Monday, October 29, 2018

बर्बर टीपू का घृणित, क्रूर इतिहास



बर्बर टीपू का घृणित, क्रूर इतिहास...
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( डॉ. शंकर शरण का यह लेख पुराना है, पर आज भी प्रासंगिक व पठनीय है। )
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गिरीश कर्नाड द्वारा टीपू की तुलना शिवाजी से करना या संजय खान द्वारा टीपू का उत्सव मनाने की मांग करना केवल गलतफहमी नहीं है. कर्नाड उसी क्षेत्र से आते हैं, जहां टीपू का शासन रहा था.

इतिहास की दृष्टि से यह कल की बात है - इतना आसन्न इतिहास कि असंख्य लोगों को प्राथमिक, सीधे स्रोतों से टीपू काल की सच्चाइयां मालूम हैं. इस के अलावा देश-विदेश के अनेक प्रत्यक्षदर्शी अधिकारियों, लेखकों और दस्तावेजों के विवरण बड़े-बड़े इतिहासकारों द्वारा उद्धृत, प्रकाशित हैं. स्वयं टीपू के लिखे पत्र उपलब्ध हैं जिनसे उस के कार्य, विचार और लक्ष्यों की सीधी जानकारी मिलती है.

उदाहरण के लिए, बदरुज्जमा खान को 19 जनवरी 1790 को लिखे टीपू के पत्र में लिखा है, ‘तुम्हें मालूम नहीं कि हाल में मालाबार में मैंने गजब की जीत हासिल की और चार लाख से अधिक हिन्दुओं को मुसलमान बनाया. मैंने तय कर लिया है कि उस मरदूद ‘रामन नायर’ (त्रावनकोर के राजा, जो धर्मराज के नाम से प्रसिद्ध थे) के खिलाफ जल्द हमला बोलूंगा. चूंकि उसे और उस की प्रजा को मुसलमान बनाने के ख्याल से मैं बेहद खुश हूं, इसलिए मैंने अभी श्रीरंगपट्टनम वापस जाने का विचार खुशी-खुशी छोड़ दिया है.’

दक्षिण भारत में असंख्य लोग जानते हैं कि टीपू का शासन हिन्दू जनता के विनाश और इस्लाम के प्रसार के अलावा कुछ न था. अंग्रेजों से उस की लड़ाई अपना राज और अस्तित्व बचाने के लिए थी. इसके लिए उस ने फ्रांस को यहां आक्रमण करने का न्योता दिया, जिस की मदद से उस ने भारतीय जनता को रौंद डाला.

टीपू ने केवल फ्रांस ही नहीं, ईरान, अफगानिस्तान को भी हमले के लिए बुलाया था. अत: अंग्रेजों से टीपू की लड़ाई को ‘देशभक्ति’ कहना दुष्टता, धूर्तता या घोर अज्ञान है.

हिन्दू जनता पर टीपू की अवर्णनीय क्रूरता के विवरण असंख्य स्रोतों से प्रमाणित हैं. पुर्तगाली यात्री बार्थोलोमियो ने सन् 1776 से 1789 के बीच के अपने प्रत्यक्षदर्शी वर्णन लिखे हैं. उस की प्रसिद्ध पुस्तक ‘वोएज टू ईस्ट इंडीज’ पहली बार सन् 1800 में ही प्रकाशित हुई थी. अभी भी वह केंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से पिछले वर्ष छपी उपलब्ध है.

टीपू और फ्रांसीसियों के संयुक्त सैनिक अभियान का वर्णन करते हुए बार्थोलोमियो ने लिखा, ‘टीपू एक हाथी पर था, जिस के पीछे 30,000 सैनिक थे. कालीकट में अधिकांश पुरुषों और स्त्रियों को फांसी पर लटका दिया गया. पहले मांओं को लटकाया गया जिन के गले से उन के बच्चे बांध दिए गए थे. उस बर्बर टीपू सुल्तान ने नंगे शरीर हिन्दुओं और ईसाइयों को हाथी के पैरों से बांध दिया और हाथियों को तब तक इधर-उधर चलाता रहा जब तक उनके शरीरों के टुकड़े-टुकड़े नहीं हो गए. मंदिरों और चर्चों को गंदा और तहस-नहस करके आग लगाकर खत्म कर दिया गया.’

भारत के प्रसिद्ध इतिहासकार सरदार के. एम. पणिक्कर ने ‘भाषा पोषिणी’ (अगस्त, 1923) में टीपू का एक पत्र उद्धृत किया है. सैयद अब्दुल दुलाई को 18 जनवरी 1790 को लिखे पत्र में टीपू के शब्द हैं, ‘नबी मुहम्मद और अल्लाह के फजल से कालीकट के लगभग सभी हिन्दू इस्लाम में ले आए गए. महज कोचीन राज्य की सीमा पर कुछ अभी भी बच गए हैं. उन्हें भी जल्द मुसलमान बना देने का मेरा पक्का इरादा है. उसी इरादे से यह मेरा जिहाद है.’

मेजर अलेक्स डिरोम ने टीपू के खिलाफ मैसूर की लड़ाई में स्वयं हिस्सा लिया था. उन्होंने लंदन में 1793 में ही अपनी पुस्तक ‘थर्ड मैसूर वॉर’ प्रकाशित की. उस में टीपू की शाही मुहर का भी विवरण है, जिस में वह अपने को ‘सच्चे मजहब का संदेशवाहक’ और ‘सच्चाई का हुक्म लाने वाला’ घोषित करता था.

ऐसे प्रामाणिक विवरणों की संख्या अंतहीन है. टीपू के समय से ही पर्याप्त लिखित सामग्री मौजूद है, जो दिखाती है कि लड़कपन से टीपू का मुख्य लक्ष्य हिन्दू धर्म का नाश तथा हिन्दुओं को इस्लाम में लाना ही रहा था.

सन् 1802 में लिखित मीर हुसैन अली किरमानी की पुस्तक ‘निशाने हैदरी’ में इस का विस्तार से विवरण है. इस के अनुसार, टीपू ने ही श्रीरंगपट्टनम की जामा मस्जिद (मस्जिदे आला) उसी जगह पहले स्थित एक शिव मंदिर को तोड़कर बनवायी थी.

उस ने अपने कब्जे में आयी सभी जगहों के नाम बदल कर भी उन का इस्लामीकरण कर दिया था. जैसे, कालीकट को इस्लामाबाद, मंगलापुरी (मैंगलोर) को जलालाबाद, मैसूर को नजाराबाद, धारवाड़ को कुरशैद-सवाद, रत्नागिरि को मुस्तफाबाद, डिंडिगुल को खलीकाबाद, कन्वापुरम को कुसानाबाद, वेपुर को सुल्तानपटनम आदि. टीपू के मरने के बाद इन सब को फिर अपने नामों में पुनर्स्थापित किया गया.

‘केरल मुस्लिम चरित्रम्’ (1951) के ख्याति-प्राप्त इतिहासकार सैयद पी़ ए़ मुहम्मद के अनुसार, केरल में टीपू ने जो किया वह भारतीय इतिहास में चंगेज खान और तैमूर लंग के कारनामों से तुलनीय है.

इतिहासकार राजा राज वर्मा ने अपने ‘केरल साहित्य चरितम्’ (1968) में लिखा है, ‘टीपू के हमलों में नष्ट किए गए मंदिरों की संख्या गिनती से बाहर है. मंदिरों को आग लगाना, देव-प्रतिमाओं को तोड़ना और गायों का सामूहिक संहार करना उस का और उस की सेना का शौक था. तलिप्परमपु और त्रिचम्बरम मंदिरों के विनाश के स्मरण से आज भी हृदय में पीड़ा होती है.’

उक्त पुस्तकों के अलावा विलियम लोगान की ‘मालाबार मैनुअल’ (1887), विलियम किर्कपैट्रिक की ‘सेलेक्टिड लेटर्स ऑफ़ टीपू सुल्तान’ (1811), मैसूर में जन्मे ब्रिटिश इतिहासकार और शिलालेख-विशेषज्ञ बेंजामिन लेविस राइस की ‘मैसूर गजेटियर’ (1897), डॉ़ आई़ एम़ मुथन्ना की ‘टीपू सुल्तान एक्सरेड’(1980) आदि अनगिनत प्रामाणिक पुस्तकें हैं.

संक्षेप में पूरी जानकारी के लिए बॉम्बे मलयाली समाज द्वारा प्रकाशित ‘Tipu Sultan: Villain or Hero?' (वॉयस ऑफ़ इंडिया, दिल्ली, 1993) देखी जा सकती है. सभी के विवरण पढ़कर कोई संदेह नहीं रहता कि यदि एक सौ जनरल डायर मिला दिए जाएं, तब भी निरीह हिन्दुओं को बर्बरतापूर्वक मारने में टीपू का पलड़ा भारी रहेगा. यह तो केवल कत्लेआम की बात हुई.

केरल और कर्नाटक में मुस्लिम आबादी की वर्तमान संख्या का सब से बड़ा मूल कारण टीपू था. हिन्दुओं के समक्ष उस का दिया हुआ कुख्यात विकल्प था, ‘तलवार या टोपी?’ अर्थात, ‘इस्लामी टोपी पहनकर मुसलमान बन जाओ, फिर गोमांस खाओ, वरना तलवार की भेंट चढ़ो!’ टीपू के इस कौल, ‘स्वॉर्ड ऑर कैप’ का उल्लेख कई किताबों में मिलता है. बहरहाल, उसी टीपू को फिल्म अभिनेता संजय खान ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया (18 नवंबर 2015) को दिए साक्षात्कार में ‘देशभक्त’ बताया. साथ ही, उस के द्वारा हिन्दुओं को कत्ल करने, उन का उत्पीड़न, कन्वर्जन कराने आदि को ‘मिथ’ यानी कोरी गल्प करार दिया है.

संजय खान साफ झूठ बोल रहे हैं! कम से कम उन्हें कोई अज्ञान नहीं है. कारण, जब सन् 1990 में उन्होंने दूरदर्शन पर अपना सीरियल ‘स्वॉर्ड ऑफ़ टीपू सुल्तान’ दिखाया था, तो उस पर कड़ी सामाजिक प्रतिक्रिया हुई थी. न्यायालय में मुकदमा भी चला था. मुख्य आपत्ति यही थी कि एक मनगढंत उपन्यास के आधार पर बने उस सीरियल में टीपू के बारे में झूठी बातें बताकर उसे देशभक्त, उदार आदि दिखाया गया था.

तब, मार्च 1990 में अंग्रेजी साप्ताहिक ‘द वीक’ को एक साक्षात्कार में खान ने स्वीकार किया था कि जिस गिडवाणी लिखित उपन्यास पर आधारित उनका सीरियल था, उसके विवरण ‘इतिहास की दृष्टि से सच नहीं हैं.’ पचीस वर्ष पहले माने गए अपने झूठ को अब संजय खान ने इस नए इंटरव्यू में फिर जोर देकर सच बताया है. इतना ही नहीं, देश में ‘टीपू की छवि खराब करने’, देश में ‘भयंकर असहिष्णुता का वातावरण’ होने का आरोप लगाते हुए उन्होंने ‘टीपू का जश्न मनाने’ का आह्वान किया!

यह बेशर्मी और धृष्टता क्या बताती है? यही कि हमारे देश में इतिहास का मिथ्याकरण और हिन्दू-विरोधी राजनीति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. साथ ही यह भी कि देश का अंग्रेजी मीडिया कट्टर हिन्दू-विद्वेष से ग्रस्त है. क्योंकि संजय खान से जैसे सवाल पूछे गए, वे सवाल नहीं थे, बल्कि उन की जैसे आरती उतारी गई थी!

पिछले विवाद का संदर्भ देने के बाद भी तथ्यों पर एक भी प्रश्न ही नहीं था. सब कुछ केवल केंद्र सरकार, हिन्दू जनता को लांछित करने और उस पर ‘टीपू की महानता और जय-जयकार’ थोपने की जिद पर केंद्रित था. इस अंग्रेजी अखबार की ऐसी हिन्दू-द्वेषी बौद्धिक नीति कम से कम पिछले तीन दशक से स्थापित है. दूसरे भी अधिक पीछे नहीं हैं.

इतिहास का यह घोर मिथ्याकरण ही, हमारे देश में सेकुलरवाद, उदारवाद के रूप में बौद्धिक रूप से प्रतिष्ठित है. इससे तनिक भी असहमति रखने को ही ‘असहिष्णुता’ बताकर सीधे-सीधे संपूर्ण हिन्दू जनता को अपमानित किया जाता है.

यह स्वतंत्र भारत में आधिकारिक नेहरूवादी नीति के रूप में इतने गहरे जमाया जा चुका है कि दूसरे राजनीतिक दल तक इस से बुरी तरह भ्रमित हैं. यह उसी भ्रम का ही नतीजा है कि नई सरकार के ‘विकास’ के नारे की खिल्ली उड़ाकर उसे दुनिया भर में ‘हिंसक’, ‘असहिष्णु’ के रूप में बदनाम करने की कोशिशें की गर्इं.

हमारे देश के कर्णधारों ने इस की अनदेखी की है कि इतिहास के प्रति गलत दृष्टिकोण से देश के किशोरों, युवाओं के मानस पर दुष्प्रभाव पड़ता रहा है. इसी से राजनीति में हिन्दू-विरोधी तत्व मजबूत रहे हैं. उन के प्रतिवाद-स्वरूप कुछ कहा जाए, तो उसे हिन्दू ‘असहिष्णुता’ बता कर उलटे दु:खी समूह को ही पुन: चोट पहुंचाई जाती है. इन सब को विशेष रंगत देकर जो दुष्प्रचार होता है, उस से भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि भी बिगड़ती है.

बल्कि, जैसा तसलीमा नसरीन ने पहचाना, वही इस संगठित पुरस्कार-लौटाऊ प्रदर्शन का एक उद्देश्य ही था. अतएव वैचारिक लड़ाई की उपेक्षा केवल भाजपा के लिए ही नहीं, देश-हित के लिए भी ठीक नहीं है.

आरंभिक इस्लामी विभूतियों से लेकर टीपू, और इकबाल-जिन्ना से लेकर ‘लादेन जी’ तक के बारे में गलतफहमी फैलाने वालों में अज्ञानियों से लेकर राजनीतिबाजों तक, हर तरह के लोग शामिल हैं. वे इसलिए भी कुछ भी अनाप-शनाप बोलते रहते हैं, क्योंकि उन्हें उन का अज्ञान दिखाया नहीं जाता. मत-वैभिन्य के नाम पर आदर दे दिया जाता है. यह इतने लंबे समय से चल रहा है कि गलत को सही, और सही को ही गलत मान लिया गया है.

टीपू के घृणित, क्रूर इतिहास को बदलकर ‘सामासिक संस्कृति’ का प्रतीक या ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी योद्धा’ का खिताब दे देना एक राजनीतिक कारस्तानी है.

14 अक्तूबर 1930 के ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ में एक विस्तृत समीक्षा छपी थी. उस के विशेष संवाददाता ने व्यंग्य-पूर्वक लिखा था कि ‘यंग इंडिया’ ने टीपू की ऐसी विरुदावली गढ़ी, मानो वह कोई कांग्रेस कार्यकर्ता हो. जबकि टीपू की कुख्याति हिन्दुओं के घोर शत्रु के रूप में है, जिसने कुर्ग में एक ही बार में 70,000 हिन्दुओं को बलात् इस्लाम में कन्वर्ट किया और उन्हें गोमांस खाने पर मजबूर किया.

मैसूर नगर और उस के राजमहल का विध्वंस किया. महल पुस्तकालय में संग्रहित बहुमूल्य पांडुलिपियों को जलाकर उस से अपने घोड़ों के लिए चने उबलवाए. बड़े पैमाने पर मंदिरों और चर्चों को तोड़कर नष्ट किया.

इसीलिए, सन् 1930 वाले ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ संवाददाता के अनुसार, यंग इंडिया ने अपनी ‘राष्ट्र-निर्माण’ वाली खामख्याली में टीपू की एक झूठी छवि गढ़ने की कोशिश की है.

इस प्रसंग से समझा जा सकता है कि किस तरह राजनीतिक उद्देश्यों से इतिहास का मिथ्याकरण करने की कोशिशें लगभग सौ साल से चल रही हैं.

ध्यान दें, 'यंग इंडिया' ने यह तब किया जब इतिहासकारों के प्रामाणिक लेखन के अलावा जन-गण की आम स्मृति में टीपू की वास्तविकता और भी हालिया तथा जीवन्त थी! मगर झूठ की भित्ति पर सद्भाव नहीं बनाया जा सकता.

ऐसी कोशिशों ने शिक्षा और ज्ञान-विमर्श में सस्ती भावुकता और छिछले तर्कों को ऊंचाई प्रदान कर हमारे बौद्धिक स्तर और चरित्र, दोनों को गिराया है. इसीलिए, तब से लेकर अभी गिरीश कर्नाड तक को जानकारों द्वारा तीखी प्रतिक्रियाएं भी झेलनी पड़ीं.

मगर, दु:ख की बात है कि फिर भी उन्होंने और उनके अज्ञानी समर्थकों ने नहीं समझा कि टीपू को सम्मानित करने की मांग कर-करके उन्होंने सदैव हिन्दुओं के घावों पर नमक छिड़कने का काम किया.

टीपू के हाथों मारे गए लाखों मृतकों की आत्माओं का अपमान तो अलग रहा! टीपू के बारे में राजनीतिक दुष्प्रचार ही चलाते रहे और इसी को हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव की जरूरत बताते रहे हैं.

किन्तु हमें समझना होगा कि इतिहास का मिथ्याकरण या उस के प्रति अज्ञान सामाजिक सद्भाव के बदले वैमनस्य ही बढ़ाता है. वह एक कट्टर, आततायी मजहबी साम्राज्यवाद की ही मदद करता है. उस का फल कभी अच्छा नहीं हो सकता. पर कई दशकों से इस का हिसाब किसी ने नहीं मांगा, इसलिए वे भ्रमवश या धृष्टतापूर्वक वही लकीर पीटते रहते हैं.

इतिहास के प्रति अज्ञान और हमारी संस्कृति के प्रति उदासीनता तथा उस के जबरन ‘सेक्यूलर’ इस्लामीकरण से देश को बड़ी हानि उठानी पड़ी है. निरपवाद रूप से सभी वैचारिक हमलों का निशाना केवल हिन्दू समाज रहता है. वह अपने धर्म, समाज की उपेक्षा-अपमान बेबस देखता है. यह देश का ही अपमान है, जिसे समझा जाना चाहिए.

नेहरूवादी प्रभाव में यह लंबे समय से बेरोक-टोक चल रहा है. इसीलिए, जो बड़े बुद्धिजीवी और अकादमिक ‘एक्टिविस्ट’ लोकसभा चुनाव से पहले मोदी पर गोले बरसा रहे थे, वे पुन: संगठित, सक्रिय हो गए हैं. मोदी-विजय से उपजी निराशा से उबरकर अब वे किसी न किसी बहाने ठीक वही दुहरा रहे हैं, जो विगत कई बरसों से उन का रिकार्ड है.

वैचारिक-सांस्कृतिक लड़ाई स्वभाव से ही अविराम होती है. साथ ही, इस में पहले प्रहार करने वाले को उसी तरह बढ़त मिलती है, जैसे खेल में टॉस जीतने वाले को. वह लड़ाई का स्वरूप तथा दिशा तय करने का अवसर पाता है. अनेक राष्ट्रवादी नेताओं ने भी इसे नहीं समझा. उन्हें और देश को सदैव उस का खामियाजा भुगतना पड़ा है.

लेखक : डॉ. शंकर शरण

("पाञ्चजन्य" 06 दिसंबर 2015 के अंक से साभार)
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* Tipu Sultan: Villain or Hero?
( Ed. Sitaram Goel )

Friday, October 19, 2018

The scam with Rakhigarhi DNA R1a1 gene and AIT (Aryan Invasion Theory)



Image-Rakhigarhi Excavation site Skeletons

The scam with Rakhigarhi DNA R1a1 gene and AIT (Aryan Invasion Theory)

Complier-Dr. Vivek Arya

Recently an article was published in India Today magazine that the DNA studies from Rakhigadi proved that Harappa Civilization was no longer an Aryan Civilization but a Dravidian one. The author claimed his conclusion on the basis of the complete absence of any reference to the genetic marker R1a1 in the ancient DNA retrieved from the site. I will like to tell you that a selective group of Geneticists claims that the R1a1, often loosely called 'the 'Aryan gene' was originated in a population of Bronze Age pastoralists who dispersed from a homeland in the Central Asian 'Pontic steppe' (the grasslands sprawling between the Black Sea and the Caspian) some 4,000 years ago. Recently a skeleton was sampled for DNA studies. Why should we not arrive at any conclusions on the basis of the DNA analysis from Rakhigarhi? Well, because while 148 samples were sent, DNA could be extracted from only one, or at most from two. And how can you generalize about the population at Rakhigarhi, leave alone about the entire Harappa civilization, on the basis of the DNA of a single individual? Was the individual a resident of Rakhigarhi or a migrant? Who knows? In addition, DNA cannot be linked with language, as the evolution and diffusion of languages is complex and not necessarily related to a person’s ancestry.

The important point to know is hypothetical association of The R1a haplo group with AIT.

Firstly, Iranian populations, who are also speakers of the Indo-Iranian family of languages like most North Indians, have very little R1a. Also, tribal groups like the Chenchus of Andhra Pradesh and the Saharias of Madhya Pradesh show anomalously high proportions of R1a. The Chenchus speak a Dravidian language, and the Saharias an Austro-Asiatic one (though they have recently adopted Indo-European languages).

The best that studies which argued that the R1a could be used as a marker for the hypothetical Indo-European migration could do was to simply ignore these groups as aberrations. But is that very convincing? Note that it is possible – no, almost certainly the case – there were many tribal communities with high proportions of R1a that, unlike the Chenchus and Saharias, were assimilated into the caste matrix over the millennia. So how correct is it to link the R1a with an Indo-European migration?

Second no scientists are able to prove that there has been no significant genetic influx to Asia from Europe, indeed specifically that he is now convinced the R1a entered the subcontinent from outside. The genetic data at present resolution shows that the R1a branch present in India is a cousin clade of branches present in Europe, Central Asia, Middle East and the Caucasus; it had a common ancestry with these regions which is more than 6000 years old, but to argue that the Indian R1a branch has resulted from a migration from Central Asia, it should be derived from the Central Asian branch, which is not a proven fact.

Professor Vasant Shinde from Department of Archaeology, Deccan College was surprised how media played a scam on his findings.

He said that

“At the Rakhigarhi site, we found strong local DNA. We have found some traces of mixing with Iran and south Indian population. It’s wrong to say that they are entirely Dravidian. Historically as well we have seen evidence of mixing—which we continue to find. Media shouldn’t be concluding anything about the Aryan invasion from this report. The DNA is of indigenous people. We don’t have evidence of contact with the steppe DNA—usually associated with north Indians. However, there is some archaeological evidence showing contact with the steppe land region.

We have definitely found traces of mixing. We never claimed that this is DNA from the early Harappan population. We have maintained that this is data from the mature Harappans who were in contact with people in regions around them. The Harappans never existed in isolation. But the reports in media are completely sensationalizing this to show that my report is evidence of Aryan invasion, when, in fact, it is too complex to conclude anything.”

Third point to ponder is the recent Genetic studies in 2006, a major genetic study of the Indian population was taken up by a team of 12 scientists. The study produced results that contradicted the 2001 study of Bamshad et al.

The paper had concluded:

“The Y-chromosome data consistently suggest a largely south Asian origin for Indian caste communities and therefore argue against any major influx, from regions north and west of India, of people associated either with the development of agriculture or the spread of the Indo-Aryan language family.”

This was followed by yet another research paper published in the same year. Among the 15 scientists, who submitted this paper, are some legends in the field, including Partha Mazumder of Human Genetics Unit, Indian Statistical Institute, L Luca Cavalli-Sforza and Peter Underhill of Stanford University. The paper said:

“The ages of accumulated microsatellite variation in the majority of Indian haplogroups exceed 10,000-15,000 years, which attests to the antiquity of regional differentiation. Therefore, our data do not support models that invoke a pronounced recent genetic input from Central Asia to explain the observed genetic variation in South Asia. R1a1 and R2 haplogroups indicate demographic complexity that is inconsistent with a recent single history.”

Thus we reach this conclusion that

1. R1a1 gene is not proven gene of Aryans. R1a1 gene is also present in indigenous tribal of India.

2. One sample from Rakhigarhi do not proves that the Harappa Civilization was Dravid Civilization as the findings
are inconclusive.

3. No genetic study proves the migration of Aryans from Central Asia.

4. AIT (Aryan invasion theory) is a failed theory supported neither by History nor by Archaeology, Indology and Genetics.

A selected group of writers are unsuccessfully trying to make the dead horse run but they cannot do anything except scams.

With inputs from

https://theprint.in/talk-point/does-rakhigarhi-skeleton-dna-confirm-dravidian-ancestry-or-reignite-aryan-invasion-debate/110576/

https://swarajyamag.com/culture/here-we-go-again-why-they-are-wrong-about-the-aryan-migration-debate-this-time-as-well

https://swarajyamag.com/ideas/genetics-might-be-settling-the-aryan-migration-debate-but-not-how-left-liberals-believe

https://www.dailypioneer.com/2018/state-editions/rakhigarhi-what-does-the-dna-sample-prove-.html
https://www.indiatoday.in/magazine/cover-story/story/20180910-rakhigarhi-dna-study-findings-indus-valley-civilisation-1327247-2018-08-31

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(Compiler is a practising Child Specialist in Delhi)


Thursday, October 18, 2018

प्रजापति(ब्रह्मा) का अपनी पुत्री से संभोग और वेद






प्रजापति(ब्रह्मा) का अपनी पुत्री से संभोग और वेद

- कार्तिक अय्यर।

प्राय: आपने पढ़ा होगा कि विधर्मी लोग हिंदुओं पर आक्षेप करते हैं कि तुम्हारे वेद और पुराण में ब्रह्मा यानी प्रजापति द्वारा स्वयं की बेटी यानी सरस्वती के साथ संभोग करने की कथा विद्यमान है। आक्षेपकर्ता करने वाले कहते है कि ऋग्वेद में  1/164/33 मंत्र में प्रजापति अर्थात ब्रह्मा द्वारा अपनी बेटी के गर्भ में अपना वीर्य स्थापन करने का वर्णन मौजूद है।

महर्षि दयानंद का किया अर्थ सर्वथा निरुक्त और ब्राह्मण ग्रंथों के अनुकूल है जोकि वेद के प्राचीन पारंपरिक ऋषियों के बनाए हुए व्याख्यान ग्रंथ हैं।

प्रद्यौर्मे पिता जनिता नाभिरत्र बन्धुर्मे माता पृथिवी महीयम्।
उत्तानयोश्चम्वो3र्योनिरन्तरत्रा पिता दुहितुर्गर्भमाधात् ॥1॥
- ऋ॰ मं॰ 1। सू॰ 164। मं॰ 33॥

नवीन ग्रन्थकारों ने एक यह कथा भ्रान्ति से मिथ्या करके लिखी है, जो कि प्रथम रूपकालङ्कार की थी-(प्रजापतिर्वै स्वां दुहितरम॰) अर्थात् यहां प्रजापति कहते है सूर्य को, जिस की दो कन्या एक प्रकाश और दूसरी उषा। क्योंकि जो जिस से उत्पन्न होता है, वह उस का ही सन्तान कहाता है। इसलिये उषा जो कि तीन चार घड़ी रात्रि शेष रहने पर पूर्व दिशा में रक्तता दीख पड़ती है, वह सूर्य की किरण से उत्पन्न होने के कारण उस की कन्या कहाती है। उन में से उषा के सम्मुख जो प्रथम सूर्य की किरण जाके पड़ती है, वही वीर्यस्थापन के समान है। उन दोनों के समागम से पुत्र अर्थात् दिवस उत्पन्न होता है॥

जापतिर्वै स्वां दुहितरमभ्यध्यायद् दिवमित्यन्य आहुरुषसमित्यन्ये। तामृश्यो भूत्वा रोहितं भूतामभ्यैत्। तस्य यद्रेतसः प्रथममुददीप्यत तदसावादित्योऽभवत्॥
- ऐ॰ पं॰ 3। कण्डि॰ 33, 34॥

प्रजापतिर्वै सुपर्णो गरुत्मानेष सविता॥
- शत॰ कां॰ 10। अ॰ 2। ब्रा॰ 7। कं॰ 4॥

तत्र पिता दुहितुर्गर्भं दधाति पर्जन्यः पृथिव्याः॥
- निरु॰ अ॰ 4। खं॰ 21॥

'प्रजापति' और 'सविता' ये शतपथ में सूर्य के नाम है तथा निरुक्त में भी रूपकालङ्कार की कथा लिखी है कि-पिता के समान पर्जन्य अर्थात् जलरूप जो मेघ है, उस की पृथिवीरूप दुहिता अर्थात् कन्या है। क्योंकि पृथिवी की उत्पत्ति जल से ही है। जब वह उस कन्या में वृष्टि द्वारा जलरूप वीर्य को धारण करता है, उस से गर्भ रहकर ओषध्यादि अनेक पुत्र उत्पन्न होते हैं॥

इस कथा का मूल ऋग्वेद है कि-

(द्यौर्मे पिता॰) द्यौ जो सूर्य का प्रकाश है, सो सब सुखों का हेतु होने से मेरे पिता के समान और पृथिवी बड़ा स्थान और मान्य का हेतु होने से मेरी माता के तुल्य है। (उत्तान॰) जैसे ऊपर नीचे वस्त्र की दो चांदनी तान देते हैं, अथवा आमने सामने दो सेना होती हैं, इसी प्रकार सूर्य और पृथिवी, अर्थात् ऊपर की चांदनी के समान सूर्य, और नीचे की बिछौने के समान पृथिवी है। तथा जैसे दो सेना आमने सामने खड़ी हों, इसी प्रकार सब लोकों का परस्पर सम्बन्ध है। इस में योनि अर्थात् गर्भस्थापन का स्थान पृथिवी, और गर्भस्थापन करनेवाला पति के समान मेघ है। वह अपने विन्दुरूप वीर्य के स्थापन से उस को गर्भधारण कराने से ओषध्यादि अनेक सन्तान उत्पन्न करता है, कि जिन से सब जगत् का पालन होता है॥1॥

( महर्षि दयानंद कृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ग्रंथप्रमाण्याप्रमाण्य विषय)

पाठकों!महर्षि दयानंद का किया हुआ यह भाष्य निरुक्त, ऐतरेय और शतपथ ब्राह्मण के अनुसार है।महर्षि ने यहां पर एक रूपक अलंकार की कथा को माना है। ब्राह्मण ग्रंथों के अनुसार यहां पर प्रजापति का अर्थ 'सूर्य' उचित है तथा यहां पर दुहिता का शब्द का अर्थ 'पृथ्वी' करना उचित है।जहां सूर्य पिता है यानी पालन करने वाला। 'पिता' शब्द का यौगिक अर्थ वाला है। वह अपनी दुहिता यानी दूर में रहना जिसका हित है,यानी पृथ्वी-- के गर्भ में अपनी सूर्य किरणें अथवा वर्षा जल रूपी वीर्य से गर्भ स्थापन करता है। जिससे औषधि आदि पुत्र उत्पन्न होते हैं यहां पर सारे के सारे शब्द योगिक हैं। मंत्र में किसी भी ऐतिहासिक व्यक्ति की चर्चा नहीं है, बल्कि प्राकृतिक पदार्थों का मानवीकरण अलंकार व रूपकालंकार सिद्ध है। इस मंत्र पर निरुक्तकार का अर्थ भी हम आगे प्रस्तुत करेंगे।
यहां यह जान लेना चाहिए कि पृथ्वी का सूर्य से उचित दूरी पर होना है उसके हित में है क्योंकि इस दूरी के कारण ही पृथ्वी पर जीवन संभव है ;यदि पृथ्वी सूर्य के निकट होती तो इसका जीवन भी बस में हो जाता है नष्ट हो जाता।इसलिए पृथ्वी को पिता,"पालक" जन्म देने वाला 'जनयिता' रूप सूर्यलोक की 'दुहिता' कहा गया है।लेकिन लोग पिता और दुहिता का अर्थ लौकिक संस्कृत के अनुसार करते हैं,जोकि भूल है। क्यों दुहिता लौकिक संस्कृत में "पुत्री" को कहते हैं, इसलिये इस मंत्र के अर्थ में भ्रांति हुई। वेद के शब्द यौगिक-धातुपरक होते हैं, रूढ़ लौकिक संस्कृत के अनुसार नहीं होते- ये ऋषि परंपरा का मत है।

एक बात का और उल्लेख करते हैं।यहां पर ऐतरेय ब्राह्मण में भी प्रजापति का अर्थ सूर्य ही है इसलिए उसमें भी किसी पौराणिक ब्रह्मा का इतिहास सिद्ध नहीं होता।

अब हम मुल्लाजी के झूठ का पर्दाफाश करते हैं इन्होंने। सायण भाष्य के नाम पर झूठा प्रमाण देकर जनता को गुमराह किया है ।हम सायणाचार्य के संस्कृत भाषण और उसके हिंदी भावार्थ को उद्धृत करते हैं-

सायणाचार्य कृत भाष्य-

दीर्घतमा ब्रवीति। मे मम द्यौर्लोकः पिता पालकः। न केवलं पालकत्वमात्रं अपितु जनिता जनयितोत्यादयिता। तत्रोपरत्तिमाह।नाभिश्च नाभिभूतो भौमो रसोsत्र तिष्ठतीति शेषः। ततश्चात् जायते।अनाद्रेतः रेतसो मनुष्य इत्येवं पारम्पर्येण ननसम्बंधिनो हेतो रस्यात्र सद्भावात्।अनेनैवाभिप्रायेण जनितेत्युच्यते,अतएव बंधुर्बंधिका तथेयं मही महती पृथिवी मे माता मातृस्थानीया स्वोद्भूतौष व्यादिनिर्मित्रीत्यर्थः।.....अत्रीस्मिन्नन्तरिक्षे पिता द्युलोकः।अधिष्ठात्रधिष्ठानभेदनादित्यो द्यौरुच्यते।स्वरश्मिभिः।अथवा इंद्रः पर्जन्यो वा। दुहितादूर्रेनिहिताया भूम्या गर्भं सर्वोत्पादनसमर्थं वृष्ट्यदकलक्षणमाधात्। सर्वतः करोति।

( ऋग्वेद १/१६४/३३, सायणभाष्य)

द्यौ मेरा पालक पिता है। न केवल पालक पिता है ,बल्कि जनिता भी है यानी उत्पन्न करने वाला।नाभि से उत्पन्न भूमि रस यही है ,जिससे अन्य उत्पन्न होता है ।अन्न से वीर्य और वीर्य से मनुष्य आदि क्रम है। इस उत्पत्ति संबंध के कारण ही इसे जनिता कहा गया है यानी उत्पन्न करने वाला। ये मातृ स्थानीय पृथ्वी औषधि आदि उत्पन्न करने वाली है। यहां अंतरिक्ष का पिता द्युलोक है।अधिष्ठान और अधिष्ठाता भेद से आदित्य को जो भी कहते हैं यह अपनी रश्मि अथवा पर्जन्य यानी वर्षा के जल से दुहिता अर्थात् दूर पर स्थित पृथ्वी के गर्भ में सर्वोत्पादन समर्थ वर्षा जल से गर्भ धारण करता है।

सायणाचार्यने स्पष्ट रूप से यहां पर पिता का अर्थ पालक लिया है क्योंकि पिता पति यह दोनों शब्द 'पा-रक्षणे'धातु से बने हैं,जिसकाका अर्थ रक्षण और पोषण करने वाला होता है। रक्षण और पोषण -यह दोनों काम पिता और पति करते हैं इसलिए यहां पर सूर्यलोक को पिता यानी पालक कहा गया है यहां पर लौकिक पिता यानि जन्म देने वाला बाप यह अर्थ नहीं है अपितु यौगिक अर्थ लिया गया है।पृथ्वी को यहां पर दुहिता कहा गया है दुहिता का अर्थ आचार्य सायण निरुक्त कार महर्षि यास्क के अनुसार "दूर में स्थित लेते हैं ,या दूर में स्थित होुा जिसके हित में है" करते हैं।लौकिक संस्कृत में दुहिता का अर्थ पुत्री होता है यानी बेटी।लेकिन वेद के शब्द यौगिक होते हैं।वेद के शब्द लौकिक अर्थ देने वाले नहीं हैं। इसलिए सायण ने पिता और दुहिता का निरुक्त के आधार पर जो अर्थ किया है वह सत्य है और विपक्षी का यह कहना आर्य समाजियों ने जानबूझकर के इस मंत्र के अर्थ को बदल दिया है,बिलकुल गलत है और यह सायण आचार्य के लेख से ही झूठ प्रमाणित होता है।

देखिये, पिता का यौगिक अर्थ-पाति रक्षतीति पिता जनको वा;पाति रक्षतीति पति:स्वामी वा।- उणादि कोश ४/५८

सायन भाष्य के साथ हम एक और पौराणिक आचार्य वेंकट माधव के भाषा को भी उद्धृत करते हैं

द्योर्मेपिता जनयिता वर्षणान्मम सन्महनकृत्। तेजो दिवि भवति पार्थिवैर्धातुभिः शरीरं बध्यते। यतश्च महती इयं पृथिवी मम बंधुः माता भवति।उत्तानयोः द्यावापृथिव्योः मध्य अवकाशरूपमंतरिक्षं भवति। तत्र दुहितुः अद्भ्यः पृथिवी जातेति पर्जन्यस्य दुहिता भवति। स तस्या गर्भं दधाति। ततः शुक्रशोणितसंसर्गज्जीवः प्रादुर्भवतीति।

( वेंकटमाधव कृत भाष्य, ऋग्वेद १/१६४/३३, वि.वै.शोधसंस्थान होश्यारपुर संस्करण, भाग ३, पृष्ठ ३६७)

वेंकट माधव भाष्य, जो कि एक प्राचीन काल के पौराणिक भाष्यकार का अर्थ है।उन्होंने भी कुछ ऐसा ही अर्थ किया यहां वेंकट माधव,सायण, निरुक्त कार और महर्षि दयानंद "दुहिता" शब्द से "पृथ्वी" अर्थ लेते हैं ।हां,महर्षि दयानंद पृथ्वी अर्थ के साथ साथ ऐतरेय ब्राह्मण के प्रमाण से 'उषा' अर्थ भी लेते हैं। यह दोनों अर्थ सर्वथा प्रामाणिक और युक्ति संगत है।

 इस प्रकार ब्रह्मा सरस्वती विषयक जो पौराणिक कथाएं हैं उसका इस मंत्र से कोई संबंध नहीं है।

इस मंत्र पर निरुक्त में यही बात लिखी है जो महर्षि दयानंद ने भी किया । द्यौ को पिता पालन करने वाला,जन्म देने वाला इन अर्थों के संदर्भ में लेते हैं।बंधु शब्द का अर्थ बंधन यानी बांधने वाला करते हैं। दुहिता का अर्थ निरुक्तकार पहले ही कर चुके हैं:-

तत्र पिता दुहितुः गर्भं दधाति पर्जन्यः पृथिव्याः ।
ऊर्ध्वतानः वा ।द्यौः मे पिता पाता वा पालयिता वा जनयिता ।बन्धुः संबन्धनात् ।नाभिः संनहनात् ।नाभ्या सन्नद्धाः गर्भाः जायन्ते ।इति आहुः ।एतस्मात् एव ज्ञातीन् सनाभयः इति आचक्षते ।
सबन्धवः इति च ।उत्तानयोः चम्वो३ðङ योनिः अन्तः अत्र पिता दुहितुः गर्भं आ अधात् । । ४.२१ निरुक्त ।।

दुहिता-दुर्हिता दूरे हिता दोग्धेर्वा।।
( निरक्त ३/१)
दुहिता का अर्थ ,दूर रहना जिसके हित में है, या जो (ऐश्वर्य आदि) काी दोग्ध्री=दोहन करने वाली है, किया है।

इस पूरे व्याख्यान का सार यह है कि इस मंत्र में सूर्य को पिता यानी पालक पृथ्वी को दुहिता यानी दूर रहना जिस के हित में है ,कहा गया है । यह पालक पिता अपनी सूर्य किरणें या वर्षा जल रूपी वीर्य से पृथ्वी में औषधि आदि को जन्म देता है।कुल मिलाकर इस मंत्र में किसी भी ऐतिहासिक मनुष्य जिसका नाम ब्रह्मा था और जिसने अपनी बेटी सरस्वती से मैथुन किया का कोई उल्लेख नहीं है ।महर्षि दयानंद का अर्थ निरुक्त ,ब्राह्मण ग्रंथ,सायण,वेंकट माधव के अनुकूल है।

इस भ्रान्ति का प्रचार व्यर्थ में वेदों की निंदा के लिए किया जाता हैं। 

सुग्रीव बाली युद्ध संशय निवारण



सुग्रीव बाली युद्ध संशय निवारण
प्रश्न: रामजी ने बाली को छुपकर मारा। क्या ये उचित है?
बाली से सुग्रीव का समझौता करा देते हनुमान जी??
उत्तर:- बाली ने अपने भाई सुग्रीव की पत्नी रूमा को छीनकर उसे बंधक बना लिया था।
और सुग्रीव को अपमानित कर उसके हक से वंचित कर दिया था। इसलिए उसको छुपकर मारना गुनाह नहीं था। क्या समझौता सुग्रीव पत्नि रूमा को देकर सम्भव व उचित था ।
सुग्रीव , श्री राम के परम मित्र थे ।
मित्र के लक्षण शास्त्रो में इस प्रकार कहे गए है ,
शास्त्रो मे लिखा है कि सच्चा दोस्त वह होता है-
“पापानिवारयति योजते हिताय, गुय्हम निगुय्हति गुणान प्रकटि करोति,
आपदगन्तम च न जहाति ददाति काले, सन्मित्रम लक्षणमिदम प्रवदंति विज्ञा"
अर्थात- जो अपने मित्र को पाप के मार्गपर जाने से रोकता है,सन्मार्ग की ओर प्रेरित करता है, दोस्त की गुप्त बातो को छिपाता है और गुणो का बखान करता है,आपत्ति के समय नही छोडता है अर्थात आपत्ति मे साथ देता है अच्छे मित्र की यह पहचान विद्वानो ने बताई है ।
अतः एक सच्चे मित्र की भांति न्यायप्रिय पुरुषोत्तम श्री राम ने मित्र सुग्रीव का साथ दिया ।
2: दरअसल बाली रावण का मित्र था। और यदि सीधे युद्ध करते तो वाली के समर्थक वानर और राक्षस एक हो जाते। युद्ध खत्म होने में बहुत समय लगता।
सीताजी को शायद जिंदा नहीं देख पाते।
भरत भी 14 साल की अवधि होने पर अग्निसमाधि ले लेते इसलिए जल्द से जल्द सुग्रीव की वानर सेना की आवश्यकता थी। इसलिए बाली से सीधी टक्कर लेना नीति नहीं थी।
3: रामजी इक्वाकु वंश के शासक थे , और उनके भाई भरत राजा थे। आर्यवर्त में धर्म की स्थापना उनका धर्म था।
मनु जी ने अपने धर्मशास्त्र में लिखा है कि जो भाई की पत्नी, बेटी और बहू से छल करता है वह आततायी है। उसे देखते ही मार देना धर्म है। अतः राम जी बाली को दंड देने के अधिकारी थे।
4: बाली विरोधी पक्ष के रावण से मिला था। रावण पापी दुष्ट , कई स्त्रियों , देवो का अपहरणकर्ता और देशधिघातक अधर्मी राजा था। देशविरोधी का मित्र होने से बाली अवश्य ही वध का अधिकारी था।
5: आज भी गुरिल्ला युद्ध जैसी युद्ध पद्धतियों में शत्रु को छिपकर मारा जाता है । शिवाजी महाराज की मावली सेना भी इसी पद्धति से युद्ध लड़ती थी और छुपकर मुगलों को मारती थी। तो क्या शिवाजी महाराज कायर हो गये या उनकी वीरता कम हो गई ?
तो फिर युद्ध नीति से युद्ध करके श्रीराम ने कौन सा पाप कर दिया ?
6: अपने मित्र सुग्रीव को उसकी पत्नी और राज्य दिलाना रामजी की प्रतिज्ञा और मित्र धर्म और वेदादि शास्त्र सम्मत भी था।
7: तारा को हनुमान जी ने राज्य की अधिकारिणी कह अंगद को राजा बनाने के लिये लिये कहा था पर तारा ने ही सुग्रीव को राजा बनाने के लिये कहा और तारा को पत्नि सुग्रीव ने जबरन नही बनाया बल्की वह तो बलि के साथ चिता मे जल कर प्राण त्यागना चाहती थी ।
(बाल्मीकि रामायण, किष्किन्धा कान्ड , एकाविंशः सर्ग श्लोक11, 14, 16)
8: जब श्रीराम जी ने तीर मार दिया, और फिर श्रीराम जी सामने आ गये, तो बाली ने पूछा कि - श्रीराम जी आपने मुझको छुपकर के मारा , यह तो आपने ठीक नहीं किया। यह तो नियम का उल्लंघन किया। आपने मुझे किस अधिकार से मारा? आपको लड़ना था तो मेरे सामने आकर लड़ते, तो पता चलता कि कितने क्षत्रिय हो। छुपकर के मारा, यह तो आपने नियम तोड़ दिया। उस समय श्रीरामचंद्र जी ने क्या उत्तर दिया। श्रीराम ने कहा, कि हम जिस परिवार से आये हैं, जिस वंश के हैं, उस वंश का इस धरती पर चक्रवर्ती शासन है। इस समय महाराजा भरत चक्रवर्ती राजा हैं। तुम महाराजा भरत के अंतर्गत उनके अधीन हो। महाराजा भरत के अंतर्गत रहते हुए तुमने अपने भाई पर अन्याय किया है, अत्याचार किया है। पहले गलती तुमने की है। और हम महाराजा भरत की ओर से तुमको दंड देने आये हैं। हमने दंड देकर के न्याय किया है। हमने कोई छल-कपट नहीं किया, कोई धोखा नहीं दिया। यह श्रीराम ने ऐसा न्यायपूर्ण उत्तर दिया।
निष्कर्ष: श्री राम द्वारा बाली को छुपकर मारना कूटनीति व एक पापी और धर्म द्रोही समर्थक का पराभव करना व मित्र धर्म निभाना था।
अतः यह कृत्य अनुचित नहीं कहा जा सकता।

बीमार मानसिकता



बीमार मानसिकता
डॉ विवेक आर्य
नवरात्र का आज अंतिम दिन है। पिछले कुछ वर्षों से नवरात्रों के समय कुछ असुर प्रवृति वाले विशेष रूप से उत्तेजित होकर बौद्धिक प्रदुषण मचाते हैं। क्या करे अपनी बीमार मानसिकता के चलते ये कोई सार्थक कार्य कर ही नहीं सकते। महिषासुर महिमामंडन दिवस, रावण महिमामंडन जैसे कृत्य करने के बाद इस वर्ष इन्होनें नया कुछ सोचा। क्यों न देवी के नाम पर भ्रमित किया जाये? इसी प्रकरण में देवियों को मानवाधिकार से जोड़कर एक सन्देश प्रचारित किया जा रहा है कि इस नवरात्र में कोई दुर्गा गर्भ में नहीं मारी जाएगी? कोई सरस्वती विद्यालय जाने से नहीं रोकी जाएगी? कोई लक्ष्मी भीख नहीं मांगेगी? कोई पार्वती दहेज़ की बलि नहीं चढ़ेगी? कोई सीता मौन रहकर अत्याचार नहीं सहेगी? कोई काली गोरे होने की क्रीम नहीं लगाएगी?
ऊपर से देखने में यह बहुत सुन्दर सन्देश लगेगा मगर क्या आपने कभी सोचा है कि ये सभी सन्देश हिन्दुओं के लिए ही क्यों होते हैं। जैसे cracker less दीवाली, water less होली इत्यादि। जैसे blood less ईद, alcohol free Christmas कभी पढ़ने को नहीं मिलता। रमजान में आपको कभी यह सुनने को नहीं मिलेगा कि आज किसी आयशा का हलाला नहीं होगा? आज किसी ख़दीजा का तीन तलाक नहीं होगा? आज किसी मरियम का पति उसे नहीं पिटेगा? आज किसी ज़ैनब को अनेक संतान पैदा करने के लिए बाधित नहीं होना पड़ेगा? आज किसी फातिमा को अनेक सौतन का सामना नहीं करना पड़ेगा?
ऐसा सन्देश हमें कभी इसलिए नहीं पढ़ने को मिलता क्यूंकि हिन्दुओं को बिना मांगे सलाह देने के लिए हज़ारों साम्यवादी मानसिकता के लोग सारा दिन कलम घिसाते हैं। उनके लक्ष्य केवल हिन्दुओं के देवी-देवताओं और त्योहारों को लक्ष्य बनाकर अपनी बीमार मानसिकता के बीजों का रोपन करना हैं। वे मानना है कि हिन्दू समाज में वर्तमान में ऐसे कोई व्यवस्था नहीं है जो इस वैचारिक प्रदुषण को रोकने के लिए प्रयत्नशील हैं। मगर अब ऐसा अत्याचार नहीं चलेगा। सोशल मीडिया के माध्यम से ऐसे लाखों कार्यकर्ता रात दिन इस सुनियोजित षड़यंत्र को रोकने के लिए पुरुषार्थ कर रहे हैं। आप भी इस सन्देश को अपने मित्रों-सम्बन्धियों तक अवश्य भेजें ताकि षड़यंत्र असफल हो जाये।
सलंग्न चित्र इसी मानसिकता का एक उदहारण है जो इस वर्ष नवरात्री के अवसर पर प्रचारित किया गया है।

Wednesday, October 17, 2018

नहले पर दहला



नहले पर दहला

एक मतान्ध आकर बोला की आर्यसमाज और इस्लाम तो एक ही हैं। दोनों निराकार ईश्वर को मानते है और दोनों मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करते। मैंने कहा आपको पूरी जानकारी नहीं हैं।

ईश्वर और अल्लाह एक नहीं हैं। ईश्वर वो है जिनके विषय में वेदों में बताया गया हैं। अल्लाह वो है जिनके विषय में क़ुरान में बताया गया हैं।

१) वैदिक ईश्वर सर्वव्यापक (omnipresent) है, जबकि अल्लाह सातवें आसमान पर रहता है अर्थात एकदेशी है।

२) ईश्वर सर्वशक्तिमान (omnipotent) है, वह कार्य करने में किसी की सहायता नहीं लेता, जबकि अल्लाह को फरिश्तों और जिन्नों की सहायता लेनी पडती है।

३) ईश्वर न्यायकारी है, वह जीवों के कर्मानुसार नित्य न्याय करता है, जबकि अल्लाह केवल क़यामत के दिन ही न्याय करता है, और वह भी उनका जो की कब्रों में दफनाये गए हैं।

४) ईश्वर क्षमाशील नहीं, वह दुष्टों को दण्ड अवश्य देता है, जबकि अल्लाह दुष्टों, बलात्कारियों के पाप क्षमा कर देता है। मुसलमान बनने वाले के पाप माफ़ कर देता है।

५) ईश्वर कहता है, "मनुष्य बनों" *मनु॑र्भव ज॒नया॒ दैव्यं॒ जन॑म् - ऋग्वेद 10.53.6*,

जबकि अल्लाह कहता है, मुसलमान बनों. सूरा-2, अलबकरा पारा-1, आयत-134,135,136

६) ईश्वर सर्वज्ञ है, जीवों के कर्मों की अपेक्षा से तीनों कालों की बातों को जानता है, जबकि अल्लाह अल्पज्ञ है। उसे पता ही नहीं था की शैतान उसकी आज्ञा पालन नहीं करेगा, अन्यथा शैतान को पैदा क्यों करता?

७) ईश्वर निराकार होने से शरीर-रहित है, जबकि अल्लाह शरीर वाला है, एक आँख से देखता है। मैंने (ईश्वर) ने इस कल्याणकारी वेदवाणी को सब लोगों के कल्याण के लिए दिया है-यजुर्वेद

''अल्लाह 'काफिर' लोगों (गैर-मुस्लिमो ) को मार्ग नहीं दिखाता'' (१०.९.३७ पृ. ३७४) (कुरान 9:37) .

८- ईशवर कहता है सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।देवां भागं यथापूर्वे संजानाना उपासते ।।-(ऋ० १०/१९१/२)

अर्थ:-हे मनुष्यो ! मिलकर चलो,परस्पर मिलकर बात करो। तुम्हारे चित्त एक-समान होकर ज्ञान प्राप्त करें। जिस प्रकार पूर्व विद्वान,ज्ञानीजन सेवनीय प्रभु को जानते हुए उपासना करते आये हैं,वैसे ही तुम भी किया करो।

क़ुरान का अल्ला कहता है ''हे 'ईमान' लाने वालों! (मुसलमानों) उन 'काफिरों' (गैर-मुस्लिमो) से लड़ो जो तुम्हारे आस पास हैं, और चाहिए कि वे तुममें सखती पायें।'' (११.९.१२३ पृ. ३९१) (कुरान 9:123) .

९- अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभाय ।-(ऋग्वेद ५/६०/५)

अर्थ:-ईश्वर कहता है कि हे संसार के लोगों ! न तो तुममें कोई बड़ा है और न छोटा।तुम सब भाई-भाई हो। सौभाग्य की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ो।

''हे 'ईमान' लाने वालो (केवल एक आल्ला को मानने वालो ) 'मुश्रिक' (मूर्तिपूजक) नापाक (अपवित्र) हैं।'' (१०.९.२८ पृ. ३७१) (कुरान 9:28)

१० क़ुरान का अल्ला अज्ञानी है वे मुसलमानों का इम्तिहान लेता है तभी तो इब्रहीम से पुत्र की क़ुर्बानी माँगीं।
वेद का ईशवर सर्वज्ञ अर्थात मन की बात को भी जानता है उसे इम्तिहान लेने की अवशयकता नही।

११ अल्ला जीवों के और काफ़िरों के प्राण लेकर खुश होता है लेकिन वेद का ईशवर मानव व जीवों पर सेवा भलाई दया करने पर खुश होता है।

ऐसे तो अनेक प्रमाण है, किन्तु इतने से ही बुद्धिमान लोग समझ जायेंगे की तो ईश्वर और अल्लाह एक नहीं हैं। न ही आर्यसमाज और इस्लाम एक हैं।

🚩🚩सनातन धर्म की जय हो🚩🚩