हमें आर्य होने
का अभिमान है।
आर्यावर्त हमारे देश का
सर्वाधिक पुरातन नाम है
और हमारी जाति
का वास्तविक नाम
आर्य है ।
जब मनुष्य जाति
की उत्पति हुई
, तभी से हमारी
जाति का नाम
आर्य पड़ा है
। हमारी जाति
का सबसे पुराना
नाम आर्य ही
है । अन्य
नाम बाद में
दिए गए हैं
। हमारी जाति
का वास्तविक नाम
आर्य ही है
इसके एक नहीं
अनेक प्रमाण है
। हमारी जाति
का मूल स्थान
भारत ही है।
भारत का सबसे
पुराना नाम आर्यावर्त
है ।
मनुस्मृति में कहा
गया है -
आसमुद्रात्तु
वै पुर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्।
तयोरेवान्तरम्
गिर्योरार्यावर्तं विदुर्बुधाः ॥
-मनुस्मृति
- २/२२
अर्थात् - पुर्वीय समुद्र से
लेकर पश्चिम समुद्र
तक दोनों पर्वतों
( हिमालय और विन्ध्य
) के बीचवाले देशों
को विद्वान लोग
आर्यावर्त कहते है
। उन दिनों
विन्ध्य पर्वत के दक्षिण
का भाग समुद्र
में डूबा था
या जन शुन्य
था इसलिए
आर्यावर्त की सीमा
पूर्व में समुद्र
तक , दक्षिण में
विन्ध्य पर्वत तक , पश्चिम
में समुद्र तक
और उत्तर में
हिमालय पर्वत तक बतलाई
गई है ।
आर्यावर्त अर्थात्..... आर्य जाति
के रहने वाले
देश - प्रदेश।अतः मनुस्मृति
से यही प्रमाणित
होता है कि
हमारी जाति का
सब से पुराना
नाम आर्य ही
है।
एक और प्रमाण
-
हमारी संस्कृति की यह
परंपरा रही है
की हम किसी
कार्य को करने
के पहले उसका
संकल्प लें ।अतः
कोई भी पूजा
पाठ आरम्भ करते
समय सबसे पहले
पुरोहित हम से
संकल्प बुलवाते हैं ।
उस संकल्प में आता
है -
जम्बूद्वीपे
भारतवर्षे - भरतखंडे आर्यावर्तांतरगत ब्रह्मावर्तैक
देशे ... आदि। यहाँ
भी भारत वर्ष
को आर्यावर्त कहा
गया है अर्थात्आर्य
जाति के रहने
का स्थान है।
आर्य शब्द का
अर्थ हैं - श्रेष्ठ
।आर्य शब्द का
अर्थ है अच्छे
गुणों , विचारों का धारण
करनेवाला । आर्य
शब्द का अर्थ
है वैर भाव
को नहीं बढ़ानेवाला
, आर्य शब्द का
अर्थ है अन्याय
नहीं करनेवाला , आर्य
शब्द का अर्थ
है अन्याय नहीं
सहनेवाला , आर्य शब्द
का अर्थ है
सद् भावना को
धारण करनेवाला , आर्य
शब्द का अर्थ
है अपने कर्त्तव्य
कर्म को दृढ़तापूर्वक
पालन करनेवाला ।
महाभारत में महात्मा
विदुर ने कहा
है -
न वैरमुद्दीपयती प्रशान्तं न दर्पमारोहति
नास्तमेति ।
न दुर्गतो स्मीति करोत्यकार्यं
तमार्यशीलं परमाहुरार्या:॥
ऊपर बताए गुण
हमारी जाति में
आरम्भ से ही
थे । साथ
ही मनुष्य जीवन
को सुखमय बनाने
के लिए ये
गुण आवश्यक हैं
। अतः ये
गुण हमारी जाति
में आवश्यक रूप
से होने ही
चाहिए । ये
गुण हमारी संस्कृति
की पहचान हैं
। इसीलिए हमारी
जाति का नाम
आर्य ही है
।
वेद में भी
आर्य शब्द है।
वेद में आर्य
शब्द कई बार
आया है ।
और वहाँ आर्य
शब्द का प्रयोग
ऊपर बताए गए
अर्थों में ही
हुआ है ।
ऋग्वेद में कहा
है -
अहन भूमिददामार्यायाहं वृष्टिं दाशुषे मर्त्याम्
।
अहमपो अनयं वावशाना
मम देवासो अनु
केतामायन्॥
ऋग्वेद ४/२६/२
अर्थात् ( ईश्वर कहते हैं
) मैं आर्य के
लिए भूमि देता
हूँ। मैं दानशील
मनुष्य के लिए
धन की वर्षा
करता हूँ ।
मैं घनघोर शब्द
करनेवाले बादलों को धरती
पर वर्षाता हूँ
। विद्वानलोग मेरे
ज्ञान ( उपदेश )के अनुसार
चलते हैं ।इस
वेद मन्त्र में
बतलाया गया है
कि ईश्वर आर्य
के लिए ही
अर्थत अच्छे उत्तम
मनुष्यों के लिए
ही भूमि और
धन देता है
।वर्षा करता है
और ज्ञान देता
है ।
ऋग्वेद में कहा
है -
इन्द्रं वर्धन्तो अप्तुरः कृण्वन्तो
विश्वमार्यम् ।अपघ्नन्तो अराव्ण: ॥
ऋग्वेद ९/६३/५
अर्थात् - आत्मा को बढ़ाते
हुए दिव्य गुणों
से अलंकृत करते
हुए तत्परता के
साथ कार्य करते
हुए अदानशीलता को
, ईर्ष्या , द्वेष , द्रोह की
भावनाओं को , शत्रुओं
को परे हटते
हुए सम्पूर्ण विश्व
को , समस्त संसार
को आर्य बनाएं
॥
श्रीमद्भगवद्गीता
में आर्य शब्द
का प्रयोग हुआ
है।
भगवान श्री कृष्ण
ने श्रीमद्भगवद्गीता में
अर्जुन से कहा
है -
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्
।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकिर्तिकरमर्जुन
।।
श्री मद्भग्वद गीता २/२
अर्थात् - हे अर्जुन
! तुम को विषम
स्थल में यह
अज्ञान किस हेतु
से प्राप्त हुआ
है , क्यों कि
यह न तो
आर्य अर्थात् श्रेष्ठ
पुरुषों का प्रिय
व उन द्बारा
अपनाया गया है
।न स्वर्ग देनेवाला
है और न
कीर्ति को करनेवाला
है ।
यह सभी जानते
हैं की अर्जुन
मोह में पड़कर
अपना कर्तव्य - कर्म
भूल चुका था
और भिक्षा का
अन्न खाने के
लिए तैयार था
। अपने धर्म
को छोड़कर निन्दित
कर्म करने के
लिए तैयार था
।इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण ने
उसे अनार्य कहा
है ।और आर्यों
के गुण अपनाने
के लिए ही
उसे पूरे गीता
का उपदेश दिया
है।
भगवान श्री कृष्ण
आर्य थे - अर्जुन
आर्य था ।
जब अर्जुन आर्य
के कर्तव्य कर्म
को छोड़कर अनार्य
की तरह कर्म
करने के लिए
तैयार हुआ तब
भगवान श्री कृष्ण
ने अर्जुन को
धिक्कारा और आर्य
बने रहने के
लिए उपदेश दिया
। अतः जो
श्रीमद्भगवद्गीता के उपदेश
के अनुसार अपना
जीवन व्यतीत करते
हैं वे आर्य
हैं , नहीं तो
अनार्य हैं ।
रामायण में भी
आर्य शब्द का
प्रयोग हुआ है
।
वाल्मीकीय रामायण में आर्य
शब्द काअनेक बार
प्रयोग हुआ है
। भगवान राम
के गुणों का
वर्णन करने के
पश्चात
वाल्मीकि मुनि से
नारद जी कहते
हैं --
आर्यः सर्वसमश्चैव सदैव प्रिय
दर्शनः ॥ १/१६
वे आर्य एवं
सब में समान
भाव रखनेवाले हैं
। उनका दर्शन
सदा ही प्रिय
मालूम होता है
।एक मनुष्य में
जितने अच्छे गुण
होने चाहिए उन
गुणों
का वर्णन भगवान श्री
राम में करने
के पश्चात नारद
जी उन्हें आर्य
कहते हैं। अन्य
अनेक ग्रन्थों में
भी आर्य शब्द
का प्रयोग हुआ
है ।
अन्य ग्रन्थों में भी
आर्य शब्द का
प्रयोग
इन्हीं अर्थों में हुआ
है । निरुक्त
में कहा गया
है -
आर्याः ईश्वर पुत्राः ॥
अर्थात् - आर्य ईश्वर
के पुत्र हैं।
आधुनिक विद्वान आर्य शब्द
का प्रयोग इन्हीं
अर्थों में करते
हैं । भारत
के मूल निवासी
जितने
भी हैं वे
आर्य हैं ।
महाकवि मैथिलिशरण गुप्त ने
भारत - भारती में लिखा
है -
जग जान ले
कि न आर्य
केवल नाम के
ही आर्य हैं।
वे नाम के
अनुरूप ही करते
सदा शुभ कार्य
हैं ॥ यहाँ
महाकवि मैथिलिशरण गुप्त ने
स्पष्ट रूप में
भारतवंशी सनातन धर्मावलंबी मात्र
को आर्य कहा
है और उन्हें
शुभ कार्य करनेवाला
बतलाया है। भारत
वर्ष के मूल
निवासी मात्र को महाकवि
मैथिलिशरण गुप्त आर्य मानते
थे - तभी तो
उन्होंने लिखा है
-मानस - भवन में
आर्यजन जिसकी उतारें आरती
-
भगवान ! भारतवर्ष में गूंजे
हमारी भारती॥
महाकवि रविन्द्रनाथ ठाकुर ने
लिखा है -
हेथाय आर्य हेथा
अनार्य हेथाय द्राविड़ चीन
।
शक - हूण - दल , पाठान
- मोगल एक देहे
हलोलीन ॥
अर्थात - यहाँ आर्य
हैं , अनार्य , द्राविड़
और चीन वंश
के लोग भी
हैं । शक
, हूण, पठान और
मोगल न जाने
कितनी जातियों के
लोग आए और
सभी एक ही
देह में लीन
हो गए ।
हमें आर्य होने
का अभिमान है।
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