Sunday, October 14, 2018

कम्युनिस्ट न देश के थे, न होंगे



कम्युनिस्ट न देश के थे, न होंगे
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जब कभी गोष्ठियों आदि में कम्युनिस्टों द्वारा देश के राष्ट्रीय हितों और अस्मिता आदि को पलीता लगाने की चर्चा होती है तब विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन का इतिहास जानने वाले किसी भी जागरूक व्यक्ति को आश्चर्य नहीं होता। मार्क्सवाद के प्रणेता कार्ल माक्र्स की समग्र रचनाओं में "राष्ट्र" नामक इकाई के लिए कोई स्थान नहीं है। मार्क्सवादी तो केवल सर्वहारा को जानता है, जिसे मार्क्स ने "प्रोलेतेरियत" कहकर पुकारा है और जो उसके अनुसार भौतिक द्वंद्ववाद के आधार पर हो रहे ऐतिहासिक विकास-क्रम में पूंजीवाद की अन्तर्निहित कमजोरियों अथवा विरोधाभास के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आया है। माक्र्सवाद के अनुसार इस सर्वहारा वर्ग की तानाशाही स्थापित होने के उपरान्त कालान्तर में राज्य स्वयं तिरोहत हो जाएगा। चूंकि दुनिया के किसी भी भाग में रहने वाले सर्वहारा वर्ग के हित समान होते हैं, अत: सर्वहारा ही इन कामरेडों का इष्टदेव बन बैठा है। इस भ्रामक वैचारिक पृष्ठभूमि में राष्ट्र, राष्ट्रीयता, राष्ट्रहित, राष्ट्रीय आकांक्षाएं, राष्ट्रीय आदर्श , राष्ट्रीय अस्मिता आदि के लिए कोई स्थान नहीं है।
राष्ट्रघात में शर्म नहीं
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विश्व के विभिन्न देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों का इतिहास इस सच्चाई को प्रकट करता है कि उनके लिए माक्र्सवाद का मक्का मास्को अथवा इतिहास के पन्नों में समाहित सोवियत संघ ही सर्वोपरि रहा है। इसलिए उसके हित-संवर्धन हेतु उन्हें अपने देश, समाज एवं राष्ट्र के हितों को तिलांजलि देकर उसके साथ विश्वासघात अथवा राष्ट्रघात तक करने में इन्हें कोई शर्म नहीं आती। 1962 में हुए चीनी आक्रमण के दौरान भारत के कम्युनिस्टों ने चीन को आक्रमणकारी मानने से इनकार कर दिया था।
भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन के जन्म और विकास की कहानी विडम्बनाओं से भरी हुई है। पहले विश्वयुद्ध की समाप्ति पर ब्रिटेन और फ्रांस जैसे विजेता यूरोपीय राष्ट्रों ने तुर्की के आतोमन-साम्राज्य को विघटित करने के साथ ही तुर्की के शासक खलीफा की हुकूमत भी समाप्त कर दी। भारत के मजहबी-उन्मादी मुस्लिम वर्ग में इसकी जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई और उसमें से अनेक व्यक्ति देश से पलायन या हिजरत करके विदेशों में चले गए। ऐसे ही कुछ मुस्लिम युवक सोवियत संघ पहुंच गए। उन्हें अक्तूबर, 1917 की सोवियत राज्य क्रान्ति ने मोह लिया था। इसी दौरान लेनिन के आमंत्रण पर मानवेन्द्र नाथ राय (एम.एन.राय) को अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन का नियंत्रण करने वाली संस्था कम्युनिस्ट इंटरनेशनल या कामिन्टर्न की कार्यकारिणी समिति का सदस्य बनाकर उपनिवेश संबंधी मामलों में परामर्शदाता का दायित्व सौंपा गया।
पहले विश्वयुद्ध के दौरान सुप्रसिद्ध राष्ट्रभक्त लाला हरदयाल और सरदार सोहनसिंह ने विदेशों में गदर पार्टी स्थापित की थी। उनका उद्देश्य विश्वयुद्ध में अंग्रेजों के यूरोप और पश्चिमी एशिया में फंसे होने का लाभ उठाकर सशस्त्र क्रान्ति द्वारा देश को पराधीनता से मुक्त करना था। लेकिन जब उनके प्रयत्न सफल नहीं हुए तब गदर पार्टी के संतोष सिंह, रतन सिंह और गुरुमुख सिंह जैसे कुछ क्रान्तिकारी लेनिन के करिश्माई नेतृत्व से प्रभावित होकर 1920 में सोवियत संघ पहुंच गए। इस देश के वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेता स्वर्गीय मुजफ्फर अहमद के अनुसार इन सभी तत्वों और व्यक्तियों को साथ लेकर एम.एन.राय ने 17 अगस्त, 1920 को ताशकंद के सैनिक स्कूल या सोवियत संघ की भूमि पर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का सर्वप्रथम गठन किया था और सन् 1921 में उसे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल या कामिन्टर्न की सदस्यता दे दी गयी थी।
यद्यपि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने संस्थापकों और प्रारंभिक सदस्यों में एम.एन. राय, मुजफ्फर अहमद, शौकत उस्मानी, गुलाम हुसैन, अबनि मुखर्जी, नलिनी गुप्त आदि के नाम गिनाए हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि उसके संस्थापक या प्रारंभिक सदस्यों में अधिकतर वे कट्टरपंथी-मजहबी मुसलमान थे, जो तुर्की में खलीफा की हुकूमत समाप्त हो जाने की वजह से पवित्र भारत-भूमि को हिकारत से "काफिरों की धरती" बताकर अफगानिस्तान के रास्ते ताशकंद पहुंच गए थे।
कमान विदेशी हाथों में
लेकिन शीघ्र ही एम.एन.राय और लेनिन में मतभेद प्रकट होने लगे। कुछ ही समय बाद 21 जनवरी, 1924 को लेनिन की मृत्यु हो गई। उसके उत्तराधिकारी जोसेफ स्टालिन से भी राय की पटरी न बैठ सकी। फलस्वरूप एम.एन. राय सन् 1928 में आयोजित कम्युनिस्ट इन्टरनेशनल की छठी कांग्रेस में शामिल नहीं हुए और उन्होंने स्टालिन-प्रणीत माक्र्सवाद की व्याख्या की बड़ी तीखी आलोचना की। इस पर उन्हें कामिन्टर्न से अलग कर दिया गया और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की कमान ब्रिटिश कम्युनिस्ट नेताओं को सौंप दी गई। पर्सी ई. ग्लैडिंग्ज, फिलिप स्प्राट, जार्ज एलिसन, ब्रोंजामिन फ्रांसिस ब्रौडले, ह्रू जलेस्टर हचिन्सन, एस. सकलातवाला और रजनी पामदत्त आदि ऐसे ही ब्रिटिश कम्युनिस्ट नेता थे जिन्होंने भारत की कम्युनिस्ट पार्टी को पालने-पोसने का काम किया। इनमें से एस. सकलातवाला यद्यपि पारसी थे, पर वे लम्बे समय तक ब्रिटेन में रहे थे और कुछ वर्ष के लिए ब्रिटिश संसद के निचले सदन (हाउस आफ कामन्स) के सदस्य भी रह चुके थे। रजनी पामदत्त मूलत: बंगाली थे लेकिन ब्रिटेन में जा बसे थे और सन् 1920 में ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी अपने जन्मकाल से ही भारतीय नहीं थी और न है। वह तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी न होकर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी है। यही बात माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और अन्य कम्युनिस्ट गुटों के ऊपर लागू होती है। इस तरह भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन का जन्म ही विदेश में नहीं हुआ है, बल्कि उसके पालन-पोषण, संवर्धन, विकास और निर्देशन के सूत्र भी विदेशों में रहे हैं।
फिर भी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का पहला देशव्यापी अधिवेशन दिसम्बर, 1925 में कानपुर में हुआ। इस बीच पार्टी ने देश के छह-सात प्रान्तों में अपना कार्य शुरू कर दिया था और इसलिए पार्टी दस्तावेज के अनुसार इस सम्मेलन में पांच सौ प्रतिनिधि शामिल हुए थे। सन 1920 में सुप्रसिद्ध देशभक्त लाला लाजपतराय की अध्यक्षता में गठित की गई अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस में कम्युनिस्ट शीघ्र ही सक्रिय हो गए थे। ब्रिटिश कम्युनिस्ट नेताओं के मार्गदर्शन में उन्होंने अनेक मजदूर संगठन खड़े किए थे। फिर पार्टी की गतिवधियों का संचालन करने के लिए वे सोवियत संघ से पैसा लाए थे। इसके बाद पंजाब में उन्होंने विद्रोहों का सूत्र संचालन किया और उत्तर प्रदेश में "वर्कर्स एंड पीजेंट्स पार्टी" नाम से हिमायती जमात खड़ी की।
इसी दौरान कुछ कम्युनिस्ट नेता ब्रिटिश सरकार के हस्तक या एजेंट बनकर पार्टी में बहुत अधिक सक्रिय हुए थे। इनमें सबसे प्रमुख नाम श्रीपाद अमृत डांगे का था, जिन्होंने "कानपुर षडंत्र केस" में बन्द किये जाने पर ब्रिटिश सरकार से लिखित अनुरोध किया था कि अगर उन्हें रिहा कर दिया जाए तो वे सरकारी एजेंट के रूप में पार्टी के अन्दर सक्रिय रहकर उसके महत्वपूर्ण गोपनीय प्रस्तावों एवं निर्णयों की जानकारी ब्रिटिश शासकों को देते रहेंगे। "मेरठ षडंत्र केस" में डांगे की भागीदारी इसी योजना के तहत थी और उन्हीं की सूचना पर अंग्रेज सरकार को एक दर्जन से अधिक कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं और पार्टी के महत्वपूर्ण नेताओं को बन्दी बनाने में सफलता मिली थी। इस घटना से अन्य कम्युनिस्ट नेता हतप्रभ रह गये थे।
इस दौरान कामिन्टर्न और ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के रजनी पामदत्त और बेंजामिन फ्रांसिस ब्रौडले आदि का विचार इस देश की राष्ट्रीय मुख्यधारा और कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन से अलग रहते हुए कम्युनिस्टों के अपने बल-बूते पर किसान और मजदूरों को संगठित करते हुए एक प्रबल जनशक्ति बन जाना था। सन् 1928 के छठे अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट सम्मेलन ने भी उन्हें यही दिशा-निर्देश दिया था। अत: रजनी पाम दत्त के निर्देश पर कम्युनिस्टों ने कांग्रेस का उग्र विरोध करते हुए उसे साम्राज्यवादियों और पूंजीपतियों का हस्तक घेाषित कर दिया। उनका विश्लेषण यह था कि गांधीजी वस्तुत: भारतीय बुर्जुआ वर्ग के नेता हैं। इसलिए उस बुर्जुआ वर्ग के आर्थिक हित गांधीजी को ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के साथ हाथ मिलाने को विवश कर देंगे।
किन्तु भारत के कम्युनिस्टों को इस देश के मजदूर और कामगार जनता के हितों की चिन्ता कितनी अधिक थी, इसका पता इस दौरान उनके द्वारा अपनायी गयी नीतियों से स्पष्ट हो जाता है। बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक समय से ही लोकमान्य तिलक ने स्वदेशी आन्दोलन चलाकर देशवासियों से विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का कार्यक्रम प्रभावशाली ढंग से छेड़ रखा था। गांधी जी ने चरखे से बनायी जाने वाली खादी के प्रयोग पर बहुत अधिक बल देकर इस स्वदेशी आन्दोलन को गांव-गांव तक पहुंचा दिया था। चरखे से स्वयं नियमित रूप से सूत कातना उनकी दिनचर्या और कांग्रेस के निर्धारित कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण भाग था। कहना न होगा कि इस तरह जब गांधी जी के नेतृत्व में देशवासी विदेशी-वस्तुओं और वस्त्रों का बहिष्कार करते हुए भारत के गरीब जुलाहों, बुनकरों तथा मेहनतकश जनता की रोजी-रोटी सुरक्षित करने का आन्दोलन चला रहे थे तब भारत की कम्युनिस्ट पार्टी विदेशी वस्त्रों को लोकिप्रय बनाने के लिए आन्दोलन कर रही थी। उनका तर्क था कि यदि विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया गया तो ब्रिटेन की लंकाशायर और मैन्चेस्टर स्थित कपड़ा मिलों में काम करने वाले हजारों मजदूरों की रोजी-रोटी के लिए गंभीर संकट खड़ा हो जाएगा। इस संबंध में यह तथ्य ध्यान रखना चाहिए कि उस समय ब्रिटेन की इन मिलों में तैयार कपड़े की बिक्री की सबसे बड़ी मंडी भारत था। इससे कम्युनिस्टों के भारत के मजदूरों के मसीहा बनने के दावे का खोखलापन प्रकट हो जाता है।
कम्युनिस्टों के इस कारनामे ने उन्हें भारत की जनता में अत्यधिक अलोकप्रिय बना दिया। यहां तक कि मजदूर क्षेत्र में भी उनकी लोकप्रियता में बराबर गिरावट आती चली गई। इसी बीच यूरोप में हिटलर और मुसोलिनी के नेतृत्व में फासीवाद और नाजीवाद का उदय होने लगा। भारत में कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन और 1930-32 के दौरान चलाए गए सविनय अवज्ञा आंदोलन का विरोध कम्युनिस्टों को बहुत महंगा पड़ा। अत: 1935 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के सातवें सम्मेलन ने भारत के कम्युनिस्टों को कांग्रेस के साथ गठजोड़ कर संयुक्त मोर्चा बनाने का निर्देश दिया। उसके पूर्व कम्युनिस्टों द्वारा देशव्यापी कपड़ा मिल मजदूरों की हड़ताल कराने की कोशिशों के कारण सन् 1934 में ब्रिटिश सरकार ने भारत की कम्युनिस्ट पार्टी को अवैध घोषित कर दिया था। अत: कांग्रेस के साथ सहयोग करना उस समय कम्युनिस्टों की राजनीतिक मजबूरी भी थी।
कांग्रेस में प्रवेश कर संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए कम्युनिस्टों ने कांग्रेस के अन्दर क्रियाशील कांग्रेस समाजवादी दल में शामिल होने का निश्चय किया। सन् 1934 में आचार्य नरेन्द्र देव के नेतृत्व में गठित इस पार्टी को भी कांग्रेस में अपने समर्थकों की संख्या बढ़ाने के लिए उनकी आवश्यकता प्रतीत हुई। फलस्वरूप उन्हें कांग्रेस समाजवादी दल में शामिल कर लिया गया।
किन्तु कांग्रेस समाजवादी दल के माध्यम से कांग्रेस में शामिल होने की कम्युनिस्ट रणनीति अत्यधिक सुनियोजित थी। निचले स्तर के कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को कांग्रेस नेतृत्व से दूर ले जाकर उन्हें अपने प्रभाव में लाने, राष्ट्रीय आंदोलन में कांग्रेस की भूमिका का महत्व घटाने, कांग्रेस संगठन का अपने गर्हित उद्देश्यों के लिए उपयोग करने और अंतत: कांग्रेस संगठन को हजम कर जाने की योजना लेकर ये कम्युनिस्ट कांग्रेस में घुसे थे। इसी तरह सन् 1936 में प्रोफेसर एन. जी. रंगा और स्वामी सहजानन्द सरस्वती द्वारा गठित की गई अखिल भारतीय किसान सभा में भी उन्होंने घुसपैठ कर ली थी और शीघ्र ही उस पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया था।
इसी बीच 3 सितम्बर, 1939 को दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ चुका था। पर सोवियत संघ अगस्त, 1939 की रिबनट्राप-मोलोटोव संधि से बंधा होने के कारण जर्मनी का मित्र था। अत: सोवियत संघ इस युद्ध को "साम्राज्यवादी युद्ध" कहकर उसका विरोध कर रहा था। इसी आधार पर भारत के कम्युनिस्ट भी युद्ध-विरोधी थे। उन दिनों उनका सुप्रसिद्ध गीत था: -
जर्मन और अंग्रेज लड़ रहे, राज करने की खातिर।
हिन्दुस्तानी कोई मत जइयो, वहां मरने की खातिर।।
लेकिन जब जून, 1941 में नाजी जर्मनी की सेनाओं ने सोवियत भूमि पर अचानक हमला बोल दिया तब सोवियत संघ के तानाशाह नेता मार्शल स्टालिन पूंजीवादी ब्रिटेन के विन्स्टन चर्चिल की शरण में जाकर इस युद्ध को जनवादी युद्ध कहने लगे। इन स्थितियों में भारतीय कम्युनिस्टों के लिए गिरगिट की तरह रंग बदलना जरूरी हो गया। ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख नेता जार्ज एलिसन, फिलिप स्प्राट, बेंजामिन फ्रांसिस ब्रौडले, हैरी पालिट और रजनी पाम दत्त ने भारत की कम्युनिस्ट पार्टी को यह निर्देश दिया कि वे युद्ध में ब्रिटेन की मदद करें।
इस समय तक कम्युनिस्टों ने अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस पर पूरी तरह अधिकार कर लिया था। अंग्रेज सरकार चाहती थी कि भारत के औद्योगिक उत्पादन की गाड़ी तीव्र गति पकड़ ले। अर्थात् उत्पादन में बढ़ोत्तरी हो जिससे युद्धकाल के दौरान आवश्यक रसद और अनिवार्य वस्तुओं की प्राप्ति उसे होती रहे। अत: उसने भारत के कम्युनिस्टों को हर तरह की सुविधाएं देना शुरू कर दिया। प्रत्युत्तर में भारतीय कम्युनिस्टों ने औद्योगिक क्षेत्र में सहयोग करते हुए ब्रिटिश साम्राज्यवाद की सहायता की। उसका वर्णन करते हुए एम.आर. मसानी ने लिखा है कि "औद्योगिक मोर्चे पर अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस में अपने पूर्ण प्रभुत्व का लाभ उठाते हुए भारत के कम्युनिस्टों ने श्रमिकों को राष्ट्रीय आंदोलन से तो दूर रखा ही, बल्कि जहां वे पहले मजदूरों के शोषण के विरुद्ध प्रतिदिन हड़ताल पर आमादा हो जाते थे, अब नया नारा लगाने लगे-
रात-दिन करो तुम काम,
हड़ताल का न लो अब तुम नाम।
अखिल भारतीय किसान सभा पर अधिकार जमाए हुए कामरेडों ने इसी तर्ज पर अब किसानों से कहना आरंभ कर दिया कि वे अपनी अभी तक की शिकायतें और कठिनाइयां भूल जाएं तथा अधिक अनाज पैदा कर सेना का पेट भरने के लिए पूरे का पूरा अनाज सरकार को सौंप दें।
राष्ट्रीय आन्दोलन की पीठ में छुरा घोंपने की अपनी इसी नीति के तहत कम्युनिस्टों ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को "तोजो का कुत्ता", "पूंजीपतियों का दलाल" आदि कहकर उनका अपमान करना शुरू कर दिया। फिर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पी.सी. जोशी ने जुलाई, 1942 में भारत सरकार के गृहसचिव को पत्र लिखकर अंग्रेजों को हर तरह की सहायता देने का पार्टी का संकल्प दोहराया।
"भारत छोड़ो आन्दोलन" के दौरान भारत की कम्युनिस्ट पार्टी सोवियत संघ के इशारे पर अंग्रेजों की चाटुकारिता करने, गांधी जी और सुभाष चन्द्र बोस को जापान का एजेंट बताने, भारतीय स्वाधीनता सेनानियों को बन्दी बनवाकर जेलों में सड़ने देने की राष्ट्रघाती नीतियों को व्यावहारिक रूप देने में जोर-शोर से लगी हुई थी। इस संबंध में यह तथ्य ध्यान रखने योग्य है कि जब कांग्रेस अगस्त, 1942 में अंग्रेजों के विरुद्ध "भारत-छोड़ो" का उद्घोष करने जा रही थी उसी समय 26 जुलाई, 1942 को भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने कांग्रेस कार्यसमिति के नाम एक खुली चिट्ठी प्रकाशित की थी। इसमें कहा गया था कि "आपके प्रस्तावित अगस्त-प्रस्ताव के द्वारा संघर्ष छेड़ने से अंग्रेज नौकरशाहों को भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को "पंचमांगी" कहकर बदनाम करने का अवसर मिलेगा। आपका प्रस्तावित भारत-छोड़ो संघर्ष फासिस्ट जापानियों को देश के भीतर आने में सहायता पहुंचाएगा।" इसी तरह नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की अवमानना और अवज्ञा करते हुए कम्युनिस्टों ने लिखा कि "आखिर जापान-समर्थक भावना किन लोगों में पैदा हुई थी? उन्हीं लोगों में जिनमें आत्मविश्वास नहीं था और जो जापानियों से यह आशा करते थे कि वे अंग्रेजों को इस देश से निकालकर सम्पूर्ण हिन्दुस्थान उन्हें सौंप देंगे।"
(संदर्भ- भारत का कम्युनिस्ट पार्टी-एक संक्षिप्त इतिहास, लेखक-एम.आर.मसानी)
क्या कम्युनिस्टों का यह दुष्प्रचार किसी राष्ट्रघाती कार्यवाही से कम था?
केरल के अन्दर ए.के. गोपालन और ई.एम.एस. नम्बूदिरीपाद जैसे नेता संकट की उस घड़ी में कांग्रेस को छोड़कर सम्पूर्ण दल-बल के साथ कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए थे। इसीलिए कम्युनिस्टों की इन राष्ट्रघाती कारगुजारियों पर टिप्पणी करते हुए अक्तूबर, 1945 में पं. जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि "जब देश के हित के लिए लाखों भारतीयों ने अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया था, उस समय कम्युनिस्ट देश के शत्रुओं से जा मिले थे, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।"
(संदर्भ- माडर्न इंडियन पालिटिकल थिंकर्स लेखक-डा. विष्णु भगवान)।
सन् 1942 में भारत-छोड़ो आंदोलन शुरू होने से पहले देश में ब्रिटिश सरकार ने "क्रिप्स मिशन" भेजा था। "क्रिप्स योजना" में देश-विभाजन के बीज छिपे होने से गांधीजी ने उसे अस्वीकार कर दिया। लेकिन कम्युनिस्टों को उसमें कोई आपत्तिजनक बात दिखाई नहीं दी। वे तो भारत को सांस्कृतिक आधार पर एक इकाई या राष्ट्र मानने के लिए कतई तैयार नहीं थे। उनकी सोच तो यह थी कि इस देश में अनेक राष्ट्र मौजूद हैं। मई, 1941 में एक परिपत्र निकालकर उन्होंने भारत में बहुराष्ट्रीय कल्पना की खुली घोषणा की थी। इसका मुख्य प्रयोजन मार्च, 1940 में मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में पारित किए गए उस राष्ट्रघाती प्रस्ताव की वकालत करना था जिसमें पाकिस्तान का नाम न लेते हुए भी मुसलमानों के लिए एक पृथक होमलैण्ड की मांग की गयी थी। इसके बाद सितम्बर, 1942 में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति ने अधिकृत रूप से एक प्रस्ताव पारित किया था जिसका विवरण मार्शल विंडमिलर ने अपनी पुस्तक के पृष्ठ क्रमांक 493 पर दिया है। उक्त प्रस्ताव में घोषणा की गयी थी कि
"भारत की जनता का प्रत्येक भाग जिसका अपना साथ-साथ लगा हुआ होमलैण्ड, समान ऐतिहासिक परंपरा, समान भाषा, समान संस्कृति, समान मनोवैज्ञानिक चिन्तन और समान आर्थिक रहन-सहन है, उसे एक पृथक राष्ट्रीयता के रूप में मान्य किया जाएगा। उसे अधिकार होगा कि वह स्वतंत्र भारत में संघीय व्यवस्था के अन्तर्गत एक स्वायत्त राज्य के रूप में रहे या चाहे तो अपने अलग हो जाने के अधिकार का उपयोग करे। ... इस प्रकार आने वाले कल का स्वतंत्र भारत विभिन्न राष्ट्रीयताओं के स्वायत्त राज्यों का संघ होगा जिसमें पठान, पश्चिमी पंजाब (अधिकांशत: मुसलमान), सिख, सिंधी, हिन्दुस्थानी, राजस्थानी, गुजराती, बंगाली, असमी, बिहारी, उड़िया, तेलुगू (आन्ध्र), तमिल, कन्नडिग (कर्नाटक), महाराष्ट्रीय, मलयाली आदि स्वायत्त राज्य होंगे।" इस विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि कम्युनिस्टों की नजर में हिन्दुस्थानी तो केवल उत्तर प्रदेश के अन्दर रहने वाले लोग हैं, शेष देश के लोग हिन्दुस्थानी नहीं हैं। इसी तरह भारत के कम्युनिस्टों की नजर में पंजाब के अन्दर रहने वाले हिन्दुओं का कोई अस्तित्व ही नहीं था।
इसके बाद उसी प्रस्ताव में यह घोषणा भी की गई थी कि "भारत एक सुसंगठित राष्ट्र नहीं है, वह तो विभिन्न राष्ट्रीयताओं के समूहों से मिलकर बना एक भारतीय संघ है। अत: इन राष्ट्रीयताओं को उस संघ से अलग होने का अधिकार है।" इसी तरह कम्युनिस्टों ने साफ-साफ शब्दों में यहां तक कहना शुरू किया कि "लाहौर प्रस्ताव में मुस्लिम लीग का जो ध्येय बताया गया है, उसका हम समर्थन करते हैं, क्योंकि उसमें मुसलमानों को अपने प्रबल बहुमत वाले इलाकों में अपना स्वतन्त्र राज्य बनाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा गया है। यह मांग न्यायोचित है।" उन्होंने आगे यह भी स्पष्ट किया कि "जिस तरह हम यह नहीं चाहते कि अंग्रेजों का हमारे देश पर अधिकार रहे, उसी तरह हम यह भी नहीं चाहते कि भारत में मुस्लिम इलाकों पर हिन्दुओं का प्रभुत्व रहे। यद्यपि हिन्दुओं का इस देश में बहुमत है परन्तु इसका यह मतलब नहीं कि उन्हें मुस्लिम इलाकों पर भी राज्य करने का हक मिल गया है।"
फलस्वरूप मुस्लिम लीग का मनोबल बढ़ाने और उसका विश्वास संपादन करने के लिए भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पी.सी.जोशी ने जोर-शोर से यह कहना शुरू कर दिया कि मुस्लिम लीग को प्रतिक्रियावादी बताकर उसकी उपेक्षा गलत और अथार्थवादी है। वह तो "देश के दूसरे सर्वाधिक संख्या वाले सम्प्रदाय की सर्वाधिक शक्तिशाली राजनीतिक संस्था है।" उन्होंने कांग्रेस को मुस्लिम लीग की देश के बंटवारे की मांग को साहस के साथ मान लेने तक का सुझाव दे डाला।
यही नहीं, कम्युनिस्टों की केरल के मलाबार क्षेत्र में अलग से एक मोपलिस्तान के निर्माण की मांग के साथ कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पी.सी. जोशी ने हिन्दूबहुल पश्चिम बंगाल को भी सदा-सर्वदा के लिए मुस्लिम लीग के शासन के अन्तर्गत गुलाम बनाने के लिए उसकी संयुक्त बंगाल की मांग का समर्थन कर दिया। अत: सुप्रसिद्ध विचारक एवं अर्थशास्त्री डा. जी.डी. सेठी का यह कहना पूरी तरह सही है कि "भारत के कम्युनिस्टों ने इस देश के साथ विश्वासघात करके पाकिस्तान के सिद्धान्त को बौद्धिक आधार और औचित्य प्रदान किया था। मुस्लिम लीग में ऐसा एक भी बुद्धिवादी व्यक्ति या समूह नहीं था जो उसे एक गरिमा, वैधता का सम्मान दिला पाता। यह सब कम्युनिस्टों ने स्टालिन के उस राष्ट्रीयता सिद्धान्त के नाम पर किया जिसे स्वयं स्टालिन अपने देश में बहुत गहरे रूप में दफन कर चुका था फिर भी इतिहासकारों में इस बात पर आम सहमति है कि पाकिस्तान की मांग का कम्युनिस्टों द्वारा समर्थन किए जाने के कारण ही उसका डटकर विरोध कर पाना काफी कठिन हो गया था।"
स्वाधीन भारत में भी कामरेडों ने अपना राष्ट्र-विरोधी रवैया छोड़ा नहीं, निजाम हैदराबाद के कुख्यात कासिम रिजवी के हस्तक बनने से लेकर तेलंगाना विद्रोह, चीन को हमलावर न कह कर सी. राजेश्वर राव द्वारा मई 1988 में चीनी कब्जे में जकड़े हुए भारतीय भूभाग को भूल जाने, केरल में मल्लापुरम जैसे मुस्लिमबहुल जिलों का निर्माण, आपातकाल का समर्थन और माक्र्सवादियों के दोहरे मुखौटै, देसाई सरकार को गिराने में उनकी संलिप्तता, न्यायमूर्ति अय्यर की फजीहत, नक्सलवादियों के द्वारा हिंसा का नंगा नाच, रामजन्मभूमि स्थल पर मन्दिर निर्माण योजना को तारपीडो करने की व्यूह रचना, वी.पी. को दुमछल्ला बनाना, कारगिल युद्ध के दौरान संदिग्ध भूमिका और अब संप्रग की कांग्रेस-नीत मनमोहन सिंह सरकार की सार्वजनिक अवमानना करते हुए कांग्रेस को उदरस्थ कर जाने की कामरेडों की कुनीति इतनी जगजाहिर है कि उन पर स्थानाभाव के कारण टिप्पणी नहीं की जा रही है। संक्षेप में यही कहना उचित होगा कि कम्युनिस्ट और राष्ट्र-निष्ठा दो ऐसे परस्पर-विरोधी ध्रुव हैं जो कभी एक नहीं हो सकते।
चित्र - आनन्द राजाध्यक्षा सर की वाल से
लेख - पांचजन्य , रामशंकर अग्निहोत्री जी

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