ईसाइयत कैसे फैली?
-अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द
[स्वामी श्रद्धानन्द जी ने एक पुस्तक लिखी थी । नाम था – Hindu Sangathan — Saviour of a Dying Race ( हिन्दू संगठन – एक विनाशोन्मुख जाति की रक्षा का उपाय ) । उसी - दुर्लभ पुस्तक के कुछ महत्त्वपूर्ण अंशों को यहां दे रहे हैं।स्वामी जी ने यह पुस्तक इतिहास के अनेकानेक ग्रन्थों का गहरा अध्ययन करने के बाद लिखी थी । पुस्तक पढ़कर उन हथकंडों का सजीव चित्र आंखों के सामने खिंच जाता है, जो ईसाइयों ने अपने मत के प्रसार के लिए अपनाये।स्वामी जी ने अपील की थी कि हिन्दू संगठित हों और अपने बिछड़ भाइयों को पुनः गले लगायें ।]
ईसाइयत द्वारा जबर्दस्ती धर्म-परिवर्तन
भारत में सर्वप्रथम आने वाले ईसाई पादरी, जिन्होंने पूरे जोश से ईसाई बनाना शुरू किया, जेस्युइट लोग थे । यूरोपियनों में पुर्तगाली या ओलन्देज लोग ही सर्वप्रथम थे, जो वास्को-द-गाना के पथ प्रदर्शन में दक्षिणी भारत में उतरे थे और जिन्होंने सारे मलाबार तट पर अधिकार कर लिया था । ईसाइयत को मानने वाले कुछ आदमी उसे मिले, परन्तु इनकी ईसाइयत में इतनी अधिक बुतपरस्ती मिली हुई थी कि उस समय का ईसाई शासक कांप गया और उसने फ्रेन्सिस्कन पादरियों को भेजा, जिससे उसकी मूर्तिपूजक प्रजा में सच्चे धर्म का फैलाव हो सके । भारत में सर्वप्रथम आने वाले ईसाई पादरी जेस्युइट लोग थे । "जेस्युइट्स, एक पूरा इतिहास" शीर्षक के महवत्त्पूर्ण ग्रन्थ में जर्मन राजनीतिक पत्रकार थियोडोर ग्रि सिंगार ने भारत में रोमन कैथोलिक ईसाई पादरियों के सम्बन्ध में एक स्पष्ट वर्णन किया है । इस सहजगम्य ऐतिहासिक ग्रन्थ का जर्मन भाषा से अंग्रेजी में अनुवाद श्री ए. जे. स्मिथ, एम० डी० ने किया है । यह पुस्तक इण्डिया आफिस, लन्दन के प्रकाशक डब्ल्यू० ऐच० ऐलन एण्ड कम्पनी ने सन 1912 में प्रकाशित की है। इसी पुस्तक में से बहुत से उद्धरण दूंगा ।
"इस तरह के काम के लिए फ्रेफ्न्सिस्कस बहुत असफल सिद्ध हुए । मालूम हुआ कि धर्मपरिवर्तन या मूर्तिपूजकों के प्रति कार्य करना उनके बस की बात नहीं, यद्यपि गवर्नर वाइसराय अल्फान्सो अल्बुकर्क ने फोजी ताकत की सारी संगीनें उनकी मर्जी पर छोड़ दी थीं। भारतीय वैसे के वैसे ही रहे और अपने देवताओं की अपने पिताओं तथा पूर्वजों की रीति से पूजा करते रहे। यद्यपि कुछ थोड़े-से फौजी दबाव से पोप के अनुयायी बन गये थे, परन्तु जनता का अधिकतर हिस्सा ब्रह्मा और विष्णु की उपासना में ही लगा रहा । "
यह हालत देर तक नहीं सही जा सकती थी और पुर्तगाल के जान तृतीय, जो 1521 से 1557 तक राज्य करता रहा, इससे बेचैन हो गया और उसने सोचा " उसके नये प्राप्त किये हुए प्रदेशों के निवासी सच्चे पुर्तगाली प्रजाजन नहीं बन सकते, जब तक वे उसी क्रॉस के सम्मुख दण्डवत् न लेटें, जिसके आगे पुर्तगाली घुटने टेकते हैं ।" इस काम के लिये फ्रान्सिस जेवियर सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति था, क्योंकि उसमें धर्मपरिवर्तन का जोश दूसरे सब विचारों को जीत लेता था। वह भारत में आया। उसके साथ पोप की आज्ञायें भी आईं जिनसे उसे सम्पूर्ण भारत में रोम के पोप के प्रतिनिधि की स्थिति मिल गयी तथा एशियाई देशों में पुर्तगाली अफसरों के ऊपर सम्पूर्ण व्यावहारिक प्रभाव डालने का अधिकार मिल गया । अन्त में एक तीसरे फरमान द्वारा बादशाह जान तृतीय ने आशा अन्तरीप से गंगा तक के सब बादशाहों, राजाओं और सरकारों से उसकी विशेष सिफारिश की थी।"
फ्रान्सिस जेवियर 6 मई 1542 को गोआ में उतरा यद्यपि शाही साजो- सामान तथा राजकीय भवन उसकी इच्छा पर शहर के गवर्नर ने छोड़ दिये थे, परन्तु उसका ख्याल सबसे पहले स्वयं अस्पताल पहुंचने का हुआ, जिससे स्वयं बीमारों की देख-रेख कर सके और उसकी अपनी देख-रेख लायक साधन जनता के दान से एकत्र हो सके। "कुछ या बिल्कुल नहीं, जो कुछ भी इस ढंग से किया जाये, वही उसका असली उद्देश्य था और इसलिये जेवियर ने उस स्थान के पादरी की मदद चाही परन्तु एक दूसरी दिक्कत सामने आ बड़ी हुई। जेवियर ने उनसे क्या कहा उसका एक शब्द भी मूर्ख बाशिन्दे समझ न पाये और इस्राईल ने उसे किसी प्रकार की सहायता न पहुंचाई।
इस पर जेवियर ने हिन्दुस्तानी पढ़नी शुरू की । साथ ही साथ होली पाल का कॉलेज स्थापित किया और वाइसराय की फौजी सहायता से उसने गोआ के पास के मूर्तिपूजकों के मन्दिरों को उखड़वा डाला और उनकी बहुत सी सम्पत्ति को नये कालेज के उपयोग और लाभ में लगा दिया।"
"इसके बाद जेवियर सम्पूर्ण मलाबार में प्रचार-यात्रा पर चल दिया । उसने अपने साथ एक घण्टा ले लिया, जिसके साथ सुसज्जित होकर वह दिनदहाड़े उसे बजाता हुआ गलियों में भागता था। जब तक उत्सुकता से प्रेरित होकर बच्चों तथा दूसरों की टोली ठट्ठा तथा हंसी करती हुई उसके पीछे तक लग जाती थी। जब उसे इस प्रकार काफी गिनती में श्रोता मिल जाते थे, तब वह एक बड़े पत्थर पर खड़ा होकर लेटिन, स्पेनिश, इटालियन और फ्रेंच भाषाओं के टुकड़ों से मिली हुई देश की भाषा में दोनों हाथों तथा पैरों को विचित्र ढंग से हिलाता हुआ उपदेश देता था। आखिर में वह एक बड़ा क्रास निकालता था, जिसे वह बड़ी भक्ति से चूमता था और भीड़ से यही करने की प्ररेणा करता था । जो कोई यह कर लेता था उसे वह एक सुन्दर गुलाब का फूल भेंट में देता था। वह हजारों गुलाब के फूल पुर्तगाल से लाया था । यह उसके तरीके का पूर्वार्ध ही था। उत्तरार्ध अधिक प्रभावशाली था। वह सरकार से मांगी हुई पुर्तगाली फौज की मदद से देशी लोगों के मन्दिरों को तुड़वा डालता था और उनके स्थान पर सूली पर चढ़े ईसा मसीह की मूर्ति के साथ ईसाई गिरजे बनवा देता था और उनके पड़ौस में बांसों की एक सुन्दर इमारत बच्चों की शिक्षा के लिये बनवा देता था और उन्हें ईसाइयत के सिद्धान्तों से परिचित कराने के स्थान पर वह उन्हें प्रभु की प्रार्थना मन्तव्य के साथ पढ़ाता था और उन्हें समझाने की कोशिश करता था । अन्त में विनयपूर्वक उनकी बांहों से क्रास छुआता था ।"
इन्हें बप्तिस्मा लिये मान लिया गया, परन्तु यह सिलसिला बहुत धीमे चला । जेवियर ने अपने गुरु ( जेस्युइटवाद के संस्थापक) इगनातिन लियोला से और अधिक सहायक मंगाये । 20 से अधिक सहायक भेजे गये और अब जेवियर के लिये इकट्ठे ईसाई बनाने का काम सरल हो गया।
अगले छः सालों में जिन-जिन स्थानों में पुर्तगाली झण्डे की हकूमत थी, वहां छोटा या बड़ा स्कूल कायम हो गया। धर्म-परिवर्तन का मुख्य अखाड़ा गोआ का कालेज रहा, जहां यूरोप से सहायकों के आने पर जेवियर ने फौजी ताकत से हिन्दू सभ्य समाज के 120 लड़के इकट्ठे कर लिये, जिससे वे भविष्य में अपने देशवासियों को ईसाई बना सकें । पुर्तगाली संगीनों ने तथा उनसे भी अधिक इनके भय ने इस दिशा में बहुत परिणाम दिखलाये ।
इस तरीके से जो ईसाई बनते थे " वे मन्तव्य को दोहरा सकते थे। मामले के सम्बन्ध में कुछ जानकारी सीख सकते थे, जिससे वे जलूसों में भाग लेते थे और दूसरे बाहरी समारोहों में हिस्सा ले सकते थे । परन्तु जब ईसाई पादरी उस जगह से विदा हो जाते थे ,तो ब्राह्मणों को उन आदमियों को पुराने धर्म में जिस में वे पाले और पोसे गये थे, लेने में कोई दिक्कत नहीं होती थी। यह वास्तव में उनको बेचैन करने योग्य उन्माद रोग था। जेवियर का एक साथी औटोन क्रिमिनल, जिसने कन्या कुमारी में ईसाई बनाये थे, इस पर ब्राह्मणों के विरुद्ध बहुत कुद्ध हो उठा कि उसने उन पर बहुत ही पाशविक अत्याचार किये । इस पर हताश होकर इन अपराधी और गोआ के गवर्नर से प्राप्त कुछ सिपाहियों के विरुद्ध उन्होंने मदद की पुकार मचायी। ये जनता के उस श्रेणी के आदमी थे, जो अल्पमत वाले पुर्तगालियों की अधीनता में नहीं आये थे। परिणामतः एक लड़ाई हुई जिसमें अपराधी सब पुर्तगालियों के साथ मार डाले गये । इसी समय लंका में काण्डी के राजा को अपनी बांहों में क्रॉस लेकर जेवियर की आज्ञा से जबर्दस्ती हथियारों के दबाव से ईसाई होने के लिये बप्तिस्मा लेना पड़ा । उसके सरदारों और सूबेदारों को आदेश दिया गया था कि यदि वे बप्तिस्मे की कार्रवाई में अड़चन डालेंगे, तो उनकी सम्पत्ति जब्त कर ली जायेगी। ईसाइयत में हजारों को इस तरीके से प्रतिदिन लेना बड़ा आसान था।"
" इसके बाद कुछ समय तक कोई पादरी अपनी कारिस्तानी दिखाने नहीं आया । ब्राह्मणों ने कड़े मुकाबले से अपनी स्थिति मजबूत नहीं की अपितु बहुत बुरा असर हुआ, क्योंकि फ्रान्सिस जेवियर ने मौके का लाभ उठा कर स्पेनिश इन्क्विजिशन (पोप के विरोधियों का विचार करने का विचारालय) के ढंग पर एक धार्मिक न्यायालय कायम कर दिया। इस पर बिना किसी विरोध के इसी का प्रभुत्व था। पुर्तगाली हथियारों की मदद से ईसाइयत के प्रचार में किसी तरह की बाधा पैदा करने वाले या बप्तिस्मा लेने वाले देसी लोगों को दुबारा उनके पुराने मूर्ति पूजक धर्म में लेने वालों के विरोध में अत्यन्त भयंकर अत्याचार करने लगा। इस तरह से असंख्य ब्राह्मण और खास तौर से उनमें धनी व्यक्तियों ने जल्लादों के हाथों अपनी जानें गंवा दीं या समाज के लाभ के लिये सम्पत्ति के छीने जाने के डर से वे राज्य से निकाल दिये गये। वास्तव में स्त्री स्वभाव के हिन्दुओं पर दबाव डाला गया कि वे इन्क्विजिशन की कैद से परिचय प्राप्त करने के स्थान पर बप्तिस्मा ले लें अथवा धीमी आंच पर जिन्दे भूने जाने का खतरा उठायें ।
"परिणामस्वरूप सभी उपयुक्त स्थानों पर जेस्युइट कालेज खड़े हो गये जिन्हें कत्ल किये गये या नष्ट किये गये नास्तिकों की सम्पत्ति से मजबूत बनाया गया । और भी अधिक गिनती में गिरजाघर बनाये गये और क्योंकि अब सैक्सन्स के विरुद्ध चार्ल्स महान के क्रूर व्यवहार को उदाहरणस्वरूप रख कर मानो जेस्युइट्स ने मूर्तिपूजकों के मन्दिरों को आग और तलवार की मदद से नष्ट करने में झिझक छोड़ दी हो।"
ईसाइयत की क्रूरताओं के दृष्टान्त अधिक देना व्यर्थ है। ईसाइयत का सम्पूर्ण इतिहास शान्ति के देवदूत के अनुयायियों द्वारा इन्क्विजिशन तथा गिलोटीन ( फांसी का यूरोपियन संस्करण) के माध्यम से मानवता पर की गयी तबाही के खेल से भरा पड़ा है ।
ताकत के अतिरक्त अन्य साधनों से ईसाइयत का प्रचार
ताकत द्वारा ईसाइयत के खून जमाने वाले विवरण में पहले ही दे चुका । मुझे विश्वास है कि वे आसानी से खिलजी, औरंगजेब और टीपू सुल्तान के अत्यधिक धर्मान्ध कारनामों की तुलना भी आसानी से कर सकते हैं। अब मैं विश्वस्त अधिकारी व्यक्तियों के प्रमाणों से सिद्ध करूंगा कि मुसलमान साथियों की तुलना में जेस्युइट धर्मप्रचारक कपट के क्षेत्र में भी बाजी मार गये हैं । अपने विचार को सिद्ध करने के लिये मैं थियोडर ग्रिसिंग के कुछ उद्धरण दूंगा-
"पूर्वी भारत में पुर्तगालियों के अधीन जो कोई भी महत्त्वपूर्ण स्थान हुआ, वहीं जैवियर ने ईसाई धर्म प्रचारकों का रास्ता साफ कर दिया । कालेज, निवास स्थानों और प्रचार केन्द्रों आदि के नाम पर जेस्युइट बस्तियों की स्थापना की गयी । ये लगातार बढ़ती गयीं । लोयाला के लड़के के लिये इस काम में सफलता पाना बड़ा आसान था, क्योंकि राजा के आदेश से पुर्तगाली गवर्नर इन धर्मप्रचारकों के हाथों में खेलते थे और दूसरे किसी विरोध को वे स्पेनिश धार्मिक न्यायालयों की स्वयं स्थापना कर आसानी से दबा सकते थे । प्रत्येक जगह प्रचार केन्द्रों की संख्या बढ़ाना भी मुश्किल काम न था । जहां कहीं भी पुर्तगाली या दूसरे यूरोपियन लुटेरे गये वहां जेस्युइट धर्म प्रचारक भी बढ़ते चले गये और बहुत सरल तरीकों से ईसाइयत की जातियों को बनाने के लिये अपने पैर मजबूती से जमा लिये। तो ये सरल तरीके क्या थे? इसके सिवाय दूसरा तरीका नहीं था कि ये धर्मप्रचारक भारतीय पुजारियों या ब्राह्मणों के भेस में जाते थे जिससे कि वे देसी लोगों के समान गुजर सकें।
उनमें से एक का नाम पीटर कांस्टेंटिनो बेसची था, जिसने हिन्दुओं की भाषा और संस्कृत का सावधानतापूर्वक अध्ययन किया था। यह हिन्दुओं के रीतिरिवाजों और तरीकों तथा ब्राह्मणों के जीवन क्रम को इतने ठीक रूप से नकल करता था कि दक्षिण के लोग, जिनमें वह अधिक समय से रहता था, वास्तव में ही उसे एक संत के समान पूजने लगे। इस काफिरों के स्वर्ग में वह देसी भाषा में लोकप्रिय कवितायें भी करता था, जिनसे वह सब मुल्कों में पूजा जाने लगा।
दक्षिण के शासक ने इस भरोसे से कि वह सच्चा ब्राह्मण है, उसे दरबार का मुख्य दरबारी अफसर, (मंत्री) बना दिया और कान्स्टेंटिनो बेसची ने गलती को बचाने की तकलीफ बिल्कुल नहीं उठायी। इसके विपरीत इस मान्य पीटर ने इस समय से सम्पूर्ण यूरोपियन रीति-रिवाजों और परम्पराओं को त्याग कर सुन्दर पूर्वी पोशाक पहननी शुरू कर दी, कीमती साज वाले घोड़े पर सवार हो वह सार्वजनिक रूप से निकलने या गुलामों से उठायी जाने वाली पालकी में बैठने लगा । इसके साथ सदा कुछ घुड़सवार साथी होते थे जो कि इस बड़े आदमी का रास्ता साफ करते जाते थे । साथ ही उसके आने तथा जाने का तुरही मे ढिंढोरा पीटते थे। किसी को यह ख्याल न था कि वह असल में एक यूरोपियन है अथवा बप्तिस्मा लिया हुआ कोई ईसाई है । वह अपने अन्तिम दिनों तक जेस्युइट ही बना रहा और उसके संघ के साथी भी उस पर कम नाज न करते थे । सुयोग्य पीटर बरथेलिमी डकोस्टा का दूसरा उदाहरण मैं यहां उपस्थित करना चाहता हूं। यह बिल्कुल विभिन्न चरित्र का व्यक्ति था। वह देश व समाज के उच्च श्रेणी के व्यक्तियों के पास बहुत कम जाता था, परन्तु वह जनता की सबसे निचली तलछट में घुले रहना अधिक पसन्द करता था । सम्भवतः प्रधान मंत्री और वजीरे आजम कांस्टेंटिनो बेसची की न्याई निस्सन्देह उसका भी वही उद्देश्य और आशय था । वह समाज की बदनाम वेश्याओं और नर्तकियों के कोठों पर गया और वह बयोदेरों की झोंपड़ियों में गया । उसे अच्छी तरह पता था कि वे हर समय हर दिन प्रेम के देवता को रिझाने में लगे रहने से पुरुष जाति को प्रभावित कर सकते हैं, इसलिये असने उनके साथ बहुत अच्छे सम्बन्ध बना लिये । वह उनके साथ जाकर खेलता नाचता था और शराब पीता था। इन सब तरीकों से वह उनका सब से प्रिय मित्र और विश्वासपात्र बन गया । वे दीन प्राणी उससे खूब खुश थे। उन्होंने उसके हाथों ही स्वर्ग के रास्ते पर चलना निश्चय किया, जिसने कि सारा मामला बहुत आसान कर दिया था। ईसाइयत का मजहब स्वीकार करने में उन्हें एक ही बाधा दिखाई देती थी । पादरी उस व्यवसाय को पापमय जुर्म कहते थे जिस पर वे जिन्दगी बिताते थे । परिणामस्वरूप उनके बप्तिस्मे के धर्मानुष्ठान को करने का समय तो क्षण प्रतिक्षण टलता ही जाता था । इस पर उस योग्य धर्मपिता ने क्या किया ?
उसने उन्हें शिक्षा दी कि वे किसी प्रकार का पाप किये बिना हो ईसाई चर्च को सौंप दें तथा सब अवसरों पर जो उनकी मोहिनी शक्ति से उनके बस में है, उन्हें ईसाई बनाने की कोशिश करें। इन तथा इसी तरह की दूसरी रीतियों से जेस्युइट लांग सम्पूर्ण भारत में धीमे-धीमे घुस गये और जब तक पुर्तगाली हकूमत बची रही, वे देश के असली शासक बने रहे अथवा यह कहना ठीक होगा कि उन्होंने इस अनन्त प्रदेश को स्वेच्छापूर्वक लूटने में खुली छूट पायी। वे ईसाई बनाते थे, कालेज और छात्रावासों की स्थापना करते थे, क्योंकि उन्हें पुर्तगाल के राजा बहुत ही अधिक प्यार करते थे।"
1886 ई० के जुलाई मास के थियोसोफिस्ट में भारत में जेस्युइट लोगों के कारनामों और ईसाई बनाने के उत्साह का वर्णन कर एक लेखक उनके कार्यों के परिणाम का सारांश इस तरह रखता है-
"1558 में जेवियर की मृत्यु के समय भारत के दोनों किनारों पर विभिन्न प्रचार केन्द्रों में 200 जेस्युइट कार्य कर रहे थे। कुछ ही सालों में हिन्दू मन्दिरों के ध्वंसावशेषों पर उन्होंने शाही गिरजाघर खड़े कर दिये थे । इसके अतिरिक्त उन्होंने नये ईसाइयों के लिये धार्मिक स्कूलों की स्थापना की । परन्तु वे इंजील के बुरे शिक्षक थे । डाक्टर टामस मैकरी कहते हैं कि पवित्र ईसा का नाम बहुत बुरे कार्यों में आया जब वह उस समाज पर थोपा गया जो 'विनीत और निम्न' था। यह ईसा की वास्तविक भावना और चरित्र के विरुद्ध था । जेस्युइट लोगों ने अपने फायदे के लिये एक बिल्कुल नया आचार-शास्त्र गढ़ लिया था । दैवी कानून के स्थान पर उन्हें अपने चरित्र का अनुकरण करना, अपने बड़ों का आंख मूँद कर आज्ञापालन, जिसे वे परमात्मा के स्थान पर स्वीकार करने को बाध्य हैं और उनकी आज्ञाओं का पालन करते हुए अपनी इच्छाओं को मृत लाश या बूढ़े आदमी की टेक समान छोड़ देना होगा। नवयुवकों के शिक्षक के नाते वे सावधानी बरतते थे कि मानव ज्ञान का क्षेत्र कम से कम विस्तृत किया जाये, क्योंकि वह उनके धर्मप्रचार के प्रभुत्व के लिये खतरनाक सिद्ध हो सकता था । इसलिए उन्होंने अपने शिष्यों को साहित्यिक अध्ययन तक ही सीमित रखा, जो अन्धकार युग के पक्षपात को कम किये बिना उन्हें प्रसन्न रख सकता था । धर्मप्रचारकों के नाते वे सब देशों को बप्तिस्मा देने की मेहनत में अधिक परिश्रमी रहे - बनिस्बत इसके कि वे इंजील की शिक्षा देते । हिन्दुओं और मुसलमानों को ईसाइयत में बहका लाने के लिये उन्होंने सब उपायों का आसरा लिया और तमिल तथा दूसरी भाषाओं में पर्चे व पुस्तकें प्रकाशित कीं। यह उस समय की हालत थी जब बादशाह अकबर ईसाइयत के बारे में अपनी जिज्ञासा पूरी कर रहा था और उसने 1582 में अपने दरबार में जेस्युइट लोगों को बुलाकर उनसे ईसा की जीवनी के बारे में पूछा था । कपटी पादरियों ने यह सोच कर कि उसकी पूर्वी कल्पना को लुभाने के लिए सरल जीवन आकर्षक न होगा, उन्होंने बादशाह को हिन्दुओं के पुराणों के समान दन्तकथाओं से भरी ईसा की झूठी जीवनी सुनाई। पर यह चालाकी मात दे गयी। अकबर ने कपट को पकड़ लिया और उन्हें दरबार से विदा कर दिया । इस तरह से वे देशी लोगों से इंजील की विशेषताओं को छिपा कर रखते थे । वे जनता के भद्दे सिद्धान्तों से मेल करने का प्रयत्न करते थे । यही काफी न था। वे रोम से कल्पित सन्तों के सिर और कपाल लेते थे। साथ ही चालाकी से वे इन मारक चिह्नों के करतबों तथा कारनामों को सर्वत्र फैला देते थे । इन्हें स्वर्ग से आश्चर्यजनक रूप से हिलाया जा रहा है । कोरोमंडल किनारे पर मलियापुर में एक कब्र को फलपूर्वक सेन्ट टामस की समाधि बताया जाने लगा । साथ ही हवाला दिया जाने लगा कि ईश्वर दूत सिन्धु को पार कर कर्णाटक तक दक्षिण में पहुंच गया था और वहां शुभ समाचार सुना कर शहीद हो गया था । इस तरह के सन्तों की हड्डियों से वे शैतानी से हास्यजनक लड़ाइयां लड़ते थे और अशिक्षित जनता की आंखों में धूल झोंकते थे । भारत की जनता को ठगने के लिए इन चतुर पादरियों ने कितने अनगिन चालबाजियों कीं, इनकी गणना के लिये एक बड़े ग्रन्थ की जरूरत होगी ।
No comments:
Post a Comment