◼️ऋषियों का महत्त्वपूर्ण आदेश- स्वाध्यायान्मा प्रमदः◼️
✍🏻 लेखक - महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
🔥स्वाध्यायान्मा प्रमदः
🔥स्वाध्यायप्रवचनाम्यां न प्रमदितव्यम्
वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।
आचार्य समावर्तन के समय स्नातक को जो उपदेश वा आदेश देता है, उसमें एक वचन है- 'स्वाध्यायान्मा प्रमदः' अर्थात् स्वाध्याय से प्रमाद मत कर । स्वाध्याय शन्द 'सु+आ+अध्याय' तथा 'स्व(स्य) अध्याय:' इस तरह दो प्रकार से निष्पन्न होता है । इन दोनों का अर्थ निम्न प्रकार है -
◾️१-अच्छा अध्ययन अर्थात् वेदादि सच्छास्त्रों का अध्ययन ।
◾️२-अपना अध्ययन, अर्थात् आत्मा तथा शरीर आदि के तत्त्वज्ञान के लिये प्रयत्न।
ये स्वाध्याय शब्द के यौगिक अर्थ हैं, किन्तु जहां-जहां स्वाध्याय के लिये शास्त्रकारों ने आदेश दिया है, वहां-वहां केवल यौगिक अर्थ अभिप्रेत नहीं है। 'पङ्कज' आदि शब्दों की तरह वह भी विशेषार्य में नियत है। शतपथ के अथात स्वाध्यायप्रशंसा' नामक ब्राह्मण, तथा मीमांसकों की मीमांसानुसार यह पद केवल वेदाध्ययन के लिये प्रयुक्त होता है। अतः 🔥‘स्वाध्यायान्मा प्रमदः’ वाक्य का विशिष्ट अर्थ यह हुआ कि 'वेदाध्ययन में प्रमाद मत कर'। इसी प्रकार 🔥'स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्' का अर्थ होगा- वेद के अध्ययन और अध्यापन में प्रमाद मत कर ।
यहां यह ध्यान में रखना चाहिये कि ये दोनों आदेश एक गृहस्थ में प्रवेश करनेवाले स्नातक के लिए हैं। इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक गृहस्थी को वेद के अध्ययन और अध्यापन करने का आदेश दिया जा रहा है। भगवान् मनु गृहस्थ धर्म प्रकरण में लिखते हैं -
🔥नित्यं शास्त्राण्यवेक्षेत निगमांश्चैव वैदिकान्।
अर्थात् 'नित्यप्रति वेद और सत्यशास्त्रों का अवलोकन करना चाहिये। तत्तिरीयोपनिषद् (शिक्षावल्ली ९) में लिखा है -
🔥'तपश्च स्वाध्यायप्रवचने च, दमश्च स्वाध्यायप्रवचने च,…प्रजननं च स्वाध्यायप्रवचने च, प्रजातिश्च स्वाध्यायप्रवचने च'॥
अर्थात् 'तप शम दम अग्निहोत्र आदि तथा धर्मपूर्वक सन्तानादि की उत्पत्ति करते हुए भी स्वाध्याय और प्रवचन करते रहना चाहिये'। स्वाध्याय अर्थात् स्वयं अध्ययन और प्रवचन अर्थात् दूसरे को पढ़ाना। इन वाक्यों का भी तात्पर्य यही है कि- वेद का पढ़ना पढ़ाना प्रत्येक अवस्था में अवश्य करना चाहिये, कभी छूटना नहीं चाहिये। इसीलिये स्वाध्याय और प्रवचन पद प्रत्येक वाक्य में पढ़े गये हैं। इनसे यह भी प्रतीत होता है कि वेद का पढ़ना पढ़ाना प्रतिदिन का आवश्यक कर्म है ।
'स्वाध्याय' योग का एक अंग है - महर्षि पतञ्जलि ने स्वाध्याय को नियमों के अन्तर्गत माना है। और स्वाध्याय का फल स्वयं बतलाया है 🔥'स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोगः' (योग २।४४) । अर्थात् ‘स्वाध्याय से इष्टदेव परमात्मा की प्राप्ति होती है।’ महर्षि वेदव्यास ने योग १।२८ सूत्र की व्याख्या में लिखा है -
🔥स्वाध्यायाद् योगमासीत योगात् स्वाध्यायमामनेत्।
स्वाध्याययोगसम्पत्त्या परमात्मा प्रकाशते॥
स्वाध्याय से योग=चित्तवृत्तियों के निरोध की प्राप्ति करे, योग=चित्तवृत्तियों का निरोध करके स्वाध्याय=वेद का अध्ययन करे। स्वाध्याय और योग की सम्मिलित शक्ति से आत्मा में भगवान् स्वयं प्रकाशित हो जाते हैं। यह है स्वाध्याय का महान् फल ।
महर्षि याज्ञवल्क्य शतपथ के स्वाध्याय के प्रकरण में लिखते हैं-
🔥‘यदि ह वाभ्यङ्क्तोऽलंकृतः सुखे शयने शयान: स्वाध्यायमधीते, आ हैव नखाग्रेभ्यस्तपस्तप्यते, य एवं विद्वान् स्वाध्यायमधीते।’ शत० ११।५।१।४
अर्थात् 'जो पुरुष अच्छी प्रकार अलंकृत होकर सुखदायक पलङ्ग पर लेटा हुआ भी स्वाध्याय करता है. तो मानो वह चोटी से लेकर एडी पर्यन्त तपस्या कर रहा है । इसलिये स्वाध्याय करना चाहिये।'
कई सज्जन कहते हैं कि वेद के स्वाध्याय में मन नहीं लगता। रूखा विषय है, सरस नहीं। यह कहना बहुत अंश में ठीक है, किन्तु इसमें भी दोष हमारा ही है । सरसता प्रत्येक पुरुष की अपनी-अपनी रुचि पर निर्भर होती है। बहुत लोग गणित को शुष्क विषय कहते हैं. किन्तु जो उसके वेत्ता है उन्हें वह विषय इतना प्रिय होता है कि उसमें वे अपनी सुध-बुध भी भूल जाते हैं। इस प्रतीत होता है कि जिन पुरुष की जिस विषय में प्रगति होती है उसके लिये वह विषय सरस है, अन्य के लिए रूक्ष। इस रूक्षता को हटाने का एक मात्र साधन है- निरन्तर अध्ययन। जो पुरुष दो चार दिन पढ़कर आनन्द उठाना चाहते हैं, उन्हें कभी भी लाभ नहीं हो सकता। उसके लिये निरन्तर स्वाध्याय की आवश्यकता है। अतएव प्राचीन महर्षियों ने स्वाध्याय को दैनिक कार्य मानकर नैत्यिक पञ्चमहायज्ञों के अन्तर्गत स्थान दिया है। और इसीलिये इसे संसार का सब से महान् तप कहा है। मनुजी (४।२०) कहते हैं -
🔥यथा यथा हि पुरुषः, शास्त्राणि समधिगच्छति।
तथा तथा विजानाति, विज्ञानं चास्य रोचते॥
"पुरुष जैसे-जैसे अपने शास्त्राध्ययन को बढ़ाता जाता है, वैसे-वैसे उसका ज्ञान बढ़ता है, और उसमें उसे रुचि पैदा होती है, तत्काल नहीं।"
महर्षि दयानन्द ने प्रत्येक आर्य के लिये दश आदेश दिये हैं, जिन्हें मानकर ही आर्य समाज का सदस्य बन सकता है। मानने का अभिप्राय सदा तदनुसार कर्म करना होता है। एक सामान्य नियम है कि-
🔥‘यन्मनसा ध्यायति तद्वाचा वदति, यद् वाचा वदति तत् कर्मणा करोति, यत्कर्मणा करोति तदमिसम्पद्यते।’
'पुरूष जिस बात को अपने मन से सोचता है, उसे वाणी द्वारा प्रकट करता है। जिसे वाणी द्वारा प्रकट करता है, उसे कर्म द्वारा करता है। जिसे कर्म द्वारा करता है, वैसा ही बन जाता है।'
अब हमारे सामने प्रश्न आता है कि जिन नियमों को हम आर्य समाज का सदस्य बनते हुए स्वीकार करते हैं, क्या हमारी वह स्वीकृति हृदय से होती है वा दिखावटी? इसकी कसौटी हमारे कर्म हैं। यदि उन नियमों के अनुसार हमारे कर्म हैं। तो मानना होगा कि हम उन नियमों को हृदय से मानते हैं। अन्यथा यही कहा जाएगा कि सदस्य बनने के लिये दिखावटी स्वीकृति है। महर्षि दयानन्द ने आर्य-समाज के दस नियमों में तीसरा नियम यह लिखा-
"वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।"
ऋषि ने वेद का पढ़ना अर्थात् स्वाध्याय, पढ़ाना अर्थात् प्रवचन, ये दोनों बातें संगृहीत करते हुए 'सुनना' और 'सुनाना' पद विशेष रखे हैं। यदि ये पद न रखे होते, तो कोई पुरुष यह कह सकता था कि हमें पढ़ना नहीं आता, किन्तु यहां तो यह समस्या पहले ही हल कर दी गई है। जो पढ़ नहीं सकता वह सुने। जो सुनाने में समर्थ हो, उसका भी कर्तव्य है कि वह सुनावे। इस नियम में धर्म शब्द कर्तव्य का वाचक है।
अब प्रश्न उठता है कि क्या आर्यसमाज के सदस्य इस नियम को हृदय से मान रहे हैं ? स्पष्टतया कहा जा सकता है कि नहीं। क्योंकि आर्यसमाज के सदस्यों में सम्प्रति स्वाध्याय की रुचि ही नहीं है।
आर्य व्यक्तियों से कहते सुना जाता है कि आजकल समाज में पूर्व जैसा उत्साह नहीं। बात सोलह आने सत्य है। पर किसी ने इस बीमारी का निदान भी किया है ? इस बीमारी का कारण है वेद के स्वाध्याय का अभाव। वेद आर्यों का धार्मिक अर्थात् कर्तव्यबोधक ग्रन्थ है। यह आर्य जाति की संस्कृति का आदि-स्रोत तथा केन्द्र है। जब हम उस स्रोत तथा केन्द्र से विमुख हो जाते हैं, तभी हममें शिथिलता उत्पन्न होती है। मुसलमानों में अपने मत के प्रति कितना उत्साह है। उसका प्रमुख कारण कुरान का प्रतिदिन स्वाध्याय है । हिन्दुओं में इतनी हीनता और कुरीतियां क्यों उत्पन्न हुई ? इसका उत्तर भी यही है कि उन्होंने अपने मूलभूत वेदों को छोड़कर साम्प्रदायिक ग्रन्थों और पुराणों को ही अपनाना प्रारम्भ कर दिया। आर्य समाज के प्रारम्भिक आर्यों में जो महान् उत्साह था, उसका कारण धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन ही था। स्व० श्री पं० क्षेमकरणदासजी को कौन नहीं जानता। अपने राजकीय नौकरी से ५५ वर्ष की अवस्था के पश्चात् मुक्त होकर संस्कृतभाषा का अध्ययन प्रारम्भ किया। और बड़ौदा राज्य की तीन वेदों की राजकीय परीक्षाए उत्तीर्ण की। तत्पश्चात् उस अथर्ववेद का भाष्य रचा, जिस पर सायण का भी पूर्ण भाष्य उपलब्ध नहीं होता। क्या अब भी कोई कह सकता है कि संस्कृत और वेद कठिन हैं ? संसार में कठिन कुछ नहीं, मन की पूरी लगन चाहिये, सब काम पूरे हो जाते हैं। कठिन कहना तो अपने आलस्य-दोष को छिपानेमात्र के लिये है।
इसलिये आर्यों का परम कर्तव्य है कि यदि वे स्वामी दयानन्द सरस्वती, और उनसे प्राचीन मनु, याज्ञवल्क्य, पतञ्जलि, वेदव्यास आदि के कथन पर थोड़ी भी श्रद्धा रखते हों, तो वेद, उपनिषद्, गीता, षड्दर्शन आदि उत्तमोत्तम ग्रन्थों का नित्य स्वाध्याय करें। जो सज्जन केवलमात्र हिन्दी जानते हैं, वे उक्त ऋषियों के ग्रन्थों का हिन्दी के माध्यम 😊 अनुवाद) से स्वाध्याय कर सकते हैं। इससे उन्हें अपनी संस्कृति से प्रेम उत्पन्न होगा। जातीयता का उद्बोधन होगा, और उत्साह की वृद्धि होगी। यदि आर्य जाति संसार में जीवित जागृत रहना चाहती है, तो उसे वेद को आगे करके सब कार्य करने होंगे। यदि आर्यसमाज 🔥'कृण्वन्तो विश्वमार्यम्' की उक्ति चरितार्य करना चाहता है, तो उसे आचार्य द्रोण के शब्दों में घोषणा करनी होगी
🔥अग्रतश्चतुरो वेदान् पृष्ठतः सशरं धनुः।
उमाभ्यां हि समर्थोऽस्मि शापादपि शरादपि॥
चारों वेदों को आगे (=हृदय) में, तथा पीठ पर शरयुक्त धनुष को धारण करके कहना चाहिये कि मैं शाप और शर (शास्त्रार्थ तथा शस्त्रार्थ) दोनों में समर्थ हूं, जिसका जी चाहे परीक्षा करलो। इसके विना न कभी 🔥'कृण्वन्तो विश्वमार्यम्' का लक्ष्य सफल हो सकता है, और न अपनी वा अपने देश की उन्नति हो सकती है। अतः प्रत्येक आर्य का कर्तव्य है कि वह प्रति दिन (चाहे समय थोड़ा ही लगावे) वेद का स्वाध्याय अवश्य करे । अतः मेरी प्रत्येक वैदिक मतानुयायी से विनम्र प्रार्थना है कि अपने वा समाज के कल्याण के लिये वा देश के समुत्थान के लिये दैनिक स्वाध्याय का व्रत लें।
🔥व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्।
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते॥ यजु॰ १९।३०
✍🏻 लेखक - महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
॥ओ३म्॥
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