बंदा वैरागी की जीवन मीमांसा
वैद्यश्री गुरुदत्त राष्ट्रीय इतिहासविद्
सन् 1924-25 की बात है । पंजाब के एक नेता डाक्टर सत्यपाल बन्दा वैरागी को हिन्दू धर्म के विपरीत आचरण करने वाला कहते थे। डाक्टर साहब 'रौलेट एक्ट' आन्दोलन में विख्यात हुए थे और फिर पंजाब में लाला लाजपत राय के बराबर के नेता समझे जाते थे। भाई परमानन्द जी ने 'बन्दा वैरागी' के नाम से एक पुस्तक लिखी थी। उस पुस्तक में उन्होंने बन्दा वैरागी को हिन्दू धर्म के रक्षक की उपाधि से विभूषित किया। उसी पुस्तक पर विचार करते हुए डाक्टर साहब ने यह कहा था कि बन्दा वैरागी धर्म का शत्रु था ।
यह विचार डाक्टर साहब के ही नहीं थे, वरंच देश में अन्य कोटि-कोटि हिन्दू, मुसलमानों और सिक्खों के भी थे। यह इसलिए कि बन्दा वैरागी ने मुसलमानों को अति निर्दयता से मरवाया था, ऐसा कहा जाता है ।
बन्दा का कार्य और उसका मूल्यांकन
बन्दा ने क्या किया था ? इसका मूल्यांकन करने के लिए उस काल की देश की अवस्था का अनुमान लगाना पड़ेगा । हिन्दुस्तान में मुगलों का राज्य स्थापित हुए पौने दो सौ वर्ष हो चुके थे और इस काल में कुछ ही वर्षों के काल को छोड़कर हिन्दुओं के साथ मुगलों का व्यवहार ऐसा रहा था मानो वे उनके क्रीत दास थे ।
स्वार्थी हिन्दुओं का ही यह चमत्कार था कि कोटि-कोटि हिन्दू एक आध लाख मुसलमानों से ऐसे शासन किए जाते थे, जैसे ये हिन्दू गाय, भैंसों के झुण्ड हों और मुगल सैनिक लाठी लिए ग्वाले उनको हांकते हुए ले जाते हों । इस पौने दो सौ वर्ष के मुगल राज्य में जब जब मुगल राज्य दृढ़ता से स्थापित हुआ, तब तब
मुगलों का हिन्दुओं पर अत्याचार भी बढ़ा । जहांगीर और शाहजहां के राज्य मुगलों के भली भांति स्थापित राज्य माने जाते हैं और इन दिनों में ही पंजाब, महाराष्ट्र और राजस्थान में मुल्ला-मौलानाओं के अत्याचार बढ़ रहे थे।
अकबर राज्य के प्रारम्भिक काल में जब अकबर अपने राज्य को विस्तार दे रहा था, तब तो हिन्दुओं से कुछ सीमा तक सहयोग चलता था । उसी काल में हिन्दुओं से जजिया उठा लिया गया था तीर्थ-यात्रा का कर हटा लिया गया था और कहा जाता है कि अकबर नगरकोट के देवी के मन्दिर में सोने का छत्र चढ़ा आया था । परन्तु ज्यों-ज्यों राज्य सुदृढ़ होता गया और यह दूर दूर तक विस्तार पाता गया, हिन्दुओं का दास की भांति उत्पीड़न प्रारम्भ हो गया था ।
जहांगीर का राज्य गुरु अर्जुन देव के बलिदान से प्रारम्भ हुआ। फिर गुरु हर गोविन्द को बन्दी बना कर रखा गया । शाहजहां के काल में यह जोर-जुल्म जारी रहा। शाहजहां के विषय में स्कूलों में पढ़ाने वाले इतिहास में भी यह लिखा मिलता है । शाहजहां पक्का सुन्नी मुसलमान था । वह धार्मिक पक्षपात करता था और कभी कभी हिन्दुओं के साथ कठोर व्यवहार करता था । कहीं-कहीं औदार्य भी दिखाता था । यूरोपीय यात्री डैलावैली लिखता है कि खम्भात के हिन्दुओं से रुपया पाने पर उसने वहां गो-हत्या बन्द कर दी ।
रुपया लेकर राजा की ओर से गौ-हत्या बन्द करने को उसकी उदारता बताई है। इससे अनुमान लगाया जाता है कि जब और जहां वह उदार नहीं होता था, वहां क्या करता होगा ?
शाहजहां की बीवी मुमताज़ महल के विषय में कहा जाता है कि वह अति क्रूर थी और विधर्मियों की निर्मम हत्या कराती थी। यहां तक कि शाहजहां की हिन्दुओं और ईसाइयों से निर्दयता में कारण वह ही कही जाती है।
शाहजहां के उपरान्त तो औरंगजेब का राज्य आया । इस राज्य काल में क्या हुआ ? उसके विषय में डा० आशीर्वादी लाल जी श्रीवास्तव अपनी पुस्तक The Mughul Empire के पृष्ट 339 पर लिखते हैं । पुस्तक अंग्रेजी में है और उसका अनुवाद इस प्रकार है ।
औरंगज़ेब राज्य के सम्बन्ध में इस्लामी सिद्धांत पर विश्वास रखता था । वह ऐसे शासन में विश्वास रखता था, जिसमें शासक कुरान का कानून शासन में चलाए और वह देश को दारा-उल-हरब से दारा-उल-इस्लाम बना सके । वह इस्लाम को राज्य धर्म बनाना चाहता था और राज्य की पूर्ण शक्ति को अपने मजहब के प्रचार के लिए लगाता था ।
उसने पुराने मन्दिरों की मरम्मत करने से मना कर दिया था । इसके कुछ ही काल उपरान्त सब प्रान्तों के हाकिमों को आज्ञा दी थी कि काफिरों के सब विद्यालय और मन्दिर गिरा दिए जाएं और दृढ़ता से उनकी शिक्षा और पूजा-पाठ बन्द कराई जाए। 'मुहतासिव' घूमते रहते थे और वे हिन्दू मन्दिर और मूर्तियां विनष्ट करते रहते थे। सरकारी मन्दिर गिराने वालों की संख्या इतनी अधिक थी कि उन पर एक दरोगा नियुक्त होता था और उनके कार्यों को दिशा देता था । यहां तक कि बनारस का विश्वनाथ का मन्दिर, मथुरा का केशव देव का मन्दिर और पाटन का सोमनाथ का मन्दिर गिराकर भूमि में मिला दिए गए थे । मित्र हिन्दू राजाओं के राज्यों में भी, जैसे कि जयपुर में भी मन्दिर छोड़े नहीं गए । मन्दिर और मूर्तियों का तोड़ना प्रायः चलता था और उसके साथ उनको भ्रष्ट और अपमानित किया जाता था । प्रायः वहां गौ हत्या की जाती और मूर्तियों को सड़कों पर दमूसों से कूट दिया जाता था ।
सन् 1678 में पुन: हिन्दुओं पर जजिया लगा दिया गया, जिससे इस्लाम फैले और काफिरों को पराजित किया जाए...... | हिन्दुओं ने चीख पुकार की, परन्तु सुना नहीं गया । उसने तीर्थ-यात्रा कर भी कर लगा दिया । तीर्थ स्नान करने पर छ: रुपये चार आने कर देना पड़ता था । वस्तुओं पर कर मुस्लमानों से नहीं लिया जाता था और हिन्दुओं से पांच प्रतिशत वसूल किया जाता था ।
औरंगज़ेब ने मृत्युकाल (1707) तक और उसके पीछे बहादुरशाह और फरुखसीयर के राज्य में हिन्दुओं को किसी प्रकार की राहत नहीं दी गई ।
इस काल में बन्दा वैरागी पंजाब में आया । उसके आने से पूर्व गुरु तेग बहादुर और गुरु गोविन्द सिंह के अल्पवयस्क बच्चों का बलिदान हो चुका था । पंजाब में औरंगज़ेब की धांधली मची हुई थी । तब बन्दा वैरागी ने क्या किया, यह विचारणीय रह ही नहीं जाता ।
विचारणीय यह रह जाता है कि इस मूर्खों के देश में बन्दा वैरागी का कैसे पंत हुआ ? इसमें दो मुख्य कारण बताए जाते हैं । प्रथम कारण यह था कि पंजाब में हिन्दुनों के वे तत्व, जिनका संगठन हुआ था, सिक्ख थे । आदि गुरु नानक से लेकर दशम गुरु गोविंद सिंह तक को वे अपना पथ-प्रदर्शक मानते थे । उन दिनों हिन्दुस्तान में गुरु की बहुत महिमा थी और जो एक बार किसी समुदाय का गुरु बन गया वह उस समुदाय में परमात्मा का रूप ही बन जाना था ।
ऐसी स्थिति में यदि गुरु गोविन्द सिंह यह न कह जाते कि उनके पीछे कोई नया गुरु नहीं होगा तो बन्दा गुरु पद पर सुशोभित माना जाता । गुरु गोविंद सिंह बन्दे को अपना आशीर्वाद और तलवार दे गए थे । तब बन्दा वैरागी गुरु- पद पर होता हुआ सिक्खों को अपने व्यवहार के अनुकूल बना लेता ।
हुआ यह कि युद्ध की स्थिति में और राज्य स्थापित होने के काल में वह त्याग और तपस्या रह नहीं सकती थी जो गुरुओं में केवल धर्म प्रचार के समय थी । अतः सिक्खों की दृष्टि में बन्दा की वह मान-प्रतिष्ठा नहीं रही थी जो गुरुओं की थी। यदि वह गुरु गद्दी पर आसीन होता तो नई व्यवस्था देकर अपने साथियों में वह श्रद्धा, भक्ति उत्पन्न कर सकता, जो गुरुओं के लिए थी ।
बन्दा ने सिक्खों के अतिरिक्त भी हिन्दुनों की सेना बनाने का यत्न किया था, परन्तु उसमें वह सफल नहीं हो सका था ।
दूसरा कारण था हिन्दुओं और सिक्खों का राजनीति से सर्वथा अनभिज्ञ होना । फरुखसीयर इसमें सिक्खों को चकमा दे गया । फरुखसीयर के गुप्तचरों ने सिक्खों में बन्दा के प्रति श्रद्धा देख सिक्खों को बन्दा के विरुद्ध करने का यत्न किया । गुरु गोविंद सिंह की पत्नियों को समझाया गया, भड़काया गया और सिक्खों के उस तत्व को, जो बन्दा के लिए अश्रद्धा रखते थे, एक पत्र लिखवा कर बन्दा और सिक्खों में फूट डलवा दी गई । वे सिक्ख तत्व खालसे कहलाते थे ।
दिल्ली के शहनशाह ने उन सिक्खों को, जो बन्दा की सेना छोड़कर शाही सेना में आए, एक रुपया प्रति दिन के वेतन पर नौकर रख लिया । बहुत से सिक्ख शाही सेना में भरती हो गए ।
दिल्ली के शहनशाह ने पांच हज़ार रुपये अमृतसर दरबार साहब को दिया और सिक्खों ने निम्न शर्तों पर सन्धि कर ली ।
1.) खालसा देश में लूट-मार नहीं करेंगे ।
2.) खालसा बन्दा की सहायता नहीं करेंगे ।
3.) विदेशी आक्रमण के समय खालसा शहनशाह दिल्ली के लिए लड़ेंगे |
4.) खालसानों की जागीरें छीनी नहीं जाएंगी ।
5.) हिन्दुओं को विवश कर इस्लाम स्वीकार नहीं कराया जाएगा ।
6.) हिन्दुओं के साथ दुर्व्यवहार नहीं किया जाएगा और उनकी मजहबी बातों में दखल नहीं दिया जाएगा ।
यह सन्धि दरबार साहब के अधिकारियों, तत्व खालसा, के साथ हुई और वे बन्दा के विरुद्ध प्रचार करने लगे ।
बन्दा पकड़ा गया और अपने सात सौ साथियों के साथ चांदनी चौक दिल्ली में अनेक प्रकार के कष्ट देकर मार डाला गया ।
इसके कुछ ही पीछे सिक्खों के साथ हुई सन्धि भंग हो गई और दो-दो रुपये पर सिक्खों के सिर बिकने लगे ।
अतः बात ठीक ही है 'हम हैं मूर्खों के देश' में।
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