Thursday, January 31, 2019

महाभारत में कर्ण को विद्या न सिखाने का स्पष्टीकरण



महाभारत में कर्ण को विद्या न सिखाने का स्पष्टीकरण
लेखक- कार्तिक अय्यर
कई लोग प्रश्न करते हैं कि महाभारत में कर्ण को सूतपुत्र अर्थात् तथाकथित 'दलित,SC,ST,OBC,' मानकर द्रोणाचार्य ने धनुर्विद्या नहीं सिखाई।
ऐसे आक्षेप लगाने वालों ने न तो महाभारत ग्रंथ की सूरत देखी होती है;न ही टी.वी सीरियल के महाभारत आदि पौराणिक कार्यक्रम ढंग से देखे होते हैं। क्योंकि टी.वी सीरियल की महाभारत तक में यह स्पष्ट दिखाया गया है,कि द्रोणाचार्य ने कर्ण को सूतपुत्र मानकर केवल ब्रह्मास्त्र विद्या नहीं सिखाई थी। बाकी साधारण धनुर्विद्या का ज्ञान द्रोणाचार्य ने कर्ण का बराबर (यथायोग्य) दिया था। (हाँ,यह सत्य है कि 'स्टारप्लस' की २०१४ वाली कथा में सर्वथा ही कर्ण को द्रोण द्वारा विद्या से वंचित करना दिखाया गया है।)
इसके बाद जो कथा प्रचलित है, वह यह है कि कर्ण ने तत्पश्तात् भगवान् परशुराम से ब्रह्मास्त्रविद्या यह कहकर प्राप्त की,कि वह एक 'ब्राह्मण है।' बाद में एक कीड़े द्वारा रक्त निकलने और कर्ण के भेद खुलने व बाद में 'जब सबसे अधिक विद्या की आवश्यकता होगी,तब तुम अपनी विद्या भूल जाओगे।' इत्यादि बातें महाभारत व उसके ऊपर बने टी.वी कार्यक्रमों में हम देखते हैं। ये शाप-वरदान आदि की कथायें कितनी सत्य है,इस पर विचार करना इस लेख का विषय नहीं है। साथ ही,यह याद रहे कि गुरु द्रोणाचार्य के आश्रम में कर्ण ने भी विद्याभ्यास किया था, 'ब्रह्मास्त्र' विद्या को छोड़कर।यही नहीं, एकलव्य का भी अंगूठा लेने के पश्चात् उसे *बिना अंगूठे के बाण चलाने की विद्या सिखाना भी महाभारत में लिखा है,जोकि इसलिये नहीं बताया जाता-ताकि एकलव्य के नाम पर आर्य-संस्कृति पर जातिवाद व शिक्षामें भेदभाव का आरोप लगाया जा सके।
अस्तु। हम यहाँ पर महाभारत से कुछ ऐसे प्रमाण प्रस्तुत करते हैं,जिससे यह प्रमाणित होगा कि कर्ण जैसे तथाकथित सूतपुत्र तक महाभारत काल में वेदादिशास्त्रों को पढ़ते थे।
(१)- कर्ण का वेदमंत्रों का पाठ करना-
हम गीताप्रेस से छपी 'संक्षिप्त महाभारत' भाग-१ से उद्धृत करते हैं-
'ऐसा सोचकर कुंती गंगातट पर कर्ण के पास गयी।वहाँ पहुँचकर कुंती ने अपने सत्यनिष्ठ पुत्र के वेदपाठकी ध्वनि सुनी।वह पूर्वाभिमुख होकर भुजाएँ ऊपर उठाये मंत्र पाठ कर रहा था।तपस्विनी कुंती जप समाप्त होने की प्रतीक्षा में उसके पीछे खड़ी रही।'
( संक्षिप्त महाभारत, उद्योगपर्व,पृष्ठ ६५३, अनुच्छेद २, बाँयी ओर से- गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित भाग-१)
लीजिये, यहाँ पर स्पष्ट है कि कर्ण उस समय वेदमंत्रों का पाठ कर रहा था।अब पाठकों! ज़रा सोचिये, यह कार्य कर्ण रोज ही करता होगा या नहीं? क्या ये वेदविद्या वो गर्भ से लेकर पैदा हुआ था? कदापि नहीं।यह विद्या उसने गुरुकुल में प्राप्त की थी। और प्रमाणों का अवलोकन करें-
(२)- कर्णका सनातनशास्त्रों का ज्ञान होना-
राज्य का प्रलोभन देते समय योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने कर्ण से कहा था-
(क)-
'कर्ण! तुमने वेदवेत्ता ब्राह्मणों की बड़ी सेवा की है और उनसे परमार्थतत्त्व संबंधी प्रश्न किये हैं।'
( संक्षिप्त महाभारत, उद्योगपर्व पृष्ठ ६५०व ६५१)
साथ ही,
(ख)-
'त्वमेव कर्ण जानासि वेदवादान् सनातनान्।
त्वमेव धर्मशास्त्रेषु सूक्ष्मेषु परिनिष्ठितः।।'
( महाभारत उद्योगपर्व १३८ श्लोक ७)
'हे कर्ण!तुम सनातन वैदिक मन्तव्यों से परिचित हो और सूक्ष्म धर्मशास्त्रों में तुम्हारी पैठ है।'
(ग)- कर्ण की अपने मुख से साक्षी-
धर्माविद्धर्मशास्त्राणां श्रवणे सततं रतः।।
( महाभारत उद्योगपर्व १३९ श्लोक ७)
'हे कृष्ण! मेरे जैसा व्यक्ति जो सदा धर्मशास्त्रों का अध्ययन करता है और धर्म जानता है...।'
( 'श्रुति-सौरभ', पं.शिवकुमार शास्त्री, पृष्ठ २८ व ३० से उद्धृत)
वक्तव्य-
यहाँ इन तीनों प्रमाणों से स्पष्ट है कि अंगराज कर्ण ने अपने समय में वेदज्ञ ब्राह्मणों की सेवा भी की,उनसे प्रश्नोत्तर भी किये। साथ ही,उसके पास वैदिक शास्त्रों का ज्ञान भी था। कर्ण ने अपने मुख तक से कहा कि वो धर्मशास्त्रों का स्वाध्याय व पालन भी करता है। ऊपर हम कर्ण के वेदमंत्रों के पाठ का प्रमाण तो देख ही आये हैं।
निष्कर्ष- इस पूरे लेख से ये स्पष्ट है कि कर्ण के साथ उसके सूतपुत्र होने पर खासा भेदभाव न किया गया।दरअसल द्रोणाचार्य राजनैतिक संधि के तहत उसे ब्रह्मास्त्र नहीं दे सके,पर सामान्य धनुर्विद्या उसे सिखाई गई। भगवान् परशुराम से उसने छलपूर्वक विद्या पाई। हम कर्ण द्वारा वेदपाठ करने,धर्मशास्त्रों का नित्य स्वाध्याय करना आदि भी स्थापित कर चुके हैं।इससे साफ सिद्ध होती है कि कर्ण जैसे तथाकथित सूतपुत्र माने जाने वाले व्यक्ति तक को महाभारत काल में वेदादिशास्त्रों व युद्धविद्या का अधिकार दिया जाता था।
एकलव्य के विषय में जो हमने चर्चा की है,इसे हम फिर किसी लेख में रखेंगे। फिलहाल इस लेख का उद्देश्य पूर्ण हुआ।
।।ओ३म् शम्।।
।।सत्य सनातन वैदिक धर्म की जय।।
।। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र की जय।।
।।योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण चंद्र की जय।।
।। ब्रह्मा ले लेकर महर्षि दयानंद तक की आर्ष-परंपरा की जय ।।
।। संसार के सभी महापुरुषों व वैदिक विद्वानों की जय।।
।।लौटो वेदों की ओर।।
संदर्भ ग्रंथों की सूची-
१- संक्षिप्त महाभारत- गीताप्रेस, गोरखपुर
२- श्रुति सौरभ- पं शिवकुमार शास्त्री- विजय कुमार गोविंदराम हासानंद

प्रार्थना पर औचित्यहीन प्रश्न



प्रार्थना पर औचित्यहीन प्रश्न......
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सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ अब इस पर विचार करेगी कि केंद्रीय विद्यालयों में बच्चों को संस्कृत में प्रार्थना करना उचित है या नहीं? असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय और कुछ अन्य प्रार्थनाओं पर आपत्ति जताने वाली याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने कहा, चूंकि असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय जैसी प्रार्थना उपनिषद से ली गई है इसलिए उस पर आपत्ति की जा सकती है और इस पर संविधान पीठ विचार कर सकती है। क्या इसका यह मतलब है कि उपनिषद अपने आप में आपत्तिजनक स्रोत हैं और उनसे बच्चों को जोड़ना या पढ़ाना उपयुक्त नहीं है? शोपेनहावर, मैक्स मूलर या टॉल्सटॉय जैसे महान विदेशी विद्वानों ने भी यह सुनकर अपना सिर पीट लिया होता कि भारत में असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय जैसी प्रार्थना पर आपत्ति की जा रही है। इस आपत्ति पर भारतीय मनीषियों का दुखी और चकित होना स्वाभाविक है। उपनिषदों को मानवता की सर्वोच्च ज्ञान-धरोहर माना जाता है। वास्तविक विद्वत जगत में यह इतनी जानी-मानी बात है कि उसे लेकर दिखाई जा रही अज्ञानता पर हैरत होती है। मैक्स वेबर जैसे आधुनिक समाजशास्त्री ने म्यूनिख विश्वविद्यालय में अपने प्रसिद्ध व्याख्यान पॉलिटिक्स एज ए वोकेशन में कहा था कि राजनीति और नैतिकता के संबंध पर संपूर्ण विश्व साहित्य में उपनिषद जैसा व्यवस्थित चिंतन स्रोत नहीं है।

आज यदि डॉ. भीमराव आंबेडकर होते तो उन्होंने भी माथा ठोक लिया होता। ध्यान रहे कि मूल संविधान के सभी अध्यायों की चित्र-सज्जा रामायण और महाभारत के विविध प्रसंगों से की गई थी। ठीक उन्हीं विषयों की पृष्ठभूमि में, जिन पर संविधान के विविध अध्याय लिखे गए। उस मूल संविधान पर संविधान सभा के 284 सदस्यों के हस्ताक्षर हैं। दिल्ली के तीन-मूर्ति पुस्तकालय में उसे देखा जा सकता है। उपनिषद जैसे विशुद्ध ज्ञान-ग्रंथ तो छोड़िए, धर्म-ग्रंथ कहे जाने वाले रामायण और महाभारत को भी संविधान निर्माताओं ने त्याज्य या संदर्भहीन नहीं समझा था। उनके उपयोग से कराई गई सज्जा का आशय ही इन ग्रंथों को अपना आदर्श मानना था।

संविधान के भाग-3 यानी सबसे महत्वपूर्ण समझे जाने वाले मूल अधिकार वाले अध्याय की सज्जा भगवान राम, सीता और लक्ष्मण से की गई है। अगले महत्वपूर्ण अध्याय भाग-4 की सज्जा में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को गीता का उपदेश दिए जाने का दृश्य है। यहां तक कि संविधान के भाग-5 की सज्जा ठीक उपनिषद के दृश्य से की गई है जिसमें ऋषि के पास शिष्य बैठकर ज्ञान ग्रहण करते दिख रहे हैं। यह सब महज सजावटी चित्र नहीं थे, बल्कि उन अध्यायों की मूल भावना (मोटिफ) के रूप में सोच-समझ कर दिए गए थे। इस पर कभी कोई मतभेद नहीं रहा।

शायद आज हमारे न्यायविदों को भी इस तथ्य की जानकारी नहीं है कि मूल संविधान हिंदू धर्मग्रंथों के मोटिफ से सजाया गया था। इसे तबके महान चित्रकार नंदलाल बोस ने बनाया था, जिन्होंने कविगुरु रबींद्रनाथ टैगोर से शिक्षा पाई थी। लगता है कि बहुतेरे वकील भी यह नहीं जानते कि संविधान की मूल प्रस्तावना में सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्द नहीं थे। इन्हें इंदिरा गांधी की ओर से थोपे गए आपातकाल के दौरान छल-बल पूर्वक घुसा दिया गया था।

हमारे अज्ञान का जैसा विकास हो रहा है, उसे देखते हुए हैरत नहीं कि मूल संविधान की उस सज्जा पर भी आपत्ति सुनने को मिले और उस पर न्यायालय विचार करता दिखे। ऐसे तर्क दिए जा सकते हैं कि एक सेक्युलर संविधान में हिंदू धर्म-ग्रंथों का मोटिफ क्यों बने रहना चाहिए? उन सबको हटाकर संविधान को सभी धर्म के नागरिकों के लिए सम-दर्शनीय किस्म की कानूनी किताब बना देना चाहिए। आखिर, जब उपनिषद को ही आपत्तिजनक माना जा रहा है तब राम और कृष्ण तो हिंदुओं के साक्षात् भगवान ही हैं। ऐसी स्थिति में संविधान में उनका चित्र होना सेक्युलरिज्म के आदर्श के लिए निहायत नाराजगी की बात हो सकती है। यह संपूर्ण प्रसंग हमारी भयंकर शैक्षिक दुर्गति को दिखाता है। स्कूल-कॉलेजों से लेकर विश्वविद्यालयों तक की शिक्षा में हमारी महान ज्ञान-परंपरा को बाहर रखने से ही यह स्थिति बनी है। हमारे बड़े-बड़े लोग भी भारत की विश्व प्रसिद्ध सांस्कृतिक विरासत से परिचित तक नहीं हैं। उपनिषद जैसे शुद्ध ज्ञान-ग्रंथ को मजहबी मानना अज्ञानता को दिखाता है। जबकि रामायण को भी मजहबी नहीं, वैश्विक सांस्कृतिक धरोहर माना जाता है। तभी इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम देश रामलीला का नाट्य राष्ट्रीय उत्साह से करते हैं।

अभी जो स्थिति है उसमें संविधान पीठ इस आपत्ति को संभवत: खारिज कर देगी। इस पर देश-विदेश में होने वाली कड़ी प्रतिक्रियाओं से उन्हें समझ में आ जाएगा कि उन्होंने किस चीज पर हाथ डाला है। पर यह अपने आप में कोई संतोष की बात नहीं। यदि हमारी दुर्गति यह हो गई कि हमारे एलीट अपनी महान ज्ञान-परंपरा से ही नहीं, बल्कि अपने हालिया संविधान की भावना तक से लापरवाह हो गए हैं तो हमारी दिशा निश्चित रूप से गिरावट की ओर ही है। तब यह केवल समय की बात है कि संविधान, कानून और शिक्षा को और भी गिरा डाला जाएगा। भारत में यहां की मूल धर्म-ज्ञान-संस्कृति परंपरा के विरोध का मूल हिंदू-विरोध में है। इस प्रसंग को राष्ट्रवादी जितना ही भुना लें, उन्हें समझना चाहिए कि सदैव अपनी पार्टी, चुनाव और सत्ता की झक में डूबे रहने से भारतीय धर्म-संस्कृति और शिक्षा की कितनी गंभीर हानि होती गई है। उन्हें इसकी कभी परवाह नहीं रही। आज जो सरकारी स्कूलों में उपनिषद पढ़ाने पर आपत्ति कर रहे हैं, कल को वे रामायण, महाभारत और उपनिषद को सरकारी पुस्तकालयों से भी हटाने की मांग करने लगें तो हैरत नहीं। इस दुर्गति तक पहुंचनेे में हमारे सभी दलों का समान योगदान है। उनका भी जिन्होंने अज्ञान और वोट-बैंक के लालच में हिंदू-विरोधियों की मांगों को दिनोंदिन स्वीकार करते हुए संविधान तथा शिक्षा को हिंदू-विरोधी दिशा दी। साथ ही उनका भी जिन्होंने उतने ही अज्ञान और भयवश उसे चुपचाप स्वीकार किया। केवल सत्ताधारी को हटाकर स्वयं सत्ताधारी बनने की जुगत में लगे रहे। यही करते हुए पिछले छह-सात दशक बीते हैं, और हमारी शिक्षा-संस्कृति, कानून और राजनीति की दुर्गति होती गई है। केवल देश के आर्थिक विकास पर सारा ध्यान रखते हुए तमाम बौद्धिक विमर्श ने भी वही वामपंथी अंदाज अपनाए रखा। इसी का लाभ उठाते हुए हिंदू-विरोधी मतवादों ने स्वतंत्र भारत में धीरे-धीरे सांस्कृतिक, शैक्षिक, वैचारिक क्षेत्र पर चतुराई पूर्वक अपना शिकंजा कसा। उन्होंने कभी गरीबी, विकास, बेरोजगारी, जैसे मुद्दों की परवाह नहीं की। अनुभवी और दूरदर्शी होने के कारण उन्होंने सदैव बुनियादी विषयों पर ध्यान रखा। यही कारण है कि आज भारत का मध्यवर्ग दिनोंदिन अपने से ही दूर होता जा रहा है। इसी को विकास व उन्न्ति मान रहा है। केवल समय की बात होगी कि विशाल ग्रामीण, कस्बाई समाज भी उन जैसा हो जाएगा, क्योंकि जिधर बड़े लोग जाएं, पथ वही होता है। जिन्हें इस पर चिंता हो उन्हें इसे दलीय नहीं, राष्ट्रीय विषय समझना चाहिए। तदनुरूप विचार करना चाहिए। अन्यथा वे इसके समाधान का मार्ग कभी नहीं खोज पाएंगे। दलीय पक्षधरता का दुष्चक्र उन्हें अंतत: दुर्गति दिशा को ही स्वीकार करने पर विवश करता रहेगा। जो अब तक होता रहा है और जिसका दुष्परिणाम यह दु:खद प्रसंग है।

#secularsanskrit

लेखक : डॉ. शंकर शरण

Wednesday, January 30, 2019

Sufi Hamadani and his Covenant for Hindus



Sufi Hamadani and his Covenant for Hindus

Dr. Vivek Arya

Mir Sayyid Ali Hamadani (1314–1384) was a Persian Sūfī of the Kubrawiya order, a poet and a prominent Muslim scholar. He was born in Hamadan, and was buried in Khatlan Tajikistan. Hamdani came to India and settled in Kashmir. His Dargah in Srinagar, Kashmir is located in Babdem- Kahan Kah Road, Shamswari. Many Hindus visits his Dargah seeking Blessings of Hamadani. But very few knows the reality about him. 

Mir Saiyid Ali Hamadani (founder of Kubrawiyya Sufi order of Kashmir) emphasized a covenant to sultan of Kashmir on his relation with Hindus. Covenant is as follows:

1.      They (the hindus) will not bid new idol temples.
2.      They will not rebuild any existing temple which may have fallen into disrepair.
3.      Muslim travelers will not be prevented from staying in temples.
4.      Muslim travelers will be provided hospitality by Zimmis in their own houses for three days.
5.      Zimmis will neither act as spies nor give spies shelter in their houses.
6.      If any relation of a Zimmi is inclined towards Islam, he should not be prevented from doing so.
7.      Zimmis will respect Muslims.
8.      Zimmis will courteously receive a Muslim wishing to attend their meetings.
9.      Zimmis will not dress like Muslims.
10.  They will not take Muslim names.
11.  They will not ride horses with saddle and bridle.
12.  They will not possess swords, bows or arrows.
13.  They will not wear signet rings.
14.  They will not openly sell or drink intoxicating liquor.
15.  They will not abandon their traditional dress, which is a sign of their ignorance, in order that they may be distinguished from Muslims.
16.  They will not openly practice their traditional customs amongst Muslims.
17.  They will not build their houses in the neighbourhood of Muslims.
18.  They will not carry or bury their dead near Muslim graveyards.
19.  They will not mourn their dead loudly.
20.  They will not buy Muslim slaves.

Hamadani considered all Hindus as Zimmis.
 
Saiyd Athat Abbas Rizvi in History of Sufism in India writes Hamadani was talking like a Alim instead of Sufi in this Covenant. tHE Dargah of Hamdani was built by destroying Kali Temple. The pundits of Kali temple refused the stay of soldiers of Saiyyad Ali in temple. According to Hamadani it was disobey of his Covenant. Thus Hamadani ordered the destruction of Kali Temple. No history books mentions this great honour and respect favoured by Hamadani to Hindus. If they will say truth the Hindus will learn How well their forefathers were treated by Sufis.

Sunday, January 27, 2019

भारतीय मुसलमान और जनरल करिअप्पा



भारतीय मुसलमान और जनरल करिअप्पा

डॉ विवेक आर्य

भारतीय सेना के प्रथम सेनापति जनरल करिअप्पा 1964 में अपने द्वारा लिखित पुस्तक "लेट अस वेक अप" में भारतीय मुसलमानों के विषय में लिखते है-

"हमारा एक धर्म निरपेक्ष देश है। मैं मुसलमानों को उतना ही अपना भाई-बहन समझता हूँ, जितना कि भारत के अन्य सम्प्रदायों के लोगों को समझता हूँ। देश में अपनी निरंतर यात्राओं के बीच उनके विभिन्न वर्गों के लोगों से मैं मिला हूँ। मेरे बहुत सरे अच्छे मुसलमान दोस्त हैं, जिनके साथ मैं व्यक्तियों और मसलों के बारे में मुक्त बातचीत करता हूँ। इन बातचीतों में कुछ लोगों ने मुझपर छाप छोड़ी है- और मुझे इससे दुःख पहुंचा है- कि वे भारत और पाकिस्तान की इन दो नावों में अपने दोनों पैर रखे हुए हैं। लगता है, उनकी प्राथमिकता वफ़ादारी पाकिस्तान के प्रति है। यह अपराध और अक्षम्य है।  भारत में अमुस्लिम बुद्धिवादियों की एक बड़ी प्रतिशत की भी यही धारणा है। बहुमत वर्ग का एक बड़ा भाग भारतीय मुसलमानों के प्रति जो बहुत अनुकूल भावना नहीं रखता, उसका यही मुलभुत कारण है, और यह बात समझ में आती है।
     इस सन्दर्भ में मैं अपने सभी मुसलमान भाइयों और बहनों से यह जोरदार अपील करता हूं कि वे मेहरबानी करके खुलकर सामने आ जाएं और कम से कम अपनी निजी आत्मा को साक्षी मानते हुए यह घोषणा करें कि वे भारत या पाकिस्तान इनमें किसके प्रति वफ़ादार हैं।  यदि यह वफ़ादारी पाकिस्तान के प्रति है तो उन्हें इसी क्षण पाकिस्तान को कूच कर देना चाहिए। ऐसे लोगों का हमारी पवित्र धरती के एक इंच पर भी कोई अधिकार नहीं हो सकता और यदि दूसरी ओर वे भारत को चाहते हैं और मैं जानता हूं कि कितने ही मुसलमान सच्चाई और वफ़ादारी से वैसा महसूस करते हैं, तो उन्हें अपने सम्प्रदाय में विद्यमान देशदारी से वैसा महसूस करते हैं, तो उन्हें अपने सम्प्रदाय में  विद्यमान देशद्रोही तत्त्वों को पूरी तेज़ी से उखाड़ना चाहिए और उन्हें भारत छोड़ने पर मजबूर कर देना चाहिए। इस प्रकार, इस बात की विश्वस्त साक्षी मिल जाएगी किवे भारतीय हैं और बहुमत वर्ग उन्हें निस्संकोच स्वीकार करेगा। भारत के प्रति वफ़ादार मुसलमानों को यह समझना चाहिए कि उन्हें वे भाई जो भारत के प्रति वफादार नहीं हैं, बहुतमत वर्ग द्वारा पहुंचाई जानेवाली तथाकथित हानि से कहीं ज्यादा हानि हर दृष्टि से उन्हें पंहुचा रहे हैं। सोचने और करने की बारी उनकी अपनी है।

  भारत का विभाजन पाकिस्तान चाहनेवाली मुस्लिम लीग के प्रमुख नेताओं की मांग पर किया गया था। पाकिस्तान अब बन चूका है। एक सैनिक के रूप में मैं बिलकुल समझ नहीं पाता कि भारत में मुस्लिम लीग अब क्यों होनी चाहिए? पर यह दल अब भी यहां सक्रिय है।  मुझे यह बात बिलकुल गलत मालूम पड़ती है। मुसलमाओं के सांस्कृतिक एवं सामाजिक हितों की रक्षा करने वाली संस्थाओं और संगठन रहने दिए जा सकते हैं और वस्तुत: वे रहने भी चाहिए पर निश्चय ही उनका कोई राजनीतिक प्रयोजन नहीं हो सकता। 
  यह सब बहुत बहुत महत्वपूर्ण है। भारत के जिम्मेदार मुस्लिम नेताओं को इस बारे में तात्कालिक कार्यवाही करनी चाहिए। कार्यवाही में देरी सांप्रदायिक विद्वेष को बढ़ाएगी ऐसा नहीं होना चाहिए और इसे रोका जा सकता है। "

जनरल साहिब ने बड़ी सूक्ष्मता से अपने अनुभव के आधार पर अपने यह विचार लिखे थे। इसी प्रकार से 2005 में समाजशास्त्री डा. पीटर हैमंड ने गहरे शोध के बाद इस्लाम धर्म के मानने वालों की दुनियाभर में प्रवृत्ति पर एक पुस्तक लिखी, जिसका शीर्षक है ‘स्लेवरी, टैररिज्म एंड इस्लाम-द हिस्टोरिकल रूट्स एंड कंटेम्पररी थ्रैट’। इसके साथ ही ‘द हज’के लेखक लियोन यूरिस ने भी इस विषय पर अपनी पुस्तक में विस्तार से प्रकाश डाला है। जो तथ्य निकल करआए हैं, वे न सिर्फ चौंकाने वाले हैं, बल्कि चिंताजनक हैं।
उपरोक्त शोध ग्रंथों के अनुसार जब तक मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश-प्रदेश क्षेत्र में लगभग 2 प्रतिशत के आसपास होती है, तब वे एकदम शांतिप्रिय, कानूनपसंद अल्पसंख्यक बन कर रहते हैं और किसी को विशेष शिकायत का मौका नहीं देते। जैसे अमरीका में वे (0.6 प्रतिशत) हैं, आस्ट्रेलिया में 1.5, कनाडा में 1.9, चीन में 1.8, इटली में 1.5 और नॉर्वे में मुसलमानों की संख्या 1.8 प्रतिशत है। इसलिए यहां मुसलमानों से किसी को कोई परेशानी नहीं है।
जब मुसलमानों की जनसंख्या 2 से 5 प्रतिशत के बीच तक पहुंच जाती है, तब वे अन्य धर्मावलंबियों में अपना धर्मप्रचार शुरू कर देते हैं। जैसा कि डेनमार्क, जर्मनी, ब्रिटेन, स्पेन और थाईलैंड में जहां क्रमश: 2, 3.7, 2.7, 4 और 4.6 प्रतिशत मुसलमान हैं।
जब मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश या क्षेत्र में 5 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब वे अपने अनुपात के हिसाब से अन्य धर्मावलंबियों पर दबाव बढ़ाने लगते हैं और अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करने लगते हैं। उदाहरण के लिए वे सरकारों और शॉपिंग मॉल पर ‘हलाल’ का मांस रखने का दबाव बनाने लगते हैं, वे कहते हैं कि ‘हलाल’ का मांस न खाने से उनकी धार्मिक मान्यताएं प्रभावित होती हैं। इस कदम से कई पश्चिमी देशों में खाद्य वस्तुओं के बाजार में मुसलमानों की तगड़ी पैठ बन गई है। उन्होंने कई देशों के सुपरमार्कीट के मालिकों पर दबाव डालकर उनके यहां ‘हलाल’ का मांस रखने को बाध्य किया। दुकानदार भी धंधे को देखते हुए उनका कहा मान लेते हैं।
इस तरह अधिक जनसंख्या होने का फैक्टर यहां से मजबूत होना शुरू हो जाता है, जिन देशों में ऐसा हो चुका है, वे फ्रांस, फिलीपींस, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड, त्रिनिदाद और टोबैगो हैं। इन देशों में मुसलमानों की संख्या क्रमश: 5 से 8 फीसदी तक है। इस स्थिति पर पहुंचकर मुसलमान उन देशों की सरकारों पर यह दबाव बनाने लगते हैं कि उन्हें उनके क्षेत्रों में शरीयत कानून (इस्लामिक कानून) के मुताबिक चलने दिया जाए। दरअसल, उनका अंतिम लक्ष्य तो यही है कि समूचा विश्व शरीयत कानून के हिसाब से चले।
जब मुस्लिम जनसंख्या किसी देश में 10 प्रतिशत से अधिक हो जाती है, तब वे उस देश, प्रदेश, राज्य, क्षेत्र विशेष में कानून-व्यवस्था के लिए परेशानी पैदा करना शुरू कर देते हैं, शिकायतें करना शुरू कर देते हैं, उनकी ‘आॢथक परिस्थिति’ का रोना लेकर बैठ जाते हैं, छोटी-छोटी बातों को सहिष्णुता से लेने की बजाय दंगे, तोड़-फोड़ आदि पर उतर आते हैं, चाहे वह फ्रांस के दंगे हों डेनमार्क का कार्टून विवाद हो या फिर एम्सटर्डम में कारों का जलाना हो, हरेक विवादको समझबूझ, बातचीत से खत्म करने की बजाय खामख्वाह और गहरा किया जाता है। ऐसा गुयाना (मुसलमान 10 प्रतिशत), इसराईल (16 प्रतिशत), केन्या (11 प्रतिशत), रूस (15 प्रतिशत) में हो चुका है।
जब किसी क्षेत्र में मुसलमानों की संख्या 20 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है तब विभिन्न ‘सैनिक शाखाएं’ जेहाद के नारे लगाने लगती हैं, असहिष्णुता और धार्मिक हत्याओं का दौर शुरू हो जाता है, जैसा इथियोपिया (मुसलमान 32.8 प्रतिशत) और भारत (मुसलमान 22 प्रतिशत) में अक्सर देखा जाता है। मुसलमानों की जनसंख्या के 40 प्रतिशत के स्तर से ऊपर पहुंच जाने पर बड़ी संख्या में सामूहिक हत्याएं, आतंकवादी कार्रवाइयां आदि चलने लगती हैं। जैसा बोस्निया (मुसलमान 40 प्रतिशत), चाड (मुसलमान 54.2 प्रतिशत) और लेबनान (मुसलमान 59 प्रतिशत) में देखा गया है। शोधकत्र्ता और लेखक डा. पीटर हैमंड बताते हैं कि जब किसी देश में मुसलमानों की जनसंख्या 60 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब अन्य धर्मावलंबियों का ‘जातीय सफाया’ शुरू किया जाता है (उदाहरण भारत का कश्मीर), जबरिया मुस्लिम बनाना, अन्य धर्मों के धार्मिक स्थल तोडऩा, जजिया जैसा कोई अन्य कर वसूलना आदि किया जाता है। जैसे अल्बानिया (मुसलमान 70 प्रतिशत), कतर (मुसलमान 78 प्रतिशत) व सूडान (मुसलमान 75 प्रतिशत) में देखा गया है।
किसी देश में जब मुसलमान बाकी आबादी का 80 प्रतिशत हो जाते हैं, तो उस देश में सत्ता या शासन प्रायोजित जातीय सफाई की जाती है। अन्य धर्मों के अल्पसंख्यकों को उनके मूल नागरिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है। सभी प्रकार के हथकंडे अपनाकर जनसंख्या को 100 प्रतिशत तक ले जाने का लक्ष्य रखा जाता है। जैसे बंगलादेश (मुसलमान 83 प्रतिशत), मिस्र (90 प्रतिशत), गाजापट्टी (98 प्रतिशत), ईरान (98 प्रतिशत), ईराक (97 प्रतिशत), जोर्डन (93 प्रतिशत), मोरक्को (98 प्रतिशत), पाकिस्तान (97 प्रतिशत), सीरिया (90 प्रतिशत) व संयुक्त अरब अमीरात (96 प्रतिशत) में देखा जा रहा है।

जनरल साहिब के विचारों पर अगर हमारे देश के राजनीतिज्ञों ने ध्यान दिया होता तो आज हमारे देश में कश्मीर, केरल, बंगाल, असम , कैराना जैसे अनेक मिनी पाकिस्तान न होते। अभी भी समय है।  जातिवाद, प्रांतवाद, भाषावाद छोड़कर संयुक्त हो जाओ। वर्ना

Saturday, January 26, 2019

फलित ज्योतिष



फलित ज्योतिष की अमान्य मान्यताओं से मानव जगत् से सबसे बड़ा भ्रामिक वैचारिक शोषण


लेखक- पण्डित उम्मेद सिंह विशारद, वैदिक प्रचारक

उन्नीसवीं शताब्दी के सबसे महान् समाजिक सुधारक आर्ष और अनार्ष मान्यताओं का रहस्य बताने वाले युगपुरुष महर्षि दयानन्द सरस्वती जी अपने अमरग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के द्वितीय समुल्लास के प्रश्नोत्तर में लिखते हैं।
प्रश्न- तो क्या ज्योतिष शास्त्र झूठा है?
उत्तर- नहीं, जो उसमें अंक, बीज, रेखागणित विद्या है, वह सब सच्ची, जो फल की लीला है, वह सब झूठी है।

फलित ज्योतिष के द्वारा अवैदिक व सृष्टिक्रम विज्ञान के अमान्य अनार्ष मान्यताओं को चतुर लोगों द्वारा भारत की जनता का वैचारिक शोषण करके अपना मनोरथ तो पूर्ण किया ही है, अपितु भारत वर्ष को गुलामी के दलदल में धकेलने का भी कार्य किया है। बड़े अफसोस के साथ लिखना पड़ रहा है कि यह पाखण्ड इस वैज्ञानिक युग में भी दिनोदिन बढ़ता जा रहा है। स्वार्थी और चतुर किन्तु ज्ञान विज्ञान से शून्य लोग भोली-भाली जनता को फलित ज्योतिष की आड़ में कई प्रकार से लूट रहे हैं।
इस माह का लेख फलित ज्योतिष पर लिखने का मन बना इसलिए प्रस्तुत लेख में क्लेवर क्षमता के अनुसार कई उदाहरण सहित लिखा जा रहा है। विस्तार आप स्वयं करके आगे भी प्रेषित करने की कृपा करें।

फलित ज्योतिष का पाखण्ड

कृतं मेदक्षिणे हस्ते जयोमेसव्य आहित: (अथर्व.)
ईश्वरीय व्यवस्था में मानव कर्म करने के लिये स्वतन्त्र है और कर्मानुसार फल प्राप्ति ईश्वरीय व्यवस्था में होती है। मानव जैसा कर्म करता है वैसा ही फल उसके ईश्वर द्वारा दिया जाता है। अतः मनुष्यों को अपने दिल में भरोसा रखना चाहिए कि यदि पुरुषार्थ मेरे दायें हाथ में है तो सफलता मेरे बायें हाथ में है। अतः संसार में जितने भी कार्य सिद्ध होते हैं वह पुरुषार्थ से होते हैं। मनुष्य के जीवन में अगले क्षण क्या होने वाला है वह नहीं जानता है। ज्योतिषों द्वारा फलित आश्वासन भ्रामिक हैं, यह केवल मनुष्य को गुमराह करने वाला है।

उदाहरण 1- भारत में मुगल साम्राज्य की नींव डालने वाले लुटेरे बाबर की जीवन की एक घटना है। जब वह भारत पर आक्रमण करने आया तो भारत के प्रसिद्ध भविष्य बताने वाले ज्योतिष ने बाबर से कहा कि अभी आप भारत पर आक्रमण न करें, इससे आपको सफलता नहीं मिलेगी। बाबर ने पूछा आपको यह जानकारी कैसे मिली। ज्योतिष ने कहा हमारे फलित ज्योतिष शास्त्र में लिखा है। बाबर ने कुछ सोचकर कहा ज्योतिष जी आप यह भी जानते होंगे कि आप और कितने वर्ष जिन्दा रहोगे, ज्योतिष ने कहा अभी मैं 37 वर्ष और जिन्दा रहूंगा, बाबर ने म्यान से तलवार निकाली और एक ही झटके में ज्योतिषी का सिर धड़ से अलग कर दिया और कहा कि जिसको अपने अगले क्षण का पता नहीं ऐसे पाखण्डी पर क्या विश्वास किया जा सकता है और उस ऐतिहासिक युद्ध में बाबर की विजय हुई और ज्योतिष की बात मिथ्या हुई।

उदाहरण 2- आप कल्पना करो कि मेरे सामने एक भोजन का थाल पड़ा है और उसमें दस कटोरियां हैं अलग-अलग व्यंजनों की है। पहले मैं कौनसी कटोरी का पदार्थ खाऊंगा ज्योतिष तो क्या स्वयं ईश्वर भी नहीं बता सकते हैं पहले मैं कौनसी चीज खाऊंगा क्योंकि कर्म करना मेरे स्वतन्त्रता के अधिकार में है।

उदाहरण 3- एक ब्राह्मण काशी में दस वर्ष ज्योतिष विद्या पढ़ के अपने गांव में आया गांव का एक उलट जाट लाठी लिये अपने खेत में जा रहा था, नमस्ते पश्चात् जाट ने पूछा आप कहां से आ रहे हैं, ब्राह्मण बोला मैं दस वर्ष काशी से ज्योतिष विद्या पढ़ के अ रहा हूं। जाट ने पूछा महाराज ज्योतिष क्या होता है। ब्राह्मण ने बताया हम अगले क्षण आने वाली बातों को पहले बता देते हैं। जाट ने पूछा महाराज मैं पूछूं तो आप बतायेंगे, क्यों नहींअवश्य पूछिये। ब्राह्मण बोला मैं उच्च कोटि का भविष्यवक्ता बन गया हूं। अब जाट ने कन्धे से लाठी उठाकर घुमाकर पूछा बता मैं तेरे इस लाठी को कहां मारूंगा। यह सुनकर ब्राह्मण नीचे ऊपर देखने लगा, यदि मैंने कहा कि सिर पर मारेगा तो वह पैरों पर ठोकेगा यदि पैरों पर कहा तो यह सिर पर ठोकेगा। ब्राह्मण सिर झुकाकर नीचे देखने लगा। इसलिए फलित ज्योतिष पाखण्ड है।

नवग्रहों को मानव पर लगाने का भ्रम

प्रश्न (सत्यार्थप्रकाश)- जब किसी ग्रहस्थ ज्योतिर्विदाभास के पास जाके कहते हैं कि महाराज इसको क्या है? तब वह कहते हैं इस पर सूर्यादि क्रूर ग्रह चढ़े हैं। जो तुम इनकी शान्ति, पाठ, पूजा, दान कराओ तो इसको सुख हो जाए, नहीं तो बहुत पीड़ित और मर जाये तो भी आश्चर्य नहीं है।

उत्तर- कहिए ज्योतिर्विद्! जैसी यह पृथ्वी जड़ है, वैसे ही सूर्य आदि लोक हैं। वे ताप और प्रकाशादि से भिन्न कुछ नहीं कर सकते। क्या ये चेतन है, जो क्रोधित होके दुःख और शान्त होकर सुख दे सकें। भोली-भाली जनता को ठगने के लिये ग्रहों का प्रकोप का डर उनके दिलों में बिठा रखा है। प्रत्येक ग्रह जड़ हैं और पृथ्वी से लाखों गुना बड़े हैं फिर वह एक छोटे से मनुष्य पर कैसे चढ़ सकते हैं।

उदाहरण- दो नवयुवक एक बलिष्ठ शरीर बालक और दूसरा मरियल-सा कमजोर शरीर वाले ज्योतिष के पास जाकर पूछने लगे, महाराज हम पर कौन से ग्रह चढ़े हैं, जो हमारे कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होते। ज्योतिष ने बलिष्ठ शरीर वाले युवक से कहा तुम पर सूर्य ग्रह मेहरबान है, तुम्हारा कुछ भी अनिष्ट नहीं होगा और दूसरे कमजोर शरीर वाले युवक से कहा कि तुम पर सूर्य ग्रह चढ़े हैं, तुम्हारा यह अनिष्ट करेंगे, जल्दी पूजा-पाठ, दान करो हम सूर्य ग्रह को शान्त कर देंगे।
यह सब कौतूहल एक विद्वान् युवक देख रहा था, उससे रहा नहीं गया वह चुप भी कैसे रह सकता था ऋषि दयानन्द का भक्त जो था। उसने ज्योतिषी से कहा मैं अभी इन दोनों की परीक्षा ले सकता हूं क्या? ज्योतिषी जी ने अहंकार में कहा अवश्य-अवश्य हमारा कथन कभी गलत नहीं होता है, अस्तु! जून का महीना था, दोपहर का समय था, विद्वान् युवक ने दोनों पीड़ित युवकों से कहा मैं तुम्हारी परीक्षा लूंगा दोनों के कपड़े उतरवाये और नंगे पैर दोनों को पक्के फर्श पर खड़ा कर दिया और आधा घण्टा खड़े रहने को कहा। किन्तु यह क्या जो बलिष्ठ शरीर वाला युवक था जिस पर सूर्य ग्रह मेहरबान था वह चक्कर खाकर गिर गया और कमजोर शरीर वाला किन्तु दृढ़ इच्छा वाला वह युवक जिस पर सूर्य ग्रह कुपित थे ज्यों का त्यों खड़ा रहा। अब आर्य युवक ज्योतिष से कहने लगा कहिए महाराज प्रत्यक्ष में आपकी भविष्यवाणी असफल क्यों हुई। वास्तव में सूर्य ग्रह जड़ है और ताप से अधिक कुछ नहीं दे सकता है। सूर्य की गरमी का प्रभाव दोनों पर बराबर पड़ा किन्तु सहन क्षमता में दोनों अलग-अलग थे। इसलिए नवग्रहों का ज्योतिष भ्रम है, धोखा है।

शनिग्रह- शनिग्रह पृथ्वी से लाखों मील दूर है और कई लाख गुना बड़ा है- बताइए ज्योतिष महाराज वह शनिग्रह एक छोटे से आदमी पर कैसे लग सकता है, शनि ग्रह के लगने से तो सारी पृथ्वी ही दब जायेगी। वास्तव में ईश्वरीय व्यवस्था में प्रत्येक ग्रह जड़ हैं और अपनी-अपनी धुरी पर केन्द्रित हैं। इस सृष्टिक्रम की व्यवस्था को बनाए रखते हैं। यह मानव जगत् का उपकार ही करते हैं, किन्तु अपकार कभी नहीं करते हैं।

उदाहरण- आश्चर्य होता है शनिवार को कुछ लोगों का धन्धा खूब चलता है। वह एक बाल्टी में तेल लेकर जगह-जगह चौराहों पर घरों में शनि के नाम से लोगों को ठगते रहते हैं और अन्धविश्वासी लोग उनकी बाल्टी को सिक्कों से भर देते हैं। क्या शनिदेव मांगने वाले लोगों पर मेहरबान होते हैं। नहीं, यह उनका धन हरण का मार्ग है और अधिक आश्चर्य होता है अब शनि को देवता बनाकर उनकी मूर्ति भी बना दी गई है और मन्दिर भी बना दिया गया है। ईश्वर भारतवासियों को सुमति दें।

परिवारों के प्रत्येक शुभकार्यों में शुभदिन मुहूर्त निकालना भी भ्रम है- वास्तव में पृथ्वी पर सब दिन बराबर होते हैं और एक जैसे होते हैं। ऋतुओं के अनुसार व जलवायु के अनुसार अपना प्रभाव दिखाते हैं। वैसे प्रत्येक शुभकार्य करने के लिये प्रत्येक दिन शुभ होता है किन्तु आप अपना शुभकार्य तब करें जब ऋतु अनुकूल हो, स्वास्थ्य अनुकूल हो, परिवार सुख-शान्ति में हो, वह दिन किसी भी समय शुभकार्य के लिए शुभ होता है।

एक ज्वलन्त उदाहरण- श्री रामचन्द्र जी कोई साधारण पुरुष न थे वह मर्यादा पुरुषोत्तम थे और उनके कुलगुरु वशिष्ठ भी ऋषि ब्रह्मा के पुत्र थे, श्रीराम को गद्दी पर बैठाने का मुहूर्त वशिष्ठ ऋषि ने निकाला था। इसी मुहूर्त में श्रीराम को चौदह वर्ष के लिये वनवास जाना पड़ा था। पीछे श्रीराम के पिता दशरथ को पुत्र वियोग में मृत्यु हो गई। तीनों रानियां विधवा हो गयीं, आगे चलकर सीता का हरण हुआ, वशिष्ठ की शुभ मुहूर्त शुभकार्य हेतु व्यर्थ गया। इस ऐतिहासिक उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि शुभ व अशुभ मुहूर्त ज्योतिष का चलन भी भ्रामिक है।

गणित ज्योतिष अन्त में- वेदों की शिक्षा के आधार पर गणित ज्योतिष सत्य है, गणित ज्योतिष द्वारा हम सौ वर्ष पहले बता सकते हैं कि क्या होगा। जैसे कि तिथियों का हिसाब, दिनों का हिसाब, ऋतुओं का परिवर्तन, सूर्य व चन्द्रग्रहण। चूंकि यह सारी चीजें चांद, सूर्य और जमीन इन तीनों को नियमानुसार गति पर निर्भर है, जिसमें एक पल का भी अन्तर नहीं आता। अतः हम सौ साल पहले बतला सकते हैं कि अमुक तिथि, अमुक वार को अमुक ऋतु में और अमुक समय में सूर्य व चन्द्रग्रहण होगा तथा कारण को देखकर कार्य का अनुमान अर्थात् कारण को देखकर होने वाले काम का अनुमान आदि।

आर्यसमाज के चौथे नियम में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी कहते हैं कि- सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।

[स्रोत- आर्य प्रतिनिधि : आर्य प्रतिनिधि सभा हरियाणा का पाक्षिक मुख्यपत्र का दिसम्बर २०१८ का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]

Thursday, January 24, 2019

शुद्धि का एक विस्मृत विवरण




शुद्धि का एक विस्मृत विवरण

डॉ विवेक आर्य

आधुनिक काल में हिन्दू समाज में विधर्मी हो चुके अनेक हिन्दुओं की शुद्धि अर्थात घर वापसी के प्रमाण मिलते हैं। ऐसा एक एक विस्मृत प्रमाण मराठी इतिहासकार गोविन्द सखाराम सरदेसाई द्वारा रचित मराठी इतिहास पुस्तक "ब्रिटिश रियासत" में मिलता हैं। गोवा में ईसाई मिशनरियों ने संत नामधारी फ्रांसिस ज़ेवियर के निर्देशन में पुर्तगाली राज में हिन्दुओं को ईसाई बनाने के लिए असंख्य अत्याचार किये। अनेकों को जिन्दा जला तक दिया। भयाक्रांत अनेक हिन्दू बलात ईसाई बन गए। पुर्तगाली राज में ही हिन्दु धर्मगुरुओं ने विधर्मी बन चुकें हिन्दुओं की घरवापसी को आरम्भ किया। सरदेसाई जी अपनी में लिखते है

"जो हिन्दू भ्रष्ट होकर ईसाई बन गए थे उन्हें अपने स्वधर्म में लेने के अनेक प्रयत्न उस काल के ब्राह्मणों द्वारा किए गए हैं।  वे भ्रष्ट लोगों को अपने सनातन धर्म में आने का केवल उपदेश ही नहीं करते थे , वरन जन्माष्ठमी सरीखे बड़े बड़े मेलों के समय उनसे समुद्रस्नान या गंगास्नान कराकर उन्हें शुद्ध किया करते थे। वे लोगों को इस बात का विश्वास करा देते थे कि ऐसे पवित्र अवसर पर गंगास्नान करने से जैसे सब पाप का क्षालन होता है वैसे ईसाई बने रहने से कदापि न होगा। ब्राह्मणों की इन चालों को देखकर पादरी लोग खूब जलते और उनके प्रयत्न रोकने के लिए वे थाना, वसई, बम्बई आदि जगहों में खाड़ियों और समुद्र के किनारों खम्बों पर क्रॉस लगा रखते थे। ऐसी हालात में जहां क्रॉस न लगे हो वहां जाकर ब्राह्मण अपना शुद्धि कार्य किया करते थे। अंत में ईसाईयों से तंग आकर ब्राह्मणों ने वसई के निकट के जंगल में एक तालाब ढूंढ कर वहां छिप छिपकर अपना शुद्धि कार्य करना शुरू कर दिया। परन्तु कुछ दिनों स्थान  ईसाईयों को लगा और पुर्तगाली सिपाहियों ने उन ब्राह्मणों पर हमला कर उन्हें भगा दिया, उस समय एक बैरागी जो ईसाई से हिन्दू बना लिया गया था, उनकी फौज के सामने अकेला निडर होकर खड़ा रहा। इससे वे पादरी इतने चिढ़ गए कि उन्होंने उस जगह को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला और गायें मारकर उनका मांस और रक्त उस तालाब में आसपास जगह में सींच दिया। इस प्रकार उन्होंने वह स्थान अपवित्र कर दिया। "

गोविन्द सखाराम सरदेसाई के विषय में जानने के लिए इस लिंक पर जाये -https://en.wikipedia.org/wiki/Govind_Sakharam_Sardesai

इस मराठी पुस्तक को आप  इस लिंक से खरीद सकते है-  https://www.amazon.in/British-Riyasat-Set-2-Volumes/dp/8171856748

इस्लामिक बैंकिग और भारत



इस्लामिक बैंकिग और भारत

भारत में मुस्लिम कह रहे हैं कि इस्लाम में ब्याज देना और ब्याज लेना हराम है. इसलिए हम यहाँ ब्याज रहित इस्लामिक बैंकिंग सिस्टम लाएंगे.

प्रसिद्द लेखक अरुण शौरी ने एक पुस्तक लिखी है जिसका नाम है The World of Fatwas or The shariah in Action.इसका हिंदी अनुवाद वाणी प्रकाशन, दिल्ली से "फ़तवे, उलेमा और उनकी दुनिया" के नाम से प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक में पिछले 100 वर्षों में विभिन्न मुस्लिम संस्थानों से मौलवियों द्वारा दिए गए विभिन्न फतवों को विषयानुसार समीक्षात्मक दृष्टि से परखा गया हैं। आपको अनेक मुसलमान यह कहते मिलेंगे कि इस्लाम में सूदखोरी हराम है। क़ुरान के बाद मुसलमान जितनी श्रद्धा पैगम्बर साहिब के आखिरी ख़ुत्बे (धर्मोपदेश) से रखते हैं, उतनी किसी और दस्तावेज़ के प्रति नहीं। अपनी इन आखिरी नसीहतों में पैगम्बर साहिब ने दोहराया था, "सब किस्म की सूदखोरी को गैरकानूनी घोषित किया जाता है..... अल्लाह का यह फ़रमान है कि सूदखोरी।"

अरुण शौरी अपनी पुस्तक के पृष्ठ 341 पर इस्लाम में सूदखोरी की समीक्षा करते हुए लिखते है-

"लेकिन इस्लामी बैंक और इस्लामी देशों के बैंक दिए गए कर्जों पर दूसरी जगहों पर मौजूद दूसरे बैंकों की अपेक्षा कुछ कम ब्याज वसूल नहीं करते और न ही मुसलमान जमाकर्ताओं को कम ब्याज अदा करते हैं। मुसलमान भी उसी तरह ब्याज वसूल करते हैं, जिस तरह कोई गैर मुस्लिम करता हैं। प्राचीन काल से बीसियों ऐसे क़ानूनी तरीके ढूंढ निकाले गए हैं, जोकि आज भी, उदहारण के तौर पर पाकिस्तान में, इस्तेमाल किये जा रहे हैं जिनके ज़रिये कर्जदार ब्याज ऐडा करता है और ब्याज लेता है-लेकिन इस तरह से, कि उसको नाम कोई और दिया जाता है। उदहारण के तौर पर एक ऐसा तरीका है जिसके तहत जिस आदमी को कर्ज की जरुरत पड़ती है, वह कुछ सामान,कर्ज देने वाले, मिसाल के तौर पर बैंक, के पास, जमानत के तौर पर सिर्फ गिरवी ही नहीं रखता बल्कि वह उसे बेच देता है। और फिर उसी क्षण वह कर्ज़ देने वाले से ज्यादा कीमत पर वह सामान वापिस खरीद लेता है। जिस कीमत पर सामान बेचा गया था और जिस कीमत पर सामान वह उसे वापिस खरीदता है, इन दोनों कीमतों के बीच का फ़र्क, बैंक का मुनाफ़ा मान लिया जाता है। होता यों है कि वह उस राशि के बराबर हो, जोकि बैंक बतौर ब्याज़ वसूल करता! यह तरकीब इमाम मलिक ही स्वयं मदीना में ही प्रचलित हो गई थी, अर्थात पैगम्बर साहिब के आखिरी ख़ुत्बे से एक सदी बाद से ही यह प्रचलन में है। एक अंतर अवश्य है। उस समय गुलाम बेचे-ख़रीदे जाते थे। आजकल सामान होता है। लेकिन उपाय बिलकुल वही है।"

निजाम ए मुस्तफा की सबसे बड़ी मिसाल सउदी हुकूमत ब्याज देती भी है और लेती भी है। वहॉ ब्रिटिश-सउदी बैंक, अमरीकन-सउदी बैंक, अरब-नेशनल बैंक और काहिरा-साउदी बैंक की शाखाएँ हैं.। यह सारी बैंके जो ब्याज से अपना कारोबार चलाती है, सउदी क़ानून के अनुच्छेद-1, सेक्षन-बी जिसको बादशाह के हुक्म नं. M/5 बमुताबिक 1386 हिजरी में जारी किया, के मुताबिक वहॉ कारोबार करने की खुली छूट है। वहॉ बैंको से सम्बन्धित कोई भी केस/झगड़ा अपने आप आर्थिक विभाग (monetary establishment) को सुपुर्द कर दिया जाता है, जिसका फैसला एक खास कमीटी करती है। इस तरह के मुकदमे शरइ अदालतो में नही जाते। इस क़ानून के लागू होने से पहले अगर कोई शख्स किसी बैंक या संस्था से पैसा उधार लेता और उसे लौटाने में देर कर देता तो बैंक उस पर ब्याज लगा देती थी। फिर वोह शरीया अदालत की तरफ रूख करता, जो इस ब्याज को की रकम को माफ़ (nullify) कर देती थी। इस व्यवस्था की वजह से झगड़ा पैदा होता था। एक तरफ इन्हे शरई अदालते चाहिये, दूसरी तरफ उन्हे काफिराना व्यवस्था पर आधारित पर बैंके भी चाहिये। इस झगड़े को खत्म करने के लिये शरई अदालतो को “स्पेशलाइज़ेशन” क़ानून’ के जरिये, (जो कि the System of Saudi Arab Army की दफा 20 और 21 के बाब 3 में दर्ज है), इस तरह के मुकदमो में दखलअन्दाज़ी करने से रोक दिया गया।

सऊदी और AMF (अरब मोनिटरी फण्ड)

अरब मोनिटरी फण्ड जो कि आबूधाबी में स्थित है, एक ब्याज पर आधारित बहुत बड़ी संस्था था, जिसकी स्थापना मोरक्को में 4/7/76 में एक सन्धि के मुताबिक हुई। इसमें सउदी सबसे बड़ा शेयर होल्डर है और इसमें दूसरे अरब देशो की तरह इसे अपने हिस्से का 32 प्रतिशत ब्याज मिलता है।

सउदी और उसके GCC (गल्फ कोपरोषन काउन्सिल) के बीच ब्याज पर आधारित सम्बन्ध: Unified Economic Agreement का अनुच्छेद-22 के मुताबिक: सदस्य देश आपस में मुद्रा सम्बन्धी (monetary) और पैसे से जुड़े हुए मामलात में एक दूसरे की सहायता करेंगे और ज़रई इदारो (monetary establishments) और मर्कजी बैंक के बीच सहायता बढाएगें .

पाठक एक अन्य उदहारण के रूप में इसे समझे। मान लीजिये मैं बाजार से एक मोटर साइकिल खरीदने गए। उसकी कीमत 50000 रुपये है। कंपनी अपनी और से ग्राहकों को यह कहकर आकर्षित करती है कि जीरो ब्याज़ डर पर फाइनेंस द्वारा ख़रीदे। अर्थात आप किश्तों पर फाइनेंस करवाए। आपको कोई ब्याज नहीं देना पड़ेगा। मगर जब आप सभी किश्तों को जोड़ते है तब कुल राशि 65000 से बैठती। यह जो 15000 का अंतर है। यह ब्याज है। जो आपको बिना बताये लिया गया है।

हम अंत में इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि इस्लाम में सूदखोरी न होने का बखान करने वालों को अपने इस भ्रम से बाहर निकलना चाहिए कि इस्लाम में सूद लेना मना हैं। क़ुरान की विभिन्न सूरा अल निशा, सूरा अल रम, सूरा अल इमरान में सूद लेने की मनाही हैं। जो सूद लेगा वह कयामत के दिन अल्लाह के सामने खड़ा न हो पायेगा। ऐसा प्रचलित किया जाता है। जबकि व्यवहार रूप में सरेआम पिछले दरवाजे से प्रवेश किया जा रहा हैं।

भारत में ही ब्याज रहित इस्लामिक बैंकिग की जिद्द क्यों?

अरुण शौरी की नजर में तलाक और हलाला




अरुण शौरी की नजर में तलाक और हलाला
प्रसिद्द लेखक अरुण शौरी ने एक पुस्तक लिखी है जिसका नाम है The World of Fatwas or The shariah in Action.इसका हिंदी अनुवाद वाणी प्रकाशन, दिल्ली से "फ़तवे, उलेमा और उनकी दुनिया" के नाम से प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक में पिछले 100 वर्षों में विभिन्न मुस्लिम संस्थानों से मौलवियों द्वारा दिए गए विभिन्न फतवों को विषयानुसार समीक्षात्मक दृष्टि से परखा गया हैं। मैंने इस पुस्तक विशेष का नाम एक विशेष कारण के चलते लिया हैं।
आपको कोई भी सड़क चलता मुसलमान यह कहता सुनाई देगा कि "इस्लाम ने औरतों को जितना ऊँचा स्थान दिया है, उससे ऊँचा स्थान उन्हें किसी और धर्म ने नहीं दिया हैं।" इस लेख में हम इस कथन की अरुण शौरी के लेखन के माध्यम से समीक्षा करेंगे।
हम तीन तलाक से आरम्भ करते है। शौरी के अनुसार पैगम्बर साहिब को तलाक से बेहद घृणा थी। वे लिखते है "सभी विधिसम्मत कार्यों में से , तलाक अल्लाह को सबसे ज्यादा घृणास्पद लगता था। सन्दर्भ-पृष्ठ 267"
सिद्धांत रूप में तलाक के घृणास्पद होने के बाद भी इस्लाम में पति केवल एक शब्द तलाक कहकर औरत को घर से निकाल सकता हैं। पत्नी की तीन माहवारी के बीच की अवधियों के दौरान एक-एक बार अथवा एक साथ तीन बार भी कह सकता हैं। पति द्वारा जाने-अनजाने, क्रोध, नशे, किसी के गुमराह करने पर, मजबूर किये जाने पर, मजाक में, गर्भावस्था अथवा बीमारी में, कहना न मानने पर, नमाज़ न पढ़ने पर आदि स्थिति में भी अगर तलाक उसके मुख से निकल गया है तब भी कोई हाकिम बीच बचाव कर पत्नी को तलाक से नहीं बचा सकता। शरिया ऐसी सख्ती से मौलवियों द्वारा लागु किया गया हैं। एक बार घर से बाहर निकाल दिए जाने पर वह किसी रख रखाव खर्च की हकदार नहीं होती। सिवाय तीन माहवारियों तक की अवधि तक खर्च उसे पति से मिल सकता हैं। उसके बाद वह किसी खर्चे की हकदार नहीं रह जाती। तलाक देने वाले पति के लिए किसी प्रकार की कोई जवाबदेही नहीं हैं।
इस्लाम के समर्थक हमेशा यह साबित करना के लिए बैचैन रहते हैं कि उनका धर्म किस प्रकार हमेशा से ही प्रगतिशील, अग्रसर और आधुनिक रहा हैं।इसके विपरीत जब हम क़ुरान या हदीस का अध्ययन करते हैं, तो पता चलता है कि औरत एक ऐसी विपत्ति है जिसे आदमी को झेलना है और वह एक खेत है, जिसे आदमी अपनी मर्जी के मुताबिक चाहे सींचे या न सींचे। (सन्दर्भ-पृष्ठ 304 एवं क़ुरान 2/223) । ज्यादा से ज्यादा यह उन चीजों में से एक है, जिन्हें अल्लाह ने आदमी के आनंद के लिए पैदा किया है। (सन्दर्भ-पृष्ठ 304)
निकाह के समय जो मेहर दी जाती है उसका रामस्वरूप जी की पुस्तक वीमेन इन इस्लाम के अनुसार अर्थ है 'उजरत' अर्थात औरत को इस्तेमाल करने का भाड़ा। मर्द को तो बस औरत से आनंद लेना है और जब वह उससे ऊब जाए तो मामूली सा रखरखाव खर्च और इकरारनामे में तय हुआ मेहर देकर उसे फैंक सकता है। अर्थात यह इस्लाम में औरत के लिए केवल एकतरफा पुरुष का मनमाना एकाधिकार है। औरत को तीन तलाक का भी दिखाकर सदा दबाकर रखने का मंसूबा भर हैं। एक इस्लाम में निष्ठा रखने वाली औरत तलाक से क्यों इतनी भय खाती हैं। इसका केवल आर्थिक और सामाजिक कारण भर नहीं हैं। अपितु एक अन्य कारण भी हैं।
इसे हम तलाक वापिस करने की प्रक्रिया के रूप में जानते हैं। पति अगर पत्नी को तलाक देकर पछताए और उसे दोबारा अपनी बीवी बनाना चाहे तो वह तब तक उसकी बीवी नहीं बन सकती, जब तक कि वह इद्दत की अवधि समाप्त होने के बाद किसी दूसरे आदमी से शादी न करे और वह दूसरी शादी सहवास द्वारा पक्की न हो जाये और वह दूसरा पति उसे तलाक न दे दे और उसके बाद उसकी इद्दत की अवधि पूरी न हो जाए। इस प्रक्रिया को "हलाला" कहते है। उलमा के अनुसार दूसरे पति का सहवास के द्वारा शादी को पक्का नहीं कर देता तब तक हलाला पूरा नहीं होता। अगर कोई पत्नी को तलाक दे दे। उस महिला का दूसरा विवाह भी हो जाये पर जब तक उसका दूसरा पति उसके साथ अगर हमबिस्तरी न करे, तो वे सब कुफ्र के दलाल होते हैं और वह आदमी (मूल पति) और औरत व्यभिचारी और व्यभिचारिणी होते हैं। ऐसे सब लोगों को हद दर्जे की यातना झेलनी पड़ेगी और उन्हें दोज़ख की आग नसीब होगी। (सन्दर्भ-पृष्ठ 324)
शरिया के अनुसार बिना शारीरिक सम्बन्ध बनाये एक महिला का अपने दूसरे पति से तलाक नाजायज़ ही कहलायेगा। पाठक स्वयं सोचे कि क्या "हलाला" कैसी प्रथा के डर से इस्लाम को मानने वाली औरत तलाक से कितना भयभीत रहेगी। सदा पति की जायज-नाजायज मांगों का समर्थन करेगी। यह अत्याचार नहीं तो क्या हैं?
रसूल को तलाक से घृणा थी फिर इस्लाम में यह तलाक कैसे आया? यह जानने के लिए आपको असगर अली इंजीनियर की 'दि राइट्स ऑफ वीमेन इन इस्लाम' नामक पुस्तक पढ़नी पड़ेगी। वे लिखते है, "सवाल यह पैदा होता है कि दूसरे ख़लीफ़ा हज़रत उमर ने तलाक-ए-बत्ताह (तीन बार तलाक) क्यों लगी किया?" इसकी शुरुआत तब हुई जब जंगों में जीती गई बहुत सी औरतें श्याम, मिश्र और दूसरे स्थानों से मदीना पहुंचने लगी। वे गोरे रंग की खूबसूरत औरतें थीं और अरबी लोगों के मन में उनसे विवाह करने की लालसा जाग उठी। लेकिन ये औरतें सौतों के साथ रहने की आदि नहीं थी। इसलिए वे आदमियों के सामने यह शर्त रखती थीं कि वे अपनी पहली बीवियों को तीन बार तलाक दें ताकि उन्हें वापिस न लिया जा सके। वे उन औरतों की तसल्ली के लिए तीन तलाक कह देते और बाद में अपनी बीवियों को वापिस बुला लेते थे। जिसके कारण अनेक विवाद खड़े होने लगे। इसलिए हज़रत उमर ने एक ही बार में दिए गए तीन तलाकों को वापिस न लिया जा सकने वाला तलाक करार दे दिया। तबी से यह शरीयत का अभिन्न अंग बन गया।- (सन्दर्भ पृष्ठ 337-338)
विडंबना यह देखिये कि अरब के लोगों का शौक इस्लाम का एक मजबूत स्तम्भ बन गया। जिस पर सन्देश करना अथवा शंका करना भी कुफ्र अर्थात हराम गिना गया। आज भी शरिया को देश विशेष के कानून से ऊपर मानने वाला मुस्लिम समाज पुरानी प्रथाओं को केवल इस्लाम के नाम पर डोह रहा है। मज़हब के मामले में अक्ल का दख़ल नहीं ऐसा विचार रखने से उसने न केवल अपने आपको रूढ़िवादी बना लिया हैं। अपितु अपने समाज को एक अव्यवहारिक, अतार्किक, बंद समाज में परिवर्तित भी कर लिया हैं।
अरुण शौरी की पुस्तक के आधार पर तैयार किये गए इस लेख को पढ़कर क्या कोई मोमिम यह कहना पसंद करेगा कि
"इस्लाम ने औरतों को जितना ऊँचा स्थान दिया है, उससे ऊँचा स्थान उन्हें किसी और धर्म ने नहीं दिया हैं।"

Wednesday, January 23, 2019

काल्पनिक राम का जनाजा ?



काल्पनिक राम का जनाजा ??
अम्बेडकरवादी, बौद्ध,ईसाई व मुसलमान लोग भगवान राम कृष्ण गीता रामायण वेद उपनिषद मनुस्मृति व आर्यों को लेकर बहुत दुष्प्रचार कर रहे हैं। काल्पनिक राम का जनाजा नामक एक लेख में कुछ धूर्तों ने इतिहास को तोड मरोड कर पेश किया है और मनमाने दोष लगाये हैं। इस लेख की समीक्षा इस प्रकार है:-
1.आक्षेप -श्रीलंका का नाम ‘लंका’ 1972 में ही पड़ा, इससे पहले इस ‘श्रीलंका’ नाम का देश पूरे संसार में भी नही था
समीक्षक : गलत, 1972 से पूर्व भी नाम लंका था. सिंहल भाषा में श्रीलंका कहा जाता था. तामिल भाषा में इलंका कहते थे. आज से लगभग 5150 वर्ष पूर्व लिखित इतिहास-ग्रन्थ महाभारत में भी इस टापू को _लंका_ ही कहा गया था. आज से लाखों वर्ष पूर्व शूद्र वाल्मीकि जो बाद में ऋषि कहलाये, उनके द्वारा लिखित इतिहास-ग्रन्थ रामायण में भी इस टापू का नाम लंका ही वर्णित है.
2.आक्षेप - ‘अयोध्या’ को पहले ‘साकेत’ कहा जाता था। 2,000 साल पूर्व अयोथ्या नाम का शहर भारत में नही था !
समीक्षक अयोध्या को साकेत गौतम बुद्ध के काल में कहा जाने लगा. पूर्व में तो अयोध्या ही नाम था, जिसे कोशल राज्य की राजधानी कहा जाता था. वाल्मीकि रामायण में भी अयोध्या ही वर्णित है.
अ = नहीं
योद्ध्या = जिसे युद्ध में जीता जा सके.
अतः अयोद्ध्या का अर्थ जिससे युद्ध ना किया जा सके.
3.आक्षेप - 12,000 साल पूर्व ‘भारत’ से ‘श्रीलंका’, “सड़क-मार्ग” से जा सकते थे, क्योकि समुद्र का जलस्तर कम होने के कारण दोनो देशों के बीच 1 to 80 किमी. तक चौड़ा जमीनी मार्ग था । ऐसे में 17,00,000 लाख साल पुर्व में जन्मे भगवान राम ने कौन सी ‘अयोध्या’ से किस ‘लंका’ पर चढ़ाई की और वह ‘रामसेतु’ कहाँ बनाया ? यह समझ परे की बात हैं !
समीक्षक : गलत, आपकी बातें निराधार हैं, भारत और श्रीलंका के बीच में बहुत बडा पर्वत है, जो की समुद्र के तल के नीचे है, और करोडों वर्ष पुराना है. श्रीरामसेतु का निर्माण इस पर्वत के आधार से ही हुआ. वाल्मीकि-रामायण में हनुमान का समुद्र को पार करना और बाद में उसी मार्ग में सेतु निर्माण का विस्तार से वर्णन है.
4.आक्षेप - कहीं ऐसा तो नही की ‘रामायण’ कल्पनात्मक ढंग से लिखी गई हो और प्रचार होने पर किसी शहर का नाम ‘अयोध्या’ तो किसी देश का नाम ‘श्रीलंका’ रख दिया हो !
तथ्य और प्रमाण: •-‘श्रीलंका’ अब चुंकी आम लोग नाम के आधार पर ‘श्रीलंका’ को ‘रावण’ की लंका मानते हैं और वहाँ स्थित प्राचीन बौद्ध-स्थलों को भी रावण की राजधानी से जोड़ रहै हैं। पर शोधकर्ता इससे सहमत नहीं हैं। उस देश का नाम भी ‘श्रीलंका’ नही था! आप ‘श्रीलंका’ का इतिहास पढ़ सकते हैं। 1972 से पूर्व ‘श्रीलंका’ नाम से संसार में भी कोई देश नही था । भारत के दक्षिण में स्थित इस देश की दूरी भारत से मात्र 31 किलोमीटर है। 1972 तक इसका नाम सीलोन (अंग्रेजी:Ceylon) था, जिसे 1972 में बदलकर लंका तथा 1978 में इसके आगे सम्मानसूचक शब्द “श्री” जोड़कर श्रीलंका कर दिया गया। आप इंटरनेट पर ‘श्रीलंका’ का इतिहास पढ़ सकते हैं । लंका से पहले यह देश ‘सीलोंन’ नाम से जाना जाता था । ‘सीलोंन’ से पूर्व इसे ‘सिंहलद्वीप’ कहा जाता था । इससे भी पूर्व यह दीपवंशा, कुलावंशा, राजावेलिया इत्यादि नामों से जाना जाता था। मगर ‘लंका’ कभी नही, क्योंकि स्वयं ‘लंकावासियों’ को भी राम, रामायण, और रावण का कोई अता-पता नही था। तीसरी सदी ईसा पूर्व में मौर्य सम्राट अशोक के पुत्र महेन्द्र के यहां आने पर ‘बौद्ध धर्म’ का आगमन हुआ।
मगर भारत के ‘चोल’ शासकों का ध्यान जब इस द्वीप पर गया तो वे इसका संबंध रावण की लंका से जोड़ने लगे । हालांकि तब भी श्रीलंकावासी स्वयं इस तथ्य से अनभिज्ञ ही थे। ‘रामायण’ में जिस ‘लंका’ का उल्लेख किया गया है वह प्राचीन भारत का कोई ग्रामीण क्षेत्र था जो लंबे-चौड़े नदी-नालों से आमजन से कटा हुआ था । कई इतिहारकारों के अनुसार यह स्थल ‘दक्षिण-भारत’ का ही कोई क्षेत्र था ।
समीक्षक : सीलोन शब्द श्रीलंका से ही व्युत्पन्न (derived) है. जिसे अंग्रेजों ने बिगाडा था.
श्री = सी
लंका = लोन
आप भी इन्टरनेट पर पढ लीजिये की इसका नाम अनेक ग्रन्थों में श्रीलंका था,
https://en.wikipedia.org/wiki/Sri_Lanka
आप जिन शोधकर्त्ताओं की बात कर रहे हैं, वो जो वामपन्थी देशद्रोही मानसिकता से पीडित हैं, या तो अंग्रेजों एवं ईसाई मिशनरियों के तलवे चाटते हैं. जो की हवा में बात करते हैं, भारत के प्राचीन इतिहास-ग्रन्थों को Epic या मनगढंत कहानी कहते हैं. उनकी बातें निराधार और अप्रामाणिक होने से अमान्य हैं.
सिंहलद्वीप तो बहुत नया नाम है, और सिंगापुर को सिंहपुर (City of Lions) कहते थे. प्राचीनतम नाम लंका ही है
5.आक्षेप द्वितीय- भारत और ‘श्रीलंका’ के बीच में “कोरल्स” की चट्टानें है उन्हें पत्थर नहीं कहा जा सकता है । इन ‘कोरल्स’ की संरचना ‘मधुमक्खियों’ के छत्ते के समान होती है, जिनमे बारीक़ रिक्त स्थान होते है। अतः किसी भी हल्की वस्तु का आयतन, पानी के घनत्व के कम होने पर वह तैरने लगती है !!!
•-‘अयोध्या’ यहीं नही अपितु राम की कथित ‘अयोध्या’ भी दो हजार वर्ष पूर्व अस्तित्व में नहीं थी। आज जिसे अयोध्या कहते है उसे पहले ‘साकेत’ कहा जाता था । ‘मौर्यकाल’ के बाद ‘शुंगकाल’ में ही “साकेत” का नाम अयोध्या रखा गया। बौद्धकालीन किसी भी ग्रंथ में अयोध्या नाम से कोई स्थान नही था। ’साकेत’ का ही नाम बदलकर ‘अयोध्या’ रखा गया।
समीक्षक : बौद्धों का अस्तित्व तो केवल 2500 वर्षों से है, यह कुछ संकीर्ण मानसिकता से युक्त बौद्धों का षड्यन्त्र ही है, की उनके ग्रन्थों में अयोध्या शब्द को स्थान नहीं दिया गया. राजीव दीक्षित जी के वीडियों में श्रीरामसेतु से सम्बन्धित अनेक प्रमाण प्रस्तुत किये गए थे, जो की निम्नलिखित लिंकों में है:
6.आक्षेप : वैज्ञानिकों के अनुसार धरती पर ‘आधुनिक-मानव’ (Homo-sapiens) की उत्पति 1 लाख, तीस-हजार साल पूर्व ‘अफ्रीका’ में हुई थी। कालांतर में आज से एक लाख साल पूर्व वहां से मानव का भिन्न-भिन्न कबीलों के रूप में भिन्न-भिन्न ‘द्वीपों’ और ‘महाद्वीपों’ की और अलगाव होता रहा।
हमारे ‘भारत’ में मानव का 67,000 साल (सतसठ हजार) पूर्व आना बताया गया है। इन तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि जो घटनाये आज समाज के सामने प्रस्तुत की जाती हैं उनका गहराई से अध्ययन ज़रूर करना चाहिये तभी सत्यता को समझा जा सकता है। अन्यथा कल्पनाओ में डुबोकर लोगो को पाखण्ड और अंधविश्वास के सहारे सिर्फ मारा ही जा सकता है. आधुनिक विकाश से इसका कोई वास्ता नही हो सकता है वैसे भी गौरतलब तथ्य तो यही है कि धूर्तों का तथाकथित अन्यायी राम था तो बहुजन मूलनिवासियों का हत्यारा और दुश्मन ही यह बात भारतीय बहुजन मूलनिवासियों को जितनी जल्दी समझ में आ जाय उतनी ही जल्दी इस राम का जनाजा उठने में इस देश को मदद मिलेगी....
समीक्षक : वैज्ञानिकों के अनुसार नहीं, डार्विन लालबुझक्कड़ के अनुसार, तथाकथित होमो-सेपियन्स की उत्पत्ति 1 लाख से 2 लाख वर्ष पूर्व के बीच हुई थी. ये बताईये की जब आदम (Adam) प्रथम बुद्धिमान मनुष्य था, तो और जब आदम अधिकतम 7000 वर्ष पूर्व हुआ था, तो 1 लाख 30 हज़ार वर्ष पूर्व homo Sapiens कैसे हो गया ???
150 वर्ष पूर्व तथाकथित वैज्ञानिक सृष्टि की उत्पत्ति १०००० वर्ष पूर्व की बताते थे. दिनों-दिन सृष्टि की अवधि तथाकथित वैज्ञानिक बढाते चले जा रहे हैं. भारतीय वैदिक विद्वानों के अनुसार, सृष्टि की उत्पत्ति 1 अरब 97 करोड वर्ष पूर्व हुई थी, और 1 अरब 96 करोड वर्ष पूर्व मनुष्यों की उत्पत्ति हुई. विकासवाद का सिद्धान्त झूठा है, और इस पर विस्तृत समालोचना पण्डित रघुनन्दन शर्मा जी ने “वैदिक सम्पत्ति” नामक पुस्तक में लिखी है.
एक तरफ तो आप श्रीराम की सत्ता को अस्वीकार करते हो, दूसरी तरफ उन्हें अन्यायी और हत्यारा कहते हो, जो सूचित करता है, की या तो आपकी बुद्धि का दिवाला निकल गया है, या अपनी बुद्धिमत्ता को क्रिश्चन मिशनरियों के हाथों बेच चुके हैं .
वामपन्थियों के चेलों और अंग्रेजों के तलवे चाटने वाले देशद्रोही ही श्रीराम जैसे महापुरुषों की निन्दा करते हैं, और उनके अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं.
श्रीराम ही एकमात्र राजा हैं जिनके अस्तित्व का प्रमाण पूरे विश्व में मिलता है, विस्तृत जानकारी के लिए पढ़िए “ वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास (4 भागों में)” _लेखक: पुरुषोत्तम नागेश ओक_.
Source-facebook.

Thursday, January 17, 2019

महर्षि दयानन्द के अनुयायी क्यों बनें?



महर्षि दयानन्द के अनुयायी क्यों बनें?
1. दयानन्द का सच्चा अनुयायी भूत-प्रेत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी आदि कल्पित पदार्थों से कभी भयभीत नहीं होता ।
2. आप फलित ज्योतिष, जन्म-पत्र, मुहूर्त, दिशा-शूल, शुभाशुभ ग्रहों के फल, झूठे वास्तु शास्त्र आदि धनापहरण के अनेक मिथ्या जाल से स्वयं को बचा लेंगें ।
3. कोई पाखण्डी साधु, पुजारी, गंगा पुत्र आपको बहका कर आपसे दान-पुण्य के बहाने अपनी जेब गरम नहीं कर सकेगा ।
4. शीतला, भैरव, काली, कराली, शनैश्चर आदि अप-देवता, जिनका वस्तुतः कोई अस्तित्व ही नहीं है, आपका कुछ भी अनिष्ट नहीं कर सकेंगे । जब वे हैं ही नहीं तो बेचारे करेंगे क्या ?
5. आप मदिरापान, धूम्रपान, विभिन्न प्रकार के मादक से बचे रह कर अपने स्वास्थ्य और धन की हानि से बच जायेंगे ।
6. बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह, नारी-प्रताडना, पर्दा-प्रथा, अस्पृश्यता आदि सामाजिक बुराइयों से दूर रहकर सामाजिक सुधार के उदाहरण बन सकेंगे ।
7. जीवन का लक्ष्य सादगी को बनायेंगे और मित व्यवस्था के आदर्श को स्वीकार करने के कारण दहेज, मिलनी, विवाहों में अपव्यय आदि पर अंकुश लगाकर आदर्श उपस्थित करेंगे ।
8. दयानन्द का अनुयायी होने के कारण अपने देश की भाषा, संस्कृति, स्वधर्म तथा स्वदेश के प्रति आपके हृदय में अनन्य प्रेम रहेगा ।
9. आप पश्चिम के अन्धानुकरण से स्वयं को तथा अपनी सन्तान को बचायेंगे तथा फैशन परस्ती, फिजूलखर्ची, व्यर्थ के आडम्बर तथा तडक-भडक से दूर रहेंगे ।
10. आप अपने बच्चों में अच्छे संस्कार डालेंगे ताकि आगे चलकर वे शिष्ट, अनुशासन प्रिय, आज्ञाकारी बनें तथा बडों का सम्मान करें ।
11. आप अपने कार्य, व्यवसाय, नौकरी आदि में समय का पालन, ईमानदारी, कर्त्तव्यपरायणता को महत्त्व देंगे ताकि लोग आपको मिसाल के तौर पर पेश करें ।
12. वेदादि सद् ग्रन्थों के अध्ययन में आपकी रुचि बढेगी, फलतः आपका बौद्धिक क्षितिज विस्तृत होगा और विश्व-बन्धुता बढेगी ।
13. जीवन और जगत् के प्रति आपका सोच अधिकाधिक वैज्ञानिक होता चला जायेगा । इसे ही स्वामी दयानन्द ने 'सृष्टिक्रम से अविरुद्ध होना' कहा है । आप इसी बात को सत्य मानेंगे जो युक्ति, तर्क और विवेक की कसौटी पर खरी उतरती हो । मिथ्या चमत्कारों और ऐसे चमत्कार दिखाने वाले ढोंगी बाबाओं के चक्कर में दयानन्द के अनुयायी कभी नहीं आते ।
14. दयानन्द की शिक्षा आपको एक परिपूर्ण मानव बना देगी । आप जाति, धर्म, भाषा, संस्कृति के भेदों से ऊपर उठकर मनुष्य मात्र की एकता के हामी बन जायेंगे ।
15. निन्दा-स्तुति, हानि-लाभ, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों को सहन करने की क्षमता आप में अनायास आ जायेगी ।
16. शैव, शाक्त, कापालिक, वैष्णव, ब्रह्माकुमारी आदि सम्प्रदायों के मिथ्या जाल से हटकर आप एक अद्वितीय सच्चिदानन्द परमात्मा के उपासक बन जायेंगे ।
17. आपकी गृहस्थी में पंच महायज्ञों का प्रवर्त्तन होगा जिससे आप परमात्मा, सूर्यादि देवगण, माता-पिता आदि पितृगण, अतिथि एवं सामान्य जीवों की सेवा का आदर्श प्रस्तुत करेंगे ।
क्या दयानन्द के अनुयायी बनने से मिलने वाले उपर्युक्त लाभ कोई कम महत्त्व के हैं ?
तो फिर देर क्यों ?
आज ही दयानन्द के सैनिकों में अपना नाम लिखायें ।
[सन्दर्भ - 'दयानन्द-सन्देश' का फरवरी २००३ अंक]

Wednesday, January 16, 2019

मेरे भाई 'बिस्मिल'

मेरे भाई 'बिस्मिल'

श्रीमती शास्त्री देवी (अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल की बहिन)




मेरा जन्म सन् १९०२ में हुआ था। भाई रामप्रसाद बिस्मिल के चार साल बाद मैं पैदा हुई थी। भाई जी मुझ पर बहुत स्नेह रखते थे। मेरे पिता के खानदान में लड़कियों को होते ही मार डालते थे। मेरे मारने के लिये बाबा और दादी ने मेरी माताजी को कहा, मगर माताजी ने नहीं मारा। भाई बहुत रोते थे कि बिटिया को मत मारो। मैं तीन महीने की हो गई थी, तब दादी ने माता जी से फिर ताना मार कर कहा कि क्या लड़का है, जो इसकी इतनी हिफाजत करती है। माताजी ने बाबा के यहां से अफीम मंगाकर मुझे पिला दी। पड़ोस में थानेदार का मकान था। उनकी पत्नी हमारे घर आती थीं। उन्होंने मेरी खराब हालत देखी और कहा कि इसे क्या दे दिया? मैं दरोगाजी से कहूंगी। उन्होंने दरोगाजी से कह भी दिया। दरोगाजी ने दादी को बुलाकर कहा कि मैं सबको गिरफ्तार करा दूंगा। तुम लोगों ने कन्या की हत्या क्यों की? तब बहुत से इलाज किए। तीसरे दिन मुझे होश आया। फिर मां का दूध नहीं पिलाने दिया। कभी-कभी गाय का दूध छिपकर माताजी पिला देती थीं। तीन साल तक अफीम के नशे में रखा। मुझे बैठना तक नहीं आया। एक मुंसिफ साहब पड़ोस में रहते थे। उनके कोई बच्चा न था। मुंसिफ की पत्नी मेरे ही यहां से दूध मोल लेकर मुझे पिलाती रहीं। मैं चंगी होती गई। दो साल के बाद उनके भी बालक हुआ, मगर वे मेरी हिफाजत करती रहीं। कहने लगीं, इसी कन्या के भाग्य से मेरे पुत्र हुआ। उनकी बदली हुई, तो मुझे मांगा और कहा मैं ही शादी करूंगी, मगर घरवालों ने नहीं दिया। भाई ने रोना शुरू किया कि मैं अपनी बिटिया को नहीं दूंगा। भाई को स्त्री समाज से बहुत प्रेम हो गया। मुझे भी बराबर साथ-साथ सन्ध्या-हवन सिखाया। आप क्रान्तिकारियों के साथ चले जाते थे। मेरे से कह जाते थे किसी से कुछ न कहना। जो कह दिया तो जान से मार दूंगा। मैं डर से किसी से नहीं कहती थी। मैं लोअर मिडिल में जब पढ़ती थी, तब आपने रात को इश्तहार छपवाकर सरकारी जगहों पर अड़तालीस जिलों में लगवा दिए। पुलिस को पता चल गया कि रामप्रसाद ही सब में शामिल है। तब तक आप चार मित्र सलाह करके वायसराय को मारने कलकत्ते को रवाना हुए। बीच में इलाहाबाद ठहरे। गंगासिंह, राजाराम, देवनारायण और रामप्रसाद। इन चारों में बहुत झगड़ा हो गया। रामप्रसाद का कहना था कि एक वायसराय को मारने से स्वराज्य नहीं हो सकता। जिस तरह एक रात में इश्तहार लगा दिए, इसी तरह सारे हिन्दुस्तान के अंग्रेज खतम कर दिए जायें तो अच्छा हो। इन लोगों ने सलाह करके कहा कि पहले रामप्रसाद को ही खतम कर दो, यही काम नहीं चलने देगा। सब अंग्रेज किस तरह खतम हो सकते हैं। प्रातः काल त्रिवेणी के तट पर श्री रामप्रसाद जी सन्ध्या कर रहे थे कि --- ने तमंचा छोड़ दिया। पहली गोली न मालूम हुई, क्योंकि ध्यान प्राणायाम में था।दूसरी गोली कान के नजदीक से होकर निकली। कुछ सनसनाहट मालूम होने पर आंख खोलकर देखा, तो सामने- तमंचा ताने खड़े हैं। उठकर भागे। कपड़े अपना तमंचा वहीं छूट गया। जान बचाकर एक पंडित तिवारी जी के यहां पहुंचे। पंडित जी ने धीरज बंधाया, कहा कि क्या आफत आ गई; वे अपनी पहिचान के थे। कुछ देर ठहर कर गायब हो गए। तब तक ये सब तिवारी जी के यहां पहुंच गए। पूछा कि रामप्रसाद आए हैं। उन्होंने कहा दिया कि यहां नहीं आये। इन लोगों ने बहुत ढूंढ़ा, मगर कहीं पता न मिला। ये लोग वापिस शहाजहांपुर आ गए। रामप्रसाद बंगाल की तरफ चले गए। इन लोगों ने समझा मारे गए। हमारे घरवालों ने सच मान लिया कि मर गए। उनका सब कारज भी कर दिया, फिर पिताजी बहुत घबराए कि लड़कियों की शादी भी करनी है। मैं अकेला कमाने वाला हूं। उन्होंने मेरा पढ़ना बन्द कर दिया, अपने देश में आकर शादी का इन्तजाम किया। जिला आगरा में पिनाहट के पास एक मौजा है। उसमें मेरे पिता की ननसाल थी, उसी के पास मेरी भी ननसाल थी। वहीं से शादी का प्रबन्ध किया। भाई का कहना कि खूब पढ़ाकर अच्छे घर शादी करूंगा, मगर भाई के न होने से एक गरीब किसान के यहां कोसमा में शादी की। मैं भला क्या कह सकती थी। जिस दिन शादी थी, उसी दिन भाई शाहजहांपुर आ गये। दादी ने कहा कि आज तुम्हारी बहन की शादी है, तो बहुत घबराये और उसी समय चल दिये। दूसरे दिन वहां पहुंच गये। शादी हो चुकी थी। माता-पिता तो खुशी में देखने को आये कि रामप्रसाद आ गये, सब लोग खुशी मनावें, मगर वह अफसोस में बैठे आंसुओं से मुंह धो रहे थे। लोगों ने कहा कि क्या बात है? बहुत पूछने पर बोले कि मेरी बहन की तकदीर फूट गई, जो ऐसे घर शादी हुई। मैंने तो अच्छा घर देखा था। अभी तो बहन की पढ़ाई भी तो बाकी है। खैर जो हुआ सो अच्छा ही है। आप एक दिन ठहरें। माता जी से कुछ रुपये लेकर विदा हो पहले लश्कर को चले गये, वहां हथियारों को तलाश कर तय करके पिनाहट आये। मेरी चौथी चला कर शाजहांपुर को वापिस आये। आप फिर लश्कर से तमंचे लाये। इतने में शाहजहांपुर में हद से ज्यादा चोरियां होने लगीं। पुलिस चोर-बदमाशों से मिल गई; तब इन लोगों ने तथा सेवा समितियों ने अपने सिर इन्तजाम रक्खा। मिर्जापुर से लाठियां मंगाईं। बल्लमें बढ़वाईं, रात रात भर पहरा दिया। तब चोरियां बंद हुईं, फिर आप लश्कर गये। दो बन्दूक लाए। कोसमा में आकर मेरी विदा कराई, स्टेशन पर जाकर एकान्त जगह में मेरी दोनों जांघों में बन्दूक बांधकर भारी लहंगे में छिपा दी। फिर फर्रुखाबाद धर्मशाला में ठहरे। बिस्तर में बन्दूक बांध मेरे सिरहाने रात भर रखीं। आप दूर लेटे। सवेरे फिर उसी तरह बांध दीं। मैं कुछ खड़ी रहूं, कुछ सहारे से पैर फैलाकर बैठ भी जाती थी। बारह बजे दिन के बरेली पहुंच गए, वहां स्टेशन मास्टर ने भाई को पहचान कर उतार लिया। उनकी मित्रता थी। बहुत कहा कि अभी मत रोको, फिर आऊंगा, मगर वह मुझे पकड़कर ले चले। मैंने बहुत कहा कि गठिया से मेरी टांगों में दर्द होता है। चलने से मजबूर हूं, मगर वह लिवा ले गए। धीरे-धीरे चले गए। भाई कुछ उदास हो गये। मगर मैं तो समझ गई। उन्होंने खाना बनवाया। मैं बाहर निकल आई और चल पड़ी। मैंने कहा- "मैं नहीं रहूंगी", उन्होंने बहुत कहा, खाना खाकर चली जाना। मैं रोने लग गई। मेरी टांगों में दर्द से बैठने में बहुत तकलीफ होती है, घर ही जाऊंगी। मैं चल पड़ी। पीछे से भाई भी चल दिए। जब गाड़ी में बैठ गए, तब बोले- "बिट्टो तुम बहुत होशियार निकली। अब तो मैंने समझ लिया कि तुम सहायता दोगी।" शाहजहांपुर स्टेशन से तांगे में बैठ घर पहुंच गए। मगर माताजी को कुछ न बताया। मुझसे भी मना कर दिया कि किसी को न बताना।
एक महीने बाद मैं कोसमा फिर आ गई। फिर माताजी से फुसला कर कुछ रोजगार करना चाहता हूं पिताजी से न कहना, रुपये लेकर फिर हथियार लाना शुरू कर दिया। मैं शाहजहांपुर तक पहुंचा देती थी। एक दिन अचानक पुलिस ने घर पर छापा मारा। भाई खाना खाने बैठे ही थे कि राजाराम को गिरफ्तार करके मेरे दरवाजे को जो आए, सो मैंने भागकर कहा कि पुलिस आ गई। भाई बोले कि कुण्डी बन्द करके मेरी सन्दूक में जितनी किताबें हों, सब मिट्टी का तेल डालकर जल्दी जला दो। मैं तो जाता हूं। आप छतों-छतों सड़क पर कूद गए, सीधे स्टेशन से गाड़ी में बैठकर आगरा आ गए। फिर पिनाहट पहुंच गए। वहां कौन पकड़ सकता था? पुलिसवालों ने किवाड़ तोड़ डाले। कुण्डी खोल दी। "यह क्या जला दिया?" घुड़की दी। "रामप्रसाद कहां है? जल्दी बताओ।" हम लोगों ने कहा कि पता नहीं ढूंढ़ लो। सारे सन्दूक खोल डाले। जो मिला ले गए, साइकिल उठा ले गए। पिताजी कचहरी में थे, दादी भी नहीं थीं। अकेली माताजी और लड़कियां रोती रह गईं। छोटा भाई सुशीलचन्द्र गोदी में था। हम चार बहन दो भाई थे। तीन बहनों की शादी हो गईं, एक दस बरस की मर गईं, दो बहन विवाह के बाद मर गईं, एक छोटी बहन तो जहर खाकर मर गई। भाई को फांसी का हुक्म हुआ, सुनकर उसने जहर खा लिया। उसकी शादी भाई ने एक जमींदार के साथ की थी। वह हम से छह मील की दूरी पर थी; कुचेला के मौज में। छोटा भाई बीमार हो गया, तपेदिक हो गई थी। पिता जी अस्पताल में भर्ती कर आए, डाक्टर ने कहा कि दो सौ रुपये दो, तो हम ठीक कर सकते हैं। पिताजी ने कहा कि मेरे पास अगर रुपये होते तो यहां क्यों आता? मुझे तो गवर्नमेंट ने भेंट दिया; लड़का भी गया, पैसा भी गया। अब तो बहुत दिन हो गये। गणेशशंकर विद्यार्थी पन्द्रह रुपये मासिक देते हैं, उससे गुजर करता हूं। एक हफ्ता अस्पताल में रहा, उसे खून के दस्त हुए, चौबीस घण्टे में खतम हो गया। दसवां दर्जा पास था। वह भी बोलने में अच्छा था। लोग कहते थे कि यह भी रामप्रसाद की तरह काम करेगा। अब इस समय मायके के सारे खानदान में मैं ही अकेली अभागिनी रह गई हूं। फिर भाई तो कुछ दिन कोसमा, कुछ दिन रूहर बरबाई रहे। उनके साथी बहुत पकड़े गये। मैनपुरी षड्यन्त्र केस चला। आपके साथी मैनपुरी में भी थे। जो हथियार आप लाते थे मेरे यहां रखे रहते थे। मैं इसी तरह पहुंचा देती थी। साथियों को भी लाया करते थे। फिर माता-पिता बहुत दुःखी होकर वह भी पिनाहट में रहने लगे। आप भी दो साल गायब रहे। वहां खेती भी की और वहीं आप कविता भी करते थे। आपने छह किताबें छपाई- मन की लहर, वोलशेविकों की करतूत, कैथोरायन, स्वदेशी रंग एवं दो बंगला से अनुवादित कीं। बंगला में बहुत निपुण थे। कुछ दिनों आगरे में डाक्टरी भी की। अपना नाम यहां बदल दिया था, रूपसिंह रखा था। विरोधी लोगों को नहीं ज्ञात हुआ कि यह फरार हैं, नहीं तो पकड़वा देते। वारंट में दो हजारा रुपये का इनाम था। एक दिन माता जी को क्रोध आ गया कि हम सब तेरे ही पीछे बरबाद हो गये। सो घर-बार से भी भेंट दिया, तेरे होने का क्या सुख, मुसीबत ही है। उसी समय आप चल पड़े। न कुछ कहा, खाली धोती आधी ओढ़े आधी पहने। सर्दी का मौसम था। शाहजहांपुर तीसरे दिन रात को पहुंचे। एक पैसा भी पास न था। अठारह कोस आगरा पैदल गये। रास्ते में शेर मिला। आप एक बबूल के पेड़ के साथ खड़े होकर ईश्वर से प्रार्थना करने लगे कि मेरा कोई कसूर है तो काल आ गया। ईश्वर की कृपा से शेर उलटा ही लौट गया। आप खड़े-खड़े देखते रहे कि वह फिर न लौट पड़े, मगर वह चला गया। आप कुछ देर बाद वहां से फिर चल दिये। आगरा पहुंच कर बिना टिकट छिपकर गाड़ी में बैठ गए। रात के बारह बज रहे थे। दादी ने समझा कि कोई पुलिस का आदमी है। बोलीं, 'क्यों मुझे सताते हो?' आपने कहा कि मैं रामप्रसाद हूं। खोल दो, मैं पिनाहट से आया हूं। दादी ने कूंडी खोली। बोले- "दादी आआग जला दो, कुछ खाने को रख हो तो दे दो, भूख के मारे दम निकल रहा है, तब बात कहूंगा।"
दादी ने कहा कि एक रोटी छीके पर रखी है, वह सूख गई होगी। बोले मुझे जल्दी दे दो, वह खाकर पानी पी लिया, तब बात निकली। कहा- माता जी नाराज हुई इससे चला आया। दादी ने कहा- तेरा तो वारण्ट जारी है। उन्होंने कहा कि मैं हाजिर हो जाऊंगा, जो कुछ ईश्वर की इच्छा होगी वह होगा। दूसरे दिन कप्तान साहब के सामने हाजिर हुए। कप्तान बोला कि आप तो खतम थे, अब जिन्दा कहाँ से आ गए। कहाँ रहे? तब जवाब दिया कि मैं आगरा रहा। क्या काम करते रहे? कहा कि कुछ दिन इलाज करते रहे। अस्पताल में डाक्टर को ऐवजी में रहे थे। डाक्टर का मेल था, वह छुट्टी पर चला गया था, कुछ दिनों कविता करते रहे, वह किताबें भी दिखाईं। कप्तान ने छह महीने को नजरानी बोल दी। इतने में आपने एक रेशम के कारखाने में 60 रुपये की नौकरी कर ली। पहली तनखा पिताजी के नाम भेज दी। लिख दिया कि माता जी मेरे अपराध को क्षमा कीजिये। यह रुपये रख लीजिये। अब मैं आपके ऋण को ही चुकता करूँगा। माता जी को बहुत दुःख हुआ कि रामप्रसाद को मेरा कहना बुरा मालूम हुआ। इसलिये नंगा-भूखा चला गया। कुछ दिनों पता नहीं दिया। माता जी बहुत दुखित रहती थीं। पत्र तथा रुपये आने पर शान्ति आई। आपने छह महीने नौकरी की। बाद को आधे के हिस्सेदार बन गये। --- के साझे में कारखाना था। उस समय हम तीनों बहन मौजूद थीं। बढ़िया तीन साड़ी बनारसी कामदार बनाई। कातिक दौज को बहनों को दूंगा। बड़े बहनोई को साफा बनवाया। काफी पैसा पैदा किया, फिर मां-बाप को भी बुलवा लिया क्रान्तिकारियों का काम बराबर करते रहे। फिर दो पिस्तौल बढ़िया, दो तमंचे एवं दो बंदूकें लश्कर से ले गए। शाहजहांपुर तक मैं पहुंचा आई। दो बार मैं पहुंचा सकी। एक वकील के यहां रखीं और रकम भी उन्हीं के यहां रखते थे। घर खर्चे को ही देते थे। वकील साहब से पिता जी और उनकी पत्नी से माता जी कहते थे। उनके दो लड़के थे। वह भाई के समान थे। बहुत ही विश्वास था। कारखाने का नाम छोटे भाई सुशीलचन्द्र के नाम से रखा और सुशील माला भी छपवाई थी। भाई रामप्रसाद दयावान् भी अधिक थे। कोई गरीब भिक्षा मांगे तो पांच रुपये से लगाकर दस रुपये तक दे देते थे। किसी को जाड़े से ठिठुरता देखते, तो अपने तन से कपड़ा उतार देते थे, चाहे कितना ही कीमती क्यों न हो। एक दिन दादी नाराज हुईं कि क्या अपनी बहन का भी ख्याल है, जो गरीब है? इतनी कीमत की लोई तू क्यों फकीरों को दे आया? कोई हलके मोल का कपड़ा दे देता। लोई बहन को ही दे आता। वैसे तो हथियारों के लाने को बड़ी बिटिया है। औरों को दुशाले। अगर वह पकड़ जाए, तो जेल ही में तो सड़े। इतना पैसा भी नहीं, जो छूट सके। आप बोले कि बिटिया का मुझे बहुत खयाल है। मैं दिवाली पर जाऊंगा, तब उसका सारा कर्जा निबटा दूंगा और जो साड़ी बनी रखी हैं वह तीनों को दे आऊंगा। बड़ी बिटिया से हिसाब पूछ आया हूँ कि कुल कितना दर्जा है। 400 रुपये बताए हैं। उसे तो मैं रेशम ही पहनाऊंगा। उसने मेरे बहुत काम निकाले, हथियार लाना, उनकी हिफाजत करना, मेरे न होने से भी संभाल रखना। जब मैं शाहाजहांपुर रहती थी, तब एक चौड़ा गड्ढा था, उसमें सारे सामान रखे रहते थे। ऊपर एक तख्ता डाल दिया और मिट्टी डाल दी। 8 वें दिन सफाई, तेल लगाना, सुखाना पड़ता था। जब कहीं ले गये तो निकाल लिए, कुछ सामान बंब का भी रखते थे। एक दिन बारूद में रगड़ से जोर से आवाज हुई। आप बच गए, निकल कर भाग गए। हम लोग बहुत ही डरे, मगर मिट्टी से सब ढक दिया। एक छोटा-सा मकान अलग था। उसी में सब रहता था। उसी में उनके साथी भी छिपे रहते थे। मैं सबको खाना खिलाती थी। दूसरा कोई उस घर में नहीं जाता था। कुछ लोग आवाज सुनकर जग पड़े। बंदूकें कहां चलीं, हम लोग भी कहने लगे, देखो कहां से आवाज हुई। हम लोग तो सोते से जग पड़े। रामप्रसाद कहां है मालूम नहीं, वह तो कल से ही नहीं आया, गांव गया है, आप खडहर गांव में पहुंचे गए। पांच दिन बाद आए। थाना नजदीक था। सिपाही भी आ गए। फिर मोती चौक में एक खाली मकान था, उसमें अपना काम करने लगे। बनारसीलाल बढ़ई तथा विष्णु शर्मा, चौदह साल की जेल भुगत आ गए- काकोरी केस में। फिर रामप्रसाद सावन में मुझे लेने आए। यहां से मुझे नहीं भेजा। आप कार्तिक की कह गए कि हम आवेंगे तब तक आप कुंआर की नौदुर्गा में गिरफ्तार हो गए। नौमी का दिन था। प्रातः समय आप दातून कर रहे थे कि पुलिस ने छापा मारा। रामप्रसाद जल्दी निकले। आपने किवाड़ खोल दिये। एक पर्चा दे दिया, उसे आप पढ़ कर बोले अभी चलता हूं! माता जी से कुछ बातें करनी हैं। अच्छी यहीं जो कुछ कहना हो कह दीजिए। माता-पिता दोनों खड़े ही थे। पिताजी के पैर छूकर कहा माफी दीजिए। माता जी के पैरों पर सर रखकर बोले, "मैंने आपकी सेवा कुछ न कर पाई, माता धीरज रखना, छोटे भाई सुशीलचन्द्र को हृदय लगाया, मैं तो जाता हूं, न जाने फिर आया या न आया। देश-सेवा पर चाहे मेरा बलिदान ही क्यों न हो, मगर काम यही करूंगा। मरने से मुझे कोई डर नहीं। जेल से डर नहीं, शेर ही कटहरे में फांसे जाते हैं न कि गीदड़। सब को प्रणाम करते हुए आप हंसते हुए चल दिए। सन् 1924 में गिरफ्तार हुए। ढाई साल मुकदमा चला। सन् 25 में छोटी बहन खतम हो गई। मेरे पुत्र पैदा हुआ। आप लखनऊ ही जेल में थे, भानजे का जन्म सुनकर उत्सव मनाया। बहन की जहर खाकर आत्म-हत्या की बात सुन कर शोक भी किया। अपनी जीवनी में उन्होंने सारी बातें लिखी हैं, जो उनके हाथ की लिखी हुई है। उसमें से कुछ बात छोड़ दी हैं, हां मुख्य, मुख्य बातें आत्मकथा में है। आपके मुकदमे में जो कुछ था पिता जी ने लगा दिया, फिर पिता जी बहुत दुखित हुए। रामप्रसाद जी ने कहा कि अब तो बिलकुल ही रोटी को भी तबाह हो चुके, मैं परवश हूं। तब आपने --- को पत्र लिखा कि जो कुछ पैसा मेरे हिस्से का हो यह मेरे पिता जी को देना, कुल सब कारखाने का हिसाब 20,000 रुपये का था, आधा दस हजार चाहिए, उसमें 1700 रुपये का कपड़ा कलकत्ता, 1200 रुपये का मद्रास, 1500 रुपये का लाहोर, 2000 रुपये का शाहजहांपुर में उधार बंटा हुआ था। उन्होंने लिखा कि लाहोर से जो पैसा मिले वह हमारी बहन को देना। मैंने उसको देने को कहा था, बाकी थोड़ा-थोड़ा करके मेरे पिता जी को देते रहना। मगर --- ने एक पैसा नहीं किया। कारखाने का सामान उनके पकड़े जाने के बाद सब अपने घर को लदवा ले गये। मेरी माता जी ने कहा कि एक चरखा मेरी पुत्री को दे दो। वह अपने हाथ से ही कात कर कपड़ा बुनती है, उसी को पहनती है, मगर कुछ भी ध्यान न दिया। पछता कर बैठना पड़ा। फिर भी रामप्रसाद जी ने कई बार लिखा; कुछ भी न दिया, बल्कि अकड़ कर पिता जी से लड़े। फिर वकील को लिखा कि अब मैं तो जेल में हूं, मेरे जो कुछ रुपये आप के यहां है, वह मेरे पिता जी को दे दीजिए। पांच हजार जमा थे। दो हजार अभी दे देना। फिर मैं लिखूं तब देना। उन्होंने एक पाई भी न दी। कहते रहे कि दे देंगे। अब पिताजी बहुत दुखित हुए। माताजी बिलकुल दुःख से कमजोर हो गईं। गणेशशंकर जी विद्यार्थी ने कानपुर में 2000 रुपये चन्दा करके मुकदमे में सहायता की। फिर भी मेरे भाई को फांसी की सजा मिली। वकील साहब को अन्तिम पत्र में लिखा "पिताजी, माताजी आप लोगों ने मुझसे अच्छा प्यार किया। अब एक अन्तिम निवेदन है कि एक बन्दूक मेरी बहन को दे देना। बाकी छह हथियार आपके यहां रह जायेंगे। मेरे लिये आपने एक पत्र में लिखा, माताजी को दिया कि बड़ी बिटिया को दे देना और उसे धीरज बंधाती रहना। वह पत्र माताजी से कहीं किसी ने ले लिया। फिर न दिया। माताजी से मालूम होने पर मुझे बहुत ही दुःख हुआ, पिता जी की हालत दुःख से खराब हुई। तब विद्यार्थी जी 15 रुपये मासिक खर्च देने लगे। उससे कुछ गुजर चलती रही। फिर विद्यार्थी जी भी शहीद हो गये। मुझे भी बहन से ज्यादा समझते थे। समय-समय खर्चा भेजते थे। माता-पिता दादी भाई दो गाय थीं। रहने की जगह हरगोबिन्द ने एक टूटा-फूटा मकान बता दिया था। उसमें गुजर करने लगे। वर्षा में बहुत मुसीबत उठानी पड़ी। फिर पांच सौ रुपये पं० जवाहरलाल जी ने भेजे। तब माताजी ने कहा कि कुछ जगह ले लो इस तरह के दुःख से तो बचें। नई बस्ती में जमीन अस्सी वर्ग गज ले ली। एक छप्पर एक कोठरी थी। उसमें गुजर की। पिताजी भी चल बसे। माताजी बहुत दुखित हुई। एक महीने के बाद मैं भी विधवा हो गई। अब दोनों मां-बेटी दुखित थीं। मेरे पास एक पुत्र तीन साल का था, माता जी बोलीं कि मैं तो शरीर से कमजोर हूं किस तरह दूसरे की मजदूरी करूं। बिटिया अब क्या करना चाहिए। मैंने कहा कि जहाँ तक मुझसे होगा, माताजी आपकी सेवा करूंगी, आप धीरज बांधो। ईश्वर की यही इच्छा थी। माताजी के पास रामप्रसादजी के बटन सोने के तीन तोले के थे। उन्होंने किसी को नहीं बताए, छिपाए रहीं, जाने कैसा समय हो, इसलिए कुछ तो पास रखना चाहिए। पिताजी के स्टाम्प खजाने में दाखिल किए, दो सौ रुपये वह मिले, फिर बटन बेच दिए। फिर मैंने ईंट-लकड़ी लगाकर एक तिवारा तथा उसके ऊपर एक अटारी बनवाई। ऊपर माताजी ने गुजर की। नीचे आठ रुपये में किराए पर उठा दिए। आठ रुपये में मैं, माताजी तथा बच्चे रहते थे बहुत ही मुसीबत से। एक समय कभी-कभी खाना प्राप्त होता था, मैंने एक डाक्टर के यहां खाना बनाने का काम छह रुपये में कर लिया। कपड़े की कमी से बहुत ही दुखित रहे। बच्चा स्याना हुआ। माताजी ने सबसे फरियाद की कि कोई इस बच्चे को पढ़ा दो। कुछ कर खाएगा। मगर शाहजहांपुर में किसी ने ध्यान नहीं दिया। मैंने अपनी मेहनत में पांचवां दर्जा पास करा दिया, फिर तो पैसे का काम था। मजबूर होकर मजदूरी से गुजर की। कोसमा में तीन बीघा खेत था, वह भी कर्जे में रखा, कभी-कभी कोसमा मैं भी रह जाती थी। बिना पैसे कौन किसका होता है? यहां के लोगों में कोई भी मुंह से नहीं बोलता था। मैं अपनी मुसीबतों को लिख नहीं सकती। बहुत ही दुःख उठाए। मेरी माताजी भी बहुत दुखित रहीं। मेरा दुःख उनको सताता था। विष्णु शर्मा चौदह साल जेल काटकर छुटकर आए तो माताजी के दर्शन को आए। माताजी जाड़े के मारे ठिठुर रही थीं। उनका दुःख देखकर चकित रह गए, पूछा आप को किसी भाई ने भी मदद नहीं दी। माताजी रोकर बोलीं कि मदद देने वाला तो परमात्मा है। आंसुओं की धारा लग गई। बोलना बड़ी देर में निकला कि मेरी पुकार ईश्वर भी नहीं सुनते, जो इस शरीर से छुटकारा दे। विष्णु शर्मा ने अपना कम्बल उतार कर उन्हें उढ़ा दिया। बोले माताजी मैं आपकी सेवा जो होगी करूंगा। फिर उन्होंने बहुत कोशिश की। स्वराज होने और माताजी की पेंशन 60 रुपये हो गई। फिर माता जी के साथ मेरी भी गुजर होने लगी। मोटा खाना-पहनना चलता रहा। पर माताजी के स्वर्गवास के बाद पेंशन बन्द हो गई और मुझ पर आफत का पहाड़ टूट पड़ा। लड़के को पढ़ाने को पैसा न हो सका। फिर मैंने मैनपुरी के नेता लोगों से भी फरियाद की कि आप लोग मेरे लड़के को पढ़ा दें, तो इसका जीवन सम्हल जाय। मगर अपने सुख के सामने गरीबों की कौन सुनता है? यह तो कोई नहीं सोचता कि कितने भाई कुर्बान हो गये, कितने जेलों में सड़े, तब आप आज एम.एल.ए. और मिनिस्टर बने बैठे हैं। जिन्होंने अपने को बलिवेदी पर चढ़ा दिया, उनके खानदान वाले भूखे मर रहे हैं, आज दिन जो मैं अनाथ दुखिता हूं। मेरे भाई रामप्रसाद जी होते तो अपने भानजे को कितना पढ़ाते। मेरी सहायता करते। स्वराज्य में आज मैं हर तरह की मुसीबत उठा रही हूं। पर मेरी बात किसी ने भी न सुनी। मगर ईश्वर की महिमा कोई नहीं जानता। मैं बहुत दुःखी फाके कर रही थी। मेरा लड़का कुसंग में फंस गया था। वह घर से निकल गया था। एक महीने तक पता न मिला। मैं और मेरी बहू दोनों अपने मन में सलाह कर रहे थे कि चलो दोनों गंगाजी में डूब जाएं, कहां तक भूखों मरें? कपड़े से नंगे, एक दिन तो है नहीं जो काट लें। इतने में किसी ने आवाज दी कि माताजी आपको कोई मिलने आया है। मैं फटी धोती पहने थी। शर्म से ढक कर उठी और बोली, भाई साहब! कैसे तकलीफ उठाई? उन्होंने कहा- चतुर्वेदी ओंकारनाथ पाण्डे मेरा नाम है। बहनजी, मैं आपके ही दर्शन को आया हूं। फिर मैंने बार-बार धन्यवाद दिया। फिर पाण्डेजी ने कहा कि मेरे पास भाई बनारसीदास चतुर्वेदी जी का पत्र आया है कि कोसमा में शहीद रामप्रसाद बिस्मिल जी की बहिनजी हैं। उनके यहां आप खुद जाकर देखो कि वह किस तरह गुजर करती हैं? कितनी जमीन हैं? वह सब देखकर मेरे लिये लिखे। मैंने अपना घर दिखाया कि आप भीतर जाकर देख सकते हैं कि मेरे पास तो पांच सेर दाने भी न होंगे, ज्यादा क्या कहूँ। मेरी हालत देखकर पाण्डेजी ने पांच रुपये दिये। मैंने चार रुपये की धोती ले ली, एक रुपया और खर्च में किया। उन्होंने चतुर्वेदी जी को सारा हाल लिखा, जो कुछ खुद देख गये थे। फिर चतुर्वेदीजी ने मेरे लिए पत्र लिखा कि अपना कुछ हाल लिखो। मैंने पत्र में थोड़ा-सा समाचार अपना दिया। भाई बनारसीदास चतुर्वेदीजी ने मुझ दीन की पुकार सुनी। आपने अपील निकाली, तो अनेक भाइयों को दया आ गई। सहायता भी मिलने लगी। राष्ट्रपति महोदय और श्री कृष्णकुमार बिड़ला से लगाकर छोटे-बड़े सबने मुझपर दया की। पर मैं संकोच से उसमें से पैसा न खर्च कर सकी। चतुर्वेदीजी ने लिखा कि आप संकोच न करें, यह पैसा आपका ही है। आप कपड़ा बनवा लीजिए। अन्न भी लेकर रख लीजिए। अब आप मुसीबत न उठाइये। बहुत दुःख आपने सहे। मैं आप को दुःख न होने दूंगा। फिर चतुर्वेदीजी ने बहुत कोशिश करके मेरी पेंशन चालीस रुपया करवा दी है। उनको मैं कहां तक धन्यवाद दूं। उसी से हम तीनों प्राणियों की जैसे-तैसे गुजर बसर हो रही है। (यह घटना 1960 ई० तक की है)

[स्रोत- सुधारक: गुरुकुल झज्जर का लोकप्रिय मासिक पत्र का दिसम्बर २०१८ का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ, डॉ विवेक आर्य]