◼️महर्षि दयानन्दकृत वेद-भाष्य की स्थिति◼️
✍🏻 लेखक - पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
आज हम एक अत्यन्त आवश्यक पत्र प्रकाशित कर रहे है, जो समाज के लिए अत्यन्त महत्त्व का है। इस पत्र से ऋषि दयानन्दकृत वेदभाष्य की वास्तविक स्थिति का ज्ञान पूरा-पूरा मिलता है। वैदिक यन्त्रालय में छापे ऋग्वेदभाष्य की ६ जिल्दों अर्थात् सब भागों के मुख पृष्ठ (टाइटल) पर सब संस्करणों में बराबर (प्रत्येक भाग पर) निम्न प्रकार छपता चला आ रहा है -
"इस भाष्य की भाषा को पण्डितों ने बनाई, और संस्कृत को भी उन्होंने शोधा है।"
इन शब्दों से स्पष्ट स्थिति का बोध नहीं होता। कई प्रकार की आशङ्कायें उठती हैं।
यह पत्र महर्षि दयानन्द सरस्वतीजी महाराज के शिष्य ब्रह्मचारी रामानन्दजी (जो पीछे संन्यासाश्रम में आकर रामानन्द सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुए) के हाथ का लिखा हुआ है। यह रामानन्द ब्रह्मचारी ऋषि दयानन्द के साथ लेखक के रूप में कई वर्षों तक रहे। अर्थात् मृत्यु सयय में भी यह श्री महाराज की उपचर्या में थे। इन का लेख बहुत अच्छा था। यह अलीगढ़ जिले में अतरौली के पास के रहने वाले थे। ऋषि-भक्त महाशय मामराज जी के द्वारा हमें असली पत्र प्राप्त हुआ है, जो आर्य समाज खतौली जि. मुजफ्फरनगर (यू० पी०) के सभासद् हैं और जिन्होंने अनेक वर्षों तक घोर परिश्रम और कष्ट उठाकर भारत के भिन्न-भिन्न नगरों और स्थानों से ऋषि के पत्र और विज्ञापनादि संगहीत किये थे और जो लाहौर में रामलाल कपूर ट्रस्ट के द्वारा प्रसिद्ध विद्वान् श्री पं० भगवदत्तजी रिसर्च स्कालर द्वारा सम्पादित ऋषि दयानन्द के 'पत्र और विज्ञापन' नामक पुस्तक में छपे हुये हैं। ब्रह्मचारी रामानन्द का वह पत्र हम छाप रहे हैं। हम तो इस पत्र का फोटो वा ब्लाक छापना चाहते थे पर इस समय ऐसा प्रबन्ध होना कठिन था। अतः हम उस पत्र को छाप रहे हैं -
यह पत्र ऋषि दयानन्द के निधन के लगभग दो मास पीछे का लिखा हुआ है, जो पं० श्री मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्या, मन्त्री परोपकारिणी सभा के नाम उनके पूछने पर लिखा गया था। पत्र निम्न प्रकार है-
"श्रीयुत् माननीयाऽनेकशुभगुणगणालंकृतब्रह्मकर्म-समर्थ श्रीमत्पण्डितवर्य मोहनलाल विष्णुलाल पण्डयाऽभिधेयेष्वितो रामानन्दब्रह्मचारिणोऽनेकधा प्रणतयः समुल्लसन्तुतराम् इति।
भगवन् ! आपने जो मुझे श्रीयुत परमहंस परिव्राजकाऽऽचार्यवर्य श्री १०८ श्रीमद्दयानन्द सरस्वती स्वामीजी कृत ऋग्वेदादिभाष्य के विषयों की परीक्षा करके श्रीमती परोपकारिणी सभा में निवेदन करने के लिए (एक सारांश) बनाने को प्रेरणा की थी। सो आप की आज्ञानुसार उस को बनाकर पाप की सेवा में समर्पित करता हूं अवलोकन कीजियेगा।
इत्यलं प्रशंसनीयबुद्धिमद्वर्येषु
मिति पौषकृष्णा ३ रवि सम्वत् १९४०
शुभचिन्तक- रामानन्द सरस्वती
◾️ऋग्वेदभाग्य◾️
श्रीयुत परमहंस परिव्राजकाचार्यवर्य श्री १०८ मद् दयानन्द सरस्वतीजी कृत ऋग्वेद भाष्य की व्यवस्था निम्नलिखित परिमाणे जानना चाहिये -
अर्थात्
ऋग्वेद का भाष्य १ मण्डल के आरम्भ से ७ मण्डल के ६७ व सूक्त के २ मन्त्र तक रचा गया।
१ मण्डल के ८६ सूक्त के ५ मन्त्र तक मुद्रित हो चुका अर्थात् ५०+५१ अंक तक।
१ मण्डल के ८६ सूक्त के ६ मन्त्र से ९१ सूक्त के ३ मन्त्र तक की शुद्ध प्रति छपने में; शेष मुशी समर्थदान जी के पास वैदिक यन्त्रालय प्रयाग में है।
१ मण्डल के ९१ सूक्त के ४ मन्त्र से १ मण्डल के ११४ वें सूक्त के ५ वे मन्त्र तक की शुद्ध प्रति लिखी हुई छपाने योग्य है।
१ मण्डल के ११४ वें सूक्त के ६ मन्त्र से १ मण्डल के १२४ सूक्त के १२ मन्त्र तक की भाषा बनी हुई है।
१ मण्डल के....मन्त्र से १ मण्डल के...सूक्त की समाप्ति पर्यन्त तक की भाषा पण्डित ज्वालादत्त जी इस भाषा बनाने के लिये वैदिक यन्त्रालय प्रयाग में हैं।
१ मण्डल के ११४ वें सूक्त से ७ मण्डल के ६२ वें सूक्त के दो मन्त्र तक का भाष्य अशुद्ध संस्कृत में बना हुआ है। १ मण्डल के ६१ वें सूक्त के ५ वे मन्त्र से १ मण्डल के ११४ वें सूक्त के ५ वें मन्त्र के ऋग्वेद भाष्य के रद्दी पत्रे हैं। अर्थात् शुद्ध प्रति हो इई।
◾️यजुर्वेदभाष्य◾️
यजुर्वेद का भाष्य सम्पूर्ण हो गया अर्थात् ४० व अध्याय की समाप्ति पर्यन्त रचा। १५ वें अध्याय के ११ वें मन्त्र तक का भाष्य मुद्रित हो चुका है। अर्थात ५० और ५१ अङ्क तक है।
१५ वें अध्याय के १२ वें मन्त्र से लेकर २१ वें मन्त्र तक की शुद्ध प्रति छपने में शेष मुशी समर्थदान जी के पास वैदिक यन्त्रालय प्रयाग में है। १५ वें अध्याय के २२ वें मन्त्र से २३ वें अध्याय के ४९ मन्त्र तक छपने योग्य शुद्ध प्रति लिखी हुई है।
२३ अध्याय के ५० वें मन्त्र की भाषा बनी हुई है, शुद्ध प्रति में लिखने योग्य है
२३ अध्याय के ५१ वें मन्त्र से ६५ मन्त्र तक अर्थात् अध्याय की समाप्ति पर्यन्त की भाषा नहीं बनी।
२४ वें अध्याय...से अध्याय...तक भाष्य भाषा बनाने के लिये पण्डित ज्वालादत्त जी के पास वैदिक यन्त्रालय प्रयाग में है।
२७ वें अध्याय के प्रारम्भ से ४० वें अध्याय की समाप्ति पर्यन्त का अशुद्ध संस्कृतभाष्य बना हुआ है अर्थात् विना शुधी संस्कृत है।
१३ वें अध्याय के २१ वें मन्त्र से २३ वें अध्याय के ४९ वें मन्त्र तक रद्दी पत्रे हैं अर्थात् शुद्ध प्रति हो गई।"
इस पत्र से स्पष्ट विदित हो जाता है कि -
१. ऋग्वेदभाष्य के प्रथम मण्डल के १२४ व सूक्त के १३ वें मन्त्र से लेकर सातवें मण्डल के ६२ वें सूक्त के २ मन्त्र तक (जहां तक कि
वेदभाष्य महर्षि द्वारा संस्कृत में बना) की भाषा ऋषि की मृत्यु के पीछे बनाई गई। दूसरे शब्दों में ६७ सूक्त प्रथम मण्डल के तथा दूसरा, तीसरा, चौथा, पांचवां, छठा, ये पांच मण्डल पूरे और सातवें मण्डल के ६२ सूक्त २ मन्त्र तक अर्थात् लगभग ६ मण्डल की भाषा ऋषि की मृत्यु के पीछे पण्डितों ने बनाई।
२. इन उपयुक्त ६ मण्डल की संस्कृत भी उस समय तक शुद्ध नहीं हो पाई थी, इसे भी पं० ज्वालादत्त जी आदि पण्डितों ने ही शुद्ध किया।
३. यजुर्वेदभाष्य में भी २३ वें अध्याय के १५ मन्त्र तथा २४[१] अध्याय से ४० तक पूरे १७ अध्यायों की भाषा भी ऋषि की मृत्यु के पश्चात पण्डितों द्वारा ही बनाई गई।
[पाद टिप्पणी - १. मूल लेख में ‘३ अध्याय’ लिखा था, प्रतीत होता है की ये मुद्रण दोष है अतः हमने इसे सुधार कर ‘२४ अध्याय’ कर दिया है। - ‘अवत्सार’]
४. इन उपयुक्त १७ अध्यायों तथा १५ मन्त्रों की संस्कृत को भी पण्डितों ने शोधा है । अर्थात् विना शुधी संस्कृत थी।
५. सम्पूर्ण यजुर्वेद तथा ऋग्वेद के ७वें मण्डल के ६२ सूक्त के २ मन्त्र तक का भाष्य बन चुका था।
६. भाषा भी पण्डित ज्वालादत्त जी ने बनाई, संस्कृत के शोधने में उनका मुख्य हाथ रहा।
उपयुक्त सारे लेख से स्पष्ट है कि वेदभाष्य की वह स्थिति नहीं हो सकती, जो सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिकादि की है। क्योंकि ऋषि दयानन्द के जीवन काल में ही सत्यार्थप्रकाश ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि लगभग सभी छप चुके थे। यहां तक कि कई एक के तो द्वितीय संशोधित संस्करण भी प्रकाशित हो चुके थे। पर आर्य जाति के दुर्भाग्य से वेदभाष्य की यह स्थिति नहीं हो पाई, इसकी क्या स्थिति है, यह स्वामी रामानन्द जी के उपयुक्त पत्र से स्पष्ट विदित हो जाता है।
सारभूत यह है कि ऋग्वेदभाष्य के ९ भागों में से ७ भाग की भाषा भी ऋषि की मृत्यु के पश्चात् पण्डितों ने बनाई और संस्कृत को भी पीछे ज्वालादत्त जी आदि पण्डितों ने ऋषि के जीवनकाल के पीछे ही शोधा है। इसी प्रकार यजुर्वेदभाष्य के ५ भागों में से आधे २॥[ढाई] भाग की भाषा ऋषि के जीवनकाल के पीछे बनी और संस्कृत को भी ज्वाला जी आदि पण्डितों ने ही शोधा है।
वेदभाष्य के पहिले भागों की भाषा भी पण्डितों ने बनाई और संस्कृत को भी पण्डितों ने शोधा है, जैसा कि ऋग्वेदभाष्य के सब भागों पर सदा से छपता चला आ रहा है।
यह भी ध्यान रहे कि इन्हीं पं० ज्वालादत्त जी को परोपकारिणी सभा की ओर से स्वामी जी के ग्रन्थों में गड़बड़ डालने के कारण ही ५०) रु० दण्ड दिया गया था।
विज्ञ पाठक ऋषि दयानन्द जी का भाष्य पढ़ते समय इस उपयुक्त सारी परिस्थिति को जानकर ही पढ़ें-पढ़ायेंगे, तभी उन्हें यथार्थ ज्ञान हो सकता है। जो इस बात पर ध्यान नहीं देंगे, उन्हें भाष्य में कहीं-कहीं बहुत सन्देह वा कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा और निश्चय ही यथार्थ बोध न होगा।
हमारा यह लेख ऋषिभाष्य की यथार्थ स्थिति को आर्य जनता के लिये अवगत कराने में लाभप्रद होगा, यह हमें पूर्ण विश्वास है । आशा है विज्ञ महानुभाव इससे अवश्य लाभ उठायेंगे। [वेदवाणी, वर्ष २, अङ्क ३]
✍🏻 लेखक - पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
॥ओ३म्॥
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