◼️कामरूपी शत्रु पर विजय◼️
✍🏻 लेखक - महामहोपाध्याय पण्डित आर्यमुनि जी
सम्पादन एवं प्रस्तुति - 🌺‘अवत्सार’
अर्जुन उवाच -
🔥अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥गीता ३.३६॥
पदार्थ- (अर्थ) इतिप्रश्ने (वार्ष्णेय) हे वृष्णिकुलोत्पन्न कृष्ण! (अयं पुरुषः) यह पुरुष (अनिच्छन्, अपि) इच्छा न करता हुआ भी (बलात्, नियोजितः, इव) बल से धकेले हुए के समान (केन, प्रयुक्तः) किसकी प्रेरणा से (पापं, चरति) पाप करता है।
श्रीभगवानुवाच -
🔥काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्॥गीता ३.३७॥
पदार्थ- (कामः, एषः) यह जो काम है (क्रोधः, एषः) क्रोध भी यही है (रजोगुणसमुद्भव:) रजोगुण से समुद्भव=उत्पत्ति है जिसकी, फिर यह कैसा है (महाशन:) बहुत खाने वाला है अर्थात् इसकी भूख कभी मरती ही नहीं, और (महापाप्मा) बड़ा पापी है (विद्धि, एनम्, इह, वैरिणम्) इसको वैरी समझो, इसी की प्रेरणा से मनुष्य पाप करता है।
🔥धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्वेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्॥गीता ३.३८॥
पदार्थ- (धूमेन, आवियते, वह्निः) जिस प्रकार धूम से अग्नि ढक जाती (यथा, आदर्शः, मलेन) जिस प्रकार दर्पण छाई से ढक जाता (च) और (यथा) जिस प्रकार (उल्वेन) जेर से गर्भ ढका रहता है (तथा) इसी प्रकार (तेन, इदम, आवृतम) उस काम से मनुष्य का ज्ञान ढका रहता है।
🔥आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च॥गीता ३.३९॥
पदार्थ- हे कौन्तेय! (ज्ञानिनः, नित्यवैरिणा) ज्ञानियों का जो यह नित्य वैरी है (एतेन, कामरूपेण) इस काम से (ज्ञानम्, आवृतम्) ज्ञान ढका हुआ है, फिर यह कैसा है (दुष्पूरेणअनलेन, च) दुःख से पूर्ण होने वाली आग है अर्थात् जैसे अग्नि लकड़ियों से तृप्त नहीं होती इसी प्रकार यह कामरूपी अग्नि कामनाओं से तृप्त नहीं होती।
सं०- जिस प्रकार अधिष्ठान के जाने विना शत्रु नहीं जीता जा सकता इसी प्रकार इस काम के अधिष्ठान=स्थान जाने विना इसका जीतना असम्भव है, इस अभिप्राय से इसका अधिष्ठान कथन करते -
🔥इन्द्रियाणि मनोबुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥गीता ३.४०॥
पदार्थ- (इन्द्रियाणि) इन्द्रियाँ (मनः) मन (बुद्धिः) बुद्धि (अस्य) इस काम का (अधिष्ठानम्, उच्यते) अधिष्ठान[स्थान] कथन किया गया है अर्थात् इन्द्रिय, मन और बुद्धिरूपी घर में काम रहता है (एतैः) इन तीनों से (ज्ञानम्, आवृत्य) ज्ञान को ढककर (एषः) यह (देहिनम्) जीवात्मा को (विमोहयति) मोह लेता है।
🔥तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥गीता ३.४१॥
पदार्थ- (भरतर्षभ) हे भरतकुल में श्रेष्ठ अर्जुन! (तस्मात्) इसलिये (त्वम्) तू (आदौ, इन्द्रियाणि, नियम्य) प्रथम इन्द्रियों को अपने वश में करके (हि) निश्चयपूर्वक (ज्ञानविज्ञाननाशनम्) ज्ञान=बाह्य पदार्थों का ज्ञान और विज्ञान=आत्मज्ञान का जो नाश करने वाला यह (पाप्मानम्) पापी काम है इसको (प्रजहि) नाश कर।
सं०- अब इस कामरूपी शत्रु के जीतने का प्रकार कथन करते है-
🔥इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥गीता ३.४२॥
पदार्थ- (इन्द्रियाणि, पराणि, आहुः) स्थूल शरीर की अपेक्षा इन्द्रिय परे (इन्द्रियेभ्यः , परं, मन:) इन्द्रियों से मन परे (मनसः, तु, परा, बुद्धिः) मन से परे बुद्धि और (यः, बुद्धेः, परत:) जो बुद्धि से परे है (सः) वह आत्मा और परमात्मा है।
🔥एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥गीता ३.४३॥
पदार्थ- (महाबाहो) हे बड़े बल वाले! (एवम्) इस प्रकार (बुद्धेः, परं, बुद्ध्वा) बुद्धि से परे जो आत्मा और परमात्मा है उसको जानकर (आत्मना) स्वयम् अपने संस्कृत मन से (आत्मानं, संस्तभ्य) अपने आत्मा को परमात्मा में ठहराकर अर्थात् आत्मिक बल बढ़ाकर (काम रूपं, शत्रु, जहि) इस कामरूप शत्रु को जीत, यह कैसा शत्रु है जो (दुरासदम्) दुःख से मारा जा सकता है अर्थात् इसके मारने के लिये बड़ा प्रयत्न चाहिये।
🌺भाष्य- जिस काम की प्रेरणा से मनुष्य पाप करता है उसके जीतने का एकमात्र साधन यहाँ परमात्मज्ञान ही बतलाया है, जब पुरुष उस परमात्मज्ञान का अनुष्ठान करता है तब यह कामरूपी शत्रु जीता जा सकता है अन्यथा नहीं, उसके अनुष्ठान का प्रकार यह है कि जब पुरुष "यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि" इनका अनुष्ठान करता है तभी इस शत्रु को जीत सकता है अन्यथा नहीं अर्थात् -
◼️(१) अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, इन पाँचों का नाम 'यम' है।
▪️(१) मन, वाणी, शरीर से किसी को दुःख न देने का नाम 'अहिंसा'।
▪️(२) यथार्थ भाषणादि व्यवहार का नाम 'सत्य'।
▪️(३) मन, वाणी, शरीर से परद्रव्य के हरण न करने का नाम 'अस्तेय' और
▪️(४) स्मरण, कीर्तन, क्रीड़ा, देखना, गुह्यभाषण, सङ्कल्प, अध्यवसाय=निश्चय, क्रियानिवृत्ति, यह जो अष्ट प्रकार का मैथुन है इसके त्याग का नाम 'ब्रह्मचर्य' है।
▪️(५) आवश्यकता से अधिक वस्तु पास न रखना अर्थात् अपने योगक्षेम से अधिक वस्तु का ग्रहण न करना 'अपरिग्रह'।
◼️(२) शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्रणिधान, इन पाँचों को 'नियम' कहते हैं।
▪️(१) अन्तर और बाह्य दोनों प्रकार से पवित्र रहना 'शौच' कहलाता है।
▪️(२) यथा लाभ सन्तुष्ट रहने को 'संतोष' कहते हैं।
▪️(३) शीतोष्णादि द्वन्द्वों को सहने का नाम 'तप' है।
▪️(४) वेद और वैदिक ग्रन्थों के युक्तिपूर्वक पठन का नाम 'स्वाध्याय' है।
▪️(५) सत्यादि गुणों से ईश्वर के स्वरूपचिन्तन का नाम 'प्रणिधान'
◼️(३) आसन - 'पद्मासनादिक'।
◼️(४) प्राणों को स्थिर करने का नाम 'प्राणायाम' है पूरक, रेचक, कुम्भक, इस भेद से प्रणायाम तीन प्रकार का होता है।
◼️(५) रूपादि विषयों से इन्द्रियों को रोकने का काम 'प्रत्याहार' है।
◼️(६) ईश्वर में मन के लगाने को 'धारणा' कहते हैं।
◼️(७) सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त ब्रह्म में ईश्वर व्यतिरिक्त वृत्तियों को हटाकर एकमात्र ईश्वर स्वरूप के अनुसंधान करने का नाम 'ध्यान' है।
◼️(८) ध्यान की अवस्थाविशेष का नाम 'समाधि' है।
इन आठ साधनों से जब पुरुष परमात्मा का साक्षात्कार करता है तब यह काम जीता जा सकता है और यदि इनका अनुष्ठान न किया जाय तो नाममात्र के यम-नियमादिकों से काम कदापि नहीं जीता जा सकता, जैसाकि इस छन्द में काम कहता है कि -
यमनेम सु आसनप्राणयमं प्रत्यहारबलीजगध्यान अलाए।
धारणा और समाधि सुनो चित होय एकाग्र तो उपजाए॥
इन जीतनहेतु रची अबला, यम नेम तभी हमरे बस आए।
हम जीवत कौन भया जग में यमनेमकथा जिनके मन भाए॥
यदि अनुष्ठान न हो तो यही गति यम नियम की हो जाती है, जैसा कि उक्त छन्द में वर्णन किया गया है, इसलिये “एवं बुद्धेः परं बुध्वा" इस अन्तिम श्लोक में परंज्योति परमात्मा का आश्रय बतलाया है, जिस आश्रय से यह शत्रु मारा जा सकता है। [श्रीमद्भगवद्गीतायोगप्रदीपार्यभाष्ये, तृतीयोऽध्यायः से उद्धृत]
॥ओ३म्॥
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