Monday, July 20, 2020

मालाबार और आर्यसमाज का स्वर्णिम इतिहास


ओ३म्
-महात्मा हंसराज एवं महात्मा आनन्द स्वामी का धर्म रक्षा का उत्कृष्ट उदाहरण-
‘मालाबार में मोपला हिंसा में पीड़ित हिन्दू बन्धुओं की रक्षा एवं पुनर्वास का आर्यसमाज का स्वर्णिम इतिहास’
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देश के इतिहास में सन् 1921 में केरल के मालाबार में एक गांव में मोपलाओं ने हिन्दू जनता पर अमानवीय क्रूर हिंसा की थी। इस पर अंग्रेजों को तो कोई आपत्ति नहीं थी न उन्होंने इसके अपराधियों पर कोई कार्यवाही की। अनुमान है कि इसे अंजाम देने में उनका गुप्त योगदान था। देश के प्रमुख राजनैतिक नेताओं ने भी इस अमानवीय घटना पर अपने मुंह बन्द रखे थे। इस घटना पर देशभक्त जीवित शहीद वीर सावरकर जी ने ‘मोपला’ नाम का प्रसिद्ध उपन्यास लिखा था। हिन्दू विरोधी इस कुकृत्य को जानने के लिए हिन्दू जनता द्वारा इस उपन्यास को अवश्य पढ़ा जाना चाहिये। मोपलाओं की हिन्दू विरोधी हिंसक घटनाओं का उल्लेख महात्मा आनन्द स्वामी जी की श्री सुनील शर्मा जी द्वारा लिखी जीवनी में भी आया है। यह भी बता दें कि महात्मा हंसराज जी और महात्मा आनन्द स्वामी जी का वैदिक धर्म एवं आर्यसमाज के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। महात्मा आनन्द स्वामी जी लाहौर से प्रकाशित ‘आर्यगजट’ उर्दू साप्ताहिक के सम्पादक रहे। आपने महात्मा हंसराज जी की प्रेरणा से लाहौर से उर्दू ‘मिलाप’ दैनिक पत्र का प्रकाशन आरम्भ किया था। यह पत्र अत्यन्त लोकप्रिय रहा। वर्तमान में भी यह दिल्ली से प्रकाशित होता है। महात्मा आनन्द स्वामी जी की कहानियां आर्यगजट में प्रकाशित हुआ करती थी। उनके तीन कहानी संग्रह भी प्रकाशित हुए। आपके उपदेशों के अनेक संग्रह कई शीर्षकों से प्रकाशित हैं। आज भी लोग इन पुस्तकों को बहुत श्रद्धा भक्ति से पढ़ते हैं। महात्मा आनन्द स्वामी जी जीवनी से हम मालाबार में मोपला हिंसा की महत्वपूर्ण चर्चा को श्री सुनील शर्मा के ही शब्दों में ही प्रस्तुत कर रहे हैं।

अंग्रेजी शह पर नर-संहार

अंग्रेजो को लगा कि यदि भारतीयों में यह एकता इसी प्रकार मजबूत होती गई तो उनकी जड़े उखड़ते देर नहीं लगेगी। उन्होंने ‘फूट डालो और राज करो’ का हथकण्डा अपनाया। मालाबार के मोपला मुसलमानों की पीठ थपथपाकर उसने ऐसा नर-संहार कराया कि वहां हिन्दुओं का अस्तित्व ही उखड़ने लगा। पुरुषों को जान से मार डाला गया, स्त्रियों का सतीत्व लूट लिया गया, तीर्थ-स्थलों और पूजा-गृहों को मटियामेट कर दिया गया, दुकानें लूट ली गईं, मकान जला दिये गए, निरीह बच्चों और बूढ़ों तक को न छोड़ा गया। कटे हुए मुण्डों के ढेर लग गए। लावारिस पड़ी लाशों को कुत्ते नोचने लगे। आश्चर्य इस बात का रहा कि इतने बड़े हत्याकाण्ड में एक भी अंग्रेज न हत हुआ, न क्षत हुआ और एक भी मोपला हत्यारा गिरफ्तार नहीं किया गया। इसकी बजाय सचाई पर पर्दा डालने का प्रयत्न किया गया। पूरे काण्ड को ‘मोपला-विद्रोह’ का नाम देकर यह प्रमाणित करने का यत्न किया गया कि हिन्दुओं के संत्रास से तंग आकर ही मोपलाओं ने अपने दिल की भड़ास निकाली। अंग्रेज सरकार ने प्रेस की स्वतन्त्रता का भी गला घोंट दिया, ताकि मालाबार में हिन्दुओं के सफाये का समाचार तक न छप सके। 

किन्तु, जिनका सब-कुछ लुट-पिट गया हो, उनकी चीखों को कौन रोकता? जिन्होंने यह विनाश-लीला स्वयं अपनी आंखों से देखी थी अथवा जिन लोगों ने वहां से भागकर अपनी जान बचाई थी, वे तो फूट-फूटकर धाड़ें मार रहे थे। देर से ही सही, समाचार को पंख लग गए। जिसने भी सुना, कलेजा थाम के रह गया। महात्मा हंसराज जी ने खुशहालचन्द जी को बुलाकर कहा--‘‘दूसरे लोग भले ही इस नर-मेध से आंखें मूंद लें, परन्तु आर्य होने के नाते हमें अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होना है। आप कुछ लोगों को अपने साथ लेकर मालाबार जाइए और उन लोगों के लिए राहत-शिविर लगाइए जिनका कुछ नहीं बचा और कोई नहीं रहा। जिन्हें जबर्दस्ती इस्लाम ग्रहण कराया गया है, उनके दोबारा अपने धर्म में लौटने की व्यवस्था कीजिए। आप स्थिति का जायजा लेकर लिखते रहें कि कितने अन्न और धन की आवश्यकता पड़ेगी। इसका जुगाड़ मैं यहां से करके भेजता रहूंगा।” 

‘‘मैं तो कब का वहां पहुंच चुका होता, बस आपके ही इस आदेश का इन्तजार था।” खुशहालचन्द जी (महात्मा आनन्द स्वामी, लाहौर) ने कहा--‘‘आप कहें तो मैं आज ही चल पडूं।” 

‘‘थोड़ा रुकिए। पहले समाचार-पत्रों में इस नर-संहार को छपवाना होगा, ताकि देशवासियों को पीड़ितों की सहायता के लिए तत्पर किया जाय। ‘आर्य गजट’ में आप कितना ही प्रचारित कर दें, उसका प्रभाव एक सप्ताह बाद ही होगा, क्योंकि साप्ताहिक पत्र रोज-रोज नहीं छप सकता। पंडित ऋषिराम जी बी0ए0 और पंडित मस्तानचन्द जी आपके साथ जाएंगे। आप तीनों तैयार रहें, किसी भी क्षण आपको यहां से चल देना होगा।” 

‘‘जी अच्छा।” कहकर खुशहालचन्द जी मुस्करा दिए। मुस्कराने का कारण यह था कि उनका नन्हा-सा बिस्तर तो हमेशा ही सुतली से बंधा रहता था। दफ्तर में यह सन्देश पाते ही कि अमुक आर्य-सत्संग या सभा अथवा जलसे-जुलूस में उन्हें पहुंचना है, वह बंधा-बंधाया बिस्तर बगल में दबाकर चल देते थे। घर में कौन बीमार है और उसे किस तरह की सेवा-टहल दरकार है, यह सब पत्नी को समझाकर वह पलक झपकते चल पड़ते थे। 

मालाबार के पीड़ितों की व्यथा-कथा सुनकर हर कोई आठ-आठ आंसू बहाने लगता था, किन्तु आंसू बहाने या हाथ मलकर अफसोस कर देने से समस्या का समाधान नहीं हो सकता था। दुःखियों को दिलासा तभी मिलता है जब भूखे को रोटी, नंगे को कपड़ा, रात बिताने को आसरा और पीठ थपथपाने को कोई स्नेह भरा हाथ मिले। खुशहालचन्द और उसके साथियों ने अपने घर-बार की सुध भुलाकर बेसहारों को ऐसा सहारा दिया कि इतिहास में चाहे उनका नाम आए या न आए, प्रभु के दरबार में उनके नाम स्वर्ण-अक्षरों में अंकित हो गए। सैकड़ों हिन्दू, जो प्राण बचाने को पूरे परिवार के साथ इस्लाम में दीक्षित हो गए थे, पुनः निज-धर्म में लौट आए। एक-एक के दिल पर बीसियों घाव थे, जिन्हें अपनेपन की दिव्य मरहम से भर दिया गया। खोया हुआ विश्वास लौटाना कोई सरल काम नहीं था, किन्तु लगन और तन्मयता से संत्रस्त हिन्दुओं को पहली बार ज्ञात हुआ कि आर्यसमाज का प्रत्येक सदस्य उसकी पीठ पर था और मालाबार के हिन्दू अकेले नहीं थे। 

यहां इस बात की चर्चा आवश्यक जान पड़ती है कि मालाबार को जाते समय खुशहालचन्द जी की पारिवारिक स्थिति क्या थी। सबसे पहली बात तो यह कि निरन्तर दौड़-धूप के कारण स्वयं खुशहालचन्द जी भी स्वस्थ नहीं थे, दूसरी बात यह थी कि हाल ही में उनके यहां पांचवें पुत्र युद्धवीर ने जन्म लिया था, तीसरी बात यह थी कि यश बेटा उन दिनों निमोनिया की लपेट में था। पत्नी ने बहुतेरे आंसू बहाए, बार-बार हाथ-पैर पकड़े, मगर जो मनुष्यता की भलाई के लिए समर्पित हो चुका हो उसे कौन रोक पाता? 

मालाबार वह पहली बार जा रहे थे। वहां की बोली उनके लिए अजनबी थी, वहां हिन्दू होना ही जान से हाथ धोने के समान था, फिर भी खुशहालचन्द जी वहां गए और ऐसा पुण्य कमाया कि अंग्रेज सरकार भी अचम्भे में पड़ गई। अंग्रेजों को पहली बार आभास हुआ कि उनका तो एक ही ईसा था, मगर भारत में खुशहालचन्द (तथा महात्मा हंसराज जी) जैसे सैकड़ों ईसा जान हथेली पर लिये मनुष्यता की सेवा में जी-जीन से तत्पर थे। मोपला मुसलमानों ने खुशहालचन्द और उनके साथियों को सूली पर नहीं चढ़ाया तो इसका एक-मात्र कारण उनका आर्य होना था, क्योंकि आर्यजन के लिए सारा संसार अपना परिवार है। खुशहालचन्द जी पीड़ितों को राहत पहुंचाने और उनके पुनर्वास के लिए मालाबार गए थे। उनके लिए ‘न कोई वैरी था, न बेगाना’, सभी धर्मों के लोग उनके लिए आदरणीय थ। उन्हें तो एकमात्र यह सन्देश देना था कि मिल-जुलकर रहो। उन्हें उस विचारधारा को तोड़ना था जो मनुष्य को मजहब के नाम पर पशु बना देती है। वह हिन्दू ही क्या जो मनुष्य नहीं और वह मुसलमान ही क्या जो इन्सान नहीं? मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना। यह सन्देश भूले-भटके लोगों को भी सही राह पर ले आता है। प्रभु के प्यारों के आगे हिंसा, मजहबी पागलपन या भाषा और प्रदेश की दीवारें अपने-आप ढहने लगती हैं। 

अंग्रेजों ने मुंह की खाई 

खुशहालचन्द और उनके साथी मालाबार में लगभग छह महीने रहे और उनका बाल भी बांका न हआ। अंग्रेजों की सारी कुचालें धरी-की-धरी रह गईं। डरे-सहमें लोगों में ऐसा आत्म-विश्वास जाग उठा कि जो घरों में दुबके बैठे थे, वही सीना ताने गली-बाजारों में दनदनाने लगे। अंग्रेजों की पोल खुल गई। मुसलमानों ने लज्जा से आंखें झुका लीं। उन्हें स्वीकार करना पड़ा कि हिन्दुओं का नर-संहार करके वे भी चैन से नहीं बैठ सकते, क्योंकि पूरा भारत हिन्दुओं से भरा पड़ा है ओर यही इस देश के मूल निवासी हैं। 

आर्यसमाज की दक्षिण भारत में पैठ 

दक्षिण भारत के लोगों को पहली बार पता चला कि ‘आर्यसमाज’ भी एक संस्था है जो निस्स्वार्थ और निर्लिप्त भाव से दूसरों की सेवा करना ही अपना परम धर्म समझती है। मालाबार के हिन्दुओं के लिए तो आर्यसमाज के कर्मचारी देवदूतों के समान थे--न कोई जान न पहचान, मगर सैकड़ों मील दूर से जो बाहें पसारे चले आए थे और एक-एक को गले लगाकर जिन्होंने महीनों तक अन्न भी दिया, धन भी दिया, वस्त्र भी दिये, जीने के सभी सहारे जुटाए और मुस्कराते हुए अपने प्रदेश को लौट गए। ऐसे आर्यसमाज पर वे कैसे बलिहारी न जाते। दक्षिण भारत में जगह-जगह आर्यसमाज स्थापित हो गए और दलित वर्ग को तो जैसे नया जीवन मिल गया। जिन हिन्दुओं से सवर्ण हिन्दू घृणा से नाक-भौंह सिकोड़ लेते थे, आर्यसमाज ने उन सबको यह सन्देह दिया कि सभी मनुष्य उसी परम पिता की सन्तान हैं और पिता की दृष्टि में सभी पुत्र लाडले और प्यार-सम्मान के अधिकारी हैं। यह एक क्रान्तिकारी परिवर्तन था, जिसने निम्न कही जानेवाली जातियों को एक ही झटके में उठाकर सबके बराबर बिठा दिया। दक्षिण भारत में आर्यसमाजों की स्थापना एक महान् उपलब्धि थी। महात्मा हंसराज द्वारा भेजे गए देवदूतों ने दक्षिण भारत में सेवा-कार्य में महान् यश कमाया। (यहां जीवनी का उद्धरण समाप्त होता है।)

महात्मा आनन्द स्वामी जी की जीवनी अत्यन्त प्रेरणादायक एवं अनुकरणीय है। प्रत्येक आर्यबन्धु वा हिन्दू को इसको पढ़ना चाहिये। महात्मा हंसराज ने यदि मालाबार के पीड़ितों की रक्षा, सेवा व पुनर्वास के लिये आर्यसमाज का दल व सहायता वहां न भेजी होती तो शायद देश में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति होती रहती। देश के लोगों में ऐसा साहस व भावना नहीं थी कि वह इसका विरोध करते। आर्यसमाज और महात्मा हंसराज जी मालाबार में पीड़ित हिन्दुओं के लिये किसी बड़े देवदूत व फरिश्ते से कम नहीं थे। मालाबार के पीड़ित क्षेत्र में आर्यसमाज द्वारा पंडित ऋषिराम जी के नाम से एक गुरुकुल स्थापित किया गया था जो आज भी वहां चलता है। लेख को विराम देने से पूर्व हम इतना कहना चाहेंगे कि यदि ऋषि दयानन्द न आते और वह वेदोद्धार तथा वेद प्रचार न करते तो सनातन वैदिक धर्म व इसके अनुयायियों की रक्षा होनी सम्भव नहीं थी। आर्यसमाज धर्म रक्षक एवं हिन्दू रक्षक संस्था सिद्ध हुई है। हमें इस कार्य को भविष्य में भी जारी रखना है। धर्म की रक्षा तथा अधर्म को दूर करना प्रत्येक वैदिक धर्मी का कर्तव्य है। ओ३म् शम्। 

-मनमोहन कुमार आर्य

Friday, July 17, 2020

Status of Women in Vedas and Bible




Status of Women in Vedas and Bible

Dr Vivek Arya

Outgoing Supreme Court Judge Justice Bhanumati in her farewell speech said that though i am a Hindu yet i believe in the gospel of Jesus. This is a classic example of difference between education and knowledge. She might be educated but she don't posses knowledge. She is influenced by the teachings of Bible as she was never able to compare with the status of women in Vedas. In fact if we compare Vedas and Bible we can easily come to this conclusion that Vedas are the only texts which can guide anyone irrespective of caste, creed or religion. Vedas do not denigrate women. Vedas considers Women superior to men.

(i) Biblical God curses all women

Unto the woman he (God) said, I will greatly multiply thy sorrow and thy conception; in sorrow thou shalt bring forth children; and thy desire shall be to thy husband, and he shall rule over thee.- Genesis, 3/16

(ii) Woman was created for man, not man for woman

For the man is not of the woman; but the woman of the man.- I Corinthians, 11/8

Neither was the man created for the woman; but the woman for the man- I Corinthians, 11/9

 (iii) Christ is the head of man, but not of woman

But I would have you know, that the head of every man is Christ; and the head of the woman is the man; and the head of Christ is God.- I Corinthians, 11/3

(iv) Women must remain under domination of men

 Let the woman learn in silence with all subjection- I Timothy, 2/11

But I suffer not a woman to teach, nor to usurp authority over the man, but to he in silence- I Timothy, 2/12

For Adam was First formed, then Eve- I Timothy, 2/13

And Adam was not deceived, but the woman being deceived was in the transgression- I Timothy, 2/14

Therefore as the church is subject unto Christ, so let the wives be to their own husbands in every thing.- Ephesians, 5/24

(v) Women not permitted to speak in Churches

Let your women keep silence in the churches; for it is not permitted unto them to speak; but they are commanded to be under obedience, as also saith the law.- I Corinthians 14/34

And if they will learn any thing, let them ask their husbands at home: for it is a shame for women to speak in the church.- I Corinthians. 14/35

(vi) Test for unfaithful wife by making her drink bitter water

But if thou hast gone aside to another instead of thy husband, and if thou be defiled, and some man have lain with thee beside thine husband.- Numbers 5/20

 Then the priest shall charge the woman with an oath of cursing, and the priest shall say unto the woman, The Lord make thee a curse and an oath among thy people, when the Lord doth make thy thigh to rot, and thy belly to swell- Numbers, 5/21

And this water that causeth the curse shall go into thy bowels, to make thy belly to swell, and thy thigh to rot; And the woman shall say, Amen, amen- Numbers, 5/22

And when he bath made her to drink the water, then it shall come to pass, that, if she be defiled, and have done trespass against her husband, that the water that causeth the curse shall enter into her, and become bitter, and her belly shall swell, and her thigh shall rot; and the woman shall be a curse among her people.- Numbers, 5/27



Status of Women in Vedas

Vedas regards womanhood to such status that many women became Vedic Seers or Rishikas in the Vedic age. The various suktas of Rigveda like 10 /134, 10/40, 8/91, 10/95,10/107, 10/109, 10/154, 10/159,5/28 were elaborated by female Vedic Seers like Ghosha,Godha,Upanishada, Apala, Vishavavara, Nishat,Romsha etc.

1.Vedas clearly mentions that Women can Read/Listen/Chant/Teach any Vedic Mantra.

Rigveda 10/191/3

God says that O! man and women i am granting you these Mantras for you both So, that you can think and progress together.

Atharvaveda 14/1/64

O Bride! Let the Vedic knowledge (Vedas) be in front of you, behind you and all along side you. Let you attain knowledge of Vedas and live life according to them.

Yajurveda 14/2

O! Women for success in life you must read and follow Vedas.

Rigveda 1/1/5

Women who read Vedas and related Texts in her life practicing celibacy are adorned in society.

Yajurveda 14/14

If both Boys and Girls are taught Vedas from beginning of life they attains knowledge and wisdom promptly.

2.Vedas grants full opportunity to women to become scholar and attain Knowledge.

Atharvaveda 11.5.18

Girls should train themselves to become complete scholars and youthful through Brahmcharya and then enter married life.

Rigveda 6.44.18

The government should ensure that all boys and girls get good education, follow Brahmacharya and strengthen the society.

3. Vedas considers women as source of Knowledge and guidance for whole family.

Atharvaveda 14.1.20

Oh wife! Give us discourse of knowledge

Atharvaveda 7.46.3
Teach the husband ways of earning wealth

Atharvaveda 14.1.20
Oh wife! Give us discourse of knowledge

4. Vedas speaks of Women as supporter, protector and pillar of whole family.

Atharvaveda 2:36:5
Oh bride! Step into the boat of prosperity and take your husband beyond the ocean of worldly troubles into realms of success

Atharvaveda 1.14.3
Oh groom! This bride will protect your entire family

Atharvaveda 2.36.3
May this bride become the queen of the house of her husband and enlighten all.

Atharvaveda 11.1.17
These women are pure, sacred and yajna, they provide us with subjects, animals and food

5. Vedas speaks of status of women in family as queen.

Atharvaveda 12.1.25
Oh motherland! Give us that aura which is present in girls

Atharvaveda 12.2.31
Ensure that these women never weep out of sorrow. Keep them free from all diseases and give them ornaments and jewels to wear.

Atharvaveda 14.1.20
Hey wife! Become the queen and manager of everyone in the family of your husband.

Atharvaveda 14.2.74
This bride is illuminating. She has conquered everyone’s hearts!

6. Vedas grants equal rights to women in Property.

Rigveda 3.31.1
The right is equal in the fathers property for both son and daughter

7. Vedas considers women as well-wisher for her family.

Rigveda 10.159
A women speaks after waking up in morning, “My destiny is as glorious as the rising sun. I am the flag of my home and society. I am also their head. I can give impressive discourses. My sons conquer enemies. My daughter illuminates the whole world. I myself am winner of enemies. My husband has infinite glory. I have made those sacrifices which make a king successful. I have also been successful. I have destroyed my enemies.”

8. Vedas speaks of right to women to become Ruler as Man.

Yajurveda 20.9
There are equal rights for men and women to get appointed as ruler.

Yajurveda 10.26
In this mantra it is enforced that the wife of ruler should give education of politics to the others. Likewise the king do justice for the people, the queen should also justify her role.

9. Vedas grants a women status of warrior

Yajurveda 16.44
There should me a women army. Let the women be encouraged to participate in war.

10. Vedas speaks of right to education for women.

Yajurveda 10.7

Government should put special efforts to make all women into scholars.

Rigveda 3.1.23

Smart people should ensure that all boys and girls become scholars.

Yajurveda 11.36

Parents should ensure good education of children – boys and girls – and then send them to scholars for a long period so that their enlighten the families and nation like sun.

11.Vedas speaks for respect to Women

Rigveda 10.17.7

Those who desire the society to become noble and powerful, they respect woman and please her. Those who desire virtues respect woman and please her. Those who respect woman obtain bliss, knowledge and happiness.

These are few verses from the four Vedas which clearly depicts Women enjoying superior, respectful, dignified, venerate and esteemed position in society.

12. Vedas considers dowry not as money but as Knowledge and merit.

Atharva 14.1.6

Parents should gift their daughter intellect and power of knowledge when she leaves for husband’s home. They should give her a dowry of knowledge.

Now the readers can easily come to this conclusion that the Vedas honours Women while Bible denigrates Women.

Thursday, July 16, 2020

Shri Rama, Shri Krishna and Hindu God-Goddess are mentioned in the works of Guru Govind Singh ji



Shri Rama, Shri Krishna and Hindu God-Goddess are mentioned in the works of Guru Govind Singh ji

Observe this painting carefully!

It is an illustration on the cover of an old manuscript of Dasam Granth.
This painting depicts a scene from the episode of appearance of Goddess just before the formation of Khalsa by Guru Gobind singh in 1699.

The painting depicts Goddess Chandi on her lion making an appearance. To her right is the great Sikh Guru Gobind Singh folding his hands with utmost reverence. To his left is the Brahman priest who conducted the Yajna.

It is mentioned in many premodern Sikh scriptures like Gursobha(c.1711) and Bansavalinama(c.1769) that Guru Gobind Singh conducted a Yajna at Naina Devi to please Goddess Chandi before the formation of Khalsa. In his composition Dasam Granth, he included many compositions dedicated to Goddess Chandi such as Chandi Charitar Ukti Bilas, Chandi Di Var and Ugardanti. Infact, he writes in Ugardanti that when the Goddess Chandi was pleased with him, he formed Khalsa. Finally, Sikh Ardas even today retain the phrase "Sri bhagauti ji sahai' ("may the Goddess be pleased/beneficial"). Of course, Bhagavati is now interpreted as "sword" instead of Goddess.

There is an inscription in Naina Devi which records his visit to the temple. From the inscription, we know that the name of this priest is Bhadia

Of course, the painting as well as the entire story is now hidden. And whenever revealed is always revealed in a distorted form with an obvious agenda.

List of Works by Guru Govind Singh in which Lord Rama, Lord Krishna and Hindu God-Goddess are mentioned

1. Akal Ustat (271 and 1/2 verses)
2. Bachitra Natak (471 verses)
3. Chandi Charitra First version (233 verses) and second version (262 verses)
4. Chandi di Var (55 verses)
5. Cahubis Avtar (1201 verses)
6. Fateh Nama (23 and 1/2 verses)
7. Gian Prabodh (336 verses)
8. Hikayat (756 verses)
9. Jap (199 verses)
10. Mir Mahndi (10 verses)
11. Pakhian Charitra (7569 verses)
12. Rama Avatar including Krishna Avtar (4370 verses)
13. Shabad Patsahi Das (1323 verses)
14. Shastar Nam Mala (1323 verses)
15. Swayyas (33 verses)
16. Zafar Nama (111 verses)
17. Misc. (59 verses)

Reproduced from Gurahsran Singh , The epistle of Victory , p.13.

Wednesday, July 15, 2020

पेरियार की कहानी दलित की जुबानी!


पेरियार की कहानी दलित की जुबानी !

लेखक- अरुण लवानिया

चेन्नई की झुग्गी-झोपड़ी में एक दलित परिवार में जन्मे और वहीं पचीस वर्ष बिताने वाले ऐम वेंकटेशन एक आस्थावान हिंदू हैं। उन्होंने चेन्नई के विवेकानन्द महाविद्यालय से दर्शन शास्त्र में स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त की है। जब वेंकटेशन ने महाविद्यालय में प्रवेश लिया तो उनके कथनानुसार उन्हें प्रतिदिन पेरियारवादियों के एक ही कथन का लगातार सामना करना पड़ा कि  पेरियार एक महान दलित उद्धारक थे। चूंकि उन्हें पेरियार दर्शन का कोई ज्ञान नहीं था, उन्होंने  पेरियार से संबंधित समस्त उपलब्ध साहित्य के अध्ययन और शोध करने का संकल्प लिया। इसके लिये उन्होंने पेरियार द्वारा स्थापित, संचालित और  संपादित सभी पत्रिकाओं , विदुथालाई, कुडियारासु , द्रविड़नाडु, द्रविड़न, उनके समकालीन सभी नेताओं  अन्नादुराई, ऐम पी सिवागन, केएपी विश्वनाथन, जीवानंदम आदि के भाषण और लेख तथा 'पेरियार सुयामरियादि प्रचारनिलयम' द्वारा प्रकाशित उनके समस्त साहित्य पर गहन शोध किया। एक आस्थावान हिंदू होने के कारण पेरियार द्वारा हिंदू देवी देवताओं पर लगाये गये बेबुनियाद आरोपों से आहत होकर पेरियार का सत्य सामने लाने के लिये वेंकटेशन ने एक पुस्तक तमिल में लिखी, 'ई.वी. रामास्वामी नायकरिन मरुपक्कम'(पेरियार का दूसरा चेहरा)।

वेंकटेशन के शब्दों में :

" मैं अपने ईष्ट देवी-देवताओं और हिंदू धर्म पर पेरियार के असभ्य और जंगली विचारों को सहन न कर सका। मुझे जिसने जन्म दिया उस प्रिय और पवित्र मां पर यह हमला था। पेरियार के संपूर्ण साहित्य पर शोध के बाद मुझे तीव्र सांस्कृतिक चोट पहुंची और उनकी हिंदू देवी-देवताओं और मेरे धर्म के प्रति घनघोर घृणा देखकर मैं अत्यधिक दुखी हो गया। पेरियार ने दलितों के लिये कुछ भी नहीं किया बल्कि उन्हें दोयम दर्जे का ही बनाये रखा। अगर पेरियार सौ प्रतिशत ब्राह्मण विरोधी थे तो अस्सी प्रतिशत दलित विरोधी भी थे।"

वेंकटेशन की पुस्तक पेरियार का संपूर्ण शव विच्छेदन करती हुई पेरियार वादियों के गले की हड्डी बन गई है। वेंकटेशन का दावा है कि जो भी सत्य का अन्वेषक है वह इस पुस्तक को पढ़ने के बाद पेरियार को त्याग देगा।

इस पुस्तक का तमिल से अंग्रेज़ी और हिंदी में अनुवाद आज तक ना हो पाने के कारण पेरियार का असली चेहरा देश के सामने प्रकट नहीं हो पाया है। परिणाम स्वरूप पेरियार को दलित उध्दारक बताने और अंबेडकर के साथ जोड़ने का कुचक्र आज भी जारी है। 

इन्हीं वेंकटेशन के नीचे दिये यूट्यूब वीडियो के लिंक में 24 मिनट के संबोधन को इस लेख द्वारा हिंदी  में प्रस्तुत किया जा रहा है। वेंकटेशन ने पेरियार दलित, राष्ट्र और धर्म विरोधी एजेंडे का बेरहमी से तथ्यों का संदर्भ देकर जो पोस्टमार्टम किया है वो आंखें खोलने वाला है। वेंकटेशन कहते हैं:

" अंग्रेजों ने हमपर शासन प्रारंभ करने के साथ ही यह समझने लिया था कि  शायद वो भारत पर स्थाई रूप से शासन करने में असमर्थ होंगे। क्योंकि उनके विरुद्ध निरंतर विद्रोह होने लगा था और इन घटनाओं को लेकर वो बहुत चिंतित थे। उन्होंने मंथन किया कि यदि उन्हें भारत पर अपना शासन चलाये रखना है तो किसी भी तरह विरोध की आग को बुझाना ही होगा। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये उन्होंने विदेश से अनेक विद्वानों को भारत बुलाया। इन विद्वानों को यह पता लगाना था कि किन-किन उपायों और कार्यवाहियों से वो अनंत काल तक शासन कर सकते हैं।यही बात समझने के लिये सारे आयातित गोरे विद्वान देश के विभिन्न राज्यों में गये। एक ऐसे ही गोरे विद्वान के अनुसार :

"यदि हम भारत पर स्थाई रूप से शासन करना चाहते हैं तो हमें इस देश को विभाजित और तोड़ना पड़ेगा। भारत एक स्वाभिमानी राष्ट्र है और हमें सर्वप्रथम भारतियों के स्वाभिमान को नष्ट करना होगा। इस राष्ट्र की नींव हिंदू आध्यात्मिकता है जिसे सर्वप्रथम जड़ से उखाड़ फेंकना है। यदि हम ऐसा करने में असफल रहे तो हम भारत पर लंबे समय तक शासन नहीं कर पायेंगे। इसी हिंदू संस्कृति को हमें अपमानित, हीन और पूरी तरह ध्वस्त करना होगा। हिंदू देवी-देवताओं को लोगों की निगाहों से गिराना होगा। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उनकी भाषा को नीचा साबित करना होगा। हमें यह भी पक्का करना होगा कि भारतीय हमारी इन बातों पर विश्वास भी करने लगे जायें कि उनकी संस्कृति नीच है। इसमें कुछ भी अच्छा नहीं है। इसप्रकार भारतियों को मानसिक रूप से अपना गुलाम बना लेना ही उनपर शासन करने का एकमात्र उपाय है। उपर्युक्त सारी संस्तुतियां
आयातित गोरे विद्वानों के शोध से निकल कर सामने आयीं और अंग्रेजों ने तत्परता से इसपर कार्य करना प्रारंभ कर दिया। 

सर्वप्रथम काल्डवेल ने 'ए ग्रामर औफ द्रविड़ियन लैंग्वेजेस' लिखी। साथ ही यह भी लिखा कि सारी भारतीय भाषायें तमिल से ही उपजी हैं  और संस्कृत का तमिल से कोई संबंध नहीं है। इसके तुरंत पश्चात् ऐसे ही लेखों कि बाढ़ आने लगी। इसी समय अंग्रेजों ने निर्णय लिया कि भारत को तोड़ने के लिये उन्हें अपने भारतीय समर्थकों के साथ ही उन कतिपय नेताओं की भी आवश्यकता है जो उनकी साजिश को अंजाम दे सकें। इसलिये अंग्रेजों के इशारे पर तत्कालीन मद्रास प्रांत में टी एम नायर, सर पित्ती तेइगरिया आदि ने जस्टिस पार्टी का गठन किया। प्रारंभ में यह गैर राजनीतिक थी परंतु शनै: शनै: राजनीति में शामिल होने लगी। जस्टिस पार्टी ने ही सर्वप्रथम ब्राह्मण और गैर ब्राह्मण की अवधारणा तमिलनाडु में पैदा की। ऐसी विभाजनकारी अवधारणा तमिलनाडु में इसके पहले अनुपस्थित थी। हमारे अपने ही लोगों के माध्यम से अंग्रेजों ने हमें कदम दर कदम तोड़ना शुरू कर दिया।

 1916 में जस्टिस पार्टी की स्थापना हुयी और 1919 में पेरियार राजनीति में आये। इससे पहले इन्हें राजनीति में कोई नहीं जानता था। राजनीति के प्रारंभिक दिनों में वो राष्ट्रभक्त और आध्यात्मिक थे। उन्होंने आर्य और द्रविड़ के विभाजन की अवधारणा को सिरे से नकारा भी। 1919 में एक पत्रिका 'नेशनलिस्ट' में लेख लिखकर आर्य-द्रविड़ विभाजन के सिद्धांत सिरे से नकारते हुये पेरियार ने इसे धोखा बताया। यहां तक कि जब उन्होंने अपनी प्रथम पत्रिका निकाली तो ये लिखा कि वो यह कार्य ईश्वर के दिव्य आशीर्वाद से कर रहे हैं। उन्होंने एक हिंदू संत से अपनी पत्रिका के कार्यालय का उद्घाटन भी करवाया। पेरियार ने जस्टिस पार्टी का विरोध सैद्धांतिक रूप से भी किया और अपने कार्यों से भी। पेरियार और थिरू वी के ने एक संगठन बनाकर जस्टिस पार्टी का तमिलनाडु में विरोध भी किया। फिर अचानक पेरियार ने जस्टिस पार्टी से संबंध बनाने शुरू किये जिसके सभी सदस्य अंग्रेजों के पिट्ठू थे। सच्चाई यह थी कि जस्टिस पार्टी बनाने में अंग्रेजों का ही हाथ था। जस्टिस पार्टी के कारण पेरियार की प्रसिद्धि और प्रचार बढ़ने लगा।

पेरियार तमिलनाडु के सर्वाधिक धनी व्यक्ति थे। उन दिनों जितने भी राष्ट्रीय नेता तमिलनाडु आते थे वो पेरियार के व्यक्तिगत् अतिथि हुआ करते थे। उनका रहना, खाना-पीना सब पेरियार के घर पर ही होता था। पेरियार का परिवार इरोड का एक सम्मानित और संपन्न परिवार था। उनकी नेतृत्व क्षमता का आकलन कर अंग्रेजों ने उन्हें जस्टिस पार्टी में शामिल करने की योजना पर कार्य करना शुरू कर दिया। अंग्रेजों के इशारे पर जस्टिस पार्टी के कर्णधारों ने पेरियार से मिलना जुलना और उनसे संबंध बनाना चालू कर दिया। पेरियार ने भी उनका गर्मजोशी से स्वागत किया और थोड़े ही समय में दोनों के मध्य नज़दीकी संबंध भी बन गये।

तभी कतिपय आर्थिक अनियमितताओं को लेकर पेरियार और कांग्रेस में गहरी दरार पड़ गयी। अधिकतर लोगों को इस बात की जानकारी आज भी नहीं है। दरअसल आंध्रप्रदेश के संस्थानम ने चेरन मां देवी गुरुकुलम को पांच हजार का दान दिया था। पेरियार पर आरोप था कि उसने कांग्रेस के पैसे का दुरपयोग किया। पेरियार ने अपने बचाव में कहा कि यह पैसा उसकी अनुमति लिये बिना दिया गया। इसी आरोप के साथ पेरियार का कांग्रेस के साथ मतभेद गहराता चला गया और उसने 'सेल्फ रिस्पेक्ट मूवमेंट' की शुरुआत कर दी। इस मूवमेंट के पीछे अंग्रेजों की गहरी साज़िश थी और उनके और जस्टिस पार्टी के अतिरिक्त और किसी ने भी इसका समर्थन तमिलनाडु में नहीं किया। शनै: शनै: पेरियार अंग्रेजों के बौद्धिक प्यादा हो गये। अंग्रेजों के दृष्टिकोण का उन्होंने समर्थन करना शुरु कर दिया।

यदि हम 1927 के पश्चात् पेरियार के दिये हुये भाषणों के देखें तो सब राष्ट्र और हिंदू विरोधी थे। यदि इन भाषणों को गहराई से देखें तो आश्चर्यजनक रूप से ये दलित विरोधी थे। इसका कारण यह है कि गांधी दलितों को मंदिरों में प्रवेश दिलाने के लिये उस समय सत्याग्रह आंदोलन कर रहे थे। गांधी ने अपील की चूंकि आगम नियमों के मुताबिक शूद्र मंदिर के मंडप तक जा सकते हैं, दलितों को भी मंडप तक जाने का अधिकार है। उनको भी यह अनुमति मिलनी चाहिये पेरियार ने तुरंत इस बात का प्रतिवाद किया कि शूद्र और दलित समान हैं। उस काल में शूद्रों मंडप तक जा सकते थे। पेरियार ने कभी यह नहीं कहा कि मंदिर प्रवेश के लिये सभी वर्णों को समान अधिकार है। वो शूद्रों को चौथा वर्ण मानते थे और दलित को पांचवां जो मंदिर प्रवेश के अधिकारी नहीं है। उन्होंने मरते दम तक यह माना कि शूद्र और दलित अलग-अलग है। इस बात को उन्होंने सार्वजनिक मंचों से कई बार बिना किसी शर्म के कहा भी। 

तभी चेतन मां देवी गुरुकुलम में हुयी एक घटना ने पूरे तमिलनाडु को झकझोर दिया। हुआ यह कि वी वी एस अय्यर ने विशेष रूप से पकाये भोजन को गुरुकुल के दो ब्राह्मण विद्यार्थियों को ही दिया। यह घटना तमिलनाडु में बड़ा मुद्दा बन गयी। तुरंत इसका बहाना खड़ा कर सर्वप्रथम पेरियार ने ब्राह्मण और गैर ब्राह्मण का हौआ राज्य में खड़ा करना शुरू किया। यहीं से उसकी ब्राह्मण और गैर ब्राह्मण की राजनीति की नींव पड़ी। इस मुद्दे के समाधान और सभी को समान अधिकार देने के लिये एक राष्ट्रवादी कांग्रेसी गावियकंद गणपथि सास्त्रुगल अय्यर सामने आये। उन्होंने कहा कि यद्यपि गुरुकुल में एक भी दलित विद्यार्थी नहीं है फिर भी एक दलित को गुरुकुल का बावर्ची नियुक्त किया जाये। जिसके हाथों से पकाया भोजन सभी विद्यार्थी खायें। यही सामाजिक न्याय का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण होगा। अय्यर संस्कृत के उत्कृष्ट विद्वान भी थे। लेकिन सामाजिक न्याय के योद्धा पेरियार ने कहा कि वो इस सुझाव को कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे। उन्होंने प्रश्न खड़े किये कि कैसे दलित का पकाया भोजन शूद्रों खा सकता है। यह उनकी दलित विरोधी मानसिकता थी जिसका पालन उन्होंने आजीवन किया। हास्यास्पद रूप से आज भी पेरियार को दलितों का मसीहा बताकर लोगों को बरगलाया जाता है। यह झूठ का पुलिंदा मात्र है।

अपने दलित विरोधी विचारों के साथ ही उन्हें अब यह लगा कि हिंदुत्व का विनाश कर ही राष्ट्र को तोड़ा जा सकता है। इसके लिये जो रणनीति उसने बनायी उसमें प्रथम था रामायण को गालियां देना। रामायण को नीचा साबित करने के लिये अनेक पुस्तकें लिखी गयीं। महाभारत को भी नहीं बख्शा गया। हम सभी महान संत और कवि कंब से परिचित हैं जिन्होंने कंब रामायण लिखी थी। पेरियार ने एक पुस्तक 'कंब रस्म' लिखकर रामायण को बेहद अश्लील तरीके से प्रस्तुत किया। नीचता की पराकाष्ठा कर उसने संत कवि कंब, भगवान राम और देवी सीता को जी भर गालियां दीं।

पेरियार के इस कदम का शैव मतावलंबियों ने तालियां बजाकर स्वागत् और समर्थन किया क्योंकि पेरियार  वैष्णव मत वालों पर हमला कर रहा था। शैव मठों के प्रमुख महंतों ने, जिसमे कुंद्राकुडी अडिगल भी सम्मिलित थे, इसी कारण पेरियार का समर्थन किया। यही स्थिति थी उस समय तमिलनाडु में। लेकिन कुछ समय पश्चात् जब पेरियार ने तमिल शैव 'पेरिया पुराणम्' पर भी हमला बोला तब शैवों को पेरियार की असल साजिश का एहसास हुआ। फलस्वरूप सभी मतावलंबी एकजुट होकर पेरियार के विरोध में आ गये। एक-एक कर सभी हिंदू ग्रंथ पेरियार के निशाने पर आने लगे। यहां तक कि उसने तिरुक्कुरल को भी हर संभव गालियां देनी प्रारंभ कर दी।  पेरियार के शब्दों में तिरुक्कुरल "सोने की थाली में परोसी गयी मानव विष्ठा है।"

प्राचीन तमिल महाकाव्य सिलापथिकरम के रचनाकार  इलांगो अडिगल, तोल्कापियर आदि जितने महापुरुष, जिनको तमिल हिंदू हृदय से पूजते थे, उन सभी को पेरियार अपमानित करने लगा। पेरियार की इस साज़िश के पीछे एकमात्र कारण यह था कि इन महापुरुषों और इनके द्वारा रचित सभी ग्रंथों से हिंदू, जिन्हें वो पवित्र मानते हैं, गुमराह होकर इनसे घृणा करने लगें और इनसे विमुख हो जायें। पेरियार का शातिर दिमाग यह जानता था किसी भी व्यक्ति को उसकी संस्कृति से काट कर ही उसे किसी विदेशी संस्कृति को अपनाने के लिये सहजता से तैयार किया जा सकता है। यही उसका एकमात्र ध्येय भी था।

इसके बाद उसने राम के पुतले का दहन किया। विनयागर  (गणेश) मूर्ति को सलेम जिले में जनता के मध्य तोड़ा।पेरियार की कहने पर उसके गुंडों ने हर तरह के अत्याचार हिंदू मान्यताओं पर करना शुरू किया। किसी ने भी उसका विरोध नहीं किया। विनयागर मूर्ति तोड़ने के मामले पर सलेम जिले में हिंदुओं की धार्मिक आस्था आहत करने का मुकदमा पेरियार के संगठन द्रविड़ कड़गम पर दर्ज भी  हुआ। अदालत में न्यायाधीश की टिप्पणी थी कि यदि मूर्ति तोड़ने से वास्तव में किसी की भावना आहत हुयी है तो कम से कम किसी एक ने तो इसपर मौके पर या बाद में अपनी प्रतिक्रया दी होती। चूंकि किसी ने भी विरोध नहीं किया तो इसका अर्थ है कि किसी को भी इससे कोई परेशानी नहीं थी और सबने इस कार्य को स्वीकार किया।

उस समय सभी मौन थे। पेरियार की सभी हरकतों को हमने अपनी नियति मान ली थी। किसी ने भी विरोध में चूं तक नहीं की। एक ओर हमारा हिंदू धर्म था और दूसरी ओर हमारी भाषा जिसे हम देवी के रूप में पूजते थे। उसने संस्कृत और तमिल को बांट दिया। दलितों के दिमाग में यह बात ठूंस दी कि संस्कृत विदेशी भाषा है और दलितों और संस्कृत का कोई नाता नहीं है। लेकिन भला ऐसा कैसे संभव है ? दलितों और संस्कृत के मध्य सदा से गहरा और निकट का नाता रहा है। वाल्मीकि जी और व्यास ने संस्कृत में लिखा। किसने उन्हें संस्कृत पढ़ाई ? संस्कृत ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी जाता रहा। दलितों की एक उपजाति है वल्लुवर जो आज की तारीख तक हिंदू पंचांग संस्कृत में लिखते हैं। क्या कोई बिना संस्कृत ज्ञान के पंचांग लिख सकता है ? ध्यान देने की बात है कि आज भी  वल्लुवरों को कोई ब्राह्मण संस्कृत नहीं पढ़ाता है। डा. अंबेडकर ने कहा था कि यदि कोई भाषा संपूर्ण राष्ट्र की साझा भाषा हो सकती है तो वो केवल संस्कृत ही है। ऐसा उन्होंने संविधान सभा की चर्चा के मध्य संसद में कहा था। सिलापथिकरम कोवलन संस्कृत के विद्वान थे। वो संस्कृत सहजता से बोला भी करते थे। एकबार किसी राहगीर ने उनसे संस्कृत भाषा में लिखा कोई  पता पूछा तो उन्होंने संस्कृत पढ़कर उसे उत्तर दिया। कोवलन वनिबा चेट्टियार थे जो एक वैश्य उपजाति है। यह इस बात का प्रमाण है कि संस्कृत आमजन की भाषा भी थी। हर व्यक्ति के हृदय में संस्कृत के लिये भक्तिभाव था। अत: पेरियार के लिये यह आवश्यक था कि अपने कुटिल उद्देश्य की पूर्ति  हेतु संस्कृत के प्रति आम जनता के भक्तिभाव को कैसे भी हो तोड़ा और नष्ट किया जाये।

तमिलनाडु में दलित और अन्य जातियां सदा से मिलजुल कर रहा करती थीं। पेरियार इसी आपसी सद्भाव को तोड़कर समाज को दलित और गैर दलित में बांटने की साज़िश रच रहा था। इस साज़िश के तहत उसने योजनाबद्ध तरीके से यह घोषणा की कि  समस्त जातिगत् झगड़े ब्राह्मणों के कारण ही हैं। तमिलनाडु के अनेक गांवों में जहां एक भी ब्राह्मण नहीं आबाद था वहां जातिगत् झगड़े और हिंसा हुआ करते थे। पेरियार ने इन सभी के लिये ब्राह्मणों को जिम्मेदार ठहराता था। आज भी तमिलनाडु में ऐसा ही होता है। मुडुकुलथुर दंगे तमिलनाडु की मझोली जातियों के  समूह मुक्कलदोर  और देवेन्द्र कुला वेल्लार दलितों के बीच ही हुये थे। इस दंगे में दो व्यक्ति मारे गये थे। एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर इन दंगों को लेकर कहा :

" तुम जातियों का विनाश चाहते हो या नहीं ! मन बना लो। फांसी की रस्सी के लिये तैयार रहो। सभी युवा खून से हस्ताक्षर कर इस बारे में घोषणा करें कि वो गांधी की मूर्तियों तोड़ेंगे और ब्राह्मणों को मारेंगे।"

जबकि मुडुकुलथुर और ब्राह्मणों के बीच कोई संबंध ही नहीं था। साथ ही पेरियार ने यह भी कहा कि सभी प्रकार की जातिगत् झगड़े ब्राह्मणों के कारण हैं। 

पेरियार ने एक हजार से भी अधिक निबंध और लेख लिखे हैं। अस्सी प्रतिशत से अधिक अपने लेखों में उसने सभी स्थानों में सभी प्रकार की समस्याओं का कारण केवल ब्राह्मणों को ही बताया है।

वर्ष 1962 में किलवेनमनि दंगों में  नायडू जाति वालों ने  44 दलितों को जिंदा जला कर मार डाला था। इस पूरे क्षेत्र में एक भी ब्राह्मण नहीं रहता था। यहां भी पेरियार ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर दंगों के लिये ब्राह्मणों को दोषी मानते हुये मांग की:

" जातियों को तोड़ने के लिये ब्राह्मणों का समूल नाश कर दिया जाये। "

भारत का एक गौरवशाली इतिहास रहा है। जो भी इस दिव्य राष्ट्र और हिंदुत्व की रक्षा करता है उसे हम उच्च पायदान पर रख कर उसको एक संत के समान पूजते हैं। यदि कोई भगवान वस्त्र धारण करता है तो हम उसका सम्मान करते हैं। हमारे हृदय में ब्राह्मणों के लिये सदा से सम्मान इसलिये  रहा है क्योंकि वो भौतिक जीवन का त्याग कर राष्ट्रीय के लिये ही जीते रहे हैं। कुंज वृत्ति ! अर्थात् ब्राह्मणों द्वारा खेतों में गिरे अन्य के दानों को चुनकर उन्हें पकाकर खाना। यही वो ब्राह्मण थे जिनका तमिलनाडु में सभी समुदाय सदा से सम्मान करते थे। ब्राह्मणों की यही प्रतिष्ठा धूमिल और नष्ट करना पेरियार के जीवन का एक बड़ा लक्ष्य था। इसके लिये पेरियार ने समाज की सभी समस्याओं के लिये ब्राह्मणों को दोषी ठहराना प्रारंभ किया। वह और उसके लोग बहुत धूर्तता से इस साज़िश को मूर्तरूप देने लगे। अंततोगत्वा तमिलनाडु के निर्दोष ब्राह्मण पेरियार की कुटिल चाल की भेंट चढ़ ही गये। वह अपनी चाल में सफल हो गया।

तत्पश्चात् पेरियार ने वर्ष 1944 में एक प्रस्ताव पारित किया:

" अंग्रेजों को भारत छोड़कर वापस नहीं जाना चाहिये। लेकिन यदि ऐसा करना ही पड़े तो वो भारत के सभी राज्यों को आजादी दे दें। बस तमिलनाडु ही अंग्रेजों के राज्य के अधीन रहे।"

 इस प्रस्ताव के सामने आते ही तमिलनाडु की जनता की आंखें खुलीं और उन्हें एहसास हुआ कि पेरियार और उसके संगठन द्रविड़ कड़गम और जस्टिस पार्टी के समस्त कार्यकलापों के पीछे अंग्रेजी राज का ही हाथ है। ये दोनों संगठन ब्रिटिश राज की ही उपज थे।"

Tuesday, July 14, 2020

महर्षि दयानन्दकृत ओंकार-अर्थ-अनुशीलन


महर्षि दयानन्दकृत ओंकार-अर्थ-अनुशीलन

लेखक- प्रियांशु सेठ (वाराणसी)

ईश्वर का निज नाम 'ओ३म्' है। इस नाम में ईश्वर के सम्पूर्ण स्वरूप का वर्णन है। यदि परमात्मा कहें तो इसके कहने से सब जीवों का अन्तर्यामी आत्मा इसी अर्थ का बोध होता है, न कि सर्वशक्ति, सर्वज्ञान आदि गुणों का। सर्वज्ञ कहने से सर्वज्ञानी, सर्वशक्तिमान् कहने से ईश्वर सर्वशक्तियुक्त है, इन्हीं गुणों का बोध होता है, शेष गुण-कर्म-स्वभाव का नहीं। 'ओ३म्' नाम में ईश्वर के सर्व गुण-कर्म-स्वभाव प्रकट हो जाते हैं। जैसे एक छोटे-से बीज में सम्पूर्ण वृक्ष समाया होता है, वैसे ही 'ओ३म्' में ईश्वर के सर्वगुण प्रकट हो जाते हैं। महर्षि दयानन्दजी महाराज अपने ग्रन्थ 'सत्यार्थप्रकाश' के प्रथम समुल्लास में ओ३म् को "अ, उ, म्" इन तीन अक्षरों का समुदाय मानते हैं। स्वामीजी को अ से अकार, उ से उकार तथा म् से मकार अर्थ अभीष्ट है। इन शब्दों से उन्होंने परमात्मा के अलग-अलग नामों का ग्रहण किया है- अकार से विराट, अग्नि और विश्वादि। उकार से हिरण्यगर्भ, वायु और तैजसादि। मकार से ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञादि।
संस्कृत भाषा में पदान्तरों के अक्षर लेकर स्वतन्त्र शब्दों का प्रयोग होता है। इसपर शौनक ऋषि का मन्तव्य है- "शब्दों में धातु, उपसर्ग तथा अन्य शब्दों के अवयवों की भी ध्वनियां होती हैं। वे शब्द एक धातु के भी बने होते हैं और कुछ शब्द दो धातुओं से बनते हैं तथा कुछ शब्द बहुत धातुओं से बनते हैं। वे शब्द पांच प्रकार के होते हैं (बृहद्देवता २/१०३,१०४)।"
१. धातु से बने शब्द- अग्नि आदि।
२. धातुओं से बने शब्दों से बनाये हुए शब्द- रत्नधा + तमम्।
३. उपपद रखकर बने शब्द- यन् ज:= यज्ञ:।
४. वाक्य से बने शब्द- इति + ह + आस= इतिहास।
५. बिखरे हुए अवयवों से बने शब्द- अ उ म्= ओ३म्।

महाभाष्यकार ने भी स्पष्ट घोषणा की है- 'बह्वर्था अपि धातवो भवन्ति (१/३/१)'। जब एक-एक धातु के अनेक अर्थ होंगे तो उनसे निष्पन्न शब्द भी अनेकार्थवाची होंगे। अन्य भाषाओं में भी दूसरे शब्दों के अवयव लेकर एक स्वतन्त्र शब्द का निर्माण हुआ है। उदाहरण के लिए, जैसे अंग्रेजी भाषा में एक शब्द 'News' है, जिसका अर्थ है- समाचार-खबर अर्थात् चारों तरफ से जो बातें आती हैं उसको समाचार कहते हैं। लेकिन इनका आदि अक्षर अंग्रेजी भाषा में चारों दिशाओं के नामों को भी प्रकट करता है-
North- उत्तर दिशा
East- पूर्व दिशा
West- पश्चिम दिशा
South- दक्षिण दिशा

इसी तरह "अ, उ, म्" इन तीनों अक्षरों का समुदित रूप यह 'ओ३म्' है। यथा-
सोऽयमात्माऽध्यक्षरमोंकारोऽधिमात्रं पादा मात्रा मात्राश्च पादा, अकार, उकार मकार इति।। -माण्डूक्यो० ८
अर्थात्- यह आत्मा (परमात्मा) अक्षर में अधिष्ठित है। वह अक्षर ओंकार=ओ३म् है। वह ओंकार मात्राओं में अधिष्ठित है और वे मात्राएं अकार, उकार, मकार हैं।

माण्डूक्योपनिद् का ऐसा सिद्धान्त प्रतीत होता है कि यह दो धातु और एक उपसर्ग से 'ओ३म्' शब्द की सिद्धि मानती हो। श्रुति ९,१०,११ में "अप" धातु से 'अ', "उत्" उपसर्ग से 'उ' और "मा" वा "मि" धातु से 'म्' लेकर "ओ३म्" शब्द की सिद्धि करती है। यथा-
"अकार: प्रथमा मात्रा-आप्ते:, आदिमत्वाद् वा।
उकारो द्वितीया मात्रा उत्कर्षात्, उभयत्वाद् वा।
मकारस्तृतीया मात्रा-मिते:, अपीतेर्वा।"
अर्थ- अकार प्रथम मात्रा है, अकार का अर्थ है- व्याप्ति और आदि। उकार दूसरी मात्रा है, उकार का अर्थ है- उत्कर्ष और उभयादि। मकार तीसरी मात्रा है, मकार का अर्थ है- मिति और अपीति आदि।
[आप् धातु या आदि शब्द का आ ह्रस्व करके- 'अ'। उत्कर्ष या उभय शब्द का- 'उ'। मिति अथवा अपीति- समाप्ति सूचक का प् 'म्' होकर- 'म्'।]

महर्षि के अर्थ पर विचार-
महर्षि दयानन्द द्वारा किए प्रत्येक शब्द का अर्थ उनके स्वाध्याय-चिन्तन को हमारे समक्ष प्रबलता से स्थापित करता है। आर्ष शास्त्रों के अनुसार अकार, उकार तथा मकार का महर्षिकृत अर्थ परस्पर सम्बन्ध रखनेवाला है। देखो-

१. शतपथब्राह्मण (६/२/२/३४, ६/३/१/२१, ६/८/२/१२, ९/१/१/३१) में 'विराडग्नि:' आया है; अतः विराट् अग्नि का नाम है। शतपथब्राह्मण (७/३/१/२२) ने 'इयं (पृथिवी) वाऽग्नि:' लिखकर घोषणा की है कि यह पृथ्वी अग्नि है। आगे पृथ्वी को विश्व बताते हुए शतपथब्राह्मण (९/३/१/३) में कहा है- 'स य: स वैश्वानर:। इमे स लोका ऽइयमेव पृथिवी विश्वं' अर्थात् ये लोक वैश्वानर है, यह पृथिवी विश्व है। शतपथब्राह्मण ने 'वैश्वानरो वै सर्वेऽग्नय: (६/२/१/३५, ६/६/१/५)' अर्थात् सब अग्निया वैश्वानर है लिखकर अग्नि को वैश्वानर स्वीकार किया है। विश्व और वैश्वानर शब्द का एक ही अर्थ है। इसकी पुष्टि करते हुए शतपथ० (१३/३/८/३) में कहा है- 'इयं (पृथिवी) वै वैश्वानर:' अर्थात् यह पृथिवी वैश्वानर है।
विश्व शब्द पर स्वामी दयानन्दजी का मन्तव्य है- "विशन्ति प्रविष्टानि सर्वाण्याकाशादीनि भूतानि यस्मिन्। यो वाऽऽकाशादिषु सर्वेषु भूतेषु प्रविष्टः स विश्व ईश्वरः (स०प्र०, प्रथम समुल्लास) अर्थात् जिसमें आकाशादि सब भूत प्रवेश कर रहे हैं अथवा जो इन में व्याप्त होके प्रविष्ट हो रहा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम 'विश्व' है।"
निरुक्तभाष्यकार दुर्गाचार्य का वैश्वानर शब्द पर भी यही मत है। यथा-
"प्रत्यृता सर्वाणि भूतानि" विश्वानि ह्यसौ भूतानि प्रति ऋत: प्रविष्ट इत्यर्थ:। "तस्य" विश्वानरस्य अपत्यं "वैश्वानर:"। -निरुक्त, दैवतकाण्ड ७/२१/१ पर दुर्गाचार्यकृत टीका, पृष्ठ ६०२, श्रीवेंकटेश्वर प्रेस, मुम्बई, १९६९ से प्रकाशित
वैश्वानर शब्द का एक यह भी अर्थ है कि जो पूर्णरूप से सब भूतों में प्रविष्ट है, उसको वैश्वानर कहते हैं।
अतः अकार से विराट्, अग्नि और विश्वादि का ग्रहण शास्त्रसम्मत है।

२. शतपथब्राह्मण (६/२/२/५) में आता है- 'प्रजापतिर्वै हिरण्यगर्भ:' अर्थात् हिरण्यगर्भ प्रजापति है। शतपथ० ने 'स एष वायु: प्रजापति (८/३/४/१५)' प्रजापति को वायु स्वीकार किया है। ऐतरेय० (४/२६) में भी कहा है- 'वायुर्ह्योव प्रजापतिस्तदुक्तमृषिणा पवमान: प्रजापतिरीति।' तैत्तिरीय ब्राह्मण में वायु को तैजस बताया है '(तेजो वै वायु: -३/२/९/१)'।
इससे स्पष्ट है कि हिरण्यगर्भ, वायु और तैजस नामों का उकार से ग्रहण शास्त्रों के अनुकूल है।

३. माण्डूक्योपनिषद् की श्रुति ११ में मकार को 'माङ्' धातु का कहा है, अर्थात् जो मापनेवाला, न्याय व शासन करनेवाला है। न्याय वा शासन करनेवाला ईश वा ईश्वर है। अथर्ववेद (११/४/१) में उसे सबका स्वामी बताया है- 'यो भूत: सर्वस्येश्वरो यस्मिन् सर्वं प्रतिष्ठितम्'। दर्शनशास्त्र के अनुसार ईश्वर के बिना कर्मफल की व्यवस्था नहीं हो सकती, यथा- 'ईश्वर: कारणं पुरुषकर्माफल्यदर्शनात् (न्याय० ४/१/१९)'। इससे सिद्ध है कि ईश्वर ही शासनकर्त्ता व न्यायकर्त्ता है। शतपथब्राह्मण (६/१/३/१७) में आया है- 'आदित्यो वा ईशान: आदित्यो ह्यस्य सर्वस्येष्टे।' स्पष्ट है कि ईशान और आदित्य पर्यायवाची हैं। बृहदारण्यक० (४/३/२१) के अनुसार- 'अयं पुरुष प्राज्ञेनात्मना सम्परिष्वक्तौ न बाह्यं किञ्चन् वेद नान्तरम्' अर्थात् यह पुरुष (जीवात्मा) प्राज्ञेनात्मना (परमात्मा) के साथ सम्पर्क में आया हुआ न कुछ बाहर जानता है, न अन्दर। इससे स्पष्ट हुआ कि जीवात्मा आप्तकाम, आत्मकाम और निष्काम होकर सभी दुःखों से छूट जाता है अर्थात् यह न्यायरूपी फल उसे ईश्वर देता है। सिद्ध है, प्राज्ञ और ईश्वर पर्यायवाची हैं।
अतः मकार से आदित्य, ईश्वर और प्राज्ञ का ग्रहण स्पष्ट है।

संस्कृत के प्रायः सभी शब्द आख्यातज हैं- प्रकृति-प्रत्यय के योग से निष्पन्न हैं। इसी कारण वे यौगिक कहाते हैं। आदि, उभय और अपिति के आधार पर महर्षि का किया अर्थ वेदादिशास्त्रों के अनुकूल है। गोपथब्राह्मण (१/५) में तो 'अ, उ, म्' को क्रमशः ब्रह्मा (उत्पत्तिकर्त्ता), विष्णु (पालनकर्त्ता) और शिव (संहारकर्त्ता) का वाचक बताया है। मैत्र्युपनिषद् (६/८) में आया है- 'एवं हि खल्वात्मेशान: शम्भुर्भवो रुद्र: प्रजापतिर्विश्वसृग्घिरण्यागर्भ:'। यहां आत्मा, ईशान, शम्भु, भव, रुद्र, प्रजापति, विश्वसृक् और हिरण्यगर्भ परमात्मा के नाम हैं। यजुर्वेद (३२/१) में परमात्मा के अग्नि, आदित्य, वायु, चन्द्रमा, शुक्र, ब्रह्म, आप: और प्रजापति- ये नाम हैं। तात्पर्य यह है कि अ, उ, म् पृथक्-पृथक् ईश्वर के भिन्न-भिन्न नामों के वाचक अर्थात् परमात्मवाची हैं।

महर्षि के अर्थ में उपनिषद् का प्रमाण-
माण्डूक्योपनिषद् में अकार का सम्बन्ध विश्व, उकार का सम्बन्ध तैजस एवं मकार का सम्बन्ध प्राज्ञ से किया है। यथा-
१. जागरितस्थानो वैश्वानरोऽकार: प्रथम मात्रा (माण्डूक्य० ९) अर्थात् ओ३म् की प्रथमा मात्रा अकार= 'अ' है। उसका सम्बन्ध जागरित स्थान से है और वह वैश्वानर= विश्वानर= विश्वसम्बन्ध है।
२. स्वप्नस्थानस्तैजस उकारो द्वितीय मात्रा (माण्डूक्य० १०) अर्थात् ओ३म् की द्वितीया मात्रा उकार= 'उ' है। उसका सम्बन्ध स्वप्नस्थान से है और वह तैजस् है।
३. सुषुप्तस्थान: प्राज्ञो मकारस्तृतीया मात्रा (माण्डूक्य० ११) अर्थात् ओ३म् की तृतीया मात्रा मकार= 'म्' है। उसका सम्बन्ध सुषुप्तस्थान से है और वह प्राज्ञ है।

माण्डूक्योपनिषद् की इस श्रुति में जीवात्मा के तीन अवस्थाओं का वर्णन है जिसका सम्बन्ध ईश्वर से है।
जागरितावस्था- सब पादों से पहला विश्वनामापाद तीनों पादों में व्यापक है अर्थात् जीव की स्वप्न, सुषुप्ति आदि सब अवस्थाओं में जाग्रतावस्था का प्रभाव रहता है।
स्वप्नावस्था- तैजस नाम का जो दूसरा पाद है यह विश्व पाद की अपेक्षा उत्कृष्ट और विश्व तथा प्राज्ञ दोनों के बीच में है। जो इस पाद को भलेप्रकार जानता है वह अपनी ज्ञान-सन्तति को नित्य बढ़ाता है।
सुषुप्तावस्था- तीसरा पाद प्राज्ञ अपिति का देनेहारा है। इसको जानने के बाद जीवात्मा लय हो जाती है।

यहां एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब यहां जीव की अवस्था का प्रकरण है तो अकार, उकार और मकार का सम्बन्ध ईश्वर से किस प्रकार है? इसका उत्तर यह है कि उन तीनों अवस्थाओं का मूल ईश्वर ही है। आदि (जागरित)= वह जीव शरीर में व्याप्त होने से कामनाओं को प्राप्त होता है और इस प्रकार वेद जानता है। उभय (स्वप्न)= वह परमात्मा से सम्बन्ध करता है जिससे बाह्य ज्ञान अल्प होता है और सुख की वृद्धि होती है। अपिति (सुषुप्ति)= बाहर का सम्बन्ध टूटने के बाद बाह्य ज्ञान बन्द हो गया (जीवात्मा के अस्तित्व की अनुभूति हो गयी) जिससे वह दुःखों से छूट गया और सच्चिदानन्दस्वरूप ब्रह्म में लीन हो गया।

ओंकारोत्पत्ति एवं सिद्धि (भ्रान्ति-निवारण)
ओ३म् परमात्मा का मुख्य नाम है, वेदादि सत्य शास्त्र ऐसा कथन करते हैं। 'ओ३म्' शब्द की सिद्धि शब्द-तत्त्वदित् पाणिनि ने 'अव' धातु से माना है। उन्होंने धातुपाठ में "अव" धातु के रक्षादि १९ अर्थ बताए हैं। उणादिकोष के सूत्र "अवतेष्टिलोपश्च (१/१४१)" के अनुसार अव धातु से 'मन्' प्रत्यय और प्रत्यय के 'टि' का लोप हो जाता है तब "अव+म्" ऐसी स्थिति होती है। तब ["ज्वरत्वरस्त्रिव्यविभवामुपधायाश्च" -शब्दानु० ६/४/२०] "अव" की जगह ऊठ् आदेश होकर 'उ+म्' स्थिति होती है और गुण होकर "ओ३म्" बनता है। गोपथब्राह्मण के प्रपाठक १ की २६वीं कण्डिका में "आप्लृ" धातु से "ओ३म्" शब्द की सिद्धि की है। यहां भिन्न-भिन्न धातुओं से 'ओ३म्' शब्द की सिद्धि में सन्देह नहीं करना चाहिए कि आचार्यों में परस्पर-विरोध है। देखिए, पाणिनि ने यह कहीं नहीं कहा है कि केवल 'अव' धातु से ही ओंकार की सिद्धि होती है। उनके व्याकरण के अनुसार अव, आप् आदि सब धातु से ओ३म् सिद्ध हो सकता है [द्रष्टव्य- अष्टाध्यायी ६/३/१०९]।
जैसे श्वास के बिना मनुष्य एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता, वैसे ही ओंकार की उपासना के बिना मनुष्य जीवित रहते हुए भी मृतक के समान है। यदि परमात्मा वेदज्ञान् का प्रकाश नहीं करता तो यह अल्पज्ञ जीव दुःख के बन्धन से कभी न छूट सकता। इसलिए परमात्मा ने वेदज्ञान का प्रकाश किया एवं इसमें 'ओ३म्' नाम को उपासनीय बताकर जीवात्मा के कैवल्यप्राप्ति का द्वार खोला है। यजुर्वेद (४०/१५) में आया है- "ओ३म् क्रतो स्मर" अर्थात् हे कर्मशील जीव! मरण समय में उसी ओ३म् का स्मरण कर। ऋग्वेद (१/१६४/३९) में कहा है- "ईश्वर की ओर चले बिना कोई व्यक्ति मृत्यु के पार नहीं होता।" माण्डूक्योपनिषद् की पहली श्रुति ही में "परमेश्वर का प्रधान और निज नाम 'ओ३म्' को कहा है, अन्य सबको गौणिक नाम बताया है।" छान्दोग्योपनिषद् (१/४/१) ने यहां तक कह दिया है कि "(ओ३म्) जिसका नाम है और जो कभी नष्ट नहीं होता, उसी की उपासना करनी योग्य है, अन्य की नहीं।" कठोपनिषद् का ऋषि कहता है- "सब वेद सब धर्मानुष्ठानरूप तपश्चरण जिसका कथन और मान्य करते और जिसकी प्राप्ति की इच्छा करके ब्रह्मचर्याश्रम करते हैं, उसका नाम 'ओ३म्' है (वल्ली २, मन्त्र१५)।" आगे कहा है- "इसका रूप (आँखों से) देखने के लिए नहीं है, न कोई आँखों से इसको देख सकता है। यह हृदय से, बुद्धि से, मन से प्रकाशित होता है। जो जानते हैं, वे अमृत हो जाते हैं (कठ० ६/९)।"

ओ३म् की उत्पत्ति के सम्बन्ध में ऐतरेयब्राह्मण ५वीं पञ्चिका के ३२वें खण्ड में आता है-
"प्रजापतिरकामयत प्रजायेय भूयान् स्यामिति। स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा इमान् लोकान् असृजत पृथिवीम् अन्तरिक्षम् दिवम्। तान् लोकान् अभ्यतपत्। तेभ्योऽभितप्तेभ्यस्त्रीणि ज्योतींषि अजायन्त। अग्निरेव पृथिव्या अजायत। वायुरन्तरिक्षात्। आदित्यो दिव:। तानि ज्योतींषि अभ्यतपत्। तेभ्योऽभितप्तेभ्यस्त्रयो वेदा अजायन्त। ऋग्वेद एव अग्नेरजायत। यजुर्वेदो वायो:। सामवेद आदित्यात्। तान् वेदान् अभ्यतपत्। तेभ्योऽभितप्तेभ्यस्त्रीणि शुक्राण्यजायन्त। भू: इत्येव ऋग्वेदादजायत। भुव इति यजुर्वेदात्। स्व: इति सामवेदात्। तानि शुक्राण्यभ्यतपत्। तेभ्योऽभितप्तेभ्यस्त्रयो वर्णा अजायन्त। अकार: उकार: मकार: इति। तान् एकधा समभरत्। तत् ओम् इति।"

अर्थ- प्रजापति परमात्मा ने इच्छा की कि मैं प्रजा के द्वारा विस्तार को प्राप्त हो जाऊं। उसने ईक्षण किया। उसने ईक्षण करके इन लोकों को उत्पन्न किया- पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्युलोक को। उन लोकों का ईक्षण किया। ईक्षण किये गए उन लोकों से तीन ज्योति:स्वरूप ज्ञानी हुए। पृथिवी से अग्नि ही हुआ। वायु अन्तरिक्ष से। आदित्य द्यु लोक से। उन ज्योति:स्वरूपों का ईक्षण किया। उन ईक्षण किये हुए ज्योति:स्वरूपों से तीन वेद उत्पन्न हुए। अग्नि ऋषि से ऋग्वेद ही उत्पन्न हुआ। यजुर्वेद वायु ऋषि से। सामवेद आदित्य ऋषि से। उन वेदों का ईक्षण किया। उन ईक्षण किये हुए वेदों से तीन शक्तिशाली शब्द निकले। भू: यह ही ऋग्वेद से निकला। भुवः यह यजुर्वेद से। स्व: यह सामवेद से। उन शक्तिशाली शब्दों का ईक्षण किया। उन ईक्षण किये हुए शब्दों से तीन वर्ण निकले, अ उ म्। उन तीनों को एक प्रकार से एकत्र इकट्ठा किया। वह ओ३म् बन गया।

इस कण्डिका का सार यह है कि परमात्मा ने अपनी ईक्षण शक्ति से तीन लोकों को उत्पन्न किया। फिर उस लोक से उत्पन्न हुए ऋषियों को वेदों का प्रकाश किया। (त्रयोवेदा:) यहां तीन वेद से तात्पर्य त्रयी विद्या का जानना चाहिए। (त्रय:+वर्णा:) इन वेदों से ईश्वर के सर्वगुणों के वर्णन करनेवाले तीन शब्द उत्पन्न हुए। वर्ण शब्द विशेषणगर्भित पद है। इसका अर्थ अक्षर नहीं है किन्तु ब्रह्म का हम लोग जिस पद से वर्णन कर सकते हैं उसे वर्ण कहते हैं। (अकार:) अकार (उकार:) उकार (मकार:) मकार ये तीन पद हैं। उन तीनों पदों के मिलने पर 'ओ३म्' पद बना।

महाराज मनु कहते हैं-
अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापति:।
वेदत्रयान् निरदुहत् भूर्भुवः स्वरितीति च।। -मनु० २/७६
अर्थ- प्रजापति ने अकार, उकार और मकार को ऋक् यजु साम इन्हीं वेदों से तथा भू: भुवः स्व: ये महाव्याहृतियों दुहीं - सार भूत निकाली।

ईक्षण शक्ति पर विचार
परमात्मा के ईक्षण शक्ति का वर्णन ऋग्वेद १०/१९०/१, वेदान्तदर्शन १/१/५, ऐतरेयोपनिषद् १/१, छान्दोग्योपनिषद् ६/२/३ इत्यादि स्थलों पर भी आया है। इस सम्बन्ध में महर्षि दयानन्दजी सत्यार्थप्रकाश के सातवें समुल्लास में प्रश्नोत्तर-रूप में बताते हैं-
(प्रश्न) ईश्वर में इच्छा है वा नहीं।
(उत्तर) वैसी इच्छा नहीं। क्योंकि इच्छा भी अप्राप्त, उत्तम और जिस की प्राप्ति से सुख विशेष होवे तो ईश्वर में इच्छा हो सके। न उससे कोई अप्राप्त पदार्थ, न कोई उससे उत्तम और पूर्ण सुखयुक्त होने से सुख की अभिलाषा भी नहीं है। इसलिये ईश्वर में इच्छा का तो सम्भव नहीं, किन्तु ईक्षण अर्थात् सब प्रकार की विद्या का दर्शन और सब सृष्टि का करना कहाता है वह ईक्षण है।

ब्रह्म चेतन सत्ता है। क्रिया करना चेतन सत्ता का स्वाभाविक गुण है। यदि वह क्रिया न करे तो इससे उसकी चेतनता पर प्रश्नचिह्न लगता है। क्योंकि परमात्मा चेतन होने के कारण क्रिया करता है इसलिए उसने अपनी ईक्षण शक्ति से लोकों को उत्पन्न किया और वेदों की उत्पत्ति की। वेदज्ञान के माध्यम से लोकों के पदार्थों को लोगों ने जाना, इसी को कहा है कि मैं (ब्रह्म) प्रजा के द्वारा विस्तार को प्राप्त हो जाऊं। ईश्वर की यह अद्भुत ईक्षण शक्ति से ही सब सृष्टि की उत्पत्ति होती है और वह वेदज्ञान का प्रकाश करता है। इससे ब्रह्म की चेतनता सिद्ध है।

अतः ओंकार के अर्थ पर स्वामी दयानन्दजी का गूढ़ चिन्तन वैदिक विचारधारा एकेश्वरवाद का पोषण करता है। मनुष्य जाति में फैले ईश्वर विषयक भ्रांतिपूर्ण विचारों जैसे अनेकेश्वरवाद आदि पर महर्षि ने सप्रमाण प्रहार किया और लोगों को ईश्वर के सत्य स्वरूप से परिचित कराया। ईश्वर विषयक स्वामीजी की निर्भ्रान्त धारण थी। स्वामीजी ने वेदादि सत्य शास्त्रों के पढ़ने का अधिकार सबको दिया एवं अपने तप और पुरुषार्थ के बल पर वेद को स्वतःप्रमाण (ईश्वरीय ज्ञान) सिद्ध कर मनुष्य जाति में फैले अन्धविश्वास को खुली चुनौती दी। वेदों के उद्धार में स्वामी दयानन्दजी महाराज का योगदान सदैव अविस्मरणीय रहेगा।

[Source- Navrang Times : Voice Of Arya Pratinidhi Sabha America, May-June 2020 issue & आर्ष क्रान्ति : आर्य लेखक परिषद् का मुख पत्र का जून २०२० का अंक]

Friday, July 10, 2020

ब्राह्मणों द्वारा सिक्खों के लिए दिए गए बलिदान



ब्राह्मणों द्वारा सिक्खों के लिए दिए गए बलिदान :-
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आमतौर पर सिख समाज के लोग और उनमें भी अलगाववादी खालिस्तानी जट्ट सिक्ख ब्राह्मणों के प्रति अति निंदनीय घृणास्पद शब्दों का प्रयोग करते हैं । एक गंगू नाम के ब्राह्मण की एक भूल को लेकर पूरे ब्राह्मण समाज को दोषी, कायर एवं ग़द्दार करार दे देते है, लेकिन इन पाकिस्तान परस्त लोगों को ये नहीं पता कि इनके गुरुओं की सेनाओं में सबसे ज़्यादा सैनिक ब्राह्मण समाज से ही होते है । सिख गुरुओं के लिए शहादत देने वाले ब्रह्मणो की एक सूचि बनाई गई है जिसमें सिक्ख गुरुओं के लिये अपना बलिदान देने वाले ब्राह्मण वीरों का उल्लेख है :-
1. पंडित प्रागा दास जी -
पिता का नाम एवं जन्मस्थान - इनके पिता जी का नाम पंडित माई दास जी था , इनका जन्म करीयाला झेलम में हुआ था जोकि वर्तमान पाकिस्तान में है ।
भूमिका - पंडित प्रागा जी एक छिबर ब्राह्मण थे । ये पाँचवे गुरु श्री अर्जुन देव जी के मुख्य सहयोगी रहे । इन्होंने छटे गुरु को युद्ध कला सीखाने का श्रेय प्राप्त है । 1621 में अब्दुलाखान के साथ हो रहे युद्ध में इनको वीरगति प्राप्त हुई ।
2. पंडित पेड़ा जी -
पिता का नाम एवं जन्मस्थान - इनके पिता जी का नाम पंडित माई दास जी था , इनका जन्म करीयाला झेलम में हुआ था जोकि वर्तमान पाकिस्तान में है । ये पंडित प्रागा दास जी के छोटे भाई थे ।
भूमिका - पंडित पेड़ा दास जी भी गुरु अर्जुन देव जी के मुख्य सहयोगी थे और ये गुरु हरगोविंद सिंह जी की सेना के मुख्यसेनापति थे । इन्होंने सभी लड़ाईयों में हिस्सा लिया और अंत में अमृतसर की लड़ाई में शहीद हुए ।
3. पंडित मुकुंदा राम जी -
जन्मस्थान - कराची , वर्तमान पाकिस्तान
भूमिका - पंडित मुकुंदा राम जी गुरु अर्जुन देव जी के मुख्य सेवक थे और बाद में उनकी सेना के मुख्य सेनापति के तौर पर भी नियुक्त हुए । पंडित मुकुंदा राम जी चार वेदों के ज्ञाता एवं युद्ध कला में निपुण थे । इनको भी युद्ध में शहीद होना का श्रेय प्राप्त है ।
4. पंडित जट्टू दास जी -
जन्मस्थान - लाहौर, पाकिस्तान
भूमिका - पंडित जट्टू दास जी एक तिवारी ब्राह्मण थे पंडित जट्टू राम जी गुरु हरगोविंद सिंह जी की सेना में सेनानी थे और बाद में इन्होंने सेना का कार्य भार भी संभाला । 1630 में मुहम्मद खान के साथ इन्होंने बड़ी लड़ाई लड़ी और मुहम्मद खान का वध करने का श्रेय इन्हें ही प्राप्त है । मुहमद खान के साथ लड़ाई में इनको बहुत शारीरिक नुक़सान पहुँचा और युद्ध क्षेत्र में ही वीर गति को प्राप्त हो गये ।
5 .पंडित सिंघा पुरोहित जी -
भूमिका - पंडित सिंघा पुरोहित जी गुरु अर्जुन देव जी के मुख्य सेवक थे जो छटवें गुरु की सेना में सिपाही भी रहे । श्री सिंघा जी अमृतसर के नज़दीक लड़ाई में शहीद हुए
6. पण्डित मालिक जी पुरोहित
पिता का नाम - पंडित सिंघा जी पुरोहित
भूमिका - पण्डित मलिक जी पंडित सिंघा जी के सुपुत्र थे ( पढ़े नम्बर 5 ) मुखलसखान के विरुद्ध इन्होंने धुआँधार लड़ाई लड़ी और अंत में विजयी भी हुई । पंडित मलिक जी गुरु हरगोविंद का दाहिना हाथ माना जाता है । इनको भंगाणी के युद्ध में शहादत प्राप्त हुई।
7. पंडित लाल चंद जी -
जन्मस्थान - कुरुक्षेत्र, हरियाणा
पंडित लाल जी एक महान विद्वान एवं योद्धा थे । श्री लाल चंद जी चमकौर की लड़ाई में शहीद हुए थे ।
8. पंडित किरपा राम जी
पिता का नाम - पंडित अड़ू राम जी
भूमिका - पंडित कृपा राम जी गुरु तेग़ बहादूर जी के प्रमुख सहयोगी थे ,इन्होंने ही गोबिंद राय जी को सारी शस्त्र विद्या सिखाई थी । कहा जाता है कि इनके जैसा वीर योद्धा पंजाब के इतिहास में नहीं हुआ । इनको चमकौर की लड़ाई में शहादत मिली । ये समकालीन सेना के सेनापति भी थे ।
9. पंडित सनमुखी जी
पिता का नाम - पंडित अड़ू राम जी
सनमुखी जी पंडित कृपा जी के भाई थे , और ये इनको दसवे गुरु द्वारा खालसा फ़ौज का सेनापति भी मनोनीत किया गया था , पंडित सनमुखी जी चमकौर की लड़ाई में शहीद हुए थे ।
10. पंडित चोपड़ राय जी -
पिता का नाम एवं जन्मस्थान - श्री पेड़ा राम जी , जेहलम
भूमिका - श्री चोपड़ राय जी एक बहुभाषी विद्वान थे । इन्होंने रहतनामें एवं अन्य आध्यात्मिक कृतियों की रचना की । श्री चोपड राय जी ने खालसा फ़ौज का नेतृत्व किया और ये भंगाणी के युद्ध में शहीद हुए ।
11. पण्डित मथुरा जी
पिता का नाम एवं जन्मस्थान - श्री भीखा राम जी , लाड़वा हरियाणा
श्री मथुरा राम जी एक महान विद्वान एवं योद्धा थे । श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में इनके चौदह अंक दर्ज है । इन्होंने मात्र अपने ४०० साथियों की सहायता से बैरम खान के साथ युद्ध किया एवं जीत भी हासिल की । इन्होंने बैरम खान को मौत की नींद सुला दिया था । श्री मथुरा जी 1634 में अमृतसर की लड़ाई में शहीद हुए ।
12. पण्डित किरत जी
जन्मस्थान एवं पिता का नाम - श्री भिखा राम जी , लाड़वा हरियाणा
पण्डित किरत जी एक महान विद्वान एवं योद्धा थे , इनके द्वारा रचित आठ अंक गुरु ग्रंथ साहिब में अंकित है । श्री किरत जी गुरु अमरदास के सहयोगी थे और 1634 ईसवी में गोविंदगढ़ की जंग में शहीद हुए ।
13. पण्डित बालू जी
पिता का नाम एवं जन्मस्थान - श्री मूलचंद जी , कश्मीर
पण्डित बालू जी भाई दयाल दास के पोते थे , पण्डित परागा दास के नेतृत्व में लड़ी गयी सिख इतिहास की पहली लड़ाई में शहीद हुए
14. पण्डित सती दास जी
15. पण्डित मति दास जी
( 14 & 15 के विषय में कुछ भी लिखना मेरे लिए सूरज को दीपक दिखाने के समान होगा ।
ये मुख्य मुख्य उन ब्राह्मणों की सूचि है जिन्होंने सिक्ख आंदोलन में भाग लिया और मुसलमान बादशाहों का जो सपना भारत को इस्लामी देश खुरासान बनाना था उसके विरुद्ध सिक्ख सेनाओं को मजबूत किया ।
source-
The Sikh Reference Book By Harajindara Siṅgha Dilagīra
History of Sikh by Hari ram Gupta.