ऋषि दयानन्द और ब्रह्मचर्य
- पं राजेंदर जी अतरौली
(सन्दर्भ ग्रन्थ -ऋषि के पुण्य संस्मरण, प्रस्तुतकर्ता - #डॉ_विवेक_आर्य)
ऋषि दयानन्द के अद्भुत् व्यक्तित्व का एक रहस्य उनका अखण्ड ब्रह्मचर्य था । पाठक देखेंगे कि उन्होंने अपने बाल्यकाल से ही वैवाहिक बन्धन का प्रतिरोध करके ब्रह्मचर्य का जो पावन व्रत धारण किया था, उसे मृत्यु पर्यन्त निभाहा । वह स्त्रियों को मातृ-शक्ति कहकर यद्यपि पूर्ण आदर करते थे तथापि यदाकदा उनसे बातचीत के समय अपनी दृष्टि नीची रखते थे । जोधपुर निवासकाल में पहरेदारों की भूल से महारानी की कुछ दासियों के एकान्त में आजाने पर उन्होंने जो रोष प्रकट किया उससे स्पष्ट है कि उन्होंने ब्रह्मचर्य रक्षार्थं कितने कठोर नियम बनाये हुए थे।
शारीरिक बल यद्यपि ब्रह्मचर्य व्रत का एक स्वाभाविक परिणाम है तथापि वह नित्य नियमित रूप से लम्बे भ्रमण तथा व्यायाम का सेवन करते थे। उनके शारीरिक बल का एक अन्य रहस्य स्वल्पाहार और संयमित जीवन भी था । अच्छे-2 पहलवानों की उनकी शारीरिक बल परीक्षा में पराजय, भरी बैलगाड़ी का अकेले खींचकर कीचड़ से निकाल बाहर कर देना, युद्धरत सांडों के सींग पकड़कर उन्हें हटा देना आदि अनेक ऐसी घटनायें हैं। जिन्हें पाठक इस अध्याय में पढ़ेंगे। उनके सम्बन्ध में यहाँ कुछ लिखना पृष्ठ - पेषण होगा । इस प्रकार ऋषि दयानन्द का जीवन एकांगी न होकर सर्वाङ्गपूर्ण था।
ऋषि दयानन्द के जीवन से कुछ अनमोल प्रेरक प्रसंग
1. जहाँगीराबाद ( बुलन्दशहर) निवासी ओंकारदास एक समृद्ध और व्यायामशील व्यक्ति था। मेले में आकर वह भी स्वामीजी का भक्त बन गया । एक दिन चरण दबाने के बहाने उसने स्वामीजी के बल की परीक्षा की। उसने देखा स्वामीजी के पैर लाहे को लाट हैं । पूरा बल लगाकर भी वह अपनी अङ्गलियां पैरों में न धँसा सका ।
2. स्वामी जी महाराज ने काशी में मुसलमानी मत का भी खण्डन निया । इससे मुसलमान चिढ़ गये । एक दिन वे गङ्गा तट पर अकेले थे । मुसलमानों को एक टोली उधर आ निकला । उसमें से दो व्यक्तियों ने महाराज की बगलों में हाथ देकर उन्हें अधर उठा लिया और गङ्गा में फेंकना चाहा । स्वामी जी उनका दुष्ट सङ्कल्प ताड़ गये । उन्होंने दोनों को अपनी भुजाओं में कसकर गङ्गा में छलांग मारी और फिर स्वयं डुबकी लगाकर दूसरे पार जा निकले । वे दोनों वहीं डुबकी खाते छोड़ दिये । |
3. कासगञ्ज (एटा) में एक दिन गुलजारीलाल खत्री को वाटिका के सामने दो सांड परस्पर बल परीक्षा कर रहे थे । दोनों ओर से मार्ग अवरुद्ध हो गया था। स्वामी जी कुछ विद्यार्थियों सहित उधर से जा रहे थे। उन्हें ज्ञात हुआ कि यह द्वन्द युद्ध लगभग दो घण्टों से चल रहा है। स्वामी जी ने उन रणरत सांडो के समीप जा, एक-एक सींग पकड़ कर इतना बलपूर्वक धक्का दिया कि दोनों का मुँह आकाश की ओर उठ गया और इस प्रकार वे एक-दूसरे से अलग होकर मार्ग छोड़ कर चल दिये।
4. मथुरा में स्वामी जी महाराज एक दिन व्याख्यान दे रहे थे । कुछ धूर्तों ने एक कलवार और एक कसाई को भेजा । वे शोर मचाकर अपनी शराब और माँस के दाम मांगने लगे । स्वामी जी ने हंसकर कहा - " व्याख्यान के पश्चात् तुम्हारा हिसाब भी हो जायेगा ।' व्याख्यान के पश्चात् स्वामी जी ने एक-एक हाथ में दोनों के सिर पकड़ कर भिड़ा दिये । वे घबरा उठे और सच सच कह दिया कि किसने उन्हें बहकाकर भेजा था । दयालु दयानन्द ने उन्हें तुरन्त क्षमा कर दिया । इन धूर्तों ने बताया कि मांगीलाल नाम के मुनीम की यह धूर्तता थी । कहते हैं कि एक दुराचारिणी स्त्री को भी इस प्रकार सिखा कर सभा में भेजा गया । परन्तु सभा में आकर स्वामी जी के तेज से वह ऐसी प्रभावित हुई कि उसका सारा पाप जाता रहा। ऐसे महात्मा को कलंकित करने के विचार को मन में लाना भी पाप है, ऐसा सोच वह इतनो दुखी हुई कि क्षमा माँगे बिना उसे शांति न हुई ।
5. एक बार एक स्त्री आकर स्वामी जी महाराज से बात करने लगी । स्वामीजी नीचे दृष्टि किये बातें करते रहे । वह कभी स्त्रियों के मुख की ओर देखकर बातें नहीं करते थे।
6. सूरत निकटवर्तीय ग्रामवासियों के आमन्त्रण पर स्वामी जी वहाँ गये और उनको उपदेश देकर कृतार्थ किया। स्वामी जी मार्ग में इतने वेग से चलते थे कि अन्य साथी तो क्या, दो कांस्टेबिल भी इनके साथ नहीं चल पाते थे । स्वामीजी बार-बार आगे निकल जाते थे और लोगों की प्रतीक्षा करने के लिए उन्हें खड़ा होना पड़ता था । स्वामीजी ने कांस्टेबिलों से कहा कि तुम लोग सिपाही होकर भी हमारे साथ नहीं चल सकते ।
7. मेरठ की घटना है, एक रात्रि को 9 बजे बैनीप्रसाद और कुछ मित्रों ने महाराज की सेवा में उपस्थित होकर कहा कि हम आपके पैर दबाना चाहते हैं । महाराज जान गये कि वह लोग उनके बल की परीक्षा करना चाहते हैं। अतः उन्होंने कहा कि पैर तो पीछे दबाना पहले हमारे पैर को उठाओ । यह कहकर उन्होंने अपने पैर फैला दिये। युवकों ने बहुतेरा बल लगाया परन्तु पैर को न उठा सके ।
8. स्वामीजी ने एक बार कहा कि आप इस समय आश्चर्य करते हैं कि मैं इतनी दूर तक वायु सेवन के लिये जाता हूँ, परन्तु अवधूत दशा में चालीस चालीस मील चलना मेरे लिये कोई बात न थी । मैं एक बार गङ्गोत्री से चलकर गङ्गासागर तक और एक बार गङ्गोत्री से रामेश्वर तक चला था। मैं निरतर कई दिन तक मध्याह्न तप्त रेणु में पड़ा रहा हूँ और हिमाच्छादित पर्वतों में और गङ्गातट पर नग्न और निराहार सोया हूं ।
9. स्वामीजी बहुत जल्दी चलते थे । वह आगरा में जब प्रथम बार आकर सेठ गुल्लामल के बाग में ठहरे थे, तो एक से अधिक बार आगरा से मथुरा 18 कोस (36 मील तीन घण्टे में पहुँच गये थे।
10. स्वामीजी महाराज का यह नियम था कि मध्याह्न के भोजन के पश्चात् 16 मिनट ग्रीष्मकाल में और 18 मिनिट शीतकाल में निद्रा लिया करते थे । निद्रा पर उनका इतना अधिकार था कि लेटने के कुछ क्षण पश्चात् ही वह गाढ़ निद्रा में सो जाते थे और घड़ी की सुई 16 मिनिट पर पहुँचते ही मिनिट में अङ्गड़ाई लेकर उठ बैठते थे। और दो-तीन मिनिट में हाथ मुंह धोकर वेद भाष्य के कार्य में लग जाते थे। लोग महाराज के इस नियत समय पर शैया त्याग से परिचित हो गये थे और वह घड़ी की सुई 16 मिनिट पर पहुँचते ही मुँह हाथ धुलाने का जल ठीक करके रख देते थे। रात्रि को 10 का घण्टा बजते ही शैया पर लेट जाते थे और लेटते हा सो जाते। महाराज का निद्रा पर यह अधिकार देखकर सबको आश्चर्य होता था।
11. जोधपुर में जहाँ स्वामीजी ठहरे हुए थे उस बाग के द्वार के ऊपर कमरे में कोई पण्डित जी ठहरे हुए थे । उनके लिये बड़ो महारानी जी ने कुछ फल आदि चार-पाँच सेविकाओं के हाथ भेजे थे। वे जब द्वार पर आई और पण्डित जी को पूछा तो सेवकों ने यह समझ कर कि वह स्वामी जी को पूछती हैं, उन्हें बाग के बीच बगले पर भेज दिया। वहाँ पहुच कर उन्होंने पहरेदारों से पूछा। उन्होंने भी यहो समझा कि पण्डित जी से उनका अभिप्राय स्वामी जी से है और कह दिया कि ऊपर हैं। व ऊपर चली गई। उस समय महाराज शैया पर लेटे हुए थे। उन्होंने जो करवट ली तो बरामदे में वह स्त्रियां खड़ी दिखाई दीं। उन्हें देखकर वह सहसा उठकर जोर से चिल्लाये। चारण नवलदान साथ ही कोठरी में लेटा हुआ था। वह यह सुन कर घबरा गया, उसे भय हुआ कि किसो घातक ने महाराज पर आक्रमण किया है। वह भागा हुआ स्वामीजी के कमरे में गया। महाराज ने रोषपूर्ण शब्दों में कहा कि कैसा अन्याय है कि महाराज स्त्रियां हमारे सामने आ गई। यह तुम्हारे प्रबन्ध की त्रुटि है, इन्हें बाहर करो ।
12 . जालंधर में सरदार विक्रमसिंह ने स्वामी जी महाराज से कहा कि सुनते हैं ब्रह्मचर्य से बहुत बल बढता है। स्वामी जी ने उत्तर दिया कि यह सत्य हैं और शास्त्रों में भी ऐसा ही कहा गया है । वह बोले कि आप भी ब्रह्मचारी हैं, परन्तु आप में बल प्रतीत नहीं होता। महाराज इस समय तो चुप रहे किन्तु एक दिन जब सरदार विक्रमसिंह अपनी दो घोड़ों की गाड़ी पर सवार हुए तो स्वामी जी ने चुपके से उनकी गाड़ी का पिछला पहिया पकड़ लिया। कोचवान के चाबुक मारने पर भी जब घोड़े आगे न बढ़े तो कोचवान और सरदार ने पीछे मुड़कर देखा कि स्वामीजी ने गाड़ी का पहिया पकड़ा हुआ है । स्वामी जी बोले मैंने यह ब्रह्मचर्य - बल का आपको परिचय दिया है।
13. बाबू अमृतलाल बांकीपुर निवासी ने बताया कि एक बार हम बनारस जा रहे थे । हमने देखा कि स्वामीजी लंगोट बांधे सड़क दाऊदनगर पर जा रहे हैं । वहाँ सड़क के ऊपर कीचड़ थी और एक गाड़ी के बैल उसमें फंस गये थे । स्वामी जी ने देखा कि गाड़ीवान बैलों को मार रहा है किन्तु वे फिर भी नहीं चलते। उन्होंने जाकर बैलों को खोल दिया और गाड़ी को खींचकर पश्चिम की और कीचड़ से बाहर पहुँचा दिया । हम लोग यह देखकर स्वामी जी के अपूर्व बल पर आश्चर्य करने लगे । उस समय स्वामोजो काशी या दाऊदनगर को जा रहे थे।
14. गुजराँवाला में एक दिन व्याख्यान में स्वामी जी ने कहा कि हरीसिंह नलवा बड़ा शुरवीर हुआ है। इसका कारण सम्भवतः यह प्रतीत होता है वह 25-26 वर्ष तक ब्रह्मचारी रहा है। मेरी अवस्था इस समय 51 वर्ष है और मुझे विश्वास है कि मेरा भी ब्रह्मचर्य अखंडित है । जिसे अपनी शक्ति पर अभिमान हो वह आगे आये मैं उसका हाथ पकड़ता हूँ और वह उसे छुड़ा ले अथवा मैं अपना हाथ खड़ा करता हूँ, कोई उसे नीचे करे । सभा में लगभग पांचसौ व्यक्ति उपस्थित थे और कई कश्मीरी पहलवान भी थे किन्तु आगे आने का किसी साहस न हुआ।
15 . रामलाल (कायमगंज ) से मुरादाबाद में स्वामीजी ने कहा कि मुझे कई बार विष दिया गया है । यद्यपि मैंने उसे वमन और वस्ती करके निकाल दिया परन्तु फिर भी उसका कुछ अंश रक्त में रह हो गया। इसी से मेरा स्वास्थ्य बिगड़ गया, अन्यथा मेरी आयु सौ वर्ष से अधिक होती और अब शरीर के अधिक रहने की आशा नहीं है।
16. श्री स्वामी जी महाराज को मृत्यु से कुछ घण्टे पूर्व अजमेर के सिविल सरजन डाक्टर न्यूमैंन ने जब महाराज को आकर देखा तो आश्चर्य से कहने लगे कि रोगी अत्यन्त विशालकाय, वीर और रोग को सहने वाला है। इसकी आकृति से ज्ञात होता है कि यद्यपि रोग असह्य है, परन्तु यह अपने को दुःखी नही मानता । यही है जो ऐसे उग्र रोग में भी अपने को संभाल रहा है और अभी तक जीवित है । इस पर डाक्टर लक्ष्मणदास ने उनसे कहा कि यह स्वामी दयानन्द सस्वती हैं जिनका नाम आपने सम्भवतः सुना होगा। डाक्टर न्यूमैंन ने यह बात सुनकर शोक प्रकट किया और महाराज के धैर्य को प्रशंसा की।
बोलों आदित्य ब्रह्मचारी देव दयानन्द की जय।
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