Thursday, November 28, 2019

धर्म और अधर्म



◼️धर्म और अधर्म◼️
🎙व्याख्याता - शास्त्रार्थ महारथी पं॰ रामचंद्र देहलवी जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’

      धर्म-जिसका स्वरूप ईश्वर की आज्ञा का यथावत पालन और पक्षपात-रहित न्याय सर्वहित करना है, जो कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिए यही एक मानने योग्य है, उसको धर्म कहते हैं। 

      आइये, हम धर्म और अधर्म के स्वरूप पर विचार करें और सदैव धर्माचरण करने का निश्चय करें। 

      श्री स्वामी दयानन्द जी महाराज ने धर्म का लक्षण करते हुए सबसे पूर्व ईश्वर की आज्ञा का यथावत पालन करना आवश्यक समझा, जिससे ईश्वर का मानना स्वतः सिद्ध है। उस ईश्वर को न मानने वाला इस लक्षण के अनुकल धर्मात्मा नहीं समझा जा सकता। 

      बहुधा ऐसे मनुष्य दुनिया में मिलेंगे, जिनका ईश्वर में विश्वास नहीं, परन्तु वे भी सृष्टि नियमों को मानते हैं और उन पर चलते हैं । ऐसे पुरुष पूर्ण धर्मात्मा नहीं कहे जा सकते, चूकि उन्होंने नियामक के आवश्यक अंग को नहीं माना जिसके बिना, किसी भी नियम का निर्माण होना असम्भव है । 

      अनुमान-प्रमाण विशेषकर मनुष्य के लिए ही है, जो कारण से कार्य और कार्य से कारण का अनुमान करके अपने कार्यों की सिद्धि करता है। प्रत्येक समय यह आवश्यक नहीं कि कार्य और कारण दोनों की प्रतीति एक ही साथ हो । यदि दुनिया में कहीं ऐसा नियम होता कि दोनों एक ही साथ होते तो अनुमान प्रमाण की आवश्यकता ही न होती। 

      जैसे बादलों को देखकर होने वाली वर्षा का और हुई वर्षा को देखकर उसके कारण रूप बादलों का अनुमान होता है, इसी प्रकार दु:ख को देखकर पाप-कर्मों का, और पापकर्मों को देखकर दुःखों का अनुमान होता है । यदि कोई दुःखों को देखकर पाप-कर्मों का अनुमान करे, या सन्तान को देखकर माता-पिता का, तो उसको पूर्ण ज्ञानी नहीं कह सकते । इसी प्रकार यदि कोई सृष्टि नियमों को देख कर और स्वीकार करके भी उनके नियामक को स्वीकार न करे, तो वह भी पूर्ण ज्ञानी न समझा जायेगा। और जो पूर्ण ज्ञानी ही नहीं, वह पूर्ण धर्मात्मा ही कैसे हो सकता है ? चूकि धर्मात्मा के लिए ज्ञानपूर्वक कर्मों की हो तो प्रधानता है। 

      यदि कोई यह शंका करे कि ईश्वर ने कानून तो बना दिया, पर वह अब कुछ नहीं करता और न आगे करने की आवश्यकता है। प्रत्येक कार्य उस ही नियम के अनुसार होता चला आ रहा है। और 
आगे भी होता रहेगा, तो क्या हानि ? इसका उत्तर यह है कि कानून स्वयं कुछ नहीं कर सकता जब तक कि चेतनकर्ता उसको अमल में न लाते, जैसे कि ताजीरात हिन्द किसी अपराधो का कुछ नहीं कर सकती, जब तक कि पुलिस उसको पकड़ कर जज के सामने पेश न करे और जज उसको उसके अपराध के अनुसार दण्ड न देदे । इसी प्रकार परमात्मा का कानून भी ईश्वर के स्वयं अमल में लाए बिना कुछ नहीं कर सकता। 

      जो ईश्वर को कानून का बनाने वाला तो मानता है लेकिन चलाने वाला नहीं मानते, उनको यह विचारना चाहिए कि जिस बुद्धि ने कानून का निर्माण किया है, वह ही बुद्धि उसको चला सकती है। प्रकृति जड़ होने से स्वयं न कोई कानून (नियम) बना सकती है और न किसी के बनाये नियम पर स्वयं स्वतन्त्रता से चल सकती है। जीवात्मा भी अल्पज्ञ होने से बिना ईश्वर से शरीर तथा ज्ञान प्राप्त किए न कोई नियम बना सकता है, न चल तथा चला सकता है। जीवात्मा इस प्रकार की ईश्वरीय सहायता प्राप्त करके भी, जो नियम बनाता या चलाता है, उसको भी वह अन्य पुरुषों की सहायता से ही कार्यरूप में परिणत करता है। कई स्थानों पर स्वयं अल्पज्ञ और अल्पशक्ति होने के कारण, अपनी इच्छा के विरुद्ध फल की प्राप्ति और असफलता का पात्र बनता है। जैसे आपने देखा होगा कभी-कभी बिना किसी इच्छा के स्वयं ठोकर लग जाती है तथा भोजन करते समय दांतों के तले जीभ कटकर कष्ट देती है। जिससे कि यह सिद्ध है कि कभी-कभी जीवात्मा अपने शरीर पर भी पूर्ण अधिकार नहीं रख पाता। पर परमात्मा सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् होने के कारण इकला ही सब नियमों को बनाता और स्वयं उन्हें चलाता है, यह हममें और परमात्मा में भेद है। 

      अब प्रश्न उठता है कि ईश्वर की आज्ञा कौन सी मानी जाय ? मुसलमान भाई कहते हैं कि कुरान ईश्वर का हुक्म है। ईसाई भाई बाईबिल को खुदा की पुस्तक बतलाते हैं, इस ही तरह अन्य मजहब भी। परन्तु इन सबको पुस्तकों में परस्पर भेद और विरोध होने के कारण सबकों ईश्वर की आज्ञा नहीं कहा जा सकता। 

      ईश्वर आज्ञा वह ही हो सकती है जो ईश्वर की भांति सार्वभौम हो, एकदेशी न हो । अर्थात् सब मनुष्यों के लिए हितकर हो, किसी विशेष देश या जाति का पक्षपात न हो तथा उसके दया, न्यायादि गुणों के विरुद्ध न हो, अर्थात् वेदानुकूल हो। 

◼️पक्षपात रहित न्याय - यह बहुत कम देखा जाता है कि मनुष्य न्याय करे और वह पक्षपात रहित हो । मनुष्य अल्पज्ञ और अल्पशक्तिमान होने के कारण कई दोषों से युक्त होता है । धन का लालच, रिश्तेदारी मित्रता, दूसरे का भय और मोह आदि उसको पूर्ण न्याय नहीं करने देते। ईश्वर इन त्रुटियों से रहित होने के कारण पक्षपात रहित न्याय करता है । अतः जो पुरुष ईश्वरीय गुणों के अनुकूल अपने गुण बनाकर संसार में कार्य करता और अपने जीवन को व्यतीत करता है वह एक समय पूर्वोक्त सम्पूर्ण दोषों से युक्त होकर पक्ष-पापरहित न्याय करने लग जाता है। पक्षपाती पुरुष अपना दायरा अत्यन्त संकुचित रखता है। यह केवल अपने में या जिसके साथ वह पक्षपात करता है, उस ही तक सीमित रहता है। परन्तु पक्षपात रहित कर्म करने वाला यजुर्वेद के - 

🔥यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्नेवानुपश्यति। 
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न वि चिकित्सति ॥ 
(यजु० ४० मन्त्र ६) 

      अनुसार अपने को सब प्राणियों में और सब प्राणियों को अपने में समझता है । एक देशी जीवात्मा के लिए यह असम्भव है कि वह ईश्वर की तरह सब वस्तुओं में व्याप्त हो जाय । उसके लिए एक यह ही प्रकार है कि वह अपने को "सर्वप्रिय" "सर्वहितकारी" बना सके, यह ही इसकी सर्वव्यापकता है। 

◼️सर्वहित - जिस न्याय में किसी का अहित न हो, वह पक्षपात रहित न्याय है। इसका दूसरा नाम सर्वहित है । ईश्वर इतना गम्भीर है कि दिन-रात सबका न्याय करता हुआ भी प्रत्येक जीव के हित को लक्ष्य से रख एक जीव के बुरे कर्मों को दूसरे पर प्रकट नहीं करता, चूकि वह जानता है कि बुराई के छुड़ाने में ऐसी बात साधक नहीं होती, अपितु बाधक होती है । जो जीव धर्म का आचरण करना चाहे, उसको “सर्वहितकारी" अवश्य होना चाहिए । प्रायः देखा जाता है कि मनुष्य एक दूसरे की निन्दा करने के लिए घर-घर मारे-मारे फिरते हैं और उनको तब तक चैन नहीं पड़ता, जब तक दस-बीस स्थानों पर किसी की निन्दा न कर आवें । परन्तु वे यह नहीं विचारते कि ऐसा करने से किसी का भी कोई हित नहीं होता, बल्कि अपनी ही आदत खराब होती है, और परस्पर रागद्वेष की वृद्धि होकर वैमनस्य बढ़ता है। 

      स्वार्थी पुरुष भी पूर्ण न्याय या सर्वहित नहीं कर सकता। वह अन्यों के लाभ की अपेक्षा स्वार्थ को अधिक मूल्यवान समझता है और दूसरे के बड़े-बड़े लाभ को अपने तुच्छ से तुच्छ लाभ पर कुर्बान कर देता है । बहुत से मतों के प्रवर्तकों ने अपने मान और प्रतिष्ठा के लिए अपनी न्यूनताओं (कमजोरियों) को भी अपने अनुयायियों का एक धार्मिक नियम बना दिया और कोम की आगे होने वाली उन्नति में एक जबर्दस्त रोड़ा अटकाया जिसके फलस्वरूप आज कुछ लोग "शारदा एक्ट" जैसे आवश्यक और अत्युपयोगी कानून को भी अपने मजहब के विरुद्ध मानकर उसका विरोध करते और कहते हैं कि हमारे पूर्वज इस प्रकार की कम उम्र वाली कन्याओं से शादी कर गये हैं, अतः यह कानून उनके विरुद्ध होगा, इसलिए हम नहीं मान सकते। इसके विरुद्ध ऋषि लोग ईश्वरभाव से प्रेरित हो तथा सर्वहित को लक्ष्य में रखकर जो कुछ कार्य कर गये, वह उन सम्पूर्ण दोषों से रहित था, जिनसे सामान्य पुरुष प्रायः शीघ्र मुक्त नहीं हो पाते। 

◼️प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित - प्रत्यक्षादि प्रमाण जो आगे आयेंगे, उनकी व्याख्या वहां की जावेगी। यहां केवल यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी चीज के लिए परीक्षा द्वार बन्द नहीं। किसी भी काम को खूब सोच समझ और परीक्षा करके करना चाहिए । यदि हम उन परीक्षाओं में ठीक और यथार्थ उतरे, तो धर्म और यदि न उतरे तो उसे अधर्म (अकर्तव्य) समझना चाहिए। इसलिए कि प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म का स्वयं उत्तरदाता हो, स्वयं परीक्षा करके ही प्रत्येक कार्य को करने की आज्ञा दी गई है। चाहे रेलवे का प्रबन्ध इन्जीनियरिंग के अधीन रखा गया है ओर आदमी दिन रात लाइन ओर पुलों की देखभाल करते रहते हैं, पर फिर भी ड्राइवर को सर्च लाइट और अपनी आंखों से देखकर चलाने की आज्ञा दी जाती है ताकि उसका वैयक्तिक उत्तरदायित्व उसके कार्य के साथ रहे। 

◼️वेदोक्त - वेद जो कि "विद् सत्तायाम, विद ज्ञाने, विद विचारणे" तथा "विदललाभे" इन धातुओं से सिद्ध होता है जिनका अर्थ हुआ कि जो सत्ता ज्ञान विचार और लाभ के सहित हो अर्थात् सर्वप्रथम वेद द्वारा हमें प्रत्येक वस्तु की सत्ता का उपदेश होता है, तत्पश्चात उन वस्तुओं तथा उनके गुण और व्यवहारादि का ज्ञान होता है । ज्ञान होने के अनन्तर ही हम उसके सूक्ष्म विषयों पर विचार करने में समर्थ हो पाते हैं, अन्त में इसी क्रम से हमें उस ज्ञान और विचार के अनरूप लाभ की प्राप्ति होती है। इस प्रकार उस वेद से उपदिष्ट कर्मों को जो कि मोटे शब्दों में ज्ञानानुकूल और विचार पूर्वक हों उन्हें धर्म कहा जाता है । इस ही लिए महात्मा मनु ने अपनी स्मृति में- 🔥"वेदोअखिलो धर्म मूलम्" तथा 🔥"धर्म जिज्ञासासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः" कहा अतएव प्रत्येक व्यक्ति को इस प्रकर के वेदोक्त कर्मों को करना ही अपना धर्म समझना और उसका अनुष्ठान करना चाहिए। 

◼️अधर्म - जिसका स्वरूप ईश्वर की आज्ञा को छोड़कर और पक्षपात सहित अन्यायी होकर बिना परीक्षा करके अपना हित करना है जो अविद्या, हठ, अभिमान, क्रूरतादि दोषों से युक्त होने के कारण वेद विद्या से विरुद्ध है और सब मनुष्यों को छोड़ने के योग्य है, वह अधर्म कहाता है। 

      यद्यपि किसी विशेष व्याख्या की आवश्यकता नहीं चूकि धर्म समझ लेने के बाद सिर्फ इतना विशेष याद रखना चाहिए कि जो धर्म से विपरीत अर्थात उल्टा हो उसे अधर्म कहते हैं। ऋषि दयानन्द ने मत-मतान्तरों को इसी कसौटी पर कस उन्हें मत-मतान्तर के नाम से निर्देश किया या मजहब बतलाया। चूकि उन सम्पूर्ण मजहबों में जो कि अपने को धर्म के नाम से पुकारते थे, उपयुंक्त दोष थे, जैसे कोई ईश्वर की सत्ता को ही न मानते थे, अर्थात् नास्तिक थे। जब वे ईश्वर ही को न मानते थे तो फिर ईश्वर की आज्ञा को ही कैसे मानते । लिहाजा ऋषि ने उन्हें भी कहा कि तुम्हारा मत धर्म नहीं कहा जा सकता कि वह धर्म के एक आवश्यक अंग से रहित है, अतः वह मजहब है। इस ही प्रकार जो लोग ईश्वर की सत्ता को मानते थे पर उसको आज्ञाओं में पक्ष-पात मानकर किसी एक देश या जाति के लोगों से पक्षपात या प्रेम और दूसरों से नफरत प्रकट करते थे, या ईश्वर के नाम पर यज्ञों में अथवा देवो-देवताओं के सामने पशु हत्या आदि करके अपनी क्रूरता और मूर्ति पूजा आदि करके जड़ में चेतना को मानकर अपनी अविद्याप्रियता का परिचय देते थे, उन्हें तथा जिनके ग्रन्थों में निरी असम्भव और विश्वास न करने लायक बातें भरी पाई, ऋषि ने कहा कि तुम्हारा मत भी सिर्फ मत यानी मजहब है । वह धर्म का स्थान नहीं ले सकता । इसीलिए वह सम्पूर्ण मनुष्य के लिए मान्य न होकर सिर्फ तुम लोगों ही की स्वार्थ पूर्ति के लिए हो सकता है । अतः प्रत्येक समझदार मनुष्य को इस प्रकार मजहबों या मत-मतान्तरों को दूर से ही प्रणाम करके छोड देना चाहिए जिससे कि उसका जीवन व्यर्थ बर्बाद न हो। 

🎙व्याख्याता - शास्त्रार्थ महारथी पं॰ रामचंद्र देहलवी जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

Monday, November 18, 2019

Swami Dayanand and Ramanujacharya



Swami Dayanand and Ramanujacharya 

D.S.Balaji Arya 

Recently Shri Nishchalaland Ji Sarawati; Shankaracharya of Govardhan Math Puri has made a statement about Shri Ramanujacharya and Swami Dayanand. According to him, Swamy Dayanand followed the theories and interpretation of Ramanujacharya, except Avtar and Idol worship. Nishchalanand Ji is very much correct but there is a very a little glitch in his statement.

Swami Dayanand did not follow Ramanujacharya or any other medieval saint while interpreting the Vedas. The only source and texts Swamy Dayanand followed were Vedas. Keeping in mind the logics and natural laws which govern the multiverse, he came to the most obvious conclusions concerned with the Vedic Dharma.

Undoubtedly, Ramanujacharya was one of the very few saints who preserved and conserved the Vedic Religion in his times. Ramanujacharya and his established Sri Vaishnav sect is the reason nobody can today Shri Ram and Krishna in major parts of South India. Shri Ramanujacharya revived the Vedic Varnashram while destroying the ruthless birth Based Caste system. Shri Ramanujacharya denounced Animal Sacrifice and many such misconceptions about Vedas. Shri Ramanujacharya revived the tradition of Women Education, which was prohibited by many anti-Vedic forces.

So if Swami Dayanand seems to be akin to Ramanujacharya, it's nothing but a matter of pride. As it is undoubtedly at par with the divine Vedas.

Similarities between Shri Ramanujacharya and Swami Dayananda

(1). Both Swami Dayananda and Ramanujacharya acknowledged the existence of three eternal realities - Jivatma, Prakruti and Paramatma.

(2). Both gave more emphasis on the Shrutis (Vedas, Upanishads). Unlike other medieval sects like Shaiv, Shakti with moved far away from Vedas got stuck into their respective Purans alone.  

(3).Swami Dayananda rejected all the Puranas. While Ramanuja accepted the Puranas partially only by explicitly rejecting anything which goes against Vedas. The only Puran that his sect fully accepts is Vishnu Puran. They even reject portions of Bhagwad Puran. They don't believe in the existence of Puranic characters which do not find mention in Itihaasas or Shrutis, like Radha.

(4). Both worked for eradication of untouchability and upliftment of Shudras. Ramanujacharya ensured that every devotee is allowed inside temples and is treated respectfully, irrespective of caste or creed. Ramanuja challenged the existing notion of his times that only a Brahmin by birth is eligible for Moksha. He said that every true devotee of Narayana (God) can achieve Moksha and that it has nothing to do with one's caste. In his sect, it is believed that a true devotee of Narayana (irrespective of his or her caste) is superior to all mortal humans including Brahmins. Ramanuja belonged to the tradition which was started by 12 Azhvars, of whom the most venerated is Nammazhvar (Shatkopa muni), who was a Shudra by caste. Ramanuja's entire sect worships Nammazhvar as a liberated devotee who shows the path to Narayana.

(5). Dayananda believed that individual Moksha is a very selfish pursuit, one must strive for Moksha for all. Going against the wishes of his Guru, Ramanuja made the mantra of 'Om Namo Narayana' public, stating that liberation of all the people is more important to him than his liberation.

(6). At old age, Ramanuja used to take support from his brahmin followers while walking to the river for bathing. But during his way back home, he used to take support from his Shudra followers. One day, one of his followers asked him that why he puts himself on the shoulders of a Shudra just after cleaning himself in the river. He answered that water cleans his body while taking support from a Shudra cleans his ego of being born in a high caste, which he said is akin to internal dirt.

(7). Both of Ramanujacharya and Dayananda give special emphasis on Yajna. The recently held Chaturved Swahakar yajna by VHP in New Delhi was conducted by Sri Vaishnava pundits under the supervision of Chinna Jeeyar Swami.

(8). Both Ramanujacharya And Swami Dayanand condemned any existence of Animal Sacrifice in Vedas and considered a Vegetarian diet the only Sattvik way of life.

Minute Differences between both of these great Saint - 

(1). Dayananda believed God is internally formless. Ramanuja believed God has the most beautiful form.

(2). Dayananda believed God never takes avatars, but Ramanuja supported this view, which seems to be his way of collecting and uniting the people at his time.

(3). Dayananda condemned Idol worship. Ramanuja taught that God can be perceived in fiveways, out of which one is Archa (worshippable idol). Even Shri Ramanujacharya never mentioned idol worship as a part of Vedas but he upheld the authorities of certain Agamas which mentions Idol Worship.

Swami Dayanand in his revolutionary book Satyarth Prakash's Chapter 11 critically analyses all the major sects of Hinduism. In which he analyzes the Vishishtadvait philosophy of Sri Ramanujam too. Comparing it with the typical Advait philosophy which propagates Brahma and Jeeva as one. With a line - Brahma Satyam, Jagat Mitya, which means god is true and the world is a myth. Whereas Sri Ramanujacharya calls Jeeva, Brahma and Maya all as nitya(Consistent). 

These are a few facts about Shri Ramanujacharya and Swami Dayanand. Which seems to be very much similar as both are close to the Vedas leaving away the pollutants.

Tuesday, November 12, 2019

स्वामी दयानन्द और आर्यावर्त्त



स्वामी दयानन्द और आर्यावर्त्त

डॉ विवेक आर्य

स्वामी दयानन्द ने स्वमन्तव्य-अमन्तव्य प्रकाश में 'आर्यावर्त्त' की परिभाषा इस प्रकार से दी है।

'आर्यावर्त्त' देश इस भूमि का नाम इसलिए है कि जिस में आदि सृष्टि से पश्चात आर्य लोग निवास करते हैं परन्तु इस  उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विंध्याचल, पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी है। इस चारों के बीच में जितना देश है उसी को 'आर्यावर्त्त' कहते और इस में सदा रहते हैं उन को भी आर्य कहते हैं।

सत्यार्थ प्रकाश अष्ठम समुल्लास में भी स्वामी दयानन्द मनुस्मृति 2/22 का सन्दर्भ देते हुए लिखते है कि-

आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्।तयोरेवान्तरं गिर्योरार्य्यावर्त्तं विदुर्बुधाः।।१।।
सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम् ।तं देवनिर्मितं देशमार्यावर्त्तं प्रचक्षते।।२।। मनु०।

उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पूर्व और पश्चिम में समुद्र।।१।। तथा सरस्वती पश्चिम में अटक नदी, पूर्व में दृषद्वती जो नेपाल के पूर्व भाग पहाड़ से निकल के बंगाल के आसाम के पूर्व और ब्रह्मा के पश्चिम ओर होकर दक्षिण के समुद्र में मिली है जिस को ब्रह्मपुत्र कहते हैं और जो उत्तर के पहाड़ों से निकल के दक्षिण के समुद्र की खाड़ी में अटक मिली है। हिमालय की मध्यरेखा से दक्षिण और पहाड़ों के भीतर और रामेश्वर पर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने देश हैं उन सब को आर्यावर्त्त इसलिये कहते हैं कि यह आर्यावर्त्त देव अर्थात् विद्वानों ने बसाया और आर्यजनों के निवास करने से आर्यावर्त्त कहाया है।

यहाँ पर स्वामी जी ने रामेश्वर पर्यन्त विन्ध्याचल शब्दों का प्रयोग किया है। वर्तमान में विंध्याचल पर्वतमाला मध्य और पश्चिमी भारत में मिलने वाली पर्वतमाला को कहते हैं। ऐसे में यह भ्रान्ति हो जाती है कि क्या स्वामी दयानन्द केवल उत्तर और मध्य भारत को आर्यावर्त्त कहते हैं। दक्षिण को  आर्यावर्त्त का भाग नहीं मानते। ऐसी भ्रान्ति प्रसिद्द लेखक रामधारी सिंह दिनकर को भी हुई थी। उन्होंने "संस्कृति के चार अध्याय" पुस्तक में आर्यसमाज विषय पर लिखते हुए इस विषय पर लिखा कि

"स्वामी दयानन्द ने तो संस्कृत की सभी सामग्रियों को छोड़कर केवल वेदों को पकड़ा और उनके सभी अनुयायी भी वेदों की दुहाई देने लगे। परिणाम इसका यह हुआ कि वेद और आर्य, भारत में ये दोनों सर्व प्रमुख हो उठे और इतिहासकारों में भी यह धारणा चल पड़ी कि भारत की सारी संस्कृति और सभ्यता वेद वालों अर्थात आर्यों की रचना है।"

"हिन्दू केवल उत्तर भारत में ही नहीं बस्ते और न यही कहने का कोई आधार था कि हिंदुत्व की रचना में दक्षिण भारत का कोई योगद्दान नहीं है।  फिर भी स्वामीजी ने आर्यावर्त की जो सीमा बाँधी है, वह विंध्याचल पर समाप्त हो जाती है।  आर्य-आर्य कहने, वेद-वेद चिल्लाने तथा द्रविड़ भाषाओं में सन्निहित हिंदुत्व के उपकरणों से अनभिज्ञ रहने का ही यह परिणाम है कि आज दक्षिण में आर्य-विरोधी आंदोलन उठ खड़ा हुआ है। "

"इस सत्य पर यदि उत्तर के हिन्दू ध्यान देते तो दक्षिण के भाइयों को वह कदम उठाना नहीं पड़ता, जिसे वे आज उपेक्षा और क्षोभ से विचलित होकर उठा रहे है।"

दिनकर जी विषय को न सही से समझा न स्वामी जी की परिभाषा पर चिंतन किया। उल्टा स्वामी जी पर आक्षेप कर दिया जो उन्हें शोभा नहीं देता। असल में वो साहित्यकार थे। इतिहास तत्त्वेत्ता नहीं।

स्वामी जी की परिभाषा में रामेश्वर पर्यन्त विंध्याचल लिखा है जबकि दिनकर जी केवल मध्य भारत तक ही विंध्याचल समझ रहे है। जबकि वाल्मीकि रामायण के किष्किंधा कांड में कई श्लोकों में विंध्य पर्वत का वर्णन मिलता है।

१. सुग्रीव बाली के भय से दक्षिण दिशा को जाते हुए कहते है- उस दिशा को छोड़कर मैं फिर दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थित हुआ जहाँ विंध्य पर्वत पर वृक्ष और चन्दन के वृक्ष शोभा बढ़ाते हैं। किष्किंधा कांड 46/1
२.  सीता को खोजते हुए हनुमान जी इसी कांड में 48/2 एवं 52/31-32 श्लोक में विंध्य पर्वत, प्रस्रवण गिरी और सागर तीनों पास में होने का वर्णन करते हैं।
३. इसी कांड में 53/3 श्लोक में लिखा है कि सीता को न पाकर हनुमान आदि विंध्य पर्वत की तलहटी में बैठकर चिंता करने लगे।
४. इसी कांड में सम्पाती विंध्य की कन्दराओं से निकल कर हनुमान से वार्तालाप करता हैं। यह वर्णन श्लोक 56/3 में मिलता हैं।

ऐसे अनेक प्रमाण यह सिद्ध करते है कि रामायण काल में विंध्य पर्वत दक्षिण भारत में सागर के समीप पर्वत श्रंखला का नाम था। मेरे विचार से आज कल   भारत के पश्चिमी तट पर स्थित पर्वत श्रृंखला को पश्चिमी घाट या सह्याद्रि कहते हैं। उसी का नाम विंध्य था। यह नामकरण कब और कैसे परिवर्तित हुआ। इस पर अनुसन्धान की आवश्यकता हैं। मगर रामायण की आत्मसाक्षी से यह सिद्ध होता है कि विंध्य पर्वतमाला दक्षिण भारत में ही थी। दिनकर जी की बात गलत सिद्ध होती हैं। उत्तर और दक्षिण भारत के मध्य विवाद का मुख्य कारण विदेशी लेखकों द्वारा आर्यों को विदेशी और दक्षिण भारतीय को मूलनिवासी बताने की कल्पना  करना हैं। ऐसी भ्रांतियों का समूल निराकारण हो ताकि भारत देश के वासी एकता और अखंडता का वरण करें।  स्वामी दयानन्द का उद्देश्य केवल समस्त मानव समाज का उपकार करना था। 

Monday, November 4, 2019

संस्कृत भाषा का महत्त्व और उसका शिक्षण




संस्कृत भाषा का महत्त्व और उसका शिक्षण

लेखक- डॉ० भवानीलाल भारतीय
प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ, डॉ० विवेक आर्य
सहयोगी- डॉ० ब्रजेश गौतमजी

स्वामी दयानन्द संस्कृत भाषा के प्रचार प्रसार को स्वदेश की उन्नति के लिए अत्यावश्यक समझते थे। उनका यह सत्य विश्वास था कि भारत की प्राचीन परम्परा और संस्कृति संस्कृत साहित्य में सुरक्षित है। आर्यों के प्राचीन धर्म, दर्शन, अध्यात्म तथा जीवन दर्शन को यदि समझना हो तो संस्कृत का ज्ञान होना अपरिहार्य है। उन्होंने स्वयं तो संस्कृत का प्रचार किया ही, अन्यों को भी इस कार्य में प्रवृत्त होने के लिए कहा। स्वामीजी ने जब इस देश में जन्म लिया उस समय यहां विदेशी अंग्रेजों का राज्य था। राज कार्य की भाषा अंग्रेजी थी और उर्दू-फ़ारसी का प्रचलन पढ़े लिखे लोगों में अधिक था। संस्कृत का अध्ययन ब्राह्मणों तक सीमित रह गया था और उनमें भी मात्र काम चलाऊ संस्कृत ज्ञान को ही पर्याप्त समझा जाता था जो पौरोहित्य कर्म में उनका सहायक होता। ऐसी स्थिति में संस्कृत भाषा के अध्ययन-अध्यापन तथा प्रचार-प्रसार के लिए बद्ध परिकर होना, स्वामी दयानन्द की एक महती देन थी।

आदिम सत्यार्थप्रकाश (१८७५) के १४वें समुल्लास के अन्त में उन्होंने एक विस्तृत विज्ञापन परिशिष्ट रूप में दिया था जिसमें संस्कृत भाषा का महत्त्व, स्वल्प आत्म वृतान्त तथा कुछ अन्य उपयोगी विषयों का समावेश था। इस परिशिष्ट (विज्ञापन) का आरंभ वे इन पंक्तियों से करते हैं- "इससे मेरा यह विज्ञापन है आर्यावर्त का राजा इंगरेज बहादुर से कि संस्कृत विद्या की ऋषि-मुनियों की रीति से प्रवृत्त करावे। इससे राजा और प्रजा को अनन्त सुख लाभ होगा और जितने आर्यावर्तवासी सज्जन लोग हैं उनसे भी मेरा कहना है कि इस सनातन संस्कृत विद्या का उद्धार अवश्य करें, ऋषि मुनियों की रीति से, अत्यन्त आनन्द होगा और जो संस्कृत विद्या लुप्त हो जायेगी तो सब मनुष्यों की बहुत हानि होगी इसमें कुछ सन्देह नहीं।" (भाग १, पृ० ३५-३६)
यहां यह बात ध्यातव्य है कि स्वामीजी को ऋषि मुनियों की शैली से ही संस्कृत का पठन-पाठन इष्ट था। अर्थात् वे आर्ष ग्रन्थों के प्रचार-प्रसार को मानव के लिए हितकारी मानते थे और व्याकरण के अध्ययन में महर्षि पाणिनि तथा पतंजलि कृत अष्टाध्यायी तथा महाभाष्य के अध्ययन की उपयोगिता को आवश्यक समझते थे। अनार्ष ग्रन्थों की सहायता से संस्कृत का सम्यक् बोध नहीं होता यह उनका ध्रुव निश्चय था। इसी विज्ञापन में आगे वे लिखते हैं- "परन्तु आर्यावर्त देश की स्वाभाविक सनातन विद्या संस्कृत ही है जो कि उक्त प्रकार से प्रथम कही, उसी (रीति) से इस देश का कल्याण होगा अन्य देश भाषा से नहीं। अन्य देश भाषा तो जितना प्रयोजन हो उतना ही पढ़नी चाहिए और विद्या स्थान में संस्कृत ही रखना चाहिए।" (भाग १, पृ० ४२)

संस्कृत की शिक्षा सुगम रीति से आर्ष पद्धति को अपनाने से ही हो सकती है और इसके लिए पाणिनीय शास्त्र के ज्ञान को स्वामीजी आवश्यक समझते थे। उन्होंने स्वयं अष्टाध्यायी का सुगम संस्कृत और हिन्दी में भाष्य लिखने का विचार किया और इसके बारे में एक विज्ञापन प्रकाशित कराया। इस विज्ञापन में उन्होंने स्पष्ट लिखा कि संस्कृत विद्या की उन्नति सर्वथा अभीष्ट है और यह व्याकरण बिना नहीं हो सकती। संस्कृत के प्रचलित कौमुदी, चन्द्रिका, सारस्वत, मुग्धबोध और आशु बोध आदि ग्रन्थों को वे संस्कृत शिक्षण में अपर्याप्त समझते थे क्योंकि इनसे वैदिक विषय का यथावत् ज्ञान नहीं होता। अतः उस विज्ञापन में उन्होंने स्पष्ट किया कि- "वेद और प्राचीन आर्ष ग्रन्थों के ज्ञान के बिना किसी को संस्कृत विद्या का यथार्थ फल नहीं हो सकता।" (भाग १, पृ० १४२)

संस्कृत का आर्ष रीति से शिक्षण कराने के लिए स्वामीजी ने भिन्न-भिन्न स्थानों पर संस्कृत पाठशालाओं की स्थापना की। उनके द्वारा फर्रूखाबाद में सर्वप्रथम ऐसी पाठशाला स्थापित की गई और वहां के धनी-मानी, सम्पन्न सेठ-साहूकारों को इसके संचालन का भार सौंपा गया। स्वामीजी का प्रयोजन तो इन शालाओं के द्वारा प्राचीन संस्कृत भाषा तथा आर्ष वाङ्मय का पुनरुद्धार करना था किन्तु हुआ इसके विपरीत। प्रचलित रीति के अनुसार इन विद्यालयों में भी संस्कृत अध्यापन को गौण कर दिया गया और अंग्रेजी आदि के पठन-पाठन को महत्त्व मिलने लगा। जब स्वामीजी को यह समाचार मिला तो वे अत्यन्त खिन्न हुए और शिकायत के लहज़े में सेठ निर्भयराम को लिखा- "कालीचरण रामचरण के पत्र से विदित हुआ कि आप लोगों की पाठशाला में संस्कृत का प्रचार बहुत कम और अन्य भाषा अंग्रेजी व उर्दू-फ़ारसी अधिक पढ़ाई जाती है। उससे वह अभीष्ट जिसके लिए यह शाला खोली गई है सिद्ध होता नहीं दीखता। वरन् आपका यह हजारहा मुद्रा का व्यय संस्कृत की ओर से निष्फल होता भासता है।... आप लोग देखते हैं कि बहुत काल से आर्यावर्त में संस्कृत का अभाव हो रहा है। वरन् संस्कृत रूपी मातृ भाषा की जगह अंग्रेजी लोगों की मातृभाषा हो चली है।" आगे वे लिखते हैं कि अंग्रेजी का प्रचार तो (ब्रिटिश) सम्राट् की ओर से ही हो रहा है क्योंकि वह आज के हमारे शासकों की मातृभाषा है। पुनः हम उसके लिए उद्योग क्यों करें? उन्हें इस बात का खेद है कि हमारी अति प्राचीन मातृभाषा संस्कृत का सहायक वर्तमान में कोई नहीं है। पत्र में आगे उन्होंने सेठ निर्भयराम को निर्देश दिया है कि आगे से पढ़ाई के छः घण्टों में संस्कृत को तीन घण्टे मिले, अंग्रेजी को दो तथा उर्दू-फ़ारसी को एक घण्टा दिया जाए। वे इस बात पर भी जोर देते हैं कि छात्रों की संस्कृत में नियमित परीक्षा ली जाये और प्रश्नोत्तर (परीक्षा फल) उनके पास भेजा जाये। (भाग २, पृ० ५०१-५०२) उपर्युक्त पत्र से स्वामीजी की संस्कृति विषयक चिन्ता सुस्पष्ट हो जाती है। फर्रूखाबाद के बाबू दुर्गाप्रसाद को लिखे अपने पत्र में भी वे संस्कृत के बारे में ताकीद करना नहीं भूले। यहां लिखा, "पाठशाला में संस्कृत का काम ठीक ठीक होना चाहिए।... इस पाठशाला में मुख्य संस्कृत जो मातृ भाषा है उसकी ही वृद्धि होनी चाहिए। वरन् फ़ारसी का होना कुछ अवश्य (आवश्यक) नहीं। केवल संस्कृत और राजभाषा अंग्रेजी दो ही का पठन-पाठन होना अवश्य (आवश्यक) है।" (भाग २, पृ० ५०४-५०५) स्वस्थापित संस्कृत पाठशालाओं से यदि संस्कृत शिक्षा के लक्ष्य की पूर्ति नहीं होती तो वे उनको चलाये जाने के पक्ष में नहीं थे। बाबू दुर्गाप्रसाद को लिखे एक अन्य पत्र में उन्होंने पूछा है कि "पाठशाला में संस्कृत पढ़ के कितने विद्यार्थी समर्थ हुए। अथवा अंग्रेजी-फ़ारसी में ही व्यर्थ धन जाता है सो लिखो। जो व्यर्थ ही हो तो क्यों पाठशाला खोली जाए।" (भाग २, पृ० ६२५) स्वामीजी के पत्रों से उपर्युक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे आजीवन संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार में लगे रहे। सामान्यजनों को ही नहीं, यहां के राजा-महाराजाओं को भी अपने राजकुमारों को संस्कृत पढ़ाने का निर्देश, उपदेश उन्होंने दिया।

संस्कृत पाठशालाओं की स्थापना
आर्ष पाठ विधि से संस्कृत की शिक्षा देनी उचित है, इस मान्यता के कारण स्वामी दयानन्द ने कुछ नगरों में संस्कृत पाठशालाएं स्थापित कीं। उनका विचार था कि इन पाठशालाओं में शिक्षा प्राप्त छात्र पौराणिक कट्टरता से मुक्त होंगे तथा भावी जीवन में वैदिक विचारधारा तथा आर्य सिद्धान्तों को अपना कर समाज के उत्थान हेतु कार्य करेंगे। जिस पाठ विधि का प्रचलन वे अपनी पाठशालाओं में करना चाहते थे उसकी विस्तृत रूपरेखा उन्होंने सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में लिख दी थी। सर्वप्रथम फर्रूखाबाद में सेठ पन्नीलाल की आर्थिक सहायता से स्थापित संस्कृत पाठशाला से उन्होंने अपनी उपर्युक्त योजना का क्रियान्वयन करना चाहा। उन्हें यह उचित लगा कि विरजानन्द की पाठशाला में जिन छात्रों ने अध्ययन किया है वे आर्ष व्याकरण में निष्णात हैं और यदि उन्हें इन शालाओं में अध्यापक नियुक्त किया जाता है तो वे अवश्य ही छात्रों को आर्ष व्याकरण तथा ऋषि-मुनियों द्वारा लिखे गए अन्य शास्त्रों एक अध्ययन करायेंगे।

फर्रूखाबाद की पाठशाला के लिए उनका ध्यान अपने सहपाठी तथा व्याकरण के अद्वितीय विद्वान् पं० गंगादत्त शर्मा (चौबे) की ओर गया। उन्होंने १ सितम्बर १८७० को एक पत्र संस्कृत में लिख कर मथुरा भेजा। पत्र फर्रूखाबाद से भेजा गया था। पत्र के आरम्भ में 'स्वस्ति' के उल्लेख के साथ गंगादत्त शर्मा को दयानन्द सरस्वती स्वामी का आशीर्वाद निवेदन किया गया था। पत्र में उन्हें शीघ्र फर्रूखाबाद आकर पाठशाला का कार्य सम्भालने के लिए कहा गया था। प्रतिदिन एक रौष्य मुद्रा (मासिक तीन रुपये) वेतन निश्चित किया गया तथा भविष्य में तरक्की कर देने की भी बात कही गई थी। यहां आने को स्वामीजी ने सर्व प्रकार से शोभन बताया तथा इसमें विलम्भ न करने के लिए कहा। साथ ही यह भी लिखा कि अध्यापन कार्य में सहायक अष्टाध्यायी, महाभाष्य, धातु पाठ, उणादि पाठ, वार्तिक पाठ, परिभाषापाठ, गणपाठ आदि ग्रन्थ वे साथ लेते आयें। इनके साथ ही वेद की पुस्तकें भी लायें। स्वामीजी ने तो मार्ग व्यय के लिए पं० गंगादत्त को दस रुपये भी भेजे थे किन्तु किसी वैयक्तिक समस्या के कारण ये पण्डितजी फर्रूखाबाद नहीं आये और स्वामीजी के भेजे रुपये लौटा दिये। (मूल पत्र के लिए भाग- १, पृ० ७-८ देखें)

विद्या की नगरी काशी में भी स्वामीजी ने संस्कृत पाठशाला स्थापित की थी। जीवन-चरितों से पता लगता है कि इस पाठशाला के लिए जनता से धन एकत्र करने के लिए स्वामीजी ने कानपुर निवासी बाबू शिवसहाय को नियुक्त किया था। २९ मई १८७४ को काशी से भेजे एक पत्र में स्वामीजी ने उक्त सज्जन को काशी की पाठशाला की स्थिति से अवगत कराया- "यहां की पाठशाला का प्रबन्ध बहुत अच्छा है। एक छ: शास्त्रों का पढ़ाने वाला बहुत उत्तम अध्यापक रखा गया है। वैसा ही एक वैयाकरण स्थापन किया गया है। दशाश्वमेध घाट पर स्थान लिया गया है बहुत उत्तम। केदारघाट का स्थान अच्छा नहीं था।" (भाग १, पृ० ३३)

आर्य विद्यालय काशी की स्थापना दिसम्बर १८७३ में केदारघाट पर हुई थी। १९ जून १८७४ को इसे मित्रपुर भैरवी मौहल्ला में मिश्र दुर्गाप्रसाद के स्थान पर ले आया गया। कविवचनसुधा (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के सम्पादन में काशी से प्रकाशित मासिक) तथा बिहारबंधु के अंकों में विद्यालय की व्यवस्था सम्बन्धी एक विज्ञापन क्रमशः २० जून १८७४ तथा २८ जून १८७४ के अंकों में छपा। इस विज्ञापन में निम्न बातें विशेष उल्लेखनीय थीं-

१. पठन-पाठन का समय प्रातः दस-ग्यारह तक तथा मध्यान्ह में १ बजे से ५ बजे तक होगा।
२. अध्यापक होंगे पं० गणेश श्रोत्रिय।
३. छहों दर्शन, ईश से लेकर बृहदारण्यक पर्यन्त दस उपनिषद्, मनुस्मृति, कात्यायन और पारस्कर के गृह्य सूत्र, पश्चात् चारों वेद, उपवेद तथा ज्योतिष आदि वेदांग पढ़ाये जायेंगे।
४. परीक्षा में उत्तम अंक प्राप्त करने वाले छात्र पारितोषिक प्राप्त करेंगे।
५. छात्रों की मासिक परीक्षा होगी। त्रैवर्णिक छात्र वेद पढ़ सकेंगे। मन्त्र भाग छोड़ कर शूद्र सब शास्त्र पढ़ेंगे।
विज्ञापन के अन्त में आशा व्यक्त की गई थी कि इससे ही आर्यावर्त देश की उन्नति होगी। (भाग १, पृ० ३०-३५)

स्वामीजी ने बड़ी आशाएं लेकर संस्कृत पाठशालाओं की स्थापना की थी, किन्तु उनके स्वप्न साकार नहीं हुए। इन पाठशालाओं की असफलता के अनेक कारण थे। प्रथम तो आर्ष पाठ विधि से पढ़ाने वाले योग्य अध्यापकों का अभाव था। स्वामीजी ने इस कमी को अपने सहपाठियों को अध्यापक नियुक्त कर दूर करना चाहा किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। पं० उदयप्रकाश तथा पं० युगलकिशोर (दोनों सहपाठी) क्रमशः फर्रूखाबाद की पाठशालाओं में अध्यापक बनाये गए, किन्तु ये लोग छोड़ कर चले गये। योग्य छात्रों का न मिलना भी शालाओं की असफलता का एक कारण बना। अधिकांश छात्र संस्कृत पढ़कर पौराहित्य तथा फलित ज्योतिष के द्वारा जीवनयापन करने के उद्देश्य से इन शालाओं में आते थे। किन्तु स्वामी दयानन्द द्वारा निर्धारित पाठ विधि से प्रशिक्षित छात्र न तो पौराणिक कर्मकाण्ड (गणेश पूजन, नवगृह पूजन, मंदिरों में पुजारी का कार्य, श्राद्ध में भोजन, पौराणिक और्ध्व-दैहिक कृत्य आदि) ही करा सकते थे और न फलित ज्योतिष को अपना सकते थे। अतः इन पाठशालाओं के लिए उनका आकर्षण कम ही रहा। पुनः इसके संचालन में भी त्रुटियां होती रहीं। स्वामीजी पाठशाला स्थापित कर उसका संचालन स्थानीय सेठ-साहूकारों तथा वहां के गणमान्य व्यक्तियों के सुपुर्द कर देते। ये लोग आगे चलकर शाला प्रबन्धन से दूर हट जाते अथवा उसमें कम दिलचस्पी लेते। स्वामीजी तो सतत भ्रमण में रहते थे इसलिए किसी एक स्थान पर टिक कर वहां की पाठशाला का प्रबन्ध देखना उनके लिए सम्भव नहीं था। इन्हीं कारणों से स्वामीजी द्वारा स्थापित ये पाठशालाएं धीरे-धीरे बन्द हो गईं। ७ मार्च १८७४ को लिखे एक पत्र से ज्ञात होता है कि अध्यापकों के प्रमाद से पाठशाला में छात्र कम हो रहे थे। इस पत्र में लिखा है- "हमको अनुमान से ज्ञात है कि युगलकिशोर से पढ़ाया नहीं गया होगा... जो ऐसे ऐसे विद्यार्थी चले जायेंगे तो पढ़ाने वाले की त्रुटि गिनी जायेगी।" (भाग १, पृ० ३२)
निश्चय ही आर्ष पाठ विधि की इन पाठशालाओं का बन्द हो जाना एक दुःखान्तिका थी।

पाद टिप्पणियां:
१. सिद्धान्त कौमुदी आदि व्याकरण के अनार्ष ग्रन्थों के प्रचलन के कारण पाणिनीय तथा पातञ्जल आर्ष प्रणाली का ह्रास हो गया था। यह कहा जाने लगा कि संस्कृत व्याकरण के ज्ञान के लिए कौमुदी ही पर्याप्त है, महाभाष्य का अध्ययन व्यर्थ है-
कौमुदी यदि कण्ठस्था वृथा भाष्ये परिश्रम:।
कौमुदी यद्यकण्ठस्था वृथा भाष्ये परिश्रम:।।

२. पं० गंगादत्त का व्याकरण ज्ञान अद्वितीय था। इनके बारे में निम्न श्लोक प्रसिद्ध था-
पलायध्वं पलायध्वं भो भो दिग्गज तार्किका:।
गंगादत्त समायातो वैयाकरण केसरि:।।
हे दिग्गज तार्किको, तुम भाग जाओ। नहीं जानते, तुम्हारे समक्ष वैयाकरण-केसरी आ गया है।

३. पं० शिवकुमार शास्त्री को इस पाठशाला में २५ रुपये मासिक पर अध्यापक रखा गया। वे यहां व्याकरण पढ़ाते थे। इनका वेद का ज्ञान पर्याप्त नहीं था। इसलिए इन्हें हटा कर पं० गणेश श्रोत्रिय को १५ रुपये मासिक पर वेद का अध्यापक नियत किया गया। (भाग ४ पृ० ६६३)

४. पं० उदयप्रकाश स्वामीजी के वरिष्ठ सहपाठी थे। किन्तु उनके विचार सदा पौराणिक ही रहे। फर्रूखाबाद की पाठशाला में रहते हुए उन्होंने छात्रों को स्वामीजी के विरोध में यह कह कर भड़काना चाहा कि यह तो 'मुण्डा बाबा' है। इसके बताये मार्ग पर चलने से तुम्हें पौरोहित्य वृत्ति (पुजारी का व्यवसाय, श्राद्धों में जाकर घर-घर जीमना आदि) से हाथ धोना पड़ेगा। जब स्वामीजी को पं० उदयप्रकाश की इन बातों की जानकारी मिली तो उन्होंने सहज भाव से इतना ही कहा- "सोटा, लंगोटा वाला मुण्डा बाबा बोलता है सो तो पहले भी (मथुरा की पाठशाला में) बोलता था। मेरा सहपाठी है। लेकिन वेदोक्त धर्म के विरुद्ध बोलता है और पोप (पाखण्ड मत-पौराणिक धर्म) धर्म का प्रचार करता है, सो ठीक नहीं।"

५. स्वामीजी द्वारा स्थापित पाठशालाओं के लिए द्रष्टव्य- पत्र व्यवहार का चतुर्थ भाग (छठा परिशिष्ट पृ० ६५५-६६४) ये पाठशालाएं फर्रूखाबाद, मिर्जापुर, कासगंज (जिला एटा), छलेसर (जिला अलीगढ़), बनारस तथा लखनऊ में थीं।

[स्त्रोत- स्वामी दयानन्द सरस्वती के पत्र-व्यवहार का विश्लेषणात्मक अध्ययन]

Friday, November 1, 2019

The Aafat Called Khilafat Movement




The Aafat Called Khilafat Movement

Dr. Vivek Arya

2019 is the 100th Anniversary year of “The Aafat Called Khilafat movement”. Readers might be surprised by the word ‘Aafat’ which means calamity of a menace to the Country. Post World War 1 Turkey known as Ottoman Empire was partitioned. Sultan was reduced to a figurehead who ruled the nation in the name of Allied powers. This hugely agitated Indian Muslims like Muhammad Ali, Shaukat Ali started a movement named as Khilafat movement. They considered Turkey as center of Islamic Khilafat of the World. For them any rule on Turkey would offence Muslims of the World. Mahatma Gandhi supported this purely Muslim movement thinking that this will won him support of Muslims for the Indian Freedom struggle. It was like tagging of Indian freedom struggle with a distant land issue who have no relations with India.
Dr. Ambedkar mentions that, “It was taken up by Mr. Gandhi with a tenacity and faith which must have surprised many Mohomedans themselves.” Just opposite Turks they wanted to convert to a republic. Ambedkar said that since beginning the first motive of Muslims who supported Non-cooperation movement started by Congress under Gandhi was Khilafat and not Swarajya. Gandhi even threatened the British Government of returning his medals if Non-cooperation and Khilafat movement are not heard properly. Surprisingly neither the Muslims of Turkey nor the Muslims of World were unperturbed by the Dissolution of the caliphate.
Historian R C Majumdar, Annie Besant, Lala Lajpat Rai and other viewed that Mahatma Gandhi in order to attain support of Muslims joined a religious movement of a separate nation with the Indian Freedom struggle which was a Political movement. According to Lala Lajpat Rai this step strengthened the sectarianism and narrow minded bigotry of Indian Muslims. Hindus proposed a complete ban on Cow slaughter from fellow Muslims for supporting Khilafat, an Islamic movement. Gandhi rejected the proposal and asked Hindus for unconditional assistance.
Leaders like Chittranjan Das opposed Khilafat Movement thinking that mobilized Muslims might invite the Afghans to invade India, in which case the country might be subjugated to Muslim Raj from British Raj. He wrote to Lala Lajpat Rai that he did not fear the seven crore Muslims of India, but the seven crore of Hindustan, plus the armed hordes of Afghanistan, Central Asia, Arabia, Mesopotamia and Turkey will be irresistible and posed a grave National threat to India.
On appeal of Maulana Abdul Bari 18000 Indian Muslims sold their properties in India to move to Muslim Land or Dar-ul-Islam of Afghanistan. Gandhi instead of opposing said that the fight of Muslims is growing space. This is better for them to leave State which had no regard for their religious sentiment and face a beggar life than to remain I it even though it may be in a princely manner. No doubt the seeds of Pakistan was sown three decade before it actually materialized.
The enthusiasm of Ali Brother’s supported by Gandhi soon started showing its side effects. In Kolkata congress session in 1920 Shaukat Ali said to his fellow Muslim brother: ‘Mahatma Gandhi is a shrewd Bania. You do not understand his real object. By putting you under discipline, he is preparing you for guerrilla warfare. He is not such an out and out non violencist as you all suppose. ’ In Nagpur session Maulanas recited Ayats from Quran that contained frequent references to violent Jihad against kafirs. Swami Shraddhananda brought this matter to Gandhi’s notice. He smiled and said that they are alluding to the British Bureaucracy. In reply Swami Ji told him that ‘it was all subversive of the idea of Nonviolence and when a revulsion of feeling came, the Muslim Maulanas would not refrain from using these verses against the Hindus. Gandhi ji never listened any advice and blindly supported Muslims by warning Hindus that if they did not help the Muslims in their time of trouble, their own slavery was a certainty. Muslims now united and centralized started growing impatient and aggressive on Non-cooperation and Khilafat. In spite of Gandhi’s reassurance and promise to keep patience they started thinking the other way. A telegram to Amir of Afghanistan as an invitation to invade India was intercepted by government. It was written none other than Muhammad Ali. Ali brothers tried to play this plot down by issuing an apology but Clerics issued fatwas against British administration thus proving Muslims to act against government. The protests started turning violent. Mob looting, rioting, killing started from Mumbai in November, 1921 soon spread to all parts of country. The honeymoon of Hindu Muslim unity on name of Khilafat was over. Gandhi did a blunder mistake of tagging a religious Islamic movement with Indian political movement. The frustrated, organized, radicalized Muslims in mobs started attacking government properties and soon turned mercilessly to peaceful Hindus. Hindu properties were burned and looted, abduction and rape became common song, cow killing and temple desecration became a habit.  Starting from Moplah in Kerala to Multan, Panipat, Rawalpindi, Delhi, Kanpur, Kohat, and Multan the story was same everywhere. There is a list of hundreds of riots in the decade of 1920s. The wounded Hindu who once considered Gandhi as a champion for independence got the first taste of his blunder mistake. And the biggest point to ponder is that this blunder by Gandhi resulted in partition of the Country in 1947. Thus the term coined by veer Savarkar “Aafat called Khilafat” is appropriate and rightful.