भारत में मुस्लिम कह रहे हैं कि इस्लाम में ब्याज देना और ब्याज लेना हराम है. इसलिए हम यहाँ ब्याज रहित इस्लामिक बैंकिंग सिस्टम लाएंगे.
प्रसिद्द लेखक अरुण शौरी ने एक पुस्तक लिखी है जिसका नाम है The World of Fatwas or The shariah in Action.इसका हिंदी अनुवाद वाणी प्रकाशन, दिल्ली से "फ़तवे, उलेमा और उनकी दुनिया" के नाम से प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक में पिछले 100 वर्षों में विभिन्न मुस्लिम संस्थानों से मौलवियों द्वारा दिए गए विभिन्न फतवों को विषयानुसार समीक्षात्मक दृष्टि से परखा गया हैं। आपको अनेक मुसलमान यह कहते मिलेंगे कि इस्लाम में सूदखोरी हराम है। क़ुरान के बाद मुसलमान जितनी श्रद्धा पैगम्बर साहिब के आखिरी ख़ुत्बे (धर्मोपदेश) से रखते हैं, उतनी किसी और दस्तावेज़ के प्रति नहीं। अपनी इन आखिरी नसीहतों में पैगम्बर साहिब ने दोहराया था, "सब किस्म की सूदखोरी को गैरकानूनी घोषित किया जाता है..... अल्लाह का यह फ़रमान है कि सूदखोरी।"
अरुण शौरी अपनी पुस्तक के पृष्ठ 341 पर इस्लाम में सूदखोरी की समीक्षा करते हुए लिखते है-
"लेकिन इस्लामी बैंक और इस्लामी देशों के बैंक दिए गए कर्जों पर दूसरी जगहों पर मौजूद दूसरे बैंकों की अपेक्षा कुछ कम ब्याज वसूल नहीं करते और न ही मुसलमान जमाकर्ताओं को कम ब्याज अदा करते हैं। मुसलमान भी उसी तरह ब्याज वसूल करते हैं, जिस तरह कोई गैर मुस्लिम करता हैं। प्राचीन काल से बीसियों ऐसे क़ानूनी तरीके ढूंढ निकाले गए हैं, जोकि आज भी, उदहारण के तौर पर पाकिस्तान में, इस्तेमाल किये जा रहे हैं जिनके ज़रिये कर्जदार ब्याज ऐडा करता है और ब्याज लेता है-लेकिन इस तरह से, कि उसको नाम कोई और दिया जाता है। उदहारण के तौर पर एक ऐसा तरीका है जिसके तहत जिस आदमी को कर्ज की जरुरत पड़ती है, वह कुछ सामान,कर्ज देने वाले, मिसाल के तौर पर बैंक, के पास, जमानत के तौर पर सिर्फ गिरवी ही नहीं रखता बल्कि वह उसे बेच देता है। और फिर उसी क्षण वह कर्ज़ देने वाले से ज्यादा कीमत पर वह सामान वापिस खरीद लेता है। जिस कीमत पर सामान बेचा गया था और जिस कीमत पर सामान वह उसे वापिस खरीदता है, इन दोनों कीमतों के बीच का फ़र्क, बैंक का मुनाफ़ा मान लिया जाता है। होता यों है कि वह उस राशि के बराबर हो, जोकि बैंक बतौर ब्याज़ वसूल करता! यह तरकीब इमाम मलिक ही स्वयं मदीना में ही प्रचलित हो गई थी, अर्थात पैगम्बर साहिब के आखिरी ख़ुत्बे से एक सदी बाद से ही यह प्रचलन में है। एक अंतर अवश्य है। उस समय गुलाम बेचे-ख़रीदे जाते थे। आजकल सामान होता है। लेकिन उपाय बिलकुल वही है।"
निजाम ए मुस्तफा की सबसे बड़ी मिसाल सउदी हुकूमत ब्याज देती भी है और लेती भी है। वहॉ ब्रिटिश-सउदी बैंक, अमरीकन-सउदी बैंक, अरब-नेशनल बैंक और काहिरा-साउदी बैंक की शाखाएँ हैं.। यह सारी बैंके जो ब्याज से अपना कारोबार चलाती है, सउदी क़ानून के अनुच्छेद-1, सेक्षन-बी जिसको बादशाह के हुक्म नं. M/5 बमुताबिक 1386 हिजरी में जारी किया, के मुताबिक वहॉ कारोबार करने की खुली छूट है। वहॉ बैंको से सम्बन्धित कोई भी केस/झगड़ा अपने आप आर्थिक विभाग (monetary establishment) को सुपुर्द कर दिया जाता है, जिसका फैसला एक खास कमीटी करती है। इस तरह के मुकदमे शरइ अदालतो में नही जाते। इस क़ानून के लागू होने से पहले अगर कोई शख्स किसी बैंक या संस्था से पैसा उधार लेता और उसे लौटाने में देर कर देता तो बैंक उस पर ब्याज लगा देती थी। फिर वोह शरीया अदालत की तरफ रूख करता, जो इस ब्याज को की रकम को माफ़ (nullify) कर देती थी। इस व्यवस्था की वजह से झगड़ा पैदा होता था। एक तरफ इन्हे शरई अदालते चाहिये, दूसरी तरफ उन्हे काफिराना व्यवस्था पर आधारित पर बैंके भी चाहिये। इस झगड़े को खत्म करने के लिये शरई अदालतो को “स्पेशलाइज़ेशन” क़ानून’ के जरिये, (जो कि the System of Saudi Arab Army की दफा 20 और 21 के बाब 3 में दर्ज है), इस तरह के मुकदमो में दखलअन्दाज़ी करने से रोक दिया गया।
सऊदी और AMF (अरब मोनिटरी फण्ड)
अरब मोनिटरी फण्ड जो कि आबूधाबी में स्थित है, एक ब्याज पर आधारित बहुत बड़ी संस्था था, जिसकी स्थापना मोरक्को में 4/7/76 में एक सन्धि के मुताबिक हुई। इसमें सउदी सबसे बड़ा शेयर होल्डर है और इसमें दूसरे अरब देशो की तरह इसे अपने हिस्से का 32 प्रतिशत ब्याज मिलता है।
सउदी और उसके GCC (गल्फ कोपरोषन काउन्सिल) के बीच ब्याज पर आधारित सम्बन्ध: Unified Economic Agreement का अनुच्छेद-22 के मुताबिक: सदस्य देश आपस में मुद्रा सम्बन्धी (monetary) और पैसे से जुड़े हुए मामलात में एक दूसरे की सहायता करेंगे और ज़रई इदारो (monetary establishments) और मर्कजी बैंक के बीच सहायता बढाएगें .
पाठक एक अन्य उदहारण के रूप में इसे समझे। मान लीजिये मैं बाजार से एक मोटर साइकिल खरीदने गए। उसकी कीमत 50000 रुपये है। कंपनी अपनी और से ग्राहकों को यह कहकर आकर्षित करती है कि जीरो ब्याज़ डर पर फाइनेंस द्वारा ख़रीदे। अर्थात आप किश्तों पर फाइनेंस करवाए। आपको कोई ब्याज नहीं देना पड़ेगा। मगर जब आप सभी किश्तों को जोड़ते है तब कुल राशि 65000 से बैठती। यह जो 15000 का अंतर है। यह ब्याज है। जो आपको बिना बताये लिया गया है।
हम अंत में इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि इस्लाम में सूदखोरी न होने का बखान करने वालों को अपने इस भ्रम से बाहर निकलना चाहिए कि इस्लाम में सूद लेना मना हैं। क़ुरान की विभिन्न सूरा अल निशा, सूरा अल रम, सूरा अल इमरान में सूद लेने की मनाही हैं। जो सूद लेगा वह कयामत के दिन अल्लाह के सामने खड़ा न हो पायेगा। ऐसा प्रचलित किया जाता है। जबकि व्यवहार रूप में सरेआम पिछले दरवाजे से प्रवेश किया जा रहा हैं।
भारत में ही ब्याज रहित इस्लामिक बैंकिग की जिद्द क्यों?
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