Saturday, April 27, 2019

वेद और ऋषि दयानन्द



वेद और ऋषि दयानन्द

पं० मदनमोहन विद्यासागर

[जब हम 'वेद' को भूलकर अपने को भुला चुके थे तब ऋषिवर दयानन्द ने लुप्त ज्ञान भंडार 'वेद' पुनः संसार को दिया, इसके लिए मानव-जाति सदा ऋषि की ऋणी रहेगी। इस लेख के लेखक पं० मदनमोहन विद्यासागर जी ने ऋषि दयानन्द जी के मत से वेद की महत्ता का वर्णन किया है, पाठक इस ऐतिहासिक लेख का स्वाध्याय करके लाभ उठायें। -डॉ० सुरेन्द्रकुमार]

आर्ष वाङ्मय की ऐसी मान्यता है कि सृष्टि के बनते समय, 'कविर्मनीषी', सृष्टिकर्त्ता परमात्मा ने जनमात्र के लिए 'कल्याणी वेदवाणी' का विधान किया। उन्हें अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा, इन चार ऋषियों के हृदय में स्थापित किया; हृद्यज्ञैरादधे (ऋग्)। इन चार ऋषियों से वेदप्रचार प्रारम्भ हुआ।
इनसे वेद चतुष्टय के ज्ञान को प्राप्त करके 'ब्रह्मा' नामक सर्वप्रथम वैदिक विद्वान् ने (ब्रह्मा देवानां प्रथम: सम्बभूव) वेदों के नियमित पठन-पाठन की परिपाटी चलाई।

इसके बाद मनु महाराज ने वेदों के सिद्धान्तों के अनुसार समाज-शास्त्र का विधान किया और 'मानव धर्मशास्त्र'- मानव धर्म संहिता या 'मनुस्मृति' की रचना की। इसमें विशेष बात यह थी कि वेदों के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था सुचारू रूप से प्रचालित की। अध्यापन का कार्य केवल 'ब्राह्मणों' को सौंपा।
कालचक्र घूमा और ज्यों-ज्यों नये-नये ग्रन्थ, ब्राह्मण, उपनिषद् आदि बनने लगे, त्यों-त्यों 'वेद' का अध्ययन कम होने लगा। पुराणकारों की दृष्टि में 'वय:' और बुद्धि में क्षीणता होने लगी। तब महर्षि वेदव्यास ने उस 'एक ही वेद ज्ञान को, जो विषय भेद से चार संहिताओं में विभक्त था तथा रचना भेद से तीन प्रकार का था, अध्ययन-अध्यापन की नई परिपाटी चलाई। वह यह कि एक-एक वेद का विशेष अध्ययन प्रारम्भ कराया। परिणामतः वेदी, द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी इस प्रकार के अध्येता प्रारम्भ हो गये। इस प्रकार वेदों की रक्षा हुई।'
वेदव्यास के बाद श्री शंकर श्री कुमारिल भट्ट के समय तक कोई विशेष प्रयत्न वेदों के पठन-पाठन को सुसंगठित करने का नहीं हुआ। दौर्भाग्य से ज्ञानमार्गी श्री शंकर ने भी मूल वेदों की उपेक्षा की और अपने सारे कार्य का आधार उपनिषदें और पुराण रखे। ऐसे ही कर्मकाण्डी यज्ञिकों ने अपने कार्यों का आधार ब्राह्मण ग्रन्थ रखे थे। परिणामतः वेदों के प्रति उदासीनता रही।
उसके बाद श्री विद्यारण्य मुनि और सायणाचार्य ने वेदभाष्य करके वेदों की सुरक्षा का एक प्रयत्न किया। किया तो वेदों का भाष्य, (गीता + उपनिषद् + ब्रह्मसूत्र का नहीं) पर अद्वैत मतानुसार तथा यज्ञपद्धति को स्वीकारते हुए। दार्शनिक दृष्टि से श्री सायण शंकर के अनुयायी दिखते हैं और वेदार्थ करने में यज्ञिक सम्प्रदायानुगामी।
इस बीच वेद के सम्बन्ध में एक आन्दोलन चला था, वह था बुध और महावीर का। दोनों ने इनके नाश का प्रयत्न किया।

इसके बाद ऋषि दयानन्द (१९वीं शती) के प्रादुर्भाव तक कोई उल्लेखनीय प्रयत्न वेदों के सम्बन्ध में नहीं हुआ। श्री राजा राममोहनराय ने वेदों की सर्वथा उपेक्षा की। ब्रिटिश राज होने पर यूरोप में जो संस्कृत और वेदों के सम्बन्ध में वृद्धि और अध्ययन प्रारम्भ हुए, उनका मुख्य उद्देश्य वेदों के सिद्धान्तों को इस प्रकार से विकृत और दूषित करके जनता के सामने रखना था कि इनके सम्बन्ध में घृणा का वातावरण पैदा हो और ईसाइयत की ओर झुकाव हो। इनका मुखिया था, मैक्समूलर।
अकस्मात् एक तेजस्वी महान् नक्षत्र विद्याकाश में चमका वह था ऋषि दयानन्द। उसने वेदों का उद्धार किया। विश्व के सामने उसके सच्चे स्वरूप को रखा, जो शुद्ध वैज्ञानिक था, अन्तर्मानववाद का पोषक था।
हमें ऋषि के वेद विषयक दृष्टिकोण को समझना चाहिये। आपने अपने ग्रन्थों में वेद के सम्बन्ध में बहुत कुछ लिखा है। ऋषि के समय भारत के विद्वानों में कुछ भ्रम थे। जैसे कि ब्राह्मण (उपनिषद् आरण्यक) भी वेद ही हैं, वेदों के पढ़ने का अधिकार स्त्री, शूद्र को नहीं है, वेद चतुष्टय कर्मकाण्ड के ग्रन्थ हैं आदि-आदि। पाश्चात्य विद्वानों ने कुछ भ्रम फैलाये थे। जैसे कि वेद ईसा से कुछ सौ वर्ष पहले बने हैं, पहले तीन 'वेद' थे, अथर्ववेद पीछे से जोड़ा गया, अथर्ववेद में जादू-टोना है आदि-आदि। ऋषि दयानन्द ने इन सबका खण्डन किया। साथ ही श्री सायण, उव्वट, महीधर आदि के विकृत भाष्यों का सप्रमाण खण्डन कर वेद का शुद्ध स्वरूप विश्व के सामने रखा। नीचे उनके ग्रन्थों से वेद-विषय में ऋषि के विचारों को सक्रम उपस्थित किया जाता है।

ज्ञान का आदिस्रोत, स्वतःप्रमाण वेद

"ऋग्, यजु:, साम, अथर्व नाम से प्रसिद्ध जो ईश्वरोक्त सत्य विद्याधर्मयुक्त वेदचतुष्टय (संहिता मात्र मन्त्रभाग) है, वह निर्भ्रान्त नित्य स्वतः प्रमाण (ऋ. भू. ७७) हैं।" इसके प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा नहीं। इससे मनुष्यों को सत्यासत्य का ज्ञान होता है, ये सत्यार्थप्रकाशक हैं (ऋ. भू. ६९८)। सूर्य व प्रदीप के स्वरूपतः स्वतः प्रकाशक व अन्य पृथिवी आदि पदार्थों के प्रकाशक होने की तरह ये स्वयं प्रमाणस्वरूप हैं (स्व. म. २, आ. उ. र. ६५, स. प्र. ७ स. २६६, ऋ. भू. ६८९, ऋ. भू. ७७, स. प्र. ८४-८५, ऋ. द. पत्र. विज्ञा. २११-२१२,२१८)। क्योंकि-

(१) उनमें प्रतिपादित सब सिद्धान्त सार्वभौम, सार्वजनिक और सर्वकालिक हैं। वे किसी देश काल विशेष में मानव जाति के किसी विशिष्ट समुदाय के निमित्त प्रकाशित नहीं किए गए (स. प्र. २६६, ७ समु.)।
(२) मनुष्य के सर्वतोमुख विकास के साधनों के द्योतक हैं।
(३) इनमें वर्णित कोई भी सिद्धान्त, बुद्धि विज्ञान व अनुभव के विरुद्ध नहीं। ये पक्षपातशून्य भ्रान्तिरहित ज्ञान का प्रतिपादन करते हैं (भ्रान्तिनि. शता. सं. ८७७)। वेदोक्त सब बातें विद्या से अविरुद्ध हैं (स. प्र. अनुभू. ३६३)।
(४) इनमें सृष्टिक्रम, प्रत्यक्षादि प्रमाण, आप्त और पवित्रात्मा के व्यवहार से विरुद्ध कोई कथन नहीं (स. प्र., ऋ. भू.)।
(५) इनमें ईश्वर के गुण कर्म स्वभाव के अनुकूल वर्णन है (स. प्र. २६०, ७ समु.)।
(६) सृष्टि के आरम्भ से लेके आज पर्यन्त ब्रह्मा, मनु, व्यास, जैमिनी, दयानन्द आदि भी आप्त होते आये हैं, वे सब वेदों को नित्य सर्वविद्यामय अर्थात् सब विद्याओं के बीज और प्रामाणिक मानते चले आये हैं।

भारत भूमि में रचित वेद भिन्न साहित्य आर्ष (ऋषि प्रणीत, आप्तोपदिष्ट) व अनार्ष (स्वार्थी धूर्त्तजन विरचित) दो प्रकार का है। (ब्रह्मा-मनु, जैमिनी से लेकर दयानन्द ऋषि पर्यन्त) अप्तोपदिष्ट (वेदों के व्याख्यान रूप) आर्षग्रन्थों का आर्ष परम्परानुसार वेदानुकूलतया ही प्रमाण है। ये सब ग्रन्थ पौरुषेय होने से परतः प्रमाण हैं। इनमें यदि कहीं वेद-विरुद्ध वचन हैं, तो वे अप्रमाण हैं (स्व. म. २, स. प्र. ८४, ३ समु., ऋ. द. प. व्य. वि. १ प. सं. २४, ४२, भ्रमो. शताब्दी सं. ८५८, ऋ. भू. ५९)।

मान्य ग्रन्थ- सबसे अधिक प्रामाणिक और मानने योग्य धर्मशास्त्र तो चार वेद हैं, उनके विरुद्ध वचन चाहे किसी भी पुस्तक में पाये जायें वे मनाने योग्य नहीं हो सकते। वेद-बाह्य कुत्सित पुरुषों के ग्रन्थ त्याज्य हैं। वेद सत्य अर्थ का प्रतिपादक है अतः ब्रह्मा, मनु, जैमिनी, याज्ञवल्क्य से लेकर दयानन्द महर्षि पर्यन्त का मत है कि वेद विरुद्ध को न मानना और वेदानुकूल ही का आचरण करना धर्म है (स. प्र. ४१९, ११ समु., भ्रमोच्छे. ५५८-५६०, ऋ. भू. ७३, ऋ. द. प. व्य. वि. १ प. सं. १६-१७)।

प्रक्षेप

समय-समय पर पुराने ऋषियों के नाम से स्वार्थान्ध लोगों ने आर्ष ग्रन्थों में बहुत प्रक्षेप के दिये हैं, बहुत भाग निकाल भी दिये हैं और मिथ्यावादों से पूर्ण नये ग्रन्थ रच डाले हैं। इन प्रक्षिप्त भागों व ऐसे कपोलकल्पित अनर्थगाथा युक्त नवीन ग्रन्थों का त्यागना ही श्रेष्ठ है (ऋ. भू. ६९८, स. प्र. ८४३, ७ समु., स. प्र. ३५१, ११ समु.)। ब्रह्मवैवर्त्तादि अष्टादश पुराण विषमिश्रित अन्नवत् त्याज्य हैं।
एतद्भिन्न (आर्ष व आप्तोपदिष्ट) विश्वसाहित्य को सृष्टि के आरम्भ में पढ़ने और पढ़ाने की कुछ भी व्यवस्था नहीं थी और न कोई विद्या का ग्रन्थ ही था, इसलिये ईश्वर का वेदों का ज्ञान देना आवश्यक था।
यह ईश्वर की विद्या है। विद्या का गुण स्वार्थ और परार्थ दोनों सिद्ध करता है। परमेश्वर हमारे माता-पिता के समान हैं, हम उसकी प्रजा हैं। वह हम पर नित्य कृपा दृष्टि रखता है, सदैव करुणा धारण करता है कि सब प्रकार से हम सुख पावें। इससे ही उसने वेदों का उपदेश हमें दिया है और अपनी विद्या के परोपकार गुण की सफलता सिद्ध की है। जो परमेश्वर अपनी वेद विद्या का उपदेश मनुष्यों के लिये न करता तो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि किसी को यथावत् प्राप्त न होती, उसके बिना परम आनन्द भी किसी को न होता। जैसे उस परम कृपालु ईश्वर ने प्रजा के सुख के लिये कन्द-मूल फल और घास आदि छोटे-छोटे भी पदार्थ रचे हैं, वैसे ही सब सुखों का प्रकाश करने वाली, सब सत्य विद्याओं से युक्त वेद विद्या का उपदेश भी प्रजा के सुख के लिये वह क्यों न करता?

परतःप्रमाण
(वैदिक साहित्य अथवा आर्ष-वाङ्मय)

चारों वेदों के ४ ब्राह्मण, ६ अङ्ग, ६ उपांङ्ग, चार उपवेद और ग्यारह सौ सत्ताइस (११२७) वेदों की शाखायें जो कि वेदों के व्याख्यान रूप ब्रह्मादि महर्षियों के बनाये ग्रन्थ हैं, वे परतः प्रमाण अर्थात् वेदों के अनुकूल होने से प्रमाण और जो इनमें वेद विरुद्ध वचन हैं, वे अप्रमाण हैं, (स्व. म. २)। (ऐसे ग्रन्थों का परिगणन स. प्र. ३ समु. तथा ऋ. भू. ३८९ में द्रष्टव्य है) जो कोई मनुष्य वेद और वेदानुकूल आप्त ग्रन्थों का अपमान करे, उसको श्रेष्ठ लोग जातिबाह्य कर दें। क्योंकि जो वेद की निन्दा करता है, वही नास्तिक कहाता है (स. प्र. १० स., ३४४) तथा द्र. उप. म.१०-१५६ पृ. से आगे।
पुराण- जो ब्रह्मादि के बनाये प्राचीन ऐतरेय, शतपथ, गोपथ और ताण्ड्य ब्राह्मण आदि ऋषि-मुनिकृत सत्यार्थ पुस्तक हैं, उन्हीं को पुराण, इतिहास, कल्प, गाथा और नाराशंसी कहते हैं, अन्य भागवतादि को नहीं (स्व. म. २३, आ. उ. र. ९६, ऋ. भू. ६८९, स. प्र. ३ समु. ८६) ये प्राचीन सत्य ग्रन्थ वेदों के अर्थ और इतिहासादि से युक्त बनाये गये हैं, परतः प्रमाण के योग्य हैं (ऋ. भू. ६९०)।
उपवेद- जो आयुर्वेद= वैद्यकशास्त्र, धनुर्वेद= शस्त्रास्त्र सम्बन्धी राजविद्या-राजधर्म, गान्धर्ववेद= गानविद्या और अर्थवेद= शिल्पशास्त्र हैं, इन चारों को उपवेद कहते हैं और ये भी वेदानुकूल होने से ही प्रमाण हैं (आ. उ. र. ९६, ऋ. भू. ६९०, स. प्र. ३ समु.)।
वेदाङ्ग- जो शिक्षा= पाणिन्यादिमुनिकृत, कल्प= मन्वादिकृत, मानव= कल्पसूत्रादि तथा आश्वलायनादिकृत श्रौत सूत्रादि, व्याकरण= पाणिनि मुनिकृत अष्टाध्यायी, धातुपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ और पतञ्जलि मुनिकृत महाभाष्य, ऋषि-दयानन्द कृत वेदांगप्रकाश, निरुक्त= यास्कमुनि कृत निरुक्त और निघण्टु, छन्द= पिङ्गलाचार्य कृत सूत्र भाष्य, ज्योतिष= वसिष्ठादि ऋषिकृत रेखागणित और बीजगणित युक्त ज्योतिष। ये छ: आर्ष सनातन शास्त्र हैं, इनको वेदांग कहते हैं। ये भी परत: प्रमाण के योग्य हैं (आ. उ. र. ९८, ऋ. भू. ६९२)।
उपांग= जिनका नाम षट्शास्त्र भी है। पहला- मीमांसा शास्त्र= व्यास मुनि आदिकृत भाष्यसहित, जैमिनी मुनिकृत पूर्व मीमांसा शास्त्र, जिसमें कर्मकाण्ड का विधान और धर्म तथा धर्मी दो पदार्थों से सब पदार्थों की व्याख्या की है। दूसरा- वैशेषिक शास्त्र= यह विशेषतया धर्म-धर्मी का विधायक शास्त्र है, जो कि कणादमुनिकृत सूत्र और प्रशस्तपाद भाष्यादि व्याख्या सहित है। तीसरा- न्याय शास्त्र= यह पदार्थविद्या का विधायक शास्त्र है, जो कि गौतम मुनि कृत सूत्र और वात्स्यायनमुनि कृत भाष्य सहित है। चौथा- योगशास्त्र= जिसके द्वारा उन पदार्थों का साक्षात् ज्ञान होता है, जिनका मीमांसा, वैशेषिक तथा न्यायशास्त्र से श्रवण तथा मनन के द्वारा आनुमानिक निश्चय होता है, जो पतंजलि मुनिकृत सूत्र और व्यास मुनिकृत भाष्य सहित है। पाँचवा- सांख्यशास्त्र= जिसके द्वारा प्रकृति आदि तत्त्वों की गणना होती है और उनका आत्मा से विवेक-ज्ञान होता है। जो कपिलमुनिकृत सूत्र और भागुरिमुनिकृत भाष्यसहित है। छठा- वैदिकशास्त्र= जो कि ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य और बृहदारण्यक ये दश उपनिषद् तथा व्यासमुनिकृत सूत्र जो कि बौधायनवृत्त्यादि व्याख्यासहित हैं। ये छ: वेदों के उपांग कहाते हैं और ये भी परतः प्रमाण के योग्य हैं (आ. उ. र. ९९, ऋ. भू. ६९२-६९३, स. प्र. ३ समु.)।
स्मृति= वेदानुकूल आप्तोक्त मनुस्मृत्यादि शास्त्र (स. प्र. ६२, ३ समु. - २१२, षष्ठ समु., स. प्र. ३४४, १० समु. + स. प्र. ४ स. १५२, ३ स - ८५) द्र. उप. मं. ८-१२९-१३०। यह मनुस्मृति सृष्टि के आदि में बनी है (स. प्र. ११ समु.)।
अन्य आर्ष ग्रन्थ- वेदोद्धारक सत्यधर्म प्रचारक योगीश्वर परमहंस महर्षि दयानन्द विरचित समस्त ग्रन्थ भी सत्यार्थ के प्रकाशक होने से और वेदानुकूल होने से परत: प्रमाण के योग्य हैं। इनमें से सत्यार्थप्रकाश सर्वाधिक मान्य पुस्तक है, विश्वविद्याओं का भण्डार है, सन्मार्ग प्रदर्शक है।

वेदों के चार काण्ड

वेदों का मुख्य तात्पर्य परमेश्वर ही के प्राप्त कराने और प्रतिपादित करने में है (स. प्र. ८३, ऋ. भू. २१०)। इस लोक और परलोक के व्यवहारों के फलों की सिद्धि और यथावत् उपकार करने के लिए सब मनुष्यों को वेदों के विज्ञान, कर्म, उपासना और ज्ञान इन चार विषयों के अनुष्ठान में पुरुषार्थ करना (ऋ. भू. २६१) चाहिये। क्योंकि इससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि होती है और यही मनुष्य-देह धारण करने का फल है (ऋ. भू. ९८-९९, १४३)। उ. उप. मं. ४- पृ. ३९, यहां तीन काण्ड लिखे हैं।

(१) विज्ञान काण्ड- उसको कहते हैं कि सब पदार्थों का यथार्थ जानना अर्थात् परमेश्वर से लेके तृणपर्यन्त पदार्थों का साक्षात् बोध होना और उनसे यथावत् उपयोग लेना व करना। यह विषय इन चारों में भी प्रधान है, क्योंकि इसी में वेदों का मुख्य तात्पर्य है। परिणामतः विज्ञान दो प्रकार का है-
(क) परमेश्वर का यथावत् ज्ञान और उसकी आज्ञा का बराबर पालन करना।
(ख) उसके रचे हुए सब पदार्थों (=प्राकृतिक वस्तुओं) के गुणों को यथावत् विचार करके उनसे कार्य सिद्ध करना अर्थात् कौन-कौन से पदार्थ किस-किस प्रयोजन के लिए रचे हैं, इसका जानना।

(२) कर्मकाण्ड- यह सब क्रिया प्रधान ही होता है। इसके बिना विद्याभ्यास और ज्ञान पूर्ण नहीं हो सकते। क्योंकि बाह्य व्यवहार तथा मानस व्यवहार का सम्बन्ध बाहर और भीतर दोनों के साथ होता है (ऋ. भू. १००-१०२, १४१)। वह अनेक प्रकार का है, किन्तु उसके दो मुख्य भेद हैं-
एक- परमार्थ भाग। इससे परमार्थ की सिद्धि करनी होती है। इसमें ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना, उसकी आज्ञा पालन करना, न्यायाचरण अर्थात् धर्म का ज्ञान और अनुष्ठान यथावत् करना। मनुष्य इसके द्वारा मोक्ष-प्राप्ति में प्रवृत्त होता है।
जब मोक्ष अर्थात् केवल परमेश्वर की ही प्राप्ति के लिए धर्म से युक्त सब कर्मों का यथावत् पालन किया जाय तो यही निष्काम मार्ग है, क्योंकि इसमें संसार के भोगों की कामना नहीं की जाती। इसका फल सुखरूप और अक्षय होता है।
दूसरा मार्ग- लोकव्यवहार सिद्धि। इससे धर्म के द्वारा अर्थ, काम और उनकी सिद्धि करने वाले साधनों की प्राप्ति होती है। यह सकाम मार्ग है, क्योंकि इसमें संसार के भोगों की इच्छा से, धर्मानुसार अर्थ और काम का सम्पादन किया जाता है। इसलिए इसका फल नाशवान् होता है, जन्म-मरण का चक्र छूटता नहीं।
अग्निहोत्र से ले के अश्वमेध (राष्ट्रसेवा, राष्ट्रपालन, देश-रक्षण, राष्ट्र-समृद्धि, राष्ट्रविस्तार) पर्यन्त यज्ञ आदि इसके अन्तर्गत हैं।
विहित और निषिद्ध रूप में कर्म दो प्रकार के होते हैं। वेद में कर्त्तव्यरूप से प्रतिपादित ब्रह्मचर्य सत्यभाषणादि विहित हैं, वेद में अकर्त्तव्यरूप से निर्दिष्ट व्यभिचार, हिंसा, मिथ्याभाषणादि निषिद्ध हैं। विहित का अनुष्ठान करना धर्म, उसका न करना अधर्म और निषिद्ध का करना अधर्म और न करना धर्म हैं (स. प्र. ४१७, ११ समु.)

(३) उपासना काण्ड- जैसे ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, उनको वैसा जान अपने को वैसा करना, योगाभ्यास द्वारा इनका साक्षात् करना, जिससे परमेश्वर के ही आनन्दस्वरूप में अपने आत्मा को मग्न करना होता है, उसको उपासना कहते हैं।
यह कोई यान्त्रिक व ज्ञानरहित क्रिया नहीं, जैसे बिना समझे किसी शब्द का या वाक्य का बार-बार जप करना।

(४) ज्ञान काण्ड- वस्तुओं के साधारण परिचय को ज्ञान कहते हैं (स. प्र. ४४, २ समु.)
(क) उपासना- काण्ड, ज्ञान-काण्ड तथा कर्मकाण्ड के निष्काम भाग में भी परमेश्वर ही इष्टदेव, स्तुति, प्रार्थना, पूजा और उपासना करने के योग्य है। कर्मकाण्ड के निष्काम भाग में तो सीधे परमात्मा की प्राप्ति की ही प्रार्थना की जाती है परन्तु उसके सकाम भाग में अभीष्ट विषय के भोग की प्राप्ति के लिये परमात्मा की प्रार्थना की जाती है।

अपरा विद्या, परा विद्या

वेदों में दो विद्या हैं अपरा और परा। जिससे पृथिवी और तृण से ले के प्रकृति, जीव और ब्रह्मपर्यन्त सब पदार्थों के गुणों के ज्ञान से ठीक-ठीक कार्य सिद्ध करना होता है वह 'अपरा' और जिससे सर्वशक्तिमान् ब्रह्म की प्राप्ति होती है वह 'परा' विद्या है। इनमें 'परा' विद्या 'अपरा' विद्या से अत्यन्त उत्तम है, क्योंकि 'अपरा' विद्या का ही उत्तम फल 'परा' विद्या है।

धर्मशास्त्र

वस्तुतः ये ईश्वरोक्त सत्यविद्यामय चारों वेद ही सब मनुष्यों के पवित्र आदि धर्मग्रन्थ और सच्चे विद्या पुस्तक (आ. वि. ४०, ऋ. भू. ७९७) (और सर्वोच्च धर्मशास्त्र ग्र. क.) हैं। इनकी शिक्षाओं पर आचरण करना मनुष्य मात्र का परम कर्त्तव्य है। 'ईश्वर की आज्ञा है कि विद्वान् लोग देश-देश और घर-घर जाके सब मनुष्यों को इनकी सत्यविद्या का उपदेश करें (ऋ. भू. ६६१)।' क्योंकि जो ग्रन्थ सत्यविद्याओं के प्रतिपादक हों, जिनसे मनुष्यों को सत्य-शिक्षा और सत्यासत्य का ज्ञान होता हो, ऐसे शास्त्रों के स्वाध्याय एवं तदनुकूल आचरण से शरीर, मन, आत्मा शुद्ध होते हैं (आ. उ. र. ९४)।

सत्यासत्य के निर्णायक साधन

धर्माधर्म के ज्ञान अर्थात् सत्यासत्य के निर्णय के लिए चार साधन हैं।
१. सबसे मुख्य वेद (अर्थात् श्रुति), ये ईश्वरकृत होने से स्वतः प्रमाण हैं।
२. दूसरा स्मृति अर्थात् वेदानुकूल आप्तोक्त मनुस्मृत्यादि (स. प्र. १०, स. ३४४) धर्मशास्त्र, इनका प्रमाण वेदाधीन है, वेद के साथ विरोध होने पर ये अप्रमाण ठहरते हैं।
३. तीसरा सदाचार अर्थात् सज्जन धर्मात्मा आप्तजनों का सृष्टि के आदि से चला आ रहा वेदोक्त आचरण (=सनातन अर्थात् वेद द्वारा परमेश्वर प्रतिपादित कर्म (स. प्र. ३ स. , ६२) धर्मानुरागी पूर्वजों का धर्म शिक्षानूकूल बर्त्ताव। उप. मं. ९/१४३ तथा १२/१८०)। जो सत्पुरुष हो चुके हैं, उन्हीं का अनुकरण मनुष्य लोग करें (य. आ. भा. १२/११)।
४. चौथा अपने आत्मा का साक्षित्व (=प्रियता) है, अर्थात् जिसको आत्मा चाहता है, जैसा कि सत्य भाषण (स. प्र. ६२-६४, ३ स., ११ स., ५०३, ऋ. भू. २१४)।
ऊपर मुख्य-मुख्य विषयों पर ऋषि दयानन्द का अभिप्राय लिखा है। वेदार्थ कितने प्रकार है, वेदार्थ के मुख्य साधन, ऋषि, देवता, छन्द, स्वर आदि के सम्बन्ध में ऋषि का अपना स्पष्ट मत है। -आर्योदय, वेदांक, मार्च १९६६ से साभार

[स्त्रोत- परोपकारी : महर्षि दयानन्द सरस्वती की उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा का मुखपत्र का अप्रैल द्वितीय २०१९ का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]

Tuesday, April 23, 2019

वैदिक संस्कृत के उपासक:महात्मा प्रेमभिक्षु जी


वैदिक संस्कृत के उपासक:महात्मा प्रेमभिक्षु जी

डॉ विवेक आर्य

(25 अप्रैल पुण्यतिथि के अवसर पर प्रकाशित)

निष्ठावान प्रचारक, कार्यकर्ता, लेखक वह पत्रकार श्री ईश्वारीप्रसाद प्रेम/ महात्मा प्रेमभिक्षु जी का जन्म मथुरा के करवै (देवनगर) में श्रवण कृष्णा 9 सम्वत 1981 विक्रमी को हुआ था। आपके पिता श्री पुरुषोत्तमदास जी निष्ठावान आर्यसमाजी थे। आपने ऍम.ए, साहित्यरत्न तथा सिद्धांत शास्त्री तक शिक्षा प्राप्त की थी। आप बालकाल से ही आर्यसमाज मथुरा में जाने लगे। 1942 में आप आर्यसमाज तिलकद्वार मथुरा के सदस्य बने। 1949 से 1958 तक मथुरा जिला आर्य उपप्रतिनिधि सभा के मंत्री रहे। 1954 में तपोभूमि मासिक पत्रिका का आपने प्रकाशन आरम्भ किया। जो आज भी प्रकाशित हो रहा है। 1960 में आपने विरजानन्द वैदिक साधना आश्रम की स्थापना की तथा इसके माध्यम से वैदिक परिवार निर्माण तथा वैदिक प्रचारक निर्माण का कार्य आपने किया। 1976 में आपने वानप्रस्थ आश्रम की दीक्षा ग्रहण कर महात्मा प्रेमभिक्षु नाम ग्रहण किया। आप वैदिक सिद्धांतों का अडिगता से पालन करने वाले थे। आप पञ्च महायज्ञ पर विशेष श्रद्धा रखते थे। ईश्वर स्तुति प्रार्थना उपासना एवं अग्निहोत्र कर्म में आपकी विशेष रूचि थी। यही कारण था कि आप अपने पुत्र की समय मृत्यु पर भी धैर्य रखते हुए विचलित नहीं हुए। आपको गायत्री परिवार के संस्थापक श्री राम शर्मा ने अनेक प्रलोभन दिए गए। पर आप उनके किसी प्रलोभन में न आकर उनके द्वारा प्रोत्साहित किये जा रहे पाखंडों का खंडन करने में सत्य वैदिक धर्म के मंडन में लगे रहे। आपका पूरा जीवन वैदिक धर्म के सिद्धांतों के प्रचार प्रसार के लिए समर्पित रहा। महात्मा जी जैसे ऋषि दयानन्द के प्रचारकों को हम उनकी पुण्यतिथि पर नमन करते हैं।

आपने अपनी लेखनी से वैदिक सिद्धांतों का वृहद् स्तर पर प्रचार प्रसार किया। आपके द्वारा लिखी/सम्पादित पुस्तकें इस प्रकार हैं।

१. शुद्ध रामायण का सम्पादन
२. शुद्ध महाभारत
३. मानस पियूष - रामचरितमानस का संक्षिप्त संस्करण
४. सुमंगली- वैदिक विवाह पद्यति
५. रामायण एक सरल अध्ययन
६. नित्यक्रम विधि
७. दादी-पोती की बातें
८. गायत्री गौरव
९. विषपान-अमृतदान
१०. वैदिक स्वर्ग की झांकियां
११. योगदर्शन का संपादन
१२. पारवारिक कहानियां
१३. संगीत रत्नाकर का संपादन
१४. राष्ट्र निर्माण गीतांजलि
१५. अध्यात्म गीतांजलि
१६. शिव गीतांजलि
१७. परवचंद्रिका
१८. शुद्ध हनुमनचरित
१९. शुद्ध सत्यनारायण कथा
२०. महाभारत एक सरल अध्ययन
२१. शुद्ध मनुस्मृति
२२. भारतवर्ष का शुद्ध इतिहास
२३. चार मित्रों की बातें
२४. बोध कथाएं
२५. आर्यसमाज और मानव निर्माण
२६. श्री कृष्ण सन्देश
२७. रामायण काल
२८. रामभक्ति रहस्य
२९. बाल शिक्षा
३०. यज्ञमय जीवन-सात मन्त्रों की व्याख्या
३१. आचार्य श्री राम शर्मा-एक सरल चिंतन
३२. दयानन्द स्मृति ग्रन्थ का संपादन
आदि

आचार्य जी द्वारा रचित पुस्तकों को आप सत्य प्रकाशन, आचार्य प्रेमभिक्षु मार्ग, मसानी चौराहा, मथुरा से प्राप्त कर सकते है। संपर्कसूत्र- 05652406431, 9759804182

Thursday, April 11, 2019

Science In Vedas



Science In Vedas
Vedic knowledge is a form of Pure science. Read few mantras from Vedas which speaks about Science in Vedas.
MOTION OF EARTH
Rig Veda 10.22.14
“This earth is devoid of hands and legs, yet it moves ahead. All the objects over the earth also move with it. It moves around the sun.
In this mantra,
Kshaa = Earth (refer Nigantu 1.1)
Ahastaa = without hands
Apadee = without legs
Vardhat = moves ahead
Shushnam Pari = Around the sun
Pradakshinit = revolves
Rig Veda 10.149.1
“The sun has tied Earth and other planets through attraction and moves them around itself as if a trainer moves newly trained horses around itself holding their reins.”
In this mantra,
Savita = Sun
Yantraih = through reins
Prithiveem = Earth
Aramnaat = Ties
Dyaam Andahat = Other planets in sky as well
Atoorte = Unbreakable
Baddham = Holds
Ashwam Iv Adhukshat = Like horses
GRAVITATIONAL FORCE
Rig Veda 8.12.28
“O Indra! by putting forth your mighty rays, which possess the qualities of gravitation and attraction-illumination and motion – keep up the netire universe in order through the Power of your attraction.”
Rig Veda 1.6.5, Rig Veda 8.12.30
“O God, You have created this Sun. You possess infinite power. You are upholding the sun and other spheres and render them steadfast by your power of attraction.
Yajur Veda 33.43
“The sun moves in its own orbit in space taking along with itself the mortal bodies like earth through force of attraction.”
Rig Veda 1.35.9
“The sun moves in its own orbit but holding earth and other heavenly bodies in a manner that they do not collide with each other through force of attraction.
Rig Veda 1.164.13
“Sun moves in its orbit which itself is moving. Earth and other bodies move around sun due to force of attraction, because sun is heavier than them.
Atharva Veda 4.11.1
“The sun has held the earth and other planets”
LIGHT OF MOON
Rig Veda 1.84.15
“The moving moon always receives a ray of light from sun”
Rig Veda 10.85.9
“Moon decided to marry. Day and Night attended its wedding. And sun gifted his daughter “Sun ray” to Moon.”
ECLIPSE
Rig Veda 5.40.5
“O Sun! When you are blocked by the one whom you gifted your own light (moon), then earth gets scared by sudden darkness.”
SCIENCE OF TELEGRAPHY
Rig Veda 1.119.10
“With the help of bipolar forces (Asvins), you should employ telegraphic apparatus made of good conductor of electricity. It is necessary for efficient military operations but should be used with caution.”
Source-Facebook

Tuesday, April 9, 2019

देश में बस रहे बंगलादेशी और रोहिंग्या मुसलमान की समस्या



सलंग्न चित्र-रोहिंग्या मुस्लिम

देश में बस रहे बंगलादेशी और रोहिंग्या मुसलमान की समस्या
डॉ विवेक आर्य
चुनावी माहौल है। राजनीतिक दल दुकानों पर लगने वाली सेल के समान रेवड़ियां बाँट रहे है। मगर देश में बस रहे बंगला देशी और रोहिंग्या मुसलमान की समस्या को लेकर गंभीरता जो दिखनी चाहिए। वह नहीं दिख रही है। केवल आसाम में इस समस्या को लेकर कुछ प्रयास हुए है। पर उसका भी संतोषजनक परिणाम आना बाकि है। असम में घुसपैठ के खिलाफ चले आंदोलन के कारण 1981 के बाद घुसपैठिये असम की बजाय प.बंगाल और उत्तर प्रदेश में जाकर बसने लगे। 1981 से 1991 के बीच राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम जनसंख्या वृद्धिदर 32.90 प्रतिशत थी पर प. बंगाल के जलपाईगुड़ी जिला में यह 45.12 प्रतिशत, दार्जिलिंग जिला में 58.55 प्रतिशत, कोलकाता जिला में 53.75 प्रतिशत तथा मेदनीपुर जिला में 53.17 प्रतिशत थी। पश्चिम बंगाल की ही तरह उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जिला में यह 46.77 प्रतिशत, मुजफ्फरनगर जिला में 50.14 प्रतिशत, गाजियाबाद जिला में 46.68, अलीगढ़ 45.61, बरेली में 50.13 प्रतिशत तथा हरदोई जिला में 40.14 प्रतिशत थी। सबसे आश्चर्यजनक उप्र का सीतापुर जिला, जहां मुस्लिम जनसंख्या प्रतिशत 129.66 प्रतिशत था।
1991 से 2011 के बीच राष्ट्रीय स्तर पर जनसंख्या वृद्धि दर 44.39 प्रतिशत, हिंदू वृद्धि दर 40.51 प्रतिशत तो मुस्लिम जनसंख्या वृद्धिदर 69.53 प्रतिशत थी, पर अरुणाचल में मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर 126.84 प्रतिशत, मेघालय में 112.06, मिजोरम में 226.84, सिक्किम में 156.35, दिल्ली में 142.64, चण्डीगढ़ में 194.36 तथा हरियाणा में 133.22 प्रतिशत थी। मुस्लिम जनसंख्या में हुई यह अप्रत्याशित वृद्धि इस बात का प्रमाण है कि बांग्लादेश और म्यांमार से मुस्लिम घुसपैठिये भारतीय राज्यों में बस रहे हैं। 1961 में देश की जनसंख्या में मुस्लिम जनसंख्या 10.7 प्रतिशत थी, जो 2011 में बढ़कर 14.22 प्रतिशत हो गई है। यानी 50 वर्ष में मुस्लिम जनसंख्या में 3.52 प्रतिशत की वृद्धि तब हुई है जबकि इसमें घुसपैठियों को भी शामिल किया गया है। इसी दौर में प. बंगाल में मुस्लिम जनसंख्या 20 प्रतिशत से बढ़कर 27.01 प्रतिशत, तो बिहार के पूर्णिया, किशनगंज, अररिया और कटिहार जिला में 37.61 प्रतिशत से बढ़कर 45.93 प्रतिशत हो गई है।
जैसे ही यह मुद्दा उठता है। वामदल, तृणमूल कांग्रेस से लेकर शहरी नक्सली आदि यथासंभव शोर मचाने लगते हैं। उन्हें लगता है कि अवैध शरणार्थी उनके वोट बैंक हैं। यह सत्य है कि अनेक नेताओं ने अवैध शरणार्थियों के राशन कार्ड ,आधार कार्ड एवं वोटर कार्ड बनवाकर उन्हें देश में बसाने के लिए पुरजोर प्रयास किया हैं। इन लोगों ने देश को सराय बना डाला हैं क्यूंकि ये लोग केवल तात्कालिक लाभ अपनी कुर्सी के लिए केवल तात्कालिक लाभ देखते है। भविष्य में यही अवैध शरणार्थी एकमुश्त वोट-बैंक बनकर इन्हीं नेताओं की नाक में दम कर देंगे। इससे भी विकट समस्या यह है कि बढ़ती मुस्लिम जनसँख्या भारत के गैर मुसलमानों के भविष्य को लेकर भी एक बड़ी चुनौती उपस्थित करेगी। क्यूंकि इस्लामिक सामाज्यवाद की मुहीम के तहत जनसँख्या समीकरण के साथ मुसलमानों का गैर मुसलमानों के साथ व्यवहार में व्यापक परिवर्तन हो जाता हैं।
2005 में समाजशास्त्री डा. पीटर हैमंड ने गहरे शोध के बाद इस्लाम धर्म के मानने वालों की दुनियाभर में प्रवृत्ति पर एक पुस्तक लिखी, जिसका शीर्षक है ‘स्लेवरी, टैररिज्म एंड इस्लाम-द हिस्टोरिकल रूट्स एंड कंटेम्पररी थ्रैट’। इसके साथ ही ‘द हज’के लेखक लियोन यूरिस ने भी इस विषय पर अपनी पुस्तक में विस्तार से प्रकाश डाला है। जो तथ्य निकल करआए हैं, वे न सिर्फ चौंकाने वाले हैं, बल्कि चिंताजनक हैं।
उपरोक्त शोध ग्रंथों के अनुसार जब तक मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश-प्रदेश क्षेत्र में लगभग 2 प्रतिशत के आसपास होती है, तब वे एकदम शांतिप्रिय, कानूनपसंद अल्पसंख्यक बन कर रहते हैं और किसी को विशेष शिकायत का मौका नहीं देते। जैसे अमरीका में वे (0.6 प्रतिशत) हैं, आस्ट्रेलिया में 1.5, कनाडा में 1.9, चीन में 1.8, इटली में 1.5 और नॉर्वे में मुसलमानों की संख्या 1.8 प्रतिशत है। इसलिए यहां मुसलमानों से किसी को कोई परेशानी नहीं है।
जब मुसलमानों की जनसंख्या 2 से 5 प्रतिशत के बीच तक पहुंच जाती है, तब वे अन्य धर्मावलंबियों में अपना धर्मप्रचार शुरू कर देते हैं। जैसा कि डेनमार्क, जर्मनी, ब्रिटेन, स्पेन और थाईलैंड में जहां क्रमश: 2, 3.7, 2.7, 4 और 4.6 प्रतिशत मुसलमान हैं।
जब मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश या क्षेत्र में 5 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब वे अपने अनुपात के हिसाब से अन्य धर्मावलंबियों पर दबाव बढ़ाने लगते हैं और अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करने लगते हैं। उदाहरण के लिए वे सरकारों और शॉपिंग मॉल पर ‘हलाल’ का मांस रखने का दबाव बनाने लगते हैं, वे कहते हैं कि ‘हलाल’ का मांस न खाने से उनकी धार्मिक मान्यताएं प्रभावित होती हैं। इस कदम से कई पश्चिमी देशों में खाद्य वस्तुओं के बाजार में मुसलमानों की तगड़ी पैठ बन गई है। उन्होंने कई देशों के सुपरमार्कीट के मालिकों पर दबाव डालकर उनके यहां ‘हलाल’ का मांस रखने को बाध्य किया। दुकानदार भी धंधे को देखते हुए उनका कहा मान लेते हैं।
इस तरह अधिक जनसंख्या होने का फैक्टर यहां से मजबूत होना शुरू हो जाता है, जिन देशों में ऐसा हो चुका है, वे फ्रांस, फिलीपींस, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड, त्रिनिदाद और टोबैगो हैं। इन देशों में मुसलमानों की संख्या क्रमश: 5 से 8 फीसदी तक है। इस स्थिति पर पहुंचकर मुसलमान उन देशों की सरकारों पर यह दबाव बनाने लगते हैं कि उन्हें उनके क्षेत्रों में शरीयत कानून (इस्लामिक कानून) के मुताबिक चलने दिया जाए। दरअसल, उनका अंतिम लक्ष्य तो यही है कि समूचा विश्व शरीयत कानून के हिसाब से चले।
जब मुस्लिम जनसंख्या किसी देश में 10 प्रतिशत से अधिक हो जाती है, तब वे उस देश, प्रदेश, राज्य, क्षेत्र विशेष में कानून-व्यवस्था के लिए परेशानी पैदा करना शुरू कर देते हैं, शिकायतें करना शुरू कर देते हैं, उनकी ‘आॢथक परिस्थिति’ का रोना लेकर बैठ जाते हैं, छोटी-छोटी बातों को सहिष्णुता से लेने की बजाय दंगे, तोड़-फोड़ आदि पर उतर आते हैं, चाहे वह फ्रांस के दंगे हों डेनमार्क का कार्टून विवाद हो या फिर एम्सटर्डम में कारों का जलाना हो, हरेक विवादको समझबूझ, बातचीत से खत्म करने की बजाय खामख्वाह और गहरा किया जाता है। ऐसा गुयाना (मुसलमान 10 प्रतिशत), इसराईल (16 प्रतिशत), केन्या (11 प्रतिशत), रूस (15 प्रतिशत) में हो चुका है।
जब किसी क्षेत्र में मुसलमानों की संख्या 20 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है तब विभिन्न ‘सैनिक शाखाएं’ जेहाद के नारे लगाने लगती हैं, असहिष्णुता और धार्मिक हत्याओं का दौर शुरू हो जाता है, जैसा इथियोपिया (मुसलमान 32.8 प्रतिशत) और भारत (मुसलमान 22 प्रतिशत) में अक्सर देखा जाता है। मुसलमानों की जनसंख्या के 40 प्रतिशत के स्तर से ऊपर पहुंच जाने पर बड़ी संख्या में सामूहिक हत्याएं, आतंकवादी कार्रवाइयां आदि चलने लगती हैं। जैसा बोस्निया (मुसलमान 40 प्रतिशत), चाड (मुसलमान 54.2 प्रतिशत) और लेबनान (मुसलमान 59 प्रतिशत) में देखा गया है। शोधकत्र्ता और लेखक डा. पीटर हैमंड बताते हैं कि जब किसी देश में मुसलमानों की जनसंख्या 60 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब अन्य धर्मावलंबियों का ‘जातीय सफाया’ शुरू किया जाता है (उदाहरण भारत का कश्मीर), जबरिया मुस्लिम बनाना, अन्य धर्मों के धार्मिक स्थल तोडऩा, जजिया जैसा कोई अन्य कर वसूलना आदि किया जाता है। जैसे अल्बानिया (मुसलमान 70 प्रतिशत), कतर (मुसलमान 78 प्रतिशत) व सूडान (मुसलमान 75 प्रतिशत) में देखा गया है।
किसी देश में जब मुसलमान बाकी आबादी का 80 प्रतिशत हो जाते हैं, तो उस देश में सत्ता या शासन प्रायोजित जातीय सफाई की जाती है। अन्य धर्मों के अल्पसंख्यकों को उनके मूल नागरिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है। सभी प्रकार के हथकंडे अपनाकर जनसंख्या को 100 प्रतिशत तक ले जाने का लक्ष्य रखा जाता है। जैसे बंगलादेश (मुसलमान 83 प्रतिशत), मिस्र (90 प्रतिशत), गाजापट्टी (98 प्रतिशत), ईरान (98 प्रतिशत), ईराक (97 प्रतिशत), जोर्डन (93 प्रतिशत), मोरक्को (98 प्रतिशत), पाकिस्तान (97 प्रतिशत), सीरिया (90 प्रतिशत) व संयुक्त अरब अमीरात (96 प्रतिशत) में देखा जा रहा है।
यह आकड़ें सब कुछ स्पष्ट कर रहे हैं।
विकास, गरीबी हटाओ, शिक्षा, नौकरी, स्वास्थ्य , सेना, व्यापार,GST जैसे मुद्दों पर राजनीतिक दल से लेकर मीडिया अनेक प्रकार के चिंतन और मंथन करते दीखते हैं। मगर बंगलादेशी और रोहिंग्या मुसलमान की इस अति महत्वपूर्ण समस्या पर यथोचित कदम उठाने वाली दृढ़ 9राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए खतरा बनकर उभरेगा। इसमें मुझे कोई शंका नहीं हैं।

Sunday, April 7, 2019

कश्मीर का इस्लामीकरण: हिन्दुओं को सीख



कश्मीर का इस्लामीकरण: हिन्दुओं को सीख

डॉ विवेक आर्य

कश्मीर: शैव संस्कृति के ध्वजावाहक एवं प्राचीन काल से ऋषि कश्यप की धरती कश्मीर आज मुस्लिम बहुल विवादित प्रान्त के रूप में जाना जाता हैं। 1947 के बाद से धरती पर जन्नत सी शांति के लिए प्रसिद्द यह प्रान्त आज कभी शांत नहीं रहा। इसका मुख्य कारण पिछले 700 वर्षों में घटित कुछ घटनाएँ हैं जिनका परिणाम कश्मीर का इस्लामीकरण होना हैं। कश्मीर में सबसे पहले इस्लाम स्वीकार करने वाला राजा रिंचन था। 1301 ई. में कश्मीर के राजसिंहासन पर सहदेव नामक शासक विराजमान हुआ। कश्मीर में बाहरी तत्वों ने जिस प्रकार अस्त व्यस्तता फैला रखी थी, उसे सहदेव रोकने में पूर्णत: असफल रहा। इसी समय कश्मीर में लद्दाख का राजकुमार रिंचन आया, वह अपने पैत्रक राज्य से विद्रोही होकर यहां आया था। यह संयोग की बात थी कि इसी समय यहां एक मुस्लिम सरदार शाहमीर स्वात (तुर्किस्तान) से आया था। कश्मीर के राजा सहदेव ने बिना विचार किये और बिना उनकी सत्यनिष्ठा की परीक्षा लिए इन दोनों विदेशियों को प्रशासन में महत्वपूर्ण दायित्व सौंप दिये। यह सहदेव की अदूरदर्शिता थी, जिसके परिणाम आगे चलकर उसी के लिए घातक सिद्ध हुए। तातार सेनापति डुलचू ने 70,000 शक्तिशाली सैनिकों सहित कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। अपने राज्य को क्रूर आक्रामक की दया पर छोडक़र सहदेव किश्तवाड़ की ओर भाग गया। डुलचू ने हत्याकांड का आदेश दे दिया। हजारों लोग मार डाले गये।कितनी भयानक परिस्थितियों में राजा ने जनता को छोड़ दिया था, यह इस उद्घरण से स्पष्ट हो गया। राजा की अकर्मण्यता और प्रमाद के कारण हजारों लाखों की संख्या में हिंदू लोगों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ गया। जनता की स्थिति दयनीय थी। राजतरंगिणी में उल्लेख है-‘जब हुलचू वहां से चला गया, तो गिरफ्तारी से बचे कश्मीरी लोग अपने गुप्त स्थानों से इस प्रकार बाहर निकले, जैसे चूहे अपने बिलों से बाहर आते हैं। जब राक्षस डुलचू द्वारा फैलाई गयी हिंसा रूकी तो पुत्र को पिता न मिला और पिता को पुत्र से वंचित होना पड़ा, भाई भाई से न मिल पाया। कश्मीर सृष्टि से पहले वाला क्षेत्र बन गया। एक ऐसा विस्तृत क्षेत्र जहां घास ही घास थी और खाद्य सामग्री न थी।

इस अराजकता का सहदेव के मंत्री रामचंद्र ने लाभ उठाया और वह शासक बन बैठा। परंतु रिंचन भी इस अवसर का लाभ उठाने से नही चूका। जिस स्वामी ने उसे शरण दी थी उसके राज्य को हड़पने का दानव उसके हृदय में भी उभर आया और भारी उत्पात मचाने लगा। रिंचन जब अपने घर से ही बागी होकर आया था, तो उससे दूसरे के घर शांत बैठे रहने की अपेक्षा भला कैसे की जा सकती थी? उसके मस्तिष्क में विद्रोह का परंपरागत कीटाणु उभर आया, उसने रामचंद्र के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। रामचंद्र ने जब देखा कि रिंचन के हृदय में पाप हिलोरें मार रहा है, और उसके कारण अब उसके स्वयं के जीवन को भी संकट है तो वह राजधानी छोडक़र लोहर के दुर्ग में जा छिपा। रिंचन को पता था कि शत्रु को जीवित छोडऩा कितना घातक सिद्ध हो सकता है? इसलिए उसने बड़ी सावधानी से काम किया और अपने कुछ सैनिकों को गुप्त वेश में रामचंद्र को ढूंढने के लिए भेजा। जब रामचंद्र मिल गया तो उसने रामचंद्र से कहलवाया कि रिंचन समझौता चाहता है। वार्तालाप आरंभ हुआ तो छल करते हुए रिंचन ने रामचंद्र की हत्या करा दी। इस प्रकार कश्मीर पर रिंचन का अधिकार हो गया। यह घटना 1320 की है। उसने रामचंद्र की पुत्री कोटा रानी से विवाह कर लिया था। इस प्रकार वह कश्मीर का राजा बनकर अपना राज्य कार्य चलाने लगा। कहते है कि अपने पिता के हत्यारे से विवाह करने के पीछे कोटा रानी का मुख्य उद्देश्य उसके विचार परिवर्तन कर कश्मीर की रक्षा करना था। धीरे धीरे रिंचन उदास रहने लगा। उसे लगा कि उसने जो किया वह ठीक नहीं था। उसके कश्मीर के शैवों के सबसे बड़े धर्मगुरु देवास्वामी के समक्ष हिन्दू बनने का आग्रह किया। देवास्वामी ने इतिहास की सबसे भयंकर भूल की और बुद्ध मत से सम्बंधित रिंचन को हिन्दू समाज का अंग बनाने से मना कर दिया। रिंचन के लिए पंडितों ने जो परिस्थितियां उत्पन्न की थी, वे बहुत ही अपमानजनक थी। जिससे उसे असीम वेदना और संताप ने घेर लिया। देवास्वामी की अदूरदर्शिता ने मुस्लिम मंत्री शमशीर को मौका दे दिया। उसने रिंचन को सलाह दी की अगले दिन प्रात: आपको जो भी धर्मगुरु मिले। आप उसका मत स्वीकार कर लेना। अगले दिन रिंचन जैसे ही सैर को निकला, उसे मुस्लिम सूफी बुलबुल शाह अजान देते मिला। रिंचन को अंतत: अपनी दुविधा का समाधान मिल गया। उससे इस्लाम में दीक्षित होने का आग्रह करने लगा। बुलबुलशाह ने गर्म लोहा देखकर तुरंत चोट मारी और एक घायल पक्षी को सहला कर अपने यहां आश्रय दे दिया। रिंचन ने भी बुलबुल शाह का हृदय से स्वागत किया। इस घटना के पश्चात कश्मीर का इस्लामीकरण आरम्भ हुआ जो लगातार 500 वर्षों तक अत्याचार, हत्या, धर्मान्तरण आदि के रूप में सामने आया।

यह अपच का रोग यही नहीं रुका। कालांतर में महाराज गुलाब सिंह के पुत्र महाराज रणबीर सिंह गद्दी पर बैठे। रणबीर सिंह द्वारा धर्मार्थ ट्रस्ट की स्थापना कर हिन्दू संस्कृति को प्रोत्साहन दिया। राजा के विचारों से प्रभावित होकर राजौरी पुंछ के राजपूत मुसलमान और कश्मीर के कुछ मुसलमान राजा के समक्ष आवदेन करने आये कि उन्हें मूल हिन्दू धर्म में फिर से स्वीकार कर लिया जाये। राजा ने अपने पंडितों से उन्हें वापिस मिलाने के लिया पूछा तो उन्होंने स्पष्ट मना कर दिया। एक पंडित तो राजा के विरोध में यह कहकर झेलम में कूद गया की राजा ने अगर उसकी बात नहीं मानी तो वह आत्मदाह कर लेगा। राजा को ब्रह्महत्या का दोष लगेगा। राजा को मज़बूरी वश अपने निर्णय को वापिस लेना पड़ा। जिन संकीर्ण सोच वाले पंडितों ने रिंचन को स्वीकार न करके कश्मीर को 500 वर्षों तक इस्लामिक शासकों के पैरों तले रुंदवाया था। उन्हीं ने बाकि बचे हिन्दू कश्मीरियों को रुंदवाने के लिए छोड़ दिया। इसका परिणाम आज तक कश्मीरी पंडित भुगत रहे हैं।

विडंबना यह है कि आज भी हिन्दू समाज अपने पूर्वजों द्वारा की गई गलतियों से कोई सीख नहीं ले रहा। जैसे कश्मीर में गैर हिन्दुओं का इस्लामीकरण हो गया। आज केरल, असम, बंगाल भी उसी राह पर चल रहे है। न हिन्दुओं में एकता है। न संगठन। न कोई दूरगामी नीति। अधिकांश हिन्दू समाज जातिवाद में विभाजित हैं। बचा हुआ धन के भोग में लीन। किसे पड़ी है धर्म, देश और संस्कृति की रक्षा की। अभी भी समय है। जागो। 

Friday, April 5, 2019

कश्मीर से केरल: सर से लेकर पैर तक एकसमान चुनौती




सलंग्न चित्र- केरल में एक रैली में मुस्लिम लीग समर्थक

कश्मीर से केरल: सर से लेकर पैर तक एकसमान चुनौती
डॉ विवेक आर्य
आजकल केरल का वायनाड चर्चा में है. उत्तर भारत में रहने वाले लोगों को यह संभवत प्रथम बार ज्ञात हुआ कि केरल में एक ऐसा भूभाग है जहाँ पर अहिन्दू (मुस्लिम +ईसाई) जनसँख्या हिन्दुओं से अधिक हैं। बहुत कम हिन्दुओं को यह ज्ञात होगा कि उत्तरी केरल के कोझिकोड, मल्लपुरम और वायनाड के इलाके दशकों पहले ही हिन्दू अल्पसंख्यक हो चुके थे। इस भूभाग में हिन्दू आबादी कैसे अल्पसंख्यक हुई? इसके लिए केरल के इतिहास को जानना आवश्यक हैं।
1. केरल में इस्लाम का आगमन अरब से आने वाले नाविकों के माध्यम से हुआ। केरल के राजपरिवार ने अरबी नाविकों की शारीरिक क्षमता और नाविक गुणों को देखते हुए उन्हें केरल में बसने के लिए प्रोत्साहित किया। यहाँ तक की ज़मोरियन राजा ने स्थानीय मलयाली महिलाओं के उनके साथ विवाह करवाए। इन्हीं मुस्लिम नाविकों और स्थनीय महिलाओं की संतान मपिल्ला/ मापला/मोपला अर्थात भांजा कहलाई। ज़मोरियन राजा ने दरबार में अरबी नाविकों को यथोचित स्थान भी दिया। मुसलमानों ने बड़ी संख्या में राजा की सेना में नौकरी करना आरम्भ कर दिया। स्थानीय हिन्दू राजाओं द्वारा अरबी लोगों को हर प्रकार का सहयोग दिया गया। कालांतर में केरल के हिन्दू राजा चेरुमन ने भारत की पहले मस्जिद केरल में बनवाई। इस प्रकार से केरल के इस भूभाग में मुसलमानों की संख्या में वृद्धि का आरम्भ हुआ। उस काल में यह भूभाग समुद्री व्यापार का बड़ा केंद्र बन गया।
2. केरल के इस भूभाग पर जब वास्को दी गमा ने आक्रमण किया तो उसकी गरजती तोपों के समक्ष राजा ने उससे संधि कर ली। इससे समुद्री व्यापार पर पुर्तगालियों का कब्ज़ा हो गया और मोपला मुसलमानों का एकाधिकार समाप्त हो गया। स्थानीय राजा के द्वारा संरक्षित मोपला उनसे दूर होते चले गए। व्यापारी के स्थान पर छोटे मछुआरे आदि का कार्य करने लगे। उनका सामाजिक दर्जा भी कमतर हो गया। उनकी आबादी मुलत तटीय और ग्रामीण क्षेत्रों में निर्धनता में जीने लगी।
3. केरल के इस भूभाग पर जब टीपू सुल्तान की जिहादी फौजों ने आक्रमण किया तब स्थानीय मोपला मुसलमानों ने टीपू सुल्तान का साथ दिया। उन्होंने हिन्दुओं पर टीपू के साथ मिलकर कहर बरपाया। यह इस्लामिक साम्राज्यवाद की मूलभावना का पालन करना था। जिसके अंतर्गत एक मुसलमान का कर्त्तव्य दूसरे मुसलमान की इस्लाम के नाम पर सदा सहयोग करना नैतिक कर्त्तव्य हैं। चाहे वह किसी भी देश, भूभाग, स्थिति आदि में क्यों न हो। टीपू की फौजों ने बलात हिन्दुओं का कत्लेआम, मतांतरण, बलात्कार आदि किया। टीपू के दक्षिण के आलमगीर बनने के सपने को पूरा करने के लिए यह सब कवायद थी। इससे इस भूभाग में बड़ी संख्या में हिन्दुओं की जनसंख्या में गिरावट हुई। मुसलमानों के संख्या में भारी वृद्धि हुई क्यूंकि बड़ी संख्या में हिन्दू केरल के दूसरे भागों में विस्थापित हो गए।
4. अंग्रेजी काल में टीपू के हारने के बाद अंग्रेजों का इस क्षेत्र पर अधिपत्य हो गया। मोपला मुसलमान अशिक्षित और गरीब तो था। पर उसकी इस्लाम के प्रचार प्रसार के उद्देश्य को वह भूला नहीं था। 1919 में महात्मा गाँधी द्वारा तुर्की के खलीफा की सल्तनत को बचाने के लिए मुसलमानों के विशुद्ध आंदोलन को भारत के स्वाधीनता संग्राम के साथ नत्थी कर दिया गया। उनका मानना था कि इस सहयोग के बदले मुसलमान भारतीय स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेजों के खिलाफ उनका साथ देंगे। गाँधी जी के आह्वान पर हिन्दू सेठों ने दिल खोलकर धन दिया, हिन्दुओं ने जेलें भरी, लाठियां खाई। मगर खिलाफत के एक अन्य पक्ष को वह कभी देख नहीं पाए। इस आंदोलन ने मुसलमानों को पूरे देश में संगठित कर दिया। इसका परिणाम यह निकला कि इस्लामिक साम्राज्यवाद के लक्ष्य की पूर्ति में उन्हें अंग्रेजों के साथ साथ हिन्दू भी रूकावट दिखने लगे। 1921 में इस मानसिकता को परिणीति मोपला दंगों के रूप में सामने आयी। मोपला मुसलमानों के एक अलीम के यह घोषणा कर दी कि उसे जन्नत के दरवाजे खुले नजर आ रहे हैं। जो आज के दिन दीन की खिदमत में शहीद होगा वह सीधा जन्नत जायेगा। जो काफ़िर को हलाक करेगा वह गाज़ी कहलायेगा। एक गाज़ी को कभी दोज़ख का मुख नहीं देखना पड़ेगा। उसके आहवान पर मोपला भूखे भेड़ियों के समान हिन्दुओं की बस्तियों पर टूट पड़े। टीपू सुल्तान के समय किये गए अत्याचार फिर से दोहराये गए। अनेक मंदिरों को भ्रष्ट किया गया। हिन्दुओं को बलात मुसलमान बनाया गया, उनकी चोटियां काट दी गई। उनकी सुन्नत कर दी गई। मुस्लिम पोशाक पहना कर उन्हें कलमा जबरन पढ़वाया गया। जिसने इंकार किया उसकी गर्दन उतार दी गई। ध्यान दीजिये कि इस अत्याचार को इतिहासकारों ने अंग्रेजी राज के प्रति रोष के रूप में चित्रित किया हैं जबकि यह मज़हबी दंगा था। 2021 में इस दंगे के 100 वर्ष पूरे होंगे। अंग्रेजों ने कालांतर में दोषियों को पकड़ कर दण्डित किया मगर तब तक हिन्दुओं की व्यापक क्षति हो चुकी । ऐसे में जब हिन्दु समाज की सुध लेने वाला कोई नहीं था। तब उत्तर भारत से उस काल की सबसे जीवंत संस्था आर्यसमाज के कार्यकर्ता लाहौर से उठकर केरल आये। उन्होंने सहायता डिपों खोलकर हिन्दुओं के लिए भोजन का प्रबंध किया। सैकड़ों की संख्या में बलात मुसलमान बनाये गए हिन्दुओं को शुद्ध किया गया। आर्यसमाज के कार्य को समस्त हिन्दू समाज ने सराहा। विडंबना देखिये अंग्रेजों की कार्यवाही में जो मोपला दंगाई मारे गए अथवा जेल गए थे उनके कालांतर में केरल की कम्युनिस्ट सरकार ने क्रांतिकारी घोषित कर दिया। एक जिहादी दंगे को भारत के स्वाधीनता संग्राम के विरुद्ध संघर्ष के रूप में चित्रित कर मोपला दंगाइयों की पेंशन बांध दी गई। कम्युनिस्टों ने यह कुतर्क दिया कि मोपला मुसलमानों ने अंग्रेजों का साथ देने धनी हिन्दू जमींदारों और उनके निर्धन कर्मचारियों को दण्डित किया था। कम्युनिस्टों के इस कदम से मोपला मुसलमानों को 1947 के बाद खुली छूट मिली। मोपला 1947 के बाद अपनी शक्ति और संख्याबल को बढ़ाने में लगे रहे। उन्होंने मुस्लिम लीग के नाम से इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के नाम से अपना राजनीतिक मंच बनाया।
5. 1960 से 1970 के दशक में विश्व में खाड़ी देशों के तेल निर्यात ने व्यापक प्रभाव डाला। केरल के इस भूभाग से बड़ी संख्या में मुस्लिम कामगार खाड़ी देशों में गए। उन कामगारों ने बड़ी संख्या में पेट्रो डॉलर खाड़ी देशों से भारत भेजे। उस पैसे के साथ साथ इस्लामिक कट्टरवाद भी देश ने आयात किया। उस धन के बल पर बड़े पैमाने पर जमीने खरीदी गई। मस्जिदों और मदरसों का निर्माण हुआ। स्थानीय वेशभूषा छोड़कर मोपला मुसलमान भी इस्लामिक वेशभूषा अपनाने लगे। मज़हबी शिक्षा पर जोर दिया गया। जिसका परिणाम यह निकला कि इस इलाके का निर्धन हिन्दू अपनी जमीने बेच कर यहाँ से केरल के अन्य भागों में निकल गया। बड़ी संख्या में मुसलमानों ने हिन्दू लड़कियों से विवाह भी किये। इस्लामिक प्रचार के प्रभाव, धन आदि के प्रलोभन में अनेक हिन्दुओं ने स्वेच्छा से इस्लाम को स्वीकार भी किया। केरल से छपने वाले सालाना सरकारी गजट में हम ऐसे अनेक उदहारणों को पढ़ सकते हैं। इस धन के प्रभाव से संगठित ईसाई भी अछूते नहीं रहा। असंगठित हिन्दू समाज तो इस प्रभाव को कैसे ही प्रभावहीन करता। ऐसी अवस्था में इस भूभाग का मुस्लिम बहुल हो जाना स्वाभाविक ही तो है।
वर्तमान स्थिति यह है कि धीरे धीरे इस इलाके में इस्लामिक कट्टरवाद बढ़ता गया। इन मुसलमानों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व मुस्लिम लीग करती हैं। जी हाँ वही मुस्लिम लीग जो 1947 से पहले पाकिस्तान के बनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही थी। हिन्दुओं का केरल में असंगठित होने के कारण कोई राजनीतिक रसूख नहीं हैं। वे कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों के मध्य विभाजित हैं। जबकि ईसाई और मुस्लिम समाज के प्रतिनिधि नेताओं से खूब मोल भाव कर वोट के बदले अपनी मांगें मनवाते हैं। इसलिए केरल की जनसँख्या में आज भी सबसे अधिक होने के बाद भी जाति, सामाजिक हैसियत, धार्मिक विचारों में विभाजित होने के कारण हिन्दु अपने ही प्रदेश में एक उपेक्षित है। यही कारण है कि शबरीमाला जैसे मुद्दों पर केरल की सरकार हिन्दुओं की अपेक्षा कर उनके धार्मिक मान्यताओं को भाव नहीं दे रही हैं। जिन अरबी मुसलमानों को केरल के हिन्दू राजा ने बसाया था। उन्हें हर प्रकार से संरक्षण दिया। उन्हीं मोपला की संतानों ने हिन्दुओं को अपने ही प्रदेश के इस भूभाग में अल्पसंख्यक बनाकर उपेक्षित कर दिया। समस्या यह है कि वर्तमान में इस बिगड़ते जनसँख्या समीकरण से निज़ात पाने के लिए हिन्दुओं की कोई दूरगामी नीति नहीं हैं। हिन्दुओं को अब क्या करना है। इस पर आत्मचिंतन करने की तत्काल आवश्यकता है। अन्यथा जैसा कश्मीर में हुआ वैसा ही केरल में न हो जाये।