◼️वैदिक सन्ध्या व पद्यानुवाद◼️
✍🏻 लेखक - पंडित चमूपति एम॰ए॰
◾️गुरु मन्त्र◾️
🔥ओ३म् भूर्भव: स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो
देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्॥
प्रेरक प्रभु प्रेरणा करिए (टेक)
प्राणपति जग के रखवारे
जगजीवन (औ) जग से न्यारे
सुखस्वरूप सब संकट हरिए।
तेजरुप तव ध्यान धरें हम
बुद्धि प्रेरिए जीवन भरिए।
◾️आचमन◾️
🔥ओं शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये।
शंयोरभि स्रवन्तु नः॥ (यजु० ३६/१२)
विश्व व्यापिनी देवी सुख बरसाना।
प्रेम प्यास है चहूँ दिश इसे बुझाना॥
◾️इन्द्रिय स्पर्श◾️
🔥ओं वाक् वाक्। ओं प्राणः प्राणः। ओं चक्षुश्चक्षुः।
ओं श्रोत्रं श्रोत्रम्। ओं नाभिः। ओं हृदयम्। ओं कण्ठः।
ओं शिरः। ओं बाहुभ्यां यशोबलम्। ओं करतल करपृष्ठे।
वाणी मम यथार्थ वाणी हो।
प्राण-प्राण गुण अभिमानी हो॥
आँख-आँख सुभ कान-कान सुभ।
नाभि शक्ति का हो निधान सुभ॥
हृदय हृष्ट हो कण्ठ शुद्ध हो।
शीर्ष शक्ति सम्पन्न बुद्ध हो॥
सबल बाहु शुभ यश फैलायें।
हाथ चुस्त हो कर्म कमायें॥
◾️मार्जन◾️
🔥ओ३म् भूः पुनातु शिरसि। ओं भुवः पुनातु नेत्रयोः।
ओं स्वः पुनातु कण्ठे। ओं महः पुनातु हृदये।
ओं जनः पुनातु नाभ्याम्। ओं तपः पुनातु पादयोः।
ओं सत्यं पुनातु पुनश्शिरसि। ओं खं ब्रह्म पुनातु सर्वत्र।
मम चित्त शोधो शोधन हारे। (टेक)
शीर्ष शुद्ध कर ज्ञान बढ़ाओ॥
नेत्र स्वच्छ कर सुपथ दिखाओ।
मल नाशो मल नाशन हारे॥
कोमल कण्ठ सरस स्वरमय हो।
महा प्रभो मम माहा हृदय हो
शीश शुद्ध हो सत्य विचारे
तपोनिधे मम पग-पग प्रेरो
नाभि स्वच्छ कर शिशु मुख हेरो
जनक जगज्जन सरजन हारे॥
रहे स्वच्छता निज शरीर में
अंग अंग में चीर चीर में
घट-घट व्यापो व्यापनहारे॥
◾️प्राणायाम◾️
🔥ओ३म् भूः। ओं भुवः। ओं स्वः। ओं महः। ओं जनः।
ओं तपः। ओं सत्यम्॥ (तैत्ति० प्रपा० १ अनु० २७)
प्रिय प्रभु तुम हो प्राण हमारे।
प्यारे-प्यारे न्यारे-न्यारे॥
व्यापक सुख हो जगत जनक हो।
तप: स्वस्वरूप सत्य साधक हो॥
◾️अघमर्षन◾️
🔥ओ३म् ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽअध्यजायत।
ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः॥१॥
समुद्रादर्णवादधि संवत्सरोऽअजायत।
अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी॥२॥
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वकल्पयत्।
दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः॥३॥
(ऋग्वेद १०/१९/१-३)
अचरज महिमा प्रभु रचना की।
चहूँ दिश तपी सदा भव भट्टी॥
निशिदिन चलते नियम निरन्तर।
सखलन होता नही कहीं बाल भर॥
अभी सृष्टि थी अभी प्रलय हैं।
लो फिर सागर विप्लवमय है॥
ऋतु ऋतु की फिर बारी आयो।
समय शृंखला सारी आयो॥
विश्ववशी ने निजस्वभाव से।
रचे रैन दिन सहज भाव से॥
सूर्य चन्द्र पृथिवी औ तारे।
अन्तरिक्ष के गोलक सारे॥
विधि-विधि फिर अनादि से रचता।
न्याय नियम से अणु नहीं बचता॥
◾️आचमन (दूसरी बार)◾️
🔥ओं शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये।
शंयोरभि स्रवन्तु नः॥ (यजु० ३६/१२)
विश्व व्यापिनी देवी सुख बरसाना।
प्रेम प्यास है चहूँ दिश इसे बुझाना॥
◾️गुरु मन्त्र (दूसरी बार)◾️
🔥ओ३म् भूर्भव: स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो
देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्॥
प्रेरक प्रभु प्रेरणा करिए (टेक)
प्राणपति जग के रखवारे
जगजीवन (औ) जग से न्यारे
सुखस्वरूप सब संकट हरिए।
तेजरुप तव ध्यान धरें हम
बुद्धि प्रेरिए जीवन भरिए।
◾️मनसा परिक्रमा◾️
🔥ओ३म् प्राची दिगग्निरधिपतिरसितो रक्षितादित्या इषवः।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।
यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥१॥
🔥ओ३म् दक्षिणा दिगिन्द्रोऽधिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितर इषवः।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नर्मो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।
यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥२॥
🔥ओ३म् प्रतीची दिग्वरुणोऽधिपतिः पृदाकू रक्षिताऽन्नमिषवः।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।
यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥३॥
🔥ओ३म् उदीची दिक्सोमोऽधिपतिः स्वजो रक्षिताऽशनिरिषवः।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।
यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भै दध्मः॥४॥
🔥ओ३म् ध्रुवा दिग्विष्णुरधिपतिः कल्माषग्रीवो रक्षिता वीरुध इषवः।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।
यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भै दध्मः॥५॥
🔥ओ३म् ऊर्ध्वा दिग् बृहस्पतिरधिपतिः श्वित्रो रक्षिता वर्षमिषवः।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।
यो३स्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥६॥
(अथर्ववेद ३।२७।१-६)
आगे आगे अग्रि अग्रणी
किरण बाण धर तिमिर हरधनी
सदा मुक्त, प्रभु राज तुम्हारा
नम्र नमस्ते लहो हमारा
अहो महेश्वर नमो नमस्ते
अहो वाणधर नमो नमस्ते
जो जन हमसे द्वेष कर रहे
या जिनपर हम दोष धर रहे
न्याय नेत्र के सब समक्ष हों
दण्ड जम्भ के दुष्ट भख भक्ष हों॥
दाएँ हाथ तुम इन्द्र दयानिधे
निज वाण धर वक्र वेधते
सकल विश्व पर राज तुम्हारा
पृष्ठ भाग में वरुण वरेश्वर
हिंस्र शत्रु हर अन्न बाण धर
सकल विश्व प्रभु राज तुम्हारा
बाए हाथ तुम सोम सुधाकर
सुखद स्वयं भू अशनि बाण धर
सकल विश्व प्रभु राज तुम्हारा॥
विष्णु तुम हो ध्रुव रखवारे
बेलें बूटे बाण तुम्हारे
हरा भरा निज राज तुम्हारा॥
तुम्हीं बृहस्पति छत्र हमारे
वृष्टि बाण धर रोग संहारे
विमल विभो सब राज तुम्हारा॥
◾️उपस्थान◾️
🔥ओम् उद्वयन्तमस॒स्परि स्वः पश्यन्त ऽउत्तरम्।
देवं देवत्रा सूर्यमर्गन्म ज्योति॑रुत्तमम्॥१॥
(यजुर्वेद ३५/१४)
🔥ओम् उदु त्यजातवेदसं देवं वहन्ति केतवः।
दृशे विश्वाय सूर्य्यम्॥२॥
(यजुर्वेद ३३/३१)
🔥ओम् चित्रं देवानामुदगादीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः।
आप्रा द्यावापृथिवीऽअन्तरिक्षं सूर्यऽआत्मा जगतस्तस्थुषश्च स्वाहा॥३॥
(यजुर्वेद ७/४२)
🔥ओम् तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं।
शृणुयाम शरदः शतं प्रव्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्॥४॥
(यजुर्वेद ३६/२४)
अन्धकार से वृत्ति मोड़कर
तामस तम का मार्ग छोडकर
चलो देव के दर्शन करने
लख छवि सुखस्वरूप जी भरने
देवराज देवों में उत्तम
सुगम सुदर्शन अद्भुत अनुपम
भवन-भवन झण्डे फहराते
प्रभु छवि कर संकेत दिखाते
देव विश्ववत् विश्व विकाशी
कर दर्शन-दर्शन अभिलाषी
देव संग मङ्गल मना रहे
मित्र वरुण और अग्रि गा रहे
सजग ज्योति से ज्योति पा रहे
विश्वचक्षु शुभ द्युति धारी है।
आत्मकाम कर सफल भुवन को
अंतरिक्ष को धरा गगन को
सकल सृष्टि प्रभु हिय प्यारी है॥
चक्षु समान देव हितकारी
सर्व समक्ष अनादि बिहारी
दर्शन हो सौ वर्ष तुम्हारा
जीवन हो कृतकार्य हमारा
सौ वर्ष तक सुनें सुनावें
सौ वर्ष तक प्रभु गुण गावें
रहें स्वतन्त्र न दीन कभी हों
शुद्ध रक्त यों शत्त रहें हम
सौ वर्ष से अधिक जियें हम
◾️गुरु मन्त्र (तीसरी बार)◾️
🔥ओ३म् भूर्भव: स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो
देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्॥
प्रेरक प्रभु प्रेरणा करिए (टेक)
प्राणपति जग के रखवारे
जगजीवन (औ) जग से न्यारे
सुखस्वरूप सब संकट हरिए।
तेजरुप तव ध्यान धरें हम
बुद्धि प्रेरिए जीवन भरिए।
◾️समर्पण◾️
🔥ओ३म् नमः शम्भवाय च मयोभवाय च।
नमः शङ्कराय च मयस्कराय च।
नमः शिवाय च शिवतराय च॥ (यजुर्वेद १६/४१)
सुखस्वरूप प्रभो नमो नमस्ते
शांतिरूप प्रभु नमो नमस्ते
नमो नमस्ते मंगलकारी
नमो नमस्ते सुख संचारी
सुखकर अनुपम नमो नमस्ते
शंकर शिवतम नमो नमस्ते
॥ ओ३म् ॥
✍🏻 लेखक - पंडित चमूपति एम॰ए॰
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
॥ ओ३म् ॥
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