जीवनभक्षी दो गीध
लेखक- श्री प्रोफेसर विश्वनाथजी विद्यालंकार
प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ
अथर्ववेद ७/९५/१-३, तथा ७/९६/१ में दो गीधों का वर्णन मिलता है। गीध-पक्षियों का काम है मांस भक्षण, मुर्दे के मांस को खाना। अथर्ववेद के इन दो सूक्तों में दो आध्यात्मिक गीधों का वर्णन है। गीधों को इन मन्त्रों में "गृध्रौ" कहा है। ये गृध्र गर्धा के साथ सम्बन्ध रखते हैं। यजुर्वेद अध्याय ४० के प्रथम मन्त्र में कहा है कि "मा गृध: कस्यस्विद् धनम्" इस मन्त्र में "गृध:" पद पठित है। अभिप्राय यह है कि "हे मनुष्य! तू गर्धा मत कर, उग्र अभिकांक्षा मत कर, लालच-लोभ मत कर"। इस प्रकार गृध् का अर्थ है लोभ, लालच। हमारे जीवनों में लोभ-लालच हमें बहुत तंग करता है। यह लोभ-लालच गृध्र है। आध्यात्मिक दृष्टि से हम देखें तो हमें ज्ञात होगा कि एक तो लोभ का संस्कार होता है, और दूसरा वृत्ति रूप में लोभ होता है। लोभ के संस्कारों को 'नरगृध्र' कहा गया है, और लोभ की वृत्ति को 'मादागृध्र' कहा है। संस्कार और वृत्ति में अन्तर यह है कि संस्कार तो मानो दबी हुई आग है, और वृत्ति मानो प्रकट हुई आग है। संस्कार जड़ है वृत्ति की, और वृत्ति अंकुर है संस्कार का। अथर्ववेद के वे मन्त्र निम्नलिखित हैं-
उदस्य श्यावौ विथुरौ गृध्रौ द्यामिव पेततु:।
उच्छोचनप्रशोचनावस्योच्छोचनौ हृद:।।१।।
अहमेनावुदतिष्ठिपं गावौ श्रान्तसदाविव।
कुर्कुराविव कूजन्तावुदवन्तौ वृकाविव।।२।।
आतोदिनौ नितोदिनावथो संतोदिनावुत।
अपि नह्याम्यस्य मेढ्रं य इत: स्त्री पुमान् जभार।।३।।
असदन् गाव: सदनेऽपप्तद् वसतिं वय:।
आस्थाने पर्वता अस्थु: स्थाम्नि वृक्कावतिष्ठिपम्।।१।।
इन चार मन्त्रों का अभिप्राय निम्नलिखित है-
"इस व्यक्ति के दो गृध्र हैं, जो कि काले हैं, और व्यथा देने वाले हैं, वे हृदयाकाश में उड़ते हैं, जैसे कि गीध-पक्षी आकाश में उड़ते हैं। इनके नाम हैं उच्छोचन और प्रशोचन। ये दोनों हृदय में आग लगा देते हैं।।१।। मैं इन दोनों को अपने जीवन में से उठा देता हूं, जैसे कि थक कर बैठी गौओं को उठाया जाता है। ये कुरकुराने वाले पक्षियों की न्याई कुर-कुर करते रहते हैं, और भेड़ियों की न्याई इनके मुख से लार टपकती है।।२।। ये दोनों सम्पूर्ण जीवन को व्यथा वाला बना देते हैं, निश्चित रूप में व्यथा वाला बना देते हैं, और गहरी व्यथा वाला बना देते हैं। इनकी शक्तियों को मैं बांध देता हूं। इनमें एक तो नर है और दूसरी मादा है। ये जीवन शक्ति का हरण करते हैं।।३।।
गौवें थक कर जैसे गौशाला में आ बैठती हैं, पक्षी थक कर जैसे अपनी वसति में अर्थात् निवास स्थान में उड़ आते हैं, पर्वत जैसे अपने अपने स्थानों में स्थित हैं, वैसे ही इन दो गृध्रों को जो कि वृक्क है उनके अपने स्थान में स्थित करता हूं"।।१।।
(श्यावौ)- इन मन्त्रों में गृध्रों को श्याव कहा गया है। लोभ के संस्कार तथा लोभ से जागृतरूपा वृत्ति ये दो गृध्र हैं, गर्धा या लोभ काला है, चूंकि वह तामसिक है, तमोगुण से उत्पन्न होता है। गर्धा वाले या लोभवृत्ति वाले लोग तमोगुणी होते हैं। लोभ रागवर्गी है। राग का ही एक प्रकार लोभ है। गीता में लिखा है कि राग और लोभ रजोगुणी है। यथा-
लोभ: प्रवृत्तिरारम्भ: कर्मणामशम: स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ।।१४/१२।।
अर्थात् लोभ, प्रवृत्ति, कर्मों का आरम्भ, अशान्ति, चाहना, - ये रजोगुण के परिणाम हैं। गीता की दृष्टि में लोभ रजोगुणी है, तमोगुणी नहीं। तो इन मन्त्रों में लोभ को या गर्धा को श्याव क्यों कहा? इसलिए कहा कि राग में जब तमोगुण उचित मात्रा से अधिक हो जाता है तब लोभ का स्वरूप बनता है। वस्तुतः राग को लोभ में परिवर्तित करने वाला तमोगुण ही है। इसलिए लोभ श्याव है।
(विथुरौ)- लोभ-संस्कार और लोभ-वृत्ति विथुर हैं, व्यथा देने वाले हैं। व्यक्ति लोभ से प्रेरित होकर उचित समय से अधिक समय के लिए व्यापार में लगा रहता है, धन कमाता रहता है, उसका संग्रह करता रहता है। इस प्रकार धनविभाग में विषमता पैदा हो जाती है। धन पर धन कमाते जाना और अपने गरीब साथियों के भाग को हड़प जाना लोभ का परिणाम है। इससे हमारे सामाजिक, राष्ट्रीय, तथा अन्तर्राष्ट्रीय जीवन व्यथामय बन गए हैं। सम्पत्तिवाद और साम्यवाद, मालिक और धनी, मजदूर और गरीब का झगड़ा शान्त हो जाय यदि धन संग्रह की लोभ वृत्ति का बहिष्कार कर दिया जाय। इस प्रकार लोभ-संस्कार और लोभ-वृत्ति व्यथा पैदा करने वाले हैं।
(द्यामिव)- गीध-पक्षी आकाश में उड़ान लेते हैं और आध्यात्मिक गीध हृदयाकाश में उड़ान लेते हैं।
(उच्छोचनप्रशोचनौ)- लोभ-संस्कार और लोभ-वृत्ति हृदय में अन्तर्दाह उत्पन्न करने वाले हैं। उच्छोदन = उत् + शोचन्। शुच् का अर्थ है दाह या शोक। शोक भी एक प्रकार का अन्तर्दाह है, हृदय की जलन है।
(उदतिष्ठिपम्)- व्यक्ति जब यह जान जाता है कि लोभ-संस्कार और लोभ-वृत्ति तामसिक रचनाएं हैं, और ये जीवन में व्यथा देने वाले हैं, तथा हृदय में अन्तर्दाह उत्पन्न करने वाले हैं, तब वह इनको हटाने का संकल्प करता है और वह कहता है कि इन दो गीधों ने जो मुझमें आश्रय रखा है मैं इस आश्रय से इन्हें उठा देता हूं, उड़ा देता हूं। इसमें वह दृष्टान्त देता है थक कर बैठ हुई गौओं का। गौएं थक कर जब बैठती हैं तो वे उठना नहीं चाहतीं, इसी प्रकार आध्यात्मिक दो गीध भी हमारे जीवनों में जम कर बैठे हुए हैं। तब भी जैसे थक कर बैठी गौओं को कार्यवश उठा दिया जा सकता है वैसे ही अनुभवी व्यक्ति इन दो गीधों को भी अपने हृदय से उठा देने का संकल्प करता है। वह अनुभव करता है कि ये गीध सदा उसके जीवन में कुरकुराते रहते हैं, सदा उसे चोरी या अन्य अनुचित धन-संग्रह के उपायों में प्रेरित करते रहते हैं। इन दो गीधों को वृक भी कहा है। वृक अर्थात् भेड़ियों की जबान सदा लपलपाती रहती है, इसी प्रकार लोभ-संस्कार और लोभ-वृत्ति भी सदा लपलपाते रहते हैं। उदवन्तौ = उद (उदक) वन्तौ। लोभ के कारण मुख में पानी आ जाना, लार का स्त्राव हो जाना।
(आतोदिनौ)- ये गीध व्यथा देने वाले हैं, तुद् = व्यथने। ऊपर विथुरौ का भी यही अभिप्राय है। यहां व्यथा की गहराई और विस्तार का वर्णन किया है। आतोदिनौ का अर्थ है व्यापक व्यथा देने वाले। आ = व्याप्ति। लोभवृत्ति समग्र जीवन को व्यथामय बना देती है। नितोदिनौ का अर्थ है निश्चित रूप में व्यथा देने वाले, यह नियम है और निश्चित है कि लोभ अवश्य व्यथा देगा। संतोदिनौ का अर्थ है गहरी व्यथा देने वाले। लोभ से जीवन तक को खतरे में डाल दिया जाता है। लोभ के कारण पक्षी जाल में आ फँसते हैं। लोभ के कारण मीन अर्थात् मछली अन्न लगे काँटे तक को निगल जाती है। लोभी व्यक्ति धन-संग्रह के लिए अपने जीवन तक को संकट में डाल देता है।
(स्त्री-पुमान्)- लोभ-संस्कार पुल्लिंग है और लोभ-वृत्ति स्त्रीलिंग है। इसलिए इन्हें स्त्री और पुमान् कहा है। ये शक्तिशाली हैं। ये लोभी के जीवन में अपने ढंग की शक्ति का सेचन कर देते हैं (मेढ्र = मिह सेचने)। इस शक्तिसेचन से लोभी शक्ति पाकर जगह-जगह भटकता है और धन-संग्रह करता रहता है।
(असदन्)- समझदार व्यक्ति यह अनुभव करता है कि लोभ दुःखदायी अवश्य है। वह तब तक दुःखदायी है जब तक कि वह असंयत अवस्था में है। संयत अवस्था का लोभ दुःखदायी नहीं रहता। संयत अवस्था में रह कर यह जीवन के लिए सुखदायी रूप धारण कर लेता है। जैसे असंयत अवस्था की काम-वासना व्यभिचार की ओर प्रेरित करती है, परन्तु संयत अवस्था की कामवासना गृहस्थधर्म का रूप धारण करती है। महात्मा बुद्ध, महर्षि दयानन्द, महात्मा गांधी आदि नररत्न भी तो काम वासना के ही परिणाम हैं। इसी प्रकार लोभ के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए। काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग, द्वेष आदि भावनाएं विधाता की हैं। इनका जीवन में गहरा तात्पर्य है। इनकी जड़ उखाड़ देने के प्रयत्न के स्थान में इनको जीवन में नियन्त्रित अवस्था में रखना यह ही स्वाभाविक स्थिति है। जिसने इस सिद्धान्त को समझ लिया, उसने जीवन की शक्तियों के सदुपयोग का ढंग समझ लिया। फिर ये शक्तियां उसके लिए सुखधारा के स्त्रोत बन जाती हैं। जिसने शक्तियों के सदुपयोग के सिद्धान्त को समझ लिया है वह कहता है कि "मैं लोभ-संस्कार और लोभ-वृत्ति को उसके अपने नियत स्थान (स्थिति) में स्थापित करता हूं।" वह संसार में देखता है कि पशु, पक्षी, तथा जड़ जगत् अपने-अपने नियत स्थानों में परिस्थित तथा सीमित हैं। इसी प्रकार वह अपने जीवन की शक्तियों को उनके अपने-अपने स्थानों में, अपने-अपने घेरे और सीमा में नियत कर देने का संकल्प करता है। यही जीवन का दर्शन है, जीवन का तत्त्व है, जीवन की फिलॉसफी है। मन्त्र ७/९५/२ में लोभ-संस्कार और लोभ-वृत्ति को वृकौ कहा है, और मन्त्र ७/९६/१ में वृक्कौ कहा है। दोनों वृक् धातु के रूप हैं। वृक् धातु का अर्थ है 'खाना'। कुक् वृक् अदने। वृकौ पद इसी वृक् धातु से बना है। वृक्कौ में "वृक् + क" इस प्रकार छेद करना चाहिए। वृक् = खाना, + क= करने वाले (कृ धातु)। अर्थात् खाने का काम करने वाले। इस प्रकार वृकौ और वृक्कौ का अभिप्राय एक ही है। लोभ-संस्कार और लोभ-वृत्ति असंयतावस्था में रह कर जीवन का अशन अर्थात् भक्षण करते हैं, जीवन भक्षी बन जाते हैं। इस प्रकार वृक् धातु का अर्थ सार्थक होता है। मन्त्रों में जो गृध्रौ प्रयोग है, वह स्त्री और पुमान् का एक शेष है। इस प्रकार गृध्रौ प्रयोग द्वारा पुमान्-गृध्र और स्त्री-गृध्र इन दोनों का बोध होता है। लोभ-संस्कार पुमान्-गृध्र है और लोभ-वृत्ति स्त्री-गृध्र है। इन्हें ७/९५/३ में स्त्री और पुमान् इसी दृष्टि से कहा है।
-'वेदवाणी' १९५४ के वेदांक से साभार
सुन्दर
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