अरुण शौरी की नजर में तलाक और हलाला
प्रसिद्द लेखक अरुण शौरी ने एक पुस्तक लिखी है जिसका नाम है The World of Fatwas or The shariah in Action.इसका हिंदी अनुवाद वाणी प्रकाशन, दिल्ली से "फ़तवे, उलेमा और उनकी दुनिया" के नाम से प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक में पिछले 100 वर्षों में विभिन्न मुस्लिम संस्थानों से मौलवियों द्वारा दिए गए विभिन्न फतवों को विषयानुसार समीक्षात्मक दृष्टि से परखा गया हैं। मैंने इस पुस्तक विशेष का नाम एक विशेष कारण के चलते लिया हैं।
आपको कोई भी सड़क चलता मुसलमान यह कहता सुनाई देगा कि "इस्लाम ने औरतों को जितना ऊँचा स्थान दिया है, उससे ऊँचा स्थान उन्हें किसी और धर्म ने नहीं दिया हैं।" इस लेख में हम इस कथन की अरुण शौरी के लेखन के माध्यम से समीक्षा करेंगे।
हम तीन तलाक से आरम्भ करते है। शौरी के अनुसार पैगम्बर साहिब को तलाक से बेहद घृणा थी। वे लिखते है "सभी विधिसम्मत कार्यों में से , तलाक अल्लाह को सबसे ज्यादा घृणास्पद लगता था। सन्दर्भ-पृष्ठ 267"
सिद्धांत रूप में तलाक के घृणास्पद होने के बाद भी इस्लाम में पति केवल एक शब्द तलाक कहकर औरत को घर से निकाल सकता हैं। पत्नी की तीन माहवारी के बीच की अवधियों के दौरान एक-एक बार अथवा एक साथ तीन बार भी कह सकता हैं। पति द्वारा जाने-अनजाने, क्रोध, नशे, किसी के गुमराह करने पर, मजबूर किये जाने पर, मजाक में, गर्भावस्था अथवा बीमारी में, कहना न मानने पर, नमाज़ न पढ़ने पर आदि स्थिति में भी अगर तलाक उसके मुख से निकल गया है तब भी कोई हाकिम बीच बचाव कर पत्नी को तलाक से नहीं बचा सकता। शरिया ऐसी सख्ती से मौलवियों द्वारा लागु किया गया हैं। एक बार घर से बाहर निकाल दिए जाने पर वह किसी रख रखाव खर्च की हकदार नहीं होती। सिवाय तीन माहवारियों तक की अवधि तक खर्च उसे पति से मिल सकता हैं। उसके बाद वह किसी खर्चे की हकदार नहीं रह जाती। तलाक देने वाले पति के लिए किसी प्रकार की कोई जवाबदेही नहीं हैं।
इस्लाम के समर्थक हमेशा यह साबित करना के लिए बैचैन रहते हैं कि उनका धर्म किस प्रकार हमेशा से ही प्रगतिशील, अग्रसर और आधुनिक रहा हैं।इसके विपरीत जब हम क़ुरान या हदीस का अध्ययन करते हैं, तो पता चलता है कि औरत एक ऐसी विपत्ति है जिसे आदमी को झेलना है और वह एक खेत है, जिसे आदमी अपनी मर्जी के मुताबिक चाहे सींचे या न सींचे। (सन्दर्भ-पृष्ठ 304 एवं क़ुरान 2/223) । ज्यादा से ज्यादा यह उन चीजों में से एक है, जिन्हें अल्लाह ने आदमी के आनंद के लिए पैदा किया है। (सन्दर्भ-पृष्ठ 304)
निकाह के समय जो मेहर दी जाती है उसका रामस्वरूप जी की पुस्तक वीमेन इन इस्लाम के अनुसार अर्थ है 'उजरत' अर्थात औरत को इस्तेमाल करने का भाड़ा। मर्द को तो बस औरत से आनंद लेना है और जब वह उससे ऊब जाए तो मामूली सा रखरखाव खर्च और इकरारनामे में तय हुआ मेहर देकर उसे फैंक सकता है। अर्थात यह इस्लाम में औरत के लिए केवल एकतरफा पुरुष का मनमाना एकाधिकार है। औरत को तीन तलाक का भी दिखाकर सदा दबाकर रखने का मंसूबा भर हैं। एक इस्लाम में निष्ठा रखने वाली औरत तलाक से क्यों इतनी भय खाती हैं। इसका केवल आर्थिक और सामाजिक कारण भर नहीं हैं। अपितु एक अन्य कारण भी हैं।
इसे हम तलाक वापिस करने की प्रक्रिया के रूप में जानते हैं। पति अगर पत्नी को तलाक देकर पछताए और उसे दोबारा अपनी बीवी बनाना चाहे तो वह तब तक उसकी बीवी नहीं बन सकती, जब तक कि वह इद्दत की अवधि समाप्त होने के बाद किसी दूसरे आदमी से शादी न करे और वह दूसरी शादी सहवास द्वारा पक्की न हो जाये और वह दूसरा पति उसे तलाक न दे दे और उसके बाद उसकी इद्दत की अवधि पूरी न हो जाए। इस प्रक्रिया को "हलाला" कहते है। उलमा के अनुसार दूसरे पति का सहवास के द्वारा शादी को पक्का नहीं कर देता तब तक हलाला पूरा नहीं होता। अगर कोई पत्नी को तलाक दे दे। उस महिला का दूसरा विवाह भी हो जाये पर जब तक उसका दूसरा पति उसके साथ अगर हमबिस्तरी न करे, तो वे सब कुफ्र के दलाल होते हैं और वह आदमी (मूल पति) और औरत व्यभिचारी और व्यभिचारिणी होते हैं। ऐसे सब लोगों को हद दर्जे की यातना झेलनी पड़ेगी और उन्हें दोज़ख की आग नसीब होगी। (सन्दर्भ-पृष्ठ 324)
शरिया के अनुसार बिना शारीरिक सम्बन्ध बनाये एक महिला का अपने दूसरे पति से तलाक नाजायज़ ही कहलायेगा। पाठक स्वयं सोचे कि क्या "हलाला" कैसी प्रथा के डर से इस्लाम को मानने वाली औरत तलाक से कितना भयभीत रहेगी। सदा पति की जायज-नाजायज मांगों का समर्थन करेगी। यह अत्याचार नहीं तो क्या हैं?
निकाह के समय जो मेहर दी जाती है उसका रामस्वरूप जी की पुस्तक वीमेन इन इस्लाम के अनुसार अर्थ है 'उजरत' अर्थात औरत को इस्तेमाल करने का भाड़ा। मर्द को तो बस औरत से आनंद लेना है और जब वह उससे ऊब जाए तो मामूली सा रखरखाव खर्च और इकरारनामे में तय हुआ मेहर देकर उसे फैंक सकता है। अर्थात यह इस्लाम में औरत के लिए केवल एकतरफा पुरुष का मनमाना एकाधिकार है। औरत को तीन तलाक का भी दिखाकर सदा दबाकर रखने का मंसूबा भर हैं। एक इस्लाम में निष्ठा रखने वाली औरत तलाक से क्यों इतनी भय खाती हैं। इसका केवल आर्थिक और सामाजिक कारण भर नहीं हैं। अपितु एक अन्य कारण भी हैं।
इसे हम तलाक वापिस करने की प्रक्रिया के रूप में जानते हैं। पति अगर पत्नी को तलाक देकर पछताए और उसे दोबारा अपनी बीवी बनाना चाहे तो वह तब तक उसकी बीवी नहीं बन सकती, जब तक कि वह इद्दत की अवधि समाप्त होने के बाद किसी दूसरे आदमी से शादी न करे और वह दूसरी शादी सहवास द्वारा पक्की न हो जाये और वह दूसरा पति उसे तलाक न दे दे और उसके बाद उसकी इद्दत की अवधि पूरी न हो जाए। इस प्रक्रिया को "हलाला" कहते है। उलमा के अनुसार दूसरे पति का सहवास के द्वारा शादी को पक्का नहीं कर देता तब तक हलाला पूरा नहीं होता। अगर कोई पत्नी को तलाक दे दे। उस महिला का दूसरा विवाह भी हो जाये पर जब तक उसका दूसरा पति उसके साथ अगर हमबिस्तरी न करे, तो वे सब कुफ्र के दलाल होते हैं और वह आदमी (मूल पति) और औरत व्यभिचारी और व्यभिचारिणी होते हैं। ऐसे सब लोगों को हद दर्जे की यातना झेलनी पड़ेगी और उन्हें दोज़ख की आग नसीब होगी। (सन्दर्भ-पृष्ठ 324)
शरिया के अनुसार बिना शारीरिक सम्बन्ध बनाये एक महिला का अपने दूसरे पति से तलाक नाजायज़ ही कहलायेगा। पाठक स्वयं सोचे कि क्या "हलाला" कैसी प्रथा के डर से इस्लाम को मानने वाली औरत तलाक से कितना भयभीत रहेगी। सदा पति की जायज-नाजायज मांगों का समर्थन करेगी। यह अत्याचार नहीं तो क्या हैं?
रसूल को तलाक से घृणा थी फिर इस्लाम में यह तलाक कैसे आया? यह जानने के लिए आपको असगर अली इंजीनियर की 'दि राइट्स ऑफ वीमेन इन इस्लाम' नामक पुस्तक पढ़नी पड़ेगी। वे लिखते है, "सवाल यह पैदा होता है कि दूसरे ख़लीफ़ा हज़रत उमर ने तलाक-ए-बत्ताह (तीन बार तलाक) क्यों लगी किया?" इसकी शुरुआत तब हुई जब जंगों में जीती गई बहुत सी औरतें श्याम, मिश्र और दूसरे स्थानों से मदीना पहुंचने लगी। वे गोरे रंग की खूबसूरत औरतें थीं और अरबी लोगों के मन में उनसे विवाह करने की लालसा जाग उठी। लेकिन ये औरतें सौतों के साथ रहने की आदि नहीं थी। इसलिए वे आदमियों के सामने यह शर्त रखती थीं कि वे अपनी पहली बीवियों को तीन बार तलाक दें ताकि उन्हें वापिस न लिया जा सके। वे उन औरतों की तसल्ली के लिए तीन तलाक कह देते और बाद में अपनी बीवियों को वापिस बुला लेते थे। जिसके कारण अनेक विवाद खड़े होने लगे। इसलिए हज़रत उमर ने एक ही बार में दिए गए तीन तलाकों को वापिस न लिया जा सकने वाला तलाक करार दे दिया। तबी से यह शरीयत का अभिन्न अंग बन गया।- (सन्दर्भ पृष्ठ 337-338)
विडंबना यह देखिये कि अरब के लोगों का शौक इस्लाम का एक मजबूत स्तम्भ बन गया। जिस पर सन्देश करना अथवा शंका करना भी कुफ्र अर्थात हराम गिना गया। आज भी शरिया को देश विशेष के कानून से ऊपर मानने वाला मुस्लिम समाज पुरानी प्रथाओं को केवल इस्लाम के नाम पर डोह रहा है। मज़हब के मामले में अक्ल का दख़ल नहीं ऐसा विचार रखने से उसने न केवल अपने आपको रूढ़िवादी बना लिया हैं। अपितु अपने समाज को एक अव्यवहारिक, अतार्किक, बंद समाज में परिवर्तित भी कर लिया हैं।
अरुण शौरी की पुस्तक के आधार पर तैयार किये गए इस लेख को पढ़कर क्या कोई मोमिम यह कहना पसंद करेगा कि
"इस्लाम ने औरतों को जितना ऊँचा स्थान दिया है, उससे ऊँचा स्थान उन्हें किसी और धर्म ने नहीं दिया हैं।"
एक तो तुम खुद जाहिल हो, दूसरा तुम ने जिस आदमी की कुतब से ज्ञान हासिल किया है उस आदमी ने भी न कभी क़ुरान पढ़ा है न ही हदीस पढ़ी।
ReplyDeleteखैर!!
आज ही नहीं बल्कि कयामत वाले दिन भी कोई पूछेगा की औरतों को सबसे ज़्यादा हक किस ने दिया है? तो तब भी सिर्फ यही जवाब मिलेगा, इस्लाम ने!!
इस्लाम ने औरत को इतने हक़ दिए हैं कि तुम पढ़ते पढ़ते मर जाओगे और मैं लिखते लिखते।
क्योंकि अभी बात मुस्लिम औरतों के वैवाहिक जीवन और तलाक पर हो रही है तो मैं इसके ताल्लुक से ही लिखना चाहूंगा।
तलाक और halala करके नए नए मर्दो का स्वाद केवल और केवल इस्लाम ने ही औरतों को दिया है. और बाप और बेटे दोनों की बीबी बनने का सौभाग्य साथ ही साथ आदमी को अपनी बहनों को मौसी को, फ़ूफी और भी हर प्रकार के रिश्ते की औरतों को पेलने का सौभाग्य दिया है और साथ ही साथ रेशम का कपड़ा लगाकर अम्मी को भी पेलो, साथ में ही बकरी गधी, मरी हुई औरत इन सभी से मजे लेने के लिए ही islam की शुरुआत हुई है...
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