भारतीय मुसलमान और जनरल करिअप्पा
डॉ विवेक आर्य
भारतीय सेना के प्रथम सेनापति जनरल करिअप्पा 1964 में अपने द्वारा लिखित पुस्तक "लेट अस वेक अप" में भारतीय मुसलमानों के विषय में लिखते है-
"हमारा एक धर्म निरपेक्ष देश है। मैं मुसलमानों को उतना ही अपना भाई-बहन समझता हूँ, जितना कि भारत के अन्य सम्प्रदायों के लोगों को समझता हूँ। देश में अपनी निरंतर यात्राओं के बीच उनके विभिन्न वर्गों के लोगों से मैं मिला हूँ। मेरे बहुत सरे अच्छे मुसलमान दोस्त हैं, जिनके साथ मैं व्यक्तियों और मसलों के बारे में मुक्त बातचीत करता हूँ। इन बातचीतों में कुछ लोगों ने मुझपर छाप छोड़ी है- और मुझे इससे दुःख पहुंचा है- कि वे भारत और पाकिस्तान की इन दो नावों में अपने दोनों पैर रखे हुए हैं। लगता है, उनकी प्राथमिकता वफ़ादारी पाकिस्तान के प्रति है। यह अपराध और अक्षम्य है। भारत में अमुस्लिम बुद्धिवादियों की एक बड़ी प्रतिशत की भी यही धारणा है। बहुमत वर्ग का एक बड़ा भाग भारतीय मुसलमानों के प्रति जो बहुत अनुकूल भावना नहीं रखता, उसका यही मुलभुत कारण है, और यह बात समझ में आती है।
इस सन्दर्भ में मैं अपने सभी मुसलमान भाइयों और बहनों से यह जोरदार अपील करता हूं कि वे मेहरबानी करके खुलकर सामने आ जाएं और कम से कम अपनी निजी आत्मा को साक्षी मानते हुए यह घोषणा करें कि वे भारत या पाकिस्तान इनमें किसके प्रति वफ़ादार हैं। यदि यह वफ़ादारी पाकिस्तान के प्रति है तो उन्हें इसी क्षण पाकिस्तान को कूच कर देना चाहिए। ऐसे लोगों का हमारी पवित्र धरती के एक इंच पर भी कोई अधिकार नहीं हो सकता और यदि दूसरी ओर वे भारत को चाहते हैं और मैं जानता हूं कि कितने ही मुसलमान सच्चाई और वफ़ादारी से वैसा महसूस करते हैं, तो उन्हें अपने सम्प्रदाय में विद्यमान देशदारी से वैसा महसूस करते हैं, तो उन्हें अपने सम्प्रदाय में विद्यमान देशद्रोही तत्त्वों को पूरी तेज़ी से उखाड़ना चाहिए और उन्हें भारत छोड़ने पर मजबूर कर देना चाहिए। इस प्रकार, इस बात की विश्वस्त साक्षी मिल जाएगी किवे भारतीय हैं और बहुमत वर्ग उन्हें निस्संकोच स्वीकार करेगा। भारत के प्रति वफ़ादार मुसलमानों को यह समझना चाहिए कि उन्हें वे भाई जो भारत के प्रति वफादार नहीं हैं, बहुतमत वर्ग द्वारा पहुंचाई जानेवाली तथाकथित हानि से कहीं ज्यादा हानि हर दृष्टि से उन्हें पंहुचा रहे हैं। सोचने और करने की बारी उनकी अपनी है।
भारत का विभाजन पाकिस्तान चाहनेवाली मुस्लिम लीग के प्रमुख नेताओं की मांग पर किया गया था। पाकिस्तान अब बन चूका है। एक सैनिक के रूप में मैं बिलकुल समझ नहीं पाता कि भारत में मुस्लिम लीग अब क्यों होनी चाहिए? पर यह दल अब भी यहां सक्रिय है। मुझे यह बात बिलकुल गलत मालूम पड़ती है। मुसलमाओं के सांस्कृतिक एवं सामाजिक हितों की रक्षा करने वाली संस्थाओं और संगठन रहने दिए जा सकते हैं और वस्तुत: वे रहने भी चाहिए पर निश्चय ही उनका कोई राजनीतिक प्रयोजन नहीं हो सकता।
यह सब बहुत बहुत महत्वपूर्ण है। भारत के जिम्मेदार मुस्लिम नेताओं को इस बारे में तात्कालिक कार्यवाही करनी चाहिए। कार्यवाही में देरी सांप्रदायिक विद्वेष को बढ़ाएगी ऐसा नहीं होना चाहिए और इसे रोका जा सकता है। "
जनरल साहिब ने बड़ी सूक्ष्मता से अपने अनुभव के आधार पर अपने यह विचार लिखे थे। इसी प्रकार से 2005 में समाजशास्त्री डा. पीटर हैमंड ने गहरे शोध के बाद इस्लाम धर्म के मानने वालों की दुनियाभर में प्रवृत्ति पर एक पुस्तक लिखी, जिसका शीर्षक है ‘स्लेवरी, टैररिज्म एंड इस्लाम-द हिस्टोरिकल रूट्स एंड कंटेम्पररी थ्रैट’। इसके साथ ही ‘द हज’के लेखक लियोन यूरिस ने भी इस विषय पर अपनी पुस्तक में विस्तार से प्रकाश डाला है। जो तथ्य निकल करआए हैं, वे न सिर्फ चौंकाने वाले हैं, बल्कि चिंताजनक हैं।
उपरोक्त शोध ग्रंथों के अनुसार जब तक मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश-प्रदेश क्षेत्र में लगभग 2 प्रतिशत के आसपास होती है, तब वे एकदम शांतिप्रिय, कानूनपसंद अल्पसंख्यक बन कर रहते हैं और किसी को विशेष शिकायत का मौका नहीं देते। जैसे अमरीका में वे (0.6 प्रतिशत) हैं, आस्ट्रेलिया में 1.5, कनाडा में 1.9, चीन में 1.8, इटली में 1.5 और नॉर्वे में मुसलमानों की संख्या 1.8 प्रतिशत है। इसलिए यहां मुसलमानों से किसी को कोई परेशानी नहीं है।
जब मुसलमानों की जनसंख्या 2 से 5 प्रतिशत के बीच तक पहुंच जाती है, तब वे अन्य धर्मावलंबियों में अपना धर्मप्रचार शुरू कर देते हैं। जैसा कि डेनमार्क, जर्मनी, ब्रिटेन, स्पेन और थाईलैंड में जहां क्रमश: 2, 3.7, 2.7, 4 और 4.6 प्रतिशत मुसलमान हैं।
जब मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश या क्षेत्र में 5 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब वे अपने अनुपात के हिसाब से अन्य धर्मावलंबियों पर दबाव बढ़ाने लगते हैं और अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करने लगते हैं। उदाहरण के लिए वे सरकारों और शॉपिंग मॉल पर ‘हलाल’ का मांस रखने का दबाव बनाने लगते हैं, वे कहते हैं कि ‘हलाल’ का मांस न खाने से उनकी धार्मिक मान्यताएं प्रभावित होती हैं। इस कदम से कई पश्चिमी देशों में खाद्य वस्तुओं के बाजार में मुसलमानों की तगड़ी पैठ बन गई है। उन्होंने कई देशों के सुपरमार्कीट के मालिकों पर दबाव डालकर उनके यहां ‘हलाल’ का मांस रखने को बाध्य किया। दुकानदार भी धंधे को देखते हुए उनका कहा मान लेते हैं।
इस तरह अधिक जनसंख्या होने का फैक्टर यहां से मजबूत होना शुरू हो जाता है, जिन देशों में ऐसा हो चुका है, वे फ्रांस, फिलीपींस, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड, त्रिनिदाद और टोबैगो हैं। इन देशों में मुसलमानों की संख्या क्रमश: 5 से 8 फीसदी तक है। इस स्थिति पर पहुंचकर मुसलमान उन देशों की सरकारों पर यह दबाव बनाने लगते हैं कि उन्हें उनके क्षेत्रों में शरीयत कानून (इस्लामिक कानून) के मुताबिक चलने दिया जाए। दरअसल, उनका अंतिम लक्ष्य तो यही है कि समूचा विश्व शरीयत कानून के हिसाब से चले।
जब मुस्लिम जनसंख्या किसी देश में 10 प्रतिशत से अधिक हो जाती है, तब वे उस देश, प्रदेश, राज्य, क्षेत्र विशेष में कानून-व्यवस्था के लिए परेशानी पैदा करना शुरू कर देते हैं, शिकायतें करना शुरू कर देते हैं, उनकी ‘आॢथक परिस्थिति’ का रोना लेकर बैठ जाते हैं, छोटी-छोटी बातों को सहिष्णुता से लेने की बजाय दंगे, तोड़-फोड़ आदि पर उतर आते हैं, चाहे वह फ्रांस के दंगे हों डेनमार्क का कार्टून विवाद हो या फिर एम्सटर्डम में कारों का जलाना हो, हरेक विवादको समझबूझ, बातचीत से खत्म करने की बजाय खामख्वाह और गहरा किया जाता है। ऐसा गुयाना (मुसलमान 10 प्रतिशत), इसराईल (16 प्रतिशत), केन्या (11 प्रतिशत), रूस (15 प्रतिशत) में हो चुका है।
जब किसी क्षेत्र में मुसलमानों की संख्या 20 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है तब विभिन्न ‘सैनिक शाखाएं’ जेहाद के नारे लगाने लगती हैं, असहिष्णुता और धार्मिक हत्याओं का दौर शुरू हो जाता है, जैसा इथियोपिया (मुसलमान 32.8 प्रतिशत) और भारत (मुसलमान 22 प्रतिशत) में अक्सर देखा जाता है। मुसलमानों की जनसंख्या के 40 प्रतिशत के स्तर से ऊपर पहुंच जाने पर बड़ी संख्या में सामूहिक हत्याएं, आतंकवादी कार्रवाइयां आदि चलने लगती हैं। जैसा बोस्निया (मुसलमान 40 प्रतिशत), चाड (मुसलमान 54.2 प्रतिशत) और लेबनान (मुसलमान 59 प्रतिशत) में देखा गया है। शोधकत्र्ता और लेखक डा. पीटर हैमंड बताते हैं कि जब किसी देश में मुसलमानों की जनसंख्या 60 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब अन्य धर्मावलंबियों का ‘जातीय सफाया’ शुरू किया जाता है (उदाहरण भारत का कश्मीर), जबरिया मुस्लिम बनाना, अन्य धर्मों के धार्मिक स्थल तोडऩा, जजिया जैसा कोई अन्य कर वसूलना आदि किया जाता है। जैसे अल्बानिया (मुसलमान 70 प्रतिशत), कतर (मुसलमान 78 प्रतिशत) व सूडान (मुसलमान 75 प्रतिशत) में देखा गया है।
किसी देश में जब मुसलमान बाकी आबादी का 80 प्रतिशत हो जाते हैं, तो उस देश में सत्ता या शासन प्रायोजित जातीय सफाई की जाती है। अन्य धर्मों के अल्पसंख्यकों को उनके मूल नागरिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है। सभी प्रकार के हथकंडे अपनाकर जनसंख्या को 100 प्रतिशत तक ले जाने का लक्ष्य रखा जाता है। जैसे बंगलादेश (मुसलमान 83 प्रतिशत), मिस्र (90 प्रतिशत), गाजापट्टी (98 प्रतिशत), ईरान (98 प्रतिशत), ईराक (97 प्रतिशत), जोर्डन (93 प्रतिशत), मोरक्को (98 प्रतिशत), पाकिस्तान (97 प्रतिशत), सीरिया (90 प्रतिशत) व संयुक्त अरब अमीरात (96 प्रतिशत) में देखा जा रहा है।
जनरल साहिब के विचारों पर अगर हमारे देश के राजनीतिज्ञों ने ध्यान दिया होता तो आज हमारे देश में कश्मीर, केरल, बंगाल, असम , कैराना जैसे अनेक मिनी पाकिस्तान न होते। अभी भी समय है। जातिवाद, प्रांतवाद, भाषावाद छोड़कर संयुक्त हो जाओ। वर्ना
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