सनातन धर्म और आर्य समाज
-कृष्ण चन्द्र गर्ग
अथर्ववेद में ‘सनातन’ शब्द का अर्थ किया गया है-
सनातनमेनमाहुरताद्य स्यात्पुनर्णवः। अहोरात्रे प्र जायेते अन्यो अन्यस्य रूपयोः।। (अथर्ववेद 10-8-23)
अर्थ- सनातन उसको कहते हैं जो कभी पुराना न हो, सदा नया रहे, जैसे दिन-रात का चक्र सदा नया रहता है।
वेद- सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा दिया वो ज्ञान है जिसकी मनुष्य को संसार में रहते हुए आवश्यकता है और जिसको जान करके मनुष्य सुखपूर्वक रह सकता है। ‘वेद’ शब्द का अर्थ ही ज्ञान है। वेद ज्ञान दो अरब वर्ष पहले जितना सत्य और व्यवहारिक था आज भी उतना ही सत्य और व्यवहारिक है। अतः वेद सनातन हैं और वेद का ज्ञान भी सनातन है।
सनातन धर्म वेद को धर्म का आधार मानता है और आर्य समाज भी वेद को धर्म का आधार मानता है। वेदों के अतिरिक्त दूसरे ग्रन्थों में जो-जो बातें वेद-अनुकूल हैं, आर्य समाज उन्हें स्वीकार करता है और जो-जो बातें वेद-विरुद्ध हैं, आर्य समाज उन्हें स्वीकार नहीं करता। सनातन धर्म ने बहुत-सी बातें वेद-विरुद्ध भी स्वीकार कर ली हैं। यही अन्तर है- सनातन धर्म और आर्य समाज में। वेद विरुद्ध बातों को स्वीकार करना और उन्हें व्यवहार में अपनाना ही आर्य (हिन्दू) जाति के पतन का कारण बना है।
1. ईश्वर का स्वरूप- वेदों में अनेक स्थानों पर ईश्वर के स्वरूप का वर्णन है-
ओ३म् खं ब्रह्म। (यजुर्वेद 40-17)
अर्थ- आकाश के समान व्यापक, सबसे बड़ा, सब जगत् का रक्षक 'ओ३म्' है।
ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्। (यजुर्वेद 40-1)
अर्थ- इस गतिशील संसार में जो कुछ भी है उस सबमें ईश्वर का वास है।
स पर्यगात् शुक्रम् अकायम् अव्रणम्। (यजुर्वेद 40-8)
अर्थ- वह परमात्मा सर्वत्र व्यापक है। वह शीघ्रकारी है। उसका कोई शरीर नहीं है। वह छिद्र रहित है।
न तस्य प्रतिमाऽस्ति यस्य नाम महद्यश:। (यजुर्वेद 32-3)
अर्थ- उस परमात्मा की कोई आकृति या मूर्ति नहीं है। उसे नापा या तोला नहीं जा सकता। उस परमात्मा का नामस्मरण अर्थात् उसकी आज्ञा का पालन करना अर्थात् धर्मयुक्त कामों का करना बहुत कीर्ति देनेवाला है।
वेद ईश्वर द्वारा दिया मनुष्यों के लिए विधान है। वेद के अनुसार चलना ही ईश्वर की आज्ञा का पालन करना है। वेद के विरुद्ध चलना ईश्वर की आज्ञा का उल्लंघन करना है।
आर्य समाज वेद में वर्णित ईश्वर के इस स्वरूप को ही स्वीकार करता है।
2. मूर्तिपूजा- आर्य समाज मूर्तिपूजा को ईश्वर की पूजा नहीं मानता। मूर्तिदर्शन- मूर्तिदर्शन है, ईश्वर-दर्शन नहीं है। संसार में बौद्ध काल से पहले किसी भी रूप में मूर्तिपूजा प्रचलित न थी।
वेद, शास्त्र, उपनिषद्, मनुस्मृति आदि किसी भी वैदिक ग्रन्थ में मूर्तिपूजा का विधान नहीं है। आदि शंकराचार्य, गुरुनानक देव, कबीर, दादू, समर्थ गुरु रामदास, राजा राममोहन राय, महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती आदि महापुरुषों ने मूर्तिपूजा का पुरजोर खण्डन और विरोध किया है।
मूर्तिपूजा सबसे बड़ी अज्ञानता है। यह व्यर्थ ही नहीं अपितु हिन्दुओं के विनाश का सबसे बड़ा कारण भी है। मूर्तिपूजा के सहारे हिन्दू कायर, कमजोर, निरुत्साही और अपुरुषार्थी हुए हैं। मुसलमानों ने हजारों मन्दिरों और मूर्तियों को तोड़़ा है और वहां से अथाह धन लूटा है। किसी मूर्ति ने किसी हमलावर का सिर तक न फोड़ा।
और भी, मूर्तिपूजा से सन्तुष्ट होकर हिन्दुओं ने ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को जानने का प्रयत्न भी नहीं किया। सर्वव्यापक होने से ईश्वर हमारे सब कामों को देखता है और जानता है। उनके अनुसार वह हमें सुख और दु:ख के रूप में फल देता है। वह पूर्ण न्यायकारी है। उसके न्याय से कोई बच नहीं सकता। यह बात जानकर बुरे कामों से बचा जाए ताकि उसके परिणाम स्वरूप दु:ख न भोगना पड़े। साथ ही ईश्वर के न्यायकारी, सत्यकर्ता, ज्ञानवान्, पवित्र, दयालु आदि गुणों को याद करके उन्हें अपनाया जाए ताकि सुख मिले। यही ईश्वर का नामस्मरण है।
निराकार होने से ईश्वर आँख का विषय नहीं है। वह मन का विषय है।
न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चैनम्।
हृदा हृदिस्थं मनसा च एनमेव विदुरमृतास्ते भवन्ति।। (श्वेताश्वतर उपनिषद् 4-20)
अर्थ- परमात्मा का काई रूप नहीं जिसे आँख से देखा जा सके। उसे कोई भी आँख से नहीं देखता। वह हृदय में स्थित है। जो उसे हृदय से तथा मन से जान लेते हैं वे आनन्द को प्राप्त करते हैं।
3. धर्म क्या है- महाभारत में विदुरनीति के अन्तर्गत श्लोक है-
नासौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति। न तत् सत्यं यत् छलेनाभ्युपेतम्।। (विदुरनीति 3-58)
अर्थ- वह धर्म नहीं है जहां सत्य नहीं है। वह सत्य नहीं है जिसमें छल है।
इस प्रकार-
सत्य- यह धर्म, असत्य- यह अधर्म।
न्याय- यह धर्म, अन्याय- यह अधर्म।
निष्पक्ष- यह धर्म, पक्षपात- यह अधर्म।
न लिंगम् धर्मकारणम्। (मनुस्मृति)
अर्थ- बाहरी चिह्न किसी को धर्मात्मा नहीं बनाते।
काला-पीला, चोगा पहनना, दाढ़ी मूंछ या सिर के बाल बढ़ाना, कण्ठी-माला धारण करना, हाथ में चिमटा रखना, तिलक लगाना आदि बातों का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है।
आचारः परमो धर्मः। (मनुस्मृति 1-108)
अर्थ- शुभगुणों के आचरण का नाम ही धर्म है।
मन-वचन-कर्म से सत्य का आचरण, पक्षपात रहित न्याय, परोपकार, सदाचार आदि का नाम धर्म है। संसार के सभी मनुष्यों का यही धर्म है जिसे वेद में मानव धर्म कहा गया है।
ईसाई, पारसी, यहूदी, इस्लाम आदि धर्म नहीं हैं। ये पंथ (मजहब, सम्प्रदाय, religion) हैं जो किसी व्यक्ति द्वारा चलाए लोगों के समूह हैं। इन सम्प्रदायों के कारण ही संसार में अशान्ति और शत्रुता है। ईश्वर ने ये पंथ नहीं बनाए, इंसान ने बनाए हैं। इसलिए सही अर्थों में ही इंसान बनना चाहिए।
4. श्राद्ध- जीवित माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी आदि की खान-पान, वस्त्र, निवास, सद्व्यवहार से सेवा करने को ही आर्य समाज श्राद्ध मानता है। जो मर गए हैं उनके प्रति ये बातें लागू नहीं होतीं। मरने के बाद अगले जन्म में वे जहां चले गए हैं, ईश्वर उनकी वहीं पर व्यवस्था करता है। अगर वे मनुष्य की योनि में गए हैं तो माता के स्तनों में वह दूध पहले ही पैदा कर देता है।
5. जातपात- देश में प्रचलित जातपात को आर्य समाज स्वीकार नहीं करता। वेदों में ऐसी जातपात का कोई विधान नहीं है। वेद तो कहता है-
अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते संभ्रातरो वावृधुः सौभगाय। (ऋग्वेद 5-60-5)
अर्थ- हम में कोई छोटा या बड़ा नहीं है। हम सब आपस में भाई-भाई हैं। हम सबको मिल करके समृद्धि के लिए काम करना चाहिए।
महर्षि मनु ने समाज की सभी समस्याओं को तीन भागों में बांटा था- अज्ञान, अन्याय और अभाव। जो लोग शिक्षा द्वारा अज्ञान को दूर करते थे वे ब्राह्मण कहलाए, जो लोग समाज को सुरक्षा प्रदान करके अन्याय से बचाते थे वे क्षत्रिय कहलाए और जो लोग समाज की रोटी, कपड़ा, मकान आदि की आवश्यकताएं पूरी करते थे वे वैश्य कह जाते थे। शेष रहे लोग उपर बताए तीनों प्रकार के लोगों की सहायता करते थे, वे शुद्र कहलाए। यह व्यवस्था जन्म के आधार पर न थी, अपितु व्यक्ति की बौद्धिक और शारीरिक योग्यता के आधार पर थी। आर्य समाज इसी व्यवस्था को स्वीकार करता है जैसे आज कल अध्यापक हैं, पुलिस और सेना है, किसान और व्यापारी हैं। ये जन्म के आधार पर नहीं हैं अपितु व्यक्ति की योग्यता के अनुसार हैं।
6. अवतारवाद- सनातन धर्म के लोग ऐसा मानते हैं कि कोई विशेष काम करने के लिए ईश्वर मनुष्य के रूप में जन्म लेता है। इसे वे ईश्वर का अवतार मानते हैं। आर्य समाज ऐसा नहीं मानता।
ईश्वर पहले ही सब जगह विद्यमान है। इसलिए उसके आने-जाने की बात सार्थक नहीं है। ईश्वर इतना शक्तिशाली है कि वह सूर्य, चंद्र, तारे, पृथ्वी आदि सारे ब्रह्माण्ड को बनाता है। तो क्या किसी आदमी को मारने आदि छोटे काम उसके लिए मुश्किल है? नहीं। इसलिए उसके मनुष्य रूप में आने की कल्पना सर्वथा व्यर्थ है, ईश्वर का अपमान है। वह तो सब मनुष्यों के अन्दर पहले ही विद्यमान है। ईश्वर न जन्म लेता है, न मरता है, वह सदा एकसा सब जगह रहता है।
महाभारत में श्री कृष्ण जी कहते हैं -
अहं हि तत् करिष्यामि परमपुरुषकारतः। दैवं तु न मया शक्यं कर्म कर्त्तुं कथंचन।।
अर्थ- मैं एक श्रेष्ठ पुरुष की भान्ति अपनी मेहनत से तो काम करूँंगा, परन्तु ईश्वर के विधान में दखल देना मेरे सामर्थ्य से बाहर है।
सीता हरण के बाद श्री रामचन्द्र जी लक्ष्मण से कहते हैं-
न मद्विधो दुष्कृत कर्मकारी मन्ये द्वितीयोऽस्ति वसुन्धरायाम्।
शोकेन शोको हि परम्पराया मामेति भिन्दन् हृदयं मनश्च।। (वाल्मीकि रामायण, अरण्यकाण्ड)
अर्थ- मैं समझता हूँ कि इस भूमि पर मेरे समान दुष्कर्म करने वाला और कोई नहीं है क्योंकि शोक पर शोक मेरे हृदय और मन को भेदने को प्राप्त हो रहे हैं।
7. योगेश्वर श्री कृष्ण जी का पवित्र जीवन चरित्र- महाभारत में श्री कृष्ण जी का जीवन बड़ा पवित्र बताया गया है। उन्होंने जन्म से मृत्यु तक कोई भी बुरा काम किया हो- ऐसा नहीं लिखा। वे एक पत्नीव्रती थे। उनकी पत्नी थी रुकमणी। वे सुदर्शन चक्रधारी, योगेश्वर, नीतिनिपुण, युद्ध में पाण्डवों को विजय दिलाने वाले, कंस, जरासंध आदि दुष्ट पापाचारी राजाओं का वध करने वाले थे।
परन्तु भागवत पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण में श्री कृष्ण जी पर दूध-दही-मक्खन की चोरी, कुब्जा दासी से सम्भोग, परस्त्रियों से रासलीला क्रीड़ा आदि झूठे दोष लगाए हैं। गोपालसहस्रनाम में श्री कृष्ण जी को चौरजारशिखामणि तक का ख़िताब दिया गया है जिसका अर्थ है चोरों और जारों का सरदार। ऐसी बातों को पढ़-पढ़ा और सुन-सुना कर दूसरे मत वाले श्री कृष्ण जी की बहुत-सी निन्दा करते हैं और हिन्दुओं का मज़ाक उड़ाते हैं।
महाभारत में वर्णित श्री कृष्ण जी का स्वरूप ही उनका वास्तविक स्वरूप है। भागवत आदि पुराण महर्षि वेद व्यास के बनाए हुए नहीं है। ये बहुत बाद में बनाए गए ग्रन्थ हैं जिनमें स्वार्थी लोगों ने श्री कृष्ण जी पर ऐसे झूठे लांछन लगाए हैं। आर्य समाज श्री कृष्ण जी के उसी रूप को स्वीकार करता है जो महाभारत में बताया गया है।
8. गंगा नदी का महत्त्व- गंगा एक बड़ी नदी है जो भारतवर्ष के बहुत से भूभाग में से होकर गुजरती है। देश की बहुत-सी खेती-बाड़ी तथा अन्य जरूरतें गंगा के पानी पर निर्भर हैं। इसलिए देश के लिए गंगा का बड़ा महत्त्व है। ऐसा मान लेना कि गंगा में डुबकी लगाने से पाप धुल जाते हैं, निरी अज्ञानता है। पाप या पुण्य का फल तो भोगे बिना नहीं मिटता। यही न्यायकारी प्रभु का अटल विधान है।
अद्भिर्गात्राणि शुद्ध्यन्ति मनः सत्येन शुद्ध्यति। विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुद्ध्यति।। (मनुस्मृति 5-3)
अर्थ- जल से शरीर शुद्ध होता है, मन सत्य के आचरण से शुद्ध होता है। विद्या से और तप से (सब प्रकार के कष्ट उठाकर भी धर्म का आचरण करने से) जीवात्मा पवित्र होता है और बुद्धि ज्ञान से पवित्र होती है।
आर्य समाज की यही मान्याता है।
9. सुख-दुख का कारण- कोई भी परेशानी आ पड़ने पर सनातनधर्मी लोग ग्रहों को उसका कारण मानते हैं। फिर ग्रहों को शान्त करने के लिए तथा मुसीबत से निकलने का उपाय ढूँढने के लिए तथाकथित पण्डितों के पास जाते हैं। ऐसे पण्डित लोग इधर-उधर की बातें करके उन्हें चक्रों में डालते हैं और वे झूठे आश्वासन देकर उनसे धन ऐंठते हैं।
आर्य समाज मानता है कि सुख-दु:ख मनुष्य के अपने अच्छे और बुरे कामों का फल हैं। यह ईश्वर की न्याय व्यवस्था है- जैसी करनी वैसी भरनी, जो बोया सो काटा। कोई पण्डित, पाधा, ज्योतिषी इस व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं कर सकता। ग्रह जड़ हैं जैसे हमारी पृथ्वी है। वे ज्ञानहीन हैं, बुद्धिहीन हैं। वे किसी से प्रेम या द्वेष नहीं कर सकते। ग्रहों का प्रभाव सबके उपर एकसा रहता है जैसे सूर्य का प्रकाश और गर्मी सबके लिए है।
10. व्रत- सनातनधर्मी लोग किसी विशेष दिन कम खाना, बदलकर खाना, कुसमय खाना या न खाने को व्रत मानते हैं। परन्तु इस सम्बन्ध में वेद तो कुछ और ही कहता है जिसे आर्य समाज मानता है।
ओ३म् अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्। इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि।। (यजुर्वेद 1-5)
अर्थ - हे सत्य धर्म के उपदेशक, व्रतों के पालक प्रभु! मैं असत्य को छोड़कर सत्य को ग्रहण करने का व्रत लेता हूँ। आप मुझे ऐसा सामर्थ्य दो कि मेरा यह व्रत सिद्ध हो अर्थात् मैं अपने व्रत पर पूरा उतरूँ।
11. दान- सुपात्र को दान देना एक शुभ कर्म है, परन्तु कुपात्र को देना पाप है।
सुपात्र कौन- गरीब, रोगी, अंगहीन, अनाथ, कोढ़ी, विधवा या कोई भी जरूरतमन्द, विद्या और कला कौशल की वृद्धि के लिए, गोशाला, अनाथालय, हस्पताल आदि दान के सुपात्र हैं।
न पापत्वाय रासीय। (अथर्ववेद)
अर्थ- मैं पाप के लिए कभी दान न दूँ।
धनिने धनं मा प्रयच्छ। दरिद्रान्भर कौन्तेय। (महाभारत)
अर्थ - हे युधिष्ठर! धनवानों को धन मत दो, गरीबों की पालना करो।
भरे पेट को रोटी देना उतना ही गलत है जितना स्वस्थ को औषधि। रोटी भूखे के लिए है और औषधि रोगी के लिए है। समुद्र में हुई वर्षा व्यर्थ है।
सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते। वार्यन्नगौमहीवासस्तिलकाञ्चनसर् पिषाम्। (मनुस्मृति 4-233)
अर्थ- संसार में जितने दान हैं अर्थात् जल, अन्न, गौ, भूमि, वस्त्र, तिल, सुवर्ण, घी आदि इन सब दानों से वेद विद्या का दान अतिश्रेष्ठ है।
12. आर्य और हिन्दू शब्द- वेद, शास्त्र, मनुस्मृति, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता आदि सभी प्राचीन ग्रन्थों में आर्य शब्द ही मिलता है, हिन्दू नहीं। संस्कृत के कोष ‘शब्दकल्पद्रुम’ में आर्य शब्द के अर्थ- पूज्य, श्रेष्ठ, धार्मिक, उदार, न्यायकारी, मेहनत करने वाला आदि किये हैं।
कृण्वन्तो विश्वमार्यम्। (ऋग्वेद 9 - 63 - 5) अर्थ - सारे संसार को आर्य (श्रेष्ठ) बनाओ।
अनार्य इति मामार्याः पुत्र विक्रायकं ध्रुवम्। (वाल्मीकि रामायण, अयोध्याकाण्ड)
अर्थ- (राजा दशरथ राम को वन में भेजना न चाहते थे) वे कहते हैं- आर्य लोग (सज्जन) मुझ पुत्र बेचने वाले को निश्चय ही अनार्य (दुष्ट) बताएंगे।
हिन्दू शब्द मुसलमानों ने घृणा के रूप में हमें दिया है। यह फारसी भाषा का शब्द है। फारसी भाषा के शब्दकोष में ‘हिन्दू’ का अर्थ है - चोर, डाकू, गुलाम, काफिर, काला आदि। मुसलमान आक्रमणकारी जब भारत में आए उन्होंने यहां के लोगों को लूटा, मारा तथा पकड़ कर गुलाम बनाकर अपने साथ अपने देश में ले गए। वहां ले जाकर उनसे अनाज पिसवाया, घास खुदवाया, मल-मूत्र आदि उठवाया तथा बाजारों में बेचा। तब उन्होंने यहां के लोगों को ‘हिन्दू’ नाम दिया।
आठवीं सदी से पहले यानि कि मुसलमानों के आने से पहले भारतवर्ष में हिन्दू शब्द का प्रचलन न था, सब जगह आर्य और आर्यावर्त शब्द ही प्रसिद्ध थे। चीनी यात्री ह्यूनसांग भारत में सातवीं सदी में (सन् 631 से 645 तक) आया था। वह इस देश का नाम आर्य देश लिखता है।
सन् 1870 में काशी में टेढ़ा नीम नामक स्थान पर काशी के राजा के अधीन एक धर्मसभा हुई। सभा में विश्वनाथ शर्मा, बाबा शास्त्री आदि 45 विद्वानों ने विचार विमर्श के बाद यह व्यवस्था दी थी कि ‘हिन्दू’ नाम हमारा नहीं है, यह मुसलमानों की भाषा का है और इसका अर्थ है अधर्मी। अतः इसे कोई स्वीकार न करे।
हिन्दू-शब्दो हि यवनेषु अधर्मीजन बोधकः। अतो नाहर्ति तत् शब्द बोध्यतां सकलो जनः।।
13. हम आर्य, जो आजकल हिन्दू नाम से जाने जाते हैं, ही भारतवर्ष के मूल निवासी हैं। संसार में सबसे पुराने कोई ग्रन्थ हैं तो वे हैं आर्यों के ग्रन्थ- वेद। संसार में सबसे पुराना कोई साहित्य है तो वह है आर्यों का संस्कृत भाषा में साहित्य। संस्कृत के किसी ग्रन्थ में ऐसा नहीं लिखा है कि आर्य भारतवर्ष में कहीं बाहर से आए थे। इस देश का नाम पहले आर्यावर्त था, ऐसा बहुत से ग्रन्थों में लिखा मिलता है। आर्यावर्त से पहले इस देश का क्या नाम था कहीं भी नहीं लिखा मिलता। अतः निश्चित है कि आर्यों से पहले इस देश में कोई और न था और न ही इस देश का कोई और नाम था। इसलिए यह बात कि ‘आर्य इस देश में कहीं बाहर से आकर बसे थे’, सत्य नहीं है।
आर्यों (हिन्दूओं) में फूट डालने के लिए द्रविड़ों को आर्यों से भिन्न बताया गया था। जबकि वास्तविकता यह है कि द्रविड़ शब्द आर्य ब्राह्मणों के दस कुलों में से पांच कुलों में होता है जिसमें आदि शंकराचार्य जैसे ब्राह्मण पैदा हुए।
पीछे रूस में एक अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठी हुई थी। उसमें भारत सरकार के एक प्रतिनिधि मण्डल ने भी भाग लिया था। उस प्रतिनिधि मण्डल में इतिहासविद, भाषा वैज्ञानिक तथा पुरातत्त्ववेत्ता थे। उन्होंने गोष्ठी में भाग लेते हुए आर्यों (हिन्दुओं) के ईरान, अफगानिस्तान, मध्य एशिया आदि से आकर भारत में बस जाने की बात का एकमत होकर खण्डन किया था और उनके इस मत को गोष्ठी में उपस्थित सभी देशों के प्रतिनिधियों ने बहुत सराहा था। यह समाचार ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ के 31 अक्तूबर 1977 के अंक में छपा था।
ईरान के स्कूलों में बच्चों को पढ़ाया जाता रहा है ‘‘आर्यों का एक समूह ईरान की ओर आया और यहीं बस गया। इसलिए अपने नाम पर उन्होंने इस देश का नाम ईरान रखा। हम उन आर्यों की सन्तान हैं।’’
डेविड फ्रौले (David Frauley) ने एक पुस्तक लिखी है जिसका नमा है ‘दी मिथ आॅफ दी आर्यन इनवेजन आॅफ इण्डिया’। वह लिखता है कि आर्यों के भारतवर्ष में कहीं बाहर से आने की बात तथा यहां के लोगों पर हमले की बात दोनों ही निराधार हैं। वह लिखता है कि भारत में आर्यों तथा अन्यों में धर्म और संस्कृति के आधार पर कोई भी भेद नहीं है। आर्य भारतवर्ष के ही मूल निवासी हैं।
महर्षि दयानन्द सरस्वती का मत है कि आर्य इसी देश के मूल निवासी हैं। उन्होंने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में महाभारत काल से लेकर मुसलमानों का शासन आरम्भ होने तक यानि कि अब से पाँच हजार वर्ष पूर्व से लेकर आठ सौ वर्ष पूर्व तक दिल्ली पर शासन करने वाले सभी आर्य राजाओं के नाम तथा उनके शासन काल दिए हैं। इनमें महाराज युधिष्ठिर से लेकर महाराजा यशपाल तक एक सौ चौबीस राजे हुए जिन्होंने कुल चार हजार एक सौ सत्तावन वर्ष, नौ महीने, चौदह दिन राज्य किया। महाराजा युधिष्ठिर से पहले के सभी राजाओं के नाम महाभारत में लिखे हैं। इस बात से पूरी तरह प्रमाणित हो जाता है कि आर्य ही सदा से इस भूमि पर रह रह हैं।
14. तुलसी- एक औषधीय पौधा है। जैसे अदरक, हल्दी, सौंफ, जीरा, लहसुन आदि शरीर के लिए हितकारी हैं ऐसे ही तुलसी भी शरीर से बहुत से रोग दूर करती है।
15. तप- कष्ट उठाकर भी सत्य और पक्षपात रहित न्याय का आचरण, परोपकार आदि शुभ कर्म करने का नाम तप है। धूनी लगाके सेंकने का नाम तप नहीं है।
16. तीर्थ- ‘जना यैस्तरन्ति तानि तीर्थानि’ अर्थात् जिन्हें करके मनुष्य दु:खों से तरें उनका नाम तीर्थ है। वेद आदि सत्य शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना, धार्मिक विद्वानों का संग, योगाभ्यास, परोपकार, सत्य का आचरण, ज्ञान-विज्ञान आदि शुभ गुण दु:खों से तारने वाले हैं, अतः ये तीर्थ हैं।
17. भाग्य क्या है- अपने ही किए हुए अच्छे-बुरे कर्म, जिनका फल हमें पहले नहीं मिला, अब मिल रहा है भाग्य कहलाता है।
18. फूल तोड़ना पाप है- ईश्वर ने फूल सुगन्धी और सुन्दरता के लिए दिए हैं। डाली से तोड़ने के थोड़ी देर बाद वे सुन्दरता और सुगन्ध दोनों खो बैठते हैं। पानी में पड़कर सड़कर वे दुर्गन्ध देते हैं जो प्राणियों के लिए अहितकर है। इस प्रकार सुगन्ध को दुर्गन्ध में बदल देना पाप कर्म है। डाली पर रहते हुए फूल सूखने पर भी कभी दुर्गन्ध नहीं देता।
19. जगराता धार्मिक कर्म नहीं है, अधार्मिक कर्म है- जगराता न धर्म का काम है और न ही पुण्य का काम है। जगराता में ऊँची आवाज में लाउडस्पीकर लगाकर सैंकड़ों/हजारों लोगों को परेशान किया जाता है, विद्यार्थियों की पढ़ाई में रुकावट पड़ती है, रोगियों का चैन छिनता है, सोने वाले सो नहीं सकते। शोर प्रदूषण (Noise Pollution) बहुत बढ़ जाता है जो कानों के लिए तथा दिमाग के लिए हानिकर है।
ईश्वर को तो कुछ भी सुनाने के लिए ऊँची आवाज की जरूरत नहीं है। वह तो आपके मन की बात भी जानता है। दूसरे लोगों को जबरदस्ती सुनाने का आपका कोई अधिकार नहीं है। सब लोगों की अपनी-अपनी मानयताएं हैं। बहुत-से लोग आपके जगराते को देखना या सुनना नहीं चाहते। आप उनकी आजादी छीन रहे हैं। जो लोग आपके जगराते में आएं और आपके पंडाल में बैठकर सुनना चाहें आप उन्हें सुना सकते हैं। पर आपके लाउडस्पीकर की आवाज उस शामियाने के बाहर नहीं जानी चाहिए।
जगराते में जो तारा देवी की कहानी सुनाई जाती है वह पूरी तरह से झूठी, असम्भव, अत्यन्त भयंकर तथा गुमराह करने वाली है। तारा देवी के कहने पर उसके पति महाराजा हरिश्चन्द्र ने अपने प्रिय नीले घोड़े का सिर काट दिया, फिर अपने पुत्र का सिर काट दिया, फिर घोड़ा और पुत्र- दोनों के शरीरों के टुकड़े-टुकड़े करके एक बरतन में डालकर आग पर रखकर उनको पकाया। पक जाने पर तारा ने उस बरतन को उठाकर माता महाकाली को भोग लगाया और राजा को उसमें से प्रसाद के तौर पर दिया। फिर मां (महाकाली) ने उस घोड़े को तथा बेटे को जीवित कर दिया। ऐसी बेतुका और बेहूदा कहानी सुन-सुनाकर जगराते वाले पता नहीं क्या सन्देश देना चाहते हैं? ऐसी कहानियों के प्रभाव में आकर तथा तान्त्रिकों के कहने पर लोग अपने और दूसरों के बच्चों को मारने का अपराध कर बैठते हैं।
जगराता करने वाले लोग आम तौर पर शराबी-कबाबी होते हैं। इस प्रकार जगराते से सम्बन्धित हर बात अधर्म तथा पाप कर्म है।
ओ३म्
ReplyDeleteसादर नमस्ते जी, सत्य सनातन वैदिक धर्म की जय।
बहुत ही उपयोगी जानकारी प्रदान करने के लिए आपका धन्यवाद।