वेद ईश्वरीय ज्ञान है
पं० यशपाल सिद्धान्तालंकार
आर्य जाति के पूर्व विद्वानों, ऋषियों, मुनियों तथा जन साधारण का अनादिकाल से यह विश्वास चला आया है कि वेद ईश्वरप्रणीत होने से अपौरुषेय अतएव निर्भ्रान्त हैं। वेद, अनादि, अनन्त और नित्य हैं। वेद में शब्दार्थ-सम्बन्ध भी नित्य है। वैदिक धर्म का मुख्य सनातन सिद्धान्त यह है कि वेद सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व निर्मित हुए। सब ज्ञान और विद्याओं का मूल वेद में है। वेद से ही सब ज्ञान साक्षात् अथवा परम्परा से उत्पन्न हुआ और वैदिक सत्य का ही समयान्तर में विकास हुआ। संसार के सब माननीय तथा प्रचलित धर्मों और धर्मग्रन्थों में सत्य का जो अंश उपलब्ध होता है उसका सम्बन्ध परम्परा रूप से वेदों के ही साथ है। ब्रह्मा से लेकर ऋषि दयानन्द पर्यन्त आर्यावर्त्त में जितने विद्वान्, महात्मा, ऋषि और मुनि हुए हैं उनका सदा से ही यह विश्वास चला आया है कि वेद परमात्मा की वाणी है। सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों को धर्माधर्म, पाप-पुण्य, कर्त्तव्याकर्त्तव्य का ज्ञान देने के लिये परमात्मा ने वेद का ज्ञान दिया। यदि सृष्टि के प्रारम्भ में परमात्मा कोई ज्ञान न दे तो उस समय के मनुष्यों को धर्माधर्म का ज्ञान स्वतः नहीं हो सकता। मनुष्य की बुद्धि धर्माधर्म का ज्ञान करने में अपर्याप्त है। बड़े-बड़े विद्वानों की बुद्धि भी इसके निर्णय करने में कई बार असमर्थ हो जाती है। कर्त्तव्याकर्त्तव्य विवेक अत्यन्त कठिन है।
वेद के ईश्वरीय ज्ञान होने में वेद का प्रमाण-
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतऽऋच: सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तस्मादजायत।। -यजुर्वेद ३१/७
अर्थात् उस सर्वहुत (सर्वपूर्ण) पुरुष से ऋग्वेद, सामवेद, छन्दांसि (अथर्ववेद) और यजुर्वेद उत्पन्न हुए। उक्त मन्त्र में यज्ञ शब्द विष्णु का वाचक है। शतपथ ब्राह्मण में लिखा है कि "यज्ञो वै विष्णु:" अर्थात् सर्वव्यापक भगवान् विष्णु को यज्ञ कहते हैं। तात्पर्य यह है कि उस सर्वव्यापक परमेश्वर से चराचर सृष्टि उत्पन्न हुई और मनुष्य की सहायता के लिये, जो इस सृष्टि के विषय में विचार करने को समर्थ है, वेद भी उसी परमात्मा से उत्पन्न हुए।
यस्मादृचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन्।
सामानि यस्य लोमान्यथर्वाङ्गिरसो मुखम् स्कम्भं तं ब्रूहि कतम: स्विदेव स:। -अथर्व० १०। प्रपा० २३, अनु० ४। मं० २०
जिस सर्वशक्तिमान् परमात्मा से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद उत्पन्न हुए हैं वह देव कौन है? यह प्रश्न है। इसका उत्तर वेद के इसी मन्त्र में दिया है कि ऋग्वेद का पैदा करने वाला स्कम्भ अर्थात् सारे संसार का धारण करने वाला परमात्मा है।
इसका भावार्थ यह है कि याज्ञवल्क्य ऋषि कहते हैं "हे मैत्रेयि, उस महान् परमेश्वर से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद श्वासोच्छ्वास के समान सहज ही प्रकट हुए।" जैसे मनुष्य का श्वास सहज ही भीतर से बाहर निकलता है और फिर भीतर चला जाता है उसी तरह वेद सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व परमेश्वर से सहज उत्पन्न होते हैं और सृष्टि के अन्त में (प्रलय के समय) उसी परमेश्वर में लीन हो जाते हैं। 'वेद सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व उत्पन्न हुए', इससे यह भी नितान्त स्पष्ट हो जाता है कि परमात्मा का मनुष्य जाति पर कितना अनुग्रह है। मनुष्य शब्द की व्युत्पत्ति यह है कि 'मननात् मनुष्य:' अर्थात् जो मनन कर सकता है उसे मनुष्य कहते हैं।
यद्यपि मनुष्य विचारवान् होने से तथा बुद्धियुक्त होने से विचार करने का सामर्थ्य रखता है और वह इस सृष्टि के घटनाचातुर्य और तन्नियामक शक्तियों का ज्ञाता है, तथापि यदि उसे किसी निर्जन वन में रख दिया जाय जहां मृत्यु-पर्यन्त उसका किसी भी मनुष्य से सम्बन्ध न हो तो वह केवल अपनी बुद्धि के आधार पर कभी भी उन्नति न कर सकेगा और सर्वथा ज्ञान-शून्य रहेगा। यदि परमात्मा सृष्टि के प्रारम्भ में वेद का ज्ञान न देता तो अभी तक सब मनुष्य पशु के समान बने रहते। मनुष्य का ज्ञान केवल परावलम्बी है। जैसे बिना उसकी सहायता के न तो आंखें कुछ देख सकती हैं और न कान कुछ सुन सकते हैं वैसे ही मनुष्य का स्वाभाविक ज्ञान चतुर्विध पुरुषार्थ की प्राप्ति में बिना वेद की सहायता के असमर्थ है।
अन्यत्रमना अभूवं नादर्श अन्यत्रमना अभूवं नाश्रौषम्।
यह बृहदारण्यक का वचन है। यदि मन स्थिर न हो या किसी उपाधि के कारण व्यापार विमुख हो जाय तो सम्पूर्ण ज्ञानेन्द्रियों के उपस्थित रहने पर भी किसी कार्य को करने में इन्द्रियां सर्वथा असमर्थ हैं। सारांश यह है कि जैसे मन की सहायता के बिना ज्ञानेन्द्रियां निरुपयोगी हो जाती हैं वैसे ही ईश्वरीय ज्ञान के बिना मन तथा बुद्धि विकसित नहीं हो सकती और मनुष्य चतुर्विध पुरुषार्थ के सम्पादन में असमर्थ हो जाता है।
वेद के ईश्वरीय तथा नित्य होने में ऋषियों की सम्मति
वैशेषिक सूत्रकार कणाद मुनि कहते हैं कि-
तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्। -वैशेषिक १/१/३
अर्थात् वेद ईश्वरोक्त हैं। इनमें सत्य-विद्या और पक्षपातरहित धर्म का ही प्रतिपादन है। इससे चारों वेद नित्य हैं। ऐसा ही सब मनुष्यों को मानना उचित है। क्योंकि ईश्वर नित्य है अतः उसका ज्ञान भी नित्य है।
इसी प्रकार न्यायशास्त्र में गौतम मुनि कहते हैं कि-
"मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवच्च तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यात्।" -२/१/६७
अर्थात् वेदों को नित्य ही मानना चाहिए क्योंकि सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आज पर्यन्त ब्रह्मादि जितने आप्त होते आये हैं वे सब वेदों को नित्य ही मानते आये हैं। आप्त पुरुषों का कथन प्रामाणिक होता है क्योंकि आप्त उन्हें कहते हैं जो धर्मात्मा, कपट, छलादि दोषों से रहित, सब विद्याओं से युक्त महायोगी और सत्यवक्ता हैं, जिनमें लेशमात्र भी पक्षपात नहीं था, उन्होंने वेदों को ईश्वरप्रणीत तथा प्रामाणिक माना है। जैसे आयुर्वेद के एक देश में कहे औषध और पथ्य के सेवन से रोग की निवृत्ति होती है और उनके एक देश में कथित बात के सत्य होने से उसके दूसरे भाग का भी प्रमाण होता है उसी प्रकार वेद के एक देश में कहे अर्थ की सत्यता सिद्ध होने से उससे भिन्न जो वेदों के भाग हैं जिनका कि अर्थ प्रत्यक्ष न हुआ हो उनको भी प्रामाणिक मानना चाहिए।
योगशास्त्र में पतञ्जलि मुनि कहते हैं-
"स एष पूर्वेषामपि गुरु: कालेनानवच्छेदात्।" -पातञ्जल योगशास्त्र १/१२६
अर्थात् सृष्टि के प्रारम्भ में उत्पन्न अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा इत्यादि ऋषियों से लेकर अद्यावधि जितने भी मनुष्य पैदा हुए हैं और भविष्य में होंगे उन सबका आदि गुरु परमेश्वर है, क्योंकि वेद द्वारा सत्यार्थ का प्रकाश करने से। परमात्मा सृष्टि के आरम्भ में वेद का ज्ञान न देता तो मनुष्यों को अवस्था सर्वथा पशुतुल्य होती तथा धर्माधर्म, विवेक और सदसद् विचार में मनुष्य सर्वथा असमर्थ होता।
सांख्यशास्त्र में कपिल मुनि कहते हैं कि-
"निजशक्त्यभिव्यक्ते: स्वतः प्रामाण्यम्" -१/४१
परमेश्वर की स्वाभाविक विद्या तथा ज्ञान-शक्ति से प्रकट होने से वेदों का नित्यत्व और स्वतः प्रमाणत्व सब मनुष्यों को स्वीकार करना चाहिए।
वेदान्तशास्त्र में व्यास मुनि कहते हैं-
शास्त्रयोनित्वात्। -१/१/३
अर्थात् ऋग्वेदादि चारों वेद अनेक विद्याओं से युक्त हैं और सूर्य के समान सब अर्थों का प्रकाश करने वाले हैं। उनका बनाने वाला सर्वज्ञतादि गुणों से युक्त परमात्मा है, क्योंकि सर्वज्ञ ब्रह्म से भिन्न कोई सर्वज्ञतागुणयुक्त वेदों का निर्माण नहीं कर सकता, किन्तु वेद के आधार पर ही अन्य शास्त्रों के बनाने में समर्थ हो सकता है जैसे पाणिनि आदि मुनियों ने व्याकरणादि शास्त्रों को बनाया है, उनमें विद्या के एक-एक भाग का प्रकाश किया है। सब विद्याओं से युक्त वेदों के बनाने में कोई समर्थ नहीं हो सकता। परमेश्वर निर्मित वेदों के पढ़ने-विचारने और उसी के अनुग्रह से मनुष्यों को ज्ञान प्राप्त होता है, अन्यथा नहीं।
कई लोगों को यह शंका होती है कि निराकार ईश्वर से शब्दमय वेद कैसे उत्पन्न हो सकते हैं। इसका उत्तर यह है कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान् है। उसके विषय में ऐसी शंका निरर्थक है क्योंकि मुख, प्राणादि साधनों के बिना भी परमेश्वर में मुख, प्राणादि के कार्य करने की सामर्थ्य विद्यमान है। यह दोष तो जीव में आ सकता है कि वे मुखादि के बिना कार्य नहीं कर सकते क्योंकि मनुष्य अल्पसामर्थ्य वाला है। साथ ही इस बात को इस तरह भी समझा जा सकता है कि जैसे मन में मुखादि अवयव नहीं हैं तथापि उसमें प्रश्नोत्तर रूप से नाना शब्दों का उच्चारण मानस-व्यापार में होता रहता है वैसे ही परमेश्वर में भी जानना चाहिए। वैसे भी सर्वशक्तिमान् होने से परमात्मा किसी भी कार्य के करने में किसी की सहायता की अपेक्षा नहीं रखता क्योंकि वह अपने सामर्थ्य से ही सब कार्यों को कर सकता है। इतने महान् ब्रह्माण्ड तथा लोकलोकान्तरों को बिना किसी की सहायता के जैसे परमात्मा निर्माण कर सकता है वैसे ही मुखादि अवयव के बिना भी परमेश्वर वेद का ज्ञान दे सकता है। इस पर यह भी शंका हो सकती है कि इतने महान् ब्रह्माण्ड के रचने का सामर्थ्य तो परमेश्वर के बिना अन्य किसी में होना सम्भव नहीं, परन्तु जैसे व्याकरणादि शास्त्र के रचने में मनुष्यों का सामर्थ्य हो सकता है वैसे ही वेदों की रचना भी मनुष्य कर सकता है। इसका उत्तर यह है कि वेदादि को पढ़कर ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद ही ग्रन्थ रचने का सामर्थ्य किसी को हो सकता है। उसके पढ़ने तथा ज्ञान के बिना कोई भी मनुष्य विद्वान् नहीं हो सकता। जैसे इस समय भी किसी शास्त्र को पढ़कर और किसी का उपदेश सुनकर ही तथा मनुष्यों के पारस्परिक व्यवहारों को देखकर ही मनुष्यों को ज्ञान होता है। उदाहरणार्थ किसी मनुष्य के बालक को जन्म से एकान्त में रखके, उसको अन्न तथा फल युक्ति से देवे, परन्तु उस के साथ भाषणादि व्यवहार लेशमात्र भी न करे और मृत्युपर्यन्त उससे किसी भी मनुष्य का सम्बन्ध न होने दे तो वह कभी भी विद्वान् नहीं हो सकता और सभ्यता तथा ज्ञान की साधारण बातों से भी अनभिज्ञ रहेगा। असीरिया के महाराज असुरवाणिपाल तथा मुगलसम्राट् अकबर के परीक्षण इस बात के ज्वलन्त प्रमाण हैं।
वेदों की उत्पत्ति ईश्वर से होने के कारण यह भी निर्विवाद है कि वेद नित्य अर्थात् त्रिकालाबाधित हैं और उनके सिद्धान्त सर्वव्यापक हैं, क्योंकि ईश्वर का सामर्थ्य नित्य है। वेदों का कभी नाश नहीं होता। जिस पत्र पर वेद लिखे गये हैं उनका नाश होने पर भी वेद-ज्ञान का कभी नाश नहीं होता। पठन-पाठन परम्परा का लोप हो जाने पर भी वह ईश्वरीय ज्ञान नष्ट नहीं होता। इसका कारण यह है कि ईश्वर के पास वेदज्ञान सदा विद्यमान रहता है। वह स्वयं वेदरूप अर्थात् ज्ञानरूप है। ईश्वरीय ज्ञान नित्य और अव्यभिचारी है। इसलिये वेदों का शब्दार्थ सम्बन्ध जैसा वर्तमान समय में दीख पड़ता है वैसा ही वह पूर्व कल्पों में था और वैसा ही भविष्य में रहेगा, जैसा कि वेद में कहा है कि-
"सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्"
अर्थात् पूर्वकल्पों में परमेश्वर ने सूर्यचन्द्रादि सारी सृष्टि की जैसी रचना की थी वैसी ही उसने इस सृष्टि की भी की है। ईश्वरीय ज्ञान पूर्ण है अर्थात् न उसका नाश होता है और न उसमें वृद्धि होती है। यद्यपि ईश्वरीय ज्ञान अनन्त है, तथापि वेद द्वारा परमात्मा उतना ही ज्ञान देता है जितना कि मनुष्य के लिए आवश्यक है। जिसके द्वारा मनुष्य अभ्युदय तथा निःश्रेयस की प्राप्ति कर सके। यह बात भली प्रकार समझ लेनी चाहिए कि पुस्तक के नाश से वेद का नाश नहीं हो सकता, क्योंकि वेद तो शब्दार्थ-सम्बन्ध स्वरूप हैं, मसि, कागज, पत्र, पुस्तक और अक्षरों की बनावटरूप नहीं। यह जो लेखनादि सामग्री है यह मनुष्य निर्मित है। इससे यह अनित्य है, परन्तु ईश्वरीय ज्ञान नित्य है। इससे यह पूर्णतया स्पष्ट है कि पुस्तक के अनित्य होने से वेद अनित्य नहीं हो सकते क्योंकि वे बीजाङ्कुरन्याय से ईश्वर के ज्ञान में नित्य वर्तमान रहते हैं। सृष्टि के प्रारम्भ में ईश्वर से वेदों की प्रसिद्धि होती है और प्रलय में जगत् के रहने से उनकी अप्रसिद्धि होती है। इस कारण से वेद नित्यस्वरूप ही बने रहते हैं। जैसे इस कल्प के आरम्भ में शब्दार्थ-सम्बन्ध वेदों में है इसी प्रकार से पूर्वकल्प में भी था और आगे भी होगा। ऋग्वेदादि चारों वेदों की संहिता अब जिस प्रकार की है और इसमें शब्दार्थ-सम्बन्ध तथा क्रम जैसा अब है इसी प्रकार रहेगा, क्योंकि ईश्वरीय ज्ञान के नित्य होने से उस में वृद्धि, क्षय तथा विपरीतता नहीं हो सकती। भारतीय शास्त्रकारों ने शब्दों को भी नित्य माना है। जितने भी अक्षरादि अवयव हैं, वे सब कूटस्थ अर्थात् विनाशरहित हैं। कान से जिनका ग्रहण होता है और वाणी से उच्चारण करने से प्रकाशित होते हैं और जिनका निवास-स्थान आकाश है उनको शब्द कहते हैं। शब्द आकाश की भांति सर्वत्र विद्यमान हैं, परन्तु जब तक उच्चारण क्रिया नहीं होती तब तक वे सुनने में नहीं आते। जब प्राण तथा वाणी की क्रिया से उच्चारण किये जाते हैं तब प्रसिद्ध होते हैं। जैसे 'ग:' इसके उच्चारण में जब तक उच्चारण क्रिया गकार में रहती है तब तक औकार में नहीं, जब औकार में है तब गकार और विसर्जनीय में नहीं रहती। इसी प्रकार वाणी की क्रिया की उत्पत्ति और नाश होता है, शब्दों का नहीं। किन्तु आकाश में शब्द की व्याप्ति होने से शब्द तो अखण्ड एकरस सर्वत्र भर रहे हैं, परन्तु जब तक वायु तथा वाग् इन्द्रिय की क्रिया नहीं होती तब तक शब्दों का उच्चारण तथा श्रवण भी नहीं होता। इससे यह स्पष्ट सिद्ध है कि शब्द आकाश की तरह नित्य हैं। शब्दों के नित्य होने से शब्दों का समुच्चय वेद भी नित्य है।
वेद का लक्षण
विद्याधर स्वामी ने वेदार्थ प्रकाश में वेद का लक्षण इस प्रकार से किया है-
"इष्टप्राप्त्यनिष्टपरिहारयोरलौकिकं उपायं यो ग्रन्थो वेदयति स वेद:"
अर्थात् जो ग्रन्थ इष्ट वस्तु की प्राप्ति और अनिष्ट वस्तु के त्याग करने का अलौकिक उपाय सिखलाता है, उसको वेद कहते हैं। यहां 'अलौकिक' पद से प्रत्यक्ष और अनुमित प्रमाणों की व्यावृत्ति की गई है। जैसे-
प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुध्यते।
एनं विन्दति वेदेन तस्माद्वेदस्य वेदता।।
अर्थात् जो उपाय, प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों से भी मालूम नहीं होता, वह वेदों से जाना जाता है। इसलिये वेदों का वेदत्व सिद्ध होता है।
ऋषि दयानन्द जी वेद का लक्षण इस प्रकार लिखते हैं कि छन्द, मन्त्र, वेद, निगम, मन्त्र तथा श्रुति ये सब नाम पर्यायवाचक हैं। अविद्यादि दुःखों के दूर करने तथा सुख देने से वेद का नाम 'छन्द' है। तथा वेदाध्ययन से सब विद्याओं की प्राप्ति होती है और उससे मनुष्य प्रसन्न होता है इसलिये भी वेद का नाम 'छन्द' है। गुप्त पदार्थों की अभिव्यक्ति का साधन होने से 'मन्त्र' नाम वेद का है तथा सब सत्य पदार्थों का परिज्ञापक होने से भी मन्त्र नाम वेद का है। सब विद्यायें जिससे सुनी या जानी जाती हैं, वह 'श्रुति' भी वेद का ही नाम है। ऋषि दयानन्द के अपने शब्दों में-
(१) अविद्यादिदु:खानां निवारणात् सुखैराच्छादनाच्छन्दो वेद:।
(२) गुप्तानां पदार्थानां भाषणं यस्मिन्वर्त्तते स मन्त्रो वेद:। अथवा मन्यन्ते ज्ञायन्ते सर्वैर्मनुष्यै: सत्या: पदार्था: येन यस्मिन्वा स मन्त्रो वेद:
(३) श्रूयन्ते वा सकला विद्या यया सा श्रुतिर्वेदो मन्त्रश्च श्रुतय:।
(४) तथा निगच्छन्ति नितरां जानन्ति प्राप्नुवन्ति वा सर्वाविद्या यस्मिन् स निगमो वेदो मन्त्रश्चेति।
-साभार 'वैदिक सिद्धान्त'
[स्त्रोत- परोपकारी : महर्षि दयानन्द सरस्वती की उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा का मुख पत्र का अगस्त द्वितीय २०१९ का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
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