◼️क्या हम जीवित हैं?◼️
✍🏻 लेखक - स्वामी दर्शनानन्द जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
✍🏻 लेखक - स्वामी दर्शनानन्द जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
🔥ओं यऽआत्मदा बलदा यस्य विश्वऽउपासते प्रशिषं यस्य देवाः।
यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥
-यजुर्वेद अध्याय २५, मन्त्र १३
यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम॥
-यजुर्वेद अध्याय २५, मन्त्र १३
इस वेदमन्त्र में ईश्वर जीवों को इस बात का उपदेश करते हैं कि मनुष्य मृतक कैसे कहलाता है, और अमृत कैसे होता है?
अर्थ-(यः) वह परमेश्वर (आत्मदा) आत्मा का देनेवाला है, इत्यादि।
यहाँ प्रश्न होता है कि जब जीवात्मा नित्य है तो परमात्मा उसका देनेवाला कैसे हो सकता है? इसका उत्तर यह है कि 'आत्मा' शब्द का अर्थ व्यापक है। जब तक व्याप्य न हो तो वह व्यापक कहला ही नहीं सकता, इसलिए शरीर के बिना उसे जीव तो कह सकते हैं, किन्तु जीवात्मा उसी दशा में कहलाएगा जब वह शरीर में व्यापक होगा। कतिपय मनुष्य यह शङ्का करेंगे कि शरीर तीन हैं-प्रथम स्थूलशरीर; दूसरा सूक्ष्मशरीर; तीसरा कारणशरीर । यद्यपि स्थूल तथा सूक्ष्मशरीर उत्पत्तिवाले होने से अनित्य हैं, उनकी उत्पत्ति से पूर्व आप उसे जीवात्मा न कहो, क्योंकि जिसमें आत्मा व्यापक रहे वह शरीर विद्यमान नहीं। हाँ, कारणशरीर में व्यापक होने से वह आत्मा कहला सकता है। इसलिए वेद में जो परमात्मा को आत्मा के देनेवाला बतलाया है, वह सत्य नहीं। इसका उत्तर यह है कि कारणशरीर सब जीवों का समान है। इसमें कोई सान्त आत्मा व्यापक नहीं कहला सकता। जीव को जो आत्मा कहा जाता है वह स्थूलशरीर में व्यापक होने के कारण कहा जाता है, अथवा सूक्ष्मशरीर में व्यापक होने के कारण जीव 'आत्मा' कहलाता है। कारणशरीर के होने से तो परमात्मा ही व्यापक कहला सकता है।
'बलदा'-जो बल का देनेवाला है, अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार "गवर्नमेण्ट'' का तीन रुपये का एक चपरासी बड़े-से-बड़े धनी को ले-आता है, यद्यपि उस धनी के दशों भृत्य विद्यमान रहते हैं, कुटुम्बी जन भी विद्यमान रहते हैं, परन्तु किसी में उस चपरासी के दूर हटाने की शक्ति नहीं होती, तो बताओ चपरासी में यह बल कहाँ से आया? कहना होगा कि राजा की नौकरी से। इसी प्रकार जो परमात्मा के नियमों पर चलते और उसके आश्रय में रहते हैं, उनमें भी वह बल आ जाता है कि वे समस्त सृष्टि का सामना कर सकते हैं, सृष्टि के मनुष्य उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। स्वामी श्री शङ्कराचार्य तथा स्वामी श्री दयानन्दजी महाराज के वत्तान्त किसी से छिपे नहीं हैं। इन महात्माओं के पास ईश्वरीय नियमों के जानने तथा उनके अनसार आचरण करने के अतिरिक्त और क्या था? समस्त संसार के मनुष्य उनसे विरोध करते रहे, तो भी उन्होंने कार्य की सिद्धि की।
'यस्य विश्व उपासते' जिसकी समस्त सृष्टि के विद्वान् प्रशंसा करते हैं, जो सब जगत का अन्यर्यामी है। 'यस्य छायाऽमृतम्'-जिसकी छाया अर्थात् जिसकी आज्ञानुसार चलना ही 'अमृतम्'-मुक्ति का कारण है। 'यस्य मृत्युः'-जिसकी आज्ञा के अनुसार न चलना ही 'मृत्यु:’ अर्थात् दुःख का हेतु है। 'कस्मै'-आनन्द के लिए 'देवाय हविषा विधेम'-उसी परमात्मा की उपासना करना कर्तव्य है।
जब कभी मैं इस मन्त्र के विषय पर विचार करता है, तो मेरे हृदय में यह प्रश्न होता है कि 'क्या मैं जीवित हूँ? या क्या हम जीवित हैं?' मेरे बहुत-से मित्र इस प्रश्न को सुनते ही कहेंगे कि यह विचित्र पागल है! जो बोलता है, खाता, पीता, चलता है, फिर भी कहता है कि हमारे जीवित होने में सन्देह है, परन्तु हमारे वे मित्र कुछ गम्भीरता के साथ विचारें तो उन्हें स्वयं भी अपने विषय में यही सन्देह उत्पन्न होगा।
अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या बोलनेवाला जीवित नहीं? क्योंकि बहुत-से मत वाले बोलते हुए पुरुष को जीवित मानते हैं, परन्तु सोचना चाहिए कि यदि बोलने का नाम ही जीवित होना है तो हमारा शब्द तो कदाचित् दस वा बीस गज पर्यन्त जा सकता है, परन्तु इञ्जन कि जिसका शब्द अनेक कोशपर्यन्त जाता है तो वह अवश्य ही जीवित कहला सकता है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि इञ्जन तो केवल अनर्थक शब्द करता है, परन्तु जिस शब्द में सार्थक ध्वनि निकले वह जीवित होने का चिह्न है-ऐसा मानने पर भी ऑर्गन बाजे और फोनोग्राफ को जीवित मानना पड़ेगा, क्योंकि उनमें से स्पष्ट शब्द तथा राग निकलते हैं। यहाँ वादी कह सकता है कि इनमें जो कुछ भर दिया जाता है, वही शब्द प्रकट होता है, तो इसका उत्तर यह है कि यदि वादी सोचकर देखे तो वह आप भी वही शब्द और वाक्य और विचार वाणी से निकाल सकता है जो उसमें भरा है। क्या जिस भाषा को वादी ने नहीं पढ़ा उसके शब्दों को बोल सकता है अथवा जिस विद्या के सिद्धान्तों को नहीं सीखा उन्हें बतला सकता है? कदापि नहीं। इस कारण यह बात फोनोग्राफ और मनुष्य में तुल्य है। सिद्ध हुआ कि बोलने के कारण फोनोग्राफ जीवित नहीं कहला सकता, इसी कारण बोलने से हम भी जीवित नहीं कहला सकते।
यदि कोई कहे कि हम चलते हैं तो क्यों जीवित नहीं? तो इसका उत्तर यह है कि आप तो घण्टे में दो या तीन मील जा सकते हैं, परन्तु इञ्जन एक घण्टे में चवालीस से ८० मील पर्यन्त सहस्रों मन भार लेकर चला जाता है तो उसे जीवित कहना चाहिए, परन्तु इञ्जन को कोई जीवित नहीं कहता। आप कहेंगे कि हम खाते हैं, पीते हैं, फिर जीवित क्यों नहीं? परन्तु हम तो अधिक-से-अधिक सेरभर खा सकते हैं, परन्तु इञ्जन तो सहस्रों मन कोयले खा जाता है और सहस्रों मन पानी पी जाता है। इतना खाने-पीने पर भी इञ्जन को जीवित नहीं कहते तो सेर-भर खाने या पीनेवाले को किस प्रकार जीवित कहेंगे?
उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट प्रकट होता है कि खाने-पीने, बोलने-चलने का नाम जीवित होना नहीं, किन्तु जीवित होना इनसे कोई पृथक् वस्तु है, क्योंकि ये गुण तो जड़ वस्तु में भी पाये जाते हैं। अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि यदि इन बातों का नाम जीवित होना नहीं तो किस बात का नाम जीवित होना है? इसका उत्तर यह है कि जीवात्मा की स्वतन्त्र सत्ता का नाम जीवित होना है। इसलिए कि इञ्जन में भी एक ड्राइवर विद्यमान है जिसके कारण इञ्जन चलता, खाता, पीता और बोलता है। जैसे ड्राइवर चलाता है, वैसे ही इञ्जन चलता है। यदि ड्राइवर जीवित हो तो इञ्जन उसके अधीन होगा कि जहाँ चाहे नियमानुसार ठहरा दे, चाहे पीछे लौटा दे परन्त यदि ड्राइवर चलती हुई गाड़ी में मर जाए तो ड्राइवर ही इञ्जन के अधीन हो जाएगा. उस समय इञ्जन का ठहराना ड्राइवर के अधीन नहीं रहेगा, किन्तु जहाँ इञ्जन ठहरेगा वहीं ड्राइवर को भी ठहरना होगा। बस, इस दृष्टान्त से स्पष्ट सिद्ध होता है कि यह शरीर इजन के तुल्य है और जीवात्मा ड्राइवर के समान है। यदि जीव के अधीन शरीर और उसके समस्त प्रदेश (मन-इन्द्रियादि) हैं तो वह जीवित है। यदि जीव मन, इन्द्रिय और शरीर के अधीन है तो वह मृतक है। जीवित वा मृतक होने का दूसरा चिह्न यह पाया जाता है कि जीवित मनुष्य अपने शरीर की किसी वस्तु को अपने से पृथक् नहीं होने देता। यदि किसी जीवित के शरीर से एक भी बिन्दु रक्त की निकल जावे तो वह घबरा जाता है। वह स्वेच्छा से रक्त का निकलना स्वीकार नहीं करता तथा वह बाह्य वस्तुओं को पचा जाता है, परन्तु मृतक की दशा इसके विरुद्ध हुआ करती है-वह बाहर की वस्तुओं को पचा नहीं सकता और उसके शरीर में से कितना ही भाग निकल जाए उसे ज्ञान या भान नहीं होता।
बहुत-से मनुष्य यह कहेंगे कि इञ्जन का दृष्टान्त शरीर के तुल्य नहीं हो सकता, क्योंकि यह मनघड़न्त है। इसका उत्तर यह है कि जो सम्बन्ध जीवों का और शरीर का इस स्थान पर बतलाया है, वह कठोपनिषद् में भी लिखा है। यथा -
🔥'आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च।
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्।' (इत्यादि)
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च।
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्।' (इत्यादि)
अर्थ-यह शरीर एक गाड़ी है और जीवात्मा इस गाड़ी में बैठकर चलनेवाला पथिक है, बुद्धि सारथि है, इन्द्रिय घोड़े हैं तथा मन लगाम और संसार के विषय-भोग इन्द्रियों के चलने का मार्ग है।
उक्त प्रमाणों से स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह शरीररूपी गाड़ी जीव को अभीष्टोद्देश्य पर पहुँचने के लिए दी गई है। जो जीव अपने को शरीर के अधीन कर लेता है वह वास्तव में मृतक है, क्योंकि हम अहर्निश शरीर के अधीन रहते हैं, इसलिए मृतक हैं, जीवित नहीं। यदि हममें जीवन होता तो हमारे छह करोड़ भाई यवन तथा तीस लाख भाई कृश्चियन न हो जाते ! हमारी धर्मरूपी काया में से इतने भाग का निकल जाना और हममें दूसरी जातियों को सम्मिलित करने (पचाने) की शक्तियों का न होना हमारे मृतक होने का स्पष्ट प्रमाण है। यही कारण है कि हम अपने हृदय में किसी कार्य को पूर्ण करने तथा उसका निर्वाह करने की शक्ति ही नहीं रखते। यद्यपि जड़ प्रकृति चेतन जीवात्मा की किङ्कर है, तथापि हमारे मृतक होने के कारण हम ही प्रकृति के दास बन गये। न तो हमें अपने परिश्रम पर विश्वास है और न ही अपने भाइयों की सहायता पर विश्वास है। ईश्वर का विश्वास तो होने ही क्यों लगा था, क्योंकि वेदमन्त्र में स्पष्ट बतला दिया है कि जो ईश्वर के आश्रय पर रहता है वह अमृत है, जो ईश्वर को त्याग देता है वह मृतक है।
हम लोगों ने ईश्वर के स्थान में प्रकृति का आश्रय लिया है। यदि धन न हो तो हमारा कोई काम दृढ ही नहीं, ईश्वर के नियमानुसार न होने से उसके आश्रय पर हम किसी काम को दृढ़ ही नहीं समझते, इसीलिए हम सरल मार्ग को छोड़कर वाम अर्थात् उलटे मार्ग पर चलने लगे हैं। कतिपय मनुष्यों को यह शङ्का होगी कि हम वाममार्गी कैसे हैं? न हम मद्य पीते हैं न मांस खाते हैं, परन्तु स्मरण रक्खो कि शास्त्रकारों ने स्त्री को पुरुष का वामभाग बतलाकर समस्त रचना को दो भागों में विभक्त किया है, जिस प्रकार वाम और दक्षिण दोनों विरोधी हैं (जो वाम है वह दक्षिण नहीं तथा जो दक्षिण है वह वाम नहीं)। प्रकृति परमात्मा के विरुद्ध गणवाली है (परमात्मा चेतन है, उसकी उपासना से ज्ञान बढ़ता जाता है। प्रकृति जड़ है, उसका उपासना से ज्ञान का ह्रास होता है। परमात्मा सर्वशक्तिमान है, उसकी उपासना से जीव का बल बढ़ता है; प्रकृति निर्बल है, उसकी उपासना से शक्ति का ह्रास होता है)। इस प्रकृति और परमात्मा को बहुत-से मनुष्यों ने विष्णु तथा लक्ष्मी के नाम से बतलाया। किसी ने शिव तथा शक्ति के नाम से कहा, अर्थात् शिव के मानने वाले दक्षिणमार्गी और शक्ति के माननेवाले वाममार्गी हैं, क्योंकि हम लोगों ने भी आर्ष एवं वेदोक्त मार्ग को छोड़कर वाममार्ग को स्वीकार कर लिया, इसीलिए हम धर्मरूपी जीवन से शून्य होकर मृतक हो गये। अनेक जन आग्रहपूर्वक अपने को महात्मा मानते हैं, यह वेद के साक्षात् विरुद्ध है, क्योंकि यजुर्वेद के ४०वें अध्याय में स्पष्ट लिखा
🔥हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितम्मुखम्॥ -यजुर्वेद ४०।१६
अर्थ-इच्छारूपी स्वर्णमय आवरण से सत्य का मुख आवृत हुआ है।
अर्थ-इच्छारूपी स्वर्णमय आवरण से सत्य का मुख आवृत हुआ है।
यदि तुम चाहते हो कि सत्यधर्म को प्राप्त होकर उन्नति को प्राप्त हों तो उस परदे को उठा दो, क्योंकि इस आवरण की उपस्थिति में सत्यधर्म का ज्ञान नहीं हो सकता, एवं आचरण के बिना जीवन नहीं हो सकता, क्योंकि हममें सद्धर्म का ज्ञान व आचरण ही नहीं, अतः हम जीवित कैसे कहला सकते हैं जब तक परमात्मा की छाया में आकर अमृत न बन जाएँ? यद्यपि बहुत से महर्षियों में हमें परमात्मा की छाया के नीचे लाकर जीवित बनाने का प्रयत्न किया, परन्तु वाममार्ग की उपासना से हमें कभी परमात्मा पर विश्वास ही नहीं हुआ। हम अपने लेख में बहुत-से वाक्य (ईश्वरीय विश्वास-सम्बन्धी ) लिखते हैं, परन्तु आचरण में रुपये पर ही विश्वास रखते हैं।
✍🏻 लेखक - स्वामी दर्शनानन्द जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
॥ओ३म्॥
इसलिए वेद में जो परमात्मा को आत्मा के देनेवाला बतलाया है, वह सत्य नहीं
ReplyDeleteजो वेदों को नहीं मानते वे नास्तिक होते हैं।
वेदों की ऋचाओं का अनुवाद करते वक्त हमें हमेशा छंद की ओर देखना चाहिते। हर एक छंद के विशिष्ट अक्षर होते हैं, विशिष्ट पद होते हैं। इसपर ध्यान देना जरूरी होता है।
य आत्मदा बलदा यस्य विश्व ( त्रिष्टुप् छंद ११ अक्षर )
जो आत्माओं का दाता हैं, जो बल का दाता हैं, जिसका (पूरा) विश्व है।
उपासते प्रशिषं यस्य देवाः। (११ अक्षर)
स्वीकार करते हैं, जिसके अनुशासन को अनेक देव ।
यहां स्पष्ट कहा गया है आत्मदा। मतलब आत्माओं को देनेवाला। आत्मा सजीव और निर्जीव में भेद करता है
आत्मदा का स्पष्ट मतलब है आत्माओं को उत्पत्ती, स्थिती और लय/संहार अवस्थायें होती है।
जब आत्मा लय मूल पदार्थों में होता है उसी को मोक्ष कहते हैं। जो ये समझ नहीं सकते वे मोक्ष शब्द का अर्थ अलग कहते हैं ।
ये समझना, जानना कुछ लोगों को कठिनाई है ।
लेकिन वेद गलत नहीं है।