Thursday, April 30, 2020

क्या वेदों के चार विभाग वेदव्यास ने किए?



क्या वेदों के चार विभाग वेदव्यास ने किए?

लेखक- प्रियांशु सेठ

प्रायः वेदों के विषय में इस भ्रांति को प्रचारित किया जाता है कि वेद पहले एक थे और द्वापरान्त उन्हें वेदव्यास द्वारा चार भागों में विभाजित किया गया। इस भ्रांति को आधार बनाकर विधर्मी हमारे पवित्र ग्रन्थ वेदों पर अनुचित आक्षेप करते हैं। जैसे, यदि वेदों का विभाजन मनुष्य द्वारा हुआ तो इससे वेदों की अपौरुषेयता पर प्रश्नचिह्न लगता है। क्या वैदिक ईश्वर का सामर्थ्य अल्प है जो वह वेदों को चार भाग में प्रकाशित न कर सका? इत्यादि। इन आक्षेपों के प्रभाव से धार्मिक जनों की वेदों के प्रति श्रद्धा न्यून हो जाती है। इस आलेख में हम विधर्मियों के आक्षेपों का सप्रमाण और युक्तियुक्त जवाब देकर वेदों की अपौरुषेयता को आलोकित करेंगे।
आर्यावर्तीय मध्यकालीन ग्रन्थकारों की वेदों के विषय में धारणा रही है कि वेद पहले एक था। उसे चार भागों में बांटने वाले भगवान् वेदव्यास थे। यथा-

१.  महीधर अपने यजुर्वेदभाष्य के आरम्भ में लिखता है-
"तत्रादौ ब्रह्मपरम्परया प्राप्तं वेदं वेदव्यासो मन्दमतीन्मनुष्यान्विचिन्त्य तत्कृपया चतुर्धा व्यस्य ऋग्यजु:सामाथर्वाख्यांश्चतुरो वेदान् पैलवैशम्पायनजैमिनीसमुन्तुभ्य: कमादुपदिदेश।"
अर्थात्- वेदव्यास को ब्रह्मा की परम्परा से वेद मिला और उसने उसके चार विभाग किए।

२. महीधर का पूर्ववर्ती भट्टभास्कर अपने तैत्तिरीय संहिता-भाष्य के आरम्भ में लिखता है-
"पूर्वे भगवता व्यासेन जगदुपकारार्थमेकीभूयस्थिता वेदा व्यस्ता: शाखाश्च परिच्छिन्ना:।"
अर्थात्- भगवान् व्यास ने एकत्र स्थित वेदों का विभाग करके शाखाएं नियत कीं।

३. भट्टभास्कर से भी बहुत पहले होने वाला आचार्य दुर्ग निरुक्त १/२० की वृत्ति में लिखता है-
"वेदं तावदेकं सन्तमतिमहत्त्वाद् दुरध्येयमनेकशाखाभेदेन समाम्नासिषु:, सुखग्रहणाय व्यासेन समाम्नातवन्त:।"
अर्थात्- वेद पहले एक था, पीछे व्यास रूप में उसकी अनेक शाखाएं समाम्नान हुई।

४. एक युक्ति यह भी दी जाती है कि व्यास के पूर्वकाल में ऋक्, यजु, साम एवं अथर्व मन्त्र यद्यपि अस्तित्व में थे, फिर भी वे सारे एक ही वैदिक संहिता में मिलेजुले रूप में अस्तित्व में थे। इसी एकात्मक वैदिक संहिता को चार स्वतन्त्र संहिताओं में विभाजित करने का अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य व्यास ने किया। इस युक्ति के समर्थन में अष्टादशपुराणों से एक श्लोक यह उद्धृत किया जाता है- 'तत: स ऋचमुद्धृत्य ऋग्वेदं समकल्पयत्।' -वायु० ६०/१९ एवं ब्रह्माण्ड० २/३४/१९
इसका अर्थ यह है कि व्यास ने ऋग्वेद की ऋचाएं अलग कर, उन्हें 'ऋग्वेद संहिता' के रूप में एकत्र किया।

ईश्वर ने आदिसृष्टि में चार वेदों का प्रकाश किया, ऐसा पवित्र वेद सच्छास्त्रों का सिद्धान्त है। वेद का विभाग किसी मनुष्य ने किया, यह कहना मूर्खता का काम है। स्वयं वेद इस बात की साक्षी है कि सनातनकाल से ही वेद चार भागों में विभक्त थे। यथा-
१. यस्मादृचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन्।
सामानि यस्य लोमान्यथर्वाङ्गिरसो मुखम् स्कम्भं तं ब्रूहि कतम: स्विदेव स:। -अथर्व० १०/७/२०
अर्थ- (यस्मात्) जिस परमेश्वर से [ऋषियों ने] (ऋच:) ऋचाओं [ऋग्वेद] को (अपातक्षन्) प्राप्त किया, (यस्मात्) जिस परमेश्वर से (यजु:) यजुर्वेद को (अपाकषन्) प्राप्त किया। (सामानि) सामवेद के मन्त्र (यस्य) जिस परमेश्वर के (लोमानि) लोम सदृश हैं। (अथर्वाङ्गिरस:) अङ्गों के तथा औषधियों के रसों का वर्णन करने वाला अथर्ववेद (मुखम्) जिस का मुखवत् मुख्य है (तम्) उसे (स्कम्भम्) स्कम्भ (ब्रूहि) तू कह, (कतम: स्वित् एव स:) अतिशय सुखस्वरूप ही है [उस में दुःख का लेश भी नहीं] वह आनन्दरूप है। -पण्डित विश्वनाथ विद्यालंकारजीकृत भाष्य

वेद के इस प्रमाण के आगे आक्षेपकर्त्ताओं का यह आक्षेप धराशायी हो जाता है कि पहले वेद एक थे। अथर्ववेद के इस मन्त्र से स्पष्ट है कि वेदों का विभाग स्वयं ईश्वर ने किया, ना कि किसी मनुष्य ने। वेदमन्त्रों में दी गई शिक्षा सर्वकालों के लिए है; अतः यदि मन्त्रों में बहुवचनान्त 'वेदा:' पद आ जाए तो निश्चय जानना चाहिए कि आदि से ही वेद एक भाग में नहीं थे।
२. ब्रह्म प्रजापतिर्धाता लोका वेदा: सप्त ऋषयोऽग्नय:।
तैर्मे कृतं स्वस्त्ययनमिन्द्रो मे शर्म यच्छतु।। -अथर्ववेद १९/९/१२
इस मन्त्र में स्पष्ट रूप से वेदा: बहुवचनान्त पद आया है। इस मन्त्र पर भाष्य करते हुए सायणाचार्य्य लिखता है- "वेदा: साङ्गाश्चत्वार:" अर्थात्  इस मन्त्र में बहुवचनान्त वेद पद से चारों वेदों का अभिप्राय है।

३. चत्वारि शृङ्गास्त्रयोऽस्य पादा द्वे शीर्षे। -ऋग्वेद ४/५८/३ एवं यजुर्वेद १७/९१
यास्काचार्य्य ने 'चत्वारि शृङ्गा' (निरुक्त १३/७) से चार वेदों का ग्रहण किया है।

४. तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतऽऋच: सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तस्मादजायत।। -यजुर्वेद ३१/७
अर्थ:- हे मनुष्यो! तुमको चाहिए कि (तस्मात्) उस पूर्ण (यज्ञात्) अत्यन्त पूजनीय (सर्वहुत:) जिसके अर्थ सब लोग समस्त पदार्थों को देते वा समर्पण करते उस परमात्मा से (ऋच:) ऋग्वेद (सामानि) सामवेद (जज्ञिरे) उत्पन्न होते (तस्मात्) उस परमात्मा से (छन्दांसि) अथर्ववेद (जज्ञिरे) उत्पन्न होता और (तस्मात्) उस पुरुष से (यजु:) यजुर्वेद (अजायत) उत्पन्न होता है, उसको जानो। -श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामीकृत भाष्य

जब वेदों में स्पष्ट रूप से चार वेदों का संकेत मिलता है फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि वेद पहले एक थे? इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि वेद सनातनकाल से ही चार भागों में चले आये हैं। वस्तुतः भट्टभास्कर, महीधरादि मध्यकालीन ग्रन्थकारों की मान्यता अष्टादशपुराणों से सम्बन्ध रखने वाली है। इनकी मान्यता का मूल स्रोत हमें अष्टादशपुराणों में प्राप्त होता है। इन मिथ्या ग्रन्थों से ही वेदों के विषय में यह भ्रान्ति फैली है कि वेद पहले एक थे और द्वापरान्त में वेदव्यास ने उसके चार विभाग किये। देखो-
(क) जातुकर्णो ऽभवन्मत्त: कृष्णद्वैपायनस्तत:।
अष्टाविंशतिरित्येते वेदव्यासा: पुरातना:।।
एको वेदश्चतुर्धा तु यै: कृतो द्वापरादिषु। -विष्णुपुराण० ३/३/१९,२०

(ख) वेदश्चैकश्चतुर्धा तु व्यस्यते द्वापरादिषु। -मत्स्यपुराण १४४/११

अष्टादशपुराणों की यह मान्यता सर्वथा भ्रममूलक है। क्योंकि-
प्रथम, एक ओर तो ये अष्टादशपुराण चतुर्मुख ब्रह्मा के चार मुख से चार वेद प्रकट हुआ मानते हैं (मत्स्य० ५३/२,३, शिवपुराण वायवीय० १/३१, वायु० १/५४, ब्रह्माण्ड० १/१/४०,४१, स्कन्दपुराण अवन्ती० १/२४,२५), तो दूसरी ओर उन्हें एक भी बताकर कहा जा रहा है कि उनके विभाजनकर्त्ता वेदव्यास थे?

द्वितीय, एक ओर अग्निपुराण (२७१/३) में कहा है- 'ऋग्वेदो हि प्रमाणेन स्मृतो द्वैपायनादिभि:।' अर्थात् श्रीकृष्ण द्वैपायनादि महर्षियों ने ऋग्वेद को प्रमाण रूप से स्वीकार किया है। जबकि दूसरी ओर अष्टादशपुराणों में यजुर्वेद को प्राचीन बताया गया है (अग्नि० ६०/१७, १५०/२४, कूर्म० ५२/१६, विष्णु० ३/४/११, ब्रह्माण्ड० ३४/१७, )।
यहां जब यजुर्वेद को प्राचीन घोषित किया गया है तो प्रमाण रूप से ऋग्वेद को स्वीकार करने का क्या आधार है? ऐसे में अष्टादशपुराणों की सत्यता पर ही सन्देह होता है।

तृतीय, स्कन्दपुराण में एक श्लोक आता है, जो सिद्ध करता है कि वेदों का विभाग व्यास ने नहीं किया। यथा-
सामवेदोअहंदेवि ब्रह्माऋग्वेदउच्यते।।६२।।
यजुर्वेदोभवेद्विष्णु: कलाधारोह्यथर्वण:।।६३।। -स्कन्दपुराण, प्रभासखण्ड, अध्याय १०३, पृष्ठ ४२८, मुन्शी नवलकिशोर (सी, आई, ई) छापाखाना, लखनऊ, प्रथम बार, सन् १९१० ई० से प्रकाशित
महादेव जी कहते हैं- हे देवी! मैं सामवेद हूं और ब्रह्मा ऋग्वेद कहे जाते हैं।।६२।। व यजुर्वेद और अथर्वा की कला को धरनेवाले विष्णु जी हैं।।६३।।

चतुर्थ, महाभारत स्पष्ट रूप से चारों वेदों का उल्लेख करते हैं। यथा-
१. ऋग्वेद: सामवेदश्च यजुर्वेदोऽप्यथर्वण:। -वनपर्व (अ० १८७, श्लोक १४)
२. यज्ञा वेदाश्च चत्वारः। -वनपर्व (अ० २१५, श्लोक २२)
३. त्रयीविद्यामवेक्षेत वेदेषूक्तमथाङ्गत:। ऋक्सामवर्णाक्षरतो यजुषोऽथर्वण स्तथा।। -शान्तिपर्व (अ० २३५, श्लोक १)
४. ऋग्वेद: सामवेदश्च यजुर्वेदश्च पाण्डव। अथर्ववेदश्च तथा सर्वशास्त्राणि चैव हि।। -सभापर्व (अ० ११, श्लोक ३२)
क्या महाभारत के कर्त्ता महर्षि वेदव्यासजी को इतना ज्ञान न था कि एक ओर अपने ग्रन्थ में ऐसा मानते हैं कि सनातन काल से ही वेद चार हैं, तो दूसरी ओर उसका विभाजन भी स्वयं करके अपने वचनों में विरोधाभास प्रकट करेंगे। इससे यह भी सिद्ध है कि अष्टादशपुराण व्यास के बाद की कृति है तथा अवैदिक सिद्धान्तों का प्रतिपादक है।

पञ्चम, वाल्मीकि रामायण में वर्णन मिलता है कि श्रीराम अपने छोटे भाई लक्ष्मण से हनुमानजी को वेदपाठी घोषित करते हुए कहते हैं-
नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिण:।
नासामवेदविदुष: शक्यमेवं विभाषितुम्।। -किष्किन्धाकाण्ड ३/२९
अर्थात्- जिसे ऋग्वेद की शिक्षा नहीं मिली, जिसने यजुर्वेद का अभ्यास नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान् नहीं है, वह इस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता।
इसके अतिरिक्त रामायण में कई स्थलों पर चारों वेदों का उल्लेख मिलता है। फिर सहस्रों वर्ष के बाद व्यास काल में उनका एक होना और व्यास आदि द्वारा उनका चार विभाग किया जाना किस प्रकार स्वीकार किया जा सकता है?

षष्ठ, अष्टादशपुराणों में वेदों की शाखादि का उल्लेख है। यदि वेदों का विभाग व्यास द्वारा मान लें तो यह बताइये कि व्यास के पूर्व जब वेद एक थे तो उस समय वेदों की शाखाओं का विभाजन कैसे सम्भव हुआ? क्या वेदों की शाखा पहले और वेदों का विभाजन बाद में मानना युक्तियुक्त है?

इससे सिद्ध है कि अष्टादशपुराणों के कर्त्ता ने अपनी कपोलकल्पित और खोखली कहानियों का कर्त्ता व्यासजी को ठहरा दिया। इन अवैदिक ग्रन्थों में परस्पर-विरोधी वचन पड़े हैं; अतः यह ग्रन्थ सर्वथा त्याज्य हैं। हम सिद्ध कर चुके हैं कि वेदों का विभाजन व्यास जी ने नहीं किया। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने अपने ग्रन्थ 'सत्यार्थप्रकाश' में वेदों के विषय में प्रचलित इन्हीं भ्रान्तियों का खण्डन किया है। वह ईश्वर द्वारा चार ऋषियों के हृदय में एक-एक वेद का प्रकाश होना मानते हैं। इसमें वह शतपथब्राह्मण का प्रमाण उद्धृत करते हुए लिखते हैं-
अग्नेर्वा ऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेद: सूर्यात् सामवेद:।। -शतपथ० ११/५/८/३
प्रथम सृष्टि की आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य तथा अङ्गिरा इन ऋषियों के आत्मा में एक-एक वेद का प्रकाश किया। [देखो, स०प्र० सप्तमसमुल्लास]

महाराज मनु भी ईश्वर द्वारा वेदों का चार महर्षियों में प्रादुर्भूत होना मानते हैं। यथा-
अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम्।
दुदोह यज्ञसिद्धयर्थमृग्यजु:सामलक्षणम्।। -मनु० १/२३
(य) "जिस परमात्मा ने आदिसृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न करके अग्नि आदि चारों महर्षियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराये और उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और अङ्गिरा से ऋग्, यजु:, साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया।" [स०प्र० सप्तम०]

(र) इस श्लोक की टीका में कुल्लूकभट्ट लिखता है- "पूर्वकल्पे ये वेदास्त एव परमात्ममूर्तेर्ब्रह्मण: सर्वज्ञस्य स्मृत्यारुढा:। तानेव कल्पादौ अग्निवायुरविभ्य आचकर्ष।" -चौखम्बा संस्कृत सीरीज ऑफिस, बनारस, सन् १९९२ से प्रकाशित
अर्थात्- जो पूर्वकल्प में थे, वे ही वर्तमान कल्प के आदि में अग्नि आदि ऋषियों से प्रादुर्भूत हुए।

(ल) मनुस्मृति के इस श्लोक पर पण्डित गिरिजाप्रसाद द्विवेदी अपनी टिप्पणी में लिखते हैं-
"अग्नि, वायु और रवि से वेदत्रयी की उत्पत्ति, छान्दोग्य-उपनिषद् में इसी प्रकार है। जैसा- प्रजापतिर्लोकानभ्यतपत्। तेषां तप्यमानानां रसान् प्रावृहत्। अग्निं पृथिव्या, वायुमन्तरिक्षात्, आदित्यं दिव:। स एतास्तिस्त्रो देवता अभ्यतपत्। तासां तप्यमानानां रसान् प्रावृहत्। अग्नेर्ऋचो, वायोर्यजूंषि, साम आदित्यात्। स एतां त्रयीं विद्यां अभ्यतपत्। तस्या तप्यमानाया रसान् प्रावृहत्। भूरिति ऋग्भ्यो, भुवरीति यजुर्भ्य:, स्वरिति सामभ्य:।"
"अग्नि, वायु और रवि से वेदोत्पत्ति होने से ही, ऋग्वेद का पहला मंत्र अग्निस्तुति है। यजु का वायु और साम का सूर्यस्तुति विषय का है।" -मनुस्मृति अर्थात् मानवधर्मशास्त्र, पृष्ठ ६, मुंशी नवलकिशोर सी.आई.ई., के छापेखाने, लखनऊ, सन् १९१७ ई० से प्रकाशित

सायणाचार्य्य भी स्वीकार करता है कि परमात्मा ने अग्नि आदि ऋषियों द्वारा त्रयीविद्या "वेद" प्रकट किए-
जीवविशेषैरग्निवाय्वादित्यैर्वेदानामुत्पादितत्वात्। ऋग्वेद एवाग्नेरजायत यजुर्वेदो वायो: सामवेद आदित्यात् (ऐतरे० ब्रा० ५/३२)।। इति। श्रुतेरीश्वरस्याग्न्यादिप्रेरकत्वेन निर्मातृत्वं द्रष्टव्यम्।। -सायणभाष्यभूमिकासंग्रह, पृ० ४
भाषार्थ- अग्नि, वायु, आदित्य विशेष जीवों से वेद के पैदा होने से ऋग्वेद ही अग्नि से पैदा हुआ, यजुर्वेद वायु से, सामवेद आदित्य से, ऐसी श्रुति होने से, ईश्वर ने अग्नि आदि के प्रेरक होने से, ईश्वर से वेदों का निर्माण जानना चाहिए।

इन प्रमाणों से सिद्ध है कि ऋषियों द्वारा परमात्मा ने चार वेद प्रकट किए। ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद्, सूत्रादि ग्रन्थ सभी एकमत होकर इस सिद्धान्त पर अटल हैं कि वेद ईश्वर द्वारा विभाजित सनातनकाल से ही चार हैं। यथा-

१. एवां वा अरेऽस्य महतोभूतस्य नि:श्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेद: समावेदोऽथर्वाङ्गिरस। -शतपथब्राह्मण १४/५/४/१०
उसी महान् सत्ता से ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद उत्पन्न हुए हैं। [द्रष्टव्य- बृहदारण्यक २/४/१०]
२. त्रयो वेदा अजायन्त ऋग्वेद एवाग्नेरजायत। यजुर्वेदो वायो: सामवेद: आदित्यात्।। -ऐतरेयब्राह्मण २५/७
३. चत्वारि शृङ्गास्त्रयोऽस्य पादा द्वे शीर्षे। - गोपथ ब्राह्मण १/१६
४. गोपथब्राह्मण ३/१ में चारों वेदों का नाम निर्देश करने पश्चात् चार ऋत्विजों में कौन किस वेद का पण्डित हो, इसका निर्देश करते हुए लिखा है- "ऋग्विदमेव होतारं वृणीष्व यजुर्विदमध्वर्य्युं सामविदमुद्गातरमथर्वाङ्गिरोविदं ब्रह्माणं।" अर्थात् इसलिए ऋग्वेद जानने वाले को ही होता चुन, यजुर्वेद जानने वाले को अध्वर्य्यु, सामवेद जानने वाले को उद्गाता, और [अथर्वाङ्गिरो] चारों वेद जानने वाले को ब्रह्मा।
५. स्तोम आत्मा छन्दांस्यङ्गानि यजूंषि नाम साम ते तनू:। -यजु० १२/४, शतपथब्राह्मण ६/७/२/६, तैत्तिरीय संहिता ४/१/१०/५, शांखायन गृह्यसूत्र १/२२/१६
६. जुहोत्यग्नये पृथिव्यै ऋग्वेदाय यजुर्वेदाय सामवेदाय अथर्ववेदाय। -वैखानस गृह्यसूत्र २/१२
७. तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोऽथर्ववेद:। -मुण्डक० १/१/५
८. ऋग्वेदं भगयोऽध्येमि यजुर्वेदं सामवेदमाथर्वणं चतुर्थम्। -छान्दोग्योपनिषद् ७/१/२

आयुर्वेद शिरोमणि महर्षि चरक का यह वचन हृदय को आह्लादित कर देने वाला है-
तत्र चेत्प्रष्टार: स्यु:- चतुर्णामृक्सामयजुरथर्ववेदानां कं वेदमुपदिशन्त्यायुर्वेदविद:, किमायु: कस्मादायुर्वेद:, किं चायमायुर्वेद: शाश्वतोऽशाश्वतश्च। कति कानि चास्याङ्गानि, कैश्चयमध्येतव्य:, किमर्थं चेति।।
तत्र भिषजा पृष्टेनैवं चतुर्णामृक्सामयजुरथर्ववेदानामात्मनोऽथर्ववेदे भक्तिरादेश्या। (चरकसंहिता, सूत्रस्थानम् ३०/१८,१९)
"यदि कोई पूछे कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में से आयुर्वेदज्ञ किस वेद का उपदेश करते हैं तो वैद्य को उत्तर देना चाहिए कि ऋग्वेदादि चारों वेदों में से अथर्ववेद में आयुर्वेद का उपदेश है।"

उपरोक्त प्रमाणों के आलोक में यह सिद्ध है कि वेद ईश्वर द्वारा सनातनकाल से ही चार भागों में प्रकाशित होते आये हैं। वेदों की अपौरुषेयता को कोई नकार नहीं सकता; अतः आक्षेपकर्ताओं को यह भलीभांति जान लेना चाहिए कि ईश्वरीय वाणी वेद सत्य का आधार है, जिसे पराजित करने के प्रयास से मनुष्य स्वयंमेव पराजय को प्राप्त हो जाता है।

पाद टिप्पणियां-
१. वैदिक वाङ्मय का इतिहास; प्रथम भाग; लेखक- पण्डित भगवद्दत्त बी०ए०।
२. यजुर्वेद का मन्त्र 'तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतऽऋच: सामानि जज्ञिरे...', ऋग्वेद (१०/९०/९) में भी आया है तथा ज्यों का त्यों 'छन्दांसि' के स्थान पर 'छन्दो ह' के साथ अथर्ववेद (१९/६/१३) में भी आया है।
३. स्कन्दपुराण, प्रभासखण्ड के उपरोक्त श्लोक वर्तमान संस्करणों में अध्याय १०५ में कर दिए गए हैं।
४. रामायण से उद्धृत श्लोक पर पाण्डेय पं० रामनारायणदत्त शास्त्री 'राम' कृत टीका, गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित।

[स्त्रोत- आर्ष क्रान्ति : आर्य लेखक परिषद् का मुख पत्र का अप्रैल २०२० का अंक]

Wednesday, April 29, 2020

जवानों! जवानी यूं ही न गंवाना



जवानों! जवानी यूं ही न गंवाना

[ब्रह्मचर्य का व्रत धारण करने से मनुष्य ऐश्वर्यशाली बनता है। आज नौजवान ब्रह्मचर्य के व्रत को भूलकर भोगवाद की ओर भाग रहे हैं। ब्रह्मचर्य के अभाव में मनुष्य शारीरिक, मानसिक और आत्मिक उन्नति से वंचित हो रहा है। आर्यसमाज के सुप्रसिद्ध विद्वान् स्व० पं० बुद्धदेव विद्यालंकार जी (स्वामी समर्पणानन्द जी) का यह लेख 'आर्य गजट' हिन्दी (मासिक) के मार्च १९७४ के अंक में प्रकाशित हुआ था। ब्रह्मचर्य की शक्ति को जानने के लिए नौजवानों यह लेख अवश्य पढ़ना चाहिए। -डॉ विवेक आर्य, प्रियांशु सेठ]

मूर्ख और बुद्धिमान में बड़ा अन्तर होता है। मूर्ख अच्छी बात को भी बुरा बना लेता है और बुद्धिमान बुरी चीज को भी अच्छी बना लेता है। काजल का अगर सही प्रयोग किया जाये तो आंखों में डाला हुआ सुन्दरता को चार चांद लगा देता है मगर गलत ढंग से प्रयोग किया हुआ वही काजल इधर-उधर लग जाये तो अच्छी सूरत को भी भद्दा बना देता है। एक बुद्धिमान पुरुष ने आग पर चढ़ी हुई देगची को देखा, उसने अनुभव किया कि वो पानी जो पहले चुपचाप था भाप बनकर कितना जबरदस्त बन गया है जिसने ढक्कन को धकेल कर फेंक दिया है, बुद्धिमान ने इस शक्ति को संभाला और इंजिन तैयार कर लिया- मूर्ख ने पानी और आग को इक्ट्ठा किया और हुक्का बनाकर गुड़गुड़ करता रहा और अपना समय और स्वास्थ्य खराब करता रहा, मनुष्य पर भी एक समय आता है जब उसके सामने अपनी शक्ति सम्भालने का अवसर आता है, जवानी मस्तानी बनकर आता है। जब वह चलता है तो कन्धे मारकर चलता है। पूछो तो कहेगा देखते नहीं जवानी आ रही है। स्टीम पैदा हो रही है। समझदार ने इसे संभाला और लाखों लोगों को पीछे लगा लिया लेकिन मूर्ख यह कहता रहा।
इस दिल के टुकड़े हजार हुए,
कोई यहां गिरा कोई वहां गिरा।

अपनी जवानी का नाश कर लेता है, नौजवानों में ही संभलने का समय होता है लेकिन आज का नौजवान कौन-सी ऐसी खराबी है जिसको निमन्त्रण नहीं देता, मैंने एक जानकार नौजवान को जिसको शराब की लत लग गई थी कहा कि क्यों अपना नाश कर रहे हो, कहने लगा पण्डित जी, आपने कभी पी ही नहीं- शेख क्या जाने मय का मजा, पूछो कम्बख्त ने कभी पी है। पी लेते तो ऐसा न कहते। मैंने कहा पीने से क्या होता है, कहने लगा सब गम गलत हो जाते हैं। मैंने कहा और होश? तो कहने लगा कि होश रहता ही नहीं। मैंने कहा कि इससे बढ़कर और क्या बेवकूफी होगी कि मनुष्य पैसे खर्च कर अपने होश खो दे, अरे मजा तो तब है कि होश कायम हों और फिर नशा चढ़ा रहे।
नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन रात।
(लेकिन उस नानक के पुजारी आज सबसे अधिक शराब पीते हैं।)

अभिमन्यु की लाश पड़ी है, सब रोते हैं। सुभद्रा का बुरा हाल है, कृष्ण आते हैं। कहते हैं कि सुभद्रा क्या कर रही हो, सुभद्रा रो पड़ती है। कहती है कि भाई तुम मुझे यह कह रहे हो कि क्या कर रही हो? मेरा जवान बेटा छिन गया है। मैं अधीर न होऊं तो क्या करूँ? कृष्ण कहते हैं कि सुभद्रा तू याद कर, तू क्षत्रिय की पुत्री है, क्षत्रिय की बहिन है, क्षत्रिय की पत्नी है और उस क्षत्रिय वीर की माता है। जो धर्म पर वीर गति को प्राप्त हुआ है क्षत्रिय का सबसे बड़ा कर्तव्य धर्म और न्याय की रक्षा के लिए मर मिटना है। तेरा पुत्र तो अमर हो गया है और तू रो रही है। सुभद्रा को होश आ जाता है। उसका चेहरा दमक उठता है। यह है वो खुमारी। पुत्र सामने मरा पड़ा है और होश कायम रखे जाते हैं। यह हालत तब आती है जब मनुष्य नाम की खुमारी में रंग जाये। ब्रह्मचारी बने। ब्रह्मचारी का मतलब है जो ब्रह्म में निवास करे, अपने सत को, वीर्य को संभाल कर रखे यह वीर्य असली रसायन है इससे बढ़कर और कोई रसायन नहीं, आज तो लोग असली रसायन को खोकर फिर इंजेक्शन लगवाने लगते हैं। मूर्खता और किसको कहोगे। आज सुन्दरता के लिए सुरखी और लिपस्टिक लगाये जाते हैं, होठों और गालों पर सुरखी और लाली लगायी जाती है। इस रहस्य को भुला दिया है कि असली खूबसूरती और लाली होठों और गालों पर कैसे आती है। आओ आपको इसका रहस्य भी बतला दें। होंठ बहुत कोमल हिस्सा होता है। वहां खून की लाली उभरती है। शरीर में खून हो और उसका दौरा ठीक हो तो होठों पर लाली खुद-ब-खुद आ जाती है। शरीर में खून हो इस तरफ ध्यान नहीं दिया जाता। नकली रंग लगाकर बाह्यप्रदर्शन किया जाता है। अच्छा भला आदमी हो, कुछ देर पानी में रहे तो खून का दौरा रुक कर होंठ नीले पड़ जाते हैं। ये खून के करिश्मे हैं, अरे अपने सत को, वीर्य को कायम रख कर तो देखो कितना आनन्द आता है? गंवाने में तो क्षणिक मजा और फिर पछतावा लगा रहता है लेकिन इसे कायम रख कर देखो कितना आनन्द आयेगा।

आप कहेंगे पण्डित जी क्यों तरसा रहे हो। इसे कायम रखने के लिए कोई रास्ता तो बताओ। रास्ता सुन लो आपको ब्रह्मचारी बनना होगा और हमेशा प्रभु की याद रखनी होगी, कहा जाता है कि प्रभुभजन और प्रभु भक्ति तो बुढ़ापे की चीज है। याद रखना अगर आपने अभी से आदत न बनाई तो बुढ़ापे में कुछ न होगा।
सावन का महीना है। आमों का टोकरा सामने पड़ा है। मनुष्य आम चूस कर गुठलियों को एक थाली में सजा-सजा कर रख रहा है। मैंने पूछा ये क्यों सजाई जा रही है? कहने लगे यह भगवान की भेंट होगी। अरे मीठा रस तो शैतान के लिए और गुठलियां भगवान के लिए। जब शरीर काम का न रहेगा खाक भगवान की याद करोगे। जवानी बेकार खो दी तो बुढ़ापे में भगवान हाथ न आएगा। एक यह भी सवाल किया जाता है कि प्रभुभजन क्या करें दिल तो लगता नहीं, लगेगा पहले भूख पैदा करो। भोजन और भजन का एक ही कानून है। भोजन तभी अच्छा लगता है जब भूख हो, भूख में सूखे टुकड़े भी मजा देते हैं। परमात्मा के भजन के लिए भी भूख की जरूरत है। गीता ने चार प्रकार के भक्त कहे हैं।

पहला भक्त वह होता है जो दु:खी हो। आप कहेंगे क्या हम दु:खी हो जायें? हां! आप कहोगे अच्छे उपदेश देने बैठे। माता-पिता जीवित हैं, घर में सबकुछ है, किसी चीज की कमी नहीं, खाने को खूब मिलता है। दु:खी क्यों हों? इस पर भी दु:खी हो जाओ। अपने लिए नहीं, दूसरों के दु:ख को अपना दु:ख समझ लो। अगर तुम्हारे पास कोई भूखा आये तो पहिले उसे खिलाओ। कोई दु:खी है तो उसका दु:ख दूर करो। परोपकार करो। सब कुछ रखते हुए सेवा का व्रत धारण करो। सबसे बड़ी ईश्वर भक्ति यही है। किसी के काम आकर तो देखो कितना आनन्द आता है। दुनियां में जितने दुःख और झगड़े हैं उनके तीन कारण हैं, इनमें से एक तुम ले लो। आज शिक्षा के रहस्य को लोगों ने भुला दिया है, हमारे ऋषियों ने इसे खूब समझा था। वो विद्यार्थियों को दुनिया के इन तीन प्रकारों के दु:खों को दूर करने के लिए तैयार करते थे। हमारी वैदिक शिक्षा सच्चे देश, सच्चे क्षत्रिय और सच्चे ब्राह्मण पैदा करने के लिए होती थी, जो तीन प्रकार के दु:ख दूर करने के लिए तैयार किये जाते थे।

पहला दु:ख अभाव से पैदा होता है। देश का काम है कि वह वस्तुओं का निर्माण करे और सब लोगों को दे लेकिन आज का देश तो ब्लैक मार्कीटियों का हो रहा है। वो अपना स्टाक भर लेता है, वस्तुएं गायब हो जाती हैं, न मिलें तो सब दु:खी। अगर देश अपने धर्म पर कायम है तो ब्लैक मार्कीट और अभाव न आयेगा। बांट ठीक हो तो दु:ख न होगा।
दूसरा दुःख का कारण अन्याय है। कुछ गुण्डे उठते हैं और दूसरों की वस्तु छीन कर घर में डाल लेते हैं। क्षत्रिय का काम है ऐसे लोगों से समाज को बचाये। कोई चोर न हो, कोई डाकू न हो। कोई किसी पर अन्याय न करे, सब सुखी हो जायें। इस काम के लिए क्षत्रिय तैयार किये जाते थे जो न्याय को कायम रखने के लिए व्रत लेते थे और अन्याय को मिटाने के लिए जान पर भी खेल जाते थे।
तीसरा दु:ख अविद्या की वजह से होता है। अविद्या और अज्ञान को दूर करने का काम ब्राह्मण करता था। सारा संसार सुखी था। ये तीन प्रकार के दुनिया के दु:खों को दूर करने के लिए ही शिक्षा दी जाती थी और यही प्रभुभक्ति है। जो प्रभु को याद रखता है और सेवा और परोपकार की जिन्दगी व्यतीत करता है, वही प्रभु-भक्त है।

ऐसा ब्रह्मचारी ब्रह्म में विचरता है और मृत्युन्जय हो जाता है। नौजवानों दुनिया पर और अपने आप पर विजय पानी है तो ब्रह्मचर्य-व्रत को धारण करो। प्रभु-भजन और सेवा का व्रत लो, संसार तुम्हें सर पर उठाएगा।

[स्त्रोत- शांतिधर्मी मासिक पत्रिका का अप्रैल २०२० का अंक]

Monday, April 27, 2020

व्यक्ति विशेष : स्व० अनवर शेख



◆ व्यक्ति विशेष : स्व. अनवर शेख
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२१ अक्तुबर १९९५ के दिन लाहौर (पाकिस्तान) से प्रकाशित दैनिक वर्तमानपत्र “सदाकत” की हेड-लाईन थी, "All Pakistani clergy demand extradition of the accursed renegade Anwar Shaikh from Britain to hang him publicly." अर्थात् “पाकिस्तान के सभी मुल्ला-मौलवी ब्रिटेन से धर्मद्रोही अनवर शेख के प्रत्यार्पण की मांग करते है ताकि लोगों की नजरों के सामने उनको फांसी पर लटकाया जा सके।” पाकिस्तान के लोगों का कहना था कि इस्लामी कानून के अनुसार अनवर शेख को ब्रिटेन से वापिस लाकर इस धर्मद्रोही की हत्या कर देनी चाहिए; यदि उनको खत्म नहीं किया गया तो और ज्यादा रश्दी पैदा हो जाएंगे; इस्लाम और उसके पयगम्बर की शान को बचाने लिए दुनिया के मुसलमान इस धर्मद्रोही का शिरोच्छेद करने के लिए तत्पर है, आदि।

सवाल यह है कि यह अनवर शेख कौन थे? पाकिस्तान और दुनिया के अन्य देशों के मुसलमान उस पर इतने कुपित क्यों थे? इस्लाम की नजरों में अनवर शेख ने ऐसा कौना बडा गुनाह कर दिया था? अनवर शेख का गुनाह इतना ही था कि उन्होंने अपने लेख और पुस्तकों के माध्यम से इस्लाम के मजहबी जड़तावाद के विरुद्ध खडे होने का साहस कर दिया था। उनका गुनाह केवल इतना ही था कि वे विभिन्न धर्मों के प्रामाणिक मूल ग्रंथों के व्यापक और गहन अध्ययन के बाद पयगम्बरवाद, अन्तिम नबी, आखिरत, आसमान से इल्म का उतरना, कुरआन, मानवता को मोमीन और काफिर में बांटना, समय को जाहिलीयत और ज्ञानयुग में बांटना, जेहाद, फरिश्तें, जन्नत और जहन्नुम, पयगम्बर की सिफारिश, आदि इस्लाम के मूल डोग्मा से किनारा कर उसके आलोचक बन गये थे और अपने मूल हिन्दू (वैदिक) धर्म की ओर जुक गए थे। संक्षेप में कहा जाए तो वे इस्लाम की नजरों में वाजिबुल कत्ल apostate बन गए थे। जिस साल सलमान रश्दी पर “मौत का फतवा” जारी हुआ था उसी १९८९ की साल से श्री अनवर शेख ने  Eternity,  Faith and Deception, Islam: The Arab National Movement, आदि अपनी प्रसिद्ध पुस्तकें प्रकाशित करने की शुरूआत की थी।

जीवन-

अनवर शेख का जन्म १ जून १९२८ के दिन गुजरात (वर्तमान में पाकिस्तान में) के समिप एक गांव में हुआ था। संयोग से वह दिन हज्ज का दिन भी था। इसी दिन हुए श्री अनवर शेख के जन्म को परिवार के लोग एक शुभ संकेत मानते थे, इसलिए परिवार के लोगों ने प्यार से उनका नाम “हाजी मुहम्मद” रख दिया। बाद में यह नाम “मुहम्मद अनवर” में बदल दिया गया। “अनवर” का अर्थ होता है “प्रकाशक” (radiant)। श्री शेख का कहना था कि, “इसी नाम ने परिवार वालों को मुझे मजहबी शिक्षा देने के लिए प्रेरित किया था। वे लोग सोचते थे कि मेरा जन्म इस्लाम के एक विद्वान बनने के लिए ही हुआ था।” उनका पालन-पोषण इस्लामिक भावावरण में हुआ था। माताजी न केवल मजहबी प्रकृति की थी, इस्लाम की विदूषी [scholar] भी थी। वह कम से कम आधी कुरान का अपनी स्मरण-शक्ति के आधार पर पाठ कर सकती थी। उनके दादाजी भी इस्लाम के विद्वान थे और दादाजी के छोटे भाई तो स्वयं पेशे से एक मुल्ला थे। अपने दादाजी के बारे में वे कहते है, “He was a Kashmiri pundit. After conversion, he became an Imam Masjid, a fervent preacher of Islam. My grandfather was conscious of his Brahmin ancestry. He resented if anyone spoke ill of the Vedas, yet he could not return to his roots owing to the psychological grounding he had received over the years.” बचपन में ही अनवर शेख ने अरबी भाषा सिखनी शुरु कर दी थी। इस्लामी शिक्षा प्राप्त करने के साथ साथ सन् १९४६ में मेट्रीक्युलेशन किया। इसी बीच वे इस्लाम के सर्वमान्य विद्वान इमाम बुखारी, इमाम इस्लाम आदि के हदीस संग्रह तथा अरबी संस्कृति और इतिहास की पुस्तकें और मौलाना अबुल कलाम आजाद की कुरान तफसीर से भी परिचित हो चुके थे।

१९४७ - भारत विभाजन-

स्व. अनवर शेख ने एक बार कहा था, “१९४७ मेरे जीवन का सबसे अंधकारमय समय था। हमें कहा गया था कि गैर-मुस्लिमों की हत्या करना, उनकी महिलाओं को पकडकर दूषित करना, उनकी सम्पतिओं को जला देना, आदि जिहाद, यानि पवित्र युद्ध है, और यह जिहाद एक मुसलमान का सबसे पवित्र फर्ज है... जिहाद करते करते “शहीद” होने वालों के लिए जन्नत की हूरें और छोकरे समेत अन्य कई प्रलोभन दिये गए थे"। आगे कहते हैं, “अगस्त १९४७ के प्रथम सप्ताह के एक दिन, जब मैं लाहौर की रेलवे ऑफिस में क्लर्क था, मैंने पूर्व-पंजाब से एक ट्रेन आती हुई देखी। वह ट्रेन मुस्लिम पुरुषों, महिलाओं और बच्चों के क्षत-विक्षत मृतदेहों से भरी हुई थी। इस दृश्य का मुझ पर एक भयानक प्रभाव पडा। घर पहुंचकर मैंने अल्लाह से प्रार्थना की और मेरे हिस्से की जन्नत की हूरें और छोकरे न भुल जाने की बिनती की... तुरंत मैं हाथ में एक डंडा और एक छुरी लेकर गैर-मुस्लिमों की शोध में निकल पडा... मुझे दो सिक्ख पुरुष - पिता और पुत्र - दिखाई दिए. मैंने दोनों को कत्ल कर दिया। अगले दिन मैं काम पर न गया... मैं कुछ और गैर-मुस्लिमों की हत्या करना चाहता था। दराबी रॉड पर मुझे एक और सिक्ख मिल गया और मैंने उनकी भी हत्या कर दी। कई बार जब उन दिनों की याद आ जाती है, मैं लज्जित हो जाता हूँ, और कई बार मैं पश्चाताप के आंसु बहा चुका हूँ। यदि मैं इस्लामी परम्परा से प्रेरित न हुआ होता तो शायद वे लोग आज भी जीवित होते... किसने मुझे सिखाया कि जिहाद - गैरमुस्लिमों की हत्या करना- एक उत्तम कार्य है?” अपने आपको पुछे गए इस सवाल के उत्तर में अनवर शेख कहते है – “कुरान की कुछ शिक्षाओं ने।

परिवर्तन का प्रारम्भ (मनोमन्थन)-

अनवर शेख कहते है कि इस्लाम पर संदेह पैदा होने की उनकी कहानी काफी रोचक व विचित्र है। वे एक बार रावलपिंडी में थे। उस समय उनकी उम्र २५ या २६ साल की थी। एक दिन वे कुरान पढ रहे थे; कुरान पढते पढते वे सुरः संख्या ४९ पर पहुंचे। इस सुरः की प्रथम आयत में अल्लाह विश्वासीयों (मुसलमानों) को कहता है कि वे जब पयगम्बर साहब की उपस्थिति में या पयगम्बर साहब के साथ वार्तालाप कर रहे हो तब ऊंची आवाज में न बोलें। श्री शेख सोचने लगे कि खुद पयगम्बर साहब यह बात सीधे अपने अनुयायीयों को नहीं कह सकते थे? अल्लाह मियां पयगम्बर साहब का कौन सा ऋणी था कि स्वयं उन्हें यह सलाह देने की जरुरत पड गई! श्री शेख को लगा कि यहाँ तो स्वयं परमात्मा ही उनके पयगम्बर के सेवक की तरह वर्ताव कर रहे है! इस आयत पर चिंतन-मनन कर श्री शेख इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यहाँ तो अल्लाह के नाम की आड में स्वयं पयगम्बर साहब ही अपने अनुयायीयों को उनके सामने अच्छी तरह से पेश आने की हिदायत दे रहे है! इससे पहले अनवर शेख कई बार कुरान पढ चुके थे, लेकिन अब उन्होंने निश्चय कर लिया कि अब से वे केवल आस्था के आधार पर कुरान नहीं पढेंगे। इस घटना के बाद उन्होंने समीक्षात्मक दृष्टि से कुरान का अध्ययन शुरु कर दिया और ठीक इसी समय से उन्होंने पयगम्बरवाद के सिद्धांत पर चिंतन-मनन शुरु कर दिया। इसी तरह वे कुरान ३३:५६ पर भी संदेह करने को मजबूर हो गए। कुरान ४:८२ में कहा गया है कि यदि कुरान अल्लाह की ओर से न होती तो उसमें भी कई विरोधाभास पाए जाते। श्री शेख ने कुरान के इस दावे की भी परीक्षा की और पाया कि कुरान में भी महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर ऐसे कई विरोधाभास है जो किसी भी साधारण मानवीय पुस्तकों में पाये जाते है। आगे चलकर उन्होनें कुरान के परस्पर विरोधी वचनो को दर्शाने वाली एक पुस्तक, "Faith & Deception", लिखी। इस तरह कुरान के अध्ययन के कारण ही अनवर शेख  धीरे धीरे इस्लाम से दूर हटते चले गए। इसे एक व्यक्तिगत मामला समजकर, उन्होंने ये शंकाएं किसीको बताई नहीं।

कार्डिफ-

सन् १९४७ और १९५६ के बीच अनवर शेख ने ग्रोसरी का बिजनेस किया, लेकिन जब वे इस बिजनेस में निष्फल रहे तब उन्होंने डिप्लोमा किया और इस डिप्लोमा के बल पर वे शिक्षक बन गए और कुछ समय के लिए एक हाईस्कूल में हेड-मास्टर के पद पर भी कार्य किया। सन् १९५६ में उन्होंने ब्रिटेन जाने का निश्चय किया और बाय चांस कार्डिफ पहुंच गए। कार्डिफ में शुरुआत के तीन वर्ष परेशानियों ने पीछा नहीं छोडा। इन विकट आर्थिक परिस्थितियों में से बाहर निकलने के लिए बस कन्डक्टर बन गए। तीन वर्ष तक नौकरी करते करते धन की बचत करते गए, छोटी मोटी प्रोपर्टी खरीदते गए। आर्थिक परिस्थितियां सुधरती गई, मिनी लेन्ड-लोर्ड बन गए और अन्त में प्रोपर्टी डेवलपर बन गए। उन्होंने यह बिजनेस २५ साल तक किया और सफलतापूर्वक किया और अपनी आर्थिक स्थिति से संतुष्ट होकर निवृत्त हुए। उन्होंने कहा था कि, “There comes a moment when you have to judge whether to do something really constructive, worthwhile and creative or to make more money. I chose to do something constructive.” वे ब्रिटेन की प्रसिद्ध पत्रिका “Freethinker” के ग्राहक थे और उस समय तक अपने आपको एक मुक्त-विचारक (freethinker) के रुप में देखते थे, जो किसी भी प्रकार के अंधविश्वासों  से मुक्त हो, जो अपने विचारों को प्रसिद्ध करने में संकोच नहीं करता, और साथ ही साथ दुसरे लोगों के विचारों का सम्मान करता हो, लेकिन जब उन्होंने ऋग्वेद का अध्ययन किया तो वे वेद के मानवतावादी अप्रोच से प्रभावित होने लगे। वे इस तथ्य से काफी प्रभावित हुए कि वेद का ईश्वर समूची मानवता [humanity] का ईश्वर है; वह पुरी मानवता को प्यार करता है. अनवर शेख  कहते है कि मुस्लिम परम्परा, जो कि गैर-मुस्लिमों के प्रति घृणा करना सिखाती है, में पलें-बढे होने के कारण वदों की मानवतावादी शिक्षा का तथ्य जानना उनके लिए जीवन एक असामान्य घटना थी। वे कहते हैं, “So it is my own experience which eventually made me a humanist.”

इस्लाम का गहन अध्ययन-

अनवर शेख कहते हैं कि कुरान, हदीस और अरब के इतिहास के गहन अध्ययन ने उनको इस निष्कर्ष पर पहुंचाया कि इस्लाम की स्थापना “divide and rule” के सिद्धांत पर हुई थी और इस्लाम का ध्येय है समूचे विश्व पर कब्जा जमाने के लिए अरबों को सक्षम करना। अनवर शेख कहते हैं, “I have no doubt the Prophet wanted to raise himself to the same status as Allah.” अर्थात् “मुझे इसमें कोई संदेह नहीं कि पयगम्बर स्वयं को अल्लाह के दरज्जे तक ऊंचे उठाना चाहता था।” इस हेतु को सिद्ध करने के लिए प्रथम उसने मानवता (humanity) को हंमेशा के लिए युद्धरत दो समूहों मे बांट दिया. उसने अपने अनुयायीयों (मुसलमानों) को हिजबुल्लाह (अल्लाह की पार्टी) नाम दे दिया और जो उनका अनुसरण नहीं करते वे उनकी नजर में हिज्बुशैतान (शैतान की पार्टी) थे। अनवर शेख का कहना है कि मानवता (humanity) को हंमेशा के लिए युद्धरत दो समूहों मे बांट देने की युक्ति कार्ल मार्क्स के “वर्ग-विग्रह” कि याद दिलाती है।

अनवर शेख कहते हैं कि इस्लाम का सृजन अरब मूल्यों को गैर-अरब प्रजा पर थोपने के लिए किया गया था। गैर-अरब मुस्लिम अरब लोगों को अपने से उच्च मानकर चले यह सुनिश्चित करने के लिए पयगम्बर साहब ने मक्का को इस्लाम का केंद्र बना दिया और यह प्रचलित कर दिया कि स्वयं अल्लाह ने मानवजात के आदि पुरुष आदम को मक्का स्थित काबा का निर्माण करने का आदेश दिया था। पयगम्बर साहब ने काबा की यात्रा [हज्ज] हर सक्षम मुसलमान के लिए अनिवार्य कर दी। इस्लाम-पूर्व की इस परम्परा को इस्लाम का अविभाज्य अंग बनाने के पीछे का वास्तविक उद्देश्य था अरब को आर्थिक लाभ पहुंचाना। इस्लाम विषयक गहन अध्ययन और चिंतन ने श्री शेख को “Islam: The Arab National Movement”, आदि पुस्तकें लिखने को प्रेरित किया।

लेखन-

अनवर शेख ने 1. Eternity, 2. Islam: The Arab Imperialism (इस्लाम: अरब साम्राज्यवाद), 3. Islam:  The Arab National Movement (इस्लाम: अरब राष्ट्रीयता का साधन), 4. Islam, Sex and Violence (इस्लाम: कामवासना और हिंसा), 5. This is Jihad, 6. Gandhi & Jinna: A Tale of Two Gujaratis, 7. Faith and Deception, 8. Autobiography of a Dissident, 9. Taxation and Liberty आदि पुस्तकें लिखी और प्रकाशित की है। ◆

Sunday, April 26, 2020

कामरूपी शत्रु पर विजय



◼️कामरूपी शत्रु पर विजय◼️
✍🏻 लेखक - महामहोपाध्याय पण्डित आर्यमुनि जी
सम्पादन एवं प्रस्तुति - 🌺‘अवत्सार’

अर्जुन उवाच -
      🔥अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।
      अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥गीता ३.३६॥
      पदार्थ- (अर्थ) इतिप्रश्ने (वार्ष्णेय) हे वृष्णिकुलोत्पन्न कृष्ण! (अयं पुरुषः) यह पुरुष (अनिच्छन्, अपि) इच्छा न करता हुआ भी (बलात्, नियोजितः, इव) बल से धकेले हुए के समान (केन, प्रयुक्तः) किसकी प्रेरणा से (पापं, चरति) पाप करता है।

श्रीभगवानुवाच -
      🔥काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
      महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्॥गीता ३.३७॥
      पदार्थ- (कामः, एषः) यह जो काम है (क्रोधः, एषः) क्रोध भी यही है (रजोगुणसमुद्भव:) रजोगुण से समुद्भव=उत्पत्ति है जिसकी, फिर यह कैसा है (महाशन:) बहुत खाने वाला है अर्थात् इसकी भूख कभी मरती ही नहीं, और (महापाप्मा) बड़ा पापी है (विद्धि, एनम्, इह, वैरिणम्) इसको वैरी समझो, इसी की प्रेरणा से मनुष्य पाप करता है।

      🔥धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
      यथोल्वेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्॥गीता ३.३८॥
      पदार्थ- (धूमेन, आवियते, वह्निः) जिस प्रकार धूम से अग्नि ढक जाती (यथा, आदर्शः, मलेन) जिस प्रकार दर्पण छाई से ढक जाता (च) और (यथा) जिस प्रकार (उल्वेन) जेर से गर्भ ढका रहता है (तथा) इसी प्रकार (तेन, इदम, आवृतम) उस काम से मनुष्य का ज्ञान ढका रहता है।

      🔥आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
      कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च॥गीता ३.३९॥
      पदार्थ- हे कौन्तेय! (ज्ञानिनः, नित्यवैरिणा) ज्ञानियों का जो यह नित्य वैरी है (एतेन, कामरूपेण) इस काम से (ज्ञानम्, आवृतम्) ज्ञान ढका हुआ है, फिर यह कैसा है (दुष्पूरेणअनलेन, च) दुःख से पूर्ण होने वाली आग है अर्थात् जैसे अग्नि लकड़ियों से तृप्त नहीं होती इसी प्रकार यह कामरूपी अग्नि कामनाओं से तृप्त नहीं होती।
      सं०- जिस प्रकार अधिष्ठान के जाने विना शत्रु नहीं जीता जा सकता इसी प्रकार इस काम के अधिष्ठान=स्थान जाने विना इसका जीतना असम्भव है, इस अभिप्राय से इसका अधिष्ठान कथन करते -

      🔥इन्द्रियाणि मनोबुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
      एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥गीता ३.४०॥           
      पदार्थ- (इन्द्रियाणि) इन्द्रियाँ (मनः) मन (बुद्धिः) बुद्धि (अस्य) इस काम का (अधिष्ठानम्, उच्यते) अधिष्ठान[स्थान] कथन किया गया है अर्थात् इन्द्रिय, मन और बुद्धिरूपी घर में काम रहता है (एतैः) इन तीनों से (ज्ञानम्, आवृत्य) ज्ञान को ढककर (एषः) यह (देहिनम्) जीवात्मा को (विमोहयति) मोह लेता है।

      🔥तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
      पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥गीता ३.४१॥
      पदार्थ- (भरतर्षभ) हे भरतकुल में श्रेष्ठ अर्जुन! (तस्मात्) इसलिये (त्वम्) तू (आदौ, इन्द्रियाणि, नियम्य) प्रथम इन्द्रियों को अपने वश में करके (हि) निश्चयपूर्वक (ज्ञानविज्ञाननाशनम्) ज्ञान=बाह्य पदार्थों का ज्ञान और विज्ञान=आत्मज्ञान का जो नाश करने वाला यह (पाप्मानम्) पापी काम है इसको (प्रजहि) नाश कर।
      सं०- अब इस कामरूपी शत्रु के जीतने का प्रकार कथन करते है-

      🔥इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
      मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥गीता ३.४२॥
      पदार्थ- (इन्द्रियाणि, पराणि, आहुः) स्थूल शरीर की अपेक्षा इन्द्रिय परे (इन्द्रियेभ्यः , परं, मन:) इन्द्रियों से मन परे (मनसः, तु, परा, बुद्धिः) मन से परे बुद्धि और (यः, बुद्धेः, परत:) जो बुद्धि से परे है (सः) वह आत्मा और परमात्मा है।

      🔥एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
      जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥गीता ३.४३॥
      पदार्थ- (महाबाहो) हे बड़े बल वाले! (एवम्) इस प्रकार (बुद्धेः, परं, बुद्ध्वा) बुद्धि से परे जो आत्मा और परमात्मा है उसको जानकर (आत्मना) स्वयम् अपने संस्कृत मन से (आत्मानं, संस्तभ्य) अपने आत्मा को परमात्मा में ठहराकर अर्थात् आत्मिक बल बढ़ाकर (काम रूपं, शत्रु, जहि) इस कामरूप शत्रु को जीत, यह कैसा शत्रु है जो (दुरासदम्) दुःख से मारा जा सकता है अर्थात् इसके मारने के लिये बड़ा प्रयत्न चाहिये।

      🌺भाष्य- जिस काम की प्रेरणा से मनुष्य पाप करता है उसके जीतने का एकमात्र साधन यहाँ परमात्मज्ञान ही बतलाया है, जब पुरुष उस परमात्मज्ञान का अनुष्ठान करता है तब यह कामरूपी शत्रु जीता जा सकता है अन्यथा नहीं, उसके अनुष्ठान का प्रकार यह है कि जब पुरुष "यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि" इनका अनुष्ठान करता है तभी इस शत्रु को जीत सकता है अन्यथा नहीं अर्थात् -

◼️(१) अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, इन पाँचों का नाम 'यम' है।
     ▪️(१) मन, वाणी, शरीर से किसी को दुःख न देने का नाम 'अहिंसा'।
     ▪️(२) यथार्थ भाषणादि व्यवहार का नाम 'सत्य'।
     ▪️(३) मन, वाणी, शरीर से परद्रव्य के हरण न करने का नाम 'अस्तेय' और
     ▪️(४) स्मरण, कीर्तन, क्रीड़ा, देखना, गुह्यभाषण, सङ्कल्प, अध्यवसाय=निश्चय, क्रियानिवृत्ति, यह जो अष्ट प्रकार का मैथुन है इसके त्याग का नाम 'ब्रह्मचर्य' है।
      ▪️(५) आवश्यकता से अधिक वस्तु पास न रखना अर्थात् अपने योगक्षेम से अधिक वस्तु का ग्रहण न करना 'अपरिग्रह'।

◼️(२) शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्रणिधान, इन पाँचों को 'नियम' कहते हैं।
      ▪️(१) अन्तर और बाह्य दोनों प्रकार से पवित्र रहना 'शौच' कहलाता है।
      ▪️(२) यथा लाभ सन्तुष्ट रहने को 'संतोष' कहते हैं।
      ▪️(३) शीतोष्णादि द्वन्द्वों को सहने का नाम 'तप' है।
      ▪️(४) वेद और वैदिक ग्रन्थों के युक्तिपूर्वक पठन का नाम 'स्वाध्याय' है।
      ▪️(५) सत्यादि गुणों से ईश्वर के स्वरूपचिन्तन का नाम 'प्रणिधान'

◼️(३) आसन - 'पद्मासनादिक'।

◼️(४) प्राणों को स्थिर करने का नाम 'प्राणायाम' है पूरक, रेचक, कुम्भक, इस भेद से प्रणायाम तीन प्रकार का होता है।

◼️(५) रूपादि विषयों से इन्द्रियों को रोकने का काम 'प्रत्याहार' है।

◼️(६) ईश्वर में मन के लगाने को 'धारणा' कहते हैं।

◼️(७) सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त ब्रह्म में ईश्वर व्यतिरिक्त वृत्तियों को हटाकर एकमात्र ईश्वर स्वरूप के अनुसंधान करने का नाम 'ध्यान' है।

◼️(८) ध्यान की अवस्थाविशेष का नाम 'समाधि' है।

      इन आठ साधनों से जब पुरुष परमात्मा का साक्षात्कार करता है तब यह काम जीता जा सकता है और यदि इनका अनुष्ठान न किया जाय तो नाममात्र के यम-नियमादिकों से काम कदापि नहीं जीता जा सकता, जैसाकि इस छन्द में काम कहता है कि -

      यमनेम सु आसनप्राणयमं प्रत्यहारबलीजगध्यान अलाए।
      धारणा और समाधि सुनो चित होय एकाग्र तो उपजाए॥
      इन जीतनहेतु रची अबला, यम नेम तभी हमरे बस आए।
      हम जीवत कौन भया जग में यमनेमकथा जिनके मन भाए॥

      यदि अनुष्ठान न हो तो यही गति यम नियम की हो जाती है, जैसा कि उक्त छन्द में वर्णन किया गया है, इसलिये “एवं बुद्धेः परं बुध्वा" इस अन्तिम श्लोक में परंज्योति परमात्मा का आश्रय बतलाया है, जिस आश्रय से यह शत्रु मारा जा सकता है। [श्रीमद्भगवद्गीतायोगप्रदीपार्यभाष्ये, तृतीयोऽध्यायः से उद्धृत]

॥ओ३म्॥

परमात्मा के प्रतिद्वन्दी



◼️परमात्मा के प्रतिद्वन्दी (Rival of God)◼️
✍🏻 लेखक - पं० गंगाप्रसाद जी उपाध्याय
सम्पादन एवं प्रस्तुति - 🌺‘अवत्सार’

[पूज्य पं० गंगाप्रसादजी उपाध्याय उर्दू भाषा के भी अद्वितीय लेखक थे। ‘खुदा के रकीब' शीर्षक से उन्होंने यह विचारोत्तजक रोचक लेख लिखा था। यह एक से अधिक बार उर्दू पत्रों में छपा। मेरी दृष्टि में यह उनके सर्वश्रेष्ठ लेखों में से एक हैं। मेरी चिरकाल से यह इच्छा थी कि इसका हिन्दी अनुवाद करके प्रकाशित करवाऊँ। आशा है आर्य संसार के विचारशील पाठक महान् दार्शनिक लेखक के इस आध्यात्मिक एवं बौद्धिक प्रसाद को पाकर स्वयं को भाग्यशाली मानेंगे। अनुवादक - राजेन्द्र जिज्ञासु]

      ◾सारे आस्तिक आस्तिक नहीं हैं, न सारे नास्तिक नास्तिक हैं - सारे आस्तिक आस्तिक नहीं हैं, न सारे नास्तिक नास्तिक। नास्तिकों की संख्या तो उंगलियों पर गिनी जा सकती है और इनमें भी वास्तविक नास्तिक बहुत थोड़े हैं परन्तु यदि सब आस्तिकों के मन व मस्तिष्क को टटोला जाय तो इन आस्तिकों में ईश्वर के उपासकों की संख्या बहुत थोड़ी मिलेगी।

      ◾नास्तिकों का कोई मन्दिर नहीं - नास्तिकों के कोई मन्दिर नहीं हैं। न उनके पुजारी, न वे चेले बनाते हैं अथवा कण्ठी माला देते हैं। आस्तिकों के मन्दिरों, मस्जिदों व गिरजाघरों की भरमार है। एक लोकोक्ति प्रसिद्ध है -

      काशी का हर कंकर शङ्कर है

      यह बात केवल काशी तक ही नहीं है। प्रत्येक देश में ऐसा बातें मिलती है। परन्तु, यदि इतने नास्तिक होते जितनी की गिनती बताई जाती है तो संसार ऐसा न होता जैसा कि आज है।

      सच्चिदानन्द परमात्मा से व्याप्त सृष्टि में आनंद का अभाव है। घर में अशान्ति, मुहल्ले में अशान्ति, नगर में, प्रान्त में, देश में और सारे संसार में अशान्ति है। एक विचारशील मनुष्य प्रश्न उठता है, क्या वास्तव में मनुष्य ईशोपासक हैं? जो परमात्मा की सत्ता ही नहीं मानता वह प्रतिद्वन्द्विता भी क्या करेगा? उसकी दृष्टि में कोई ऐसा प्रतिद्वन्द्वी नहीं जिसे ईश्वर कहा जा सके अथवा जिसका उसको भय हो। अथवा दूसरी शक्तियां हैं जिनको वह अपना प्रतिद्वन्द्वी समझता है। तथा जिनको वश में करने के लिए वह सदा प्रयत्नशील रहता है परन्तु जो परमेश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हैं वे तो सब प्रकार से ईश्वर को अपने वश में करने की चिन्ता करते रहते हैं।

      ◾भक्त के वश में हैं भगवान - अर्थात भक्ति क्या है? भगवान पर नियंत्रण करने का एक साधन। कहते हैं कि बाबा तुलसीदास जी एक मन्दिर में दर्शन के लिये गए। वह मन्दिर था कृष्ण भगवान का जिसमें कृष्ण की मूर्ति बांसुरी बजा रही थी। तुलसीदास थे राम के उपासक। राम के सच्चे भक्त थे। उनसे वह मन्दिर राम से रहित देखकर न रहा गया। (यह कहो कि सहा न गया)। मचल गए। “मैं तो तब दर्शन करूंगा जब मूर्ति धनुषवाण हाथ में लेकर राम का रूप धारण करेगी।”

      ◾ईश्वर की आज्ञा या ईश्वर को आज्ञा - कहा जाता है कि ऐसा ही हुआ। कृष्ण की मूर्ति राम की मूर्ति बन गई। इस कहानी से पता चलता है कि भक्ति का उद्देश्य ईश्वर की आज्ञा का पालन करना नहीं है। प्रत्युत्त ईश्वर से अपनी आज्ञा का पालन करवाना है। क्या यह सच्ची ईश्वर भक्ति अथवा ईश्वर की पूजा हैं।

      ◾ईश्वर के इतने प्रतिद्वन्द्वी - आस्तिक संसार में ईश्वर के अनेक प्रतिद्वन्द्वी हैं। जो ईश्वर के भक्तों का ध्यान ईश्वर से हटाकर अपनी ओर खीचते रहते हैं। वे सब स्थान तो ईश्वर के स्थान पर पूजे जाते हैं, ईश्रर के प्रतिद्वन्द्वी हैं।

      इन सबमें प्रथम स्थान गुरुओं का है। कहावत प्रसिद्ध है जिसने गुरु के दर्शन कर लिये उसने ईश्वर के दर्शन कर लिए। अतः गुरु का स्थान ईश्वर के स्थान से अधिक समझा जाता है। संसार में चाहे हिन्दू धर्म, चाहे अन्य मतों में जितने भी सम्प्रदाय हैं सबमें गुरु की महत्ता पर बल दिया गया है। तर्क यह है कि तुम ईश्वर को साक्षात् नहीं देख सकते . . . . गुरु तो सामने खड़ा है अतः गुरु को पूजो! अनेक लोगों का यह विश्वास है कि गुरु ईश्वर का साक्षात स्वरूप है। इसलिये वे गुरु की पूजा को ही ईश्वर-पूजा समझते हैं।

      गुरु गिरिधर दोनों खड़े किसके लागूं पाय।
      गुरु को शीश नवाय जिन गिरिधर दिये बताय।

      इन सबका भाव यह है कि गुरु की पूजा पहले करो फिर ईश्वर की और जब गुरुओं की पूजा होने लगी तो ईश्वर की पूजा संसार से लुप्त हो गई क्योंकि गुरु की पूजा को ही पर्याप्त समझा गया। जिस गुरु ने गिरधर को बता दिया वह प्रसन्न हो जायेगा और गिरधर को भी प्रसन्न कर सकेगा।

      ◾ईश्वर को भौतिक वस्तुयें नहीं चाहिये - ईश्वर की पूजा में ईश्वर भौतिक वस्तु नहीं है। न ही उसको भौतिक पदार्थों की आवश्यकता है। इसलिये ईश्वर की पूजा भौतिक वस्तुओं से नहीं होती। मन से ईश्वर का ध्यान करना ही तो ईश्वर की पूजा करना है परन्तु, गुरु तो एक मनुष्य है। उसका शरीर है। उसको शारीरिक आवश्यकतायें होना स्वाभाविक व आवश्यक है। उसे भोजन चाहिये, वस्त्र चाहिये, भवन चाहिये। अन्य सुख सुविधायें चाहियें। ये सब प्राप्त होने चाहिये। उसके चेले व चेलियों से ये सभी कुछ तभी तो मिलेगा जब कुछ ढोंग किया जाय और गुरु की महिमा जताने के लिये अनेक प्रकार की व्याख्यायें गढ़ी जायें। इसलिये आप देखेंगे कि गुरुओं की प्रसन्नता के लिये कितने यत्न किये जाते हैं। उनसे मन्नतें (कामनाये) मांगी जाती है। उनको स्नान कराया जाता है। उनके चरण तक धोकर पिये जाते हैं।

      ◾एक राधा स्वामी मित्र का विचित्र उत्तर - मैंने एक बार  अपने एक राधा स्वामी मित्र से पूछा, “आप गुरु का जूठा क्यों खा लेते हो? क्या यह गन्दा काम नहीं? इससे तो गुरुओं का रोग भी लग सकता है।”

      उस प्रतिष्ठित मित्र ने मुझसे एक प्रश्न पूछा, “क्या जूठा खाने  से रोग लग सकता है? मैंने कहा, हाँ , अवश्य लग सकता है”

      मेरे मित्र ने उत्तर दिया कि “जिस प्रकार से शारीरिक रोग जूठा खाने से गुरु के शरीर से शिष्य के शरीर में आ सकता है  इसी प्रकार जूठा खाने से गुरुओं की आध्यात्मिकता भी चेले भीतर प्रविष्ट हो सकती है।”

      ◾प्रत्येक भद्दे काम के लिये युक्ति दी जाती है - उस दिन मुझे पता लगा कि प्रत्येक व्यक्ति का एक दर्शन है। गन्दे से गन्दे कार्य के लिये वह एक तर्क रखता है। भले ही कुतर्क हो परन्तु तर्क तो है और उस तर्क को परखना प्रत्येक छोटे - बड़े के बस की बात नहीं है। मेरे मित्र ने जो युक्ति दी थी वह सुनने में तो अच्छी ही लगती थी।

      ◾गुरु जूठा खिलाकर विचार प्रविष्ट नहीं करा सकता - कम से कम उस मित्र को पूर्ण विश्वास था कि वह ठीक तथा विरोधी को चुप करने वाली युक्ति दे रहा है। ऐसा लगता है कि इस प्रकार की युक्तियाँ चेलों के मध्य कहीं जाती होगी। यद्यपि युक्ति सर्वथा लचर व भ्रामक थी। रोग तो शारीरिक होने से जूठा खाने से एक शरीर से दूसरे में जा सकता है। रोग के कीटाणु थूक के साथ दूसरे शरीर में बहुत सुविधापूर्वक प्रवेश कर सकते हैं परन्तु, आध्यात्मिकता के तो कीटाणु नहीं होते। गुरु अपना जूठा खिलाकर अपने विचार तो चेले के भीतर प्रविष्ट नहीं कर सकता। यदि ऐसा होता तो विभिन्न विषयों के कालेजों के प्राध्यापक अपने शिष्यों को जूठन खिलाकर विद्वान बना दें। गुरु की जूठन खाने का व ईश्वर की पूजा का परस्पर कुछ भी सम्बन्ध नहीं है - परन्तु लोग ईश्वर के स्थान पर गुरु को पूजते हैं।

      ◾मेरी परिभाषा में गुरु ईश्वर के प्रतिद्वन्द्वी हैं - मेरी परिभाषा में तो जो गुरु अपने चेले से पूजा कराता है, वह ईश्वर का प्रतिद्वन्दी हैं। संसार के मन्दिरों में देवताओं अथवा पूर्वजों की जो मूर्तियाँ पूजने के लिये रखी हुई हैं, वे सब ईश्वर के प्रतिद्वन्द्वी क्योंकि उनकी पूजा करने वाला यह समझ बैठता है कि अब ईश्वर की पूजा की आवश्यकता नहीं।

      ◾ईश्वर नहीं देखा - मूर्ति दिखाई देती हैं - लोग कहा करते हैं कि हमने ईश्वर नहीं देखा, हम इस मूर्ति को देख रहे हैं इसलिये इसी की पूजा करते हैं। यदि ईश्वर को देख पाते तो ईश्वर को पूजते।

      ◾सो ईश्वर की खोज क्यों करें? - इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि हमने उसी को अपना ईश्वर मान लिया है। हमको अब किसी दूसरे ईश्वर की खोज में भटकने की आवश्यकता नहीं। कुछ लोगों को यह पट्टी भी पढ़ाई गई है कि ईश्वर की आत्मा गुरु के आत्मा में विलीन हो जाती है अत: गुरु के दर्शन भी ईश्वर के दर्शन हैं।
     
      ◾ईश्वर भक्ति का आसन रिक्त होता है - गुरु से आगे चलिये तो अवतार अथवा पैगम्बर लोगों के सामने आते हैं उन्होने अथवा उनके अनुयायियों ने सदा यह प्रयास किया है कि इन अवतारों अथवा पैगम्बरों को ईश्वर का प्रतिनिधि स्वीकार कर लिया जाय। एक बार परमात्मा का प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाय तो उनकी ही पूजा आरम्भ हो जाती है। ईश्वर की पूजा या तो सर्वथा विलुप्त हो जाती है अथवा अपना आसन पैगम्बर पूजा (Prophet worship) के लिये रिक्त कर देती है और सब लोग भगवान के स्थान पर पैगम्बर को मान लेते हैं। हजरत मुहम्मद ने अपने चेलों से स्पष्ट कहा है कि जो मेरे हाथ पर बैअत करेगा वह समझ ले की खुदा की बैअत (दीक्षा) कर रहा है।

      ◾और पादरी कहेगा कि ईसा के बिना मुक्ति असम्भव है - हजरत ईसामसीह को लोगों ने खुदा का पुत्र कहा, खुदा कहा और खुदा का उत्तराधिकारी स्वीकार किया। परिणाम यह निकला कि परमात्मा को भूल गये। यदि किसी पादरी के सामने जाकर यह कहिये कि मैं ईश्वर को मानता हूँ परन्तु ईसा को नहीं तो वह अविलम्ब कहेगा कि हजरत ईसा के पास आये बिना मुक्ति का प्राप्त होना असम्भव है।

      ◾और मूर्तियाँ भी ईश्वर की प्रतिद्वन्द्वी बन गई - यही स्थिति अन्य मतों की है। श्रीकृष्ण की मूर्ति को पूज लो और ईश्वर की पूजा हो गई। राम की मूर्ति के सामने सिर झुका लो और ईश्वर की पूजा हो गई। इस प्रकार न केवल राम व कृष्ण हीं भगवान के प्रतिद्वन्द्वी हुए प्रत्युत उनकी मूर्तियाँ भी भगवान् की प्रतिद्वन्द्वी बन गई।

      एक बार एक व्यक्ति देहली में महात्मा गाँधी की समाधि पर माला फेर रहा था। गांधीजी आजीवन स्वयं को ईश्वर का सेवक मानते रहे परन्तु, उनके चेलों ने गांधीजी को ईश्वर का प्रतिद्वन्द्वी बना दिया। गांधी का पुजारी स्वयं को सीधा ईश्वर का पुजारी समझता है तथा आवश्यकता नहीं समझता कि दूसरे ईश्वर की खोज में यत्नशील रहे।

      ◾आस्तिकता का कितना अंश? - साधारण आस्तिकों में आस्तिकता का कितना अंश है? यह मैं एक घटना से स्पष्ट करता हूँ। प्राचीनकाल में राजाओं के सामने उनके शासन सम्बन्धी कोई शिकायत करने का किसी में साहस नहीं होता था। जब किसी को राजा का ध्यान किसी शिकायत की ओर खींचना होता था तो वह दरबार के बहुरुपिये की सहायता लेता था। केवल बहुरूपियों को यह अनुमति थी कि वे भली बुरी बातें अपने ढंग से कह सकते थे और शासक उससे परिणाम निकाल लेते थे।

      इस प्रकार अवध के नवाब के बहुरूपियों ने एक रूप बनाकर अपना खेल किया। एक बहुत बड़ा पीतल का हाण्डा भूमि पर रखा गया। उस पर एक छोटा हाण्डा, उस पर उससे एक छोटा हाण्डा - इस प्रकार से एक बड़े हाण्डे पर पच्चीस तीस छोटे हाण्डे रख दिये गए। सबसे ऊपर वाली हाण्डी बहुत छोटी थी। अब एक बहुरूपिये ने प्रश्न किया, यह नीचे का हाण्डा क्या?

      ◾अवध के नवाब के कर्मचारी - दूसरे बहुरूपिये ने उत्तर दिया, यह ग्राम के पटवारी की भेंट है। फिर दूसरे ने प्रश्न किया यह ऊपर का छोटा हाण्डा क्या है? उत्तर मिला, यह कानूँगों की भेंट है। तीसरा उससे छोटा तहसीलदार की घूस था। चौथा कोलैक्टर की और अन्त में सबसे छोटी हाण्डी के विषय में कहा गया कि यह माननीय नवाब साहेब का मालिया है। इस खेल में बहुरूपियों ने नवाब के सम्मुख यह प्रकट कर दिया कि आपके कर्मचारी सहस्रों रुपये की घूस डकार जाते है और स्वल्प राशि दरबार तक पहुँच पाती है।

      ◾थे तो प्रतिद्वन्द्वी परन्तु निष्ठावान - यह थी कहानी नवाब अवध के प्रबन्ध की जिसमें घूस में किसी प्रकार से कोई कमी नहीं छोड़ी गई थी। ये छोटे अधिकारी कर्मचारी नवाब के प्रतिद्वन्द्वी थे और ऐसे प्रतिद्वन्द्वी जो प्रतिद्वन्द्विता तो करते थे तथापि नवाब के आज्ञाकारी निष्ठावान कर्मचारी समझे जाते थे।
      परन्तु ये प्रतिद्वन्द्वी तो भीतर छुपकर भुजा को लिपटे साँप थे। उनको कैसे मारा जा सकता था।

      इस प्रकार यदि देखा जाय तो जो लोग ईश्वर पूजा की दुहाई देते हैं वहीं लोगों को ईश्वर के नाम पर अधिक ठगते हैं। जिस प्रकार मृतकों का श्राद्ध खाने वालों से कोई नहीं पूछता कि तुमने मृतकों के नाम पर जो भोजन प्राप्त किया वह मृतकों को पहुँचाया अथवा नहीं? इसी प्रकार किसी गुरू अथवा पैगम्बर से कोई नहीं पूछता कि जो बात आप भगवान् के प्रतिनिधि के रूप में कहते हो वह कहाँ तक भगवान् का प्रतिनिधित्व करती है।

      ◾कोई गुरू नहीं रोकता - सच्चे गुरुओं का काम अपनी पूजा करवाना नहीं है। प्रत्युत अपने अनुयायियों को यह बताना है कि ईश्वर के स्थान पर किसी अन्य की पूजा मत करो। सच्चा गुरु वह है जो अपने चेलों को ऐसी कुचेष्टा से बचाये व रोकता रहे कि मैं ईश्वर नहीं हूँ और ईश्वर वह है जो आपका भी उपास्य है और मेरा भी। मैं ईश्वर का उसी प्रकार का एक पूजक हूँ जैसे तुम हो परन्तु, कोई गुरू ऐसा नहीं करता। उसका लाभ इसी में है कि लोग उसे ईश्वर का प्रतिनिधि समझते रहें। जो ईश्वर से माँगना चाहते हैं, वह उसी से माँगते रहें और विचित्रता यह है कि यह मनुष्य - पूजा लोगों को ईश्वर से बहुत दूर कर देती।

      ◾चेले क्या माँगते हैं? - लोग गुरू के सामने जाकर यह नहीं कहते कि ईश्वरीय नियमों के पालन करने की विधियाँ बतायें कोई कहता है, मेरा उच्च अधिकारी रुष्ट हो गया है, प्रार्थना करें कि प्रसन्न हो जाय। कोई कहता है, मेरा बच्चा जो लम्बे समय से रोगग्रस्त हैं कैसे अच्छा हो जायेगा। कोई कहता है कि मेरे केस में मुझे सफलता मिल जाय।

      ◾गुरु क्या करता है? - और आप जानते है कि गुरु क्या करता है? वह दो मिनट के लिये आँखें बन्द कर लेता और फिर जो चाहे व्यवस्था दे देता है।

      ◾मरने वाले नरक में जाय अथवा स्वर्ग में - मुझे एक मित्र ने एक महात्मा का वृतान्त सुनाया जो बीस वर्ष पूर्व आर्यसमाजी थे परन्तु अब महात्मा बन गये हैं और लोगों को ईश्वर का दर्शन करवाने लगे और इस प्रकार उन्होने लाखों की सम्पत्ति एकत्र कर ली है। वह इसी प्रकार से कहते हैं कि तुम्हारा रोगी छ: मास में निरोग हो जायेगा। किसी से कहते हैं, विपदा तो आ पड़ी है, दूर हो जायेगी। चेले प्रसन्न होकर चले जाते हैं और सहस्रों रुपयों की भेंट चढ़ा जाते हैं।

      जहाँ वह महात्मा जाते हैं उनका राजाओं, सरीखा सन्मान होता है। ईश्वर कहाँ है? कैसा है? क्या चाहता है? उसको कैसे प्रसन्न कर सकते हैं? इनकी कतई चर्चा नहीं होती। बड़े बड़े भण्डारे होते हैं और चढ़ावे चढ़ते हैं। मरने वाला नरक में जाय अथवा स्वर्ग में, उनको अपने हलवे माण्डे से काम। ये सब भगवान् के प्रतिद्वन्द्वी और आस्तिकता के शत्रु हैं। जब तक ये पुजायें रहेंगे कोई ईश्वर-पूजक नहीं बन सकता।

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॥ओ३म्॥

ईश्वर की स्तुति कैसे करें?



ईश्वर की स्तुति कैसे करें?

लेखक- श्री मनोहर विद्यालंकार

सखाय: क्रतुमिच्छ्त कथा राघाम शरस्य।
उपस्तुतिं भोज: सूरिर्यो अह्रय:।। -ऋक् ८/७०/१३
पुरुहन्मा ऋषि:। इन्द्र: देवता। उष्णिक् छन्द:।

भूमिका- परमेश्वर के कुछ भक्तजन एकत्रित हुए। वे नित्य नियम से पूजापाठ, भजन-कीर्तन किया करते थे, किन्तु उनकी स्तुति कभी स्वीकार नहीं होती थी। उन्हें सदा यही प्रतीत होता था कि परमेश्वर उन पर न केवल प्रसन्न नहीं है, अपितु रुष्ट रहता है। उनकी समझ में नहीं आता था, कि उनकी स्तुति में क्या कमी रह जाती है, जो उनकी प्रार्थनाएं पूरी नहीं होतीं। इसके विपरीत नास्तिक जन- जो कभी सन्ध्या-पूजा नहीं करते, उन्नत और समृद्ध होते जाते हैं।

जब उनकी समझ में कुछ न आया तो वे लोग, पुरुहन्मा ऋषि के पास पहुंचे, और अपने अन्दर उठ रही विचिकित्सा को दूर करने के निमित्त प्रश्न किया- "हे भगवन्! आप ही हमारी शंका का निवारण कीजिये, और बतलाइये कि हम भक्तों को दुःख देने वाले उस ऐश्वर्यशाली परमेश्वर की स्तुति कैसे करें? हम तो उसकी स्तुति करते-करते थक गए, लेकिन हमारी कुछ सुनवाई नहीं होती। हम वैसे के वैसे गरीब बने हुए हैं, जबकि दूसरे लोग, जो परमेश्वर का नाम तक नहीं लेते आनन्द भोगते हैं, और मौज लड़ाते हैं।",
और कहा यह जाता है कि वह परमेश्वर सबको और विशेष कर अपने भक्तों को भोजन देने वाला है, सबको उत्पन्न करने वाला, प्रेरणा देने वाला और सन्मार्ग को दिखाने वाला है, तथा किसी से पराजित नहीं होता, दुष्टों का सामने झुकता नहीं।

इस पर पुरुहन्मा ऋषि ने कहा कि इसका रहस्य मैं बताता हूं। मैं अपने सारे जीवन के अनुभव के आधार पर यह बात कह रहा हूं। तुम इस पर विचार करो, और अमल करो। तुम्हारी स्तुति भी परमेश्वर के पास पहुंचेगी, और तुम आनन्द भोगोगे और मौज करोगे।
दोस्तो, मेरी बात को मामूली या किसी सामान्य आदमी की बात मत समझना। यह बात मेरे जीवन का सार है। मैं अपने सारे जीवन भर कुछ न कुछ करता रहा हूं, कभी निठल्ला नहीं बैठा। सदा गतिमय रहा हूं। बल्कि मेरी इस प्रवृत्ति के कारण लोगों ने मेरा नाम ही बहुत गति करने वाला = पुरुहन्मा = चक्रचरण = फिरकनी, रख दिया है। मेरा असली नाम तो अधिकतर लोग जानते ही नहीं हैं।

सच्ची स्तुति का रहस्य यह है कि 'क्रतुमिच्छत' कर्म की इच्छा करो। केवल सन्ध्या, भजन, पूजापाठ से कुछ नहीं होता। तुम्हारी जो इच्छा या कामना है, उसे पूरा करने के लिए कुछ कर्म करो। मतलब यह कि परमेश्वर की सच्ची स्तुति शब्द से नहीं कर्म से होती है, कथनी से नहीं, करनी से होती है।

अर्थ प्रश्न- (शरस्य) 'श् हिंसायाम्' भक्तों को सुख देने वाले की (उपस्तुतिं) स्तुति (कथा राघाम) किस प्रकार सिद्ध करें? जो (भोज:) सबको भोजन देने वाला तथा (सूरि:) प्रेरणा देने वाला है और (अह्रय:) अपराजित रहने वाला है। उत्तर- (सखाय: क्रतुमिच्छ्त) मित्रो, काम करने की इच्छा करो।

इस मन्त्र में परमेश्वर के तीन नाम बताए गए हैं। वह परमेश्वर
१. (भोज:) सबको भोजन देने वाला है, अगर तुम भी वैसा बनना चाहते हो तो (क्रतुमिच्छत) काम करो। ८/७८/७ में भी कहा है कि (क्रत्वइत्पूर्णमुदरम्) पेट कर्म के द्वारा ही भरता है।
२. वह (सूरि:) सबको प्रेरणा देने वाला है, अगर तुम भी वैसा बनना चाहते हो तो (क्रतुमिच्छत) प्रज्ञा=बुद्धि की कामना करो। जब तक स्वयं बुद्धिमान नहीं बनोगे दूसरों को भी प्रेरणा नहीं दे सकोगे।
३. वह (अह्रय:) कभी किसी से पराजित नहीं होता, दुष्टों के सामने झुकता नहीं, कोई ऐसा काम नहीं करता कि पीछे लज्जित होना पड़े; अगर तुम भी ऐसा बनना चाहते हो तो (क्रतुमिच्छत) संकल्प की इच्छा करो, सच्चे संकल्प वाले बनो। जो आदमी दृढ़ और सच्चे संकल्प करने वाला है, वह कभी बुरा काम नहीं करेगा, किसी प्रलोभन के आगे नहीं झुकेगा और किसी से पराजित नहीं होगा।
शब्दार्थ- क्रतु: - कर्म - प्रज्ञा - संकल्प।
स्तुति - शब्दात्मक स्तुति। उपस्तुति - कर्ममय स्तुति।
पुरुहन्मा - (हन हिंसागत्यो:) बहुत गति करने वाला।
-'गुरुकुल' (मासिक) के अंक से साभार

Sunday, April 19, 2020

वेदाध्ययन की आवश्यकता



वेदाध्ययन की आवश्यकता

लेखक- स्वामी वेदरक्षानन्द सरस्वती
प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ

वेदों के अध्ययन एवं प्रचार की आज अत्यन्त आवश्यकता है। वेदों के साचार अध्ययन में ही मानव की सुख-शान्ति एवं उज्ज्वल भविष्य निहित है। परन्तु यह हो कैसे? हम वेद को दिव्य काव्य मानते हैं। हम वेद को सत्यविद्याओं की पुस्तक स्वीकारते हैं कि वैदिकधर्म ही सार्वभौम धर्म है। किन्तु इस मान्यता इस स्वीकारोक्ति तथा इस दावे का मूल्य क्या है? जब तक कि हम वेदों को सर्वगम्य बनाकर उन्हें मनुष्यमात्र तक नहीं पहुंचाते? भारतीय इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब तक वेद की विचारधारायें मानवों में प्रचलित रहीं, तभी तक इस देश की संस्कृति एवं सभ्यता संसार में सर्वोपरि रही। जब से वेदों का संकोच प्रारम्भ हुआ है, तभी से वेदानुयायियों के दैन्य-भावनायुक्त जीवन के प्रकरण का प्रारम्भ हुआ है। यही नहीं, शनै: शनै: वेद से हम इतने दूर होते गये कि कालान्तर में वेदों के लुप्त हो जाने तक की कल्पना कर ली गई। वर्तमान युग में वेदों का तात्पर्य इतना दुर्गम हो गया है कि उनके वास्तविक अभिप्राय की अटकले-मात्र लगाई जा रही हैं।

वेद एक है और उसके चार काण्ड हैं। प्रथम ज्ञानकाण्ड का नाम ऋग्वेद है। दूसरे कर्मकाण्ड का नाम यजुर्वेद है। तीसरे उपासना काण्ड का नाम सामवेद है। चौथे विज्ञान काण्ड का नाम अथर्ववेद है। ज्ञानकाण्ड ऋग्वेद के अन्तिम सूक्त में कर्म के यथावत् पालन का संकेत करके कर्मकाण्ड यजुर्वेद में श्रेष्ठतम कर्म की शिक्षा दी गई है। कर्मकाण्ड यजुर्वेद का उपसंहार जिस अध्याय में हुआ है उसके अन्तिम मन्त्रों में उपासना का संकेत किया गया है और उपासना काण्ड सामवेद में उपासना की प्रतिष्ठा की गई है। सामवेद के अन्तिम मन्त्र में स्वस्तिपाठ है। स्वस्ति का अर्थ है सु-अस्ति, सु-अस्तित्व, विज्ञानमयपूर्ण जीवन। शरीर, बुद्धि, मेधा, चित्त और आत्मा की पूर्णता से मानव का स्वस्तिमय अथवा विज्ञानमय जीवन बनता है। स्वस्तिमय अथवा विज्ञानमय जीवन से युक्त पूर्ण पुरूष को ही विज्ञान की प्राप्ति होती है। सृष्टि, आत्मा और परमात्मा के इन्द्रियजन्य बोध का नाम ज्ञान है। आत्म-अवस्थिति द्वारा ब्रह्मस्थ होकर तीनों के साक्षात्कृत ज्ञान का नाम विज्ञान है। स्वस्ति का सम्पादन करके विज्ञान की प्राप्ति वेद के विज्ञानकाण्ड अथर्ववेद का प्रतिपाद्य है। स्वस्ति का सम्पादन और विज्ञान की उपलब्धि अभ्यास का विषय है। इसके लिए विज्ञानवेत्ता गुरु की आवश्यकता होती है। विज्ञानवान् गुरु के बिना इस मार्ग पर गति नहीं होती।

मानव की प्रत्येक सम्पत्ति, उसकी प्रत्येक उपलब्धि, उसकी बुद्धि, हृदय, चित्त, मन, ज्ञान-कर्मन्द्रियां उसके विचार व भावनायें, उसके संस्कार व प्रवृत्तियां, उसकी भौतिक प्राप्तियां- सबकुछ 'भूताय' भूतमात्र, प्राणिमात्र के लिए हैं। मानव ने जब-जब इस चेतावनी की उपेक्षा की है, तब-तब ही ठोकरें खानी पड़ी हैं। न केवल भौतिक उपलब्धियां, अपितु मानसिक व बौद्धिक विचारधारायें भी इसी विशाल लक्ष्य को लिये हैं। जिस प्रकार भौतिक शक्तियों के संग्रह एवं संकुचित प्रयोग से मानवजाति ओर संकट आये हैं तथैव विचारों एवं विद्याओं का संकोच से भी भयंकर आपदायें आई हैं। भौतिक संकुचन से वैचारिक एवं विद्यासम्बन्धी संकुचन कहीं अधिक भयानक होता है। इस दूसरे प्रकार के संकोच का परिणाम अनन्तकाल तक मानवों को भोगना पड़ता है। यही नहीं, स्वयं विचारों और विद्याओं के स्वस्थ अस्तित्व एवं अभिवर्धन के लिए भी यह नितान्त आवश्यक है कि संकोच के स्थान में 'विश्व जनहिताय' का लक्ष्य अभिमुख रहे। अन्ततः किसी भी वस्तु के अस्तिव का अभिप्राय परार्थ ही तो है। यदि परार्थ के स्थान में उसका लघु स्वार्थों के लिए उपयोग होने लगे, तो न केवल उपयोक्ता, परन्तु वस्तु भी, दोनों ही भ्रष्ट एवं नियति-नियत कर्त्तव्य से च्युत होने के दोषभागी बनते हैं।
हमारे देश में इसी कारण विद्या के लक्ष्य रखा गया था 'विमुक्ति'। विद्या वह है जो स्वयं मुक्त हो, उदार हो, विशाल हो और अपने व्यसनी को भी उदार, मुक्त और विशाल बना दे। इसी कसौटी पर हम यदि वेद और वैदिक विद्याओं को परखें, तो हम मानवों के मस्तक लज्जा एवं ग्लानि से झुक जाते हैं। हमने वेदों को संकुचित कर दिया। उनके पठन-पाठन, अध्ययन-अध्यापन, श्रवण-मनन सब पर कठिन अंकुश लगा दिये। इतना डराया और घबराया गया अबोध जनता को कि अशुद्ध पाठ के भय से सर्वनाश की आशंका आ गई और फलतः समाज का एक अत्यन्त विशाल भाग वेदों से वंचित हो गया। मानवता की जड़ों पर कुठाराघात करने वाली वेद के तथाकथित ठेकेदारों की निकृष्ट एवं संकुचित मनोवृत्ति का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि समाज के श्रमिक शूद्रवर्ग तथा उस नारी वर्ग को जिसकी पूजा को स्वर्गोपलब्धि का साधन कहा गया था, एकबारगी ही वेद के अध्ययन से अधिकारच्युत कर दिया गया। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के उद्घोषक महामानव किस प्रकार अपने हृदय को इतना कठोर बना सके कि 'स्त्रीशूद्रो नाधीयताम' के वचन उनके मुख से निकल पाये। यह कैसी विडम्बना है?

वेद के संकोच के भयंकर अपराध का फल आज तक हम ही नहीं समस्त मानवजाति भोग रही है। कहां वेदों के उदात्त, महतो महान्, हिमालय के सर्वोच्च शिखर के समान उज्ज्वल, प्राणपोषक एवं उदारतम विचार व भावनायें और कहां इस युग में प्रचलित भय, आशंका, निराशा, मृत्यु एवं स्वार्थ की चरमसीमा को भी पार करनेवाली महाविनाशकारी, जघन्य, कुत्सितातीत अमानवीय भावनायें। वेद जीवन में विश्वास करना सिखाता है मृत्यु में नहीं। वेद 'उद्यानं ते पुरुष' का उद्घोष करता है तो वर्तमान विचारधारायें दुःखमय जीवन, अनास्था, अनुत्साह, नीरसता, अकर्मण्यता, भीरुता, अविश्वास एवं अत्यंत काले भविष्य की ओर संकेत करने वाली हैं। मानवजाति का भविष्य तभी समुज्ज्वल होगा, जब वेद की उदात्त शिक्षाओं का मनन एवं आचरण होने लगेगा। आइये, वेद में श्रद्धा रखने वाले हम सब मानव इस यज्ञ की सफलता के लिए कटिबद्ध हो जायें।
-'सर्वहितकारी' से साभार

सनातन धर्म और आर्य समाज



सनातन धर्म और आर्य समाज

-कृष्ण चन्द्र गर्ग

अथर्ववेद में ‘सनातन’ शब्द का अर्थ किया गया है-
सनातनमेनमाहुरताद्य स्यात्पुनर्णवः। अहोरात्रे प्र जायेते अन्यो अन्यस्य रूपयोः।। (अथर्ववेद 10-8-23)
अर्थ- सनातन उसको कहते हैं जो कभी पुराना न हो, सदा नया रहे, जैसे दिन-रात का चक्र सदा नया रहता है।

वेद- सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा दिया वो ज्ञान है जिसकी मनुष्य को संसार में रहते हुए आवश्यकता है और जिसको जान करके मनुष्य सुखपूर्वक रह सकता है। ‘वेद’ शब्द का अर्थ ही ज्ञान है। वेद ज्ञान दो अरब वर्ष पहले जितना सत्य और व्यवहारिक था आज भी उतना ही सत्य और व्यवहारिक है। अतः वेद सनातन हैं और वेद का ज्ञान भी सनातन है।

सनातन धर्म वेद को धर्म का आधार मानता है और आर्य समाज भी वेद को धर्म का आधार मानता है। वेदों के अतिरिक्त दूसरे ग्रन्थों में जो-जो बातें वेद-अनुकूल हैं, आर्य समाज उन्हें स्वीकार करता है और जो-जो बातें वेद-विरुद्ध हैं, आर्य समाज उन्हें स्वीकार नहीं करता। सनातन धर्म ने बहुत-सी बातें वेद-विरुद्ध भी स्वीकार कर ली हैं। यही अन्तर है- सनातन धर्म और आर्य समाज में। वेद विरुद्ध बातों को स्वीकार करना और उन्हें व्यवहार में अपनाना ही आर्य (हिन्दू) जाति के पतन का कारण बना है।

1. ईश्वर का स्वरूप- वेदों में अनेक स्थानों पर ईश्वर के स्वरूप का वर्णन है-
ओ३म् खं ब्रह्म। (यजुर्वेद 40-17)
अर्थ- आकाश के समान व्यापक, सबसे बड़ा, सब जगत् का रक्षक 'ओ३म्' है।

ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्। (यजुर्वेद 40-1)
अर्थ- इस गतिशील संसार में जो कुछ भी है उस सबमें ईश्वर का वास है।

स पर्यगात् शुक्रम् अकायम् अव्रणम्। (यजुर्वेद 40-8)
अर्थ- वह परमात्मा सर्वत्र व्यापक है। वह शीघ्रकारी है। उसका कोई शरीर नहीं है। वह छिद्र रहित है।

न तस्य प्रतिमाऽस्ति यस्य नाम महद्यश:। (यजुर्वेद 32-3)
अर्थ- उस परमात्मा की कोई आकृति या मूर्ति नहीं है। उसे नापा या तोला नहीं जा सकता। उस परमात्मा का नामस्मरण अर्थात् उसकी आज्ञा का पालन करना अर्थात् धर्मयुक्त कामों का करना बहुत कीर्ति देनेवाला है।

वेद ईश्वर द्वारा दिया मनुष्यों के लिए विधान है। वेद के अनुसार चलना ही ईश्वर की आज्ञा का पालन करना है। वेद के विरुद्ध चलना ईश्वर की आज्ञा का उल्लंघन करना है।
आर्य समाज वेद में वर्णित ईश्वर के इस स्वरूप को ही स्वीकार करता है।

2. मूर्तिपूजा- आर्य समाज मूर्तिपूजा को ईश्वर की पूजा नहीं मानता। मूर्तिदर्शन- मूर्तिदर्शन है, ईश्वर-दर्शन नहीं है। संसार में बौद्ध काल से पहले किसी भी रूप में मूर्तिपूजा प्रचलित न थी।

वेद, शास्त्र, उपनिषद्, मनुस्मृति आदि किसी भी वैदिक ग्रन्थ में मूर्तिपूजा का विधान नहीं है। आदि शंकराचार्य, गुरुनानक देव, कबीर, दादू, समर्थ गुरु रामदास, राजा राममोहन राय, महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती आदि महापुरुषों ने मूर्तिपूजा का पुरजोर खण्डन और विरोध किया है।

मूर्तिपूजा सबसे बड़ी अज्ञानता है। यह व्यर्थ ही नहीं अपितु हिन्दुओं के विनाश का सबसे बड़ा कारण भी है। मूर्तिपूजा के सहारे हिन्दू कायर, कमजोर, निरुत्साही और अपुरुषार्थी हुए हैं। मुसलमानों ने हजारों मन्दिरों और मूर्तियों को तोड़़ा है और वहां से अथाह धन लूटा है। किसी मूर्ति ने किसी हमलावर का सिर तक न फोड़ा।
और भी, मूर्तिपूजा से सन्तुष्ट होकर हिन्दुओं ने ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को जानने का प्रयत्न भी नहीं किया। सर्वव्यापक होने से ईश्वर हमारे सब कामों को देखता है और जानता है। उनके अनुसार वह हमें सुख और दु:ख के रूप में फल देता है। वह पूर्ण न्यायकारी है। उसके न्याय से कोई बच नहीं सकता। यह बात जानकर बुरे कामों से बचा जाए ताकि उसके परिणाम स्वरूप दु:ख न भोगना पड़े। साथ ही ईश्वर के न्यायकारी, सत्यकर्ता, ज्ञानवान्, पवित्र, दयालु आदि गुणों को याद करके उन्हें अपनाया जाए ताकि सुख मिले। यही ईश्वर का नामस्मरण है। 

निराकार होने से ईश्वर आँख का विषय नहीं है। वह मन का विषय है।
न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चैनम्।
हृदा हृदिस्थं मनसा च एनमेव विदुरमृतास्ते भवन्ति।। (श्वेताश्वतर उपनिषद् 4-20)
अर्थ- परमात्मा का काई रूप नहीं जिसे आँख से देखा जा सके। उसे कोई भी आँख से नहीं देखता। वह हृदय में स्थित है। जो उसे हृदय से तथा मन से जान लेते हैं वे आनन्द को प्राप्त करते हैं।

3. धर्म क्या है- महाभारत में विदुरनीति के अन्तर्गत श्लोक है-
नासौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति। न तत् सत्यं यत् छलेनाभ्युपेतम्।। (विदुरनीति 3-58)
अर्थ- वह धर्म नहीं है जहां सत्य नहीं है। वह सत्य नहीं है जिसमें छल है।

इस प्रकार-
सत्य- यह धर्म, असत्य- यह अधर्म।
न्याय- यह धर्म, अन्याय- यह अधर्म।
निष्पक्ष- यह धर्म, पक्षपात- यह अधर्म।

न लिंगम् धर्मकारणम्। (मनुस्मृति)
अर्थ- बाहरी चिह्न किसी को धर्मात्मा नहीं बनाते।
काला-पीला, चोगा पहनना, दाढ़ी मूंछ या सिर के बाल बढ़ाना, कण्ठी-माला धारण करना, हाथ में चिमटा रखना, तिलक लगाना आदि बातों का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है।

आचारः परमो धर्मः। (मनुस्मृति 1-108)
अर्थ- शुभगुणों के आचरण का नाम ही धर्म है।
मन-वचन-कर्म से सत्य का आचरण, पक्षपात रहित न्याय, परोपकार, सदाचार आदि का नाम धर्म है। संसार के सभी मनुष्यों का यही धर्म है जिसे वेद में मानव धर्म कहा गया है।

ईसाई, पारसी, यहूदी, इस्लाम आदि धर्म नहीं हैं। ये पंथ (मजहब, सम्प्रदाय, religion) हैं जो किसी व्यक्ति द्वारा चलाए लोगों के समूह हैं। इन सम्प्रदायों के कारण ही संसार में अशान्ति और शत्रुता है। ईश्वर ने ये पंथ नहीं बनाए, इंसान ने बनाए हैं। इसलिए सही अर्थों में ही इंसान बनना चाहिए।

4. श्राद्ध- जीवित माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी आदि की खान-पान, वस्त्र, निवास, सद्व्यवहार से सेवा करने को ही आर्य समाज श्राद्ध मानता है। जो मर गए हैं उनके प्रति ये बातें लागू नहीं होतीं। मरने के बाद अगले जन्म में वे जहां चले गए हैं, ईश्वर उनकी वहीं पर व्यवस्था करता है। अगर वे मनुष्य की योनि में गए हैं तो माता के स्तनों में वह दूध पहले ही पैदा कर देता है।

5. जातपात- देश में प्रचलित जातपात को आर्य समाज स्वीकार नहीं करता। वेदों में ऐसी जातपात का कोई विधान नहीं है। वेद तो कहता है-
अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते संभ्रातरो वावृधुः सौभगाय। (ऋग्वेद 5-60-5)
अर्थ- हम में कोई छोटा या बड़ा नहीं है। हम सब आपस में भाई-भाई हैं। हम सबको मिल करके समृद्धि के लिए काम करना चाहिए।

महर्षि मनु ने समाज की सभी समस्याओं को तीन भागों में बांटा था- अज्ञान, अन्याय और अभाव। जो लोग शिक्षा द्वारा अज्ञान को दूर करते थे वे ब्राह्मण कहलाए, जो लोग समाज को सुरक्षा प्रदान करके अन्याय से बचाते थे वे क्षत्रिय कहलाए और जो लोग समाज की रोटी, कपड़ा, मकान आदि की आवश्यकताएं पूरी करते थे वे वैश्य कह जाते थे। शेष रहे लोग उपर बताए तीनों प्रकार के लोगों की सहायता करते थे, वे शुद्र कहलाए। यह व्यवस्था जन्म के आधार पर न थी, अपितु व्यक्ति की बौद्धिक और शारीरिक योग्यता के आधार पर थी। आर्य समाज इसी व्यवस्था को स्वीकार करता है जैसे आज कल अध्यापक हैं, पुलिस और सेना है, किसान और व्यापारी हैं। ये जन्म के आधार पर नहीं हैं अपितु व्यक्ति की योग्यता के अनुसार हैं।

6. अवतारवाद- सनातन धर्म के लोग ऐसा मानते हैं कि कोई विशेष काम करने के लिए ईश्वर मनुष्य के रूप में जन्म लेता है। इसे वे ईश्वर का अवतार मानते हैं। आर्य समाज ऐसा नहीं मानता।

ईश्वर पहले ही सब जगह विद्यमान है। इसलिए उसके आने-जाने की बात सार्थक नहीं है। ईश्वर इतना शक्तिशाली है कि वह सूर्य, चंद्र, तारे, पृथ्वी आदि सारे ब्रह्माण्ड को बनाता है। तो क्या किसी आदमी को मारने आदि छोटे काम उसके लिए मुश्किल है? नहीं। इसलिए उसके मनुष्य रूप में आने की कल्पना सर्वथा व्यर्थ है, ईश्वर का अपमान है। वह तो सब मनुष्यों के अन्दर पहले ही विद्यमान है। ईश्वर न जन्म लेता है, न मरता है, वह सदा एकसा सब जगह रहता है।

महाभारत में श्री कृष्ण जी कहते हैं - 
अहं हि तत् करिष्यामि परमपुरुषकारतः। दैवं तु न मया शक्यं कर्म कर्त्तुं कथंचन।।
अर्थ- मैं एक श्रेष्ठ पुरुष की भान्ति अपनी मेहनत से तो काम करूँंगा, परन्तु ईश्वर के विधान में दखल देना मेरे सामर्थ्य से बाहर है।

सीता हरण के बाद श्री रामचन्द्र जी लक्ष्मण से कहते हैं-
न मद्विधो दुष्कृत कर्मकारी मन्ये द्वितीयोऽस्ति वसुन्धरायाम्।
शोकेन शोको हि परम्पराया मामेति भिन्दन् हृदयं मनश्च।। (वाल्मीकि रामायण, अरण्यकाण्ड)
अर्थ- मैं समझता हूँ कि इस भूमि पर मेरे समान दुष्कर्म करने वाला और कोई नहीं है क्योंकि शोक पर शोक मेरे हृदय और मन को भेदने को प्राप्त हो रहे हैं।

7. योगेश्वर श्री कृष्ण जी का पवित्र जीवन चरित्र- महाभारत में श्री कृष्ण जी का जीवन बड़ा पवित्र बताया गया है। उन्होंने जन्म से मृत्यु तक कोई भी बुरा काम किया हो- ऐसा नहीं लिखा। वे एक पत्नीव्रती थे। उनकी पत्नी थी रुकमणी। वे सुदर्शन चक्रधारी, योगेश्वर, नीतिनिपुण, युद्ध में पाण्डवों को विजय दिलाने वाले, कंस, जरासंध आदि दुष्ट पापाचारी राजाओं का वध करने वाले थे।

परन्तु भागवत पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण में श्री कृष्ण जी पर दूध-दही-मक्खन की चोरी, कुब्जा दासी से सम्भोग, परस्त्रियों से रासलीला क्रीड़ा आदि झूठे दोष लगाए हैं। गोपालसहस्रनाम में श्री कृष्ण जी को चौरजारशिखामणि तक का ख़िताब दिया गया है जिसका अर्थ है चोरों और जारों का सरदार। ऐसी बातों को पढ़-पढ़ा और सुन-सुना कर दूसरे मत वाले श्री कृष्ण जी की बहुत-सी निन्दा करते हैं और हिन्दुओं का मज़ाक उड़ाते हैं।

महाभारत में वर्णित श्री कृष्ण जी का स्वरूप ही उनका वास्तविक स्वरूप है। भागवत आदि पुराण महर्षि वेद व्यास के बनाए हुए नहीं है। ये बहुत बाद में बनाए गए ग्रन्थ हैं जिनमें स्वार्थी लोगों ने श्री कृष्ण जी पर ऐसे झूठे लांछन लगाए हैं। आर्य समाज श्री कृष्ण जी के उसी रूप को स्वीकार करता है जो महाभारत में बताया गया है।

8. गंगा नदी का महत्त्व- गंगा एक बड़ी नदी है जो भारतवर्ष के बहुत से भूभाग में से होकर गुजरती है। देश की बहुत-सी खेती-बाड़ी तथा अन्य जरूरतें गंगा के पानी पर निर्भर हैं। इसलिए देश के लिए गंगा का बड़ा महत्त्व है। ऐसा मान लेना कि गंगा में डुबकी लगाने से पाप धुल जाते हैं, निरी अज्ञानता है। पाप या पुण्य का फल तो भोगे बिना नहीं मिटता। यही न्यायकारी प्रभु का अटल विधान है।

अद्भिर्गात्राणि शुद्ध्यन्ति मनः सत्येन शुद्ध्यति। विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुद्ध्यति।। (मनुस्मृति 5-3)
अर्थ- जल से शरीर शुद्ध होता है, मन सत्य के आचरण से शुद्ध होता है। विद्या से और तप से (सब प्रकार के कष्ट उठाकर भी धर्म का आचरण करने से) जीवात्मा पवित्र होता है और बुद्धि ज्ञान से पवित्र होती है।
आर्य समाज की यही मान्याता है।

9. सुख-दुख का कारण- कोई भी परेशानी आ पड़ने पर सनातनधर्मी लोग ग्रहों को उसका कारण मानते हैं। फिर ग्रहों को शान्त करने के लिए तथा मुसीबत से निकलने का उपाय ढूँढने के लिए तथाकथित पण्डितों के पास जाते हैं। ऐसे पण्डित लोग इधर-उधर की बातें करके उन्हें चक्रों में डालते हैं और वे झूठे आश्वासन देकर उनसे धन ऐंठते हैं।

आर्य समाज मानता है कि सुख-दु:ख मनुष्य के अपने अच्छे और बुरे कामों का फल हैं। यह ईश्वर की न्याय व्यवस्था है- जैसी करनी वैसी भरनी, जो बोया सो काटा। कोई पण्डित, पाधा, ज्योतिषी इस व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं कर सकता। ग्रह जड़ हैं जैसे हमारी पृथ्वी है। वे ज्ञानहीन हैं, बुद्धिहीन हैं। वे किसी से प्रेम या द्वेष नहीं कर सकते। ग्रहों का प्रभाव सबके उपर एकसा रहता है जैसे सूर्य का प्रकाश और गर्मी सबके लिए है।

10. व्रत- सनातनधर्मी लोग किसी विशेष दिन कम खाना, बदलकर खाना, कुसमय खाना या न खाने को व्रत मानते हैं। परन्तु इस सम्बन्ध में वेद तो कुछ और ही कहता है जिसे आर्य समाज मानता है।
ओ३म् अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्। इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि।। (यजुर्वेद 1-5)
अर्थ - हे सत्य धर्म के उपदेशक, व्रतों के पालक प्रभु! मैं असत्य को छोड़कर सत्य को ग्रहण करने का व्रत लेता हूँ। आप मुझे ऐसा सामर्थ्य दो कि मेरा यह व्रत सिद्ध हो अर्थात् मैं अपने व्रत पर पूरा उतरूँ।

11. दान- सुपात्र को दान देना एक शुभ कर्म है, परन्तु कुपात्र को देना पाप है।
सुपात्र कौन- गरीब, रोगी, अंगहीन, अनाथ, कोढ़ी, विधवा या कोई भी जरूरतमन्द, विद्या और कला कौशल की वृद्धि के लिए, गोशाला, अनाथालय, हस्पताल आदि दान के सुपात्र हैं।

न पापत्वाय रासीय। (अथर्ववेद)
अर्थ- मैं पाप के लिए कभी दान न दूँ।

धनिने धनं मा प्रयच्छ। दरिद्रान्भर कौन्तेय। (महाभारत)
अर्थ - हे युधिष्ठर! धनवानों को धन मत दो, गरीबों की पालना करो।
भरे पेट को रोटी देना उतना ही गलत है जितना स्वस्थ को औषधि। रोटी भूखे के लिए है और औषधि रोगी के लिए है। समुद्र में हुई वर्षा व्यर्थ है।

सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते। वार्यन्नगौमहीवासस्तिलकाञ्चनसर्पिषाम्। (मनुस्मृति 4-233)
अर्थ- संसार में जितने दान हैं अर्थात् जल, अन्न, गौ, भूमि, वस्त्र, तिल, सुवर्ण, घी आदि इन सब दानों से वेद विद्या का दान अतिश्रेष्ठ है।

12. आर्य और हिन्दू शब्द- वेद, शास्त्र, मनुस्मृति, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता आदि सभी प्राचीन ग्रन्थों में आर्य शब्द ही मिलता है, हिन्दू नहीं। संस्कृत के कोष ‘शब्दकल्पद्रुम’ में आर्य शब्द के अर्थ- पूज्य, श्रेष्ठ, धार्मिक, उदार, न्यायकारी, मेहनत करने वाला आदि किये हैं।

कृण्वन्तो विश्वमार्यम्। (ऋग्वेद 9 - 63 - 5) अर्थ - सारे संसार को आर्य (श्रेष्ठ) बनाओ।
अनार्य इति मामार्याः पुत्र विक्रायकं ध्रुवम्। (वाल्मीकि रामायण, अयोध्याकाण्ड)
अर्थ- (राजा दशरथ राम को वन में भेजना न चाहते थे) वे कहते हैं- आर्य लोग (सज्जन) मुझ पुत्र बेचने वाले को निश्चय ही अनार्य (दुष्ट) बताएंगे।

हिन्दू शब्द मुसलमानों ने घृणा के रूप में हमें दिया है। यह फारसी भाषा का शब्द है। फारसी भाषा के शब्दकोष में ‘हिन्दू’ का अर्थ है - चोर, डाकू, गुलाम, काफिर, काला आदि। मुसलमान आक्रमणकारी जब भारत में आए उन्होंने यहां के लोगों को लूटा, मारा तथा पकड़ कर गुलाम बनाकर अपने साथ अपने देश में ले गए। वहां ले जाकर उनसे अनाज पिसवाया, घास खुदवाया, मल-मूत्र आदि उठवाया तथा बाजारों में बेचा। तब उन्होंने यहां के लोगों को ‘हिन्दू’ नाम दिया।

आठवीं सदी से पहले यानि कि मुसलमानों के आने से पहले भारतवर्ष में हिन्दू शब्द का प्रचलन न था, सब जगह आर्य और आर्यावर्त शब्द ही प्रसिद्ध थे। चीनी यात्री ह्यूनसांग भारत में सातवीं सदी में (सन् 631 से 645 तक) आया था। वह इस देश का नाम आर्य देश लिखता है।

सन् 1870 में काशी में टेढ़ा नीम नामक स्थान पर काशी के राजा के अधीन एक धर्मसभा हुई। सभा में विश्वनाथ शर्मा, बाबा शास्त्री आदि 45 विद्वानों ने विचार विमर्श के बाद यह व्यवस्था दी थी कि ‘हिन्दू’ नाम हमारा नहीं है, यह मुसलमानों की भाषा का है और इसका अर्थ है अधर्मी। अतः इसे कोई स्वीकार न करे।
हिन्दू-शब्दो हि यवनेषु अधर्मीजन बोधकः। अतो नाहर्ति तत् शब्द बोध्यतां सकलो जनः।।

13. हम आर्य, जो आजकल हिन्दू नाम से जाने जाते हैं, ही भारतवर्ष के मूल निवासी हैं। संसार में सबसे पुराने कोई ग्रन्थ हैं तो वे हैं आर्यों के ग्रन्थ- वेद। संसार में सबसे पुराना कोई साहित्य है तो वह है आर्यों का संस्कृत भाषा में साहित्य। संस्कृत के किसी ग्रन्थ में ऐसा नहीं लिखा है कि आर्य भारतवर्ष में कहीं बाहर से आए थे। इस देश का नाम पहले आर्यावर्त था, ऐसा बहुत से ग्रन्थों में लिखा मिलता है। आर्यावर्त से पहले इस देश का क्या नाम था कहीं भी नहीं लिखा मिलता। अतः निश्चित है कि आर्यों से पहले इस देश में कोई और न था और न ही इस देश का कोई और नाम था। इसलिए यह बात कि ‘आर्य इस देश में कहीं बाहर से आकर बसे थे’, सत्य नहीं है।

आर्यों (हिन्दूओं) में फूट डालने के लिए द्रविड़ों को आर्यों से भिन्न बताया गया था। जबकि वास्तविकता यह है कि द्रविड़ शब्द आर्य ब्राह्मणों के दस कुलों में से पांच कुलों में होता है जिसमें आदि शंकराचार्य जैसे ब्राह्मण पैदा हुए।

पीछे रूस में एक अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठी हुई थी। उसमें भारत सरकार के एक प्रतिनिधि मण्डल ने भी भाग लिया था। उस प्रतिनिधि मण्डल में इतिहासविद, भाषा वैज्ञानिक तथा पुरातत्त्ववेत्ता थे। उन्होंने गोष्ठी में भाग लेते हुए आर्यों (हिन्दुओं) के ईरान, अफगानिस्तान, मध्य एशिया आदि से आकर भारत में बस जाने की बात का एकमत होकर खण्डन किया था और उनके इस मत को गोष्ठी में उपस्थित सभी देशों के प्रतिनिधियों ने बहुत सराहा था। यह समाचार ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ के 31 अक्तूबर 1977 के अंक में छपा था।

ईरान के स्कूलों में बच्चों को पढ़ाया जाता रहा है ‘‘आर्यों का एक समूह ईरान की ओर आया और यहीं बस गया। इसलिए अपने नाम पर उन्होंने इस देश का नाम ईरान रखा। हम उन आर्यों की सन्तान हैं।’’

डेविड फ्रौले (David Frauley) ने एक पुस्तक लिखी है जिसका नमा है ‘दी मिथ आॅफ दी आर्यन इनवेजन आॅफ इण्डिया’। वह लिखता है कि आर्यों के भारतवर्ष में कहीं बाहर से आने की बात तथा यहां के लोगों पर हमले की बात दोनों ही निराधार हैं। वह लिखता है कि भारत में आर्यों तथा अन्यों में धर्म और संस्कृति के आधार पर कोई भी भेद नहीं है। आर्य भारतवर्ष के ही मूल निवासी हैं।

महर्षि दयानन्द सरस्वती का मत है कि आर्य इसी देश के मूल निवासी हैं। उन्होंने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में महाभारत काल से लेकर मुसलमानों का शासन आरम्भ होने तक यानि कि अब से पाँच हजार वर्ष पूर्व से लेकर आठ सौ वर्ष पूर्व तक दिल्ली पर शासन करने वाले सभी आर्य राजाओं के नाम तथा उनके शासन काल दिए हैं। इनमें महाराज युधिष्ठिर से लेकर महाराजा यशपाल तक एक सौ चौबीस राजे हुए जिन्होंने कुल चार हजार एक सौ सत्तावन वर्ष, नौ महीने, चौदह दिन राज्य किया। महाराजा युधिष्ठिर से पहले के सभी राजाओं के नाम महाभारत में लिखे हैं। इस बात से पूरी तरह प्रमाणित हो जाता है कि आर्य ही सदा से इस भूमि पर रह रह हैं।

14. तुलसी- एक औषधीय पौधा है। जैसे अदरक, हल्दी, सौंफ, जीरा, लहसुन आदि शरीर के लिए हितकारी हैं ऐसे ही तुलसी भी शरीर से बहुत से रोग दूर करती है।

15. तप- कष्ट उठाकर भी सत्य और पक्षपात रहित न्याय का आचरण, परोपकार आदि शुभ कर्म करने का नाम तप है। धूनी लगाके सेंकने का नाम तप नहीं है।

16. तीर्थ- ‘जना यैस्तरन्ति तानि तीर्थानि’ अर्थात् जिन्हें करके मनुष्य दु:खों से तरें उनका नाम तीर्थ है। वेद आदि सत्य शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना, धार्मिक विद्वानों का संग, योगाभ्यास, परोपकार, सत्य का आचरण, ज्ञान-विज्ञान आदि शुभ गुण दु:खों से तारने वाले हैं, अतः ये तीर्थ हैं।

17. भाग्य क्या है- अपने ही किए हुए अच्छे-बुरे कर्म, जिनका फल हमें पहले नहीं मिला, अब मिल रहा है भाग्य कहलाता है।

18. फूल तोड़ना पाप है- ईश्वर ने फूल सुगन्धी और सुन्दरता के लिए दिए हैं। डाली से तोड़ने के थोड़ी देर बाद वे सुन्दरता और सुगन्ध दोनों खो बैठते हैं। पानी में पड़कर सड़कर वे दुर्गन्ध देते हैं जो प्राणियों के लिए अहितकर है। इस प्रकार सुगन्ध को दुर्गन्ध में बदल देना पाप कर्म है। डाली पर रहते हुए फूल सूखने पर भी कभी दुर्गन्ध नहीं देता।

19. जगराता धार्मिक कर्म नहीं है, अधार्मिक कर्म है- जगराता न धर्म का काम है और न ही पुण्य का काम है। जगराता में ऊँची आवाज में लाउडस्पीकर लगाकर सैंकड़ों/हजारों लोगों को परेशान किया जाता है, विद्यार्थियों की पढ़ाई में रुकावट पड़ती है, रोगियों का चैन छिनता है, सोने वाले सो नहीं सकते। शोर प्रदूषण (Noise Pollution) बहुत बढ़ जाता है जो कानों के लिए तथा दिमाग के लिए हानिकर है।

ईश्वर को तो कुछ भी सुनाने के लिए ऊँची आवाज की जरूरत नहीं है। वह तो आपके मन की बात भी जानता है। दूसरे लोगों को जबरदस्ती सुनाने का आपका कोई अधिकार नहीं है। सब लोगों की अपनी-अपनी मानयताएं हैं। बहुत-से लोग आपके जगराते को देखना या सुनना नहीं चाहते। आप उनकी आजादी छीन रहे हैं। जो लोग आपके जगराते में आएं और आपके पंडाल में बैठकर सुनना चाहें आप उन्हें सुना सकते हैं। पर आपके लाउडस्पीकर की आवाज उस शामियाने के बाहर नहीं जानी चाहिए।

जगराते में जो तारा देवी की कहानी सुनाई जाती है वह पूरी तरह से झूठी, असम्भव, अत्यन्त भयंकर तथा गुमराह करने वाली है। तारा देवी के कहने पर उसके पति महाराजा हरिश्चन्द्र ने अपने प्रिय नीले घोड़े का सिर काट दिया, फिर अपने पुत्र का सिर काट दिया, फिर घोड़ा और पुत्र- दोनों के शरीरों के टुकड़े-टुकड़े करके एक बरतन में डालकर आग पर रखकर उनको पकाया। पक जाने पर तारा ने उस बरतन को उठाकर माता महाकाली को भोग लगाया और राजा को उसमें से प्रसाद के तौर पर दिया। फिर मां (महाकाली) ने उस घोड़े को तथा बेटे को जीवित कर दिया। ऐसी बेतुका और बेहूदा कहानी सुन-सुनाकर जगराते वाले पता नहीं क्या सन्देश देना चाहते हैं? ऐसी कहानियों के प्रभाव में आकर तथा तान्त्रिकों के कहने पर लोग अपने और दूसरों के बच्चों को मारने का अपराध कर बैठते हैं।
जगराता करने वाले लोग आम तौर पर शराबी-कबाबी होते हैं। इस प्रकार जगराते से सम्बन्धित हर बात अधर्म तथा पाप कर्म है।

Friday, April 17, 2020

यम-यमी सूक्त



◼️यम-यमी सूक्त◼️
✍🏻 लेखक - महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’

      ऋग्वेद मण्डल १० का १०वाँ सूक्त ऋक्सर्वानुक्रमणी के अनुसार वैवस्वत यमयमी के संवादपरक है। यम और यमी भाई बहन हैं। यमी यम से शारीरिक सम्बन्ध की कामना करती है, यम उसे इस सम्बन्ध के लिये मना करता है। ऐसा सभी भाष्यकारों ने व्याख्यान किया है। निरुक्त ११।३४ में यास्क ने भी आख्यानपक्ष में ऐसा ही व्याख्यान दर्शाया है। [🔥यमी यमं चकमे। तां प्रत्याचचक्ष इत्याख्यानम्।] 

      प्रकरणश एव तु मन्त्रा निर्वक्तव्याः नियम के अनुसार स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इस तथाकथित यमयमी संवादसूक्त का विषय अपनी चतुर्वेद विषयसूची के अन्तर्गत ऋग्वेदविषयसूची में जलादिपदार्थ विद्या विषय का निरूपण किया है।[द्र०-दयानन्दीय लघुग्रन्थसंग्रह, पृष्ठ १३२] इस तथाकथित संवाद सूक्त से पूर्व (ऋ० १०।९) का सूक्त का देवता आपः है । अतः इस सूक्त में पठित यमयमी का संबन्ध भी आप: के साथ होना युक्त है। ऋक्सर्वानुक्रमणी के अनुसार इस सूक्त का ऋषि यम और ऋषिका यमी विवस्वान् के पुत्र और पुत्री हैं। 

      विवस्वान् आदित्य है। आदित्य की किरणों से पृथिवीस्थ जल तपकर दो भागों में बँट कर ऊपर जाता है।[🔥'कृष्णं नियान हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति'। ऋ० १।१६४।४७] ये दो भाग ही यम यमी हैं। एक योनि आप: से उत्पन्न होने के कारण भाई बहन हैं। इन्हें ही अन्यत्र मित्र और वरुण कहा है।[उर्वशी = विद्यत् के संयोग से मित्र और वरुण का मिलन हुआ तो उससे द्रवरूप गिरा हुआ बिन्दु वसिष्ठ = जल उत्पन्न हुआ । 🔥'उतासि मैत्रावरुणो वसिष्ठो वश्या ब्रह्मन् मनसोऽधिजात:' ऋ० ७।३३।११] आधुनिक वैज्ञानिक नामावली में ये हाईड्रोजन और आक्सीजन गैसें हैं। हाईड्रोजन आक्सीजन की अपेक्षा हल्की होती है। अत: यम (हाईड्रोजन) अन्तरिक्ष स्थान से अतिक्रमण करता हुआ धुलोक तक पहुंचता है। अत: यम को निघण्टु (५।४,६) में अन्तरिक्ष एवं द्य दोनों स्थानों में पढ़ा है। यमी (आक्सीजन) भारी होने से अन्तरिक्ष स्थान तक ही गति करती है। स्त्री प्रत्यय महत्त्व अर्थ में भी होता है।[🔥हिमारण्ययोमहत्त्वे॥ महाभाष्य ४।१।४६॥ महद् हिमं हिमानी,महदरण्यम् अरण्यानी। महत्त्वं = घनत्वम्।]  जब यम सूर्य की किरणों के साथ वापस लौटता है[🔥'त आववृत्रन्त्सदनादृतस्यादि घृतेन पृथिवी व्युद्यते' ॥ ऋ० १।१६।४७], तब अन्तरिक्ष में यमी के साथ विद्युत् के योग से यम का मेल होता है और उससे दोनों के मेल से पुष्कर (अन्तरिक्ष) से द्रव रूप वसिष्ठ ( =अतिशय वासयिता =जल) की उत्पत्ति होती है।[द्र० -पूर्व पृष्ठ टि. ४ में उद्धृत मन्त्र का उत्तरार्ध- 🔥'द्रप्स स्कन्न दैव्येन ब्रह्मणा विश्वे देवा: पुष्करे त्वाददन्त' ॥ऋ० ७।३३।११] इसे ही 🔥आ घा ता गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृण्वन्नजामि (ऋ० १०।१०।१०) से सूचित किया है। 

      यमयमी सूक्त से पूर्व सूक्त में ही केवल आप: का वर्णन नहीं है, अपितु उत्तर के ११-१२-१३-१४ सूक्तों में भी प्रकारान्तर से यम द्रप्स घृतस्नू द्यावाभूमी का सम्बन्ध उपलब्ध होता है। इस प्रकार यह दशवाँ सूक्त संदश (सडासी के दोनों छोर) के मध्य में पठित होने से जलविद्या विषयक ही है। इस दृष्टि से स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेद विषयसूची में जलादिपदार्थविद्या विषय का जो उल्लेख किया है, वह सर्वथा युक्त है। इसमें यमयमी के संवाद पक्ष में जो घृणित पक्ष उपस्थित किया जाता है, वह भी नहीं है । आवश्यकता है, स्वामी दयानन्द सरस्वती की दिव्य दृष्टि के अनुसार पूरे सूक्त की व्याख्या की।
 
      स्वामी दयानन्द सरस्वती संकलित चतुर्वेद विषयसूची के आधार पर यमयमी सूक्त के संबन्ध में जो विचार प्रस्तुत किया गया है, उससे दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं 

◼️(क) वेदभाष्य रचने के उपक्रम से पूर्व स्वामी दयानन्द सरस्वती ने चारों वेदों की जो विषयसूची संकलित की थी, उसके लिये उन्होंने बड़ी गम्भीरता से पूर्वापर के सम्बन्ध को ध्यान में रखा था। 

◼️(ख) इस चतुर्वेदविषयसूची के आधार पर ऋग्वेद के शेष भाग, सामवेद तथा अथर्ववेद, जिनका वे अपने जीवन में भाष्य नहीं कर पाये, के सम्बन्ध में उनके मूलभूत मन्त्र-विषय का परिज्ञान हो जाता है। इस प्रकार यह चतुर्वेद विषयसूची उनकी दृष्टि को समझने में विशेष सहायक है।

✍🏻 लेखक - महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥