Monday, August 31, 2020

छः दर्शनों में परस्पर विरोध व अविरोध पर विचार


छ: दर्शनों में परस्पर विरोध व अविरोध पर विचार

[आर्यसमाज के महान् शास्त्रार्थ महारथी पण्डित शिवशंकर शर्मा 'काव्यतीर्थ' द्वारा गुरुकुल कांगड़ी के द्वितीय दिवस के अधिवेशन मार्च सं० १९६४ वि० में पढ़ा निबन्ध]

सम्पादक- प्रियांशु सेठ (वाराणसी)
हिन्दी अनुवादक [संस्कृत से]- डॉ० प्रीति विमर्शिनी, पाणिनि कन्या महाविद्यालय (तुलसीपुर, वाराणसी)

छः दर्शनों को लेकर आज यहां पर विचार होगा, यह देखकर हमारे अन्तःकरण में अत्यन्त उल्लास उत्पन्न हो रहा है। प्रत्येक वर्ष यदि इसी प्रकार दोषज्ञ परीक्षक जन प्रेम से इकट्ठे होकर संसार के उपकार के लिए प्रमेय के निश्चय के लिए प्रयत्नशील हों तभी सन्तानों का पथ राजपथ के समान निरुपद्रव हो जायेगा, ऐसी मैं आशा करता हूं। मनुष्य स्वल्पज्ञ होते हैं इसलिए पग-पग पर स्खलित व भ्रमित हो जाते हैं इसमें सन्देह नहीं, किन्तु आज भी इस देश में स्वयं को सर्वज्ञ मानने वाले हजारों की संख्या में हैं यह इस देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा।

भला ईश्वर की अनन्त विभूति का परिच्छेद करने में कौन समर्थ हो सकता है, परन्तु विशेष रूप से ज्ञान ग्रहण करने के लिए ही परमेश्वर ने इस मानवी सृष्टि की रचना की है, ऐसा मैं अनुमान करता हूं। इसलिए जितनी आयु हो तब तक यथाशक्ति ज्ञान की प्राप्ति के लिए ही हमें प्रवृत्त होना चाहिए, यह मेरी आग्रहपूर्वक सम्मति है। इसलिये आधुनिक लोगों के समान पुरातन पुरुष भी सर्वज्ञ नहीं थे, यह हमारा निश्चय है।

छः शास्त्रों का निर्माण करने वाले ऋषि जो उदार हृदय और स्वतन्त्र मति वाले थे, इन छः दर्शनों के माध्यम से संसार में इन्होंने संसार के उपकार के लिए अनुसन्धान मार्ग की एक नवीन परम्परा स्थापित की है। हम सर्वज्ञ हैं, हमारा ही ज्ञान सम्यक् ज्ञान से युक्त है इसलिए इसमें विवाद नहीं करना चाहिए, जैसा उपदेश हमने किया है आप सबको वैसा ही जानना और समझना चाहिए, यह कथन करने वाले कभी भी महाशय नहीं हो सकते। इसलिए विवेचन आरम्भ करने से पहले मैं विनयपूर्वक अपने लब्ध ब्राह्मणादि वर्ण विद्वानों परीक्षकों से निवेदन करता हूं कि पूर्व से और पूर्वतर शिष्टों के द्वारा परिगृहीत होने से इस विषय में शंका नहीं करनी चाहिए किन्तु जैसा आचार्यों ने अनुशासन किया है वैसा ही जानना-समझना चाहिए।
पूर्वाचार्यों का विशेष आदर होने, अधिक विज्ञान होने, सम्यक् दर्शन का सामर्थ्य होने, सिद्ध पुरुष होने, त्रिकालदर्शी होने आदि कारणों से तथा हम उसके विपरीत हैं, हमारे अन्दर वह ज्ञान सिद्धि आदि नहीं है। इस कारण हमें उनके कथन का निराकरण अथवा उनमें संशय करने की बात मन से भी नहीं सोचनी चाहिए क्योंकि ऐसा करने पर सत्यासत्य के विवेक का लोप हो सकता है। जैसा कि हम देखते हैं पूर्वाचार्य बाद के आचार्यों के द्वारा निगृहीत हो रहे हैं, जैसा कि यास्काचार्य, गार्ग्य और कौत्स के मत का प्रत्याख्यान करते हुए देखे जाते हैं।

श्रीमान् शंकराचार्य ब्रह्म की मीमांसा व्यतिरेक से अन्य जो सम्यक् दर्शन शास्त्रों की असारता का प्रदर्शन कर रहे हैं, स्वयं छहो दर्शन शास्त्र भी परस्पर वादों का प्रत्याख्यान करने वाले प्रतीत होते हैं। उदाहरणार्थ-
"न वयं षट्पदार्थवादिनो वैशेषिकादिवत्।" मैं छह पदार्थवादी नहीं हूं वैशेषिक आदि के समान। "नाविद्यातोऽप्यवस्तुना बन्धायोगात्।" अविद्यारूप वस्तु से भी बन्ध का अयोग होने से यह मान्य नहीं आदि सूत्रों के द्वारा सांख्याचार्य, वैशेषिक तथा मायावाद पर आक्षेप नहीं करते हैं क्या? "रचनानुपपत्तेश्च नानुमानम्।" रचना की उपपत्ति न होने से यह अनुमान ठीक नहीं। "पयोऽम्बुवश्चेत्तत्रापि" यदि दूध और पानी के समान है तो वहां भी "ईक्षतेर्नाशब्दम्" "महद्दर्विवद्वा हस्वपरिमण्डलाभ्याम्" "उभयथापि न कर्म्मातस्तदभाव:" इत्यादि सूत्रों को बनाने वाले वेदान्ताचार्य के द्वारा सांख्य, वैशेषिकादि आचार्यों की प्रगाढ़ युक्तियों से दृढ़ किये गए, आप्तजनों के द्वारा मोक्ष के साधन रूप में ग्रहण किये गए, तथा श्रुतियों, स्मृतियों के प्रमाणों से प्रमाणित मतों को भी प्रत्याख्यान नहीं करते हैं। अस्तु, जिस देश में विचार स्वातन्त्र्य का अभिनन्दन नहीं अपितु निन्दा की जाती है वह देश कभी भी कल्याण की श्रेणिपरम्परा पर आरोहण करता हुआ अभ्युदय के पर्वत शिखर को नहीं प्राप्त कर सकता।

इस धराधाम पर जो भी आचार्य हुए वे या तो भगवान् के अवतार रूप में अथवा देवता के अंश के रूप में, जिस भी किसी प्रकार महान् अद्भुत रूप में स्वीकार करके ब्रह्म-ईश्वर के समान ही पूजा को प्राप्त करते हैं। इतना ही नहीं जैसे वेद के गम्य, मन्त्र, अथवा शब्द प्रत्याख्यान (खण्डन) के योग्य नहीं, विचार के योग्य नहीं उसी प्रकार इन आचार्यों के गम्य अथवा सूत्रादि प्रत्याख्यान अथवा मीमांसा (विचार) की आवश्यकता नहीं रखते, जब से ऐसी जन मानस ने धारणा बना ली है, तभी से ऋषि-महर्षियों के द्वारा इस देश पर अनुग्रह कृपा होनी रुक गई, वैचारिक उन्नति अवरुद्ध हो गई।

महर्षि व्यास साक्षात् भगवान् के अवतार, महर्षि कपिल भी व्यास के समान भगवान् के अवतार, पाणिनि मुनि तो साक्षात् शिव, महर्षि पतञ्जलि हजार फन गले शेषनाग, आचार्य भास्कर साक्षात् भास्कर सूर्य ही हैं, कालिदास भगवान् के पुत्र के समान, धन्वन्तरि समुद्र मन्थन से निकले हुए साक्षात् परमेश्वर ही मान लिये गये, इस प्रकार सभी प्राचीन विद्वान् देवताओं के अंश के रूप में ही स्वीकृत किये गये हैं किन्तु ऐसा मन्तव्य सर्वथा हास एवं कुपथ की ओर ले जाने वाला ही है। ऐसा कहने का मेरा तात्पर्य यह कथमपि नहीं कि ये पूजा एवं आदर के योग्य नहीं अपितु हम इन प्राचीन आचार्यों को बार-बार नमस्कार करते हैं तथा हृदय से उनका अभिनन्दन करते हैं। किन्तु इन आचार्यों ने जैसा कहा उनको बिना विचार किये वैसा ही स्वीकार कर लेना, उन आचार्यों ने सब यथार्थ ही कहा है, कुछ भी अयथार्थ अथवा गलत नहीं है, प्राचीन आचार्यों द्वारा उक्त कुछ भी खण्डन अथवा विमर्श करने योग्य नहीं, हम ऐसा नहीं मानते, नहीं स्वीकार करते। अतः सभी उदार हृदय पक्ष प्रतिपक्ष से रहित होकर यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करने के इच्छुक तथा सत्य को जानने के इच्छुक होने चाहिए, यही मैं यहां समुपस्थित सभी महानुभावों से प्रार्थना कर रहा हूं।

लोक में सुविख्यात छः श्रेष्ठ दर्शन हैं- सांख्य-योग, न्याय-वैशेषिक, कर्म्म मीमांसा एवं ब्रह्म मीमांसा। इनमें दोनों मीमांसा शास्त्र स्वतन्त्र रूप से किसी अपूर्व तथ्य को कहने में प्रवृत्त नहीं हैं। वेद तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में समन्वय करने हेतु कर्म्म मीमांसा तथा वेद एवं उपनिषदों के समन्वय के लिए ब्रह्म मीमांसा है। इन दोनों ग्रन्थों के अध्ययन से ऐसा ही प्रतीत होता है। शेष सांख्य आदि चार दर्शन ग्रन्थ श्रुतियों के अनुकूल होते हुए भी परतन्त्र होकर नहीं अपितु स्वतन्त्र विचारों को प्रस्तुत करते हैं। इनमें सर्वप्रथम पदार्थों के विषय में कुछ कहता हूं। सांख्यों ने प्रधान एवं पुरुष ये दो ही पदार्थ स्वीकार किए हैं। इसमें ईश्वर का प्रतिषेध होने से योगदर्शन के मतानुयायी प्रधान, पुरुष एवं ईश्वर ये तीन पदार्थ स्वीकार करते हैं। महर्षि गौतम ने प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन आदि सोलह पदार्थ स्वीकार किए हैं तथा कणाद ने द्रव्य, गुण, कर्म्म, सामान्य, विशेष एवं समवाय ये छः पदार्थ स्वीकार किए हैं। कर्म्म मीमांसा में पदार्थों के परिगणन के विषय में कोई आग्रह नहीं है। कर्मनिरूपण में इसका औचित्य न होने से ब्रह्म मीमांसा तो एक ईश्वर (ब्रह्म) को ही मात्र पदार्थ स्वीकार करता है।

अब जीवात्मा के विषय में विचार प्रस्तुत करते हैं-
शरीर इन्द्रिय अस्थि पञ्जर का स्वामी, शरीर इन्द्रिय से अतिरिक्त, ब्रह्म से भिन्न नित्य जानने योग्य प्रमेय द्रव्य आत्मा है, यह सिद्धान्त वेदान्त मतानुयायियों से अतिरिक्त सभी आस्तिक दर्शन शास्त्रों का है, इसमें तो कोई सन्देह नहीं है, परन्तु उसका स्वरूप क्या है? अणु परिमाण है, अथवा मध्यम या महत्परिमाण है? सगुण अथवा निर्गुण है? सभी शरीरों में एक ही आत्मा है अथवा प्रतिशरीर भिन्न-भिन्न है? अनन्त है तथा नित्य चैतन्य है अथवा यदाकदाचित्-चैतन्य है? इन विषयों में सभी आस्तिक दर्शन शास्त्रों में परस्पर विरोध है या नहीं, प्रथम इसी विषय पर विचार करते हैं। इसमें सांख्य दर्शन का सिद्धान्त यह है कि जीवात्मा नित्य चैतन्य शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव रूप सर्वज्ञ विभु परिमाण वाला तथा अनेक है। चेतन होता हुआ भी जीवात्मा स्वयं कोई चेतना नहीं करता, यह सांख्यों का मत विचारकों को, परीक्षकों को आश्चर्यचकित करने वाला है। सांख्याचार्यों का यह अभिप्राय है कि यह जीवात्मा सुख के गुणों को स्वीकार न करने के कारण न सुखी है, न ही दुःखी है दुःख के धर्म्म को स्वीकार न करने के कारण। प्रयत्न आदि अन्य गुणों को भी स्वीकार न करने के कारण प्रयत्नादि गुण वाला भी नहीं है। यह जीव कर्ता होता हुआ भी कुछ नहीं करता है, द्रष्टा होता हुआ भी कुछ नहीं देखता, भोक्ता होता हुआ भी कुछ उपभोग नहीं करता अर्थात् कर्तृत्व-द्रष्टृत्व-भोक्तृत्व आदि धर्म्म वास्तव में जीवात्मा के नहीं हैं, अपितु अचेतन बुद्धि में वर्तमान हैं, आत्मा में प्रतिफलित, प्रतिभासित होते हैं तथा आत्मा को कर्त्ता के समान, द्रष्टा के समान, भोक्ता के समान सुखी एवं दुःखी की भांति कर देते हैं। प्रथम दृष्ट्या सांख्यों का यह पक्ष हम लोगों के लिए दुर्बोध ही है। क्योंकि जीवात्मा देखता हुआ भी नहीं देखता, कर्ता हुआ भी नहीं करता आदि वाक्यों का क्या अभिप्राय सिद्ध होता है? यदि आत्मा स्वयं नहीं देखता है किन्तु बुद्धि देखती है और आत्मा में द्रष्टृत्व का उपचार होता है तो यहां यह प्रश्न होता है कि बुद्धि तो अचेतन है, वह कैसे देखेगी? अथवा आत्मा से कैसे निवेदन करेगी? निवेदन करके भी क्या करेगी? उससे क्या प्रयोजन सिद्ध होगा? क्योंकि आत्मा तो अविकारी है, विकार से रहित है। बार-बार निवेदन करने पर प्रार्थना करने पर भी, बोध कराने और भी जीव जड़ के समान कुछ नहीं बोलेगा; अतः निवेदन करना भी निष्प्रयोजन है। अहो! जीव चेतन होता भी कुछ नहीं करता, तथा अचेतन बुद्धि सब सम्पादित करती है, ये तथ्य किसको बुद्धिगम्य हो सकता है! तथा सांख्य के आचार्य आत्मा को नित्य चैतन्य स्वीकार करते हैं उनसे यह प्रश्न है कि सुषुप्ति एवं मूर्छा अवस्था में चेतन क्यों नहीं होता? इस सिद्धान्त को स्वीकार करने में बाह्य इन्द्रियों का अनर्थकत्व दोष उत्पन्न होता है। सुषुप्ति एवं मूर्छावस्था में विषयों के अभाव होने से चैतन्य की अनुभूति नहीं होती है, यदि ऐसा मानें तो यह भी युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि उसी में अर्थात् आत्मा में ही सभी विषयों की उपलब्धि होने से। जीवात्मा विभु परिमाण है, सांख्यदर्शन का यह सिद्धान्त भी हमारे लिए दुर्बोध ही है। यदि एक-एक जीवात्मा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अभिव्याप्त कर ले तब तो जो आत्मा मुझमें है वही आत्मा तुम्हारे में होगा और वही आत्मा सूर्य-चन्द्रमा आदि सभी पदार्थों में होगा, उसी का एक भाग सूर्य की अग्नि से दग्ध होगा, एक अस्त होगा, सिंह में रहता हुआ आक्रमण करेगा, बकरी में रहता हुआ शान्त बैठेगा, और न ही कर्मफल भोग के लिए दूसरे शरीरों में जायेगा, न ही पुण्य भोग के लिए आवागमन करेगा, शरीर के मृत हो जाने पर भी वहीं रहेगा जहां पहले था, अचेतन लिङ्ग ही सर्वत्र गमनागमन करता है, इत्यादि सिद्धान्त किस पुरुष के बुद्धि में अनुगम्य हो सकेगा? तथा आत्मा का विभु परिमाण स्वीकार करके उसके विरुद्ध जीवात्मा का प्रति शरीर भिन्नत्व भी स्वीकार करते हैं, यह सांख्यमत भी दुर्ज्ञेय है। यदि जीवात्मा को विभु मानते हुए प्रति शरीर में भिन्न आत्मा स्वीकार करते हैं तो निम्नलिखित दोष क्यों नहीं उपस्थित होंगे? पहला एक के मृत होने पर सब मृत क्यों नहीं हो जाते? एक के दुःखी होने पर सब दुःखी क्यों नहीं होते? यदि इस विषय में वो ये कहते हैं कि ये उपाधिभूत लिङ्ग में ही सभी सुख-दुःख आदि हैं और वह उपाधिभूत लिङ्ग प्रति शरीर में भिन्न-भिन्न है अतः एक के विकृत होने पर भी दूसरा अविकृत = विकार रहित रहता है, यह भी संगत नहीं है क्योंकि उसी लिङ्ग से सभी आत्मा का सम्बन्ध है या नहीं? यदि है तो एक के दुःखी होने पर सब को दुःखी होना चाहिए, और यदि ये कहो कि जिस उपाधिभूत लिङ्ग से उपहित होकर आत्मा चेतन के समान कार्य करता है वही फल का भोक्ता है, यह भी असंगत है। क्योंकि जिस काल में एक जीवात्मा लिङ्गात्मक आमासित देह में अपनी चैतन्य की छाया को प्रतिफलित करता है उस समय क्या वहां स्थित अनन्त आत्माओं का अपना-अपना चैतन्य प्रतिबिम्ब प्रदान करने में क्या कोई प्रतिबन्ध या अवरोध है जिसके कारण से सभी जीवात्मा कर्म करने में असमर्थ होते हैं, ऐसी अवस्था में एक ही जीव के द्वारा उज्जवलित आरोपित लिङ्ग है अन्यों के द्वारा नहीं, इसका निर्धारण किस आधार पर करेंगे? और विभु परिमाण होने से गति के अभाव में सभी के द्वारा आरोपित लिङ्ग, सभी जीवों को एक साथ दुःखी या सुखी कर सकता है तथा एक के मरने पर सब मृत हो सकते हैं। जीवात्मा सर्वज्ञ है यह भी सांख्य का सिद्धान्त है तो जीवात्मा सभी काल में हर समय सब कुछ क्यों नहीं जानता? माया आदि से उपहित होने से यदि नहीं तो क्या कोई घर अथवा वस्त्रादि से आच्छादित होने पर ज्ञानी या अज्ञानी हो जाता है, पण्डित अथवा अपण्डित हो जाता है, ऐसा देखा है क्या? फिर तो विवाद भी नहीं हो सकता, चेतन आत्मा ही विवाद कर सकता है, मैं हूं, मैं नहीं हूं, मैं दुःखी, मैं सुखी आदि। अस्तु!

[सन्दर्भ- सरस्वतीसम्मेलनस्य, प्रथम वार्षिक वृतान्त; प्रथम आवृत्त; पृष्ठ २१-२६; सं० १९६४ वि० में कांगड़ी गुरुकुल सद्धर्म्मप्रचारक यन्त्रालय हरिद्वार से मुद्रित व प्रकाशित]

Sunday, August 23, 2020

जीवनभक्षी दो गीध



जीवनभक्षी दो गीध

लेखक- श्री प्रोफेसर विश्वनाथजी विद्यालंकार
प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ

अथर्ववेद ७/९५/१-३, तथा ७/९६/१ में दो गीधों का वर्णन मिलता है। गीध-पक्षियों का काम है मांस भक्षण, मुर्दे के मांस को खाना। अथर्ववेद के इन दो सूक्तों में दो आध्यात्मिक गीधों का वर्णन है। गीधों को इन मन्त्रों में "गृध्रौ" कहा है। ये गृध्र गर्धा के साथ सम्बन्ध रखते हैं। यजुर्वेद अध्याय ४० के प्रथम मन्त्र में कहा है कि "मा गृध: कस्यस्विद् धनम्" इस मन्त्र में "गृध:" पद पठित है। अभिप्राय यह है कि "हे मनुष्य! तू गर्धा मत कर, उग्र अभिकांक्षा मत कर, लालच-लोभ मत कर"। इस प्रकार गृध् का अर्थ है लोभ, लालच। हमारे जीवनों में लोभ-लालच हमें बहुत तंग करता है। यह लोभ-लालच गृध्र है। आध्यात्मिक दृष्टि से हम देखें तो हमें ज्ञात होगा कि एक तो लोभ का संस्कार होता है, और दूसरा वृत्ति रूप में लोभ होता है। लोभ के संस्कारों को 'नरगृध्र' कहा गया है, और लोभ की वृत्ति को 'मादागृध्र' कहा है। संस्कार और वृत्ति में अन्तर यह है कि संस्कार तो मानो दबी हुई आग है, और वृत्ति मानो प्रकट हुई आग है। संस्कार जड़ है वृत्ति की, और वृत्ति अंकुर है संस्कार का। अथर्ववेद के वे मन्त्र निम्नलिखित हैं-

उदस्य श्यावौ विथुरौ गृध्रौ द्यामिव पेततु:।
उच्छोचनप्रशोचनावस्योच्छोचनौ हृद:।।१।।
अहमेनावुदतिष्ठिपं गावौ श्रान्तसदाविव।
कुर्कुराविव कूजन्तावुदवन्तौ वृकाविव।।२।।
आतोदिनौ नितोदिनावथो संतोदिनावुत।
अपि नह्याम्यस्य मेढ्रं य इत: स्त्री पुमान् जभार।।३।।
असदन् गाव: सदनेऽपप्तद् वसतिं वय:।
आस्थाने पर्वता अस्थु: स्थाम्नि वृक्कावतिष्ठिपम्।।१।।

इन चार मन्त्रों का अभिप्राय निम्नलिखित है-
"इस व्यक्ति के दो गृध्र हैं, जो कि काले हैं, और व्यथा देने वाले हैं, वे हृदयाकाश में उड़ते हैं, जैसे कि गीध-पक्षी आकाश में उड़ते हैं। इनके नाम हैं उच्छोचन और प्रशोचन। ये दोनों हृदय में आग लगा देते हैं।।१।। मैं इन दोनों को अपने जीवन में से उठा देता हूं, जैसे कि थक कर बैठी गौओं को उठाया जाता है। ये कुरकुराने वाले पक्षियों की न्याई कुर-कुर करते रहते हैं, और भेड़ियों की न्याई इनके मुख से लार टपकती है।।२।। ये दोनों सम्पूर्ण जीवन को व्यथा वाला बना देते हैं, निश्चित रूप में व्यथा वाला बना देते हैं, और गहरी व्यथा वाला बना देते हैं। इनकी शक्तियों को मैं बांध देता हूं। इनमें एक तो नर है और दूसरी मादा है। ये जीवन शक्ति का हरण करते हैं।।३।।
गौवें थक कर जैसे गौशाला में आ बैठती हैं, पक्षी थक कर जैसे अपनी वसति में अर्थात् निवास स्थान में उड़ आते हैं, पर्वत जैसे अपने अपने स्थानों में स्थित हैं, वैसे ही इन दो गृध्रों को जो कि वृक्क है उनके अपने स्थान में स्थित करता हूं"।।१।।

(श्यावौ)- इन मन्त्रों में गृध्रों को श्याव कहा गया है। लोभ के संस्कार तथा लोभ से जागृतरूपा वृत्ति ये दो गृध्र हैं, गर्धा या लोभ काला है, चूंकि वह तामसिक है, तमोगुण से उत्पन्न होता है। गर्धा वाले या लोभवृत्ति वाले लोग तमोगुणी होते हैं। लोभ रागवर्गी है। राग का ही एक प्रकार लोभ है। गीता में लिखा है कि राग और लोभ रजोगुणी है। यथा-

लोभ: प्रवृत्तिरारम्भ: कर्मणामशम: स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ।।१४/१२।।
अर्थात् लोभ, प्रवृत्ति, कर्मों का आरम्भ, अशान्ति, चाहना, - ये रजोगुण के परिणाम हैं। गीता की दृष्टि में लोभ रजोगुणी है, तमोगुणी नहीं। तो इन मन्त्रों में लोभ को या गर्धा को श्याव क्यों कहा? इसलिए कहा कि राग में जब तमोगुण उचित मात्रा से अधिक हो जाता है तब लोभ का स्वरूप बनता है। वस्तुतः राग को लोभ में परिवर्तित करने वाला तमोगुण ही है। इसलिए लोभ श्याव है।

(विथुरौ)- लोभ-संस्कार और लोभ-वृत्ति विथुर हैं, व्यथा देने वाले हैं। व्यक्ति लोभ से प्रेरित होकर उचित समय से अधिक समय के लिए व्यापार में लगा रहता है, धन कमाता रहता है, उसका संग्रह करता रहता है। इस प्रकार धनविभाग में विषमता पैदा हो जाती है। धन पर धन कमाते जाना और अपने गरीब साथियों के भाग को हड़प जाना लोभ का परिणाम है। इससे हमारे सामाजिक, राष्ट्रीय, तथा अन्तर्राष्ट्रीय जीवन व्यथामय बन गए हैं। सम्पत्तिवाद और साम्यवाद, मालिक और धनी, मजदूर और गरीब का झगड़ा शान्त हो जाय यदि धन संग्रह की लोभ वृत्ति का बहिष्कार कर दिया जाय। इस प्रकार लोभ-संस्कार और लोभ-वृत्ति व्यथा पैदा करने वाले हैं।

(द्यामिव)- गीध-पक्षी आकाश में उड़ान लेते हैं और आध्यात्मिक गीध हृदयाकाश में उड़ान लेते हैं।

(उच्छोचनप्रशोचनौ)- लोभ-संस्कार और लोभ-वृत्ति हृदय में अन्तर्दाह उत्पन्न करने वाले हैं। उच्छोदन = उत् + शोचन्। शुच् का अर्थ है दाह या शोक। शोक भी एक प्रकार का अन्तर्दाह है, हृदय की जलन है।

(उदतिष्ठिपम्)- व्यक्ति जब यह जान जाता है कि लोभ-संस्कार और लोभ-वृत्ति तामसिक रचनाएं हैं, और ये जीवन में व्यथा देने वाले हैं, तथा हृदय में अन्तर्दाह उत्पन्न करने वाले हैं, तब वह इनको हटाने का संकल्प करता है और वह कहता है कि इन दो गीधों ने जो मुझमें आश्रय रखा है मैं इस आश्रय से इन्हें उठा देता हूं, उड़ा देता हूं। इसमें वह दृष्टान्त देता है थक कर बैठ हुई गौओं का। गौएं थक कर जब बैठती हैं तो वे उठना नहीं चाहतीं, इसी प्रकार आध्यात्मिक दो गीध भी हमारे जीवनों में जम कर बैठे हुए हैं। तब भी जैसे थक कर बैठी गौओं को कार्यवश उठा दिया जा सकता है वैसे ही अनुभवी व्यक्ति इन दो गीधों को भी अपने हृदय से उठा देने का संकल्प करता है। वह अनुभव करता है कि ये गीध सदा उसके जीवन में कुरकुराते रहते हैं, सदा उसे चोरी या अन्य अनुचित धन-संग्रह के उपायों में प्रेरित करते रहते हैं। इन दो गीधों को वृक भी कहा है। वृक अर्थात् भेड़ियों की जबान सदा लपलपाती रहती है, इसी प्रकार लोभ-संस्कार और लोभ-वृत्ति भी सदा लपलपाते रहते हैं। उदवन्तौ = उद (उदक) वन्तौ। लोभ के कारण मुख में पानी आ जाना, लार का स्त्राव हो जाना।

(आतोदिनौ)- ये गीध व्यथा देने वाले हैं, तुद् = व्यथने। ऊपर विथुरौ का भी यही अभिप्राय है। यहां व्यथा की गहराई और विस्तार का वर्णन किया है। आतोदिनौ का अर्थ है व्यापक व्यथा देने वाले। आ = व्याप्ति। लोभवृत्ति समग्र जीवन को व्यथामय बना देती है। नितोदिनौ का अर्थ है निश्चित रूप में व्यथा देने वाले, यह नियम है और निश्चित है कि लोभ अवश्य व्यथा देगा। संतोदिनौ का अर्थ है गहरी व्यथा देने वाले। लोभ से जीवन तक को खतरे में डाल दिया जाता है। लोभ के कारण पक्षी जाल में आ फँसते हैं। लोभ के कारण मीन अर्थात् मछली अन्न लगे काँटे तक को निगल जाती है। लोभी व्यक्ति धन-संग्रह के लिए अपने जीवन तक को संकट में डाल देता है।

(स्त्री-पुमान्)- लोभ-संस्कार पुल्लिंग है और लोभ-वृत्ति स्त्रीलिंग है। इसलिए इन्हें स्त्री और पुमान् कहा है। ये शक्तिशाली हैं। ये लोभी के जीवन में अपने ढंग की शक्ति का सेचन कर देते हैं (मेढ्र = मिह सेचने)। इस शक्तिसेचन से लोभी शक्ति पाकर जगह-जगह भटकता है और धन-संग्रह करता रहता है।

(असदन्)- समझदार व्यक्ति यह अनुभव करता है कि लोभ दुःखदायी अवश्य है। वह तब तक दुःखदायी है जब तक कि वह असंयत अवस्था में है। संयत अवस्था का लोभ दुःखदायी नहीं रहता। संयत अवस्था में रह कर यह जीवन के लिए सुखदायी रूप धारण कर लेता है। जैसे असंयत अवस्था की काम-वासना व्यभिचार की ओर प्रेरित करती है, परन्तु संयत अवस्था की कामवासना गृहस्थधर्म का रूप धारण करती है। महात्मा बुद्ध, महर्षि दयानन्द, महात्मा गांधी आदि नररत्न भी तो काम वासना के ही परिणाम हैं। इसी प्रकार लोभ के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए। काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग, द्वेष आदि भावनाएं विधाता की हैं। इनका जीवन में गहरा तात्पर्य है। इनकी जड़ उखाड़ देने के प्रयत्न के स्थान में इनको जीवन में नियन्त्रित अवस्था में रखना यह ही स्वाभाविक स्थिति है। जिसने इस सिद्धान्त को समझ लिया, उसने जीवन की शक्तियों के सदुपयोग का ढंग समझ लिया। फिर ये शक्तियां उसके लिए सुखधारा के स्त्रोत बन जाती हैं। जिसने शक्तियों के सदुपयोग के सिद्धान्त को समझ लिया है वह कहता है कि "मैं लोभ-संस्कार और लोभ-वृत्ति को उसके अपने नियत स्थान (स्थिति) में स्थापित करता हूं।" वह संसार में देखता है कि पशु, पक्षी, तथा जड़ जगत् अपने-अपने नियत स्थानों में परिस्थित तथा सीमित हैं। इसी प्रकार वह अपने जीवन की शक्तियों को उनके अपने-अपने स्थानों में, अपने-अपने घेरे और सीमा में नियत कर देने का संकल्प करता है। यही जीवन का दर्शन है, जीवन का तत्त्व है, जीवन की फिलॉसफी है। मन्त्र ७/९५/२ में लोभ-संस्कार और लोभ-वृत्ति को वृकौ कहा है, और मन्त्र ७/९६/१ में वृक्कौ कहा है। दोनों वृक् धातु के रूप हैं। वृक् धातु का अर्थ है 'खाना'। कुक् वृक् अदने। वृकौ पद इसी वृक् धातु से बना है। वृक्कौ में "वृक् + क" इस प्रकार छेद करना चाहिए। वृक् = खाना, + क= करने वाले (कृ धातु)। अर्थात् खाने का काम करने वाले। इस प्रकार वृकौ और वृक्कौ का अभिप्राय एक ही है। लोभ-संस्कार और लोभ-वृत्ति असंयतावस्था में रह कर जीवन का अशन अर्थात् भक्षण करते हैं, जीवन भक्षी बन जाते हैं। इस प्रकार वृक् धातु का अर्थ सार्थक होता है। मन्त्रों में जो गृध्रौ प्रयोग है, वह स्त्री और पुमान् का एक शेष है। इस प्रकार गृध्रौ प्रयोग द्वारा पुमान्-गृध्र और स्त्री-गृध्र इन दोनों का बोध होता है। लोभ-संस्कार पुमान्-गृध्र है और लोभ-वृत्ति स्त्री-गृध्र है। इन्हें ७/९५/३ में स्त्री और पुमान् इसी दृष्टि से कहा है।
-'वेदवाणी' १९५४ के वेदांक से साभार

Monday, August 17, 2020

स्वतन्त्रता संग्राम के अमर बलिदानी मदनलाल धींगड़ा



स्वतन्त्रता संग्राम के अमर बलिदानी मदनलाल धींगड़ा

(१७ अगस्त, क्रान्तिकारी मदलनलाल धींगड़ा की पुण्यतिथि पर विशेष रूप से प्रचारित)

-प्रियांशु सेठ

पंजाब तो वैसे भी वीरता का गढ़ है। यहां के नौजवानों ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में अद्वितीय भूमिका निभाई है। यहीं के एक ऐसे नवयुवक थे मदनलाल धींगड़ा।
मदनलाल धींगड़ा का जन्म पंजाब के एक समृद्ध परिवार में हुआ था। माता-पिता की रुचि आपको इंजीनियर बनाने में थी, लेकिन आपके शरीर में भारत की आज़ादी के लिए बलिदान देने वाला लहू दौड़ रहा था। माता-पिता ने आपको पढ़ाने के लिए इंग्लैण्ड भेजा। जबकि उस समय भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध आन्दोलन भी कब से आरम्भ हो चुका था। देशभक्तों ने तो देश को आज़ाद कराने की क़समें खाकर अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। कितने ही जेलों में यातनायें सहते रहे। लेकिन सबकी आंखों में देश को आजाद देखने की उम्मीद की किरण थी। कुछ क्रान्तिकारी विदेशों में भी चले गए थे और वहीं से स्वतन्त्रता आन्दोलन में अपना अंशदान कर रहे थे। इंग्लैण्ड में भी ऐसे वीर तरुण रह रहे थे जिन्होंने अंग्रेज सरकार की रातों की नींद हराम कर रखी थी। इंग्लैण्ड में अध्ययन कर रहे मदनलाल धींगड़ा को भी वहां भारतीय क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वहां 'भारत भवन' नाम की एक संस्था स्थापित हो चुकी थी। आप भी इस संस्था के सक्रिय सदस्य बन गए। वीर सावरकर इस संस्था के द्वारा कितने ही दृढ़ निश्चय वाले भारतीय तरुणों को देश सेवा की दीक्षा दे चुके थे। क्रान्तिकारी नौजवान कन्हाईलाल दत्त, सत्येन्द्र वसु व खुदीराम बोस को फांसी दी जा चुकी थी। वीर सावरकर के भाई को एक कविता लिखने के कारण ही काले पानी की सज़ा काटनी पड़ी थी। ऐसा घोर अन्याय उन विद्या समृद्ध नवयुवकों को कहां सहनीय हो सकता था। आपने भी जब क्रान्तिकारी गतिविधियों में अपनी सेवायें अर्पित की तो आपको वीर सावरकर से बातचीत करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उसी समय वीर सावरकर ने एक कील मंगवायी और आपके हाथ में गाड़ दी। खून बह निकला, परन्तु वीर मदन धींगड़ा ने उफ़ तक न की। सावरकर गद्गद हो उठे। कील दूर फेंके और आपको सीने से लगा लिया। आप क्रान्तिकारियों की पहली परीक्षा में सफल हो गए।
भारत भवन में आपने जाना बन्द कर दिया क्योंकि आप नीतिपूर्वक अपनी क्रान्ति को गति दे रहे थे। आपने बहुत-से अंग्रेज अधिकारियों से सम्बन्ध स्थापित कर लिए। लार्ड कर्जन वाइली, जिसने भारत में निर्दयता, नीचता व अत्याचार की हद कर दी थी, इंग्लैण्ड के भारत भवन में मुकाबले में एक क्लब स्थापित कर लिया था। आप भी इसी क्लब के सदस्य बने। आपने मन ही मन में लार्ड कर्जन को पहला निशाना बनाने का निश्चय कर लिया था। लार्ड कर्जन के अत्याचारों का बीस वर्ष का लम्बा इतिहास था। इसने न जाने कितने भारतीय नौजवानों को फांसी के तख़्ते पर लटकवाया था। नीति सम्बन्धी कार्यों में कुशल होने के कारण वह भारत सचिव व भारत सरकार पर नियन्त्रण करे बैठा था। इंग्लैण्ड में जितने भी विद्यार्थी अध्ययन करने आते, उन सब पर लार्ड कर्जन हमेशा निगरानी रखता था। वीर सावरकर के अग्रज गणेश सावरकर को उसी ने देश-निर्वासन की सजा दिलवाई थी। यद्यपि मदनलाल के पिता का लार्ड कर्जन से मधुर सम्बन्ध था इसलिए ऐसे दैत्य की हत्या का काम आपको सौंपा गया।

१ जुलाई सन् १९०९ की बात है, लार्ड कर्जन इम्पीरियल इंस्टीट्यूट जहांगीर हाल में एक सभा आयोजित की गई थी, जिसकी अध्यक्षता लार्ड कर्जन कर रहे थे। वहां उनके द्वारा किये जुल्मों की सराहना हो रही थी। जब लार्ड कर्जन वाइली खड़े हुए तो वीर मदनलाल धींगड़ा ने उसपर गोली चला दी। अंग्रेज के एक नीच पिट्ठू ने आपको पकड़ने का प्रयास भी किया और आपने उसे भी गोलियों से भून डाला। अंग्रेजों के अपने घर में ही उनके लिए सम्मानित एक अंग्रेज की हत्या ने सारे इंग्लैण्ड को हिला डाला। इस घटना का पता जब आपके पिता को लगा तो उन्होंने लार्ड मोरेल को एक तार द्वारा इस हत्या पर खेद प्रकट करते हुए लिखा कि वे ऐसे कपूत को अपना पुत्र स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे।
१० जुलाई को आपको वेस्टमिंस्टर की एक अदालत में पेश किया गया। आपने सिंहनाद करते हुए कहा कि मैंने जो हत्या की थी वो उस व्यक्ति के अमानवीय कुकृत्यों का प्रतिशोध था। वह भारतभूमि पर जुल्म करने और ईश्वर का अपमान करने वाला व्यक्ति था। जज ने फैसला दिया, सज़ा मिली मौत की। सज़ा सुनकर आपके मुख से "वन्दे मातरम्" का उद्घोष निकला।

१७ अगस्त आपकी शहादत का दिवस था। आप प्रातः उठकर तैयार हो गए थे। आपने ईश्वर से प्रार्थना की कि मैं फिर उसी माता की कोख से पैदा होऊं व फिर उसी पावन भारतभूमि के लिए अपने आपको अर्पित कर सकूं। इसके बाद फांसी के फंदे को स्वयं अपने गले में डालकर झूल गए। भारत की स्वतन्त्रता में बलिदान देने वाले वीर नौजवान मदनलाल धींगड़ा को शत् शत् नमन!

Friday, August 14, 2020

पाकिस्तान से भारत की सीमा में



(ऐतिहासिक पृष्ठों से उद्धृत…)

पाकिस्तान से भारत की सीमा में

लेखक- श्री इन्द्रकुमार विद्यार्थी
प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ

शाम की रुपहली किरणें हमारे साथ की सीमा के बाहिर झांक रहीं थीं, किन्तु हमारे भाग्य में उन्हें देखना बदा न था। १५ अगस्त से पूर्व तो हम अपने शहर से एक मील स्टेशन तक सैर को जा सकते थे, किन्तु इधर उधर के अप्रत्याशित कत्लों के भय ने हमें वहां से खींच कर शहर से केवल एक फर्लांग की दूरी पर, नहर की पटरी पर ला पटका। सायंकाल के पांच बजते ही लोग पचास-साठ की टोलियां बना कर नहर की पटरी तक आते। पुल के किनारे पर बैठते। सामाजिक चर्चा करके फिर जेल के कैदी के समान दिया जलने से पूर्व ही लौट आते व अन्धेरा होते ही शहर के चारों दरवाजे बन्द हो जाते थे।
भगवान् ने हमारे शहर की बनावट ही विचित्र बनाई है। इस जैसा एक रूप में बना शहर और शायद कहीं हो तो हो चौक में खड़ा मनुष्य सारे शहर को एक ही नजर में देख सकता है। गली के बिल्कुल सामने गली। शहर के चारों ओर परकोटा। वह एक ऐसी स्थिति थी जो इस भयानक तम वातावरण में भी हमें शत्रुओं के आक्रमणों से बचाये हुए थी। सारा दिन भय और चिन्ता में बीतता था, तो रात्रि 'खबरदार और होशियार' के नारों से गुंजित रहती थी। शत्रु की दृष्टि में हम पूर्णतया अपनी रक्षा में समर्थ और उसे नीचा दिखाने की क्षमता रखते थे। वह तो भगवान् ही जानता है कि हमारी कितनी तैयारी थी और हम कितने पानी में थे।

रोज रक्षा समितियां होती थीं, किन्तु बातों ही बातों में शहर के कर्णधार समय व्यतीत करके अपने घरों को चले जाते थे। इतना कुछ होते हुए भी चन्द एक युवकों के उत्साह से हम स्थानीय मुसलमानों से हार जाने वाले नहीं थे, ऐसी धारणा शत्रु और मित्र पक्ष की थी।
मुसलमानों के श्रम और स्थानीय हिन्दू अधिपतियों की गाढ़ी निद्रा तथा पाकिस्तानी योजना की अर्थ प्रणाली के फलस्वरूप, हमारी विपत्ति की एकमात्र रक्षिका हिन्दू सेना भी हमें भगवान् के सहारे छोड़ करके चली गई थी। म्युनिसिपस कमेटी का कार्य अस्त-व्यस्त हो चुका था। पूर्व कार्यकर्ता काम छोड़ बैठे थे। सफाई का तनिक मात्र भी प्रबन्ध नहीं था। खास शहर क्षेत्र भी चलते-फिरते मनुष्यों से भरे नर्ककुण्ड से भी निकृष्टतर हो चुका था। इर्द गिर्द के देहात के अशिक्षित लोगों के आ जाने के कारण सफाई की प्रणाली और भी बिगड़ चुकी थी। वह बच्चों को शौच निवारणार्थ नालियों में ही बिठा देते थे। इन नालियों की सफाई का कार्य भी शहर के प्रतिष्ठित सज्जनों को करना पड़ता था। ऐसी अवस्था को देख करके उस युग की याद आ जाती थी, जबकि स्वर्गीय अमर शहीद बापू अन्य कांग्रेसी नेताओं के साथ अपने हाथों में झाड़ू और सिर पर गन्दगी की टोकरी उठाये सफाई करते दिखाई देते थे। मकानों को साफ करने वाले मुसलमान भंगी एक समय के १) और २) तक वसूल करते थे। जिन्हें दो समय भरपेट भोजन भी दुर्लभ था, वे इस रकम को कैसे भरते?

ऐसी विकट परिस्थिति थी, सारा शहर पाकिस्तान छोड़कर हिन्दुस्तान आने को कमर कसे बैठा था। हमारा सब सामान पाकिस्तान की सम्पत्ति समझी जाती थी। मुस्लिम नेशनल बोर्ड के लगातार प्रचार के अतिरिक्त भी हमारे घर की नई मशीनें ३५) को बिक रही थीं। कईयों का सौदा तो १५) और २०) पर भी आ निपटता था। साईकल २०) को और सजाने की शीशें वाली मेजें ३) तक को उठ जाती थीं। कुर्सी १), पलंग ५) और ट्रक आठ आने तक में प्रत्येक घर से मिन्नतों और धन्यवादों से मिल जाता था। ख़ालिस घी १) सेर और चीनी तीन आने में बिक रही थी। कपड़ों और गेहूं को लोग गरीबों में मुफ्त बांट करके परम सन्तोष अनुभव करते थे। चारों ओर, "अंधेर नगरी चौपट राजा। टके सेर भाजी टके सेर खाजा।।" का राज्य छाया हुआ था। ऐसी परिस्थिति में भला कौन वहां रहना चाहता।
पहली स्पेशल गाड़ी आ गई, तो जूते की तह से लेकर के पगड़ी के छोर तक सब कुछ टटोला गया। स्त्रियों के गुप्तांगों को भी, स्त्री वेषधारी कामुकों ने तलाशी लेकर हिन्दू शरीरधारी मानव को मुस्लिम वेष में फिरत नर पशु ने तीन ही वस्त्रों में भेजा। इसमें वे करोड़पति भी थे जोकि आज तक भूमि पर पैदल भी न चले थे। आहें लेती और सिसकियां भरती सन्तानों को अपने तीन वस्त्रों में छिपाये भारत की शान देवी पाकिस्तान को हमेशा के लिए प्रणाम करके भारत को चल पड़ी।
दूसरी और तीसरी स्पेशल गाड़ी के बीच शहर में अभूतपूर्व परिवर्तन हुए। तीसरी स्पेशल के आने से पन्द्रह दिन पूर्व हमारा शहर से निकलना पूर्णतया बन्द हो चुका था। प्रति शुक्रवार शहर में नमाज के लिए हज़ारों मुसलमानों के धड़-धड़ घुस आने पर हमारा सारा दिन मौत की घड़ियां गिनते बीतता था। लोग अपने-अपने तख़्तपोशों पर और गलियों के सिरों पर मोर्चा बना करके बैठे रहते थे। माताएं और बहिनें घर में भगवान् का नाम लेकर के हमारे सकुशल घर पहुंचने की प्रार्थनाएं किया करती थीं। शहर की आधे से अधिक स्त्रियों के पास सांघातिक विष था, जो किसी भी समय आने वाली मुसीबत के समय संकटमोचन का काम देता।

आखिर वह संख्या आ ही पहुंची, जब कि सबने सुना कि कल ३५०० मनुष्यों की एक स्पेशल भारत की ओर जावेगी। टिकट बंट गए ताकि लोग अधिज न आ सकें। सारी रात जागकर लोग तैयारी करते रहे क्योंकि आने वाला प्रातःकाल उनके दुःखों को नष्ट करने के हेतु स्वरूप लुभावना दीख रहा था। सारी रात जागते कटी। रात को यह अफ़वाह फैल गई कि कल बैलगाड़ियां और तांगे स्टेशन की ओर नहीं जायेंगे इसलिए समान जितना संक्षिप्त किया जा सकता था, किया गया। इंतज़ार की घड़ी लम्बी होती है, वह भी आ ही पहुंची।
प्रातः पांच बजे मुझे चाचा जी ने बुलाया, जो कि कमेटी के प्रधान थें, और कहा- 'मुझे एक विश्वस्त सूत्र ज्ञात हुआ है कि इस गाड़ी के साथ एक षड्यन्त्र है, अतः तुम मत जाओ।'
'मैं बच्चों का बिलखना सुन चुका था। दूध उन्हें मिल नहीं रहा था। ताजी सब्जी के दर्शन दुर्लभ थे। मैं टूट चुका था। गली में स्थान-स्थान पर पड़े कूड़े के ढेरों को देखकर प्रति समय हैजा का भय सताता था। शत्रु के आक्रमण की चर्चा और बलोच सेना के मनमाने अत्याचार हमारी दिन और रात की रोटी का रस सुखाये चले जा रहे थे। ऐसी परिस्थिति में मैंने भी उद्दण्ड सन्तान के समान आज्ञा का उल्लंघन करते हुए जवाब दे ही तो दिया, यहां के घुल-घुल करके मरने से रास्ते में ही कहीं पर मर जाना श्रेयस्कर है।'
इस पर चाचा जी ने मुझे आशीर्वाद दिया और कहा 'भगवान् तुम्हारा भला करे।' उनकी चरण रज ले करके हम शहर से बाहिर निकले। आठ ट्रक और आठ बिस्तरे तीन परिवारों के थे। बैलगाड़ी पर एक मील के ८०) भर कर हम स्टेशन की ओर चले। पहिले स्पेशल रात्रि के समय ही पहुंच जाती थी, किन्तु यह ११ बजे दोपहर को आयी। हमने सारी गाड़ी को झांक डाला, किन्तु हिन्दू सेना का निशान कहीं पर भी न मिला।

सेना-नायक अपनी बलोच सेना को रास्ते का प्रोग्राम समझा रहा था, और मन अन्दर से धक्-धक् कर रहा था। आने वाला भय मिश्रित समय हमारे अन्दर निराशा का आसव उड़ेल रहा था। मुस्लिम सेना हिन्दू नवयुवकों को जबरन बाहर निकाल-निकाल करके गाड़ी की छत पर बिठा रही थी। उनकी वे हरकतें हमारे अन्दर छिपे भय को और भी बढ़ा रहीं थीं। हम द्विविध में थे। इधर आग और उधर खाई। हम मन मसोड़कर ही बैठे रहे। मुस्लिम सेना के सैनिक अभी अन्दर घुसने को ही थे कि दूर से हमें एक ट्रक आता दिखाई दिया। उनमें से निकलते मरहट्टा सैनिकों के चेहरों को देख करके सबके सूखे मुख-कमल आशा और प्रसन्नता से निखर उठे। हमने समझा बस अब संकट कट गया, किन्तु हमें क्या पता था कि फूलों के नीचे विषधारी सर्प कुण्डली मारे बैठा है। राख के नीचे सुलगती चिंगारी सबको भस्म करने के लिए अभी जल रही हैं। अमृत मुख पट के अन्दर हलाहल विष छिपा पड़ा है।
फिर भी सब प्रसन्न थे। सबके छिपे चेहरे खिड़की के बाहर झांक रहे थे। बच्चे हँस रहे थे और स्त्रियां सुखमयी वार्ता में लीन थीं। कोई डेढ़ बजे के करीब हम शुजाबाद को अन्तिम प्रणाम करके चल पड़े। हमारे मन में जन्मभूमि का प्रेम उमड़ पड़ा। तब बिलख-बिलख कर रो रहे थे और बिस्मिल के वह शब्द गुनगुना रहे थे-
'दर-ओ-दीवार पे हसरत से नज़र करते हैं,
ख़ुश रहो अहल-ए-वतन हम तो सफ़र करते हैं।'

गाड़ी अपना रास्ता तय करती चली जा रही थी। शुजाबाद कि चौथे स्टेशन पर गाड़ी एक घण्टे के लिए रुकी और उसने दिशा परिवर्तन किया। सबने नलकों से पानी भरा। गाड़ी चल पड़ी। प्रत्येक स्टेशन पर सशस्त्र धर्मांध मुस्लिम सैकड़ों और हज़ारों की संख्या में प्लेटफॉर्म पर ठहरे हमारा स्वागत करते थे। वह सचमुच उन जंगली पशुओं के समान दीख रहे थे, जोकि हिंस्रवृत्ति में उलझे हुए अपने सामने शिकार को आता देख करके अपने से अधिक बलवान् को सामने देखकर दांत पीसकर के रह जाते हैं, ठीक वह दशा उनकी थी। इसी तरह करते-कराते हम साढ़े आठ बजे पाकपटन स्टेशन पर पहुंचे, जहां पर कि हमारे भाग्य का निश्चय होना था।
यहां पर आकर हिन्दू सेना उतर गई और उसकी जगह पर बलोच सेना के सिपाही अपने कंधे पर संगीनों वाली बन्दूकों को लटकाये आ पहुंचे। उनके आगमन के साथ ही स्टेशन पर का सब पानी बन्द हो गया। बच्चे प्यास से कराह उठे। साढ़े ३ घण्टे एडमिन भी स्टेशन से दूर रहा। हमें क्या पता था कि पानी लेने के बहाने वह हमारे खून लेने का षड्यन्त्र रच रहा था। रात के ठीक १२ बज कर पांच मिनिट पर हमारे गाड़ी पाकपटन की सीमा को पार करती हुई, हमारे दुर्भाग्य पर धुआं उड़ाती हुई चल पड़ी। ठीक १२ बज कर दस मिनिट पर पाकपटन और उसमानवाला स्टेशन के बीचों-बीच मिन्ट गुमरी जिले को आबाद करने वाली, हमारे लिए "अल्लाहो अकबर" और "या अली" तथा "काफ़िरों को मारो" का संदेशा लेकर बहने वाली नीलवाह नदी के किनारे पर आकर के हमारी गाड़ी रुक गई। छुरियों, कुल्हाड़ियों, तेगों और दूसरे प्रकार के शस्त्रों का ताण्डव नृत्य होने लगा। हम कोई आधा घण्टा मृत्यु की छत्रछाया में पड़े करवटें बदलते रहें। गाड़ी के किवाड़ों और खिड़कियों के तख़्ते नहीं थे। सबने उनके आगे ट्रंकों और बिस्तरों को रखकर अन्दर से बन्द कर दिया। जिन्होंने आज तक भगवान् का नाम नहीं लिया था, वे भी अविराम गति से "राम", "कृष्ण" और "ओ३म्" का जाप करने लगे। स्त्रियां, पतियों और बच्चों की सलामती की मनौतियां मना रही थीं। चंद स्वार्थी नरपिशाच यहां पर भी रक्षा के नाम पर चोर बाजारी धन बटोर रहे थे। हमें बाहरी दुनिया का लेशमात्र भी ज्ञान नहीं था। हम तो केवल यही जानते थे कि १२ बजकर ३० मिनिट पर गाड़ी चली और उसमानवाला स्टेशन पर पहुंची, जहां पर कि सुबह छः बजे तक ठहरी रही। वह साढ़े ५ घण्टे हमारे उस कैदी के समान गुज़र रहे थे, जिनको किसी समय भी फांसी की सजा मिल जाये। यहां पर आकर हमें पता चला कि हमारी गाड़ी के तीन छकड़ों के आदमी बिल्कुल समाप्त कर दिए गए हैं।

पशुता का ताण्डव
मेरे पास एक बच्चा आया, जिसकी आयु पांच वर्ष थी। वह प्लेटफॉर्म पर मेरा नाम लेकर चिल्ला रहा यह। जब उसे मेरे पास पहुंचाया गया, तो वह रो रहा था। उसकी सिसकियों में एक करुण क्रन्दन था- 'मेरे माता-पिता मर गये हैं, मेरे भाईयों और बहिनों को किसी ने कुल्हाड़ी से काट डाला है।' कितना मर्मस्पर्शी दृश्य था वह, जिसे देखकर वहां पर बैठी सभी स्त्रियां फफक फफक कर रो रही थीं। हम उसे धैर्य बंधा रहे थे किन्तु हमारी आंखें गंगा-जमुना बन रही थीं।

जाको राखे साइयां
इसी प्रकार एक घटना अगले छकड़े में गुजरी। एक लड़की जिसकी आयु १४ वर्ष की थी दौड़ती हुई चिल्ला रही थी 'भगवान् के लिए मुझे बचाओ।' चन्द नवयुवकों ने उसे गाड़ी में खींच लिया। वह नंगी थी, उसे कपड़े दिए गए। उसके मुख पर एक निशान था, जो जबरदस्ती लड़कर छूटने में हुआ था। चन्द कामुक मुसलमानों के चुम्बन का घाव उसके मुख पर था, जिससे खून निकल रहा था।
छः बजे हमारी गाड़ी चली और दोपहर को निर्विघ्न कसूर पहुंच गई। वहीं भारत और पाकिस्तान से आने वाली गाड़ियों का अड्डा था उसमानवाला और कसूर के बीच सही सलामत यात्रा करने का श्रेय हम अपने शहर के तहसीलदार और एक राना शफ़ी अहमद को देते हैं, जिन्होंने पाकपटन से कसूर इस आशय का तार दे दिया था कि 'हमने सारी गाड़ी नष्ट कर दी है'। उसमानवाला स्टेशन पर छः घण्टे की रुकावट ने हमें उस सारे प्रोग्राम से बचा दिया, जो कि रास्ते में हमारे विनाश की घड़ियां गिन रहा था। 'जाको राखे साइयां मार सके न कोय' फिर भी हम ३५०० मनुष्यों में से ६०० को गवां करके अश्रुओं का हार पहिने कसूर पहुंचे।

वहां पर भी भाग्य हम पर अठखेलियां कर रहा था। २ बजे दोपहर को कोई ५००० सशस्त्र आक्रान्ताओं ने हम पर हमला कर दिया। इनके साथी १३७ बलोच सैनिक भी थे जिनके पास युद्ध का सब आधुनिक सामान था। हमारे साथी थे भगवन् और ३६ मरहट्टे सैनिक, जिन्होंने दो की आहुति देकर के हमारी रक्षा की। यहां पर हमारे १५० आदमी मरे। छः घण्टे लगातार हम गोलियों की बौछार के नीचे पड़े रहे। हमें दुनिया की सुध-बुध नहीं थी। हम अपना नाता उस परब्रह्म से छोड़ चुके थे जिससे मिलाने के लिए यह गोलियां हमारे ऊपर साय साय करके चल रही थीं। रात भी सर पर आ पहुंची। आक्रमणकर्ता वापिस चले गये। हम भी अन्धकारमयी रजनी में मुर्दों को सिरहाना बना कर लहू की शैय्या पर पड़े रहे। इसका भान हमें तब हुआ, जब कि हम प्रात:काल जागे और अपने सारे वस्त्रों को लहू में घिरा देखा। बरबस मेरे मुख से निकला- "दुर्भाग्य! कभी तो सफेद वस्त्र पर दो धब्बे खून के देखकर न्यायाधीश मनुष्य को फांसी पर चढ़ा देता था, और कहां आज खून से हम चारों ओर लिपटे हुए हैं। किन्तु न्याय नदारद!"
प्रातः सात बजे ट्रक आये, जो हमें सतलुज से पार भारत की सरहद में ले गये। हमने दस माह के बाद अपने मुख से नारा लगाया- "हिन्दुस्तान, जिन्दाबाद"।

['वीर अर्जुन' (साप्ताहिक) के १९४८ अंक से साभार]

15 अगस्त की वह ऐतिहासिक रात



१५ अगस्त की वह ऐतिहासिक रात

लेखक- स्वर्गीय प्रकाशवीर शास्त्री
प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ

देश को पराधीन हुए यूं तो कई सदियां बीत गयी थीं, पर अंग्रेज को भारत में आये अभी पौने दो सौ साल हुए थे। मुगलों और अंग्रेजों के राज में एक अन्तर यह था कि मुगल खून खराबी में अधिक विश्वास रखते थे और अंग्रेज कूटनीति में। यूं अंग्रेजों ने भी बल प्रयोग अथवा अपनी क्रूरता में कोई कसर नहीं उठा रखी थी। १८५७ के अत्याचार और जलियांवाला बाग उसी के उदाहरण थे, फिर भी मुगलों की तुलना में अंग्रेजों के अत्याचार कुछ हल्के थे। लेकिन एक बात दोनों में समान थी, भारत की सम्पदा जैसे और जितने हाथों से लूटी जा सके, लूटो। निरीह भारतवासी मन मसोस कर यह सब देख रहे थे।
आख़िर पन्द्रह अगस्त १९४७ का यह भाग्यशाली दिन आ ही गया, जब देशवासियों की साधना पूरी हुई। पन्द्रह अगस्त का सूरज निकलने से पहले चौदह अगस्त की आधी रात को सबकी आंख घड़ी की सूई पर टिकी हुई थी। कितनी उत्सुकता और तेजी से रात्रि में बारह बजने की प्रतीक्षा हो रही थी। संसद के केन्द्रीय कक्ष में जहां स्वतन्त्रता की यह घोषणा होनी थी वहां अध्यक्ष के आसन पर विराजमान राजेन्द्र बाबू ने जब यह कहा- 'अब घड़ी की सूई को बारह तक पहुंचने में ठीक आधा मिनट शेष रह जाता है, मैं घड़ी की इन तीस सैकेंडों की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहा हूँ।' उस समय सबको लग रहा था- आज इस घड़ी को हो क्या गया है? कुछ ही क्षणों में सूई वहां पहुंच गयी और बारह बजते ही अध्यक्ष तथा सदस्य खड़े हो गये। राजेन्द्र बाबू ने सदस्यों की प्रतिज्ञा लेने के लिए सावधान किया और पहले हिन्दुस्तानी में सदस्यों से इन शब्दों में प्रतिज्ञा ग्रहण करवायी-

'अब जब कि हिन्दवासियों ने त्याग और तप से स्वतन्त्रता हासिल कर ली है, मैं- जो संविधान परिषद का एक सदस्य हूं, अपने को बड़ी नम्रता से हिन्द और हिन्दवासियों की सेवा के लिए अर्पित करता हूं, जिससे यह प्राचीन देश संसार गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कर सके और संसार में शान्ति स्थापित करने और मानव जाति के कल्याण में अपनी पूरी शक्ति लगाकर खुशी-खुशी हाथ बटा सके।'

संविधान परिषद में सदस्यों द्वारा शपथ ग्रहण करने के बाद लार्ड माउंटबेटन को वायसराय की बजाय उन्हें गवर्नर जनरल के पद पर नियुक्त करने की सूचना देने का भी निश्चय हुआ। अध्यक्ष श्री राजेन्द्र बाबू ने प्रस्ताव करते हुए कहा- अब वायसराय को इस बात की सूचना दे दी जाय कि भारतीय विधान परिषद ने भारत का शासनाधिकार ग्रहण कर लिया है, इस सिफ़ारिश को भी स्वीकार कर लिया है कि १५ अगस्त १९४७ से लार्ड माउंटबेटन भारत के गवर्नर जनरल होंगे। यह सन्देश स्वयं अध्यक्ष तथा श्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा लार्ड माउंटबेटन तक पहुंचाने का भी निश्चय हुआ।
भारत का वर्तमान राष्ट्रध्वज भी इसी अवसर पर भारतीय महिला समाज की ओर से श्रीमती हंसा मेहता ने अध्यक्ष महोदय को भेंट किया। जिन महिलाओं की ओर से अशोक चक्रांकित यह तिरंगा ध्वज अध्यक्ष महोदय को भेंट किया गया, उन ७४ महिलाओं में श्रीमती विजयलक्ष्मी पण्डित, श्रीमती सरोजिनी नायडू, राजकुमारी अमृतकोर, कुमारी मणिबेन पटेल आदि के अतिरिक्त वर्तमान प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी भी सम्मिलित थीं। श्रीमती हंसा मेहता ने राष्ट्रध्वज भेंट करते हुए कहा- 'पहली राष्ट्रीय पताका जो इस महिमामण्डित भवन पर सुशोभित हो, उसे भारतीय महिला समाज एक उपहार की तरह उपस्थित कर रहा है। अपनी स्वतन्त्रता के प्रतीक स्वरूप इस पताका को उपस्थित करते हुए हम पुनः राष्ट्र के लिए अपनी सेवाएं अर्पित करती हैं। महान् भारत का प्रतीक यह पताका सदा फहराती रहे और विश्व पर आज जो संकट की कालिमा छाई है, उसे यह प्रकाश दे।'

भारतीय स्वाधीनता की घोषणा से पूर्व अध्यक्ष श्री राजेन्द्र बाबू, प्रधानमन्त्री श्री जवाहरलाल नेहरू और सर्वपल्ली डाक्टर राधाकृष्णन के संक्षिप्त ऐतिहासिक भाषण भी हुए। राजेन्द्र बाबू ने तो यहीं से अपनी बात प्रारम्भ की- 'आज हम अपने देश की बागडोर अपने हाथों में ले रहे हैं। इस अवसर पर हमें उस परमपिता को याद करना चाहिए जो मनुष्य और देशों के भाग्य बनाता है।' डा० राधाकृष्णन ने भी अपने भाषण में भारत की सांस्कृतिक विरासत की चर्चा करते हुए कहा- 'इस देश का भविष्य फिर वैसा ही महान् होगा जैसे इसका अतीत महिमामय रहा है।'
चौदह अगस्त की उस चिरप्रतीक्षित रात्रि में भारतीय नेताओं ने अपने मन के जो उद्गार प्रगट किये उनमें प्रसन्नता के साथ-साथ उनकी व्यथा भी अलग बोल रही थी। कार्यवाही संक्षिप्त थी पर एक-एक शब्द अपना अध्याय बनाता चल रहा था। देश के विभाजन को लेकर सबके मन दुःखी थे। आख़िर दम तक सब ने यत्न किया कि किसी तरह विभाजन रुक जाय, पर मुस्लिम लीग की हठ और अंग्रेज की कूटनीति के आगे उन्हें हार माननी पड़ी। देश में जो लूटपाट और मार-काट का दौर चल रहा था, उससे और भी अधिक सब परेशान थे। नेहरू जी अपने मन की उस व्यथा को न रोक सके और कह उठे-
'हमारे दिल में खुशी है। लेकिन यह भी हम जानते हैं कि हिन्दुस्तान भर में खुशी नहीं है। हमारे दिल में रज के टुकड़े काफ़ी हैं, दिल्ली से बहुत दूर नहीं- बड़े-बड़े शहर जल रहे हैं, वहां की गर्मी यहां आ रही है। ऐसे में खुशी पूरे तौर से नहीं हो सकती, लेकिन फिर भी हमें इस मौके पर हिम्मत से सब बातों का सामना करना है। न हाय-हाय करनी है, न परेशान होना है। जब हमारे हाथ में बागडोर आयी है तो फिर ठीक तरह से गाड़ी को चलाना है।'

देश जिनके त्याग, तप और बलिदानों से स्वतन्त्र हुआ, उन्हें इस अवसर पर भला कैसे भुला जा सकता था। राजेन्द्र बाबू ने कहा- 'जिन्होंने इस दिन को लाने के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिये, हंसते-हंसते फांसी के तख़्तों पर चढ़ गये, गोलियों के शिकार बने, जेलखानों और कालेपानी के टापू में घुल-घुल कर अपने जीवन का उत्सर्ग किया, आज का यह दिन उनकी तपस्या और त्याग का ही फल है। नेहरू जी ने भी उन्हें भाव भरे हृदय से श्रद्धांजलि दी।'
पन्द्रह अगस्त को प्रातः दस बजे भारतीय विधान परिषद की बैठक फिर कांस्ट्रीट्यूशन हाल नई दिल्ली में सम्पन्न हुई। अध्यक्ष राजेन्द्र बाबू के साथ भारत के प्रथम गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन और उनकी धर्मपत्नी भी इसमें पधारीं। प्रारम्भ में भारत के ऐतिहासिक स्वाधीनता पर्व के लिए विदेशों से आए कुछ विशेष स्वाधीनता सन्देश पढ़कर सुनाए गए। इनमें चीन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, इण्डोनेशिया, नेपाल और संयुक्त राज्य के प्रधानमन्त्री के सन्देश भी सम्मिलित थे। उसके बाद गवर्नर जनरल ने ब्रिटिश सम्राट का एक सन्देश पढ़कर सुनाया-

'इस ऐतिहासिक दिन, जब कि भारत ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल में एक स्वतन्त्र और स्वाधीन उपनिवेश के रूप में स्थान ग्रहण कर रहा है, मैं आप सबको अपनी हार्दिक शुभकामनाएं भेजता हूं। आपके इस स्वाधीनता महोत्सव में प्रत्येक स्वतन्त्रताप्रिय राष्ट्र भाग लेना चाहेगा, क्योंकि पारस्परिक स्वीकृति द्वारा सत्ता का जो यह हस्तांतरण हुआ है, उससे एक ऐसे महान् लोकतन्त्रीय आदर्श की पूर्ति हुई है जिसे ब्रिटेन और भारत दोनों देशों के लोग समान रूप से कार्यान्वित करने के लिए कटिबद्ध रहे हैं। यह बड़ी ही उत्साहवर्धक बात है, यह सब शान्तिपूर्ण परिवर्तन द्वारा सम्पन्न हो सका है।
भविष्य में आपको बड़ी जिम्मेदारियों का भार वहन करना है किन्तु जब मैं आपके द्वारा प्रकट की गई राजनीतिज्ञता तथा किए गए त्यागों का विचार करता हूं, तो मुझे विश्वास हो जाता है कि भविष्य का भार आप समुचित रूप से वहन कर सकेंगे।'

भारतीय स्वाधीनता के इस ऐतिहासिक पर्व पर जहां भारतवासी फूले नहीं समा रहे थे और हंसी-खुशी और नाच-गानों द्वारा अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर रहे थे, वहां देश के दूरदर्शी नेता आने वाले भारत की तस्वीर बनाने के लिए कड़े परिश्रम और संकल्प का स्वप्न देख रहे थे। पण्डित जी ने तो अपने भाषण का प्रारम्भ ही यहां से किया- कई वर्ष हुए जब हमने क़िस्मत की एक बाज़ी लगाई थी। अब समय आ गया जब हम उसे पूरा करें। एक मंज़िल पूरी हुई, लेकिन भविष्य के लिए एक प्रण और प्रतिज्ञा हमें करनी है, वा हिन्दुस्तान के लोगों की सेवा करनी है।
हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि रंग जी ने इन्हीं भावों को अपनी क़लम में पिरो कर लिखा था-
ओ विप्लव के थके साथियों!
विजय मिली विश्राम न समझो।।

स्वाधीनता का यह अट्ठाइसवां पर्व आज फिर विकासोन्मुख भारत के कानों में उन्हीं शब्दों को दोहरा रहा है।

['सार्वदेशिक' (साप्ताहिक) के १९८५ अंक से साभार]

Tuesday, August 11, 2020

क्या श्रीमद्भागवत महापुराण में 'राधा' की चर्चा है?


क्या श्रीमद्भागवत महापुराण में 'राधा' की चर्चा है?

लेखक- वैदिक गवेषक पं० शिवपूजनसिंह कुशवाहा 'पथिक'
प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ

आज पौराणिक श्रीकृष्ण के साथ राधा का नाम अवश्य जोड़ते हैं। 'राधा' के बिना 'कृष्ण' का नाम आधा ही समझा जाता है। यदि श्रीकृष्ण जी योगीराज थे और 'राधा' उनकी धर्मपत्नी नहीं थी तो ऐसा पौराणिक क्यों करते हैं? मेरे विचार से पौराणिकों की यह भयंकर भूल है। 'श्रीमद् भागवत महापुराण' वैष्णवों का एक प्रामाणिक पुराण माना जाता है जिसमें श्रीकृष्ण जी के चरित्र पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। इस महापुराण के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि इसमें 'राधा' की कहीं भी चर्चा नहीं है। राधा तो श्री रामाण गोप की पत्नी थी।

कतिपय पौराणिक 'श्रीमद् भागवत महापुराण' में भी 'राधा' का नाम प्रदर्शित करने की कल्पना करते हैं। यथा-
१. पं० दीनानाथ शास्त्री सारस्वत की कल्पना-
(आपने 'भागवत' में राधा का नाम खोजा है।) आप लिखते हैं- जिस गोपी को श्रीकृष्ण अन्य गोपियों को छोड़ कर ले गए थे, वही तो 'राधा' थी जिसका संकेत 'अनमा राधातो नूनं (भागवत १०/३०/२८) 'राधितं' शब्द से आया है।...[१]
२. साहित्याचार्य पं० बलदेव उपाध्याय, एम०ए० की कल्पना-
"...अनया राधितो नूनं"...... (भागवत १०/३४/२४) इस रमणी के द्वारा अवश्य ही भगवान् ईश्वर कृष्ण आराधित हुए हैं। धन्या गोपी की प्रशंसा में उच्चरित इस गद्य में राधा का नाम झीने चादर से ढके हुए किसी गूढ़ बहुमूल्य रत्न की तरह स्पष्ट झलकता है।
इस श्लोक की टीका में गौडीयवैष्णव गोस्वामियों ने स्पष्ट ही 'राधा' का गूढ़ संकेत खोज निकाला है।"...[२]
३. श्री पं० कालूराम शास्त्री का कुतर्क-
"...जिस समय भगवान् ने लीलावतार श्रीकृष्ण का रूप धारण किया उस समय इनकी उपासना करने के लिए सोलह हज़ार एक सौ सात श्रुतियों की अधिष्ठाता देवताओं ने स्त्री रूप धारण करके श्रीकृष्ण से पाणिग्रहण किया। इसी प्रकार (१६१०७) सोलह हज़ार एक सौ सात स्त्रियों तो हुईं और एक भगवती रुक्मिणी रूप धारण करके लक्ष्मी अवतरित हुई। इस कारण से भगवान् श्रीकृष्ण की १६१०८ स्त्रियां हुईं।...[३]

समीक्षा-
• श्री कालूराम शास्त्री का १६१०७ श्रुतियों को स्त्री बतलाना भी कोरा गप्प ही है। इसी कुतर्क पर वे पुराणों की मिथ्या, अश्लील गप्पों को सत्य सिद्ध करने के लिए 'पुराण वर्म' जैसी ऊटपटांग पुस्तक लिखी है।
• पं० बलदेव उपाध्याय का भागवत १०/३४/२४ में 'अनया राधितो नूनं' प्रमाण लिखना अशुद्ध है। बिना मूल ग्रन्थ को देखे हुए उन्होंने किसी की पुस्तक से प्रतिलिपि कर ली है।
• पं० दीनानाथ शास्त्री का प्रमाण वर्तमान भागवत स्कन्ध दस, अध्याय तीस, श्लोक २८ में है।[४]
'अराधितो' यहां किया है और सारस्वत जी व उपाध्याय जी दोनों ही 'राधा' अर्थ करके अनर्थ करते हैं।

• पौराणिक पं० रामतेज पाण्डेय साहित्य शास्त्री ने इसका सही अर्थ इस प्रकार किया है- "अवश्य ही इसने भगवान् कृष्ण की आराधना की होगी।"
• साहित्य भूषण, काव्य मनीषी, पं० गोबिन्द दास व्यास 'विनीत' अर्थ करते हैं- "परमेश्वर भगवान् का सच्चा आराधत तो इसने किया है।"

अनेक विद्वान् 'श्री भागवत महापुराण' में 'राधा' की चर्चा नहीं मानते हैं-
• श्री विन्टर नीट्ज लिखते हैं- "पर राधा का नाम नहीं है। इससे (Naidya) यह सही निष्कर्ष निकालते हैं कि इस पुराण की रचना 'गीत गोबिन्द' के पहले हुई।"[५]

• पौराणिक संन्यासी स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती लिखते हैं- "भगवान् व्यास अथवा श्री शुक्रदेव जी महाराज अनन्त ज्ञान सम्पन्न हैं। ऐसी स्थिति में उन्होंने किस अभिप्राय से श्री राधा जी और गोपियों का नामोल्लेख नहीं किया, इस प्रश्न का उत्तर या तो उनकी कृपा से ही प्राप्त हो सकता है अथवा केवल अपने या दूसरे के अनुमान पर सन्तोष कर लेने से।"[६]

• विद्यावारिधि पं० ज्वालाप्रसाद मिश्र, मुरादाबाद लिखते हैं- "विष्णु भागवत में गोपी और कृष्ण का चरित्र विस्तृत होने पर भी 'राधा' का नाम नहीं है, होता तो राधा महात्म्य अवश्य होता।"[७]

• श्री पूर्णेन्दु नारायण सिंह, एम०ए०, बी०एल० 'राधा' का अस्तित्व नहीं मानते हैं। वे लिखते हैं- "But I shall not touch in front of her is a study of the Bhagavata Purana."[८]
अर्थात्- "भागवत पुराण के अध्ययन में मैं उसके (राधा) ऊपर स्पर्श नहीं करूंगा।"

• पं० राम प्रताप त्रिपाठी शास्त्री लिखते हैं- "श्रीमद् भागवत में 'राधा' का नामोल्लेख भी नहीं है, जो परवर्ती कृष्ण काव्य की आधार भूमि है।"[९]

• साहित्याचार्य पं० विश्वेश्वर नाथ रेउ अपने "पुराणों पर एक दृष्टि" शीर्षक लेख[१०] में लिखते हैं- "यद्यपि श्रीमद् भागवत में कहीं भी 'राधा' का उल्लेख नहीं हुआ है तथापि 'देवीभागवत' में उसके चरित्र को स्थान दिया गया है।"

इस प्रकार श्रीकृष्ण के साथ राधा का नाम लेना कृष्ण जैसे योगीराज को कलंकित करना है।

___________________________
१. "सनातनधर्मालोक" (दशम पुष्प), प्रथम संस्करण, पृष्ठ २७
२. "भारतीय वाङ्गमय में श्री राधा", प्रथम संस्करण, पृष्ठ १० से १५ तक
३. "पुराण वर्म" पूर्वार्ध, पृष्ठ २५७
४. गीताप्रेस, गोरखपुर में सम्वत् २०२२ वि० में मुद्रित व प्रकाशित अष्टम संस्करण, मूल गुट का साइज, पृष्ठ ५३७, श्रीमद् भागवत-महापुराण, बालबोधिनी भाषा टीका, पं० गोबिन्द दास व्यास कृत, द्वितीय खण्ड, पृष्ठ २६६ (द्वितीय संस्करण, श्याम काशी प्रेस, मथुरा में मुद्रित), पं० रामतेज पाण्डेय शास्त्री कृत 'सामयिकी भाषा टीका' सजिल्द, पृष्ठ १११ (सन् १७५२ ई० पण्डित पुस्तकालय राजा दरवाजा, वाराणसी द्वारा प्रकाशित) में १०/३०/२८ सही है।
५. प्राचीन भारतीय साहित्य, "प्रथम भाग, द्वितीय खण्ड, पृष्ठ २२० की पाद-टिप्पणी (सन् १७६६ ई० में मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली द्वारा प्रकाशित, प्रथम संस्करण")
६. "श्रीमद्भागवत-रहस्य" पृष्ठ २०९ (द्वितीय संस्करण, बम्बई)
७. "अष्टादश पुराण दर्पण" पृष्ठ १७३ (सम्वत् १७७३ वि० बम्बई संस्करण)
८. A study of the Bhagavata Purana" P.P.H. 19
९. "प्राचीन भारत की झलक" (हमारे पुराण शीर्षक लेख) पृष्ठ ४३ (सम्वत् २०१५ वि० में लौशाम्बी प्रकाशन, प्रयाग द्वारा प्रकाशित, प्रथम संस्करण)
१०. मासिक पत्रिका "सरस्वती" प्रयाग का "हीरक जयन्ती अंक" पृष्ठ ६३१ (सन् १७६१ ई० में इण्डियन प्रेस, प्रयाग द्वारा मुद्रित व प्रकाशित)

योगीराज श्री कृष्ण की उपासना विधि


योगीराज श्री कृष्ण की उपासना विधि

लेखक- श्री पं० बिहारीलाल जी शास्त्री
प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ

प्रायः महापुरुषों के तीन रूप हुआ करते हैं। लोक रञ्जक रुप, यथा श्री कृष्ण जी की वृन्दावन की लीलाएं इस रूप का, शस्त्र होता है- वंशी। दूसरा रूप होता है लोक शिक्षक रूप, यथा महाभारत युद्ध में गीतोपदेश तथा उधव को धर्मोपदेश। इस रूप में शंख धारण किया जाता है, यथा युद्ध में 'पाञ्चजन्यम हृषीकेशं' भगवान् कृष्ण का पांचजन्य शंख। तीसरा रूप होता है महापुरुषों का लोक रक्षक, यथा दुष्ट संहारक युद्धों में। इसका शस्त्र होता है- चक्र। सुदर्शन चक्र से ही शिशुपालादि असुरों का संहार किया।

भगवान् कृष्ण ने तीनों रूपों में जनता को दर्शन दिये और कल्याण किया। उनके जीवन की घटनाएं, कविताओं में है अतः उनके भाव को समझना कठिन हो जाता है। जैसे वृन्दावन के चरित्र में राजनैतिक भूमिकाएं थीं उन्हें श्रृंगार रस में डुबोकर भक्तों ने आक्षेप योग्य बना डाला है। आनन्द मठ के राष्ट्रीय गान के निर्माता श्री बंकिम चन्द्र जी चट्टोपाध्याय ने लिखा है कि मैं महाभारत के श्री कृष्ण को तो मान सकता हूं, पर गीत गोबिन्द के श्री कृष्ण को नहीं।
गीत गोबिन्द में जयदेव ने श्री कृष्ण के लोक रञ्जक रूप को श्रृंगार में डुबोकर विकृत कर दिया है। भगवान् के नाम पर अपने मन के श्रृंगारी भावों की भड़ास निकाली है। श्री कृष्ण भगवान् के विषय में ऋषि दयानन्द का विचार कितना उच्च भावों से भरा है-

"देखो! श्रीकृष्ण जी का इतिहास महाभारत में अत्युत्तम है। उन का गुण, कर्म, स्वभाव और चरित्र आप्त पुरुषों के सदृश है। जिसमें कोई अधर्म का आचरण श्री कृष्ण जी ने जन्म से मरणपर्यन्त बुरा काम कुछ भी किया हो, ऐसा नहीं लिखा।" (सत्यार्थप्रकाश ११ वां समु०)

वास्तव में श्री कृष्ण भगवान् वैदिक आर्य थे। यह उनकी उपासना विधि से विदित हो जाता है। यदि कोई मनुष्य नमाज पढ़ता हो तो मुसलमान माना जाएगा। मूर्तिपूजक हैं तो जैन, बुद्ध, पौराणिक या कैथोलिक, ईसाई ठहरेगा। इसी प्रकार सन्ध्या, अग्निहोत्र, गायत्री जप करने वाले को वैदिकधर्मी आर्य कहा जायेगा।
अब देखिये, श्रीमद्भागवत् में श्री कृष्ण भगवान् की दिनचर्या- दशम स्कन्ध, अध्याय ७० में-

ब्राह्मो मुहूर्ते उत्थाय वार्युपस्पृश्यमाधव:।
दध्यौ प्रसन्नकरण: आत्मानं तमस: परम्।।४।।
एकं स्वयं ज्योतिरनन्तमव्ययं स्व संस्थ्या नित्य निरस्त कल्मषम्।
ब्रह्माख्यमस्योद्भवनाश हेतुभि: स्व शक्तिभिलर्क्षितभाव निर्वृतिम्।।५।।
अथाप्लुतोऽम्भस्यमले यथा विधि क्रिया कलापं परिधाय वाससी।
चकार सन्ध्योपगमादि सत्तमो हुतानलो ब्रह्म जजाप वाग् यत:।।६।।

अर्थ- श्री कृष्ण जी ब्रह्म मुहूर्त (उषा काल में) उठे और शौच आदि से निवृत हो प्रसन्न अन्तःकरण से तमस से परे आत्मा अर्थात् परमात्मा का ध्यान किया।।४।।
परमात्मा के विशेषण
जो एक है, स्वयं ज्योति स्वरूप है, अनन्त है, अव्यय परिवर्तन रहित है, अपनी स्थिति से भक्तों के पापों को नष्ट करता है, उसका नाम ब्रह्म है, इस संसार की रचना और विनाश के हेतुओं से अपने अस्तित्व का प्रमाण दे रहा है और भक्तों को सुखी करता है।।५।।
और निर्मल जल में स्नान करके यथा विधि क्रिया के साथ दो वस्त्र धारण करके सन्ध्या की विधि की और श्रेष्ठ श्री कृष्ण ने हवन किया और मौन होकर गायत्री का जाप किया।।६।।

श्लोक में आये ब्रह्म शब्द का अर्थ श्रीमद्भागवत् की संस्कृत टीका में श्रीधर स्वामी ने गायत्री जजाप इत्यर्थः- गायत्री किया है। गीताप्रेस की हिन्दी टीका में भी ऐसे ही अर्थ हैं। श्रीमद्भागवत् में कहीं भी श्री कृष्ण द्वारा मूर्तिपूजा करना नहीं मिलता है और वाल्मीकि रामायण में कहीं श्री राम द्वारा मूर्तिपूजा का नाम नहीं।

अब ईश्वर के नाम के विषय में देखिये- गीता के ८वें अध्याय का श्लोक है-
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् मामऽनुस्मरन्
य: प्रयाति त्यजनदेहं स याति परमां गतिम्।
अर्थ- ओ३म् इस एक अक्षर ब्रह्म (शब्द) बार-बार जपता हुआ और मेरा अनुस्मरण करता हुआ जो शरीर को छोड़कर परलोक को जाता है, वह मोक्ष को पाता है।

Friday, August 7, 2020

श्रावणी का वैदिक स्वरूप


श्रावणी का वैदिक स्वरूप

प्रियांशु सेठ

श्रावण माह अज्ञानियों के लिए ज्ञान का संदेशवाहक बनकर आता है और जनसामान्य को कल्याणपथ पर चलने की ओर प्रेरित करता है। गर्मी के बाद जब वर्षा होती है, तो मानव चित्त वातावरण के अनुकूल होने से शान्त रहता है तथा मन प्रसन्न रहता है। श्रावणी का उत्सव इसी वर्षा के साथ आता है और चराचर जगत् को आनन्दित और उल्लासित करता है। बहिनें, भाइयों को राखी बांध उनसे आत्मरक्षण और अभय की आशा रखती हैं। स्त्री, पुरुष, पुत्र, पुत्री, पुत्र-वधु आदि जन यज्ञोपवीत (जनेऊ) पहनकर ऋषि, पितृ तथा देव ऋणों से उऋण होने का संकल्प लेते हैं। वेदपथिक अपने पुराने यज्ञोपवीत को उतारकर नया यज्ञोपवीत धारण करते हुए आत्मकल्याण के पथ पर आगे बढ़ते हैं। सम्पूर्ण वातावरण वैदिक ऋचाओं से गुंजित होता है। तात्पर्य यह है कि श्रावण आत्मोन्नतिपथ का माह है।

श्रावणी का सन्देश वेदादि ग्रन्थों में दिये उपदेशों से सम्बन्ध रखनेवाला है। बृहदारण्यक उपनिषद् (२/४) में जगमाया की छाया से अभिभूत होकर "येनाहं नामृता स्यां, किमहं तेन कुर्याम्?" "अमृतत्वस्य तु नाशाऽस्ति वित्तेन" के तंत्री-नाद को सुनने में लीन हुई मैत्रेयी को ब्रह्मर्षि याज्ञवल्क्य ने जो उपदेश दिया था वही श्रावणी का सन्देश है- "आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो।" आत्मा का दर्शन करना चाहिए, कैसे? श्रवण, मनन एवं साक्षात्कार (निदिध्यासन) के द्वारा। श्रवण के बिना मनन एवं निदिध्यासन निस्सार है। अथर्ववेद के कुन्तापसूक्त में उद्बोधन है-
पृष्ठं धावन्तं हर्योरौच्चैः श्रवसमब्रुवन्।
स्वस्त्यश्व जैत्रायेन्द्रमा वह सुस्रजम्।। -अथर्व० २०/१२८/१५
अर्थात् हे ऊंचा सुनने वाले! कल्याण मार्ग में विजयी होने के लिए इन्द्र को माला पहिना, आत्मा की स्तुति कर।

इस मन्त्र में आत्मा का वेदमन्त्रों से अलंकरण करने का कितना सुन्दर, मधुर और मनमोहक उपदेश है। आत्मा की धीमी आवाज को कोई "नीचै: श्रवा" ज्ञानी पुरुष ही सुन सकता है। इसी दैवी आवाज को सुनाने के लिए ही श्रावणी आकर कर्णकुटी के आसपास जोर-शोर से कहती है-
एतं पृच्छ कुहं पृच्छ, कुहाकं पक्वकं पृच्छ।। -अथर्व० २०/१३०/५,६
अर्थात् रे नादान! आत्मा के बारे में किसी परिपक्व विचार ज्ञानी भक्त से पूछ।

शास्त्रों ने एक ओर जहां आत्मश्रवण द्वारा अभ्युदय प्राप्ति का उपदेश दिया है, वहीं इसके श्रवणद्वार तक पहुंचने का साधन भी बतलाया है; गुरुमुख और ग्रन्थमुख।
(क) गुरुमुख से- आत्मा के श्रवण का एक मार्ग अज्ञान को दूर करने वाले गुरुमुख से उपदेश सुनना है। मुण्डकोपनिषद् (१/२/१२) में आया है-
"तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्।"
अर्थात् हृदय के काम, क्रोधादि विकारों की समिधाओं को गुरु की अग्नि में डालकर, ब्रह्मज्ञान के महानल में राख बनाकर ही शिष्य सच्ची गुरुसेवा और अग्निहोत्र के तत्व को समझ सकता है।
यद्यपि इस संसार में सच्चे गुरु की प्राप्ति दुर्लभ है, तब ऐसी स्थिति में अन्तःकरण में एक प्रश्न ध्वनित होता है कि क्या सच्चा गुरु न मिलने से आत्मा की आवाज को दबा देना चाहिए? यह कृत्य आत्मा के स्वभाव के सर्वथा विपरीत है। सच्चे मनोनीत गुरु की तलाश में पल-पल मग्न होते हुए भी प्राचीन गुरुओं के रूप में वेदाधारित आध्यात्म ग्रन्थों का सहारा लेना चाहिए।

(ख) ग्रन्थमुख से- आर्ष ग्रन्थ आत्मा को मोक्ष का मार्ग दिखाने वाले दर्पण हैं। वेद, उपनिषद्, दर्शनशास्त्र, स्मृतियां नाना मुख से उसी सच्चिदानन्दस्वरूप जगदीश्वर का गान करते हैं। सत्यग्रन्थ आत्मा के वे गुरु हैं जो विदेह और वीतराग होते हुए भी निष्पक्ष रूप से ज्ञान का अमर उपदेश किया करते हैं।

इसी श्रावण माह में प्रकृति भी आंखमिचौली खेलते हुए आत्मा की झांकी लेने का अवसर प्रदान करती है। वह ब्रह्मचर्य का महान् पाठ सिखाती है। वर्षा का ठण्डा जल, पेड़-पौधों की सुनहरी हरियाली, नदियों की कलकल ध्वनि, मेघ की घनघोर घटायें, पक्षियों की मधुर ध्वनि आदि हृदय को प्रफुल्लित करते हैं। हृदय की गुफा से भी आत्मा की आवाज सुनाई देती है। प्राचीन ऋषि-मुनि तथा महर्षि दयानन्द ने भी आत्मा की आवाज सुनकर ही प्रेरणा प्राप्त की थी। हमारा प्रिय धर्म इसी हृदय की ही तो पुकार है- "हृदयेनाभ्यनुज्ञात: यो धर्मस्तं निबोधत (मनु० १/१२०)"। अतः आत्मश्रवण करते हुए कल्याण मार्ग का पथिक बनना ही श्रावणी का सन्देश है।

वेदाधारित वाल्मीकि रामायण के नैतिक मूल्यों से आदर्श समाज का निर्माण



वेदाधारित वाल्मीकि रामायण के नैतिक मूल्यों से आदर्श समाज का निर्माण

-डा० कृष्ण कान्त वैदिक

भारत में वेद, उपनिषद्, दर्शन, गृह्यसूत्र आदि अनेक शास्त्रों में नीति के तत्त्वों का वर्णन किया गया है। एक प्रसिद्ध ग्रन्थ मनुस्मृति में में कहा गया है-

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।
अर्थात् इसी ब्रह्मवर्त देश में उत्पन्न हुए विद्वानों के सानिध्य से पृथ्वी पर रहने वाले सब मनुष्य अपने-अपने आचरण अर्थात् कर्तव्यों की शिक्षा ग्रहण करें।

मनुस्मृति में धर्म के धृति, क्षमा आदि दस लक्षण बताए गए हैं। यदि मनुष्य इन पर आचरण करते हुए जीवन बिताये तो सारे विश्व में शान्तिमय वातावरण पैदा कर समस्त मानव जाति को सुखी बनाया जा सकता है। 
‘नीति’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘नी’ धातु से हुई है। जिसका शाब्दिक अर्थ है- ले जाना। नीति का अर्थ है मनुष्य के जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के साधन-रूप नियम, जिन पर चल कर इस जीवन और परलोक (पुनर्जन्म) में कल्याण की प्राप्ति हो। आचार शिक्षा का सम्बन्ध व्यक्तिगत जीवन से है, जिसमें आत्मोन्नति पर बल दिया गया है। नैतिक शिक्षा में व्यक्ति के आचार-विचार की शुद्धि के साथ ही पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय,  वैश्विक और प्राणि मात्र से सम्बन्धित विषयों पर विचार किया जाता है। मनुष्य अपने-पराये, सजातीय-विजातीय, शत्रु-मित्र, परिचित-अपरिचित, आदि से किस प्रकार का व्यवहार करे यह नैतिक शिक्षा बताती है। इसके द्वारा समाज के प्रत्येक व्यक्ति का वास्तविक कल्याण होता है। नैतिक शिक्षा का मूल वेदों में मिलता है। ‘सर्वं वेदात् प्रसिध्यति’- इस भारतीय सिद्धान्त से ज्ञात होता है कि अपौरुषेय वेदों से ही समस्त विद्यायें प्रादुर्भूत हुई हैं। वेदों में विधि और निषेध  अर्थात् मनुष्यों के कर्तव्य और अकर्तव्य कर्म वर्णित हैं। वेदों के साथ ही ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद्, गीता, महाभारत, रामायण, पंचतन्त्र, विदुर, शुक्र, भर्तृहरि, आदि ऋषियों के नीति ग्रन्थों में इनका विस्तृत वर्णन है।

हम इस लेख में वाल्मीकि रामायण में वर्णित नैतिक मूल्यों का विवेचन करेंगे।
वाल्मीकिकृत रामायण भारतीय संस्कृति की एक अमूल्य धरोहर है। इसमें सामाजिक, राजनीतिक और अर्थनीति सम्बन्धी मूल्यों का वर्णन मिलता है। आदि कवि वाल्मीकि ने अपने इस काव्य में परिवार, समाज और राष्ट्र  के सम्बन्ध में अनेक उत्कृष्ट मानदण्ड निर्धारित  किये हैं। कथानक के नायक राम का चरित्र सत्य, दान, तप, त्याग, मैत्री, पवित्रता, करुणा और सरलता से परिपूर्ण है। केवल राम ही नहीं अपितु रामायण के अन्य पात्र भी नैतिकता के उच्च शिखर पर आरूढ थे। आज हम देखते हें कि सारे विश्व में हिंसा, द्वेष, असंतोष, पाखण्ड, शंका, लोभ और अहिंसा का साम्राज्य है। ऐसे में यह कालजयी कृति विश्व के भटके हुए लोगों को सार्थक जीवन का पाठ पढ़ा सकती है। ऋग्वेद में कहा गया है- ‘मनुर्भव जनया दैवं जनम्’ अर्थात् मनुष्य मननशील बने और दिव्यगुण वाले पुत्र और शिष्य को उत्पन्न करें। इस प्रकार हमें सच्चे अर्थों में मनुष्य बनने के लिए संवेदनशील मानवता को स्वीकार करना आवश्यक है। निरुक्त में कहा गया है- ‘मत्वा कर्माणि सीव्यतीति मनुष्यः’ अर्थात् विवेकपूर्ण बुद्धि के अनुसार कार्य करने वाला सच्चे अर्थों में मनुष्य कहलाता है। वाल्मीकि रामायण नामक ग्रन्थ हमें सर्वत्र इसी मानवता का पाठ पढ़ता नजर आता है। एक सच्चा मानव ही नैतिक मूल्यों का अनुपालन करता है। समाज के नियम हमें कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान कराते हैं। वह हमें सचेत करते हैं कौन कर्म करणीय है और कौन सा कर्म अकरणीय है।
एक मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाने के लिए जिन सद्गुणों की आवश्यकता होती है, राम उन सबके समुच्चय हैं। वह पवित्रता, सरलता और क्षमाशीलता के गुणों के साथ-साथ सत्यवादी भी हैं-
सत्यं दानं तपस्त्यागो मित्रता शौचमार्जनम्।
विद्या च गुरुशुश्रुषा ध्रुवान्येतानि राघवे।।
राम महाधनुर्धर, वृद्धसेवी, जितेन्द्रिय, उदारचेता, दूसरों के सुख-दुःख के सहभागी और संवेदनशील व्यक्ति हैं।

चरित्रवान् राम के द्वारा परिवार और समाज में व्यवहार करते समय मानो ‘लोकं छिद्रं पृण’ (यजु0 15/59) के सिद्धान्त को सामने रखकर लोक हितार्थ चिन्तन करते हुए सर्वदा ही वैयक्तिक स्वार्थ को दूर रखा गया है।
सामाजिक और पारिवारिक नैतिक मूल्य
रामायाण में एक ऐसे स्वस्थ समाज की संकल्पना है, जहाँ परस्पर प्रेम, सौहार्द और निश्छलता का साम्राज्य है। पारिवारिक नीति के निर्धारक तत्त्वों में मर्यादा और अनुशासन को सर्वोपरि रखा गया है। रामायण में पग-पग पर ‘मातृदेवो भव, पितृदेवो भव आचार्यदेवो  भव’ के वैदिक विचार देखे जा सकते हैं। राम का तो अनन्य विश्वास है कि संसार में माता-पिता के वचनों का सम्मान करना परम धर्म है। रामायण व्यक्ति को पहले मनुष्य और उसके बाद सामाजिक बनाती है। 
जिससे अभ्युदय धारण हो वह धर्म है और इस अभ्युदय को प्राप्त करने के लिए जो उपाय हैं, वे नीति कहलाते हैं, इस प्रकार देखा जाये तो दोनों का एक ही अर्थ होता है। कुछ लोग लौकिक अभ्युदय को प्राप्त करने के साधन को ‘नीति’ और पारलौकिक साधन को धर्म कहते हैं। नीति या नैतिकता से ही शास्त्र और धर्म प्रतिष्ठित होते हैं। नैतिकता के अभाव में शास्त्र और धर्म नष्ट हो जाते हैं। धर्मविहीन नैतिकता का कोई औचित्य नहीं है, भले ही यह आरम्भ में कुछ चमत्कारिक सफलता दिला दे परन्तु अन्ततोगत्वा वह पतन की ओर ही ले जायेगी। मनस्मृति में कहा गया है- ‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ अर्थात् हमारे जीवन में जो स्वाभाविक धर्म और संयम रहता है, वह हमारी रक्षा करता है और जो हम धर्मपूर्वक आचरण या सदाचार करते हैं, वह धर्म हमारी रक्षा करता है। नीति या नैतिकता का मूल ही सदाचार है। धर्म की दृष्टि से नैतिकता के चार पाद हैं-सत्य, तप, दया और पवित्रता। इनमें सत्य को सर्वोपरि माना गया है। सामवेद में कहा गया है-‘स्तुहि सत्यधर्माणाम्’ अर्थात् सत्यनिष्ठ की प्रशंसा करे। मुण्डकोपनिष्द् में कहा गया है- 
सत्यमेव जयति नानृतं सत्येन पन्था वितो देवयानः।
येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम्।।
अर्थात् सत्य की विजय होती है, असत्य की नहीं। सत्य धाम में गमन करते हैं जहां सत्य का वह परम आश्रय परमात्मा अनावृत रूप से स्थित है।

तप का अर्थ है- पीड़ा सहना, घोर कड़ी साधना करना, मन का संयम रखना आदि। महर्षि दयानन्द के अनुसार "जिस प्रकार सोने को अग्नि में डालकर इसका मल दूर किया जाता है उसी प्रकार सद्गुणों और उत्तम आचरणों से अपने हृदय, मन और आत्मा के मैल को दूर किया जाना तप है।"

इन्हीं गुणों को रामायण के किष्किन्धा काण्ड में कहा गया है-
दमः शमः क्षमा धर्मो धृतिः सत्यं पराक्रमः।
पार्थिवानां गुणाः राजन् दण्डश्चाप्यपकारिषु।।
अर्थात् इन्द्रिय निग्रह, मनः संयम, क्षमा, धैर्य, सत्य, पराक्रम, अपराधियों को दण्डित करना राजा के कुछ प्रधान गुण हैं।

किष्किन्धा काण्ड में ही कहा गया है- 
नयश्च विनयश्चैव निग्रहानुग्रहावपि।
राजवृत्तिरसंकीर्णः न राजा कामवृत्तयः।।
अर्थात् राजा में नैतिकता, नम्रता, निग्रह और अनुग्रह चार गुण अनिवार्य हैं। यही नहीं जो राजा कर लेकर अपने प्रजा पालन रूपी धर्म का निर्वहन नहीं करता वह नरक का अधिकारी है।

दया की महिमा भी नैतिक कृत्यों के रूप में शास्त्रों में सर्वत्र मिलती है। तुलसीदास कहते हैं- 
दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छोड़िये जब लौं घट में प्राण।।
मनुष्यों को न केवल शरीर अपितु मन, बुद्धि और आत्मा को भी पवित्र रखना चाहिए।

मनुस्मृति में कहा गया है- 
अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति। विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति।।
अर्थात् जल से शरीर के बाहरी अवयव, सत्याचरण से मन, विद्या और तप से जीवात्मा और ज्ञान या विवेक से बुद्धि निश्चित रूप से पवित्र होती है।

मानव-जीवन में जो कुछ श्रेष्ठ और नैतिकतापूर्ण है, उसके पीछे विवेक विद्यमान होता है। नीति बोध से जब धर्म का उदय होता है तो मनुष्य अपनी अपूर्णता के प्रति जागरूक हो जाता है। व्यक्तित्व का आध्यात्मिक विकास दिव्य जीवन का शिलान्यास है जो नीतिबोध पर निर्भर रहता है। नीतिबोध की सार्थकता भी दिव्य जीवन की ओर अग्रसर होने में ही है। आदि कवि वाल्मीकि ने राम के माध्यम से उन चौदह दोषों को गिनाया है जो एक राजा के लिए त्याज्य हैं-

नास्तिक्यमनृतं क्रोधं प्रमादं दीर्घसूत्रताम्।
अदर्शनं ज्ञानवतामालसयं पन्न्चवृतिाम्।।
एकचिन्तनमर्थानामनर्थज्ञैश्च मन्त्रणाम्।
निश्चितानामनारम्भं मन्त्रस्यापरिरक्षणम्।।
मंगलाद्यप्रयोगं च प्रत्युत्थानं च सर्वतः।
कच्चित्वं वर्जयस्येतान् राजदोषांश्चतुदर्श।।
अर्थात् नास्तिकता, असत्य भाषण, क्रोध, प्रमाद, दीर्घ सूत्रता (टालमटोल), सज्जनों से न मिलना, इन्द्रियों की परवशता, मंत्रियों की अवहेलना कर अकेले ही राज्य सम्बनधी बातों पर विचार करना, अशुभ चिन्तकों अथवा उल्टी बात समझाने वाले मूर्खों से परामर्ष करना, निश्चित मंगल कृत्यों का त्याग, नीच-ऊँच सबको देख खड़े़ होना, शत्रुओं का एक साथ आक्रमण- इन चौदह दोषों को क्या तुमने त्याग दिया है?

ये सूत्र वास्तव में ऐसे हैं, जिनका आज भी कुशल राजनीतिज्ञों और शासकों द्वारा पालन किया जाना चाहिए। इस प्रकार वाल्मीकि रामायण में न केवल नीति अपितु राजनीति का भी सम्यक् ज्ञान दिया गया है।
सम्पूर्ण विश्व में भारत जैसे धर्माधारित नैतिक मूल्यों का विशाल भण्डार नहीं है और न ही आज की ज्वलन्त समस्याओं को दूर करने हेतु कोई दूसरा मार्ग है। केवल वैदिक सनातन नैतिक पद्धतियों से ही विश्व का कल्याण सम्भव है। यदि अपने नैतिक मूल्यों को सुरक्षित रखना है तो हमें वाल्मीकि रामायण आदि उपरोक्त शास्त्रों से प्रेरणा लेनी होगी। सबसे पहले स्वयं को सुधारते हुए सत्य, प्रेम, दया, अहिंसा, निरव्यसन, जितेन्द्रियता, अक्रोध, अलोभ, परोपकारिता आदि सद्गुणों को अपनाना होगा। नैतिकता के प्रारम्भिक संस्कार माता की गोद से ही बनते हैं। माता की शिक्षा, उसके आदर्श संस्कार और घर का वातावरण बच्चों के कोमल मन का विकास करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। माता-पिता ओैर आचार्य बालक/बालिकाओं के आदि गुरु होते हैं, वे इन आदर्शों को संस्कार रूप में बच्चें में स्थापित करें क्योंकि मनुष्य जीवन की विकासधारा उसके शैशव-कालीन अनुभवों से निर्धारित मार्ग का ही अनुसरण करती है। धर्म, संस्कृति और इतिहास से बच्चों को उपदेशात्मक कथाएं सिखलायी जानी चाहिएं जिसे उनमें ईश्वर भक्ति और समर्पण की भावनायें विकसित हों। इस प्रकार की शिक्षा से युवा पीढ़ी में मनसा-वाचा-कर्मणा सत्प्रवृत्तियां का विकास हो सकेगा। यह उनके चरित्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी और उनमें सत्य, दया, त्याग तप, विनय, न्याय-प्रियता और राष्ट्र प्रेम आदि के गुण विकसित होंगे। प्राचीन परम्परागत नैतिक मूल्यों को पुन: स्थापित करके ही हम विश्व में एक आदर्श और समृद्ध समाज का निर्माण कर सकते हैं।

Saturday, August 1, 2020

योग का मूल भी वेद ही है



योग का मूल भी वेद ही है

लेखक: डाॅ0 विवेक आर्य
संपादक - श्री सहदेव 'समर्पित',

(कॉनरेड एल्स्ट (Konared Elst )महोदय योगरूपी वृक्ष के पत्ते ही गिनते रह गए। उसकी जड़ जो वेदों तक जाती हैं, उसे पहचान ही नहीं पाए।)

सृष्टि के आदिकाल से मनुष्य वेदोक्त योगविधि से ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करता आया है। स्वामी दयानन्द ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करते हुए हर व्यक्ति को योगाभ्यासी बनने की प्रेरणा देते थे। वर्तमान काल में योग विषयक अनेक भ्रांतियां वेदों के सत्य सन्देश के प्रचार की कमी के चलते प्रचलित हो रही हैं। ऐसी ही एक भ्रान्ति काॅनरेड एल्स्ट (ज्ञव्म्छत्।।क् म्स्ैज्) (बेल्जियम निवासी लेखक) द्वारा प्रसारित हुई है जो हमारे समक्ष प्रस्तुत हुई है।
प्रायः हर विदेशी लेखक संस्कृत से अनभिज्ञ होता है, इसलिए वह विदेशी अन्य लेखकों द्वारा अंग्रेजी में लिखित पुस्तकों पर निर्भर होता है। इन पुस्तकों के अधकचरे विवरण प्रायः सत्य से दूर होते हैं और खास करके आज के नवबौद्ध इनके बहुत ढोल पीटते हैं। लेखक की योग विषयक हास्यास्पद रिसर्च पर एक दृष्टि डालिये-

'Around the middle of the first millennium BCE“means that yoga does not predate the age of the Buddha. Anything of value should be denied to Hinduism, and if it exists, it has to be borrowed from „another religion“, viz. Buddhism. In reality, the Buddha himself already learned at the feet of several yoga teachers, who in turn did not claim to be innovative.'
                      [Ref.http://koenraadelst.blogspot.com/2013/12/yoga-in-transformation.html]

अर्थात् ईसा से एक शताब्दी पूर्व बुद्ध के काल से पहले योग का प्रचार नहीं था। जो भी योग विषय में उपलब्ध था वह हिन्दुओं ने बुद्ध से ग्रहण किया। बुद्ध ने अनेक योगियों के चरणों में बैठकर योग सीखा जो यह कभी नहीं कहते थे कि योग उनका आविष्कार है।

एल्स्ट महोदय योग रूपी वृक्ष के पत्ते ही गिनते रह गए। उस वृक्ष की जड़ जो वेदों तक जाती हैं, उसे पहचान ही नहीं पाए। वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। अन्य विद्याओं की तरह योग का उद्भव भी वेदों से हुआ है। प्रमाण देखिये-

योगे योगे तवस्तरं वाजे वाजे हवामहे।
सखायऽइन्द्रमूतये।। -यजु0 11/14
अर्थात बार-बार योगाभ्यास करते और बार-बार मानसिक और शारीरिक बल बढ़ाते हुये हम सब परस्पर मित्रभाव से युक्त होकर अपनी रक्षा के लिये अनन्त बलवान्, ऐश्वर्यशाली ईश्वर का ध्यान करते हैं। उसी से सब प्रकार की सहायता मांगते हैं। 

यु॒ञ्जा॒नः प्रथमं मनस्तत्त्वाय सविता धियः। 
अग्नेज्र्योतिर्निचाय्य पृथिव्याऽअध्याभरत्।।11/1
अर्थात् जो पुरुष योगाभ्यास और भूगर्भविद्या किया चाहे, वह यम आदि योग के अङ्ग और क्रिया-कौशलों से अपने हृदय को शुद्ध करके तत्त्वों को जान, बुद्धि को प्राप्त और इन को गुण, कर्म तथा स्वभाव से जान के उपयोग लेवे।

युक्तेन मनसा वयं देवस्य सवितुः सवे।
स्वग्र्याय शक्त्या।-यजुर्वेद 11/2
अर्थात् जो मनुष्य परमेश्वर की इस सृष्टि में समाहित हुए योगाभ्यास ओर तत्त्वविद्या को यथाशक्ति सेवन करें, उनमें सुन्दर आत्मज्ञान के प्रकाश से युक्त हुए योग और पदार्थविद्या का अभ्यास करें, तो अवश्य सिद्धियों को प्राप्त हो जावें।

युक्त्वाय सविता देवान्त्स्वय्र्यतो धिया दिवम्।
बृहज्ज्योतिः करिष्यतः सविता प्रसुवाति तान्।। यजुर्वेद 11/3

अर्थात् जो पुरुष योग और पदार्थविद्या का अभ्यास करते हैं, वे अविद्या आदि क्लेशों को हटानेवाले शुद्ध गुणों को प्रकट कर सकते हैं। जो उपदेशक पुरुष से योग और तत्त्वज्ञान को प्राप्त हो के ऐसा अभ्यास करे, वह भी इन गुणों को प्राप्त होवे।

युजे वां ब्रह्म पूव्र्यं नमोभिर्वि श्लोकऽएतु पथ्येव सूरेः।
शृण्वन्तु विश्वेऽअमृतस्य पुत्राऽआ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः। -यजुर्वेद 11/5

अर्थात् योगाभ्यास के ज्ञान को चाहने वाले मनुष्यों को चाहिये कि योग में कुशल विद्वानों का सङ्ग करें। उनके सङ्ग से योग की विधि को जान के ब्रह्मज्ञान का अभ्यास करें। इस प्रकार से वेद में अनेक मन्त्र ‘योग’ विषय पर प्रकाश डालते हैं।
द्वितीय महर्षि पतंजलि द्वारा वर्णित अष्टाङ्ग योग के आठ अङ्ग ब्रह्मरूपी सर्वोच्च शिखर पर चढ़ने के लिए आठ सीढ़ियाँ हैं। उनका मूल भी वेद ही है। उनके नाम हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
1- यम पाँच हैं-
(1) अहिंसा- अहिंसा का अर्थ केवल किसी की हत्या न करना ही नहीं अपितु मन, वचन और कर्म से किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार कष्ट न देना, किसी को हानि न पहुंचाना और किसी के प्रति वैरभाव न रखना अहिंसा है।
वेद अनेकत्र अहिंसा का सन्देश देते हैं- मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे। -यजुर्वेद 36/18 अर्थात् हम सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखें। 
(2) सत्य- सत्य द्वितीय यम है। साधक मन, वचन और कर्म से सत्य जाने, सत्य माने, सत्य बोले और सत्य ही लिखे, मिथ्या -असत्य न बोले, न मिथ्या व्यवहार ही करे। वेद सत्य के विषय में कहते हैं-‘इदं अहमनृतात्सत्यमुपैमि।’ -यजु0 1/5 अर्थात मैं असत्य को त्याग कर जीवन में सत्य को ग्रहण करता हूँ।
(3) अस्तेय- यमों में तीसरा यम है- अस्तेय। स्तेय का अर्थ है चोरी करना। अस्तेय का अर्थ है- मन, वचन और कर्म से चोरी न करना। साधक चोरी न करे, सत्य व्यवहार करे। स्वामी की आज्ञा के बिना किसी पदार्थ का उपयोग न करे। वेद अस्तेय की शिक्षा देते हुए कहते हैं-‘मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।’ यजु0 40/1 अर्थात् किसी के धन का लालच मत कर।
(4) ब्रह्मचर्य- ब्रह्मचर्य दो शब्दों के मेल से बना है-ब्रह्म और चर्य। ब्रह्म का अर्थ है- ईश्वर, वेद, ज्ञान और वीर्य। चर्य का अर्थ है चिन्तन, अध्ययन, उपार्जन और रक्षण। इस प्रकार ब्रह्मचर्य का अर्थ होगा-साधक ईश्वर का चिन्तन करे, ब्रह्म में विचरे, वेद का अध्ययन करे, ज्ञान का उपार्जन करे और वीर्य का रक्षण करे।
वेद कहते हैं -’ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत।’ -अथर्व0 11/5/19 अर्थात् ब्रह्मचर्य और तप के द्वारा विद्वान् मौत को भी मार भगाते हैं।
(5) अपरिग्रह- अपरिग्रह का अर्थ है-आवश्यकता से अधिक पदार्थों का संग्रह न करना। साधक उतने ही पदार्थों का संग्रह करे जितने सादा जीवन के लिए आवश्यक हैं। किसी भी वस्तु को क्रय करने से पहले गम्भीरतापूर्वक सोच लो। यदि उनके बिना काम न चलता हो तभी खरीदो। वेद अपरिग्रह का सन्देश देते हुए कहते हैं कि- ‘शतहस्त समाहर सहस्रहस्त सं किर। -अथर्व0 3/24/5 अर्थात् सौ हाथों से कमाओ, हजार हाथ से दान करो।

2- नियम भी पांच हैं-

(1) शौच- शौच का अर्थ है पवित्रता। साधक अन्दर और बाहर से पवित्र रहे। राग-द्वेष के त्याग से आन्तरिक और जलादि के द्वारा बाह्य शुद्धि सम्पादित करनी चाहिए। शरीर की दशा का मन पर बहुत प्रभाव पड़ता है, अतः शरीर को स्नानादि से पवित्र करना चाहिए। वेशभूषा व रहने का स्थान भी साफ-सुथरा हो। वेदानुकूल मनुस्मृति में कहा है-
अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति।
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिज्र्ञानेन शुध्यति। -मनुस्मृति 5/109 
अर्थात् जल से शरीर के बाहर के अवयव, सत्य आचरण से मन; विद्या और तप अर्थात् कष्ट सहकर भी धर्म अनुष्ठान से आत्मा तथा ज्ञान अर्थात् पृथ्वी से लेकर परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों के विवेक से बुद्धि शुद्ध होती है।

(2) सन्तोष- सन्तोष का अर्थ बहुत गलत समझा गया है। सन्तोष का अर्थ हाथ पर हाथ रखकर निठल्ला बैठना नहीं है। सन्तोष का अर्थ है- आलस्य छोड़कर सदा पुरुषार्थ करना। धर्मपूर्वक पुरुषार्थ अवश्य करना चाहिये। वेद के अनेक मन्त्रों के पीछे ‘स्वाहा’ पद आता हैं। जैसे यजुर्वेद 32/14 मन्त्र में मेधाविनं कुरु ‘स्वाहा’ आया है। ‘स्वाहा’ पद का अर्थ निरुक्त के अनुसार स्वं प्राहेति बनता है। जिसका अर्थ स्वामी दयानन्द ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में करते है कि- जितना-जितना धर्मयुक्त पुरुषार्थ से पदार्थ प्राप्त हो, उतने ही में सदा संतोष करें। इससे स्वाहा शब्द के अर्थ में संतोष का मूल सन्देश विद्यमान है। 

(3) तप-तप का वास्तविक अर्थ है-‘द्वन्द्वसहनं तपः’-कष्ट आने पर भी धर्मकार्यों को करते जाना तप है। हानि-लाभ, जीवन-मरण, सुख-दुःख, भूख-प्यास, हर्ष-शोक में सम रहने का नाम तप है।वेद में कहा है- अतप्ततनूर्न तदामो अश्नुते। -ऋ0 ९/८३/१ अर्थात् जिसने तप की भट्टी में अपने शरीर को तपाया नहीं है, ऐसा कच्चा व्यक्ति उस प्रभु को नहीं पा सकता।

(4) स्वाध्याय-स्वाध्याय का अर्थ है-वेद का अध्ययन-अध्यापन और ऋषि-मुनियों द्वारा लिखित सत्यशास्त्रों को पढ़ना-पढ़ाना। वेद परमात्मा का दिव्यज्ञान है। यह मानव-कत्र्तव्यों का बोधक शास्त्र है, ज्ञान और विज्ञान का अगाध भण्डार है। अपने कत्र्तव्यों के ज्ञान हेतु वेद का स्वाध्याय करना ही चाहिए।
स्वाध्याय का एक और अर्थ है-प्रतिदिन परमात्मा के सर्वोत्तम नाम ‘ओ3म्’ का अर्थपूर्वक जप करना। वेद में कहा है- ओ3म् क्रतो स्मर। -यजु0 40/15 अर्थात् हे कर्मशील जीव! तू ओ3म् का स्मरण कर और ‘ओ3म् प्रतिष्ठ।’ -यजु0 २/१३ अर्थात् तू ओ3म् में प्रतिष्ठित हो जा अथवा ओ3म् को=ओ3म् नामक परमात्मा को अपने हृदय-मन्दिर में बिठा ले।

(5) ईश्वरप्रणिधान- ईश्वर प्रणिधान के दो अर्थ हैं-एक, बिना किसी इच्छा, आकांक्षा और मांग के अपने-आपको, अपने सब कामों को, अपने सब संकल्पों को प्रभु को समर्पित कर देना। जो परमात्मा से कुछ मांगते हैं, उन्हें तो प्रभु केवल वही वस्तु देता है, जो वे मांगते हैं, परन्तु जो कुछ नहीं मांगते, उन्हें परमेश्वर सब-कुछ देता है। और अन्त में अपने आपको भी दे देता है, अपना साक्षात् भी करा देता है। दूसरा अर्थ है-हृदय में ईश्वर का प्रेम रखते हुए, ईश्वर की विशेष भक्ति या उपासना करते हुए ईश्वर की कृपा, दया और प्रसन्नता का पात्र बनना।
वेद में कहा है- यस्मै हस्ताभ्यां पादाभ्यां वाचा श्रोत्रेण चक्षुषा। यस्मै देवाः सदा बलिं प्रयच्छन्ति विमितेऽमितं स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः। अथर्व0 10/7/39
अर्थात् देव लोग अपने हाथों, पैरों, श्रोत्र और चक्षु आदि की शक्तियों को तथा इनके द्वारा किये गये कर्मों तथा उपार्जनों को सम्पूर्ण रूप में महादेव के प्रति भेंट रूप में समर्पित कर देते हैं। यह उच्च कोटि का समर्पण ही ईश्वर प्रणिधान कहलाता हैं।

3. आसन: यह योग का तीसरा अंग है। शरीर न हिले, न डुले, न दुखे और चित्त में किसी प्रकार का उद्वेग न हो, ऐसी अवस्था में दीर्घकाल तक सुख से बैठने को आसन कहते हैं। यजुर्वेद में कहा है- स्थिरो भव वी॒ड्वङ्ग॒।। 11/44

4 प्राणायाम: प्राणायाम योग का चैथा अङ्ग है। प्राण और मन का घनिष्ठ सम्बन्ध है। जहां-जहां प्राण जाता है, वहाँ-वहाँ मन भी जाता है। यदि प्राण वश में हो जाए तो मन बिना प्रयास के स्वयं वश में हो जाता है।

वेद में कहा है-
युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः ।
रोचन्ते रोचना दिवि ॥ ऋग्वेद 1/6/1  अर्थात् सब पदार्थों की सिद्धि का मुख्य हेतु जो प्राण है उसको प्राणायाम की रीति से अत्यन्त प्रीति के साथ परमात्मा में युक्त करते हैं।
5: प्रत्याहार- मन को एक लक्ष्य पर एकाग्र करने के लिए उसे बाह्य विषयों से समेटने का नाम प्रत्याहार है। बाह्य विषयों से हटने पर ही मन को ध्यान-लक्ष्य पर केन्द्रित किया जा सकता है। प्रत्याहार वह महान् कुंजी है जो द्दारणा, ध्यान और समाधि के द्वारों को खोल देती है। ऋग्वेद 7/11/1 में आया है- न ऋते त्वदमृता मादयन्ते।। अर्थात् तेरे बिना मुक्त आत्मा आनन्दित नहीं होते। परमेश्वर में अवस्थित होकर जीवात्मा अपने आपको भूल जाता है और आनंद में भरकर कह उठता है- तू मैं और मैं तू हैं। यह अवस्था बाह्य इन्द्रियों को समेटने की क्रिया के पश्चात् ही होती है। 
6: धारणा- धारणा का अर्थ है-मन को एकाग्र करना, मन को किसी एक विषय पर केन्द्रित करना। वेद कहते हैं-यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति। दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।
यजुर्वेद 34/1 अर्थात् वेद जाग्रत ही नहीं अपितु सुषुप्त अवस्था में भी मन को शुभ संकल्प वाला बनाने का सन्देश देते हैं। यह शुभ संकल्प केवल एकाग्र मन में ईश्वर द्वारा ही स्थापित हो सकता है। 
7- ध्यान- धारणा की परिपक्वता का नाम ही ध्यान है। धारणा में प्रत्यय-ज्ञान का एक-सा बना रहना ही ध्यान है। जिस स्थान पर चित्त को एकाग्र किया गया है, उस एकाग्रता का ज्ञान तैलद्दारावत् निरन्तर एक-सा बना रहे और उस समय अन्य किसी प्रकार का ज्ञान या विचार चित्त में न आने पाए, इस अवस्था को ही ध्यान कहते हैं।
वेद कहते है-सीरा यु×जन्ति कवयो युगा वितन्वते पृथक्। धीरा देवेषु सुम्नया। यजुर्वेद 12/67 अर्थात् जो विद्वान् योगी लोग और (धीरा) ध्यान करने वाले हैं, वे यथायोग्य विभाग से नाड़ियों में अपने आत्मा से परमेश्वर की धारणा करते हैं।
8: समाधि- निरन्तर अभ्यास और वैराग्य में सम्यक् अवस्थिति होने से एकाग्रता बढ़ती है तथा अखण्ड क्रम से गतिमान् रहती है, फिर अन्ततः प्रगाढ़ ध्यान में निमग्न होने की अवस्था आती है, जो राज-योग की आठवीं अवस्था है। इसी को समाधि कहते  हैं।
अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।
तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः।।
   -अथर्व0 10/2/31
भावार्थः- आठ चक्रोंवाली, नौ इन्द्रियाँ- द्वारोंवाली इस शरीररूप अयोध्या नामक देवनगरी में एक ज्योतिर्मय मनोमय कोश है, जो आह्लाद व प्रकाश से परिपूर्ण है। इसे हम राग-द्वेष से मलिन न करें। इसी कोष में आत्मा विद्यमान है। इसी हृदय कोष में आत्मा का परमात्मा से मिलन होता हैं। यह मिलन समाधि अवस्था में ही होता है।
इस प्रकार से यह सिद्ध होता है कि योग का उद्गम वेदों से है। 

(शांतिधर्मी मासिक, हिंदी पत्रिका, जुलाई,2020 अंक से साभार। शांतिधर्मी पत्रिका के सदस्य बनने के लिए इस नंबर पर संपर्क कीजिये-)

मनुष्य मांसाहारी या शाकाहारी?


मनुष्य मांसाहारी या शाकाहारी?

✍️ डाॅ० भूपसिंह, रिटायर्ड एसोशिएट प्रोफेसर, भौतिक विज्ञान भिवानी (हरियाणा)

हवा-पानी-भोजन सभी जीवधारियों के जीवन आधार हैं। हवा-पानी साफ हों प्रदूषित न हों, यह भी सर्वमान्य है। मनुष्य को छोड़ कर शेष सभी शरीरधारी अपने भोजन के बारे में भी स्पष्ट हैं उनका भोजन क्या है? यह कितनी बड़ी विड़म्बना है कि सबसे बुद्धिमान् शरीरधारी मनुष्य अपने भोजन के बारे में स्पष्ट नहीं है। मैं अपने मनुष्य बन्धुओं से यह बात कहते हुए क्षमा चाहूँगा कि भोजन के निर्णय में मनुष्य की स्थिति एक गधे से भी नीचे है। मनुष्य को भोजन के बारे में बताने वाले डाॅक्टर, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, धर्मगुरु दोगली बातें करते हैं। स्पष्ट निर्णय किससे लें? भोजन के बारे में स्पष्ट निर्णय हमें सिद्धान्त से ही मिल सकता है, क्योंकि सिद्धान्त सर्वोपरी होता है। हम यह निर्णय करें कि मनुष्य का भोजन क्या है?, कुछ आधारभूत बातों के आधार पर करेंगे। ये आधारभूत बातें इस प्रकार हैं - 

1. किसी मशीन के बारे में जानकारी, प्रयोग करने वाले से बनाने वाले को अधिक होती है।
2. मशीन का ईंधन और शरीर का भोजन उसकी बनावट के अनुसार निश्चित होता है। 
3. उपयुक्त (बनावट के अनुसार) ईंधन वा भोजन से मशीन वा शरीर अच्छा काम करेंगे व देर तक कार्य करेंगे अन्यथा ईंधन या भोजन से कम काम करेंगे और शीघ्र खराब हो जायेंगे।
4. ईंधन या भोजन वह पदार्थ है, जिससे मशीन कार्य करे और शरीर जीवित रहे। जिस पदार्थ को शरीर में भोजन रूप में डाला जाये और शरीर जीवित न रहे, वह भोजन नहीं हो सकता। 
5. सभी शरीर (आस्तिकों के लिए) ईश्वर ने बनाए या (नास्तिकों के लिए) प्रकृति ने बनाये। एक भी शरीर किसी डाॅक्टर, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री या धर्मगुरु ने नहीं बनाया।
6. हम सृष्टि में अपने चारों ओर दो प्रकार के शरीर देख रहे हैं - मांसाहारी और शाकाहारी।

यहाँ हम 1, 2, 5 और 6 के आधार पर निर्णय करेंगे कि मनुष्य का भोजन मांसाहार है या शाकाहार है?

सभी शरीर ईश्वर या प्रकृति ने बनाये, ईश्वर या प्रकृति की जानकारी मनुष्य से अधिक है और भोजन बनावट के हिसाब से होता है। हमारे सामने दो प्रकार के शरीर मांसाहारी (शेर, चीता, तेंदूआ, भेड़िया आदि) और शाकाहारी (गाय, बकरी, घोड़ा, हाथी, ऊँट आदि) उपस्थित हैं, तो सबसे आधारभूत बात है कि भोजन शरीर की बनावट के हिसाब से शरीर बनाने वाले ईश्वर या प्रकृति ने निश्चित किया है और ईश्वर या प्रकृति की बात मनुष्य के मुकाबले ज्यादा ठीक होगी, इस आधार का प्रयोग करके हम मनुष्य का भोजन निश्चित करेंगे। उस निर्णय के लिये हम शाकाहारी और मांसाहारी के शरीरों की बनावट की तुलना करते हैं और देखते हैं कि मनुष्य शरीर की बनावट किससे मेल खाती है? मनुष्य शरीर की रचना शाकाहारी शरीरों जैसी है, तो मनुष्य का भोजन शाकाहार और यदि रचना मांसाहारी शरीरों से मेल खाती है, तो मनुष्य का भेाजन मांसाहार होगा। यह अन्तिम निर्णय होगा और हमें किसी धर्मगुरु, वैज्ञानिक या डाॅक्टर से पूछने की आवश्यकता नहीं हैं, क्योंकि ईश्वर या प्रकृति के मुकाबले इनकी कोई औकात नहीं होती और वैसे भी मनुष्य का निष्पक्ष होना बड़ा मुश्किल होता है। निम्न. तालिका में मांसाहारी-शाकाहारी शरीरों की रचना की तुलनात्मक जानकारी दी जा रही है -

1. मांसाहारी - आँखें गोल होती हैं, अंधेरे में देख सकती हैं, अंधेरे में चमकती हैं और जन्म के 5-6 दिन बाद खुलती हैं।
शाकाहारी - आँखे लम्बी होती हैं, अंधेरे में चमकती नहीं और अंधेरे में देख नहीं सकती और जन्म के साथ ही खुलती हैं।

2. मांसाहारी - घ्राण शक्ति (सूंघने की शक्ति) बहुत अधिक होती है।
शाकाहारी - घ्राण शक्ति मांसाहारियों से बहुत कम होती है।

3. मांसाहारी - बहुत अधिक आवृत्ति वाली आवाज को सुन लेते हैं।
शाकाहारी - बहुत अधिक आवृत्ति वाली आवाज को नहीं सुन पाते हैं।

4. मांसाहारी - दांत नुकीले होते हैं। सारे मुँह में दांत ही होते हैं, दाढ़ नहीं होती हैं और दांत एक बार ही आते हैं।
शाकाहारी - दांत और दाढ़ दोनों होते हैं, चपटे होते हैं और एक बार गिर कर दोबारा आते हैं।

5. मांसाहारी - ये मांस को फाड़ कर निगलते हैं, तो इनका जबड़ा केवल ऊपर-नीचे चलता है।
शाकाहारी - ये भोजन को पीसते हैं, तो इनका जबड़ा ऊपर-नीचे और बायें-दायें चलता है।

6. मांसाहारी - मांस खाते समय बार-बार मुँह को खोलते व बन्द करते हैं।
शाकाहारी - भोजन करते समय एक बार भोजन मुँह में लेने के बाद निगलने तक मुँह बन्द रखते हैं।

7. मांसाहारी - जीभ आगे से चपटी, व पतली होती है और आगे से चैड़ी होती है।
शाकाहारी - जीभ आगे से चैड़ाई में कम व गोलाईदार होती है।

8. मांसाहारी - जीभ पर टैस्ट बड्ज (Teste Buids), जिनकी सहायता से स्वाद की पहचान की जाती है, संख्या में काफी कम होते हैं (500 - 2000)
शाकाहारी - जीभ पर टैस्ट बड्ज की संख्या बहुत अधिक होती है (20,000 - 30,000) मनुष्य की जीभ पर यह संख्या (24,000 - 25,000) तक होती है। 

9. मांसाहारी - मुँह की लार अम्लीय होती है। (acidic)
शाकाहारी - मुँह की लार क्षारीय होती है। (alkaline)

10. मांसाहारी - पेट की बनावट एक कक्षीय होती है।
 शाकाहारी -  पेट की बनावट बहुकक्षीय होती है। मनुष्य का पेट दो कक्षीय होता है।  

11. मांसाहारी - पेट के पाचक रस बहुत तेज (सान्द्र) होते हैं। शाकारियों के पाचक रसों से 12-15 गुणा तेज होते हैं।
शाकाहारी -  शाकाहारियों के पेट के पाचक रस मांसाहारियों के मुकाबले बहुत कम तेज होते हैं। मनुष्य के पेट के पाचक रसों की सान्द्रता शाकाहारियों वाली होती है।  

12. मांसाहारी - पाचन संस्थान (मुँह से गुदा तक) की लम्बाई कम होती है। आमतौर पर शरीर लम्बाई का 2.5 - 3 गुणा होती है।
शाकाहारी - पाचन संस्थान की लम्बाई अधिक होती है। प्रायः शरीर की लम्बाई का 5-6 गुणा होती है।

13. मांसाहारी - छोटी आंत व बड़ी आंत की लम्बाई-चैड़ाई में अधिक अन्तर नहीं होता।
शाकाहारी - छोटी आंत चैड़ाई में काफी कम और लम्बाई में बड़ी आंत से काफी ज्यादा लम्बी होती है। 

14. मांसाहारी - इनमें कार्बोहाईड्रेट नहीं होता, इस कारण मांसाहारियों की आंतों में किण्वन बैक्टीरिया (Fermentation bacteria) नहीं होते हैं।
शाकाहारी - इनकी आंतों में किण्वन बैक्टीरिया (Fermentation bacteria) होते हैं, जो कार्बोहाइडेªट के पाचन में सहायक होते हैं।

15. मांसाहारी - आंते पाईपनुमा होती है अर्थात् अन्ददर से सपाट होती हैं।
शाकाहारी - आंतों में उभार व गड्ढे (grooves) अर्थात् अन्दर की बनावट चूड़ीदार होती है।

16. मांसाहारी - इनका लीवर वसा और प्रोटीन को पचाने वाला पाचक रस अधिक छोड़ता है। पित को स्टोर करता है। आकार में बड़ा होता है।
शाकाहारी - इनके लीवर के पाचक रस में वसा को पचाने वाले पाचक रस की न्यूनता होती है। पित को छोड़ता है। तुलनात्मक आधार में छोटा होता है।

17. मांसाहारी - पैंक्रियाज (अग्नाशय) कम मात्रा में एन्जाईम छोड़ता है।
शाकाहारी - मांसाहारियों के मुकाबले अधिक मात्रा में एन्जाईम छोड़ता है।

18. मांसाहारी - खून की प्रकृति अम्लीय (acidic) होती है।
शाकाहारी - खून की प्रकृति क्षारीय (alkaline) होती है।

19. मांसाहारी - खून (blood) के लिपो प्रोटीन एक प्रकार के हैं, जो शाकाहारियों से भिन्न होते हैं।
शाकाहारी - मनुष्य के खून के लिपो प्रोटीन (Lipo - Protein) शाकाहारियों से मेल खाते हैं।

20. मांसाहारी - प्रोटीन के पाचन से काफी मात्रा में यूरिया व यूरिक अम्ल बनता है, तो खून से काफी मात्रा में यूरिया आदि को हटाने के लिये बड़े आकार के गुर्दे (Kidney) होते हैं।
शाकाहारी - इनके गुर्दें मांसाहारियों की तुलना में छोटे होते हैं।

21. मांसाहारी - इनमें (रेक्टम) गुदा के ऊपर का भाग नहीं होता है।
शाकाहारी - इनमें रेक्टम होता है।

22. मांसाहारी - इनकी रीढ़ की बनावट ऐसी होती है कि पीठ पर भार नहीं ढो सकते।
शाकाहारी - इनकी पीठ पर भार ढो सकते हैं।

23. मांसाहारी - इनके नाखून आगे से नुकीले, गोल और लम्बे होते हैं।
शाकाहारी - इनके नाखून चपटे और छोटे होते हैं।

24. मांसाहारी - ये तरल पदार्थ को चाट कर पीते हैं।
शाकाहारी - ये तरल पदार्थ को घूंट भर कर पीते हैं।

25. मांसाहारी - इनको पसीना नहीं आता है।
शाकाहारी - इनको पसीना आता है।

26. मांसाहारी - इनके प्रसव के समय (बच्चे पैदा करने में लगा समय) कम होता है। प्रायः 3-6 महिने।
शाकाहारी - इनके प्रसव का समय मांसाहारियों से अधिक होता है। प्रायः 6 महिने से 18 महिने।

27. मांसाहारी - ये पानी कम पीते हैं।
शाकाहारी - ये पानी अपेक्षाकृत ज्यादा पीते हैं।

28. मांसाहारी - इनके श्वांस की रफ्तार तेज होती है।
शाकाहारी - इनके श्वांस की रफ्तार कम होती है, आयु अधिक होती है।

29. मांसाहारी - थकने पर व गर्मी में मुँह खोल कर जीभ निकाल कर हाँफते हैं।
शाकाहारी - मुँह खोलकर नहीं हाँफते और गर्मी में जीभ बाहर नहीं निकालते।

30. मांसाहारी - प्रायः दिन में सोते हैं, रात को जागते व घूमते-फिरते हैं।
शाकाहारी - रात को सोते हैं, दिन में सक्रिय होते हैं।

31. मांसाहारी - क्रूर होते हैं, आवश्यकता पड़ने पर अपने बच्चे को भी मार कर खा सकते हैं।
शाकाहारी - अपने बच्चे को नहीं मारते और बच्चे के प्रति हिंसक नहीं होते।

32. मांसाहारी - दूसरे जानवर को डराने के लिए गुर्राते हैं।
शाकाहारी - दूसरे पशु को डराने के लिए गुर्राते नहीं।

33. मांसाहारी - इनके ब्लड में रिस्पटरों की संख्या अधिक होती है, जो ब्लड में कोलेस्ट्राॅल को नियन्त्रित करते हैं।
शाकाहारी - इनके ब्लड में रिस्पटरों की संख्या कम होती है। मनुष्य के ब्लड में भी संख्या कम होती है।

34. मांसाहारी - ये किसी पशु को मारकर उसका मांस कच्चा ही खा जाते हैं।
शाकाहारी - मनुष्य जानवर को मारकर उसका कच्चा मांस नहीं खाता।

35. मांसाहारी - इनके मल-मूत्र में दुर्गन्ध होती है।
शाकाहारी - इनके मल-मूत्र में दुर्गन्ध नहीं होती (मनुष्य यदि शाकाहारी है और उसका पाचन स्वस्थ है, तो मनुष्य के मल-मूत्र में भी बहुत कम दुर्गन्ध होती है।)

36. मांसाहारी - इनके पाचन संस्थान में पाचन के समय ऊर्जा प्राप्त करने के लिये अलग प्रकार के प्रोटीन उपयोग में लाये जाते हैं, जो शाकाहारियों से भिन्न हैं।
शाकाहारी - इनके ऊर्जा प्राप्ति के लिये भिन्न प्रोटीन प्रयोग होते हैं।

37. मांसाहारी - इनके पाचन संस्थान, जो एन्जाइम बनाते हैं, वे मांस का ही पाचन करते हैं।
शाकाहारी - इनके पाचन संस्थान, जो एन्जाइम बनाते हैं, वे केवल वनस्पतिजन्य पदार्थों को ही पचाते हैं।

38. मांसाहारी - इनके शरीर का तापमान कम होता है, क्योंकि मांसाहारियों का BMR (Basic Metabolic Rate) शाकाहारियों से कम होता है।
शाकाहारी - मनुष्य के शरीर का तापमान शाकाहारियों के आस-पास होता है। 

39. मांसाहारी - दो बर्तन लें, एक में मांस रख दें और दूसरे में शाकाहार रख दें, तो मांसाहारी जानवर मांस को चुनेगा।
शाकाहारी - मनुष्य का बच्चा शाकाहार को चुनेगा।

उपर्युक्त तथ्यों के अनुसार मनुष्य शरीर की बनावट बिना किसी अपवाद के शत-प्रतिशत शाकाहारी शरीरों की बनावट से मेल खाती है और भोजन को बनावट के अनुसार निश्चित किया जाता है, तो मनुष्य का भोजन शाकाहार है, मांसाहार कतई नहीं। हमें निश्चिन्त होकर शाकाहार करना चाहिये और मांसाहार से होने वाली अनेक प्रकार की हानियों से बचना चाहिये।

शाकाहार में मानव का कल्याण है और मांसाहार विनाशकारी है। प्राकृतिक सिद्धान्त की उपेक्षा करके होने वाले विनाश से बचने का कोई मार्ग नहीं है।