Wednesday, June 24, 2020

मुलहिद और मुस्लिम नवजागरण



मुलहिद और मुस्लिम नवजागरण

शंकर सरन

यूरोप में पूर्व-कैथोलिक संज्ञा जानी-मानी है। यानी ऐसे लोग जो पहले क्रिश्चियन थे, पर अब उस में विश्वास नहीं रखते। वे अब स्वतंत्र बुद्धिवादी या नास्तिक हैं। तो क्या दुनिया के डेढ़ अरब मुस्लिमों में ऐसे लोग नहीं, जो इस्लाम में विश्वास छोड़ चुके? जो इस्लाम से अधिक अपने विवेक को और इस्लामी निर्देशों से ऊपर मानवीय नैतिकता को मानते हों? उत्तर है कि मुस्लिमों में भी ऐसे लोग शुरू से हैं, खुद प्रोफेट मुहम्मद के समय से। इतने कि उन पर मुहम्मद ने कई बार कहा है। उन के लिए दो नाम भी हैं, ‘मुनाफिक’, और ‘मुलहिद’। मुनाफिक, जो ऊपर से इस्लाम पर विश्वास जताते हैं पर दरअसल उन्हें विश्वास नहीं है। मुलहिद, जो खुल कर इस्लाम पर विश्वास छोड़ चुके हैं।

यहाँ दो बातें नोट करने की हैं। पहली, मुहम्मद ने ऐसे लोगों को खत्म कर डालने का हुक्म दिया था। इसीलिए शरीयत में इस्लाम छोड़ने की सजा मौत है। दूसरी, जैसे ही मुहम्मद की मृत्यु हुई, अनेक अरब कबीलों ने इस्लाम छोड़ने की घोषणा कर दी। इस्लाम छोड़ने वालों में मुहम्मद की आखिरी बीवी कुतैला बिन्त कैस भी थी! प्रथम खलीफा अबू बकर को साल भर तक अरब में युद्ध लड़ना पड़ा, ताकि इस्लाम छोड़ने की गति रोकी जा सके।

इस प्रकार, शुरू से ही इस्लाम मुसलमानों के लिए कैदखाने जैसा मतवाद बना और वैसा ही रहा है। जिस में जाने का रास्ता है, निकलने का बंद है। वह भी मार डालने की धमकी से। कहना चाहिए कि इस के सिवा इस्लाम को बनाए रखने का कोई उपाय नहीं है! इस में ऐसा कुछ नहीं जो मानवीय विवेक को स्वीकार हो सके। तब भी इस्लाम चौदह सौ वर्षों से क्यों बना हुआ है – यह एक अलग विषय है। जिस पर अलग से विचार करना चाहिए।

फिलहाल प्रसंग यह कि मार डालने के ‘कानून’ के बावजूद हालिया दशकों में मुलहिदों की संख्या बढ़ रही है। कनाडा के मौलवी बिलाल फिलिप्स के अनुसार उन की बाढ़, बल्कि ‘सुनामी’ आ सकती है। यह चिन्ता निराधार नहीं। एक आकलन के अनुसार अभी केवल पाकिस्तान में 28 हजार मुलहिद हैं। ईरान में और बाहर रहने वाले ईरानी मूल के मुस्लिमों में यह संख्या बहुत बड़ी है। अमेरिका में प्यू रिसर्च सेंटर ने एक सर्वे में पाया कि मुस्लिम परिवारों के लगभग एक चौथाई युवा अपने को इस्लाम से नहीं जोड़ते।

इस में आगे वृद्धि होना पक्की बात है। इस का सबसे बड़ा श्रेय इंटरनेट और उस पर उपलब्ध तमाम जानकारियों, पुस्तकों, विचार-विमर्श को है जिन्हें प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। यद्यपि सऊदी अऱब, ईरान, पाकिस्तान, मलेशिया, आदि कई देशों में स्वतंत्र नजरिए से लिखने-बोलने वाले मुस्लिमों के लिए जेल और मौत की सजा है। पर इस से बात बनने वाली नहीं। इस्लाम के सिद्धांत और वास्तविक इतिहास अब विश्लेषण, परख से बचाकर नहीं रखे जा सकते। इस्लामी मत मानने वाले मुसलमानों की निंदा बिलकुल नहीं होनी चाहिए। लेकिन उस मत, विचार को यह सुविधा नहीं है।

पिछले दशकों में इब्न वराक, अनवर शेख, अली सिना, जैसे कुछ ही जाने-माने मुलहिद थे। अब उन की संख्या लगातार बढ़ रही है। आज अमेरिका में अय्यान हिरसी अली, वफा सुलतान, मरवी सरमद, कनाडा में ताहिर असलम गोरा, अली अमजद रिजवी, इंग्लैंड में रिजवान इदेमीर, तथा पाकिस्तानी मूल के गालिब कमाल, और हैरिस सुलतान को पढ़ने, सुनने वाले असंख्य हैं। ईरानी मूल के रिजवान इदेमीर के कार्यक्रम ‘एपोस्टेट प्रोफेट’ के नियमित दर्शकों की संख्या 2 लाख से अधिक है। उन के कुछ वीडियो लाखों लोगों ने देखे हैं।

अनेक मुलहिदों के नियमित कार्यक्रम यू-ट्यूब पर आते हैं। उन में ‘स्पार्टाकस एक्स-मुस्लिम’, गालिब कमाल, और हैरिस सुलतान के हजारों नियमित दर्शक हैं। इन में अधिकांश मुसलमान ही होंगे। जो अब तक इस्लाम के प्रति आलोचनात्मक विचारों को सुनने से बचा कर रखे गए थे। उन के प्रश्न दबाए या झूठी बातों से ठंढे किये जाते थे। अब इंटरनेट के कारण वे बैठे-बैठे सारा सच-झूठ परख सकते हैं।

दूसरे, विविधता के आदर में वैचारिक विविधता का आदर भी है। इसलिए मुसलमानों में भी नास्तिकों, स्वतंत्र विचार के लोगों, और इस्लाम की आलोचना करने वालों का भी स्थान होना चाहिए। तभी मुसलमानों की उन्नति होगी। उन का समाज सहज, स्वस्थ, विकासशील बनेगा। जैसे मध्य युग में यूरोप में चर्च क्रश्चियनिटी की जकड़ से निकलने के बाद यूरोप की उन्नति हुई।

इसी प्रक्रिया का एक दस्तावेज पाकिस्तानी मूल के ऑस्टेलियाई लेखक हैरिस सुलतान की चर्चित पुस्तक ‘द कर्स ऑफ गॉड:  ह्वाय आई लेफ्ट इस्लाम’  (Xlibris.com.au, ऑस्टेलिया, 2018) है। इस की भूमिका में अली अमजद रिजवी ने लिखा है कि जैसे छापाखाने के आविष्कार ने बाइबिल के आलोचनात्मक विमर्श का रास्ता खोला, उसी तरह इंटरनेट ने कुरान को सबके समझने के लिए खोल दिया है। सन् 1980 के दशक तक स्थिति यह थी कि सभी पाकिस्तानी मुस्लिम घरों में कुरान रखा रहता था, पर किसी को मालूम न था कि उस में क्या है। अधिकांश कुछ उड़ती-उड़ती बातें ही जानते थे। उतना ही जितना मौलवी बताते थे। फिर, अरबी कुरान का अनुवाद भी गोल-मोल रहता था, ताकि कुछ बातें दबी रहें। जिसे जानकर किसी भले आदमी को धक्का लग सकता था। खासकर गैर-अरब देशों में, जहाँ मुसलमानों में अपने देशों की पंरपरा के कई मानवीय मूल्य प्रतिष्ठित थे।

रिजवी ध्यान दिलाते हैं कि जब यूरोप के मध्य युग में क्रिश्चियनिटी को चुनौती दी गई, तो उसे ‘नवजागरण’ का युग कहा गया। उस का लाभ नए चिंतन, और आविष्कारों के रूप में यूरोप और सारी दुनिया को मिला। अब वही चीज मुस्लिम समाज में हो सकने को कोई और नाम देना अनुचित है। हैरिस सुलतान ने इस्लामी सिद्धांतों की आलोचना नास्तिकवादी नजरिए से की है। वे सभी रिलीजनों को मनुष्य के विकास में बाधा मानते हैं। उन में वैज्ञानिकों वाली प्रश्नाकुलता है, जिस से वे बचपन से ही इस्लामी विश्वासों पर भी प्रश्न पूछते थे। जैसे, हर चीज को अल्लाह ने बनाया, तो अल्लाह को किस ने बनाया? इस के उत्तरों से उन्हें संतुष्टि नहीं होती थी। ज्यादा पूछने पर माँ उन्हें चुप रहने कहतीं, नहीं तो ‘कोई तुम्हें मार डालेगा।’

बड़े होने पर हैरिस ने इस्लामी किताबों को खुद पढ़ा तो एक अनोखी चीज पाई। अच्छे-अच्छे पाकिस्तानी अपने काम और जीवन-मूल्यों में अनेक बिन्दुओं पर वस्तुतः इस्लाम-विरोधी हैं। लेकिन अपने को विश्वासी मुसलमान समझते हैं। उन में नेता, व्यापारी, खिलाड़ी, कलाकार, किसान, आदि हर तरह के लोग हैं। वे ऐसे कई विचारों के हामी हैं, जो शरीयत विरुद्ध है। पर उन्हें पता नहीं कि वे विचार शरीयत यानी इस्लाम के विरुद्ध हैं।

हैरिस की दलील है कि ऐसे बीच-बीच के मुसलमानों को या तो इस्लाम से मुक्त होना चाहिए, या फिर तालिबान, इस्लामी स्टेट की तरह पक्का मुसलमान बनना चाहिए। अभी वे दोहरा जीवन जी रहे हैं। विश्वास में वे मुसलमान है, परन्तु रुचि में मानवतावादी हैं (इसी को तबलीगी, देवबंदी, वहाबी, आदि जमातें ‘काफिर’ प्रभाव कहकर उन्हें पक्का मुसलमान बनाने में लगी रही हैं)। हैरिस के अनुसार यदि कोई अल्लाह है, तो वह इस से तो खुश नहीं होगा कि आप उस की कुछ बात मानें और बाकी बातें छोड़ दें। इसलिए मुसलमानों को अंततः विवेक और इस्लाम के बीच चुनाव करना होगा। 

इस्लाम में स्वतंत्र चिंतन की मांग

हैरिस सुलतान की पुस्तक ‘द कर्स ऑफ गॉड:  ह्वाय आई लेफ्ट इस्लाम’  में वैज्ञानिक तर्कों से इस्लामी विचारों और परंपराओं की समालोचना है। उन की पड़ताल के बिन्दु हैं – 1. क्या अल्लाह के होने का कोई सबूत है?  2. क्या इस्लाम में बताई गई नैतिकता अच्छी है?  3. क्या इस्लाम में दी गई जानकारियाँ सही हैं ?

उन्होंने पाया कि अल्लाह की तमाम बातों से तो बच्चे जैसी वह मानसिकता मालूम होती है, जो मामूली बात पर भी रूठने, चिल्लाने, धमकी देने लगता हो: ‘मेरी पूजा करो, वरना मार डालूँगा’! उस में अपना अस्तित्व दिखा सकने की भी क्षमता या बुद्धि नहीं है। अल्लाह छिपा हुआ है, मगर शिकायत करता है कि हम उसे नहीं मानते। फिर इस गॉड, यहोवा या अल्लाह ने अपने संदेशवाहक (प्रॉफेट) को एक नामालूम से अरब क्षेत्र में ही क्यों भेजे? बड़े-बड़े इलाकों अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, चीन, आदि में रहने वाले करोड़ों लोगों को संदेश देना क्यों नहीं सूझा? इन महाद्वीपों ने तो सदियों तक मुहम्मद का नाम भी नहीं सुना। तब उन करोडों निर्दोष लोगों को अल्लाह ने अपने संदेश से वंचित, और इस प्रकार, इस्लाम न मानने से जहन्नुम का भागी क्यों बनाया? अतः या तो इस्लाम न मानने में कोई बुराई नहीं, न कोई जहन्नुम है, या फिर अल्लाह को ही दुनिया का पता नहीं है!

फिर, कुरान स्पष्ट नहीं है। सुन्नी और शिया अपना-अपना मतलब निकालते हैं। दोनों सही नहीं हो सकते। यह शुरू से चल रहा है। यानी कुरान आसानी से गलत समझी जा सकती है। यह कोई बढ़िया किताब होने का सबूत नहीं। इसे कमजोर तरीके से लिखा गया, या इस की बातें ही कमजोर हैं। तथ्यगत जानकारियों की दृष्टि से भी कुरान में कोई ऐसा ज्ञान नहीं जिससे वैज्ञानिक, चिंतक, आविष्कारक जैसे लोग बन सकें। एक ओर दावा है कि उस में सारी साइंटिफिक बातें हैं, दूसरी ओर सदियों से दुनिया में कभी कोई मुस्लिम साइंटिस्ट नहीं बना। जो इक्के-दुक्के हुए भी, वे काफिर देशों में, काफिरों की संस्थाओं में पढ़कर, काफिर साइंटिस्टों की सोहबत में ही हुए। यह दिखाता है कि इस्लामी किताबें दुनिया के बारे में भी सही जानकारियों से खाली हैं।

यह तथ्य उस दावे को भी काटता है कि सारी दुनिया, धन-संपत्ति, बढ़िया चीजें, अल्लाह ने मुसलमानों के लिए बनाई हैं। वास्तव में यह सब काफिरों को ही सदिय़ों से, इस्लाम से पहले से और आज भी हासिल हैं। अल्लाह के अनुसार चलते हुए मुसलमानों ने अपने बूते कभी कुछ नहीं बनाया, न आज बना पाते हैं। जबकि बिना अल्लाह की परवाह किए, स्वतंत्र चिंतन और वैज्ञानिक शोध से हर तरह के काफिरों ने सैकड़ों आविष्कार किए, नई तकनीकें और बेहतरीन चीजें बनाईं। इस्लाम से पहले भी और आज भी। काफिर सारी दुनिया में हर क्षेत्र में उपलब्धियाँ हासिल करते रहे हैं। मुसलमान ऐसा क्यों नहीं कर सके?

उलटे ठीक अरब, जहाँ अल्लाह के संदेश और संदेशवाहक मुहम्मद आए, जहाँ अरब को शत-प्रतिशत इस्लामी बनाकर वहाँ से यहूदियों, क्रिश्चियनों और पगानों (अनेक देवी-देवताओं को मानने वाले) को मार भगाया या खत्म किया गया – वही अरब सब से पिछड़े और कमजोर बने रहे! वह भी सदियों से लगातार। इस का संबंध इस्लामी विचार-व्यवहार से है, वरना दक्षिण कोरिया एक मामूली पिछड़े गाँव जैसी चीज से पचास वर्ष में विश्व का एक तकनीकी सुपरपावर बन गया! अब मुसलमान भी इसे समझने लगे हैं कि इस्लाम वैज्ञानिक, तकनीकी, आर्थिक, और सांस्कृतिक पिछड़ेपन का एक कारक है।

सो, कई कारणों से मुसलमानों में मुलहिद बढ़ रही है। एक आकलन से पाकिस्तान में 40 लाख, तुर्की में 48 लाख, मलेशिया में 18 लाख, और सऊदी अरब में 16 लाख लोग नास्तिक हैं। वे स्वतंत्र चिंतन की आजादी की माँग कर रहे हैं। यह सरासर अनुचित है कि कोई इस्लाम न माने, तो उसे मार डालें। यह इस्लाम की कुंठा, टैबू भी दिखाता है। वह सवालों को प्रतिबंधित रखना चाहता है। खुला विचार-विमर्श ही इस अटपटेपन का इलाज है।

हैरिस एक महत्वपूर्ण तथ्य पर ध्यान दिलाते हैं। कई बर्बर प्रथाओं का मजाक उड़ाते रहने से ही अंततः उसे छोड़ा गया। सऊदी अरब में स्त्रियों को जो अधिकार मिल रहे हैं, वह दुनिया हँसी उड़ने से ही संभव हुआ कि स्त्री कार क्यों नहीं चला सकती? दफ्तरों में काम क्यों नहीं कर सकती? अकेले बाजार क्यों नहीं जा सकती? इसलिए व्यर्थ इस्लामी विचारों की आलोचना करना, उन का मजाक बनाना अच्छा है। इस से मुस्लिम शासकों पर मानवीयता का दबाव पड़ता है। इस्लाम के ‘सम्मान’ के नाम पर चुप्पी, या आलोचकों को दंडित करना, मुसलमानों की हानि ही करना है जो अनुचित बंधनों में जकड़े रखे गए हैं।  अपनी पुस्तक के औचित्य में हैरिस पूछते हैं कि मुसलमानों को क्या अधिकार है कि वे तो दूसरों को उपदेश देंगे, पर दूसरे उन्हें उपदेश नहीं दे सकते? यदि मुसलमान समझते हैं कि वे सही हैं, और दूसरे गलत, तो इस की जाँच-पड़ताल चलनी चाहिए। तब हो सकता है कि उलटा ही निष्कर्ष मिले।

हैरिस की पुस्तक का बड़ा हिस्सा कुरान में तथ्य जैसी बातों का वैज्ञानिक विश्लेषण है। अन्य हिस्से में सामाजिक, बौद्धिक दावों और इतिहास की समीक्षा है। जैसे, इस्लामी विद्वानों का यह कहना गलत है कि इस्लामी विचार बदले नहीं जा सकते क्योंकि वे ‘अल्लाह के शब्द’ हैं। लेकिन वही विद्वान इस्लामी किताबों में दी गई गुलामी, सेक्स-गुलामी, पत्नी को मारने-पीटने वाले निर्देश, आदि की आज भिन्न व्याख्या करने की कोशिश करते हैं। यह 150 साल पहले नहीं होता था। उन बातों को जस का तस रखा, बताया, समझाया जाता था। लेकिन अब उस से इंकार करते हुए घुमावदार बातें होती हैं। यहाँ तक कहा जाता जाता है कि प्रोफेट मुहम्मद ने ही गुलामी खत्म की! यह न केवल गलत है, बल्कि सौ साल पहले तक किसी इस्लामी व्य़ाख्या में नहीं कहा जाता था। यह एक उदाहरण भर है।

वस्तुतः कुरान और सुन्ना के अनेक कायदे कई मुस्लिम देशों में छोड़े जा चुके। पाकिस्तान या तुर्की के जीवन में संगीत और कला की आम स्वीकृति इस्लाम-विरुद्ध है। पर बदस्तूर चल रही है। यह साबित करता है कि इस्लामी विचार बदले जा रहे हैं, चाहे वे अल्लाह के निर्देश हों या न हों। इस्लाम में एक मात्र ईनाम या उपलब्धि है – मरने पर जन्नत जाना। अल्लाह या प्रोफेट ने यही कहा है। इस के अलावा इस दुनिया में काफिरों को हराकर उन का माल, और उन की स्त्रियों, बच्चों को गुलाम बना कर बेचने से मिला गनीमा। बस। लेकिन उस जन्नत के अस्तित्व का, या वह केवल मुसलमानों के लिए रिजर्व होने का सबूत क्या है? शून्य। तब इस्लाम के लिए सारी लड़ाई, छल-प्रपंच, आदि करते रहना कौन सी बुद्धिमानी है!

हैरिस मुसलमानों को कहते हैं कि उस काल्पनिक जन्नत के लिए इस्लाम द्वारा हराम ठहराई गई सभी चीजों: संगीत, कला, किसी से दोस्ती चाहे वह कोई भी धर्म माने या नास्तिक हो, मिल-जुल कर रहने, आदि से वंचित रहना बेतुकी बात है! अपने पिता और भाई को भी ठुकराएं, यदि वह इस्लाम न मानें (कुरान, 9-23)। इस तरह, आप दुनिया की आधी आबादी को सताने की ठाने रहें, ताकि आप को जन्नत मिले, बड़ी बेढ़ब सीख है। महान लेखक अनातोले फ्रांस को उद्धृत करते हैरिस कहते हैं, ‘‘यदि 5 करोड़ लोग भी कोई मूर्खतापूर्ण बात कह रहे हों, तब भी वह बात मूर्खतापूर्ण ही रहेगी।’’

प्रोफेट मुहम्मद की जीवनी अनुकरणीय नहीं

इस्लामी सीखों में बेढ़ब बातें अपवाद नहीं हैं। उन्हें सारी मानवजाति और ‘सदा के लिए’ एक मात्र ‘अनुकरणीय’ बताया जाता है! स्त्रियों के प्रति व्यवहार लें। कुरान के अनुसार स्त्रियों पुरुषों की मनमानी भोग्या, सेविका भर हैं, क्योंकि पुरुष ‘उन का खर्चा उठाता’ है। इसलिए लगे कि स्त्री सही व्यवहार नहीं कर रही, तो पुरुष उसे पीट सकता है (कुरान, 4-34)। हदीसों में मुहम्मद ने कहा है कि स्त्री को पीटने के लिए पुरुष से कारण नहीं पूछा जा सकता। फिर, स्त्रियों को बुर्का पहनना इसलिए जरूरी है, कि ‘उन्हें पहचान कर सताया न जाएगा।’ (कुरान, 33-59)। मानो बाकी को सताना ठीक हो!

स्त्री-संबंधी इस्लामी निर्देश बड़े हीन और वस्तुवाचक हैं। वह पुरुष के जूते, फर्नीचर, जैसी है जिसे इच्छानुसार रखा जा सकता है। जहाँ पसंद आ जाए उसे लाया, फेंका, बाँटा, भोगा जा सकता हैं। यह अल्लाह का कहना है! (कुरान 33-37, 4-24)। अपनी बीवी को इसलिए भी तलाक दे सकते हैं क्योंकि बाप को पसंद आ गई। ताकि बाप उससे शादी कर सके। बीवियों के साथ-साथ गुलामों, कब्जा की गई दूसरों की स्त्रियों को भी भोगने की मंजूरी है। यह सब ‘सदा के लिए अल्लाह के नियम’ कहना आज इस्लामी विद्वानों को भी संकोच में डलाता है। इसलिए वे इन की गोल-मोल व्याख्या करते हैं।

यह सब कायदे प्रोफेट मुहम्मद के अनुकरण पर आधारित हैं। कुरान में अधिकांश प्रसंग मुहम्मद के जीवन से जुड़े हैं। उन की जीवनी जानने वाले उसे अधिक समझ सकते हैं। पहली बीवी खदीजा के देहांत के बाद मुहम्मद ने जीवन के अगले 13 वर्षों में 23 स्त्रियों के साथ शादी की या भोग किया। सभी का सिलसिलेवार वर्णन हैरिस ने अपनी पुस्तक ‘द कर्स ऑफ गॉड:  ह्वाय आई लेफ्ट इस्लाम’  में किया है (पृ. 86-101)। कुछ संबंध ऐसे भी थे, जिन्हें सही ठहराने हेतु मुहम्मद को इलहाम हुआ, यानी अल्लाह ने आयत भेजी। ऐसी ही एक आयत (कुरान, 33-51) पर मुहम्मद की सब से पसंदीदा बीवी आएशा ने मानो तंज करते कहा कि ‘‘लगता है अल्लाह आपकी इच्छाओं, कामनाओं को पूरा करने के लिए अधीर रहता है।’’ (सहीह बुखारी, 6-60-311)। मुसलमानों में गोद न लेने की परंपरा भी मुहम्मद के एक प्रसंग से जुड़ी है। नतीजन मुस्लिम विश्व में लाखों बच्चे सदैव यतीम के यतीम बने रहते हैं। उन्हें कोई गोद नहीं ले सकता, क्योंकि इस्लाम में इस की मनाही है!

इस प्रकार, स्त्रियों, बच्चों, और परिवार का इस्लाम में बहुत नीचा स्थान है। इस के लिए दी गई दलीलें मुहम्मद के समय भी सबको ठीक नहीं लगती थी। गुलाम स्त्रियों, और कब्जा की गई काफिरों की स्त्रियों से किसी मुसलमान का संभोग करना जायज कहा गया। इस की मंजूरी हदीस में है, पर उस से पैदा होने वाले अवैध बच्चे पर कुछ नहीं मिलता, कि उन का क्या होना है? स्पष्टतः उन बलात्कारों से उत्पन्न अनिच्छित, बेपहचान बच्चों की कोई फिक्र अल्लाह या प्रोफेट को नहीं थी। स्त्रियों, बच्चों के प्रति ऐसा दृष्टिकोण कैसा धर्म है – यह पूछना क्या मनुष्य का अधिकार नहीं?

दूसरी ओर, कुरान की उस दलील को परख सकते हैं कि स्त्रियाँ न केवल आत्मनिर्भर हैं, बल्कि वे हजारों पुरुषों को नौकरी दे सकती हैं। अतः कुरान की बातें ‘सदा के लिए’ सही नहीं हैं। (इस्लाम से पहले भी स्वतंत्र कारोबार चलाने वाली स्त्रियाँ अरब में थीं। खुद मुहम्मद ऐसी ही एक स्त्री खदीजा के कर्मचारी थे, जिस ने बाद में उन से विवाह कर लिया। खदीजा का प्रभाव ही था कि प्रोफेट बन जाने के बाद भी खदीजा के जीवित रहते अगले 25 वर्षों तक मुहम्मद दूसरी बीवी नहीं लाए। जबकि उन के गुजरते ही कुछ ही वर्षों में अनेकानेक बीवियाँ आ गईं।)

इसी तरह, बुर्के का तर्क भी विचित्र है। किसी लोभी की नजर न पड़े, इसलिए मुसलमान स्त्रियाँ बुर्का पहनें कुछ ऐसा ही है मानो अपनी कार हमेशा ढँके रखें ताकि चोर न देखे। या धन नहीं कमाएं, ताकि लुटेरे छीन न लें। पर ऐसी ही विचित्र, और डराने वाली दलीलें ही इस्लाम में भरी हैं। अनेक निर्देशों के साथ केवल डर और धमकी का तर्क है।

गैर-मुसलमानों यानी काफिरों के लिए इस्लामी सिद्धांत-व्यवहार सबसे क्रूर हैं। उन के ‘गले में रस्सी’ व ‘जंजीर’ बाँधने, ‘खौलते पानी और आग में डालने’ की बातें हैं। (कुरान, 40-70, 71, 72)। सिर्फ इसलिए कि वे अन्य धर्म मानते हैं। यह ‘सदा के लिए अल्लाह का नियम’ तो दूर, उस समय भी अनुचित था, जब इसे अरबों पर लादा गया। असंख्य आयतें काफिरों पर हिंसा से भरी हुई हैं (कुरान, 22-19,20, 22)। हैरिस के अनुसार, ‘जहन्नुम की आग’ वाली धमकी और वर्णन लगभग 500 आयतों में हैं। लगभग 36 आयतों में काफिरों से लड़कर उन्हें मुसलमान बनाने के आवाहन हैं। (पृ. 74)

यह सब किसी सर्वशक्तिमान अल्लाह के नाम पर बैसिर-पैर की बातें लगती हैं। उपमा देते हुए हैरिस लिखते हैं कि यह ऐसा ही है कि कोई आदमी जाकर चींटियों की बाँबी में इसलिए आग लगा दे क्योंकि उस के पहुँचने पर चींटियों ने बाहर निकल कर उस की जयकार नहीं की। इस्लामी निर्देशों को अनुपयुक्त ठहराने वाले हैरिस के तर्क विश्वासी मुसलमानों के लिए भी विचारणीय हैं। (पृ. 79-81)।

प्रोफेट मुहम्मद को मानवता के लिए सर्वश्रेष्ठ अनुकरणीय व्यक्ति मानने को हैरिस ने अज्ञान से जोड़ा है। पाकिस्तान (भारत भी) में मुस्लिम बच्चों को मुहम्मद की उदारता के बारे में झूठी कहानियाँ सुनाई जाती हैं। जब हैरिस ने उन कहानियों की खोज की तो उलटा पाया, जिसे जानकर उन्हें बड़ा धक्का लगा। (पृ. 82-85)। दयालुता के बदले भयंकर क्रूरता, जिस में दूध-पीते बच्चे की माँ असमा बिन्त मरवान को सोते हुए में मार डालना भी था। बेचारी का कसूर सिर्फ यह था कि उस ने मुहम्मद की आलोचना में एक कविता लिखी थी! ऐसे सभी कवि, आलोचक चुन-चुन कर मुहम्मद के हुक्म से मार डाले गए। तब मृतकों के परिवार वाले मुसलमान बन गए। यह शुरु से ही आतंक द्वारा इस्लाम फैलाने का सबूत है।

ऐसे कई विवरण देकर हैरिस कहते हैं कि अनेक आधुनिक मुसलमान अज्ञान के कारण इस्लाम को ‘शान्ति का मजहब’ कहते हैं। वे इतिहास नहीं जानते। हैरिस ने अपने परिवार के लोगों, दोस्तों, आदि ने असमा बिन्त मरवान जैसे लोगों का नाम लेकर पूछा कि क्या वे उन के बारे में जानते हैं? सब ने इंकार किया। लेकिन मुहम्मद की दयालुता वाली वह झूठी कहानी सब जानते थे! हैरिस के अनुसार, ‘‘मुसलमानों को नियोजित रूप से झूठी बातें सिखाई जाती हैं। जब तक वे सचाई जानने में समर्थ होते हैं तब तक उन की दिलचस्पी खत्म हो चुकती है।’’(पृ. 86)

प्रोफेट मुहम्मद की जीवनी पढ़कर सामान्य मुसलमान को भी कहने में दो बार सोचना पड़ेगा कि वे पूरी मानवता के, सदैव अनुकरणीय, त्रुटिहीन मॉडल थे। आज के पैमाने से तो उन्हें अच्छा कहना भी मुश्किल है। सैन्य जीत, राज्य विस्तार, नरसंहार, बाद में भी मुहम्मदी अनुयाइयों द्वारा काफिरों पर हमले कर-करके बड़ी संख्या में उन की सभ्यता, संस्कृति, चर्च, मंदिर, पुस्तकालय, विश्वविद्यालय, आदि का नाश करके उन्हें मार डालना या जबरन मुसलमान बनाना, आदि सदियों के इतिहास में कुछ भी अनुकरणीय नहीं है। वैसी सीखें ठुकराने का हक मुसलमानों को होना चाहिए। यही हैरिस की माँग है।

कुरान और हैरिस के कई प्रश्न

हैरिस की रुचि वैज्ञानिक विश्लेषण में है। इसीलिए ‘द कर्स ऑफ गॉड:  ह्वाय आई लेफ्ट इस्लाम’  में इस पर केंद्रित अध्याय काफी मौलिक है। मुसलमानों को बताया गया है कि कुरान दुनिया की सर्वश्रेष्ठ किताब है, जिस में अल्लाह के शब्द हैं। इसलिए उस में न कोई गलती है, न उस में कुछ बदला या छोड़ा जा सकता है। इस दावे के मद्देनजर यदि कुरान में एक भी आयत में गलती या छोड़ने लायक चीज मिले – तो पूरा दावा गलत साबित होगा। इस परीक्षण में हैरिस कई प्रश्न उठाते हैं।

एक, दुनिया में अनेक अनूठी पुस्तकें कुरान से पहले और बाद भी लिखी गई। उन पुस्तकों में गुलामी, भिन्न विचार वालों को मारना, स्त्रियों पर जबरदस्ती, मनमानी हिंसा, अपशब्द, डरना-डराना, आदि कुछ नहीं है। इस के बदले ऐसी सुंदर दार्शनिक बातें हैं जो हजारों वर्ष बाद भी आज ऊँची समझ और आनन्द देती है। वह तनिक भी पुरानी नहीं लगती और उस में कुछ भी छोड़ने लायक नहीं मिलता। वे बातें बिल्कुल साफ हैं जिन्हें समझने में किसी पुनर्व्याख्या की जरूरत नहीं पड़ती। तो कौन सी पुस्तक श्रेष्ठ है?

दूसरे, यदि अल्लाह सर्वशक्तिमान है तो उस ने अपना संदेश देने के लिए एक छोटा, नामालूम सा अरब क्षेत्र और मनुष्य के माध्यम से मौखिक बोल-बोल कर व्यक्तियों को संदेश दिलवाने की पद्धति क्यों चुनी? आज कोई वीडियो बनाता है, जो एक दिन में दुनिया भर में लाखों लोगों तक पहुँच सकता है। सो पहले तो अल्लाह ने अमेरिका, चीन, भारत, जैसे विशाल समाजों को छोड़ कर एक अत्यंत छोटे से अरब समूह को क्यों चुना। फिर, क्या उस के पास कोई तकनीक नहीं थी जो आज मामूली इंसानों के पास है, कि एक ही बार में संदेश सारी दुनिया में और सीधे पहुँच जाए? यदि अल्लाह भी मनुष्य की तकनीकी सीमा से बाधित और निर्भर है, तो वह सर्वशक्तिमान नहीं है।

तीसरे, जिहाद वाली आयतों पर दोहरे-तिहरे अर्थ क्यों निकाले जाते हैं?  जैसे, ‘‘अल्लाह की राह में युद्ध करो, और जान लो कि अल्लाह सुनने वाला और जानने वाला है।’’ (कुरान, 2-244)। इस्लामी स्टेट वाले मौलाना इस का अर्थ काफिरों पर चढ़ाई करना, और कोई अन्य मौलाना अपनी रक्षा करना बताते हैं। अपनी-अपनी पसंद, या समय स्थान देख कर इस का अर्थ बदला जाता है। क्या अल्लाह टॉल्सटॉय या आइंस्टीन की तरह ऐसे वाक्य नहीं बोल सकता जिस के अर्थ पर कोई शक-शुबहा न हो?

चौथे, पृथ्वी और ग्रहों के निर्माण, सूरज के डूबने की जगह, धरती का आकार, मनुष्य के जन्म की प्रक्रिया, आदि संबंधी तथ्यगत गड़बड़ियाँ भी मिलती हैं। इस पर मौलाना और विश्वासी मुसलमान आज की दृष्टि से उस की सफाई देते हैं। यह तो अल्लाह के बदले, मनुष्य का विचार उस में डालने जैसा है।

पाँचवें, जिन आयतों को बाद में ‘शैतानी’ कह कर मुहम्मद ने खारिज किया था  (कुरान, 53-20,21 के बीच में वे आयतें थीं), वह मुहम्मद से गलती होने का खुला सबूत है। एक गलती प्रमाण है कि उस के अलावा भी गलतियाँ रही हो सकती हैं। फिर, बाद में मंसूख, निरस्त की गईं आयतें, एक ही विषय पर ‘उस से अच्छी’ आयतें, और अल्लाह की टिप्पणी (कुरान, 2-106), आदि खुद मानती हैं कि पहले वाली आयतें उतनी अच्छी नहीं थीं। तभी तो बाद वाली आयतों के ‘और अच्छे’ होने की दलील दी गई। जानकारों के अनुसार, कुरान में कुल 564 आयतें मंसूख की गई बताई जाती हैं (पृ. 170)। अतः अल्लाह का संदेश भेजना और / अथवा मुहम्मद का सुनना, कहना त्रुटिहीन नहीं था। तब कुरान और मुहम्मद को त्रुटिहीन कैसे कहा जा सकता है?

इन सब के मददेनजर भी अल्लाह के होने, और उस की सर्वशक्तिमानता पर संदेह होता है। हैरिस के हिसाब से अल्लाह सीधे मनुष्यों से संवाद नहीं कर सकता, सो अपना प्रोफेट भेजता है। वह प्रोफेट सदैव जिन्दा नहीं रहेगा, सो वह एक किताब छोड़ जाता है। वह किताब बार-बार विकृत या उस की नई-नई व्याख्या होती है। अतः अल्लाह के संदेश के कई अर्थ बन जाते हैं। विविध ईमाम, मौलाना अपनी-अपनी व्याख्या को ‘अल्लाह का असली संदेश’ कहते हैं। यह देखते हुए तो आज मनुष्यों ने बेहतर काम कर दिखाया जिन के बनाए सॉफ्टवेयर हू-ब-हू संदेश रिकॉर्ड करते हैं जो शायद ही विकृत होते हैं।

फिर, प्रोफेट मुहम्मद के क्रिया-कलापों के भंडार में अनेक बातों की लीपा-पोती की जाती है। इतिहास में किसी मनुष्य के बारे में इतनी जानकारियाँ उपलब्ध नहीं हैं, जितनी मुहम्मद के बारे में। वे कैसे सोते थे, किस पैर में जूता पहले डालते थे, कैसे इत्र लगाते थे, किस चीज पर क्या राय रखते थे, आदि आदि। मुहम्मद के कार्यों में बहुतेरी ऐसी हैं जिन्हें उस समय भी सब ने उचित नहीं माना था। आज भी उन बातों को नजरअंदाज करने या औचित्य दिखाने के लिए तरह-तरह की बौद्धिक कलाबाजी होती है। जैसे, किसी के साथ समझौता मनमर्जी तोड़ देना; अपनी राह जा रहे काफिले को लूट लेना;  निःशस्त्र असहाय लोगों का सामूहिक कत्ल करना; किसी को क्रूर यातना देकर मारना; धोखे से किसी को खत्म करवाना; हराए गए लोगों की बीवियों के साथ उन के सामने ही बलात्कार को नजरअंदाज करना; ऐसे बलात्कारों से उत्पन्न अवैध सन्तानों के भवितव्य पर कुछ न कहना; काबा के शान्ति-क्षेत्र होने के पुराने पारंपरिक नियम का उल्लंघन करना; स्त्रियों पर पुरुषों के मनमाने वर्चस्व का कायदा बनाना; आदि। ये सब प्रोफेट मुहम्मद की जीवनी और सब से प्रमाणिक हदीसों में दर्ज हैं। कई बातें अनेक बार दुहराई मिलती हैं। इन में कितनी बातों से मानवता के लिए सदा-सर्वदा अनुकरणीय सर्वश्रेष्ठ पुरुष की छवि पुष्ट होती है?

पुस्तक का एक अत्यंत प्रासंगिक अध्याय ‘इस्लामोफोबिया’ पर है (पृ. 184-94)। यह शब्द आज पूरे लोकतांत्रिक विश्व में मंत्र-सा रटा जाता है, लेकिन पूर्णतः गलत है। ‘फोबिया’ ऐसे भय को कहते हैं जो किसी भ्रम से होता हो। जैसे, किसी को पानी से या अंधेरे से डर लगे। लेकिन इस्लाम से भय तो वास्तविक है! दुनिया के कोने-कोने में जिहादी कुरान का नाम ले-लेकर धोखे से हमला कर सैकड़ों, हजारों की जान लेते रहते हैं। किसी जाँच में अपवाद नहीं मिला कि इस्लामी विश्वास और कुरान केवल बहाना था, असली मकसद कुछ और था। बड़े-बड़े जिहादी नेताओं ने खुद चिट्ठी या दस्तावेज प्रकाशित करके केवल इस्लामी विश्वासों की बात की है। फिर, असंख्य इस्लामी संस्थाएं, संगठन दुनिया से काफिरों को मिटा कर खालिस इस्लामी राज बनाने की घोषणा करते हैं। यही शिक्षा अपने हजारों मदरसों में देते हैं। तालिबान और इस्लामी स्टेट ने आज भी पुरानी सांस्कृतिक धरोहरों को वैसे ही नष्ट किया, जैसे सदियों पहले गजनवियों, खिलजियों, मुगलों ने किया था। स्त्रियाँ उसी तरह वस्तु की तरह उठाई, रौंदी जातीं हैं, जो इस्लामी इतिहास में शुरू से मिलता है।

तब इस्लाम से भय को ‘फोबिया’ कैसे कहा जा सकता है? यह तो मानवता के लिए सचमुच डर का विषय है। कई मुस्लिम देशों में भी मुस्लिम ब्रदरहुड, अल कायदा, तबलीगी जमात, जैसे इस्लामी संगठन प्रतिबंधित हैं। किसी भी स्त्री को इस्लाम से डर लगेगा! मारने-पीटने के निर्देश और स्त्रियों के प्रति व्यवहार के विवरण मूल इस्लामी किताबों में हैं। उसे इस्लामी शासक या मौलाना आज भी लागू करते हैं। अतः किसी स्त्री को इस्लाम से डर न लगना ही अस्वभाविक बात होगी। बशर्ते, वह इस्लामी सिद्धांत और इतिहास जानती हो। इसी प्रकार, इस्लाम छोड़ने वाले मुलहिदों, और मुनाफिकों को भी डर लगेगा। क्योंकि इस्लाम उन्हें मार डालने का हुक्म देता है। काफिरों को तो डरना ही है क्योंकि इस्लाम का उद्देश्य ही उन्हें खत्म करना है। इसलिए, ‘इस्लामोफोबिया’ एक गलत दलील है, जिस की आड़ में इस्लाम पर विचार-विमर्श को बाधित किया जाता है।

असलियत के लिए मूल इस्लामी किताबे पढ़े

'इस्लामोफोबिया’ एक झूठा शब्द है, जिसे अनजान लोगों को बरगलाने के लिए गढ़ा गया। अनजान लोगों में असंख्य भले मुसलमान भी हैं जिन्हें झूठी बातों से गैर-मुसलमानों के विरुद्ध भड़काया जाता है। भारत-पाकिस्तान इस के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं, जहाँ पिछले सौ साल से हिन्दुओं का भयावह संहार होता रहा है। पिछले 75 सालों में लगभग आधा भारतवर्ष हिन्दुओं से खाली कराया जा चुका। बचे भारत में भी निरंतर जिहाद चल रहा है। फिर भी, दोनों देशों में मुसलमानों को विविध प्रकार की झूठी बातों से हिन्दुओं के विरुद्ध शिकायतों से भरा जाता है। इस में सबसे बड़ा कारण वह अज्ञान है, जिस में आम मुसलमान डूबे हुए हैं।

इस का एक उदाहरण हैरिस की पुस्तक ‘द कर्स ऑफ गॉड:  ह्वाय आई लेफ्ट इस्लाम’ में है। (पृ. 187-88)। कुछ पहले प्यू रिसर्च सेंटर ने पाकिस्तानियों के सर्वे में पाया कि 84%  मुसलमान शरीयत के पक्ष में हैं। लेकिन जो पार्टियाँ शरीयत सचमुच लागू करना चाहती हैं, उन्हें 5 या 7 % से अधिक वोट नहीं मिलते। क्योंकि आम मुसलमानों ने शरीयत का अपना खयाली अर्थ बनाया हुआ है। जब पक्की इस्लामी पार्टियाँ उन्हें शरीयत बताती हैं, तो उन्हें ‘कट्टरपंथी’ कहकर अधिकांश पाकिस्तानी दूर रहते हैं। सर्वे में मात्र 9 %  पाकिस्तानी लोग इस्लामी स्टेट के समर्थक मिले, जो सचमुच इस्लाम को हू-ब-हू लागू कर रहा था। वह भी उसे अपने शब्दों में ‘प्रोफेट मेथडोलॉजी’ से। यानी जैसा प्रोफेट मुहम्मद ने किया था। लेकिन 28 %  पाकिस्तानी इस्लामी स्टेट के विरुद्ध थे, और 62 %  पाकिस्तानी इस से अनभिज्ञ थे कि इस्लामी स्टेट सचमुच इस्लामी है या नहीं। इसी प्रकार, 72 % पाकिस्तानी तालिबान के विरोधी मिले। जबकि तालिबान प्रोफेट मुहम्मद के पक्के इस्लाम की तुलना में नरम ही है। यही स्थिति इंडोनेशिया में मिली जहाँ 72 %  लोग शरीयत के पक्षधऱ हैं, मगर केवल 4 % ने इस्लामी स्टेट का समर्थन किया था।

यह विडंबना समझने की है। यदि आप इस्लाम के पक्के समर्थक हैं तो आपको इस्लामी स्टेट जैसी सरकार ही चुननी होगी। लेकिन आम मुसलमान, विशेषकर गैर-अरब देशों के मुसलमान पूरी तरह इस्लाम को नहीं जानते। मौलाना वर्ग उन्हें कटा-छँटा इस्लामी सिद्धांत, और झूठा इतिहास वर्तमान बताकर अपने बस में रखता है। झूठी बातों से उन में शिकायत, नाराजगी और लड़ाकूपन बनाए रखता है। यह सब इस्लामी राजनीति बढ़ाने की रेडीमेड पूँजी-सी इस्तेमाल होती है।

दूसरी ओर, इस्लाम से पूर्णतः अनजान गैर-मुस्लिम लोग उन शिकायतों, नाराजगी के दबाव और सहानुभूतिवश उन्हें सुविधाएं देते जाते हैं। इस तरह, अंततः अपने ही खात्मे का इंतजाम करते हैं। यह उन सभी लोकतांत्रिक देशों में देखा गया है, जहाँ मुस्लिम जनसंख्या एक खास सीमा पार कर गई। वहाँ राष्ट्रीय कानूनों को धता बताकर शरीयत लागू की जाती है। हिंसा, शिकायत और छल की तीन तकनीक से निरंतर इस्लामी दबदबा बढ़ाया जाता है। पश्चिमी देशों में कानून तोड़ने और हर तरह के अपराधों में मुसलमानों का अनुपात बेतरह ऊँचा है। विशेषकर घृणित अपराधों में। इस की प्रतिक्रिया स्वरूप लोगों में ‘मुस्लिमफोबिया’ बना है, जो अधिक सही शब्द है।

‘इस्लामोफोबिया’ के बदले ‘मुस्लिमफोबिया’ इसलिए सही शब्द है, क्योंकि सभी मुसलमान जिहादी या संपूर्ण शरीयत के समर्थक नहीं हैं। हैरिस ने चार प्रकार के मुसलमान पाए हैं: जिहादी, इस्लामी, बेपरवाह, और सेक्यूलर। इन में सबसे बड़ी संख्या बेपरवाहों की है, जो इस्लाम के समर्थक हैं मगर इस की बुरी बातों से लगभग अनजान हैं। सेक्यूलर मुसलमान बहुत कम हैं जो इस्लाम की सचाई जानते हैं और उसे पसंद नहीं करते।

इसलिए, हैरिस का सुझाव है कि बेपरवाह मुसलमानों को इस्लामी की सचाई पूरी तरह जाननी चाहिए, और पक्के इस्लामियों से बहस करनी चाहिए। तभी दुनिया में मिल-जुल कर रहने का माहौल बन सकेगा। ऐसे बहस-विमर्श की एक रूप-रेखा भी उन्होंने दी है (पृ. 195-207)। इस्लामियों की दलीलें लोगों के अज्ञान का फायदा उठाते हुए दी जाती हैं। ताकि संदेहों को किसी तरह खत्म कर उन्हें इस्लामियों का मुखर/मौन समर्थक बनाए रखें। उन से निपटने का उपाय यह है कि मूल इस्लामी किताबों को खुद पढ़ें। वे ज्यादा नहीं हैं। एक हाथ में सारी आ जाएंगी। उन की परख अपने विवेक और वास्तविक घटनाओं से करें। मुल्लों और मुस्लिम नेताओं पर निर्भर न रहें।

वैज्ञानिक विकास के युग में सही सिद्धांत वही है जिसे कसौटी पर कस सकें। ताकि यदि कुछ गलत हो तो दिख जाए। बिना कसौटी के महज ‘फेथ’ वाली बातों पर सच का सर्टिफिकेट नहीं लग सकता। इस्लाम के धार्मिक रिवाजों, जैसे नमाज, रोजा, हज, आदि पर किसी कसौटी की जरूरत नहीं। लेकिन राजनीतिक इस्लाम – यानी काफिरों या स्त्रियों के प्रति व्यवहार, जिहाद, शरीयत, कानून, भौतिक तथ्य और इतिहास – इन सब को कसौटी पर परखना होगा। क्योंकि इस्लाम का दावा उन के ‘स्थाई सच’ होने का है।

लेकिन सच (ट्रुथ) और विश्वास (फेथ) दो अलग-अलग चीजें हैं। धर्म के मामले में फेथ चल सकता है, मगर राजनीति में नहीं। इस के घाल-मेल से ही खुद इस्लामी समाजों में सदैव हिंसा रही है। प्रोफेट मुहम्मद के समय से ही। इसी नाम पर मुसलमान दूसरे मुसलमान को मारते हैं। अधिकांश खलीफा, ईमाम और मुहम्मद के वंश के लोगों की हत्याएं हुईं, जो मुसलमानों ने ही की। वही आज भी पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सीरिया, यमन, तुर्की, नाइजारिया, आदि अनेकानेक मुस्लिम देशों में हो रहा है। क्योंकि राजनीति और धर्म, दोनों में इस्लामी एकाधिकार का दावा है। जबकि इस्लामी राजनीति शुरू से ही छल-प्रपंच-हिंसा से बनी है। उस में कोई सच नहीं है। केवल मनमानी है।

इसलिए, यह दोष इस्लामी मतवाद में है, जिसे ‘कर्स ऑफ गॉड’  या ‘अल्लाह का अभिशाप’ नाम देना गलत नहीं। पिछली 14 सदियों की इस्लामी हिंसा गलत प्रस्थापनाओं पर आधारित है। उस से मुसलमानों को मुक्त होना होगा। चूँकि इस्लाम का बड़ा हिस्सा (कम से कम 86 %) राजनीति ही है, इसलिए व्यवहारतः यह इस्लाम से ही मुक्त होने की बात हो जाती है। इस प्रकार, हैरिस सुलतान एक मुलहिद बनते हैं। उन के अनुसार, अभी मुलहिदों की छोटी संख्या से मायूसी नहीं होनी चाहिए। पाकिस्तान के 19 करोड़ मुसलमानों में केवल 40 लाख सेक्यूलर, नास्तिक, आदि हैं। किन्तु संख्या बढ़ रही है। दूसरे, सच्ची बातों की अपनी ताकत है, जिस के सामने बम-बंदूकें कुछ नहीं कर सकतीं। इसीलिए एक इब्न वराक, एक सलमान रुशदी, तसलीमा नसरीन या वफा सुलतान से सारी दुनिया की मुस्लिम सत्ताएं परेशान हो जाती हैं। आखिर इन लेखकों ने कुछ शब्द ही तो लिखे हैं!

मगर ऐसे सच्चे शब्द, जिन की ताब तमाम मुस्लिम सरकारें और लाखों मदरसों पर शासन करने वाले हजारों आलिम-उलेमा नहीं झेल पाते। अर्थात् जैसे-जैसे सचाई अधिकाधिक मुसलमानों के सामने आएगी, वैसे-वैसे इस्लाम का प्रभाव सिकुड़ेगा। यह गणितीय सच, मैथेमेटिकल सर्टेनिटी, है। इस में काफिर नजरिए से एक बात और जोड़ सकते हैं। बिना किसी दावे, प्रचार या संस्थानों के दुनिया की असंख्य महान पुस्तकें – उपनिषद, महाभारत, रामायण, योगसूत्र, से लेकर बुद्ध, कन्फ्यूशियस, प्लेटो, शेक्सपीयर, टॉल्सटॉय, आइंस्टीन की बातें – दुनिया के लोगों पर स्वतः अपना प्रभाव रखती हैं। उन में अनेक पुस्तकें इस्लाम से सदियों पहले की हैं। उन्हें ‘मनवाने’ को लिए किसी जोर-जबर्दस्ती की जरूरत नहीं पड़ती! जबकि किसी सर्वशक्तिमान अल्लाह के स्थाई सच के रूप में कुरान, और मानवता के सर्वोच्च मॉडल के रूप में मुहम्मद को जबरन बनाए रखने के लिए अंतहीन हिंसा होती रही है। दूसरों पर भी और आपस में भी। एकदम शुरू से। कुरान और मुहम्मद की बातों को कभी छिपा कर, कभी झूठी बातें जोड़कर, तरह-तरह से बना-सँवार कर, नई-नई सफाइयाँ दी जाती हैं। क्या ऐसे मतवाद की असलियत हमेशा छिपी रह सकती है? 

साई बाबा की पूजा के लाभ




साई बाबा की पूजा के लाभ-
1- यदि आप मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जी को अपना आदर्श मानोगे तो अपने भाई से संपत्ति के लिए नहीं लड़ोगे परंतु यदि आप साई बाबा को अपना आदर्श मानोगे तो 10 गज जमीन के लिए भी अपने भाई का कत्ल कर दोगे और आपको कोई शर्म नहीं आएगी। क्योकि रामायण आपको सदाचार सिखाती है परंतु साई बाबा की कब्र तो कुछ सिखाती ही नहीं।
2- यदि आप रामायण पढ़ोगे तो आप भी हनुमान जी की तरह मुश्किल मे पड़े हुए सदाचारी व्यक्ति की मदद करोगे भले ही आपका उसमे कोई स्वार्थ न हो। परंतु साई बाबा की कब्र तो कुछ सिखाती ही नहीं।
3- यदि आप गीता पढ़ोगे तो आपको कर्मयोगी होने की प्रेरणा मिलेगी परंतु साई बाबा की कब्र तो कुछ सिखाती ही नहीं।
4- यदि आप उपनिषद पढ़ोगे तो आपको आत्मा व परमात्मा का ज्ञान मिलेगा परंतु साई बाबा की कब्र तो कुछ सिखाती ही नहीं।
5- यदि आप चाणक्य को पढ़ोगे तो आपमे देशभक्ति व समाज के बारे मे समझ आएगी परंतु साई बाबा की कब्र तो कुछ सिखाती ही नहीं।
6- यदि आप विदुर नीति पढ़ोगे तो आपको पता चलेगा कि सत्य कहने मे महात्मा विदुर जी ने एक राजा का भी लिहाज नहीं किया परंतु साई बाबा की कब्र तो कुछ सिखाती ही नहीं।
7- यदि आप क्रांतिकारी संत कबीर जी को पढ़ोगे तो आप भी निर्भय होकर हिन्दू व मुसलमान सब के अंधविश्वास व पाप के विरुद्ध बोलोगे परंतु साई बाबा की कब्र तो कुछ सिखाती ही नहीं।
8- यदि आप गुरु नानक देव जी के उपदेश पर चलेगे तो आप मे भी पाखंड के विरुद्ध लड़ने की सीख मिलेगी परंतु साई बाबा की कब्र तो कुछ सिखाती ही नहीं।
9- यदि आप महान संत रविदास जी के आदर्शो को अपनाएगे तो आपको भी सीख मिलेगी कि मुस्लिम शासक के राज मे भी इस्लाम कि सच्चाई सबके सामने रखो परंतु साई बाबा की कब्र तो कुछ सिखाती ही नहीं।
10- यदि आप गुरु गोविंद सिंह जी को आदर्श मानोगे तो धर्म पर सब कुछ बलिदान की प्रेरणा मिलेगी परंतु साई बाबा की कब्र तो कुछ सिखाती ही नहीं।
11- यदि आप बेजोड़ धनुर्धारी श्री बंदा बैरागी जी से प्रेरणा लोगे तो आप कम साधनो से भी लक्ष्य प्राप्ति कि ओर बढ़ोगे क्योकि विशेष आदरणीय श्री बांदा बैरागी जी धनुष बाण से मुल्लोंके तोपचियों को मार कर युद्ध का परिणाम ही बदल देते थे परंतु साई बाबा की कब्र तो कुछ सिखाती ही नहीं।
दादू दुनिया बावरी कबरे पूजे उत।
जिनको कीड़े खा चुके उनसे मांगे पुत्त ।
इसलिए साई कब्र पूजा की मूर्खता छोड़िए ।
सनातन धर्म का पालन कीजिए। जय श्री राम

Saturday, June 20, 2020

भारत के महान् क्रान्तिकारी डॉ० गया प्रसाद कटियार


भारत के महान् क्रान्तिकारी डॉ० गया प्रसाद कटियार

(आज २० जून, क्रान्तिकारी डॉ० गया प्रसाद कटियार के जन्मदिवस पर प्रचारित)

डॉ० गया प्रसाद कटियार भारत के स्वतन्त्रता सेनानियों और क्रान्तिकारियों में एक विशेष भूमिका रखते हैं। आपका जन्म २० जून, सन् १९०० को उत्तरप्रदेश के कानपुर शहर में हुआ था। आप बचपन से ही कानपुर स्थित आर्यसमाज से जुड़े थे। सन् १९२१ के अहयोग आन्दोलन में भाग लेने के बाद आप हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (H.S.R.A) में सम्मिलित हुए। इस प्रकार आप भारत के महान् क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आजाद और सरदार भगतसिंह आदि के सम्पर्क में आ गए। 
साण्डर्ष वध की योजना, सिक्ख भगतसिंह के केश व दाढ़ी काटने, H.S.R.A. के गुप्त केन्द्रीय कार्यालयों का संचालन करने सहित दिल्ली की पार्लियामेंट में फेंके गए बम निर्माण आदि क्रांतिकारी गतिविधियों में अपना सक्रिय रुप से योगदान देते हुए अन्ततः १५ मई १९२९ को सहारनपुर बम फैक्ट्री का संचालन करते हुए आपको गिरफ्तार कर लिया गया। और आपको देश के सुप्रसिद्ध लाहौर षड्यन्त्र केस में दिनांक ७ अकटूबर सन् १९३० को आजीवन कारावास की सजा हुई। लाहौर की जेल में आपने अन्य बन्दियों के साथ ६३ दिन की भूख हड़ताल की। बाद में आपको अण्डमान द्वीप की सेल्यूलर जेल [काला पानी] ले जाया गया। वहां भी आपने ४६ दिन भूख हड़ताल की। अन्तत: लगातार १७ वर्षों के लंबे जेल जीवन में कई अमानवीय यातनाओं को सहने के बाद वे २१ फरवरी १९४६ को आप बिना शर्त जेल से मुक्त किये गये। इसके अलावा आप शादीशुदा थे, घर पर पत्नी और बेटी भी थी, लेकिन ना तो आप झुके और ना ही मांफी मांगी। गुलाम भारत में आपकी जेल-यात्राओं १९२९-१९४६ अर्थात् १७ वर्ष तक का वर्णन इस प्रकार है-

• १५ मई १९२९ को सहारनपुर दवाखाना एवं पार्टी कार्यालय एवं बम फैक्ट्री से गिरफ्तार हुये थे।
• १५ मई से ३१ मई १९२९ ई० तक सहारनपुर कोतवाली (पुलिस रिमांड)।
• १ जून से १० जुलाई १९२९ तक लाहौर फोर्ट हवालात।
• १० जुलाई १९२९ से ७ अक्टूबर १९३० तक लाहौर बोर्सटल जेल में रहे। (यहीं पर लाहौर षडयन्त्र केस चला और आजीवन कालापानी की सजा मिली थी।)
• ७-१०-१९३० से नवम्बर १९३० तक लाहौर सेन्ट्रल जेल में रहे।
• १ दिसम्बर १९३० से ३१-१२-१९३० न्यू सेन्ट्रल जेल मुल्तान (अब पकिस्तान) में रहे।
• जनवरी १९३१ से अक्टूबर १९३२ तक बेलारी सेन्ट्रल जेल (कर्नाटक) में रहे।
• नवम्बर १९३२ से सितम्बर १९३७ तक सेल्यूलर जेल, अण्डमान निकोबार (काला पानी ) में रहे।
• सितम्बर १९३७ से नवम्बर १९३७ तक दमदम सेन्ट्रल जेल, कलकत्ता में रहे।
• दिसम्बर १९३७ लाहौर सेन्ट्रल जेल, में रहे।
• जनवरी १९३८, नैनी सेंट्रल जेल (इलाहबाद) में रहे।
• फरवरी १९३८ से जून १९४२ लखनऊ सेन्ट्रल जेल में रहे।
• जुलाई १९४२ से जनवरी १९४५ तक सुल्तानपुर जेल में रहे।
• जनवरी १९४५ से फरवरी १९४६ तक कानपुर सेन्ट्रल जेल में रहे।
• २१ फरवरी १९४६ को जेल से रिहा किये गये थे।

स्वतन्त्र भारत में जेल-यात्राओं का दौर-
१. सन् १९५८ में छह माह का जेल जीवन।
२. सन् १९६४ से १९६६ तक डेढ़ वर्ष का जेल जीवन।

यह आंकड़े डॉ० गया प्रसाद कटियार जी के सुपुत्र क्रान्ति कुमार कटियार ने एकत्र किए हैं। स्वतन्त्र भारत में भी डॉ० गया प्रसाद जी को शोषित-पीड़ित जनता के लिए संघर्षरत होने के कारण २ वर्षों तक जेल में रहना पड़ा था; अन्ततः १० फरवरी १९९३ को आपकी मृत्यु हो गई। स्वतन्त्र भारत में आपका योगदान सदा अविस्मरणीय रहेगा।

#ऐलान_ए_इंकलाब
#इंकलाब_जिंदाबाद

आर्यसमाज का सेवक 'श्री हाजी अल्ला रखीया रहीम तुल्ला'


आर्यसमाज का सेवक 'श्री हाजी अल्ला रखीया रहीम तुल्ला'

-प्रियांशु सेठ

आर्यसमाज ने विभिन्न सम्प्रदायों के अनुयायियों की शुद्धि कर उन्हें वैदिक धर्म में दीक्षित करके उनपर महान् उपकार किये हैं। ईश्वर के सत्य स्वरूप से परिचित कराकर उसको पाने का वेदोक्त मार्ग बतलाना आर्यसमाज का जन सामान्य पर सबसे बड़ा उपकार है। आर्यसमाज के वेदोक्त विचारों ने जहां अपना प्रभाव सत्यप्रेमी और निष्पक्ष जनों के हृदय में स्थापित किया, उन्हीं में इसके एक समर्थक और प्रशंसक श्री हाजी साहब थे।
हाजी साहब कच्छ के रहने वाले थे। पेशे से आप सोने का व्यापार किया करते थे। आप सर्वदा कहा करते थे कि संसार में धर्म वैदिक धर्म ही है। जब कोई आपसे कहता था कि आप शुद्ध क्यों नहीं होते तो आप उत्तर दिया करते थे कि मैं अशुद्ध नहीं हूं। आप आर्यसमाज के सत्संग में नियमपूर्वक जाया करते थे और आर्यसमाज के सिद्धान्तों से अभिज्ञ थे। आप सर्वदा विद्यार्थियों को पुस्तकें और छात्रवृत्ति दिया करते थे। निर्धनों को सहायता आपसे प्राप्त होती थी। आप आर्यसमाज में कई बार अपने पुत्रों को भी ले जाया करते थे। एक बार आपने एक स्नातक से कोई प्रश्न किया था, तो इसका उत्तर उसने गलत दिया। इसकी पुष्टि के लिए जब सत्यार्थप्रकाश मंगवाया और दिखाया तो आपका पक्ष सही सिद्ध हुआ और उस स्नातक ने अपनी गलती स्वीकार की। हाजी साहब ने कहा- आपने तप किया है, जंगल में रहे हैं, और गुरुओं के पास रहे हैं परन्तु आपने ऋषि दयानन्द लिखित वैदिक सिद्धान्तों का परिचय प्राप्त नहीं किया।

एक बार मुम्बई आर्यसमाज में तत्कालीन प्रधान श्री विजयशंकर जी ने साप्ताहिक सत्संग में कहा कि मन्दिर के पिछले भाग में मकान बनवाने में आर्यसमाज पर ऋण हो गया है। अब अन्य कार्यों के साथ-साथ आर्यसमाज को यह ऋण भी उतारना होगा। हाजी साहब ने उठकर पूछा कि आर्यसमाज पर ऋण कितना है? प्रधान जी ने कहा रु० ५००० है। हाजी साहब ने तुरन्त कहा कि मेरी दुकान से आकर ले लो। प्रधान जी के जाने पर उन्होंने शीघ्र ही उन्हें ५००० रु० का चैक दे दिया। उस मकान पर जो शिला लगाई गई थी जिस पर दानियों के नाम हैं, उसमें सबसे प्रथम हाजी जी का ही नाम है।

आपके नाम से प्रत्येक उनको वैदिक धर्मी समझने में संकोच करेगा लेकिन हाजी अल्लारखीया रहीमतुल्ला जी उतने ही वैदिक धर्मी थे जितना कि कोई वैदिक धर्मी हो सकता है।
-'सार्वदेशिक' १९४२ के अंक से साभार

Thursday, June 18, 2020

झांसी की अधीश्वरी वीरांगना लक्ष्मीबाई


झांसी की अधीश्वरी वीरांगना लक्ष्मीबाई

-प्रियांशु सेठ

स्वराज्य की रक्षा में अपना सर्वस्व निछावर कर देने वाली महारानी लक्ष्मीबाई के जीवन की स्मृतियों का स्मरण कर प्रत्येक देशप्रेमियों का मन पुलकित हो उठता है। उनकी जीवनी से हम इस बात की प्रेरणा ग्रहण करते हैं कि यदि स्वराज्य पर कभी आंच आये या उसका गौरव संकट में हो, तो हम अपना सर्वस्वार्पण करके उसकी रक्षा करें। महारानी लक्ष्मीबाई भारतीय इतिहास में उस वीरता और विश्वास की पहचान हैं, जिनका चरित्र पवित्रता और आत्मोत्सर्ग के पुण्यशील विचारों पर अवलम्बित हैं। उन्होंने निर्भयतापूर्वक राज्य का रथ चलाया और युद्ध क्रांति के क्षेत्र में उतरकर यह भी सिद्ध किया कि स्वराज्य के गौरव को बचाना केवल पुरुषों का ही नहीं अपितु स्त्रियों का भी कर्त्तव्य है। मृत्यु के समय उनकी अवस्था २२ वर्ष ७ महीने और २७ दिन की थी। यह अवस्था ऐसी है, जिसमें वह देश की आजादी, उसे स्वतन्त्र कराने और उसके लिए मर-मिटने की भावना से परे हटकर अपने सुख, ऐश्वर्य और मनोविनोद को प्रधानता देकर आराम से अपना जीवनयापन कर सकती थीं। लेकिन उस महान् साम्राज्ञी के सामने देश का वह मानचित्र और वे परिस्थितियां थीं, जिनमें भारतीयों को 'नेटिव' कहकर उनके साथ पशुत्वपूर्ण व्यवहार किया जाता था, उनकी धार्मिक भावनाओं को कुचला जाता था, उन्हें बौद्धिक तथा शारीरिक रूप में हीन व पंगु बनाकर निष्क्रिय और निस्तेज बना दिया जाता था।

वामपंथी इतिहाकारों के अभिमतानुसार सन् १८५७ की जनक्रांति अपने-अपने स्वार्थों की रक्षा का परिणाम था और कुछ प्रभावशाली व्यक्तियों का तत्कालीन शासन के विरुद्ध षड्यन्त्र था। जबकि यदि ऐसा होता तो यह क्रान्ति देशव्यापी न होकर केवल कुछ क्षेत्रों एवं कुछ रियासतों तक ही सीमित रह जाती। लेकिन १८५७ की जनक्रांति में जनता अपनी शक्ति के बल पर मिटने को तैयार हुई और अपनी अखण्ड एकता तथा बल-पौरुष का परिचय अंग्रेजो को दिया। जहां जनता के लिए स्वाभिमान और स्वत्वों का प्रश्न था, वैसा ही उस समय के रजवाड़ों और पूर्व शासकों के सामने भी यही एक भाव था कि उनके साथ मानवीय व्यवहार किया जाए व शासक होने के नाते उनके अधिकारों के प्रति आंखें न मींच ली जाएं।

महारानी लक्ष्मीबाई युद्धशिक्षा में पारंगत, मन से दृढ़ और कर्म से तेजस्वी क्षत्रिया थीं। उनका जन्म काशी के अस्सीघाट मोहल्ले में २१ अक्टूबर, १८३५ को मोरोपंत तांबे के घर हुआ। आरम्भ से ही लक्ष्मीबाई को ऐसा वातावरण मिला, जिसने उन्हें स्वराज्य के प्रति निष्ठावान और उसकी स्वतन्त्रता के लिए निरत होने का लगन लगा दिया। अपने पति राजा गंगाधरराव के जीवनकाल में ही वह अपनी बुद्धिमत्ता और शासकीय क्षमता का परिचय देती रहती थीं। झांसी राज्य का शासनतन्त्र अंग्रेजों के इशारों पर चल रहा है, यह बात उन्हें जरा भी नहीं भाई। लेकिन उस समय शासनतन्त्र के सम्पर्क में न होने के कारण वह अपनी भावना को पी गईं। उसी समय लार्ड डलहौजी ने समस्त देशी रियासतों को अंग्रेजी शासन में मिलाने का एक षड्यन्त्र रचा। पुत्र गोद लेने की प्रचलित प्रथा को भी समाप्त कर दिया। उन्हीं दिनों राजा गंगाधर राव बीमार पड़े। उन्होंने झांसी के उस समय के अंग्रेजी प्रबंधक श्री एलिस को बुलाकर उनके सामने ही एक लड़का गोद लिया तथा श्री एलिस ने शपथबद्ध होकर कहा कि वह रानी और गोद लिए हुए बच्चे पर कभी अंग्रेजी हुकूमत की टेढ़ी दृष्टि नहीं पड़ने देंगे। लेकिन गंगाधर की मृत्यु के पश्चात् एलिस का यह वचन पानी के बुदबुदे की तरह समाप्त हो गया। एलिस ने रानी को दरबार में जाकर सरकारी फरमान सुनाया कि रानी का दत्तक पुत्र अस्वीकार किया गया और वह पांच हजार रुपये माहवार की पेंशन लेकर झांसी अंग्रेजों को सौंप दे। अंग्रेजों द्वारा यह अपमान और विश्वासघात महारानी के शरीर में विष की तरह बिंध गई। उन्होंने गरजकर कहा- "मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।"

महारानी की इस घोषणा में उस युग का प्रतिनिधित्व था, जिसमें अन्याय के जाल को बराबर अंग्रेजों द्वारा फैलाया जाता था और जिसके नीचे सर्व साधारण सिसक उठा था। बचपन के संस्कार ने रानी के मन में प्रेरणा दी और उन्होंने शासन की कमान को अपने हाथों में ले लिया। झांसी में जनता द्वारा अंग्रेजों का क़त्लेआम आरम्भ हो गया। हो सकता था कि यदि महारानी का जरा-सा भी संकेत जनता को मिल जाता तो अंग्रेज लोग मौत के घाट उतार दिए जाते। लेकिन महारानी का संघर्ष, उसका विद्रोह और उसका पराक्रम अन्याय के विरुद्ध था। शासन को अपने हाथ में लेने के बाद उन्होंने युद्ध की पूरी योजना तैयार की। उन्होंने दो बातों पर विशेष जोर दिया। एक तो यह कि सेना अनुशासित रहे, और दूसरा यह कि जनता को न्यायपूर्ण हक मिले। एक स्त्री के हाथ में राज्य की शासनसत्ता देखकर आसपास के रजवाड़ों ने एक मजाक-सा समझा। ओरछा के दीवान नत्थेखा ने ३० हजार का सैन्यबल लेकर झांसी पर हमला कर दिया, लेकिन रानी की तोपों ने उनका भुरकस निकाल दिया। दीवान साहब को जिन्दगी के लाले पड़ गए। अपना सारा गोलाबारूद छोड़कर उन्हें भागना पड़ा। राज्य में उस समय चोर-डाकुओं का भी बड़ा जोर था। महारानी ने साहस का परिचय देते हुए उन परिस्थितियों को भी अनुकूल बनाया। इस तरह एक निश्चिन्तता और सुरक्षा का भाव झांसी की जनता के मन में बना और वह महारानी के प्रति विश्वास और भावनामयी अवस्था के साथ देखने लगी।

अंग्रेजों ने इस जनक्रांति को गदर कहा और उसे मिटाने के लिए तत्पर हो गए। सर ह्यूरोज, भोपाल और हैदराबाद की मदद लेकर महारानी पर चढ़ दौड़ा। २३ मार्च १८५८ को सर ह्यूरोज ने झांसी पर आक्रमण किया। महारानी ने नीतिपूर्वक अन्न और फसल कटवा दिए थे जिससे कि विरोधियों को अन्न और छाया न मिल सके। लेकिन ग्वालियर से अंग्रेजी सेना को सहायता मिली और ३१ तारीख को झांसी की सैन्यशक्ति क्षीण पड़ने लगी। अपने ही लोगों ने उन्हें धोखा दिया। महारानी ने समझ लिया कि झांसी खाली करनी होगी। वह अपने दत्तक पुत्र को पीठ पर बांधकर कालपी की ओर भाग निकली। अंग्रेजों ने उसका पीछा किया। लेफ्टिनेंट बोकर रानी के बहुत पास तक पहुंच गया था। उसी समय रानी ने एक भरपूर हाथ तलवार का बोकर पर मारा और वह भूलुंठित हो गया। कालपी में राव साहब पेशवा की सेना में बड़ी अँधेरगर्दी थी। सैनिक अनुशासन का नाम नहीं था। महारानी ने सारी व्यवस्था की। सर ह्यूरोज झांसी से कालपी पर टूट पड़ा। महारानी ने अद्भुत प्रतिभा और रण-कौशल का परिचय दिया। लेकिन राव साहब की सेना में आत्मिक बल नहीं था और कालपी अंग्रेजों के सर कर दिया। महारानी और राव साहब अपने विश्वस्त साथियों सहित ग्वालियर की ओर दौड़ पड़े। महारानी ग्वालियर आईं और उन्होंने वहां की जनता को एकसूत्र में बांधा। उन्हें जनता तथा ग्वालियर की सेना का पर्याप्त सहयोग प्राप्त हुआ। ग्वालियर का किला महारानी के हाथों में था, लेकिन पेशवा के सैनिक आमोद-प्रमोद की बातें सोचते थे।

राव साहब पेशवा के राज्याभिषेक की बात दोहराई गई, लेकिन रानी तटस्थ रहीं। वह अच्छी तरह से जानती थीं कि अंग्रेज चैन से नहीं बैठने देंगे। वही हुआ भी। ११ जून १८५८ को जनरल रोज की सेनाओं से महारानी की मुठभेड़ हुई, लेकिन वह दिन अनिर्णीत होने के कारण १८ जून को पौ फटते ही लड़ाई शुरू हो गई। महारानी ने रोज की सेना पर दबाव डाला और अन्तिम समय तक अदम्य साहस के साथ अंग्रेजों की विशाल सेना को युद्धभूमि में धूल चटाती रहीं। लेकिन एक गोरे की पिस्तौल की गोली महारानी की जांघ में लगी। रानी ने पास आये हुए अंग्रेजों के तलवार से टुकड़े किये। महारानी ने भरसक यत्न किया कि वह सामने आए हुए नाले को पार कर जाए, लेकिन घोड़ा सहमा और बिदक गया। अंग्रेजों का दबाव बढ़ रहा था। एक और अंग्रेज सामने आया। वह भी महारानी की तलवार से मारा गया। महारानी क्षीण पड़ चलीं और घोड़े से गिर पड़ीं। उनके साथी उन्हें निकटवर्ती बाबा गंगादास की कुटी में ले गए लेकिन उन्होंने स्वराज्य की रक्षा में अपने प्राण त्याग दिए।

प्रत्येक वर्ष १८ जून को हम महारानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि मनाते हैं। महारानी आज न होते हुए भी प्रत्येक देशप्रेमियों के हृदय में निर्भीकता और कर्तव्यपरायणता की प्रेरणास्त्रोत बनकर प्रतिष्ठित हैं। वह एक अमरगाथा हैं जिसे आजादी के दीवानों ने आज तक गाया और भविष्य में भी गायेंगे।

Tuesday, June 16, 2020

वैदिक सन्ध्या व पद्यानुवाद


◼️वैदिक सन्ध्या व पद्यानुवाद◼️
✍🏻 लेखक - पंडित चमूपति एम॰ए॰

◾️गुरु मन्त्र◾️
🔥ओ३म् भूर्भव: स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो 
देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्॥

प्रेरक प्रभु प्रेरणा करिए (टेक) 
प्राणपति जग के रखवारे 
जगजीवन (औ) जग से न्यारे 
सुखस्वरूप सब संकट हरिए। 
तेजरुप तव ध्यान धरें हम 
बुद्धि प्रेरिए जीवन भरिए। 

◾️आचमन◾️
🔥ओं शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये। 
शंयोरभि स्रवन्तु नः॥ (यजु० ३६/१२) 

विश्व व्यापिनी देवी सुख बरसाना। 
प्रेम प्यास है चहूँ दिश इसे बुझाना॥ 

◾️इन्द्रिय स्पर्श◾️
🔥ओं वाक् वाक्। ओं प्राणः प्राणः। ओं चक्षुश्चक्षुः। 
ओं श्रोत्रं श्रोत्रम्। ओं नाभिः। ओं हृदयम्। ओं कण्ठः। 
ओं शिरः। ओं बाहुभ्यां यशोबलम्। ओं करतल करपृष्ठे।

वाणी मम यथार्थ वाणी हो।
प्राण-प्राण गुण अभिमानी हो॥ 
आँख-आँख सुभ कान-कान सुभ। 
नाभि शक्ति का हो निधान सुभ॥ 
हृदय हृष्ट हो कण्ठ शुद्ध हो। 
शीर्ष शक्ति सम्पन्न बुद्ध हो॥ 
सबल बाहु शुभ यश फैलायें। 
हाथ चुस्त हो कर्म कमायें॥ 

◾️मार्जन◾️
🔥ओ३म् भूः पुनातु शिरसि। ओं भुवः पुनातु नेत्रयोः। 
ओं स्वः पुनातु कण्ठे। ओं महः पुनातु हृदये। 
ओं जनः पुनातु नाभ्याम्। ओं तपः पुनातु पादयोः। 
ओं सत्यं पुनातु पुनश्शिरसि। ओं खं ब्रह्म पुनातु सर्वत्र। 

मम चित्त शोधो शोधन हारे। (टेक) 
शीर्ष शुद्ध कर ज्ञान बढ़ाओ॥
नेत्र स्वच्छ कर सुपथ दिखाओ।
मल नाशो मल नाशन हारे॥
कोमल कण्ठ सरस स्वरमय हो।
महा प्रभो मम माहा हृदय हो 
शीश शुद्ध हो सत्य विचारे 
तपोनिधे मम पग-पग प्रेरो 
नाभि स्वच्छ कर शिशु मुख हेरो 
जनक जगज्जन सरजन हारे॥ 
रहे स्वच्छता निज शरीर में 
अंग अंग में चीर चीर में  
घट-घट व्यापो व्यापनहारे॥ 

◾️प्राणायाम◾️
🔥ओ३म् भूः। ओं भुवः। ओं स्वः। ओं महः। ओं जनः। 
ओं तपः। ओं सत्यम्॥ (तैत्ति० प्रपा० १ अनु० २७) 

प्रिय प्रभु तुम हो प्राण हमारे। 
प्यारे-प्यारे न्यारे-न्यारे॥ 
व्यापक सुख हो जगत जनक हो। 
तप: स्वस्वरूप सत्य साधक हो॥ 

◾️अघमर्षन◾️
🔥ओ३म् ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽअध्यजायत। 
ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः॥१॥ 
समुद्रादर्णवादधि संवत्सरोऽअजायत। 
अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी॥२॥ 
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वकल्पयत्। 
दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः॥३॥ 
(ऋग्वेद १०/१९/१-३)

अचरज महिमा प्रभु रचना की। 
चहूँ दिश तपी सदा भव भट्टी॥ 
निशिदिन चलते नियम निरन्तर। 
सखलन होता नही कहीं बाल भर॥
अभी सृष्टि थी अभी प्रलय हैं। 
लो फिर सागर विप्लवमय है॥ 
ऋतु ऋतु की फिर बारी आयो। 
समय शृंखला सारी आयो॥
विश्ववशी ने निजस्वभाव से। 
रचे रैन दिन सहज भाव से॥ 
सूर्य चन्द्र पृथिवी औ तारे। 
अन्तरिक्ष के गोलक सारे॥ 
विधि-विधि फिर अनादि से रचता। 
न्याय नियम से अणु नहीं बचता॥

◾️आचमन (दूसरी बार)◾️
🔥ओं शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये। 
शंयोरभि स्रवन्तु नः॥ (यजु० ३६/१२) 

विश्व व्यापिनी देवी सुख बरसाना। 
प्रेम प्यास है चहूँ दिश इसे बुझाना॥ 

◾️गुरु मन्त्र (दूसरी बार)◾️
🔥ओ३म् भूर्भव: स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो 
देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्॥

प्रेरक प्रभु प्रेरणा करिए (टेक) 
प्राणपति जग के रखवारे 
जगजीवन (औ) जग से न्यारे 
सुखस्वरूप सब संकट हरिए। 
तेजरुप तव ध्यान धरें हम 
बुद्धि प्रेरिए जीवन भरिए। 

◾️मनसा परिक्रमा◾️
🔥ओ३म् प्राची दिगग्निरधिपतिरसितो रक्षितादित्या इषवः। 
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।
यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥१॥ 
🔥ओ३म् दक्षिणा दिगिन्द्रोऽधिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितर इषवः। 
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नर्मो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। 
यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥२॥ 
🔥ओ३म् प्रतीची दिग्वरुणोऽधिपतिः पृदाकू रक्षिताऽन्नमिषवः। 
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। 
यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥३॥ 
🔥ओ३म् उदीची दिक्सोमोऽधिपतिः स्वजो रक्षिताऽशनिरिषवः। 
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। 
यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भै दध्मः॥४॥ 
🔥ओ३म् ध्रुवा दिग्विष्णुरधिपतिः कल्माषग्रीवो रक्षिता वीरुध इषवः। 
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। 
यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भै दध्मः॥५॥ 
🔥ओ३म् ऊर्ध्वा दिग् बृहस्पतिरधिपतिः श्वित्रो रक्षिता वर्षमिषवः। 
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। 
यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥६॥ 
(अथर्ववेद ३।२७।१-६) 

आगे आगे अग्रि अग्रणी 
किरण बाण धर तिमिर हरधनी 
सदा मुक्त, प्रभु राज तुम्हारा 
नम्र नमस्ते लहो हमारा 
अहो महेश्वर नमो नमस्ते 
अहो वाणधर नमो नमस्ते 
जो जन हमसे द्वेष कर रहे 
या जिनपर हम दोष धर रहे 
न्याय नेत्र के सब समक्ष हों 
दण्ड जम्भ के दुष्ट भख भक्ष हों॥ 
दाएँ हाथ तुम इन्द्र दयानिधे 
निज वाण धर वक्र वेधते 
सकल विश्व पर राज तुम्हारा 
पृष्ठ भाग में वरुण वरेश्वर 
हिंस्र शत्रु हर अन्न बाण धर 
सकल विश्व प्रभु राज तुम्हारा 
बाए हाथ तुम सोम सुधाकर 
सुखद स्वयं भू अशनि बाण धर 
सकल विश्व प्रभु राज तुम्हारा॥ 
विष्णु तुम हो ध्रुव रखवारे 
बेलें बूटे बाण तुम्हारे 
हरा भरा निज राज तुम्हारा॥
तुम्हीं बृहस्पति छत्र हमारे 
वृष्टि बाण धर रोग संहारे 
विमल विभो सब राज तुम्हारा॥ 

◾️उपस्थान◾️
🔥ओम् उद्वयन्तमस॒स्परि स्वः पश्यन्त ऽउत्तरम्। 
देवं देवत्रा सूर्यमर्गन्म ज्योति॑रुत्तमम्॥१॥ 
(यजुर्वेद ३५/१४) 
🔥ओम् उदु त्यजातवेदसं देवं वहन्ति केतवः। 
दृशे विश्वाय सूर्य्यम्॥२॥ 
(यजुर्वेद ३३/३१) 
🔥ओम् चित्रं देवानामुदगादीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। 
आप्रा द्यावापृथिवीऽअन्तरिक्षं सूर्यऽआत्मा जगतस्तस्थुषश्च स्वाहा॥३॥ 
(यजुर्वेद ७/४२) 
🔥ओम् तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं। 
शृणुयाम शरदः शतं प्रव्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्॥४॥ 
(यजुर्वेद ३६/२४) 

अन्धकार से वृत्ति मोड़कर 
तामस तम का मार्ग छोडकर 
चलो देव के दर्शन करने 
लख छवि सुखस्वरूप जी भरने 
देवराज देवों में उत्तम 
सुगम सुदर्शन अद्भुत अनुपम 
भवन-भवन झण्डे फहराते 
प्रभु छवि कर संकेत दिखाते 
देव विश्ववत् विश्व विकाशी 
कर दर्शन-दर्शन अभिलाषी 
देव संग मङ्गल मना रहे 
मित्र वरुण और अग्रि गा रहे 
सजग ज्योति से ज्योति पा रहे 
विश्वचक्षु शुभ द्युति धारी है। 
आत्मकाम कर सफल भुवन को 
अंतरिक्ष को धरा गगन को 
सकल सृष्टि प्रभु हिय प्यारी है॥ 
चक्षु समान देव हितकारी 
सर्व समक्ष अनादि बिहारी 
दर्शन हो सौ वर्ष तुम्हारा 
जीवन हो कृतकार्य हमारा 
सौ वर्ष तक सुनें सुनावें 
सौ वर्ष तक प्रभु गुण गावें 
रहें स्वतन्त्र न दीन कभी हों 
शुद्ध रक्त यों शत्त रहें हम 
सौ वर्ष से अधिक जियें हम

◾️गुरु मन्त्र (तीसरी बार)◾️
🔥ओ३म् भूर्भव: स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो 
देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्॥

प्रेरक प्रभु प्रेरणा करिए (टेक) 
प्राणपति जग के रखवारे 
जगजीवन (औ) जग से न्यारे 
सुखस्वरूप सब संकट हरिए। 
तेजरुप तव ध्यान धरें हम 
बुद्धि प्रेरिए जीवन भरिए। 

◾️समर्पण◾️
🔥ओ३म् नमः शम्भवाय च मयोभवाय च। 
नमः शङ्कराय च मयस्कराय च। 
नमः शिवाय च शिवतराय च॥ (यजुर्वेद १६/४१) 

सुखस्वरूप प्रभो नमो नमस्ते
शांतिरूप प्रभु नमो नमस्ते
नमो नमस्ते मंगलकारी
नमो नमस्ते सुख संचारी
सुखकर अनुपम नमो नमस्ते 
शंकर शिवतम नमो नमस्ते 

॥ ओ३म् ॥
✍🏻 लेखक - पंडित चमूपति एम॰ए॰

प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
॥ ओ३म् ॥

Monday, June 15, 2020

कुरान और गोवध



कुरान और गोवध

लेखक- आचार्य डॉ० श्रीराम आर्य, कासगंज, उ०प०

[अनेक मुस्लिम विद्वान् गोबध को कुरान सम्मत बताकर गौहत्या जैसे घोर पाप का समर्थन करते हैं तथा हिन्दुओं की गौ के प्रति आस्था पर चोट पहुंचाते हैं। इस्लाम के होनहार विद्वानों ने अपने इस मूर्खतापूर्ण हरकतों के पीछे अल्लाह को कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा। इन्होंने अल्लाह को इस प्रश्न से कलंकित कर दिया कि अल्लाह निर्दयी वा करुणा शून्य है। अल्लाह पशुओं का संरक्षक नहीं बल्कि दुश्मन है। यदि वास्तव में कुरान का खुदा पशुओं का रक्षक होता तो वह मनुष्यों को पशुओं की हत्या करने के बजाय उनपर दया और प्रेम करने की शिक्षा देता। साथ ही कुरान में मूसा और इब्राहीम द्वारा गोबध का समर्थन अल्लाह के ईश्वरीय वाणी पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि अल्लाह दयालु न होने के कारण ईश्वर नहीं हो सकता। खण्डन-मण्डन साहित्य के प्रणेता और समीक्षक आचार्य डॉ० श्रीराम आर्य जी की लेखनी से अल्लाह के पैग़म्बरों के काले कारनामे पढ़िए, जो सार्वदेशिक (साप्ताहिक) के अप्रैल १९६६ के अंक में प्रकाशित हुआ था। -प्रियांशु सेठ]

इस्लाम के धर्म ग्रन्थ 'कुरान शरीफ़' का हमने अनेक बार परायण किया है उसमें हमको एक भी ऐसा स्थल नहीं मिला है जिस में गोवध का आदेश दिया गया हो। कुछ स्थल ऐसे तो हैं जिनमें गोवध की घटना का उल्लेख है, पर उनसे इस कर्म की व्यवस्था सिद्ध नहीं होती है। हम वे सभी स्थल नीचे उद्धृत करते हैं-

"फिर तुमने उनके पीछे (पूजने के लिए) बछड़ा बना लिया, और तुम जुल्म कर रहे थे।५१। जब मूसा ने अपनी जाति से कहा कि तुमने बछड़े की पूजा करके अपने ऊपर जुल्म किया तो अपने सृष्टिकर्ता के सामने तौबा करो...।५४। मूसा ने अपनी कौम से कहा कि अल्लाह तुम से फर्माता है कि एक गाय हलाल करो। वह कहने लगे कि क्या तुम हम से हसी करते हो। (मूसा ने) कहा कि खुदा मुझ को अपनी पनाह में रखे कि मैं ऐसा नादान न बनूं।६७। वह बोले अपने परवरदिगार से हमारे लिए दरख़्वास्त करो कि हमें भली भांति समझा दे कि वह कैसी हो। (मूसा ने) कहा कि खुदा फ़र्माता है कि वह गाय न बूढ़ी हो और न बछिया हो, दोनों के बीच की रास, पस तुम को जो हुक्म दिया गया है उस को पूरा करो।६८। ...मूसा ने कहा कि उस का रंग खूब गहरा ज़र्द हो कि देखने वालों को भला लगे।६९। वह न तो कमेरी हो कि जमीन जोतती हो और न खेतों को पानी देती हो, सही सालिम उसमें किसी तरह का दाग (धब्बा) न हो। वह बोले, हां! अब तुम ठीक पता लाये। ग़रज़ उन्होंने गाय हलाल की, और उनसे उम्मीद न थी कि ऐसा करेंगे।७१। (और ऐ याकूब के बेटों) जब तुमने एक शख्स को मार डाला और झगड़ने लगे...।७२। पस हमने कहा कि गाय का कोई टुकड़ा मुर्दे को चढ़ा दो इसी तरह खुदा कयामत में मुर्दों को जिलायगा। वह तुमको अपनी कुदरत का चमत्कार दिखाता है ताकि तुम समझो।७३।" कु० सूरे बक़र पारा १।।
"इब्राहीम ने देर न की और भुना हुआ बछेड़ा ले आया।१९।" कु० सूरे हूद पा० १२।। "इब्राहीम अपने घर को दौड़ा और एक बछेड़ा घी में तला हुआ ले आया।२६। फिर उनके सामने रखा और (महमानों से) पूछा क्या तुम नहीं खाते?" कु० सूरे धारियात पारा २७।।

समीक्षा- ऊपर की आयतों से स्पष्ट है कि अरब में उस युग में गौ की पूजा हुआ करती थी। लोग उस का बड़ा आदर किया करते थे। कुरान शरीफ में गाय या बछड़े की ही पूजा होने का उल्लेख मिलता है, अन्य किसी भी पशु के सत्कार का उसमें उल्लेख नहीं है। यह दूसरी बात है कि मांसाहारी होने से अरब के मूसा व इब्राहीम परिवार के लोग अन्य ऊंट आदि पशुओं के समान गौ व बछड़े को भी मार खा जाते थे। समस्त कुरान में ऊपर की एक घटना के उल्लेख के अतिरिक्त गौ वध की कोई व्यवस्था वा आदेश नहीं मिलता है। गौ वध के लिए मूसा ने गौ भक्त लोगों के हृदय में से गौ पूजा की भावना निकालने के लिए खुदा के नाम पर उन भोले लोगों को बहका कर गौहत्या करा दी थी, यह बात उक्त वर्णन से स्पष्ट है। क्योंकि लोगों ने पहिले मूसा की बात को मजाक समझा था। वे हत्या को तैयार नहीं थे। खुदा को भी कुरान में कहना पड़ा था कि 'अगर्चे' उनसे यह उम्मीद नहीं थी कि वे गौवध कर डालेंगे। कुरान के अनुसार लोग मूसा के झांसे में आ गये थे।

इसके बाद कुरान बताता है कि गाय के गोश्त के स्पर्श से ही मुर्दा जिन्दा हो गया था। इसका अर्थ यह हुआ कि गाय के दूध-रक्त-गोश्त सभी की उपयोगिता कुरान को स्वीकार है। ऐसी दशा में गौ की हत्या करके उसे समाप्त करने की मूर्खता न करके उसके दुग्ध से प्राणियों का कल्याण किया जाये यही सर्वोत्तम बात होगी।
कुरान सूरे अध धारियात के ऊपर के उदाहरणों से केवल इब्राहीम के गौ भक्षक होने का प्रमाण मिलता है। साथ ही इब्राहीम के महमानों से यह पूछने से कि 'क्या तुम (गौ मांस) को नहीं खाते हो' यह प्रगट है कि अरब के उस युग के लोग भारत के आर्यों के समान ही गौ पूजक (गौ भक्त) थे। वे गौवध को पाप मानते थे। इब्राहीम और मूसा ने शरारत करके गौवध की प्रथा अरब में चालू कराकर जनता में से गौ भक्ति की भावना को मिटाने का पाप किया था।

कुरान या किसी भी पुस्तक में किसी अच्छी या बुरी ऐतिहासिक घटना का अथवा कपोलकल्पित वर्णन हो जाने से कोई बात व्यवस्था अथवा सर्वमान्य तथा अनुकरणीय नहीं बन सकती है जब तक कि उस बात के आचरण की स्पष्ट व्यवस्था न हो। अतः सिद्ध है कि गौवध कुरान सम्मत नहीं है।

साई बाबा की पूजा के लाभ



साई बाबा की पूजा के लाभ-

1- यदि आप मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जी को अपना आदर्श मानोगे तो अपने भाई से संपत्ति के लिए नहीं लड़ोगे परंतु यदि आप साई बाबा को अपना आदर्श मानोगे तो 10 गज जमीन के लिए भी अपने भाई का कत्ल कर दोगे और आपको कोई शर्म नहीं आएगी। क्योकि रामायण आपको सदाचार सिखाती है परंतु साई बाबा की कब्र तो कुछ सिखाती ही नहीं।

2- यदि आप रामायण पढ़ोगे तो आप भी हनुमान जी की तरह मुश्किल मे पड़े हुए सदाचारी व्यक्ति की मदद करोगे भले ही आपका उसमे कोई स्वार्थ न हो। परंतु साई बाबा की कब्र तो कुछ सिखाती ही नहीं।

3- यदि आप गीता पढ़ोगे तो आपको कर्मयोगी होने की प्रेरणा मिलेगी परंतु साई बाबा की कब्र तो कुछ सिखाती ही नहीं।

4- यदि आप उपनिषद पढ़ोगे तो आपको आत्मा व परमात्मा का ज्ञान मिलेगा परंतु साई बाबा की कब्र तो कुछ सिखाती ही नहीं।

5- यदि आप चाणक्य को पढ़ोगे तो आपमे देशभक्ति व समाज के बारे मे समझ आएगी परंतु साई बाबा की कब्र तो कुछ सिखाती ही नहीं।

6- यदि आप विदुर नीति पढ़ोगे तो आपको पता चलेगा कि सत्य कहने मे महात्मा विदुर जी ने एक राजा का भी लिहाज नहीं किया परंतु साई बाबा की कब्र तो कुछ सिखाती ही नहीं।

7- यदि आप क्रांतिकारी संत कबीर जी को पढ़ोगे तो आप भी निर्भय होकर हिन्दू व मुसलमान सब के अंधविश्वास व पाप के विरुद्ध बोलोगे परंतु साई बाबा की कब्र तो कुछ सिखाती ही नहीं।

8- यदि आप गुरु नानक देव जी के उपदेश पर चलेगे तो आप मे भी पाखंड के विरुद्ध लड़ने की सीख मिलेगी परंतु साई बाबा की कब्र तो कुछ सिखाती ही नहीं।

9- यदि आप महान संत रविदास जी के आदर्शो को अपनाएगे तो आपको भी सीख मिलेगी कि मुस्लिम शासक के राज मे भी इस्लाम कि सच्चाई सबके सामने रखो परंतु साई बाबा की कब्र तो कुछ सिखाती ही नहीं।

10- यदि आप गुरु गोविंद सिंह जी को आदर्श मानोगे तो धर्म पर सब कुछ बलिदान की प्रेरणा मिलेगी परंतु साई बाबा की कब्र तो कुछ सिखाती ही नहीं।

11- यदि आप बेजोड़ धनुर्धारी श्री बंदा  बैरागी जी से प्रेरणा लोगे तो आप कम साधनो से भी लक्ष्य प्राप्ति कि ओर बढ़ोगे क्योकि विशेष आदरणीय श्री बांदा बैरागी जी धनुष बाण से मुल्लोंके तोपचियों को मार कर युद्ध का परिणाम ही बदल देते थे परंतु साई बाबा की कब्र तो कुछ सिखाती ही नहीं।

दादू दुनिया बावरी कबरे पूजे उत।
जिनको कीड़े खा चुके उनसे मांगे पुत्त ।
इसलिए साई कब्र पूजा की मूर्खता छोड़िए । 
सनातन धर्म का पालन कीजिए। जय श्री राम

Saturday, June 13, 2020

वैदिक धर्म अतुलनीय



वैदिक धर्म अतुलनीय

-स्व० चौधरी चरण सिंह (भू० पूर्व प्रधानमन्त्री, भारत सरकार)

मैं जहां राजनीतिक क्षेत्र में महात्मा गांधी को अपना गुरु या प्रेरक मानता हूं, वहां धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में मुझे सबसे अधिक प्रेरणा महर्षि दयानन्द सरस्वती ने दी। इन दोनों विभूतियों से प्रेरणा प्राप्त कर मैंने धार्मिक व राजनीतिक क्षेत्र में पदार्पण किया था। एक ओर आर्य समाज के मंच से हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों के विरुद्ध मैं सक्रिय रहा, वहीं कांग्रेसी कार्यकर्ता के रूप में भारत की स्वाधीनता के यज्ञ में मैंने यथाशक्ति आहुतियां डालने का प्रयास किया।

मंगलाचरण स्वदेशी, स्वभाषा व स्वधर्म का गौरव

छात्र जीवन में, लगभग १९-२० वर्ष की आयु में स्वामी सत्यानन्द लिखित महर्षि दयानन्द सरस्वती की जीवनी पढ़ी। मुझे लगा कि बहुत समय बाद भारत में सम्पूर्ण मानव गुणों से युक्त एक तेजस्वी विभूति महर्षि के रूप में प्रकट हुई है। उनके जीवन की एक-एक घटना ने मुझे प्रभावित किया, प्रेरणा दी। स्वधर्म (वैदिक धर्म), स्वभाषा, स्वराष्ट्र, सादगी, सभी भावनाओं से ओत-प्रोत था महर्षि का जीवन। राष्ट्रीयता की भावनाएं तो जैसे उनकी रग-रग में ही समायी हुई थी। इन सब गुणों के साथ तेजस्विता उनके जीवन का विशेष गुण था। इसीलिए आर्य समाज के नियमों में सत्य के ग्रहण करने एवं असत्य को तत्काल त्याग देने को उन्होंने प्राथमिकता दी थी।
महर्षि दयानन्द की एक विशेषता यह थी कि वे किसी के कन्धे पर चढ़कर आगे नहीं बढ़े थे। अंग्रेजी का एक शब्द भी न जानने के बावजूद हीन-भावना ने आजकल के नेताओं की तरह, उन्हें ग्रसित नहीं किया। अपनी हिन्दी भाषा, सरल व आम जनता की भाषा में उन्होंने 'सत्यार्थप्रकाश' जैसा महान् ग्रन्थ लिखा। इस महान् ग्रन्थ में उन्होंने सबसे पहले अपने हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों पर कड़े से कड़ा प्रहार किया। बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा, महिलाओं की शिक्षा की उपेक्षा, अस्पृश्यता, धर्म के नाम पर पनपे पाखण्ड आदि पर जितने जोरदार ढंग से प्रहार स्वामी जी ने किया, उतना अन्य किसी धार्मिक नेता या आचार्य ने नहीं किया। अपने समाज में व्याप्त गली-सड़ी कुरीतियों पर प्रहार करने के बावजूद स्वामी जी ने राजा राममोहनराय आदि पश्चिम से प्रभावित नेताओं की तरह, वैदिक-धर्म को उन दोषों के लिए दोषी नहीं ठहराया, वरन् स्पष्ट किया कि वैदिक, हिन्दू धर्म सभी प्रकार की बुराइयों व कुरीतियों से ऊपर है, वैदिक धर्म वैज्ञानिक व दोष-मुक्त धर्म है, तथा उसकी तुलना अन्य कोई नहीं कर सकता।

स्वामी जी ने अपने वैदिक धर्म के पुरुरुद्धार के उद्देश्य से आर्य-समाज की स्थापना की। उन्होंने नाम भी आकर्षक व प्रेरक चुना। 'आर्य' अर्थात् श्रेष्ठ समाज इसमें न किसी जाति की संकीर्णता है, न किसी समुदाय की। जो भी आर्य-समाज के व्यापक व मानवमात्र के लिए हितकारी नियमों में विश्वास रखें वहीं आर्यसमाजी 'आर्य-समाज' नाम से दूरदर्शी, व्यापक व संकीर्णता से सर्वथा मुक्त दृष्टि का ही आभास होता है।
स्वामी जी ने स्वदेशी व स्वभाषा पर अभिमान करने की भी देशवासियों को प्रेरणा दी। अंग्रेजी को वे विदेशी अपनी भाषा तथा अपनी वेश-भूषा अपनाने पर बल देते थे। जिन परिवारों में वे ठहरते थे, उनके बच्चों की वेशभूषा पर ध्यान देते थे तथा प्रेरणा भी देते थे कि हमें विदेशों की नकल छोड़कर अपने देश के बने कपड़े पहनने चाहिए, अपना काम-काज 'संस्कृत व हिंदी' में करना चाहिए। गाय को स्वामी जी भारतीय कृषि व्यवस्था का प्रमुख आधार मानते थे। इसीलिए उन्होंने 'गोकरुणानिधि' लिखी तथा गोरक्षा के लिए हस्ताक्षर कराये। वे ग्रामों के उत्थान, किसानों की शिक्षा की ओर ध्यान देना बहुत जरूरी मानते थे।

जाति प्रथा के विरुद्ध चेतावनी

स्वामी जी दूरदर्शी थे। उन्होंने इतिहास का गहन अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला था कि जब तक हिन्दू समाज जन्मना जाति प्रथा की कुरीति में ग्रस्त रहेगा, वह बराबर पिछड़ता जायेगा। इसीलिए उन्होंने 'सत्यार्थप्रकाश' में तथा अपने प्रवचनों में जाति-प्रथा व अस्पृश्यता पर कड़े से कड़ा प्रहार किया। वे दूरदर्शी थे अतः उन्होंने पहले ही यह भविष्यवाणी कर दी थी कि यदि हिन्दू समाज ने जाति-प्रथा व अस्पृश्यता के कारण अपने भाईयों से घृणा नहीं छोड़ी, तो समाज तेजी से बिखरता चला जायेगा जिसका लाभ विधर्मी स्वतः उठायेंगे। उन्होंने यह भी चेतावनी दी थी कि अस्पृश्यता का कलंक हिन्दू धर्म के साथ-साथ देश के लिए भी घातक होगा।
महर्षि की प्रेरणा पर आर्य समाज के नेताओं लाला लाजपतराय, भाई परमानन्द आदि ने अस्पृश्यता के विरुद्ध अभियान चलाया। आर्य समाज ने जन्मना जाति-प्रथा की हानियों से लोगों को समझाने का प्रयास किया। किन्तु आज तो जाति-पाति की भावनाएं धर्म के नाम पर नहीं, 'राजनीतिक मठाधीशों' द्वारा राजनीतिक लाभ की दृष्टि से अपनायी जा रही हैं। आज तो आर्य समाज को इस दिशा में और भी तेजी से सक्रिय होने की जरूरत है।

महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों अथवा आर्य समाज के दस नियमों का पूरी तरह पालन तो बहुत ही निर्भीक, संयमी व तेजस्वी व्यक्ति कर सकता है, परन्तु इस दिशा में मैंने यथासम्भव कुछ-कुछ पालन करने का प्रयास अवश्य किया है।
मैंने सात वर्षों तक निरन्तर गाजियाबाद में वकालत करते समय एक हरिजन को रसोईया रखकर व्यक्तिगत जीवन में जातिगत भावना को जड़-मूल से मिटाने का प्रयास किया। इसके बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री के रूप में प्रदेश की शिक्षा-संस्थाओं के साथ लगने वाले ब्राह्मण, जाट, अग्रवाल, कायस्था आदि जातिवाचक नामों को हटाने का दृढ़ता के साथ कानून बनवाया। मेरे अनेक साथियों ने उस समय कहा कि इससे बहुत लोग नाराज हो जायेंगे। मैंने स्पष्ट उत्तर दिया कि 'नाराज हो जायें, मैं शिक्षा क्षेत्र में जातिगत संकीर्णता कदापि सहन नहीं कर सकता।' जिस दिन मेरे क्षेत्र बड़ौत के 'जाट इण्टर कॉलेज' का नाम बदलकर जाट की जगह 'वैदिक' शब्द जुड़ा, उस दिन मुझे सन्तोष हुआ कि चलो महर्षि के आदेश के पालन करने में मैं कुछ योगदान कर सका। इसी प्रकार अपनी पुत्री तथा धेवती का अन्तर्जातीय विवाह कर मुझे आत्म-सन्तोष तो हुआ ही।

मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि भारत में महर्षि दयानन्द तथा गाँधी के आदर्शों पर चलकर ही सच्चा गौरव प्राप्त किया जा सकता है। दोनों महापुरुष भारत को प्राचीन ऋषियों के समय की सादगी, सच्चाई, न्याय व नैतिकता के गुणों से युक्त भारत बनाने के आकांक्षी थे, 'महर्षि' व 'महात्मा' दोनों ने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्राचीन संस्कृति व धर्म को जीवन में महत्त्व दिया। धर्म के नाम पर किसी भी तरह घुस आयी कुरीतियों पर प्रहार किया। उनका स्पष्ट मत था कि हम विदेशियों का अन्धानुकरण करके भारत का उत्थान कदापि नहीं कर सकते। आज हमें उनसे दिशा ग्रहण कर इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बढ़ना चाहिए।

दीपावली ज्योति पर्व है। इस दिन हम अन्धकार अर्थात् अस्पृश्यता, अनैतिकता, भ्रष्टाचार आदि से ऊपर उठकर प्रकाश के मार्ग पर चलने की प्रेरणा ले सकते हैं। ईमानदारी तथा नैतिकता को अपनाये बिना हम संसार में सम्मान कदापि प्राप्त नहीं कर सकते।

[स्त्रोत- आत्म-शुद्धि-पथ मासिक का मार्च २०२० का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]

Wednesday, June 3, 2020

हैदराबाद संग्राम काल में आर्य समाज ने उभारा था प्रखर आन्दोलन


हैदराबाद संग्राम काल में आर्य समाज ने उभारा था प्रखर आंदोलन

-स्व० वसंत ब० पोतदार

महर्षि दयानंद सरस्वती ने 1875 में आर्य समाज की स्थापना की। उनकी मातृभाषा गुजराती थी, पर उन्होंने हिंदी भाषा का बहुत अध्ययन किया और आर्य समाज का भारत भर में विस्तार किया। हिंदू समाज की दुर्बलताओं को देखकर महर्षि दयानंद सरस्वती बहुत परेशान रहते थे। हिंदुओं की दीनहीन अवस्था देखकर वे बेचैन हो उठते थे। उन्होंने इस श्रद्धा के साथ अपना
काम शुरू किया कि सत्य का प्रभावी प्रकाश देने वाले वैदिक दर्शन के कार्यान्वयन के बिना देश जीवित नहीं रह सकता है। आर्य समाज के कई अनुयायियों और कार्यकर्ताओं को तैयार किया। वैदिक धर्म के प्रचार के लिए, हिंदुओं के मृतप्राय मन को पुनर्जीवित करने के लिए, पूरे भारत में बुद्धिमान, विचारशील और प्रभावी वक्ताओं का एक बहुत बड़ा समूह तैयार किया जो जो सब कुछ बलिदान करने और असीमित कष्ट झेलने के लिए तैयार था। आगे चलकर, इन्हीं तेजस्वी अनुयायियों ने गुरुकुल की स्थापना की। इस संस्था के स्कूलों से, एक आदर्श युवा पीढ़ी का गठन किया गया था। गुरुकुल में शिक्षित एक छात्र पाँच से दस हजार लोगों में अलग और तेजस्वी नजर आता था। उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि वे अपने मजबूत गठीला शरीर, तेजस्वी चेहरा, वाणी में तेज और सामर्थ्य, और देश और वैदिक धर्म के प्रति सम्पूर्ण समर्पण भाव के साथ वे समाज को आसानी से प्रभावित कर पाते थे। गुरुकुल शिक्षा में असामान्य ओजस्वी वक्तृत्व को प्राप्त करना एक बहुत बड़ी विशेषता थी।

आर्य समाज के प्रचार के लिए, गुरुकुल में ज्ञान प्राप्त करने के बाद बाहर निकलने वाले वक्ता अपनी तेजस्वी वाणी से हजारों लोगों को मंत्रमुग्ध करने लगे। इसी कारण से, वैदिक धर्म पूरे भारत में तेजी से फैलने लगा। हैदराबाद राज्य में सन् 1920 में आर्य समाज की स्थापना हुई। अगले दो-तीन सालों में ही व्यवस्थित ढंग से काम करने वाली लगभग दो सौ शाखाएँ खुल गईं। निज़ामी राज्य में हैदराबाद के बै० विनायकराव कोरटकर आर्य समाज के अध्यक्ष थे। बंसीलालजी मुख्यमंत्री थे। उन्होंने उदगीर में अपना मुख्य कार्यालय खोला। उन्होंने “वैदिक संदेश” नामक वृत्तपत्र सोलापुर से प्रकाशित करना शुरू किया। “वैदिक संदेश” को निज़ाम स्टेट में सभी दूर पहुँचाने की व्यवस्था की। यह अत्यंत अनुशासनप्रिय और ध्येयवादी संगठन था। मातृभूमि के प्रति निश्चल प्रेम और अपने धर्म पर प्रगाढ़ निष्ठा, इन दो मानबिंदुओं के लिए हर आर्य समाजी अपनी जान की भी बाजी लगाने को तैयार रहता था। हैदराबाद राज्य के बहुसंख्यक समाज का कोई रखवाला नहीं था। उलटे हिंदुओं को समाप्त करने के लिए खाकसार पार्टी, निज़ाम सेना, इत्तेहादुल संगठन, दीनदार सिद्दीक़ के धर्मप्रचारक अनुयायी, सबने कोहराम मचा रखा था। सब समझ चुके थे कि इन सबका प्रतिकार करने वाला, हिंदुओ का एकमात्र संगठन आर्य समाज ही है। उत्तर भारत से सैंकड़ों आर्य समाजी कार्यकर्ता अपनी जान की परवाह किये बिना, निजाम राज्य में चले आये। विशेषकर मराठवाड़ा में कई आर्य समाजी नेता और कार्यकर्ता निजाम के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार हो गए।

2/9/1929 को “दीनदार सिद्दीक़ पार्टी” नामक इस्लाम धर्म प्रसारक संस्था की स्थापना हैदराबाद राज्य में हुई। दीनदार सिद्दीक़ स्वयं को चन्न बसवेश्वर का अवतार बताते थे, और कहते थे कि भगवान् बसवेश्वर के विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए ही इस्लाम धर्म है। इस प्रकार गुमराह करके दीनदार सिद्दीक़ और उनके अनुयायियों ने हिंदुओं को इस्लाम धर्म में परिवर्तित करना शुरू किया। अपने प्रचार-प्रसार में वे राम और कृष्ण जैसे हिंदुओं के भगवानों का अपमान करते और इस्लाम को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धर्म बताते। 1929 में आर्य समाजी आंदोलन में भी तेज़ी आयी। 1930 में हैदराबाद राज्य के प्रत्येक जिले में आर्य समाज का संगठन खड़ा होने लगा। उद्गीर के भाई बंसीलाल और श्यामलाल, इन दोनों बंधुओं ने राज्य में भरपूर कार्य किया। हिंदु समाज में फैली कमजोरी और हीनभावना को नष्ट कर, उसे पूरे स्वाभिमान और गर्व से जीना आर्य समाज के कार्यकर्ताओं, बै० विनायकरावजी विद्यालंकार, पं० नरेंद्र जी आर्य आदि ने सिखाया। अपने राज्य में आर्य समाज के बढ़ते प्रभाव को देख कर निजाम की वक्रदृष्टि आर्य समाज पर पड़ी। 1935 में निलंगा में सरकार ने अपने गुंडों के माध्यम से एक हवनकुंड और एक आर्य समाज मंदिर ध्वस्त कर दिया। किसी के हाथ में “सत्यार्थ प्रकाश” पुस्तक देखते ही निजामी पुलिस उसे गिरफ्तार कर लेती। निलंगा की घटना से शेषरावजी वाघमारे (पिताजी – आनंद मुनिजी) और उनके सहयोगी कार्यकर्ताओं के क्रोध की सीमा न रही। शेषरावजी निर्भीक, साहसी, संगठन-कुशल और बुद्धिमान नेता थे। उन्होंने इस अत्याचार का बदला लेने के लिए हजारों लोगों को गाँव-गाँव में, शस्त्रों से सुसज्जित आर्य समाज
का संगठन स्थापित करने के लिए प्रेरित किया। भाई बंसीलाल जी, श्याम लाल जी, शेषराव जी, दत्तात्रेय प्रसाद, गोपाल देव शास्त्री आदि आर्य समाजी कार्यकर्ताओं ने गांव-गांव घूम कर हिंदुओं को वैदिक धर्म के ध्वज तले हथियारों समेत एकत्रित किया। अनगिनत गांवों में आर्य समाज मंदिर स्थापित हुए। इत्तेहादुल पार्टी या रजाकार की ओर से आक्रमण होने का कोई भी अंदेशा होता, तो आर्य समाज मंदिर की घंटियां बजने लगती। घंटियों की आवाज सुन घर-घर से पुरुष और 18-20 साल के लड़के लाठियां, कुल्हाड़ी, भाले, बरछियाँ, तलवारें, बंदूके आदि लेकर आर्य समाज मंदिर की ओर दौड़ पड़ते। 5-10 मिनट में ही सभी, पूरे अनुशासित तरीके से मुकाबले के लिए तैयार हो जाते। खाकसार पार्टी, दीनदार सिद्दीक़ पार्टी, इत्तेहादुल संगठन और रज़ाकार के पीछे सरकार थी। इसलिए वे सभी हिंदुओं के खिलाफ बेरोकटोक हिंसा कर रहे थे। हिंदू व्यक्ति यदि किसी रोहिले या पठान को गलती से भी कुछ कह दे तो वे तुरंत पिस्तौल निकाल लेते और जान से मार डालने की धमकी देते।

हिंदुओं के जबरन धर्मांतरण का काम पूरे ज़ोरों से चल रहा था। इस काम को सरकार का पूरा प्रोत्साहन और सहायता थी। सरकार की ओर से इसी काम के लिए तीन सौ से ज्यादा मौलवी वेतन पर रखे गए थे। इस मुहीम को “तबलीत” या “तंज़ीम” कहा जाता था। निजाम ने वेतनभोगी मौलवियों को नियुक्त किया था और हिंदू-मुसलमानों में शांति बनाये रखने के लिए “अमन कमिटियाँ” बनाई थी। ये मौलवी उन कमिटियों में काम करते थे। ये अमन कमिटियाँ सिर्फ दिखावे के लिए थी। ये वेतनभोगी मौलवी अस्पृश्यों की बस्तियों में घूम-घूम कर उन्हें हिंदुओं के खिलाफ बगावत करने के लिए भड़काते थे। ये मौलवी मुस्लिम गुंडों को भी भड़काते। ये गुंडे खुराफात कर के दंगे भड़काते और सरकारी नौकर उनको बचाते। उदाहरण के लिए, तालुका कलंब में अंदुर गाँव में एक खटीक, गाय को काटकर उसका माँस बेचने के लिए बाजार में सड़क पर ही बैठ गया। हिंदुओं ने इस पर आपत्ति ली। उससे कहा – “चाहो तो अपने घर में तुम गोमाँस बेचो, लेकिन यहाँ बीच सड़क पर मत बैठो।” पुलिस हवलदार ने ही फौजदार से उसकी तकरार की। लेकिन फौजदार साहब ने तो हद ही कर दी!! वे खुद उस गाँव में पहुँचे और उस खटीक को सड़क से उठाकर हनुमान मंदिर की चौपाल पर बैठा दिया। हिंदू और क्रोधित हो गए और दंगा भड़कने के आसार नज़र आने लगे। तब फौजदार साहब ने उसे चौपाल से उठाकर मंदिर के सामने बैठा दिया। ऐसे थे वहाँ के सरकारी अधिकारी!!

ऐसी घटनाओं से आर्य समाज के लोग और संगठित होते गए। साथ ही इत्तेहादुल पार्टी और मुस्लिम गुंडे और भी भड़क उठे। 1938 में गुंजोटी में वेदप्रकाश का खून हो गया। वेदप्रकाश की हत्या का समाचार पाते ही भाई बंसीलाल और वीरभद्र जी आर्य तुरंत गुंजोटी पहुँचे। पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। वेदप्रकाश का खून हैदराबाद मुक्ति संग्राम का पहला बलिदान था। उसके बाद भाई श्यामलाल जी को ख़राब खाना और पानी देकर प्रताड़ित किया गया। बीमार होने के बाद भी दवाखाने में नहीं ले जाया गया। अंततः जेल में ही उन्हें जहर देकर मार दिया गया। हैदराबाद राज्य में 1938-39, इन दो सालों में शहर में हजारों की संख्या में आर्य समाजी लोगों ने सत्याग्रह किया। सोलापुर में माधवराव अणे की अध्यक्षता में एक परिषद् आयोजित की गई ताकी इस सत्याग्रह को हिंदुस्तान की जनता का भी समर्थन मिल सके। इस परिषद् में “हैदराबाद विरोध दिवस” मनाने का प्रस्ताव पारित किया गया। सारे हिंदुस्थान भर में “हैदराबाद विरोध दिवस” का माहौल बनने लगा। भारत भर से कई आर्य समाजी सत्याग्रह में भाग लेने के लिए हैदराबाद स्टेट पहुँचने लगे। सोलापुर, राजस्थान, दिल्ली, नागपुर, उत्तर प्रदेश, रावलपिंडी से हजारों कार्यकर्ता हैदराबाद में दाखिल हुए। अनगिनत सत्याग्रहियों को जेलों में ठूंस दिया गया। कईयों को पीटा गया। ख़राब खाना और पानी देने के कारण कई सत्याग्रही बीमार पड़ गए। उसमें भी हद तो तब हो गई, जब इत्तेहादुल संगठन के गुंडे जेलों में घुस कर पुलिस के सामने, सत्याग्रहियों को बेरहमी से मारने-पीटने लगे। इस अत्याचार में एक कार्यकर्ता सदाशिव विश्वनाथ पाठक की 12-08-1939 को हैदराबाद जेल में मृत्यु हो गई। राजस्थान के स्वामी ब्रह्मानंद जी का भी चंचलगुडा जेल में निधन हो गया। दिल्ली के शांति प्रकाश जी की भी हैदराबाद जेल में 27-07-1939 को मृत्यु हो गई। नागपुर के पुरुषोत्तम प्रभाकर की 16-12-1938 को हैदराबाद जेल में, उत्तर प्रदेश के माखन सिंह की 01-07-1939 को हैदराबाद जेल में, रावलपिंडी के पंडित परमानंद जी की 05-04-1939 को हैदराबाद जेल में, उत्तर प्रदेश के स्वामी कल्याणानंद जी की 08-07-1939 को गुलबर्गा जेल में, बैंगलोर के स्वामी सत्यानंद जी को चंचलगुडा जेल में, विष्णु भगवंत अंदुरकर की 02-05-1939 को चंचलगुडा जेल में, व्यंकटराव कंधारकर की 09-04-1939 को निजामाबाद जेल में मृत्यु हुई। कुल 23 लोगों ने इस आंदोलन के दौरान जेल में अपने प्राणों की आहुति दी। उमरी, जिला नांदेड में गणपतराव, गंगाराम और दत्तात्रेय इन तीन आर्य समाजी प्रचारकों को पठानों ने पत्थरों से पीट-पीट कर मार डाला।
1942 में उद्गीर में बै० विनायकराव जी विद्यालंकार की अध्यक्षता में एक परिषद् हुई। इस परिषद् में निजामी पुलिस, रज़ाकारों और अमानवीय अत्याचार करने वाले सभी घटकों को चेतावनी दी गई। तब पुलिस और मुस्लिम संगठनों की ओर से हिंदुओं के घरों और दुकानों पर ज़ोरदार हमले किये गए। हुमनाबाद में एक जुलुस पर पुलिस ने गोलियाँ चलाई जिससे 5 लोग मारे गए। 1943 में निज़ामाबाद में फिर एक बार आर्य समाज की परिषद हुई। आर्य समाज के लिए काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति की देश, धर्म और ध्येय पर निष्ठा और व्यवहार पूरी तरह से अनुशासनपूर्ण था। इस परिषद् में पच्चीस हज़ार सैनिकों का एक दल स्थापित करने का निर्णय हुआ। साथ ही, यह भी निर्णय हुआ कि कई स्थानों पर पाठशालाएँ खोलकर देश से प्रेम करने वाले, निष्ठावान, ऊर्जावान और अनुशासनपूर्ण युवाओं का निर्माण किया जाये। निज़ाम सरकार ने आर्य समाज की दीक्षा ले चुके सरकारी अधिकारी और कर्मचारियों को निकाल देने का फरमान जारी किया। इतना ही नहीं, यहां तक कि अगर कोई सरकारी कर्मचारी किसी आर्य समाजी से बात करता हुआ दिख जाए, तब भी उसे नौकरी से निकाल देने के आदेश जारी कर दिए गए थे। कुल मिलाकर निजाम सरकार का आर्य समाज के लोगों के बारे में अत्यंत सख्त रवैया हो चुका था। लातूर के एक नवविवाहित जोड़े को बार-बार पुलिस थाने में बुलाया जाता था। यह युगल पूरी तरह से त्रस्त हो चुका था। पुलिस की परेशानी से मुक्ति के लिए कोई उनकी मदद करने की स्थिति में नहीं था। ऐसे में किसी ने उन्हें “आर्य समाजी” हो जाने की सलाह दी। वे आर्य समाजी बन गए। आश्चर्य की बात यह कि, सचमुच ही उस दिन के बाद से किसी भी पुलिस वाले ने उन्हें कभी परेशान नहीं किया। उन्हें बुलाने कोई पुलिस का जवान उसके बाद कभी नहीं आया। 1924 में उस्मानाबाद जिले में आर्य समाज की स्थापना की गई। केशवराव कोरटकर,
अघोरनाथ चट्टोपाध्याय, श्रीपादराव सातवलेकर आदि के नेतृत्व में उस्मानाबाद जिले में कई स्थानों पर आर्य समाज का संगठन खड़ा होने लगा। कई स्थानों पर आर्य समाज मंदिर खोले गए। बापूराव मास्टर, रामभाऊ मैंदरकर, तुलजाराम सुरवसे ने मिलकर उस्मानाबाद जिले में आर्य समाज के राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक कामों में अच्छी तेजी लायी। इनके साथ सन्मित्र समाज के दत्तोपंत जिंतूरकर, बलभीमराव हिंगे, ज्ञानराव सालुंके, डांगे, देवीदास मुरूमकर, पुरुषोत्तमराव माशालकर आदि कार्यकर्ताओं ने स्वतंत्रता संग्राम की तैयारी की दृष्टि से एक व्यायामशाला प्रारंभ कर बल की उपासना की शुरु की। महाराष्ट्र समाज के कार्यकर्ता द०या० गणेश, न०प० मालखरे, शंकर नायगांवकर, चंदूलाल गांधी, सुपेकर, जिंतुरकर, आदियों ने गांव-गांव जाकर जनजागृति का कार्य किया और स्वयं सत्याग्रह में भाग लिया। उन्हें सजा भी हुई। इसी दौरान सोलापुर में दयानंद कॉलेज की स्थापना हुई। मराठवाड़ा के लोगों के
लिए सोलापुर, हैदराबाद की तुलना में शिक्षा और आर्थिक दृष्टि से ज्यादा सुलभ था। इसलिए दयानंद कॉलेज में छात्रों की संख्या तेज़ी से बढ़ने लगी। अंग्रेजों और निजामशाही के खिलाफ शुरू किए गए स्वतंत्रता संग्राम के लिए युवकों को प्रेरणा देने का कार्य इसी कॉलेज ने किया। यह बात एक खुल्ला सत्य है। कॉलेज के विद्यार्थी आर्य समाज के विचारों से प्रभावित होकर निजाम के विरुद्ध सत्याग्रह और वंदे मातरम सत्याग्रह में पूरे जोर-शोर से भाग लेने लगे। दयानंद कॉलेज में मराठवाड़ा से आए हुए विद्यार्थियों ने हैदराबाद स्टूडेंट यूनियन की स्थापना की। इस यूनियन के तत्वावधान में कॉलेज प्रांगण में विनायकराव जी विद्यालंकार, पंडित नरेंद्र जी, भाई बंसीलाल जी जैसे आर्य समाज के नेताओं के भाषण होने लगे। गांधी जी के कहने पर “कॉलेज छोड़ो आंदोलन” को उग्र रूप प्राप्त हुआ और विद्यार्थी तेज़ी से कॉलेज छोड़कर जाने लगे। उस्मानाबाद जिले की सीमा पर लगे हर शिविर में दयानंद कॉलेज के विद्यार्थी हर काम में आगे थे। “पहले स्वराज फिर शिक्षा” के अपने ध्येय को हैदराबाद राज्य में फैलाने और हैदराबाद शहर तक पहुंचाने के लिए, दयानंद कॉलेज के विद्यार्थी पहुंचे। कॉलेज के तत्कालीन प्राचार्य श्रीराम शर्मा जी, जो एक विख्यात इतिहासकार थे, ने विद्यार्थियों को देशप्रेम और धर्मप्रेम की शिक्षा तो दी ही, साथ ही अन्याय के विरुद्ध लड़ने की शक्ति भी दी। विद्यार्थियों को निर्भय बनाया। दयानंद कॉलेज क्रांति के लिए शस्त्र और प्रेरणा प्रदान वाला एक असीमित भंडार बन गया था।
हर छोटे-बड़े गांव में आर्य समाज की स्थापना हो चुकी थी और उसका काम बढ़ रहा था। इसके कारण दीनदार सिद्दिक संगठन का प्रभाव कम होने लगा। मुरूम (तालुका उमरगा) में आर्य समाज की स्थापना हुई, तब निजाम ने वहां 200 फौजी जवानों की एक टुकड़ी भेजी तैनात की। फ़ौज की मदद से दीनदार सिद्दीक पार्टी और खाकसार पार्टी अपना कार्य करने लगी। आष्टा (कासार) में सिद्दीकी के भाषण से लोग भड़क उठे, क्योंकि भाषण के पहले सिद्दीक पार्टी के लोग मस्जिद में एक गाय लेकर आये थे। श्याम लाल जी को यह समाचार मिलते ही वे आष्टा (कासार) में पहुंचे। उन्होंने आष्टा (कासार), मुरूम आदि गांव में भाषण देकर हिंदुओं को आर्य समाज की दीक्षा दी और उन्हें यज्ञोपवीत पहनाया। आर्य समाज का आंदोलन हैदराबाद स्टेट की सीमा तक पहुंचा हुआ देखकर निजाम ने फौज का खर्चा भी हिंदुओं पर लाद दिया। इससे असंतोष और भी बढ़ने लगा। सर अकबर हैदरी उस समय निजाम के प्रधान थे। अनंतराव काका (आष्टा कासार), राम पांढरे, और करबसप्पा ब्याले, यह सभी लोग हैदराबाद जाकर हैदरी साहब से मिले। सभी ने मिलकर हैदरी साहब को अनुरोध किया कि यह सारा खर्च हिंदू प्रजा पर लादना अन्यायपूर्ण है और उसे हटा दिया जाए। तब हैदरी साहब ने यह खर्च हिंदुओं और मुसलमानों पर एक समान कर दिया। लेकिन प्रजा के द्वारा फ़ौज का खर्च उठाना अन्यायपूर्ण ही था और यह चलता रहा। सोलापुर से प्रकाशित होने वाले “वैदिक संदेश” और “सुदर्शन”, इन दो आर्य समाजी मुखपत्रों के माध्यम से, संग्राम की सारी जानकारी, आगामी कार्यक्रम और सूचनाएं लोगों तक पहुंचने लगे। “वैदिक संदेश” ने तो “निजाम सरकार के काले कानून” नामक पुस्तक भी प्रकाशित की। हैदराबाद स्टेट में उस्मानाबाद जिले के कुल 13 लोगों पर भाषण और लेख लिखने पर प्रतिबंध लगाया गया था। इन 13 लोगों के नाम पूरे राज्य में जारी किए गए थे। इस सूची में राम पांढरे (मुरुम) का भी नाम था। इन 13 व्यक्तियों को “नागवार बागी” करार दे कर निज़ाम सरकार ने नोटिस भेजी थी। हुतात्मा रामा मांग तावशी, ता० लोहारा (पायगा) में रामा मांग नामक व्यक्ति ने आर्य समाज की दीक्षा ली थी।

1932 में तावशी में एक हिंदू मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाने की कोशिश की जा रही थी, तब क्रोधित आर्य समाजी लोगों ने मस्जिद के चबूतरे को तोड़ दिया। फिर तावशी के रज़ाकार, आसपास के गांव में जाकर दो ट्रक भरकर सशस्त्र पठान और अरबी लोगों को बुलाकर लाये। ये सभी – “अब देखते हैं, किसमें हिम्मत है हमें रोकने की?” और “अल्ला हू अकबर” चिल्लाते हुए मंदिर को तोड़ने के लिए निकले। इतने सारे सशस्त्र पठानों और अरबों को देखकर सभी हिंदू चुपचाप खड़े रहे। लेकिन तभी जोर से आवाज आयी – “मैं तैयार हूं.... तुम लोगों से मुकाबला करने के लिए!! मंदिर की एक ईट को भी किसी ने हाथ लगाया, तो एक-एक के सर काट दूंगा!!” यह आवाज़ थी, रामा मांग की!! वह अकेला ही था, लेकिन बहुत बलशाली था। रामा को आगे आते हुए देखकर एक पठान ने उस पर गोली चलाई। गोली उसकी जांघ में घुस गई। उसी अवस्था में रामा मांग अरबों और पठानों की भीड़ पर टूट पड़ा। पहले ही झटके में उसने चार पठान और एक अरब को नरक पहुँचा दिया। एक पठान के हाथ से बंदूक छीन कर उसने चार और पठानों और एक अरब के सर फोड़ दिए। एक पठान के हाथ का तमंचा उसने छीन लिया। रामा मांग का वो आवेश देखकर, पठानों और अरबों ने वहाँ से भाग जाने में ही अपनी भलाई समझी। लोग रामा मांग को तुलजापुर ले गए और फिर वहां से उसे उस्मानाबाद ले जाया गया। जांघ में लगी गोली के कारण अत्यधिक रक्त बह गया था और वह बेहोश हो गया था। अंततः उस्मानाबाद के अस्पताल में उसकी मृत्यु हो गई।

आर्य समाज की एक शाखा के अध्यक्ष माणिकराव पर गुंडों ने हमला कर उन्हें जख्मी कर दिया। 27 अक्टूबर 1938 को अस्पताल में उनका निधन हो गया। पुलिस ने उनके शव को उनके घरवालों को देने से इंकार कर दिया। तब आर्य समाजी युवकों ने इसके विरोध में जुलूस निकाला। पुलिस ने पं० देवीलाल और अन्य 20 आर्य समाजी कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया।

इस प्रकार निजाम ने हर तरह से आर्य समाजी कार्यकर्ताओं पर अत्याचार किए। आर्य समाज पर निजाम को अत्यंत क्रोध था। हिंदुओं का संगठन करने वाले आर्य समाज के आंदोलन को कुचलने के लिए उसने हर संभव मार्ग अपनाया। लेकिन उसकी प्रतिक्रिया आर्य समाज की शाखाएं दुगनी होने में नजर आने लगी। आर्य समाज ने न केवल हिंदुओं का संगठन किया, बल्कि जन्मजात मुसलमानों को भी वैदिक पद्धति से दीक्षा देकर उनका शुद्धिकरण का कार्य अत्यंत द्रुतगति से जारी रखा। अनेक अस्पृश्यों को आर्य समाज में स्थान देकर उनके मन में हिंदूधर्म और हिंदूराष्ट्र के प्रति प्रेम और स्वाभिमान पैदा किया। आर्य समाज द्वारा हैदराबाद स्टेट में किया गया यह कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण और बहुमूल्य है। आर्य समाज संगठन के कारण ही हैदराबाद स्टेट कांग्रेस मजबूती से खड़ी हो सकी।

[मराठी ग्रंथ- “हैदराबाद स्वातंत्र्य संग्राम” से साभार]
[हिंदी अनुवाद- अमोल दामले, पुणे]