Thursday, September 26, 2019

सुचना तंत्र: क्रांति अथवा बंधन



सुचना तंत्र: क्रांति अथवा बंधन

 डॉ विवेक आर्य
शिशु रोग विशेषज्ञ, दिल्ली

इस लेख को पढ़ने वाले अधिकांश पाठक 1990 के दशक के पश्चात पैदा हुए हैं। इसलिए उन्होंने अपने जन्म से ही अपने घरों में टेलीविज़न, इंटरनेट, मोबाइल फ़ोन आदि देखा हैं। उन्होंने वह काल नहीं देखा जब घरों में यदा कदा टीवी खोला जाता था, यदा कड़ा फ़ोन की घंटी बजती थी। बिजली जाने पर घर के सदस्य एक दीपक या मोमबत्ती या लालटेन लगाकर इकट्ठे बैठकर वार्तालाप करते थे। उस काल में जीवन में अद्भुत शांति और संतोष था। शारीरिक परिश्रम अधिक और मानसिक शांति उससे भी अधिक थी। समय कैसे बदला देखिये।

1980 के दशक में ब्लैक एंड वाइट टीवी में शुक्रवार को चित्रहार एवं रविवार को हिंदी मूवी मात्र लोग देखते थे। दशक के अंत में रामायण ने तो समस्त देश को रोक दिया। गलियां कर्फ्यू के समान सुनी होती थी। रंगीन टीवी पर रामायण एक चमत्कार सा था। बुनियाद, फौजी , रजनी जैसे दूरदर्शन के कार्यक्रम और दैनिक समाचारों ने रेडियो के एकछत्र राज्य को चुनौती दे दी थी।

1990 के दशक में महाभारत भी रामायण के समान प्रसिद्द हुई। बाद में चाणक्य ने अपनी अमित छाप छोड़ी। केबल टीवी का आगमन हुआ। लोग टीवी से चिपकने लगे। क्रिकेट के लम्बे लम्बे मैच लोग रातों को जाग जाग कर देखने लगे। यह आपकी दिनचर्या में बदलाव का प्रारम्भ था।

2000 आते आते मोबाइल फ़ोन पर बात करना और sms सन्देश भेजना प्रचलित हो गया। इंटरनेट की क्रांति ही तो युवा घंटों जग कर yahoo chat करने लगे ईमेल भेजने लगे। मोबाइल पर बातें करने लगे। पड़ोसी से बात करना शान के विरुद्ध हो गया। टीवी पर सास-बहु और धार्मिक सीरियल और बच्चों के कार्टून की भरमार आ गई। घर का हर सदस्य टीवी या मोबाइल से चिपका रहने लग गया।  इससे एक प्राकृतिक दुनिया में उनका प्रवेश हो रहा था। परिवार के सदस्यों का एक साथ बैठना, संवाद करना, खेल-कूद करना, अच्छी पुस्तकें पढ़ना कम होता गया। दूरियां बढ़ती गई। yahoo के पश्चात सोशल मीडिया के माध्यम से orkut आया। जिसने युवाओं का भरपूर समय खींच लिया। कोई खाली ही नहीं रहता था। जब देखों कंप्यूटर से चिपके रहने लगे। कभी क्रिकेट, कभी बॉलीवुड, हॉलीवुड की फिल्में, कभी कंप्यूटर, कभी मोबाइल। अरे इस दिमाग को शांति थी ही नहीं। थी तो बस उत्तेजना और अतिशीघ्रता। इस दशक के अंत आते आते 
एक सुचना तंत्र का जाल आपके चारों ओर बुना जा चूका था। आप एक प्रकार से इसके जाल में आ चुके थे।

2010 के दशक में orkut का स्थान फेसबुक और whatsapp ने ले लिया। android फ़ोन और फ्री इंटरनेट ने मनुष्य के मस्तिष्क को ऐसा गुलाम बना लिया कि वह उपभोक्ता बाजार के लिए एक उत्पाद खपाने का माध्यम मात्र बन कर रह गया। खान-पान, कपड़े-जूते, मेकअप का सामान, वाहन, घर का आम सामान बेचने के लिए मानव को गुलाम बना दिया गया। क्रिकेट को एक फ़िल्म की भांति T 20 में बदल दिया गया। फिल्मों में द्वीअर्थ और नंगनता और चरित्रहीनता को बढ़ा दिया गया। अंग्रेजी में अश्लील नोवल पुस्तक अथवा kindle पर पढ़ने में रातें खपा दी गई। यूट्यूब पर वीडियो देखने में रात के 1-2 कब बज गए। पता ही नहीं चला। एक सर्वे के अनुसार सनी लियॉन देश में सबसे अधिक मोबाइल द्वारा खोजी जाने वाली हस्ती बन गई। छोटे छोटे बच्चें मोबाइल पर कार्टून देखते रह गए। खेलना ही भूल गए। यह इतना मीठा जहर था, जो इतने धीमे धीमे मगर इतनी तीव्रता से असर करता गया कि आप कब मानसिक गुलाम बन गए। आपको ज्ञात ही नहीं हुआ। इसकी अगली सीढ़ी तो उससे भी अधिक आक्रामक है। Amazon, Netflix  जैसी अफीम से भी अधिक लत देने वाला विष का कोई सानी नहीं। रात को आठ बजे इन्हें देखना शुरू करते हैं। रात के 3-4 बजे तक पूरी श्रृंखला देखते हैं। इसके कार्यक्रमों में हिंसा, मार-धाड़, आक्रोश, क्रोध, अश्लीलता, नंग्नता और न जाने क्या क्या परोसा जा रहा हैं। इससे कोई बच गया तो tiktok और Pubg के चक्कर में आ जायेगा। अरे कहाँ तक बचोंगे। अपने चारों और देखिये। आप केवल 30 वर्षों में एक बनावटी दुनिया के गुलाम बन चुकें हैं। पैसा कमाना और इन साधनों में लिप्त होकर अपने आपको मानसिक गुलाम बना देना।  यही जीवन का अंग बन गया हैं।

आईये इस जेल से बाहर अपने आपको निकाले।

मैं आपको कुछ महत्वपूर्ण सुझाव देता हूँ। इनका प्रयोग कर आप इस अदृश्य जेल से बाहर निकल सकते हैं।

1. बच्चों को माता-पिता का android फ़ोन पर कार्टून देखने के लिए न दे।
2. टीवी पर कार्टून चैनल हमेशा के लिए हटा दे।
3. अपने फ़ोन पर अलार्म लगाकर फेसबुक और व्हाट्सप्प को एक-दिन में 30 मिनट से अधिक न देखने का निश्चय कीजिये।
4. प्रात: उठने एवं सोते समय मोबाइल को न देखे।
5. यूट्यूब, tiktok,  Pubg, Amazon, Netflix को अपने जीवन में से बाहर निकाल दे।
6.  छात्रावस्था में 12 कक्षा तक के विद्यार्थियों को सामान्य फ़ोन ही दीजिये। android और इंटरनेट वाला फ़ोन मत दीजिये।
7. अपनी दिनचर्या में योग, प्राणायाम एवं ध्यान, ओमकार जाप को अनिवार्य  स्थान दीजिये।
8. कोई एक खेल जिससे आपका मस्तिष्क केंद्रित हो एवं झुंझलाहट दूर हो। उसे अपने जीवन में अपनाये।
9.  अच्छी धार्मिक पुस्तकों को पढ़ने की आदत डाले। इससे आपकी स्वाध्याय में रूचि बढ़ेगी। शुद्ध
10 . सप्ताह में प्राकृतिक स्थान जहाँ हरियाली हो उसमें अवश्य जाये। सिनेमा/होटल के स्थान पर परिवार को पार्क, बाग़ आदि स्थानों पर लेकर जाये।
11. निरामिष भोजन अर्थात शाकाहार खाये। इससे चित शांत और मन प्रसन्न रहता हैं।
12. रात के खाने और सोने में 2 घंटे का अंतर कम से कम रखे। ताकि सोते समय तक पेट हल्का हो जाये।
13. एक दिन में 5 अलग अलग रंगों के मौसमी फल-सब्जी खाये।  इससे आपके शरीर को आवश्यक पोषण मिलेगा जो आपकी प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाएगा।
14. छात्रावस्था में 12 कक्षा तक के विद्यार्थियों को सामान्य फ़ोन ही दीजिये। android और इंटरनेट वाला फ़ोन मत दीजिये।
15. जल्दी सोना, जल्दी उठने के प्राकृतिक सिद्धांत का पालन कीजिये।
16 . मनुष्य जन्म देने के लिए ईश्वर  को धन्यवाद दीजिये। सदा सत्कर्म करने और अन्यों की सेवा करने का संकल्प लीजिये। 

सुचना तंत्र के बंधन  के लिए यह सुझाव बहुत कारगर है।  एक बार अपना कर तो देखें।  

Sunday, September 22, 2019

स्वामी दयानन्द सरस्वती को वेदविषयक ज्ञान कैसे हुआ?

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स्वामी दयानन्द सरस्वती को वेदविषयक ज्ञान कैसे हुआ?◼️
✍🏻 लेखक - पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’

स्वामी दयानन्द सरस्वती के समय वेदविषयक प्रचलित मान्यता के परिप्रेक्ष्य में यह जानना आवश्यक है कि उन्होंने वेदों का जो स्वरूप जनता एवं विद्वानों के समक्ष उपस्थापित किया, उसका परिज्ञान उन्हें कहाँ से और कैसे प्राप्त हुआ ? बाल्यावस्था में उन्होंने घर में केवल शुक्लयजुर्वेद की माध्यन्दिनसंहिता कण्ठस्थ की थी। यह बात उन्होंने स्वयं लिखित एवं कथित आत्मवृत्त में कही है। इससे अन्यत्र गृह-परित्याग के पश्चात् भी एक-दो स्थानों पर वेद पढ़ने का संकेत किया है, परन्तु उससे हम किसी विशेष परिणाम पर नहीं पहुंच सकते।

गुरुवर स्वामी विरजानन्द सरस्वती से उन्होंने केवल पाणिनीय व्याकरण शास्त्र का ही अध्ययन किया था। इससे अधिक उनके जीवन चरितों से कुछ नहीं जाना जाता । श्री स्वामी विरजानन्द सरस्वती की प्रसिद्धि भी केवल वैयाकरण रूप में ही थी। हाँ, उन्हें जीवन के अन्तिम भाग में आर्षग्रन्थों और अनार्ष ग्रन्थों के मौलिक भेद का परिज्ञान हो गया था। इसलिये उन्होंने सिद्धान्तकौमुदी शेखर मनोरमा आदि का पठन पाठन बन्द करके अष्टाध्यायी महाभाष्य का पठन-पाठन प्रारम्भ कर दिया था। इसी काल में स्वामी दयानन्द सरस्वती अध्ययन के लिये उनके चरणों में उपस्थित हुए थे और गुरुमुख से महाभाष्यान्त पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन किया था। इसलिये स्वामी दयानन्द सरस्वती के हृदय में आर्षग्रन्थों के प्रति जो असीम श्रद्धा और मानुषग्रन्थों के प्रति जो प्रतिक्रिया देखने में आती है, उसका उत्स स्वामी विरजानन्द सरस्वती की शिक्षा में ही मूलरूप से निहित है, परन्तु इसके विशदीकरण में स्वामी दयानन्द सरस्वती का अपना प्रमुख योगदान रहा है। उन्होंने अपने जीवन में सहस्रों ग्रन्थों का अध्ययन मनन और परीक्षण के अनन्तर भ्रमोच्छेदन में लिखा है कि मैं लगभग तीन सहस्र ग्रन्थों को प्रामाणिक मानता हूँ।

यह सब कुछ होने पर भी स्वामी दयानन्द सरस्वती को वेद के उस स्वरूप का परिज्ञान कहाँ से हुआ, जिसे वे ताल ठोककर सबके सम्मुख उपस्थापित करते थे, यह जिज्ञासा का विषय बना ही रहता है।

मैं इस गुत्थी को सुलझाने के लिये वर्षों से प्रयत्नशील रहा हूं, क्योंकि मेरी दृष्टि में स्वामी दयानन्द सरस्वती की देश जाति और समाज को उक्त वेद-विषयक देन सर्वोपरि है और इसी में निहित है उनके वेदोद्धार के कार्य की महत्ता एवं विलक्षणता ।

मैं अपने अल्पज्ञान एवं अल्प स्वाध्याय से इस विषय में इतना तो अवश्य समझ पाया है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जब विशाल संस्कृत वाङ्मय का आलोडन किया, तब उन्हें यह तत्त्व तो अवश्य ज्ञात हो गया होगा कि संस्कृत वाङ्मय के विविध विद्याओं के आकर ग्रन्थ स्व-स्वविद्या का उद्गम वेद से ही वणित करते हैं। [द्र०-वैदिकसिद्धान्तमीमांसा में छपा 🔥'वेदानां महत्त्वं तत्प्रवारोपायाश्च' संस्क० २ पृष्ठ १-१० (संस्कृत), पृष्ठ ३३-३७ (हिन्दी)।] अत: वेद में उन समस्त विद्याओं का मूलरूप से वर्णन होना ही चाहिये। स्वायम्भुव मनुप्रोक्त आद्य समाजशास्त्ररूप मनुस्मृति में समस्त मानव समाज के वेदो दित कर्तव्याकर्तव्य का विधान किया है और भूतभव्य तथा वर्तमान में उत्पन्न हुई या उत्पन्न होनेवाली समस्त समस्याओं का समाधान वेद ही कर सकता है,[🔥भूतं भव्यं भविष्यं च सर्व वेदात् प्रसिद्ध्यति। मनु० १२।१७ तथा इसी अध्याय के श्लोक ९४, ९९, १००] ऐसा उल्लेख मिलता है। इससे सम्पूर्ण मनुष्यव्यवहारोपयोगी कार्यों की समस्त समस्याओं का समाधान वेद कर सकता है, का बोध भी हो गया होगा, परन्तु शब्दप्रमाण से विज्ञात वेद का स्वरूप वैसा ही है या नहीं, इसके निश्चय के लिये प्रमाणान्तर की अपेक्षा भी रहती ही है। इसका कारण यह है कि शास्त्रकारों का लेख वेद के प्रति अतिशय श्रद्धा के कारण अथवा स्वप्रतिपाद्य विषय की प्रामाणिकता दर्शाने के लिये भी हो सकता है।

अत: मेरी क्षुद्र बुद्धि में स्वामी दयानन्द सरस्वती को वेद का जो स्वरूप ज्ञात हुग्रा, उसका स्रोत कहीं बाहर नहीं, अपितु तत्स्थ (-उनके भीतर) ही होना चाहिये । क्योंकि ऊपर जिन शास्त्रों के आधार पर वेद के विशिष्ट स्वरूप की कल्पना की जा सकती है, वे शास्त्र तो शङ्कराचार्य और भट्टकुमारिल के समय न केवल विद्यमान थे अपितु वर्तमान काल की अपेक्षा अधिक पढ़े-पढ़ाये जाते थे। स्वामी शङ्कराचार्य प्रस्थानत्रयी (वेदान्त-उपनिषद्-गीता) तक ही सीमित रह गये, उन्होंने वेद के सम्बन्ध में न कुछ लिखा और न कहीं विचार ही प्रस्तुत किया। भट्टकुमारिल वैदिक कर्मकाण्ड में ही यावज्जीवन उलझे रहे।

मैं इस विषय में जो समझ पाया हूं, वह इस प्रकार है -

◼️१. वेद के स्व शब्दों में 🔥उतो त्वस्मै तन्वं विसले जायेव पत्य उशती सुवासा (ऋ० १०।७१।५)= कोई एक ऐसा वेदविद्या का अधिकारी पुरुष होता है, जिसके सम्मुख वेदवाक् स्वयं अपने स्वरूप को उसी प्रकार प्रकट कर देती है जैसे ऋतुकाल में पति की कामना करती हुई अच्छे वस्त्र पहने हुई पत्नी स्वपति के सम्मुख गोपनीयतम अङ्गों को भी उद्घाटित कर देती है।

◼️२-जिस अधिकारी पुरुष के प्रति वेदवाक स्वयं अपना स्वरूप उद्घाटित करती है, वह कौन हो सकता है ? इस विषय में शास्त्रकार कहते हैं -
🔥न ह्यष प्रत्यक्षमस्त्यनषेरतपसो वा।
अर्थात् वेद का प्रत्यक्ष उन्हीं को होता है, जो ऋषि और तपस्वी होते हैं।

◼️३-ऐसे ऋषिभूत एवं तपस्वी को वेद की प्राप्ति के लिये इधर-उधर भटकना नहीं पड़ता। वेदवाक् स्वयं उस हृदय में उपस्थित होकर अपने रहस्यों को उद्घाटित कर देती है

🔥अजान्ह वै पृश्नीस्तपस्यमानान्ब्रह्म स्वयंभ्वभ्यानर्षत त ऋषयोऽभवन्त दृषीणामूषित्वम्।
-तैत्तिरीय आरण्यक २९

🔥तद्यदेनांस्तपस्यमानान् ऋषीन् ब्रह्म स्वयमभ्यानर्षत।
[त ऋषयोऽभवन् तद् ऋषीणामृषित्वम् ।[१] -निरुक्त २।११
इसका भाव यह है कि जो ऋषिभूत व्यक्ति यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के लिये तपस्या करते हैं, उन्हें ब्रह्म (=वेद) स्वयं प्राप्त होता है । यही ऋषियों का ऋषित्व है।

[१. स्वामी दयानन्द को सर्वविध विपरीत परिस्थितियों में वेद के यथार्थ स्वरूप का बोध कैसे हुआ ? इस विषय में मेरे मन में वर्षों से शंका बनी हुई थी। गतमास (८-१७ अगस्त १९६०)नर्मदातीरस्थ अपनी बाल-लीला स्थली माहिष्मती (महेश्वर) की यात्रा के प्रसङ्ग में जब मैं आर्यसमाज मल्हारगंज, इन्दौर में ठहरा हुमा था, तब अचानक ११ अगस्त की रात्रि में यह ब्राह्मणवचन स्मृति पटल पर उभरा और मेरी वर्षों की शङ्का का समाधान हो गया।]

निरुक्त के उक्त वचन की व्याख्या में दुर्गाचार्य लिखता है -

🔥यद्यस्मादेनांस्तपस्यमानांस्तप्यमानान्ब्रह्म ऋग्यजुःसामाख्यं स्वयम्भु अकृतकमभ्यागच्छत्।[२] अनधीतमेव तत्त्वतो ददृशुस्तपो विशेषेण।
यद्वाऽदर्शयदास्मानमित्यर्थोऽत्र विवक्षितः ।
-निरुक्त श्लोकवार्तिक २।३।५९ पृष्ठ ३१४
[२. वेंकटेश्वर प्रेस में छपे निरुक्त में शिवदत्त दाधिमथ ने लिखा है "आविर्भूतमित्यर्थः"]

भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता (१७।१४-१६) में कायिक वाचिक एवं मानसिक त्रिविध तपों का वर्णन किया है। ये विविध तप निश्चय ही मानव जीवन को उन्नत बनाने हारे हैं परन्तु वेदज्ञान की प्राप्ति के साक्षात् प्रयोजक नहीं हैं।

निश्चय ही स्वामी दयानन्द सरस्वती ने गृह-त्याग के पश्चात् योग की प्राप्ति एवं सच्चे शिव के दर्शन के लिये कठोर कायिक वाचिक एवं मानसिक तपों से अपने शरीर वचन और मन को कुन्दन बना लिया था, द्वन्द्वातीत अवस्था को प्राप्त कर लिया था, परन्तु सद्गुरु अथवा यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के लिये वे वर्षों बीहड़ वनों, हिमाच्छादित पर्वतों, उनकी कन्दरामों तथा गङ्गा एवं नर्मदा[३] के तटों पर वर्षों भ्रमण करते रहे। नर्मदा के तट पर ही उन्हें स्वामी विरजानन्द जैसे सद्गुरु का परिचय प्राप्त हुआ । वहाँ से उन्होंने मथुरा पाकर स्वामी विरजानन्द सरस्वती से पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन किया, आर्ष-अनार्ष ग्रन्थों की भेदक कुजी प्राप्त की, परन्तु हम उन्हें सं० १९२४ के हरिद्वार के कुम्भ के पश्चात् पुनः सर्वविध परिग्रह से रहित केवल लंगोटी वस्त्रधारी के रूप में गङ्गा तट पर विचरते एवं तपस्या करते हुए देखते हैं। यह विचरण निधूत अवस्था में लगभग ८ वर्ष रहा।
[३. भारतीय परम्परा में प्रसिद्धि है कि ज्ञान की प्राप्ति के लिये गङ्गा की और मोक्ष की प्राप्ति के लिये नर्मदा की परिक्रमा करनी चाहिये।]

इसी निधूत अवस्था में विचरण करते हुए, उन्हें विविध शास्त्रों का अवलोकन एवं स्वाध्याय करता हुआ भी पाते हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती में यह स्वाध्याय की प्रवृत्ति हमें उनके जीवन के अन्त तक देखने को मिलती है। यद्यपि जीवन चरितों में इस विषय में विशेष उल्लेख नहीं मिलता, परन्तु यत्र-तत्र स्फूट प्रसङ्ग जीवन-चरितों में अवश्य उपलब्ध होते हैं । यथा -

बनेडा यात्रा (२ अक्टू० से २६ अक्टू० १८८१) में राजकीय पुस्तकालय से निघण्टु के पाठ मिलाने अथर्व के मन्त्रों पर स्वर लगाने आदि का वर्णन मिलता है। द्र० - लेखरामजी कृत ऋ० द० स० जीवन चरित, हिन्दी पृष्ठ ५९१ (प्रथम संस्करण) ।

हमारी दृष्टि में 'स्वाध्याय' ही एक ऐसा तप है, जो वेद के ज्ञान विज्ञान की प्राप्ति में साक्षात् संबद्ध हो सकता है। वैदिक वाङ्मय में 'स्वाध्याय' शब्द वेद के अध्ययन का वाचक है, ऐसा सभी विद्वान् मानते हैं। प्रतिपक्ष[४] में 'प्रवचन' शब्द का प्रयोग होने से स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं वेद का अध्ययन।
[४. 🔥स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् । ते० आर० ७।११।१। 'ऋतं च स्वाध्यायप्रवचने च' (त० आर० ९।७ आदि वचनों में)।]

ब्रह्मर्षि याज्ञवल्क्य ने शतपथ में 🔥अथातः स्वाध्यायप्रशंसा के प्रकरण में स्वाध्याय को परम तप कहा है। उन्होंने लिखा है -

🔥यदि ह वाऽभ्यलङ्कृतः सुखे शयने शयानः स्वाध्यायमधीते आ हैव नखानन्यस्तपस्तप्यते य एवं विद्वान् स्वाध्यायमधीते ।
-शत० ११।५।१।४
अर्थात् जो व्यक्ति चन्दन माला आदि से अलङ्कृत होकर गुदगुदे बिस्तर पर लेटा हुआ भी स्वाध्याय करता है, वह पैर के नख के अग्र भाग तक तप करता है।

इससे स्पष्ट है कि समस्त सांसारिक विषयों से वृत्तियों को रोककर अपने को वेदाध्ययन में ही प्रवृत्त रखना सबसे महान् एवं क्लिष्टतम तप है।

तैत्तिरीय प्रारण्यक ७।९ में ऋत, सत्य, तप, शम, दम आदि सभी के साथ 'स्वाध्याय और प्रवचन' का निर्देश होने से जहाँ ऋत सत्य आदि धर्मों के पालन की अपेक्षा स्वाध्याय-प्रवचन की महत्ता जानी जाती है, वहाँ इसकी अवश्यकर्तव्यता का निर्देश भी किया है । इस प्रकरण के अन्त में नाक मौद्गल्य के मत का निर्देश इस प्रकार किया है -

🔥स्वाध्यायप्रवचने एवेति नाको मौद्गल्यः। तद्धि तपः तद्धि तपः।
अर्थात् मुद्गल पुत्र 'नाक' महर्षि का मत है कि स्वाध्याय और प्रवचन ही तप है । वही तप है, वही तप है।

'स्वाध्याय' की सिद्धि होने पर ही वेदवाक् स्वयं अपने रूप को प्रकट करती है। पातञ्जल योगशास्त्र में स्वाध्याय की सिद्धि होने का फल इस प्रकार दर्शाया है -

🔥स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोगः।
स्वाध्याय से इष्ट देवता विषय के साथ स्वाध्याय करनेवाले व्यक्ति का सम्बन्ध उपपन्न हो जाता है।

स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे परम वराग्यसम्पन्न द्वन्द्वातीत तपस्वी का प्रथम लक्ष्य तो वेद का वास्तविक स्वरूप जानना ही था । वह उन्हें स्वाध्यायरूप परम तप से प्राप्त हुअा। यह मानना ही उचित प्रतीत होता है। जब मुझे इस तथ्य का आभास हुआ, स्वामी दयानन्द सरस्वती के प्रति मेरी प्रास्था अत्यधिक बढ़ गई।

✍🏻 लेखक - पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक जी
(पुस्तक - मेरी दृष्टि में स्वामी दयानन्द सरस्वती और उनका कार्य)
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

श्राद्ध व्यवस्था



◼️श्राद्ध व्यवस्था◼️
✍🏻 लेखक - स्वामी दर्शनानन्द जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
🔥यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते। तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा॥
-यजु:० ३२।१४
अर्थ-हे ज्ञानस्वरूप (अग्ने) परमात्मन्! जिस मेधा नामक धारणावती बुद्धि को देवगण अर्थात् विद्वान् लोग प्राप्त हैं और जिसे प्राचीन ऋषि-मुनि प्राप्त थे, आप उस धारणावती बुद्धि से हमें बुद्धिमान् कीजिए।
धर्माऽधर्म के विचारने में समर्थो! सत्यशीलो! वेदादि सत्यशास्त्रों को माननेवालो! वर्णाश्रमी धर्म के सहायको! आप लोग थोड़े समय के लिए संसार के संस्कारों को अलग करके सत्याऽसत्य विचार करनेवाली बुद्धि की कसौटी को हाथ में लेकर अपने नित्य-नैमित्तिक व्यवहारों को जाँचो, और संसार की प्रणाली से जगत्कर्ता की महिमा की स्वाभाविक गुणों के अनुसार खोज करो! विचार करके देखो कि ईश्वर ने कैसे-कैसे उत्तम नियम तुम्हें दुःखों से छुड़ाने के लिए बनाये हैं! कैसी-कैसी उत्तम-उत्तम वस्तुएँ तुम्हें जगद्रूपी शत्रु से बचने के लिए दी हैं! परमात्मा के नियमों पर ध्यान दो! परमात्मा ने जगत् में जब जीव को उत्पन्न किया तो साथ ही उसकी अल्पज्ञता को देखकर माता-पिता के हृदय में प्रीति उत्पन्न कर दी जिससे यह असमर्थ जीव उनकी सहायता पाकर समर्थ हो जाए। ईश्वर की इस कृपा के बदले जीव प्रभु की उपासना और वेदरूपी ज्ञान का प्रचार-प्रसार करता है।
संसार के लोग भली-भाँति जानते हैं कि संसार में जो बीज भूमि में डाला जाता है वह बीज थोड़े दिनों के पश्चात् कई गुणा होकर मिलता है। जड़ भूमि भी दिये हुए बीज का बदला देती है और बीज के बोने आदि में जो परिश्रम हुआ है उसके प्रतिफल में बोये हुए बीज से कई गुणा बीज लौटा देती है। इसी प्रकार समुद्र सूर्य की किरणों को जो जल समर्पण करता है, सूर्य उसके बदले में उसकी पुष्टि वृष्टि द्वारा करता है। जिस पशु का मनुष्य अन्नादि से पालन करता है वह पशु उसकी सेवा करके उसे बदला देता है। जिस कुत्ते को दो दिन टुकडा डाल दो वह उसके बदले उसके घर की रखवाली करता है। इसी भाँति संसार के जड़-चेतन पदार्थ बदले के नियम से बँधे हुए हैं।
प्यारे पाठको! जब सभी माता-पिता बालक का पालन-पोषण कर उसे असमर्थावस्था से समर्थावस्था में पहुँचा देते हैं, अज्ञान के गर्त से निकालकर ज्ञान के शिखर पर बैठा देते हैं, माता पिता स्वयं लाखों दुःख उठाकर दिन-रात पुत्र को सुख देने का यत्न करते हैं। माता गर्मी के दिनों में जबकि आग बरसती है पुत्र को पङ्खा डुलाकर सुलाती है; सर्दी के दिनों में जब बालक बिस्तर को गीला करता है तो आप उस गीले स्थान पर लेटती है, पुत्र को अच्छे स्थान पर सुलाती है। यह कैसा सच्चा प्रेम है! गम्भीरता से विचार कीजिए! ईश्वर की माया का कैसा विचित्र चमत्कार है कि पिता अपने जीवन में नाना प्रकार के कष्ट उठाकर जो कमाता है वह बालक के पालन-पोषण और संस्कारों के करने, पढ़ाने, विवाहादि कार्यों में खर्च कर देता है! जो कुछ बच रहता है उसका भी पुत्र को स्वामी बना देता है। कैसा मोहजाल है कि सारी आयु उसके निमित्त लगा देता है। क्या इसका बदला मनुष्य को नहीं देना चाहिए? जब भूमि आदि जड़ पदार्थ संसार में बदला देते हैं, तो मनुष्य को चेतन होकर क्या बदला नहीं देना चाहिए? जब कुत्ते आदि नीच योनि के जीव कृतघ्नता नहीं करते तो क्या मनुष्य को यह उचित है कि जिन माता-पिता ने लाखों कष्ट उठाये हैं, यह उनका बदला न दे?
यदि आप विचार करके देखेंगे तो अवश्य कहेंगे कि मनुष्य को अवश्य बदला देना चाहिए। जैसे माता-पिता प्रीतिवश पुत्र का कष्ट मिटाते हैं, पुत्र को भी श्रद्धापूर्वक उसका बदला देना चाहिए। भारतवर्ष के लोग सनातन से आर्यधर्म को मानते चले आते हैं। यह आर्यधर्म ईश्वरीय विद्या अर्थात् वेदों के अनुकूल सदा से चला आता है। वेदों में उस बदले का नाम जो पुत्र को माता-पितादि के निमित्त करना चाहिए, पितृश्राद्ध के नाम से कथन किया है। हे आर्यावर्त्त वासियो! आपके बड़े-बड़े ऋषि-मुनि सनातन से श्राद्ध करते आये हैं, परन्तु भारत में मत-मतान्तरों के कारण परस्पर विरोध फैलने से यह रीति कुछ उलटी हो गई है। अब इस छोटे-से लेख में प्रश्नोत्तर की शैली में पौराणिक और आर्यसामाजिक के विचार से इसका तत्त्व दिखलाते हैं।
एक दिन एक पौराणिक महात्मा एक वैश्य की दूकान पर बैठे स्वामी दयानन्दजी को बुरा भला कहकर वैश्य को समझा रहे थे कि आर्यसमाजी पितरों का श्राद्ध नहीं करते। मुँह से कहते हैं हम वेद को मानते हैं, परन्तु वेद में लिखे श्राद्ध को कभी नहीं करते। ये नास्तिक हैं, इनका दर्शन करने में पाप है, इत्यादि। उस समय एक आर्यसामाजिक भी आ निकले। उन्होंने ये बातें सुनकर कहा-महाराज! क्यों झूठ बोलते हो? यदि आपको अपने पक्ष की सत्यता पर भरोसा हो तो शास्त्रार्थ करके निर्णय कर लीजिए। पौराणिक ने कहा-अच्छा शास्त्रार्थ हो जाए; तुम कुछ पढ़े भी हो? इसके पश्चात् प्रश्नोत्तर होने लगे।
🧔🏻आर्य-कहो महात्माजी! पितृकर्म नित्य है वा नैमित्तिक?
👳🏻‍♂️पौराणिक-यह नित्य कर्म है।
🧔🏻आर्य-तो महाराज! सबको प्रतिदिन करना चाहिए?
👳🏻‍♂️पौराणिक-हाँ, प्रतिदिन करना चाहिए। यदि सम्भव न हो तो वर्ष में १५ दिन पितृपक्ष के होते हैं, उनमें जिस दिन पितर मरे हों उस दिन कर ले।
🧔🏻आर्य-महाराज! जिसके पितर जीते हों वह किस दिन करे?
👳🏻‍♂️पौराणिक-उसे करने का अधिकार नहीं, वह न करे।
🧔🏻आर्य-तो महाराज! मनुष्य के लिए जो पञ्चयज्ञ करना नित्यकर्म में लिखा है, वह उसे न करे?
👳🏻‍♂️पौराणिक-अन्य यज्ञ तो कर ले, परन्तु पितृयज्ञ उसके पितादि कर लेंगे।
🧔🏻आर्य-तो महाराज! शेष चार यज्ञ भी वही कर लेंगे।
👳🏻‍♂️पौराणिक-नहीं, शेष अवश्य करने चाहिएँ।
🧔🏻आर्य-महाराज ! जब एकांश छोड़ने में दोष न होगा तो सर्वांश छोड़ने में भी दोष नहीं होगा?
👳🏻‍♂️पौराणिक-सन्ध्यादि कर्म कर ले, शेष माता-पिता ने कर लिये?
🧔🏻आर्य-तो क्या पुत्र के किये हुए कर्मों का फल पिता को और पिता के किये कर्मों का फल पुत्र को मिल सकता है?
👳🏻‍♂️पौराणिक-हाँ भाई! होता है, तभी तो संसार करता है।
🧔🏻आर्य-क्या महाराज! पितरों का मरे पर श्राद्ध हो, जीते जी नहीं?
👳🏻‍♂️पौराणिक-हाँ भाई! मरे हुए पितरों का श्राद्ध होना चाहिए, क्योंकि जीते जी तो वे स्वयं खा-पी लेते हैं। जब मरने के पश्चात् पितृलोक में उन्हें भूख लगती है तो पुत्र का दिया अन्न उन्हें मिल जाता है। इस कारण उनके मरने के पश्चात् ब्राह्मणों को खिलाइए।
🧔🏻आर्य-महाराज! सब लोग मरकर पितृलोक को जाते हैं। चाहे वे धर्मात्मा हों वा पापी, सब एक स्थल में जाएँ, यह अन्याय है! और आप यह बताएँ कि पितृलोक में पितर कब तक रहते हैं?
👳🏻‍♂️पौराणिक-इसका काल तो ठीक ज्ञात नहीं। पण्डितों से सुनते हैं सैकड़ों वर्षों तक रहते हैं।
🧔🏻आर्य-जब आपको ज्ञान नहीं कि वे कब तक रहेंगे तो आप उनको बिना जाने माल क्यों भेजते हैं?
👳🏻‍♂️पौराणिक-इसमें कुछ हानि नहीं, जब तक पितृलोग वहाँ रहेंगे तब तक पहुँचेगा, पश्चात् हमारा पुण्य होगा।
🧔🏻आर्य-कृपया बताइए, क्या मृतकों के साथ जीवितों का सम्बन्ध बना रहता है?
👳🏻‍♂️पौराणिक-हाँ, सम्बन्ध बना रहता है।
🧔🏻आर्य-तो मरने के दिन तिनका तोड़कर ऐसा क्यों कहते हैं कि जिसने किया उसको मिले, या जैसा करता है वैसा फल पाता है।
👳🏻‍♂️पौराणिक-यह संसार का व्यवहार है।
🧔🏻आर्य-महाराज! पिता-पुत्र का सम्बन्ध जीव में रहता है या शरीर में? या जीव और शरीर विशिष्ट में?
पौराणिक-जीव और शरीर-विशिष्ट में।
🧔🏻आर्य-जब जीव और शरीर-विशिष्ट में पिता-पुत्र का सम्बन्ध रहता है तो जब शरीर नष्ट हो गया, जीव अलग हो गया, उस समय सम्बन्ध तो न रहा। जब सम्बन्ध न रहा तो उसका नाम पितृश्राद्ध कैसे होगा?
👳🏻‍♂️पौराणिक-क्या जो श्राद्ध वेदों में लिखा है, वह झूठ हो सकता है?
🧔🏻आर्य-क्या वेदों में मरे हुए पितरों का श्राद्ध लिखा है?
👳🏻‍♂️पौराणिक-क्या जीवित का भी श्राद्ध होता है?
🧔🏻आर्य-श्राद्ध तो जीवित का ही होता है और जीवित का ही सम्बन्ध है।
👳🏻‍♂️पौराणिक-इसका क्या प्रमाण है?
🧔🏻आर्य-इसमें ईश्वर का सृष्टि-नियम और तुम्हारा तीन पीढ़ी के पितरों का श्राद्ध करना ही प्रमाण है।
👳🏻‍♂️पौराणिक-इसमें ईश्वर का सृष्टि-नियम किस प्रकार से प्रमाण है?
🧔🏻आर्य-देखो! बालपन में जब पुत्र असमर्थ था तब माता-पिता ने पाला, रक्षा की। इसी प्रकार जब वृद्धावस्था में माता-पिता असमर्थ होते हैं, तब पुत्र अपने धर्म के अनुसार श्रद्धापूर्वक उनकी सेवा करे।
👳🏻‍♂️पौराणिक-क्या पितरों की श्रद्धापूर्वक सेवा करने का नाम पितरों का श्राद्ध है और वह जीवित पुरुषों का होना चाहिए, इसमें क्या प्रमाण है?
🧔🏻आर्य-तुम्हारा तीन पीढ़ी के पितरों का श्राद्ध करना, औरों का न करना।
👳🏻‍♂️पौराणिक-इससे क्या जीवित पितरों का श्राद्ध सिद्ध होता है?
🧔🏻आर्य-हाँ! ठीक-ठीक यह हमारे पक्ष को सिद्ध करता है।
👳🏻‍♂️पौराणिक-किस प्रकार करता है? युक्तिपूर्वक तो बताओ!
🧔🏻आर्य-देखो! वेदों में मनुष्य की आयु सौ वर्ष की लिखी है और न्यून-से-न्यून पच्चीस की अवस्था में विवाह करना लिखा है, तो कम-से-कम २६ वर्ष में पुत्र और ५२ में पौत्र तथा ७८ मे प्रपौत्र हो सकता है। अब जब तक इसके पुत्र हों, तब तक उसका प्रपितामह अर्थात् परदादा मर गया। इसका परपोता अपने पिता, पितामह और प्रपितामह तीन पीढ़ी तक की श्रद्धापूर्वक सेवा कर सकता है और इससे पञ्चमहायज्ञ, जोकि नित्यकर्म हैं सध सकते हैं। इससे भी ज्ञात होता है कि एक पुरुष कितने समय तक अपने पितरों की सेवा कर सकता है। इसमें पितलोक में जो पापी और पुण्यात्माओं के एक-साथ रहने से ईश्वर के न्याय में दोष आता है, वह भी न रहेगा।
👳🏻‍♂️पौराणिक-तुम्हारी इन बातों से तो गरुडपुराण झूठा प्रतीत होता है। क्या व्यासजी का बनाया झूठा हो सकता है?
🧔🏻आर्य-तुम्हारे गरुडपुराण का मिथ्या होना तो उसकी बातों से स्वयं सिद्ध ही है और कृष्णजी की बनाई गीता और गौतम ऋषि के बनाये न्यायदर्शन के देखने से यह सर्वथा मिथ्या प्रतीत होता है।
👳🏻‍♂️पौराणिक-क्योंकर मिथ्या है? तनिक कहो!
🧔🏻आर्य-सुनो! तुम्हारे गरुड़ पुराण में लिखा है कि जब जीव मरता है तब यम के दूत उसे लेने आते हैं और फिर लिखा है वैतरणी नदी के किनारे तक पहुँचाते हैं। जिसके पुत्र वैतरणी पार कराने को गोदान कर देते हैं वह पार जाता है, नहीं तो नदी में डूब जाए। भला, यदि कोई पूछे महाराज! क्या यम के दूत निकम्मे हैं? जिसे यमद्वार में ले-जाने के लिए वे आये थे, वह नदी में डूब जाए तो फिर यम के दूत क्यों आये थे? जो वह यहाँ नदी में डूब जाए तो यम के दूतों के साथ कौन यमलोक जाए? वैतरणी में डूबकर कहाँ जाना होगा? क्योंकि जीव तो नित्य है और नदी आदि में शरीर डूबता है तो यहाँ फेंक दिया जाता है। हमारे बहुत-से भोले भाई यह कह देंगे कि दशगात्र करने से दश रोज में शरीर तैयार हो जाएगा, परन्तु दश रोज तक जीव कहाँ रहेगा? जो लोग वन में मृत्यु पाते हैं, जिनका दशगात्रादि कभी कुछ नहीं हुआ, वे कहाँ जाएंगे? हमारे पौराणिक भाई कहेंगे कि वे प्रेत बन जाएँगे। उनसे प्रेतभाव पूछा जाए तो वे योनि बता देंगे, परन्तु गौतम ऋषि के सूत्र से
🔥पुनरुत्पत्तिः प्रेत्यभावः। -न्यायदर्शन १।१९
यह सिद्ध होता है कि प्रेत्यभाव पुनर्जन्म का नाम है। इस सूत्र के व्याख्यान में इस बात का वात्स्यायन मुनि ने अच्छी प्रकार से निर्णय कर दिया है और कृष्णचन्द्र महाराज गीता में लिखते
🔥वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽ पराणि॥
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥
-गीता २।२२
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, इसी प्रकार जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़कर नये शरीर को धारण करता है।
*हे देश के सुजनो! आप जीवित माता-पिता का सत्कार और उनकी सेवा कीजिए, धर्म के सिवाय और सब पदार्थ देकर भी उनका मान कीजिए। जहाँ तक बन पड़े उनकी आज्ञा का पालन करो, कभी भी उनका अनादर न करो, इसी में तुम्हारा कल्याण है। यही मनुष्य-जीवन का फल है।*
✍🏻 लेखक - स्वामी दर्शनानन्द जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
॥ओ३म्॥

Friday, September 20, 2019

हिंदी भाषा को लेकर अनावश्यक विवाद



हिंदी भाषा को लेकर अनावश्यक विवाद

-डॉ विवेक आर्य

देश के गृहमंत्री अमित शाह जी ने हिंदी भाषा को राष्ट्रीय भाषा बनाने के लिए आग्रह किया। उनके बयान का दक्षिण भारत के राजनेताओं ने विरोध किया  जिनमें तमिलनाडु मुख्य है। मैंने अपने जीवन के 6 वर्ष तमिलनाडु में व्यतीत किये है। इसलिए मुझे वहां की भाषा, पहनावा, सोच को नजदीक से देखने का अवसर मिला हैं।  मैं दो घटनाओं से भाषा सम्बंधित विवाद पर अपनी टिप्पणी करना चाहूंगा।

पहला मैं जब तमिलनाडु गया तो मुझे तमिल नहीं आती थी। एक बार मैं एक दूकानदार से रास्ता पूछने लगा तो उसने हिंदी तेरियादे अर्थात हिंदी नहीं मालूम कहकर मुझे चलता कर दिया। संयोग से कुछ दिनों के पश्चात मैं उसी दुकान से कपड़े खरीदने गया तो उसने हिंदी में मेरा स्वागत किया। क्यूंकि बाप बड़ा न भैया। सबसे बड़ा रूपया।

दूसरा उदहारण मेरे मेडिकल कॉलेज के कर्मचारी का है।  उसका लड़का गवालियर में एक कॉलेज में उच्च शिक्षा के लिए साक्षात्कार देने गया। स्टेशन से उतर कर वह अपने कॉलेज साक्षात्कार देने के लिए पहुंच ही नहीं पाया। क्यूंकि वह केवल तमिल और इंग्लिश जानता था। जबकि ग्वालियर के जन केवल हिंदी जानते थे। बिना साक्षात्कार दिए वह वापिस आ गया।

हिंदी भाषा क्यों राष्ट्रभाषा के रूप में सारे देशवासियों की भाषा होनी चाहिए? क्यूंकि

-स्वामी दयानन्द के अनुसार हिंदी भाषा पूरे देश को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है।

-आज कोई व्यक्ति जीवन में केवल अपने स्वराज्य में ही निवास नहीं करता। शिक्षा, नौकरी आदि के लिए वह अपने राज्य से अलग राज्य में जाता हैं। इसलिए पुरे देश की एक राष्ट्रीय हिंदी भाषा होनी चाहिए। ताकि देशवासियों को आपस में संवाद में कोई समस्या न हो।

-हिंदी सीखना स्थानीय भाषा की हत्या, उससे भेदभाव नहीं हैं। राजनेता ऐसे बयान देकर केवल भड़काते है।

- हिंदी वर्तमान में 44% लोग बोलते हैं। इसलिए सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा होने के कारण राष्ट्रभाषा बनने योग्य है।

- हिंदी को थोपने का तर्क देने वाले अंग्रेजी को स्वदेशी किस आधार पर बता रहे है।  जबकि अंग्रेजी के उच्चारण मात्र सिखने में पूरा जीवन लग जाता हैं। अंग्रेजी जानने वाला व्यक्ति अपने आपको उच्च और क्षेत्रीय अथवा हिंदी बोलने वालों को नीचा समझता हैं। यह अंग्रेजी राज की गुलाम मानसिकता का प्रतीक हैं।

- हिंदी भाषा जानने वाले न केवल देश की हज़ारों बोलियां, क्षेत्रीय भाषा जैसे गुजराती, मराठी आदि सरलता से समझ सकते हैं। जिनका अंग्रेजी से कोई सम्बन्ध नहीं हैं।

- एक तमिल भाषी व्यक्ति जो हिंदी जानता हो देश के किसी भी भाग में भ्रमण करने जाये तो उसे मार्ग में कोई कठिनाई न होगी। अगर पुरे देश के मार्ग, रेल दिशा निर्देश आदि हिंदी में हो तो कितनी सुलभता होगी।

- एक ओर आप विश्व भ्रातृत्व की बात कर रहे है। दूसरी ओर भाषा भेद को लेकर आपस में संघर्ष कर रहे हैं। यह कैसी विचित्र मानसिकता है?

- देश की 130 करोड़ जनसँख्या को भाषा के नाम पर आपस में एक दूसरे के विरुद्ध कर कुछ मुट्ठी भर लोग केवल अपनी तुच्छ राजनीती करना चाहते हैं। ऐसे राजनीती करने वालों से सावधान।

-हिंदी जानने वाला व्यक्ति संस्कृत को समझने की योग्यता रखता हैं। हमारे धार्मिक ग्रन्थ संस्कृत भाषा में हैं। संस्कृत और हिंदी की लिपि एक ही देवनागरी हैं। हिंदी से परिचित व्यक्ति इन ग्रंथों को पढ़ने में सरलता अनुभव करेगा। अन्यथा वह इन ग्रंथों के विदेशियों द्वारा किये गए अधकचरे अनुवादों पर निर्भर होकर भ्रमित ही होगा। इसके दुरगामी परिणामों पर किसी ने विचार नहीं किया। 

आईये देश को एकता के एक सूत्र में पिरोने के लिए हिंदी को सकल देश की राष्ट्रभाषा के रुप में स्वीकार करें। 

Thursday, September 12, 2019

क्या हम जीवित हैं?


◼️क्या हम जीवित हैं?◼️
✍🏻 लेखक - स्वामी दर्शनानन्द जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
🔥ओं यऽआत्मदा बलदा यस्य विश्वऽउपासते प्रशिषं यस्य देवाः।
यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥
-यजुर्वेद अध्याय २५, मन्त्र १३
इस वेदमन्त्र में ईश्वर जीवों को इस बात का उपदेश करते हैं कि मनुष्य मृतक कैसे कहलाता है, और अमृत कैसे होता है?
अर्थ-(यः) वह परमेश्वर (आत्मदा) आत्मा का देनेवाला है, इत्यादि।
यहाँ प्रश्न होता है कि जब जीवात्मा नित्य है तो परमात्मा उसका देनेवाला कैसे हो सकता है? इसका उत्तर यह है कि 'आत्मा' शब्द का अर्थ व्यापक है। जब तक व्याप्य न हो तो वह व्यापक कहला ही नहीं सकता, इसलिए शरीर के बिना उसे जीव तो कह सकते हैं, किन्तु जीवात्मा उसी दशा में कहलाएगा जब वह शरीर में व्यापक होगा। कतिपय मनुष्य यह शङ्का करेंगे कि शरीर तीन हैं-प्रथम स्थूलशरीर; दूसरा सूक्ष्मशरीर; तीसरा कारणशरीर । यद्यपि स्थूल तथा सूक्ष्मशरीर उत्पत्तिवाले होने से अनित्य हैं, उनकी उत्पत्ति से पूर्व आप उसे जीवात्मा न कहो, क्योंकि जिसमें आत्मा व्यापक रहे वह शरीर विद्यमान नहीं। हाँ, कारणशरीर में व्यापक होने से वह आत्मा कहला सकता है। इसलिए वेद में जो परमात्मा को आत्मा के देनेवाला बतलाया है, वह सत्य नहीं। इसका उत्तर यह है कि कारणशरीर सब जीवों का समान है। इसमें कोई सान्त आत्मा व्यापक नहीं कहला सकता। जीव को जो आत्मा कहा जाता है वह स्थूलशरीर में व्यापक होने के कारण कहा जाता है, अथवा सूक्ष्मशरीर में व्यापक होने के कारण जीव 'आत्मा' कहलाता है। कारणशरीर के होने से तो परमात्मा ही व्यापक कहला सकता है।
'बलदा'-जो बल का देनेवाला है, अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार "गवर्नमेण्ट'' का तीन रुपये का एक चपरासी बड़े-से-बड़े धनी को ले-आता है, यद्यपि उस धनी के दशों भृत्य विद्यमान रहते हैं, कुटुम्बी जन भी विद्यमान रहते हैं, परन्तु किसी में उस चपरासी के दूर हटाने की शक्ति नहीं होती, तो बताओ चपरासी में यह बल कहाँ से आया? कहना होगा कि राजा की नौकरी से। इसी प्रकार जो परमात्मा के नियमों पर चलते और उसके आश्रय में रहते हैं, उनमें भी वह बल आ जाता है कि वे समस्त सृष्टि का सामना कर सकते हैं, सृष्टि के मनुष्य उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। स्वामी श्री शङ्कराचार्य तथा स्वामी श्री दयानन्दजी महाराज के वत्तान्त किसी से छिपे नहीं हैं। इन महात्माओं के पास ईश्वरीय नियमों के जानने तथा उनके अनसार आचरण करने के अतिरिक्त और क्या था? समस्त संसार के मनुष्य उनसे विरोध करते रहे, तो भी उन्होंने कार्य की सिद्धि की।
'यस्य विश्व उपासते' जिसकी समस्त सृष्टि के विद्वान् प्रशंसा करते हैं, जो सब जगत का अन्यर्यामी है। 'यस्य छायाऽमृतम्'-जिसकी छाया अर्थात् जिसकी आज्ञानुसार चलना ही 'अमृतम्'-मुक्ति का कारण है। 'यस्य मृत्युः'-जिसकी आज्ञा के अनुसार न चलना ही 'मृत्यु:’ अर्थात् दुःख का हेतु है। 'कस्मै'-आनन्द के लिए 'देवाय हविषा विधेम'-उसी परमात्मा की उपासना करना कर्तव्य है।
जब कभी मैं इस मन्त्र के विषय पर विचार करता है, तो मेरे हृदय में यह प्रश्न होता है कि 'क्या मैं जीवित हूँ? या क्या हम जीवित हैं?' मेरे बहुत-से मित्र इस प्रश्न को सुनते ही कहेंगे कि यह विचित्र पागल है! जो बोलता है, खाता, पीता, चलता है, फिर भी कहता है कि हमारे जीवित होने में सन्देह है, परन्तु हमारे वे मित्र कुछ गम्भीरता के साथ विचारें तो उन्हें स्वयं भी अपने विषय में यही सन्देह उत्पन्न होगा।
अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या बोलनेवाला जीवित नहीं? क्योंकि बहुत-से मत वाले बोलते हुए पुरुष को जीवित मानते हैं, परन्तु सोचना चाहिए कि यदि बोलने का नाम ही जीवित होना है तो हमारा शब्द तो कदाचित् दस वा बीस गज पर्यन्त जा सकता है, परन्तु इञ्जन कि जिसका शब्द अनेक कोशपर्यन्त जाता है तो वह अवश्य ही जीवित कहला सकता है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि इञ्जन तो केवल अनर्थक शब्द करता है, परन्तु जिस शब्द में सार्थक ध्वनि निकले वह जीवित होने का चिह्न है-ऐसा मानने पर भी ऑर्गन बाजे और फोनोग्राफ को जीवित मानना पड़ेगा, क्योंकि उनमें से स्पष्ट शब्द तथा राग निकलते हैं। यहाँ वादी कह सकता है कि इनमें जो कुछ भर दिया जाता है, वही शब्द प्रकट होता है, तो इसका उत्तर यह है कि यदि वादी सोचकर देखे तो वह आप भी वही शब्द और वाक्य और विचार वाणी से निकाल सकता है जो उसमें भरा है। क्या जिस भाषा को वादी ने नहीं पढ़ा उसके शब्दों को बोल सकता है अथवा जिस विद्या के सिद्धान्तों को नहीं सीखा उन्हें बतला सकता है? कदापि नहीं। इस कारण यह बात फोनोग्राफ और मनुष्य में तुल्य है। सिद्ध हुआ कि बोलने के कारण फोनोग्राफ जीवित नहीं कहला सकता, इसी कारण बोलने से हम भी जीवित नहीं कहला सकते।
यदि कोई कहे कि हम चलते हैं तो क्यों जीवित नहीं? तो इसका उत्तर यह है कि आप तो घण्टे में दो या तीन मील जा सकते हैं, परन्तु इञ्जन एक घण्टे में चवालीस से ८० मील पर्यन्त सहस्रों मन भार लेकर चला जाता है तो उसे जीवित कहना चाहिए, परन्तु इञ्जन को कोई जीवित नहीं कहता। आप कहेंगे कि हम खाते हैं, पीते हैं, फिर जीवित क्यों नहीं? परन्तु हम तो अधिक-से-अधिक सेरभर खा सकते हैं, परन्तु इञ्जन तो सहस्रों मन कोयले खा जाता है और सहस्रों मन पानी पी जाता है। इतना खाने-पीने पर भी इञ्जन को जीवित नहीं कहते तो सेर-भर खाने या पीनेवाले को किस प्रकार जीवित कहेंगे?
उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट प्रकट होता है कि खाने-पीने, बोलने-चलने का नाम जीवित होना नहीं, किन्तु जीवित होना इनसे कोई पृथक् वस्तु है, क्योंकि ये गुण तो जड़ वस्तु में भी पाये जाते हैं। अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि यदि इन बातों का नाम जीवित होना नहीं तो किस बात का नाम जीवित होना है? इसका उत्तर यह है कि जीवात्मा की स्वतन्त्र सत्ता का नाम जीवित होना है। इसलिए कि इञ्जन में भी एक ड्राइवर विद्यमान है जिसके कारण इञ्जन चलता, खाता, पीता और बोलता है। जैसे ड्राइवर चलाता है, वैसे ही इञ्जन चलता है। यदि ड्राइवर जीवित हो तो इञ्जन उसके अधीन होगा कि जहाँ चाहे नियमानुसार ठहरा दे, चाहे पीछे लौटा दे परन्त यदि ड्राइवर चलती हुई गाड़ी में मर जाए तो ड्राइवर ही इञ्जन के अधीन हो जाएगा. उस समय इञ्जन का ठहराना ड्राइवर के अधीन नहीं रहेगा, किन्तु जहाँ इञ्जन ठहरेगा वहीं ड्राइवर को भी ठहरना होगा। बस, इस दृष्टान्त से स्पष्ट सिद्ध होता है कि यह शरीर इजन के तुल्य है और जीवात्मा ड्राइवर के समान है। यदि जीव के अधीन शरीर और उसके समस्त प्रदेश (मन-इन्द्रियादि) हैं तो वह जीवित है। यदि जीव मन, इन्द्रिय और शरीर के अधीन है तो वह मृतक है। जीवित वा मृतक होने का दूसरा चिह्न यह पाया जाता है कि जीवित मनुष्य अपने शरीर की किसी वस्तु को अपने से पृथक् नहीं होने देता। यदि किसी जीवित के शरीर से एक भी बिन्दु रक्त की निकल जावे तो वह घबरा जाता है। वह स्वेच्छा से रक्त का निकलना स्वीकार नहीं करता तथा वह बाह्य वस्तुओं को पचा जाता है, परन्तु मृतक की दशा इसके विरुद्ध हुआ करती है-वह बाहर की वस्तुओं को पचा नहीं सकता और उसके शरीर में से कितना ही भाग निकल जाए उसे ज्ञान या भान नहीं होता।
बहुत-से मनुष्य यह कहेंगे कि इञ्जन का दृष्टान्त शरीर के तुल्य नहीं हो सकता, क्योंकि यह मनघड़न्त है। इसका उत्तर यह है कि जो सम्बन्ध जीवों का और शरीर का इस स्थान पर बतलाया है, वह कठोपनिषद् में भी लिखा है। यथा -
🔥'आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च।
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्।' (इत्यादि)
अर्थ-यह शरीर एक गाड़ी है और जीवात्मा इस गाड़ी में बैठकर चलनेवाला पथिक है, बुद्धि सारथि है, इन्द्रिय घोड़े हैं तथा मन लगाम और संसार के विषय-भोग इन्द्रियों के चलने का मार्ग है।
उक्त प्रमाणों से स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह शरीररूपी गाड़ी जीव को अभीष्टोद्देश्य पर पहुँचने के लिए दी गई है। जो जीव अपने को शरीर के अधीन कर लेता है वह वास्तव में मृतक है, क्योंकि हम अहर्निश शरीर के अधीन रहते हैं, इसलिए मृतक हैं, जीवित नहीं। यदि हममें जीवन होता तो हमारे छह करोड़ भाई यवन तथा तीस लाख भाई कृश्चियन न हो जाते ! हमारी धर्मरूपी काया में से इतने भाग का निकल जाना और हममें दूसरी जातियों को सम्मिलित करने (पचाने) की शक्तियों का न होना हमारे मृतक होने का स्पष्ट प्रमाण है। यही कारण है कि हम अपने हृदय में किसी कार्य को पूर्ण करने तथा उसका निर्वाह करने की शक्ति ही नहीं रखते। यद्यपि जड़ प्रकृति चेतन जीवात्मा की किङ्कर है, तथापि हमारे मृतक होने के कारण हम ही प्रकृति के दास बन गये। न तो हमें अपने परिश्रम पर विश्वास है और न ही अपने भाइयों की सहायता पर विश्वास है। ईश्वर का विश्वास तो होने ही क्यों लगा था, क्योंकि वेदमन्त्र में स्पष्ट बतला दिया है कि जो ईश्वर के आश्रय पर रहता है वह अमृत है, जो ईश्वर को त्याग देता है वह मृतक है।
हम लोगों ने ईश्वर के स्थान में प्रकृति का आश्रय लिया है। यदि धन न हो तो हमारा कोई काम दृढ ही नहीं, ईश्वर के नियमानुसार न होने से उसके आश्रय पर हम किसी काम को दृढ़ ही नहीं समझते, इसीलिए हम सरल मार्ग को छोड़कर वाम अर्थात् उलटे मार्ग पर चलने लगे हैं। कतिपय मनुष्यों को यह शङ्का होगी कि हम वाममार्गी कैसे हैं? न हम मद्य पीते हैं न मांस खाते हैं, परन्तु स्मरण रक्खो कि शास्त्रकारों ने स्त्री को पुरुष का वामभाग बतलाकर समस्त रचना को दो भागों में विभक्त किया है, जिस प्रकार वाम और दक्षिण दोनों विरोधी हैं (जो वाम है वह दक्षिण नहीं तथा जो दक्षिण है वह वाम नहीं)। प्रकृति परमात्मा के विरुद्ध गणवाली है (परमात्मा चेतन है, उसकी उपासना से ज्ञान बढ़ता जाता है। प्रकृति जड़ है, उसका उपासना से ज्ञान का ह्रास होता है। परमात्मा सर्वशक्तिमान है, उसकी उपासना से जीव का बल बढ़ता है; प्रकृति निर्बल है, उसकी उपासना से शक्ति का ह्रास होता है)। इस प्रकृति और परमात्मा को बहुत-से मनुष्यों ने विष्णु तथा लक्ष्मी के नाम से बतलाया। किसी ने शिव तथा शक्ति के नाम से कहा, अर्थात् शिव के मानने वाले दक्षिणमार्गी और शक्ति के माननेवाले वाममार्गी हैं, क्योंकि हम लोगों ने भी आर्ष एवं वेदोक्त मार्ग को छोड़कर वाममार्ग को स्वीकार कर लिया, इसीलिए हम धर्मरूपी जीवन से शून्य होकर मृतक हो गये। अनेक जन आग्रहपूर्वक अपने को महात्मा मानते हैं, यह वेद के साक्षात् विरुद्ध है, क्योंकि यजुर्वेद के ४०वें अध्याय में स्पष्ट लिखा
🔥हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितम्मुखम्॥ -यजुर्वेद ४०।१६
अर्थ-इच्छारूपी स्वर्णमय आवरण से सत्य का मुख आवृत हुआ है।
यदि तुम चाहते हो कि सत्यधर्म को प्राप्त होकर उन्नति को प्राप्त हों तो उस परदे को उठा दो, क्योंकि इस आवरण की उपस्थिति में सत्यधर्म का ज्ञान नहीं हो सकता, एवं आचरण के बिना जीवन नहीं हो सकता, क्योंकि हममें सद्धर्म का ज्ञान व आचरण ही नहीं, अतः हम जीवित कैसे कहला सकते हैं जब तक परमात्मा की छाया में आकर अमृत न बन जाएँ? यद्यपि बहुत से महर्षियों में हमें परमात्मा की छाया के नीचे लाकर जीवित बनाने का प्रयत्न किया, परन्तु वाममार्ग की उपासना से हमें कभी परमात्मा पर विश्वास ही नहीं हुआ। हम अपने लेख में बहुत-से वाक्य (ईश्वरीय विश्वास-सम्बन्धी ) लिखते हैं, परन्तु आचरण में रुपये पर ही विश्वास रखते हैं।
✍🏻 लेखक - स्वामी दर्शनानन्द जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
॥ओ३म्॥

Tuesday, September 10, 2019

ईसाई मिशन्स और भारत



*ईसाई मिशन्स और भारत*

ईसाई धर्मवेत्ताओं, विद्वानों, मिशनरीयों और लेखकों के यीशु ख्रिस्त [Jesus Christ] विषयक सदीयों से बडे-बडे दावों के बावजूद, योरोप और अमरिका के बुद्धिजीवी वर्ग ने ईसाई विश्वास के यीशु ख्रिस्त का स्वीकार करने से मना कर दिया है। आज-कल वहाँ उपन्यासों के कल्पित यीशु [Jesus of Fiction] का ही बोल-बाला है। भारतविद्याविद् *डॉ. कोनराड एल्स्ट* का कहना है कि पश्चिम में, विशेषकर योरोप में, ईसाईयत की लोकप्रियता और वहाँ के चर्चों में ईसाई विश्वासीयों की उपस्थिति निरन्तर कम होती जा रही है। वहाँ के समाज में पादरी के व्यवसाय के प्रति दिलचस्पी का अभाव भी चिंता का विषय बन गया है। योरोप में केथोलिक पादरीयों की एवरेज वय 55 साल है; नेदरलैंड में यह 62 है, और बढती ही जा रही है। वास्तविकता यह है कि योरोप और अमरिका के आधुनिक लोगों की ईसाईयत में अब कोई रूचि नहीं रही है।

आर्थर जे. पाईस का कहना है कि बदले हुए परिवेश में पादरीयों की भूमिकाएं भी बदल गई है। भूतकाल में पश्चिम के ईसाई पादरी पूर्व के देशों में अपने मत का प्रचार-प्रसार करने आते थे, और आज भारत के पादरी पश्चिम में जा रहे है - ईसाई मत का प्रचार-प्रसार करने के लिए नहीं, परन्तु वहाँ की ईसाई संस्थाओं को बंद होने से बचाने के लिए, चालु स्थिति में रखने के लिए। वहाँ के चर्चों, स्कूलों, अस्पतालों, जेलों और रिहेबिलीटेशन केन्द्रों में धार्मिक शिक्षा और काउंसेलिंग देने ले लिए पूर्व के पादरीयों की भारी मांग रहती है। अमरिका में भारतीय ननों की भी भारी मांग रहती है। ज्यादातर नन जो अमरिका जाती है और वहाँ के शिकागो आदि शहरों के स्लम एरिया में कार्य करती है वे मदर टेरेसा के कोन्वेन्ट्स की ही होती है। पाईस कहते है कि केथोलिसिज्म [Catholicism] भारत जैसे विकसित देशों में आज भी एक शक्तिशाली तन्त्र है, जबकि उपभोक्तावादी पश्चिम में समय के साथ-साथ उसकी ताकत कम होती जा रही है। समग्र योरोप में असंख्य भव्य चर्च आज खण्डहर बन चुके है। कई चर्चों का रखरखाव करने वाला आज वहाँ कोई नहीं है। कई चर्च गैर-ईसाईयों को बेचे जा चुके है, जिन्होंने इन चर्चों को अपने पूजा-स्थलों और व्यापार केन्द्रों में परिवर्तित कर दिए है। _(The Sunday Observer, नई दिल्ली, 16-22 जनवरी 1994)_

*ऐसा क्यों हुआ?* कारण स्पष्ट है। योरोपीयन ईसाईयों का ईसाईयत से मोहभंग हो चुका है। योरोप और अमरिका के ज्यादातर लोग, जो ईसाईयत को छोड चुके है, आज महसूस कर रहे है कि ऐसा करके उन्होंनें कुछ भी खोया नहीं है। वे लोग जान चुके है कि यीशु ख्रिस्त परमेश्वर का एक-मात्र पुत्र नहीं था, उसने मानवता को शास्वत पाप से बचाया नहीं है, और इस लोक और परलोक में हमारे जीवन का सुख ईसाईयत की किसी भी मौलिक मान्यता पर निर्भर नहीं करता। वास्तव में, पश्चिमी जगत को आज “ईसाई पश्चिम” कहकर पुकारना ही गलत है, लेकिन ईसाई मिशन्स आज भी भारत और एशिया के अन्य देशों मे सक्रिय है इस तथ्य से यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि पश्चिम से ईसाई मिशनों को संचालित करने वाले लोग हिन्दू, बौद्ध आदि “धर्मविहीन लोगों” (heathens) की आत्मा को शास्वत नर्क की यातनाओं से बचाने का पवित्र कार्य कर रहे है। वास्तव में, एशिया के देशों में कार्यरत ये ईसाई मिशन्स पश्चिम के पोलिटीक्स और खुफिया तंत्रों के हथकण्डे मात्र है, जिसका प्रयोग प्राय: यहाँ की सरकारों में दखल देने के लिए और यहाँ की समाज-व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने के लिए किया जाता रहा है। भूतकाल में पश्चिम की शक्तिशाली सेनाएं यीशु के लिए सक्रिय थी; आजकल पश्चिम की प्रचूर सम्पत्ति के बल पर यीशु के व्यापारी (merchants of Jesus) अपना धंधा चला रहे है। इसलिए भारत में कार्यरत ईसाई मिशन्स के प्रचंड तंत्र में धर्म-तत्व खोजने का व्यर्थ प्रयास करने की भुल कभी नहीं करनी चाहीए।

यह दुःखद आश्चर्य की बात है कि वेद-वेदांग, इतिहास-पुराण, षड्-दर्शन शास्त्र, रामायण-महाभारत, त्रिपिटक, जैनआगम और भक्ति साहित्य की भूमि भारतवर्ष में ईसाई मिशनरीयों को बाईबल के यीशु के लिए आज भी बाजार मिल रहा है! इस से भी ज्यादा विस्मय की बात यह है कि खुद हिन्दू सन्तों, बाबाओं, स्वामीयों, कथाकारों आदि धर्मध्वजीयों और सर्व-धर्म-समभाववादी सेकुलर जमातों द्वारा ईसाईयत को एक “धर्म” के रूप में और यीशु को एक “देवता” के रूप में स्वीकृति दी जा रही है!! भारत के इस विचित्र वर्तमान परिदृश्य को लक्ष में रखकर *इतिहासकार स्व. सीताराम गोयल* ने अपनी पुस्तक Jesus Christ: An Artifice for Aggression (पृ. 82) में लिखा है कि *स्वामी दयानन्द सरस्वती ने बाईबल का अध्ययन कर यीशु की असलियत सामने रख दी थी, लेकिन दुर्भाग्य से उनके बाद आने वाले हिन्दू नेताओं ने स्वामी दयानन्द के उदाहरण का अनुसरण नहीं किया!!* तब से लेकर आज तक एक ओर तो ईसाई मिशन्स के कारनामों की कभी-कभार दबे स्वर में भर्त्सना की जाती रही है, जबकि दुसरी ओर यीशु की प्रशंसा के पुल बांधे जाते रहे है!! लेकिन यह प्रयुक्ति कारगर सिद्ध नहीं हुई है। यीशु के प्रति हिन्दूओं के इस लगाव को सीताराम गोयल जी *हिन्दूओं की कमजोरी* के रूप में देखते है। उनका कहना है कि हिन्दूओं की इस कमजोरी का भरपूर लाभ उठाकर ही राइमुन्डो पनिक्कर (The Unknown Christ of Hinduism), एम.एम. थॉमस (The Acknowledged Christ of the Indian Renaissance), के.वी. पॉल पिल्लई (India’s Search for the Unknown Christ), एलिसाबेथ क्लेर प्रोफेट (The Lost Years of Christ), केथलिन हिली (Christ as Common Ground: A Study of Christianity and Hinduism) आदि ईसाई लेखक हिन्दू धर्म में यीशु को बलात् घुसेडने को प्रोत्साहित हुए है, जबकि वास्तविकता यह है कि यीशु ख्रिस्त और हिन्दू धर्म के मध्य दूर दूर का भी कोई सम्बन्ध नहीं रहा है। हिन्दू पुनर्जागरण के किसी भी पुरोधा ने यीशु को ख्रिस्त (मसीहा) के रूप में स्वीकार नहीं किया था, और न ही यीशु, यदि वह वास्तव में था, ज्ञान प्राप्त करने या ज्ञान देने के लिए कभी भारत आया था। इसी तर्ज पर और इसी उद्देश्य से लिखी गई ऐसी और कई पुस्तकों का उल्लेख लिया जा सकता है, जिसमें यह सिद्ध करने का व्यर्थ प्रयास किया गया है कि यीशु को ख्रिस्त (मसीहा) के रूप में स्वीकार किये बिना हिन्दू धर्म अपूर्ण है। सीताराम गोयल जी का कहना था कि *जब तक हिन्दू समाज स्पष्ट रूप से यह घोषणा नहीं कर देता कि सनातन धर्म और एक-मात्र उद्धारक की ठेकेदार ईसाईयत के मध्य कुछ भी समानता नहीं है तब तक बाजार में ऐसी फर्जी पुस्तकों की बाढ आती रहेगी।* डॉ. कोनराड एल्स्ट का भी मन्तव्य है कि हिन्दूओं को, जो यीशु विषयक भावनात्मक जाल में फंस चुके है, यह जानना पडेगा कि *हिन्दू धर्म का सार “सर्व-धर्म-समभाव” नहीं है, बल्कि हिन्दू (वैदिक) धर्म का मूल तत्व “सत्य” है।* 

अत: हिन्दू समाज के लिए यह समझ लेने का समय आ गया है कि यीशु हमारे लिए आध्यात्मिक शक्ति का प्रतिक या नैतिक जीवन का आदर्श कभी नहीं हो सकता। इतिहास साक्षी है कि शुरुआत से ही साम्राज्यवादी आक्रमणों के लिए यीशु का एक साधन के रूप में प्रयोग किया गया है, और आज भारत के सन्दर्भ में भी यीशु साम्राज्यवादी आक्रमण के एक साधन से ज्यादा और कुछ नहीं है। इन आक्रमणकारीयों के लिए यीशु रूपी यह साधन बहुत ही फायदेमंद सिद्ध हुआ है। इसलिए हिन्दू समाज को यह वास्तविकता समझ लेनी चाहीए कि साम्राज्यवादी ताकतों का यीशु रूपी यह हथकण्डा अपने देश और संस्कृति के लिए विध्वंसकारी सिद्ध हो सकता है। सीताराम गोयल का कहना है कि, “The West, where he [Jesus] flourished for long, has discarded him as junk. There is no reason why Hindus should buy him. He is the type of junk that cannot be re-cycled. He can only poison the environment”. अर्थात् *“पश्चिमी जगत ने, जहाँ वह [यीशु] एक लम्बे समय तक फूला-फाला, उसको अब कबाड-कचरा समझकर फेंक दिया है. इसलिए कोई कारण नहीं है कि हिन्दू समाज उस कबाड को खरीदें। वह ऐसा कबाड है जिसे रि-सायकल नहीं किया जा सकता; वह केवल वातावरण को प्रदूषित ही कर सकता है।"* (Jesus Christ: An Artifice for Aggression”, पृ. 85)
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूचि:

[1] Jesus Christ: An Artifice for Aggression (सीताराम गोयल)

[2] Psychology of Prophetism: A Secular Look at the Bible (डॉ. कोनराड एल्स्ट)

[3] Catholic Ashrams: Sannyasins or Swindlers? (सीताराम गोयल)

[4] Missionaries in India (अरुण शौरी)

Monday, September 9, 2019

धर्म शिक्षा

◼️धर्म शिक्षा◼️
✍🏻 लेखक - स्वामी दर्शनानन्द जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
🧐प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं?
🌺उत्तर- धर्म उन स्वाभाविक गुणों का नाम है जिनके होने से वस्तु की सत्ता स्थिर रहती है और जिनके न होने पर वस्तु की सत्ता स्थिर नहीं रह सकती।
🧐प्रश्न- हमें दृष्टान्त देकर समझा दो।
🌺उत्तर- गर्मी और तेज अग्नि के धर्म हैं। जहाँ अग्नि होगी वहाँ गर्मी और तेज अवश्य होंगे जहाँ गर्मी और तेज न रहेंगे, वहाँ अग्नि भी न रहेगी।
🧐प्रश्न- और दृष्टान्त दो।
🌺उत्तर- मनुष्य-जीवन के लिए शरीर के अङ्ग और प्राण आवश्यक हैं। यदि शरीर का कोई अङ्ग कट जाए तो मनुष्य के जीवन का नाश नहीं होगा, परन्तु प्राणों के न रहने पर मनुष्य कभी जीवित न रहेगा।
🧐प्रश्न- क्या जीव का धर्म प्राण धारण करना है?
🌺उत्तर- नहीं, जीव का धर्म ज्ञान और प्रयत्न है, अर्थात् ज्ञान के अनुसार कर्म करना।
🧐प्रश्न- जीव को कर्म करने की आवश्यकता क्यों हुई?
🌺उत्तर- जीव अल्पज्ञ है, अत: उसे दुःख प्राप्त होता है, उस दुःख को दूर करने के लिए जीव को कर्म करने की आवश्यकता है।
🧐प्रश्न- दुःख का लक्षण क्या है?
🌺उत्तर- आवश्यकता का होना और उसकी पूर्ति के साधनों का न होना दुःख है, या स्वतन्त्रता का न होना दु:ख है।
🧐प्रश्न- दुःख का अर्थ तो तक़लीफ़ है?
🌺उत्तर- दुःख और तकलीफ़ दो पर्यावाचक शब्द हैं। जो लक्षण दुःख का है वही तक़लीफ़ का है।
🧐प्रश्न- दुःख के वास्ते कोई प्रमाण देकर समझाओ।
🌺उत्तर- एक मनुष्य घर में बैठा है, उसे कोई कष्ट नहीं है, परन्तु उसे घर से निकलने से बलपूर्वक रोक दिया जाए तो यह बन्धन ही दुःख है। जब क्षुधा लगे और भोजन न मिले तो दुःख है; यदि भोजन मिल जावे तो कष्ट नहीं। इसी प्रकार बहुत-से उदाहरण मिल सकते हैं।
🧐प्रश्न- जीव अल्पज्ञ क्यों है?
🌺उत्तर- एकदेशी अर्थात् परिच्छिन्न होने से।
🧐प्रश्न- जीव दुःख से किस प्रकार छूट सकता है?
🌺उत्तर- परमेश्वर के जानने और उसकी आज्ञानुसार कार्य करने से।
🧐प्रश्न- परमेश्वर एक है या अनेक।
🌺उत्तर- ईश्वर एक है।
🧐प्रश्न- ईश्वर कौन है?
🌺उत्तर- जो इस जगत् को रचनेवाला, पालनेवाला और नाश करनेवाला है।
🧐प्रश्न- ईश्वर के होने में क्या प्रमाण है?
🌺उत्तर- जगत् की प्रत्येक वस्तु का नियमानुसार कार्य करना और प्रत्येक वस्तु में नियम होना और इन नियमों के परीक्षार्थ वेद-जैसे पूर्ण शास्त्र का होना।
🧐प्रश्न- ईश्वर को जगत् के रचने की क्या आवश्यकता थी?
🌺उत्तर- उसकी स्वाभाविक दया और न्याय का गुण ही जगत् बनाने का हेतु है।
🧐प्रश्न- न्याय और दया तो किसी दूसरे पर होती है, क्या ईश्वर के अतिरिक्त और वस्तु भी जगत् से पहले थी जिसपर न्याय और दया करने के लिए जगत् बनाया?
🌺उत्तर- प्रकृति और जीव दो अनादि पदार्थ ईश्वर के अतिरिक्त हैं, अर्थात् ईश्वर, प्रकृति, और जीव तीन वस्तुएँ अनादि हैं। जीवों पर दया और न्याय के लिए ईश्वर जगत् को रचता अर्थात् उत्पन्न करता है।
🧐प्रश्न- क्या जगत् से जीव और प्रकृति पृथक् हैं?
🌺उत्तर- जीव और प्रकृति अनादि हैं और जगत् उत्पन्न किया हुआ है।
🧐प्रश्न- यदि जीव और प्रकृति परमेश्वर के उत्पन्न किये हुए नहीं हैं तो इन्हें परमेश्वर का आज्ञाकारी किसने बनाया?
🌺उत्तर- परमेश्वर अपने सर्वोत्तम गुण आनन्द और सर्वज्ञता आदि के कारण से इनपर अनादि काल से राज्य करता है।
🧐प्रश्न- जो लोग परमेश्वर को प्रकृति और जीव आदि का रचनेवाला कहते हैं, क्या उनका विचार असत्य है?
🌺उत्तर- उत्पन्न करने का अर्थ प्रकट करना है, अभाव से भाव में लाना नहीं, क्योंकि बिना शरीर में आये जीव का और बिना कार्य-जगत् बने प्रकृति का ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए जो शरीर और जगत् का रचनेवाला है वही उत्पन्न करनेवाला है।
🧐प्रश्न- ईश्वर कहाँ है?
🌺उत्तर- 'कहाँ' शब्द एकदेशी वस्तु के लिए आता है, क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापक है, इसलिए 'ईश्वर कहाँ है' यह प्रश्न ही ठीक नहीं है। जैसे कोई कहे कि दूध में सफेदी कहाँ है तो कहेंगे कि दूध की बूंद-बूंद में। कोई कहे कि मिश्री में मिठास कहाँ है तो उत्तर होगा कि कण-कण में। इसी प्रकार जो वस्तु प्रत्येक स्थान में रहती हो उसके लिए 'कहाँ' के प्रश्न का उत्तर 'प्रत्येक स्थान में', 'जगह-जगह पर' होगा, कारण यह है कि कहाँ कहने का अर्थ कोई एक स्थान ज्ञात करना है, अतः यह प्रश्न ही ठीक नहीं है।
🧐प्रश्न- यदि ईश्वर प्रत्येक स्थान में है तो हमें दिखाई क्यों नहीं देता, जबकि दूध में सफेदी हम नेत्र से देखते हैं, मिश्री में मिठास हम जिह्वा से ज्ञात करते हैं?
🌺उत्तर- वर्तमान वस्तु के दृष्टि में न आने के छह कारण होते हैं- प्रथम, वस्तु हमारे नेत्र से बहुत समीप हो, जैसे सुरमा नेत्र से बहुत निकट होने के कारण दृष्टि में नहीं आता। दूसरे, दूर होने से दृष्टिगोचर नहीं होता। तीसरे, अत्यधिक सूक्ष्म होने से जैसे परमाणु विद्यमान होने पर भी दृष्टि में नहीं आते। चौथे, बहुत बड़ा होने से, जैसे हिमालय। पाँचवें, इन्द्रिय अर्थात् चक्षु आदि में विकार आ जाने से, जैसे अन्धे को दूध में सफेदी दृष्टिगोचर नहीं होती। छठे, आवरण (परदा, दीवार) होने पर हम दीवार के दूसरी ओर की वस्तुओं को नहीं देख सकते।
🧐प्रश्न- इन छह कारणों में से हमारे ईश्वर के न जानने का क्या कारण है?
🌺उत्तर- क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापक है इस कारण जीव के अन्दर-बाहर होने से बहुत समीप है और दूसरे बहुत ही सूक्ष्म है, ये ही दो कारण हैं जिससे हमें ईश्वर दृष्टिगोचर नहीं होता।
🧐प्रश्न- जो बहुत निकट हो उसके दृष्टिगोचर न होने का क्या कारण है?
🌺उत्तर- क्योंकि मनुष्य को प्रत्येक वस्तु के देखने के लिए प्रकाश की आवश्यकता होती है, इसलिए जब तक नेत्र और वस्तु के मध्य में प्रकाश की किरणें न हों, तब तक नेत्र से उस वस्तु का सम्बन्ध नहीं होता। सुरमे के नेत्र के अति समीप होने के कारण नेत्र और सुरमे के मध्य प्रकाश की किरणें नहीं हैं, अतः उसका ज्ञान नहीं होता।
🧐प्रश्न- तो क्या ईश्वर को किसी प्रकार जान भी सकते हैं?
🌺उत्तर- हम ईश्वर को अवश्य जान सकते हैं।
🧐प्रश्न- किस प्रकार जान सकते हैं?
🌺उत्तर- जिस प्रकार से नेत्र के सुरमे को जान सकते हैं, उसी प्रकार परमेश्वर को जान सकते हैं।
🧐प्रश्न- नेत्र के सुरमे को देखने के लिए तो केवल एक शीशे की आवश्यकता है। शीशा हाथ में लिया और नेत्र का सुरमा दृष्टि में आया!
🌺उत्तर- जैसे नेत्र के सुरमे को देखने के लिए बाह्य शीशे की आवश्यकता है, वैसे ही ईश्वर को देखने के लिए भी एक आन्तरीय शीशा है।
🧐प्रश्न- वह आन्तरीय शीशा कौन-सा है?
🌺उत्तर- मन। मनुष्य का दिल एक शीशा है जिसमें परमेश्वर का दर्शन किया जा सकता।
🧐प्रश्न- मन तो प्रत्येक मनुष्य के पास है, फिर प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर दृष्टिगोचर क्यों नहीं होता? मन क्या वस्तु है?
🌺उत्तर- मन वह भीतरी सूक्ष्म वस्तु है जिसके कारण हमें एक समय में दो वस्तुओं का ज्ञान नहीं होता।
🧐प्रश्न- मन प्रकृति से बना है या अप्राकृत है? वह नित्य है या अनित्य?
🌺उत्तर- मन प्रकृति से बना है, उत्पत्तिवाला है, नित्य नहीं है।
🧐प्रश्न- मन तो प्रत्येक मनुष्य के पास है, फिर सभी को ईश्वर दृष्टिगोचर क्यों नहीं होता?
🌺उत्तर- यदि शीशे और नेत्र के मध्य में प्रकाश न हो तो शीशे की उपस्थिति में भी नेत्र का सुरमा दिखाई नहीं देता।
🧐प्रश्न- मन और ईश्वर के मध्य कौन-सा अँधेरा है, जिसके कारण ईश्वर दृष्टिगोचर नहीं होता?
🌺उत्तर- अविद्या का अँधेरा जब तक विद्या के प्रकाश से दूर न हो, तब तक ईश्वर दृष्टिगोचर नहीं हो सकता।
🧐प्रश्न- अविद्या को दूर करने का उपाय क्या है?
🌺उत्तर-सत्य विद्या।
🧐प्रश्न- क्या कोई असत्य विद्या भी है?
🌺उत्तर- विद्या शब्द ज्ञान का दूसरा नाम है और ज्ञान दो प्रकार का होता है, एक-उत्पत्तिवाले पदार्थों का जानना; दूसरे-नित्य पदार्थों का जानना। जो उत्पत्तिवाले पदार्थ हैं वे सब विकारी हैं, इसलिए उनका जानना भी परिणामी है, उसी को असत्य विद्या कहते हैं। सत्य कहते हैं नित्य को, अर्थात् जो तीन काल में रहे। परिणामी की सत्ता स्थिर नहीं रह सकती इसलिए वह अनित्य है।
🧐प्रश्न- ज्ञान कितने प्रकार का होता है?
🌺उत्तर- ज्ञान तीन प्रकार का है-विद्या, अविद्या, सत्यविद्या।
🧐प्रश्न- अविद्या किसे कहते हैं?
🌺उत्तर- पदार्थ के यथार्थ तत्त्व न को जानकर उलटा समझने को अविद्या कहते हैं।
🧐प्रश्न- अविद्या गुण है या द्रव्य?
🌺उत्तर-अविद्या गुण है।
🧐प्रश्न- अविद्या जीव का स्वाभाविक गुण है या नैमित्तिक?
🌺उत्तर- अविद्या नैमित्तिक है, स्वाभाविक नहीं।
🧐प्रश्न- यदि अविद्या नैमित्तिक गुण है तो उसकी उत्पत्ति का कारण क्या है?
🌺उत्तर- इन्द्रियों की कमजोरी और संस्कारों का दोष अविद्या की उत्पत्ति का कारण है।
🧐प्रश्न- अविद्या से किस प्रकार का ज्ञान होता है?
🌺उत्तर- चेतन अर्थात् ज्ञानवाले जीवात्मा को अचेतन प्रकृति का कार्य जानना, नित्य अर्थात् अनादि वस्तुओं को उत्पत्तिवाली और उत्पत्तिवाली वस्तुओं को अनादि समझना, शरीर आदि अपवित्र पदार्थों को पवित्र और दुःख देनेवाले पदार्थों को सुख का कारण और दुःख को सुख समझना-इस प्रकार का ज्ञान अविद्या कहलाता है।
🧐प्रश्न- विद्या किसे कहते हैं?
🌺उत्तर- चेतन जीवात्मा के ज्ञान का नाम विद्या है। जो अविद्या के गुण से पृथक हो और जिससे जितने परिणाम होते जावें उसी प्रकार से शुद्ध परिणामी ज्ञान हो, उसे विद्या कहते हैं।
🧐प्रश्न- सत्यविद्या किसे कहते हैं?
🌺उत्तर- जो सर्वज्ञ ईश्वर का अपरिणामी ज्ञान है, जो देश-काल और वस्तु के भेद से बदलता नहीं, उसे सत्यविद्या कहते हैं।
🧐प्रश्न- सत्यविद्या और विद्या का भेद किसी दृष्टान्त से समझाओ!
🌺उत्तर- जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश मनुष्यों के लिए संसार के आदि में ईश्वर ने उत्पन्न किया है, वह प्रत्येक मनुष्य के लिए एक-सा है, लेकिन मानवी सृष्टि का प्रकाश दीपक, लैम्प, गैस, बिजली, आदि अनेक भाँति का है, वह प्रत्येक गृह के लिए पृथक्-पृथक् प्रकार का है।
🧐प्रश्न- क्या ईश्वरीय ज्ञान के बिना मनुष्य अपने जीवनोद्देश्य पर नहीं पहुँच सकता?
🌺उत्तर- कदापि नहीं! जिस प्रकार प्रकाश के बिना नेत्र अपने काम को पूरा नहीं कर सकते, ऐसे ही बुद्धि भी बिना ईश्वरीय ज्ञान की सहायता के अपना काम नहीं कर सकती।
🧐प्रश्न- नेत्र को काम करने के लिए प्रकाश की आवश्यकता है चाहे वह सूर्य का हो या लैम्प का, इसी प्रकार बुद्धि को विद्या चाहिए चाहे वह मनुष्य की बनाई हो या ईश्वर की।
🌺उत्तर- मनुष्य के जीवनोद्देश्य बहुत कठिन और जीवन का समय बहुत न्यून है, इसलिए मनुष्य ईश्वरीय ज्ञान से ही कृतकार्य हो सकता है, उदाहरण के रूप में कोई मनुष्य दीपक को हाथ में लेकर नहीं चल सकता।
🧐प्रश्न- क्या कारण है कि मनुष्य सूर्य के प्रकाश में दौड़कर चल सकता है और दीपक का प्रकाश लेकर दौड़कर नहीं चल सकता?
🌺उत्तर- दीपक का प्रकाश पवन को सहन नहीं कर सकता, ऐसे ही मनुष्य की विद्या तर्क को सहन नहीं कर सकती। दीपक के बुझने का भय चलनेवाले को रोकता है और दूर तक देखने की शक्ति का न होना भी रोकनेवाला है। इसी प्रकार मनुष्य की विद्या केवल मान ली जाती है जिसे कोई "ईमान' कहते हैं, और जिस मार्ग पर विद्या की सहायता से चले उसे “मत'' कहते हैं, परन्तु मत और ईमान से कोई जीवनोद्देश्य पर नहीं पहुँच सकता, केवल धर्म और ज्ञान से पहुँच सकता है।
🧐प्रश्न- मत और धर्म तो पर्यायवाचक शब्द हैं?
🌺उत्तर- कदापि नहीं! मत के अर्थ मार्ग और धर्म का अर्थ स्वाभाविक गुण है।
🧐प्रश्न- धर्म और मत की पहचान क्या है?
🌺उत्तर- धर्म में जीवात्मा का सम्बन्ध सिवाय सर्वव्यापक परमेश्वर और अपने आत्मिक गुण के अन्य किसी प्राकृतिक वस्तु और मनुष्य-से नहीं होता, परन्तु मत बिना मनुष्य और प्राकृतिक सम्बन्ध के नहीं चल सकता।
🧐प्रश्न- हमें धर्म और मत का दृष्टान्त देकर समझाओ!
🌺उत्तर- धर्म के दस लक्षण जो मनु ने लिखे हैं उनको पढ़ो और मुस्लिम तथा ईसाइयों की पुस्तकों को पढ़ो तो धर्म और मत का भेद ज्ञात हो जाएगा।
🧐प्रश्न- मनु ने धर्म के दस लक्षण कौन-से लिखे हैं?
🌺उत्तर- प्रथम धृति, दूसरे क्षमा अर्थात् सहन करने की शक्ति, तीसरे मन को स्थिर रखना, चौथे चोरी का स्मरण तक न होने देना, पाँचवें शुद्ध अर्थात् पवित्र रहना, छठे अपनी इन्द्रियों को वश में रखना, सातवें बुद्धि को बढ़ाना, आठवें विद्या का ग्रहण करना, नवें सत्य के ग्रहण करने और असत्य के त्यागने में सर्वदा उद्यत रहना, दसवें क्रोध न करना।
✍🏻 लेखक - स्वामी दर्शनानन्द जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
॥ओ३म्॥