, पशु, पक्षी पुत्रवत् हैं । ईश्वर के नाम उन पशुओं का बलिदान करना बर्बरता है। बाईबल में हजरत यीशु का जन्म अत्यन्त अदभुत है, जो सर्वथा सृष्टिक्रम के विपरीत है। मरियम का पवित्रात्मा से गर्भवती होना उसके पाप का छिपाना है । किसी पुरुष से गर्भवती हुई होगी।

बाईबिल (व्यवस्था-विवरण 22/20-21) में स्पष्ट लिखा है कि "यदि किसी कुंवारी कन्या के विवाह की बात लगी हो, और कोई दूसरा पुरुष उसे नगर में पाकर उससे कुकर्म करे, तो तुम उन दोनों को उस नगर के फाटक के बाहर ले जाकर, उनको पत्थरवाह करके मार डालना"।

बाईबिल के इस आदेश से मरियम अपराधिनी हुई ।

लुका जिबाइल नामक स्वर्गदूत का मरियम के पास आकर बिना पुरुष संयोग से पुत्र होने की बात का उल्लेख करता है । पर स्वर्गदूत के आने की बात नितान्त गप्प ही है ।

'मत्ती' युसूफ  के स्वप्न का वर्णन करता है और लूका जिब्राइल का मरियम के पास आना लिखता है। दोनों की बातों में आकाश-पाताल का अन्तर है। इसलिए मरियम का परपुरुष से संग स्पष्ट ज्ञात होता है। यीशु को ईश्वर का इकलौता पुत्र मानना भी गप्प ही है ।

ईसाई कहते हैं कि यीशु प्रभु थे,  इन पर विश्वास करने से मुक्ति मिलेगी । परन्तु यह बात एकदम भ्रम पूर्ण है । वह मृत्यु से पूर्व दुःखी हुआ था इसलिए वह सच्चिदानन्दस्वरूप न था। अपने कार्यों के लिए 12 शिष्यों से सहायता लेने के कारण वह सर्वशक्तिमान नहीं था। वह न्यायकारी न था क्योंकि अंजीर के पेड़ को शुष्क हो जाने का श्राप दिया ।

बाईबिल में उसे मनुष्य का पुत्र कहा गया है। (मत्ती 9/6, 8/20, 10/23, 12/40, 17/21)

उसे यूसुफ बढ़ई का पुत्र कहा गया है। (मत्ती 13/55, लूका 3/23, यूहन्ना 1/45, मरकुस 6/3 आदि)

ईसाइयों का यह दावा ही भ्रमपूर्ण है कि यीशु परमात्मा का इकलौता पुत्र था, क्योंकि बाईबिल में अन्य लोगों को पुत्र कहा गया है । यथा यहोवा ने इस्त्रायल को अपना ज्येष्ठ पुत्र कहा है। दाऊद बादशाह को खुदा का पहिलौठा पुत्र कहा गया है। (भजन संहिता 89/26-27) 

यीशु का उपदेश भी विचित्र था। उसने स्पष्ट कहा है कि- 'मैं पृथ्वी पर मिलाप कराने नहीं वरन् तलवार चलवाने आया हूँ ।" "मैं पृथ्वी पर आग लगाने आया हूँ ।'

अपने शिष्यों को उपदेश देता था कि अपने कपड़े विक्रय करके तलवार क्रय करो।  यरूशलेम के मन्दिर में उसने निर्दोष पशुओं को पीटा जिससे वह अहिंसक नहीं, वरन् निर्दयी प्रकट होता है। यीशु का यह उपदेश कि कोई तेरे दाहिने गाल में थप्पड़ मारे, तो उसकी ओर दूसरा भी फेर दो, केवल प्रदर्शन मात्र था। उसने कहा था कि "मेरे पीछे चले पकड़ने वाले बनाऊँगा ।" इससे स्पष्ट प्रकट होता है कि यीशु ने मनुष्यों को फँसाने के लिए मत चलाया था । उनके अनुयायी पवित्र भारतवर्ष में अपने जाल में मनुष्यों को फँसा-फँसा कर ईसाई बनाते हैं।

 यीशु का गुरु, वपतिस्मा देने वाला 'यूहन्ना' था जोवनमधु और टिड्डियों का भोजन करता था । उसने यीशु को बपतिस्मा देते हुए भविष्यवाणी की थी"-मैं तो पानी से तुम्हें मन फिराव का बपतिस्मा देता हूँ, परन्तु मेरे जो बाद आने वाला है, वह मुझसे शक्तिशाली है; मैं उसकी जूती उठाने के योग्य नहीं, वह तुम्हें पवित्र आत्मा और आग से बपतिस्मा देगा।..." (मत्ती 3/11, लूका 3/16, मरकुस 1/7-8)

आज तक किसी भी पादरी ने आग से वपतिस्मा नहीं दिया, वरन् सभी पानी से ही वपतिस्मा देते रहे । आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द जी आग के सामने बैठा कर शुद्धि करके वैदिक धर्म में दीक्षित करते थे। संभवत: ईसा के दीक्षा गुरु का निर्देश महर्षि दयानन्द जी की ही ओर हो । यीशु ब्रह्मचारी था पर उसका सम्बन्ध महिलाओं से भी था। मरियम नामक एक महिला ने यीशु पर इत्र डाल कर उसके पात्रों को अपने बालों से पोंछा था।'गलील' में बहुत सी स्त्रियाँ उसकी सेवा करती थीं । ब्रह्मचारी जी  के स्त्रियों से सम्पर्क करना उसे गर्त में गिरा देता है।

किसी के विवाह में शराब घटने पर यीशु ने छः मटकों में शराब बनाकर सबको पिलवाया। उसका यह कार्य अनुचित था बाईबिल के कई स्थलों में शराब पीना बुरा कहा गया है | (नीतिवचन 21/17,  यशायाह 28/7)

बाईबिल के हिन्दी अनुवाद में शराब के स्थान पर दाखरस लिखा गया है, पर दाखरस भी शराब ही है ।"(ईसाई मत का मासिक पत्र "जीवन का पानी" कानपुर, वर्ष 3, नवम्बर 1950 ई०, अङ्क 11, पृ० 11 में लिखा है - "शराब, जिसे हम कई नामों से पुकारते हैं यानी ब्राँडी, वाईन या दाखरस इत्यादि ।)

यीशु ने अपने शिष्यों से गदही को चोरवाया था, जिसका वर्णन करते हुए लूका 19/29–35 और मरकुश 11/1-7 में एक जानवर, परन्तु मत्ती 21/1–7 में दो जानवरों का उल्लेख करता है | यह परस्पर विरोध क्यों ?

यीशु ने स्वयं गधे के बच्चे की चोरी की। क्या ईश्वर पुत्र का कार्य चोरी करना है ?

यीशु के चमत्कारिक कार्य भी जगत् को भ्रम में डालने वाले हैं । लंगड़े कोढ़ी तथा अन्य बीमारियों को चंगा करने का जो वर्णन है वह अतिशयोक्ति ही है । यदि पीयूषपाणि माना जाय तो ये बातें संभव हो सकती हैं परन्तु बाइबिल में इसका कोई उल्लेख नहीं है। 

मत्ती 9/27-31 में अंधों की संख्या दो और मरकुस 8/22-25 तथा लुका 18/38-43 में एक अंधा लिखता है इससे चमत्कार की बात गप्प ही प्रतीत होती है। 

- डीन फरार व केनन माजले नामक ईसाई विद्वान् चमत्कारों को मिथ्या बतलाते हैं। (क्रिश्चियनीटी इन इण्डिया" पृष्ठ 52, सन् 1941 ई० प्रथम संस्करण, प्रयाग )

ईसा का उपदेश है  -और विश्वास करने वालों में ये चिन्ह होंगे कि वे मेरे नाम से दुष्टात्माओं को निकालेंगे।

18 नई नई भाषा बोलेंगे, सांपों को उठा लेंगे, और यदि वे नाशक वस्तु भी पी जांए तौभी उन की कुछ हानि न होगी, वे बीमारों पर हाथ रखेंगे, और वे चंगे हो जाएंगे।( मरकुस 16/17-18) 

आज तक विश्व का कोई भी पादरी इन उपदेशों को सत्य नहीं प्रमाणित कर सका। क्या कोई पादरी काला साँप उठा सकता है ? विष खा सकता है और टीबी के रोगियों पर हाथ रख कर चंगा कर सकता है? त्रिकाल में भी कोई पादरी इन कार्यों को नहीं कर सकता ।

ईसा मुक्तिदाता भी न था जैसा कि ईसाई मानते है । बाईबिल में स्पष्ट लिखा है - वह हर एक को उसके कामों के अनुसार बदला देगा।

जो सुकर्म में स्थिर रहकर महिमा, और आदर, और अमरता की खोज में है, उन्हें वह अनन्त जीवन देगा।- रोमियो 2/6-7 

 हर जब सबको अपने कर्मों के अनुसार ही फल मिलेगा। - मत्ती 16/27 

 जब सबको अपने कर्मों के अनुसार ही फल मिलेगा तो ईसा को मुक्तिदाता कहना व्यर्थ है। 

ईमाको प्राणदण्ड अत्यन्त नृशंसता पूर्ण दिया गया था। परन्तु ईसा का भी दोष था, क्योंकि ईश्वर का न कोई पुत्र न कोई उसका पिता है । यदि ईसा परमेश्वर का पुत्र होता तो वह उसे बचाता । ईसा का मृत्यु से तीन दिन के बाद जीवित होना नितान्त गप्प है। (पं० गंगाप्रसाद  उपाध्याय कृत "खुदा का बेटा" पृष्ठ 14, पं० नरदेव शास्त्री, वेदतीर्थ कृत "आर्य समाज का इतिहास" प्रथम भाग, पृष्ठ 214, श्री रामचन्द्र प्रसाद जी वकील कृत " ईसाई सिद्धान्त दर्पण" पृष्ठ 77, द्वितीय संस्करण सन् 1928।)

यीशु का जीवन रहस्यमय था । वह 12 वर्ष की आयु में यरूशलम के मन्दिर में सो गया और 30 वर्ष की आयु से उपदेश देने लगा । 18 वर्ष के विषय में बाईबिल में कोई चर्चा नहीं है । वह इतने वर्षों तक भारतवर्ष में रहा।

नोटिव्हीच ने ईसा के सम्बन्ध में "द अननोन लाइफ आफ क्राइस्ट (The Unknown life of Christ ) नामक पुस्तक लिखी थी। जिसके पांचवें अध्याय में उसने   लिखा हैः

"परमात्मा से भाग्यशाली बनाया हुआ युवा ईसा चौदह वर्ष की अवस्था ,में सिंधु नदी के पार आया। वहाँ स्वयं आर्यों के बीच में निवास किया। वह जगन्नाथ और बनारस गया, जहाँ के शुक्ल ब्राह्मण पुरोहितों ने उसका स्वागत किया और उसको वेदों को पढ़ना सिखाया। "

ईसा भारत का ही शिष्य था और उस पर बौद्ध मत का प्रभाव था ।... (श्री गंगा प्रसाद जी ए० ए० कृत "दी फाउन्टेन हेड ऑफ रेलीजन' पृ० 25 से 36)।

- पं० विश्वेश्वर जी सि० शिरोमणि (महात्मा ईसा " प्रथम संस्करण, पृष्ठ 85-86), श्री पं० नरदेव शास्त्री (आर्य समाज का इतिहास "प्रथम भाग, प्रथमावृत्ति, पृष्ठ 201 से 217 तक) , श्री सावलिया बिहारी वर्मा एम० ए०विश्व धर्म परिचय, पृष्ठ 404 , प्रथम संस्करण पटना )  प्रभृति विद्वान् भी नोटोविश के मत का समर्थन करते हैं।  लोकमान्य पं० बाल गंगाधर तिलक ने अपनी श्री मदभगवद्गीता रहस्य  भाग 7, पृष्ठ 463 में स्पष्ट लिखा है कि ईसा भारत में आया था।





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