महाभारत का युद्ध – महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की दृष्टि में
इस युद्ध से प्राचीन आर्य लोगों का वैभव सदा के लिए अस्त हो गया।
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[भूमिका : 31 जुलाई 1875 को पूना में इतिहास विषय पर दिए गए अपने भाषण में महर्षि दयानन्द जी ने महाभारत के समय की महत्त्वपूर्ण धटनाओं का उल्लेख करते हुए निम्नलिखित बातें अपने श्रोताओं को सुनाई थीं। स्रोत : उपदेश-मंजरी या पूना-प्रवचन का 12वां व्याख्यान, प्रस्तुतकर्ता भावेश मेरजा]
राजा धृतराष्ट्र स्वभाव से ही कपटी था और पाण्डु धर्मात्मा था।
पाण्डु की एक रानी माद्री सती हो गई थी। सती होने के लिए वेद की आज्ञा नहीं है; किन्तु सती होने की कुरीति पहले-पहल पाण्डु राजा के समय से चली।
कौरव और पाण्डवों ने उत्तम शिक्षा प्राप्त की। धृतराष्ट्र ने अपने और पाण्डु के पुत्रों को द्रोणाचार्य और कृपाचार्य के सुपुर्द कर दिया।
उस समय ब्राह्मण लोग युद्ध-विद्या में भी आचार्य होते थे।
अर्जुन ने धनुर्वेद में सबसे अधिक अभ्यास किया। इसलिए युद्ध-विद्या में उसकी बड़ी ख्याति हो गई।
अर्जुन का समकक्ष कौरवों में केवल कर्ण ही था। पर कर्ण सूतपुत्र अर्थात् सारथि का बेटा था। इसलिए अर्जुन ने कर्ण की अवज्ञा की थी, परन्तु इस अवज्ञा से लाभ उठाने के लिए दुर्योधन ने कर्ण को बंगाल का राज्य देकर उसे क्षत्रिय वर्ण का अधिकार दे दिया था।
इस प्रकार अनुचित अभिमान से इस राजकुल में द्वेष से आग भड़की । इसी द्वेष से अपने आर्यावर्त्त की सारी दुर्दशा हुई। यह वर्णन करने के योग्य नहीं।
उस समय धृतराष्ट्र के पास एक नीच, छिछोरा, कामुक कनक नाम एक शास्त्री रहता था। उसने पाण्डवों के विरुद्ध बहुत-सी बातें कहकर धृतराष्ट्र का मन उनसे फेर दिया। फिर इसी दुष्ट शास्त्री की सलाह से पाण्डवों को भस्म करने के लिए एक 'लाख' का घर बनाया गया।
राज-सभा का प्रबन्ध तो पहले ही बिगड़ चुका था। उस पर शकुनि, दुःशासन, दुर्योधन और कनक शास्त्री की चाण्डाल-चौकड़ी जम गई। इस चाण्डाल-चौकड़ी की करतूत से राज्य की जैसी दुर्दशा हुई और उसका जैसा भयानक परिणाम हुआ, उसका सविस्तार वृत्तान्त महाभारत में विद्यमान है।
विदुर को दुर्योधन की चाण्डाल-चौकड़ी के मनसूबे मालूम थे। लाख के घर का भेद विदुर ने युधिष्ठिर को बर्बर देश की भाषा में बतला दिया था। वह भाषा धर्मराज (युधिष्ठिर) को आती थी, जिसके कारण पाण्डव लाख के घर में जलने से बच गए थे।
देखो विदुर, युधिष्ठिर, भीष्म आदि बहुत-सी भाषाओं के जानने वाले थे। वे पश्चिम की बहुत-सी भाषाओं को बोल सकते थे। आजकल के शास्त्री महाराजों से यदि कहो कि यावनी और म्लेच्छ भाषा सीखने में कोई दोष नहीं, तो वे कहने लगते हैं –
न वदेद् यावनीं भाषां प्राण: कण्ठगतैरपि।
हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेज्जैनमन्दिरम्॥
अर्थात् यदि प्राण गले तक आ जायें अर्थात् मृत्यु का समय तक क्यों न आ जावे; परन्तु यावनी भाषा को नहीं बोलना चाहिए और मत्त हाथी भी सामने से आता हो, तो जैन मन्दिर में कदापि आश्रय न लेवे।
अर्जुन की मत्स्यवेध विद्या में बड़ी प्रशंभा की जाती है, परन्तु यह बात मत समझो कि हमारे देश में अब ऐसे योग्य शूर पुरुष रहे ही नहीं।
हमने स्वयं राजपूत लोगों को मत्स्यवेध से अधिकतर कठिन काम करते हुए देखा है।
कर्ण का जो पाण्डवों ने अपमान किया था, इसलिए वह द्रौपदी से छल करने पर उद्यत हुआ - यह कथा सब जानते हैं।
राज-सभा ने यह निर्णय किया कि राजा युधिष्ठिर होना चाहिए, परन्तु धृतराष्ट्र ने अत्याचार से [अधिकार] छीन लिया था।
इसके पश्चात् जो-जो कष्ट पाण्डवों को झेलने पड़े, उनको सब जानते हैं।
फिर जब पाण्डवों का भाग्योदय हुआ, तब उन्होंने राजसूय यज्ञ रचा। मय नामक एक बड़ा शिल्पी था, उसने एक विचित्र सभा बनाई। (प्राचीन आर्य लोगों की शिल्प-विद्या का इतिहास सुनने योग्य है) इस राजसूय यज्ञ में सहस्रों मनुष्य आये थे।
मय ने ऐसी रचना चातुरी की थी कि स्थल में जल का सन्देह होता था। दुर्योधन ने इसे सचमुच जल समझ कर अपने कपड़े उठाकर समेट लिए। यह देखकर भीमसेन मुस्कराया और अक्खड़पन से कह दिया कि अन्धे (दुर्योधन का पिता धृतराष्ट्र अन्धा था) के अन्धा ही पैदा हुआ। दुर्योधन खिसियाना हुआ और कनक शास्त्री ने बात का बतंगड़ बनाकर उसे और भी भड़का दिया। उस समय अर्जुन और कृष्ण ने दुर्योधन को समझा-बुझा दिया।
तदनन्तर एक बड़ा भोज हुआ, जिसमें ऋषि-मुनि, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सबने एक पंक्ति में बैठकर भोजन किया।
इसके बाद छल से द्यूतक्रीड़ा में युधिष्टिर आदि को फंसाकर वनवास और अज्ञातवास दिया गया।
विराट् राजा के नगर में रहते हुये अर्जुन ने विराट् राजा की कन्या उत्तरा नाम्नी को नृत्यकला की शिक्षा दी थी। इससे प्रकट है कि प्राचीन समय में राजकुमारियां भी गान-विद्या और नृत्य-कला सीखती थीं।
चक्रवर्ती राज्य का नाश उस समय तक नहीं होता, जब तक कि आपस में फूट न हो। कुरु-वंश में फूट पैदा हो गई और स्वार्थ और विद्रोह बुद्धि ने लोगों को अन्धा बना दिया। इसके लिए एक ही उदाहरण पर्याप्त है। भीष्म जैसे विद्वान् और धर्मवादी पुरुष पक्षपात के रोग से ग्रस्त हो गए। उनको उचित तो यह था कि वे मध्यस्थ होकर दोनों पक्षों का न्याय करते और अपराधियों और अन्यायियों को दण्ड दिलाते। ऐसा न करके उन्होंने अन्यायियों का पक्ष करके कुरु-वंश का नाश होने दिया।
देखिए भीष्म क्या कहता है –
अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्।
इति मत्वा महाराज! बद्धोऽस्म्यर्थन कौरवै: ॥
अर्थात् धन का मनुष्य दास है, धन किसी का दास नहीं। ऐसा मानकर मैं स्वार्थ में बंधा हुआ कौरवों के पक्ष में हूँ।
इस प्रकार बुद्धि भ्रष्ट होने से और द्वेष बढ़ने से भीष्म, द्रोण और दुर्योधन आदि कौरब एक तरफ हुए और पाण्डब दूसरी तरफ हुए और बड़ा भारी युद्ध हुआ।
इस युद्ध में तीन मनुष्य कौरवों की ओर के अर्थात् 1. कृपाचार्य, 2. कृतवर्मा, 3. अश्वत्थामा और 6 पाण्डवों की ओर से अर्थात् 5 पाण्डव और छठे कृष्ण जीवित रहे थे, शेष सबका नाश हो गया। इस युद्ध से प्राचीन आर्य लोगों का वैभव सदा के लिए अस्त हो गया।
इस सब अनर्थ का कारण केवल यह था कि सम्मति देने का काम नीच और क्षुद्र लोगों को सौंपा गया था। ऐसे अयोग्य जन नेता परामर्श देने वाले बन गए। जहां शकुनि जैसे संकीर्ण हृदय और क्षुद्रमनस्क जन की सम्मति से राज्य-कार्य चलने लगे; कनक शास्त्री महाराज धर्माधर्म का निर्णय करने लगे; वहां यदि घर में फूट उत्पन्न होकर घरवालों का विनाश हो, तो आश्चर्य ही क्या है!
इसी प्रकार जिस देश में केवल सचाई के अभिमान से मार्टिन लूथर जैसे उदारचेता पुरुषों ने सामयिक लोगों के विरुद्ध होते हुए भी पोप के अत्याचार के विरुद्ध उपदेश देना आरम्भ कर दिया और अपने प्राण तक न्यौछावर करने के लिए उद्यत हो गए; उस देश में यदि ऐश्वर्य और अभ्युदय का डंका बजा, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
इसी रीति पर कुरु-कुल का तो नाश हो गया। अब कृष्णजी द्वारिका में राज्य करते थे। वहां उस समय यादवों ने बड़ी उन्नति की थी। दुर्भाग्य से इनमें भी प्रमाद और विषयासक्ति के कारण आपस में फूट पड़ गई, जिससे सब लड़-मरकर अल्प काल में ही यादव कुल का नाश हो गया।
श्रोताओ ! प्रमाद का फल देखिये, बलदेव मद्य पीने लगा और डूबकर मर गया। सात्यकि सांप से लड़ा। ऐसे मूर्खता के काम जहां होने लगें वहां श्रीकृष्ण जैसे सत्पुरुषों की बात कौन सुनें? इन प्राचीन आर्यों के युद्ध के पश्चात् केवल इनकी स्त्रियां ही शेष रह गई थीं।
इनमें अभिमन्यु का पुत्र एक परिक्षित भी बचा था, वह कुछ विक्षिप्त-सा था। उसके समझ में आर्ष ग्रन्थ नहीं आते थे। इसी कारण उसके समय में कुछ-कुछ पुराणों का प्रचार हो चला था। उसका पुत्र जनमेजय हुआ और उसके पीछे वज्रनाथ ने राज्य किया। इतने समय में सम्पूर्ण वैभव का नाश हो गया। राजसभा, धर्मसभा और विद्यासभा तीनों डूब गईं। केवल एक राजा की इच्छानुसार सब राज्य-कार्य होने लगा। विद्वान् और सच्चरित्रों को, जो विधि-निषेध की मीमांसा और व्यवस्था करने का अधिकार था, वह दूर हो गया। व्यास, जैमिनि और वैशम्पायन आदि महर्षि न रहे। चक्रवर्ती राज्य नष्ट होकर यत्र-तत्र माण्डलिक राज्य स्थापित हो गए ब्राह्मण लोगों में विद्या की कमी होती गई और अभिमान बढ़ता गया।
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