Sunday, October 6, 2024

बाइबिल की शव परीक्षा

 



बाइबिल की शव परीक्षा 


-रामशरण वर्मा 


 श्री यीशु कौन थे ?


प्रिय बन्धुओ !


ईसाई मत की आधार शिला यीशु हैं। यह यीशु कौन थे ? इनके माता पिता का क्या नाम था और इनकी शिक्षा क्या थी ? आदि प्रश्नों का उत्तर अब आप को मिलेगा ।


ईसाई लोग कहते हैं कि यीशु मसीह ईश्वर के पुत्र थे, जो कुआँरी मरयम के पेट से उत्पन्न हुये थे । यह ईसाइयों का मौलिक सिद्धान्त है । जो पुरुष यीशु को अच्छा पुरुष तो मानते हैं पर ईश्वर पुत्र नहीं मानते वह ईसाई नहीं हैं और न वह ईसाई हैं जो यह नहीं मानते कि यीशु कुमारी मरयम के पेट से उत्पन्न हुये थे। कहने का तात्पर्य यह है कि यीशु मसीह का कुआँरी मरयम के पेट से बिना किसी पुरुष के संयोग के पैदा होना और उनको ईश्वर के पुत्र होना यह दोनों बातें ईसाई धर्म की जड़ हैं । जिन पर ईसाइयत का विशाल प्रासाद खड़ा किया जा रहा है। यदि कोई व्यकि उस नींव के पत्थर को ही स्वीकार न करे जो उस भव्य प्रासाद की नींव में लगा हुआ है और जिसको ईसाई लोग बड़ा शुद्ध और स्वच्छ बताते हैं, तो ईसाई नहीं बन सकता । अब देखिये और विचार कीजिये कि क्या बिना सम्भोग के कोई स्त्री गर्भवती हो सकती है ? अथवा ईश्वर पुत्र होने का क्या तात्पर्य है ?


सृष्टि नियम के विपरीत कोई कार्य कभी नहीं होता देखा गया और न कोई बुद्धिजन ऐसी थोथी बातों को स्वीकार ही कर सकते हैं । खेद के साथ लिखना पड़ता है कि योरुपी अन्य जातियाँ और स्वयं अंग्रेज जाति भी किसी वस्तु को तब तक  स्वीकार नहीं करती, जब तक उसका कोई वैज्ञानिक आधार न हो। परन्तु ईसाई लोग वैज्ञानिक आधार तो रहा दूर, बिना किसी ऐतिहासिक आधार के यह स्वीकार किये बैठे हैं कि हज़रत यीशु ईश्वर पुत्र और कुत्रांरी मरयम से उत्पन्न हुये थे ।


श्री यीशु मसीह की उत्पत्ति के बारे में देखिये जो बाइबिल में लिखा है । वहाँ केवल उनकी उत्पत्ति ही नहीं दी गई अपितु उनके बयालिस पीढ़ियों के नाम दिये गये हैं । हम केवल उसके सात नाम यहाँ देते हैं । देखिये :


अखीम से इलीहूद उत्पन्न हुआ। और इलीहूद से इलियाजार उत्पन्न हुआ; और इलियाजर से मत्तान उत्पन्न हुआ; और मत्तान से याकूब उत्पन्न हुआ। और याकूब से यूसुफ उत्पन्न हुआ; जो मरियम का पति था जिस से यीशु जो मसीह कहलाता है उत्पन्न हु।- नया नियम, मति 1 /2-16 


 यह तो हुये श्री यीशु के पिता, दादा और परदादा आदि के नाम, अब उनकी उत्पत्ति देखिये। 

अब यीशु मसीह का जन्म इस प्रकार से हुआ, कि जब उस की माता मरियम की मंगनी यूसुफ के साथ हो गई, तो उन के इकट्ठे होने के पहिले से वह पवित्र आत्मा की ओर से गर्भवती पाई गई।-मति 1/18 


सो उसके पति यूसुफ ने जो धर्मी था और उसे बदनाम करना नहीं चाहता था, उसे चुपके से त्याग देने की मनसा की। -मति 1/19


 जब वह इन बातों के सोच ही में था तो प्रभु का स्वर्गदूत उसे स्वप्न में दिखाई देकर कहने लगा; हे यूसुफ दाऊद की सन्तान, तू अपनी पत्नी मरियम को अपने यहां ले आने से मत डर; क्योंकि जो उसके गर्भ में है, वह पवित्र आत्मा की ओर से है।-मति 1/20


वह पुत्र जनेगी और तू उसका नाम यीशु रखना; क्योंकि वह अपने लोगों का उन के पापों से उद्धार करेगा।-मति 1/21


विचारिये कि इन आयतों में कौन सी ऐसे बात है जिन पर कोई भी बुद्धि जन विश्वास कर सकें ! क्या हम यूसुफ के स्वप्न को ऐतिहासिक सत्य मान लें ? इस प्रकार के स्वप्नों को यदि सत्य स्वीकार कर लिया जाय फिर तो ईसाइयों को श्री ईसा के मानने की आवश्यकता ही क्या है, कोई भी अपने लड़के के विषय में अपने स्वप्न का प्रमाण दे सकता है कि यह ईश्वर की ओर से उत्पन्न हुआ है । क्योंकि मैंने स्वप्न में स्वर्ग के दूत को यह कहते सुना था ।


मरकुस की इंजील में लिखा है:


और यह आकाशवाणी हई, कि तू मेरा प्रिय पुत्र है, तुझ से मैं प्रसन्न हूँ । - मरकुस  1/11


इसके बाद भी श्री यीशु ईश्वर पुत्र सिद्ध नहीं होते क्योंकि आकाश से आवाज़ आना कोई महत्त्व नहीं रखता और न इसका कोई प्रमाण ही ईसाई लोग दे सकते हैं। आवाज आई ? कब आई ? और किसने सुनी ? इस विषय में बाइबिल और ईसाई दोनों मौन हैं ?


लूका की इंजील में लिखा है : 


छठवें महीने में परमेश्वर की ओर से जिब्राईल स्वर्गदूत गलील के नासरत नगर में एक कुंवारी के पास भेजा गया।- लूका 1/26 

जिस की मंगनी यूसुफ नाम दाऊद के घराने के एक पुरूष से हुई थी: उस कुंवारी का नाम मरियम था।- लूका 1/27 

और स्वर्गदूत ने उसके पास भीतर आकर कहा; आनन्द और जय तेरी हो, जिस पर ईश्वर का अनुग्रह हुआ है, प्रभु तेरे साथ है।- लूका 1/28

वह उस वचन से बहुत घबरा गई, और सोचने लगी, कि यह किस प्रकार का अभिवादन है? - लूका 1/29

 स्वर्गदूत ने उस से कहा, हे मरियम; भयभीत न हो, क्योंकि परमेश्वर का अनुग्रह तुझ पर हुआ है।- लूका 1/30 

और देख, तू गर्भवती होगी, और तेरे एक पुत्र उत्पन्न होगा; तू उसका नाम यीशु रखना।- लूका 1/31 

वह महान होगा; और परमप्रधान का पुत्र कहलाएगा; और प्रभु परमेश्वर उसके पिता दाऊद का सिंहासन उस को देगा। - लूका 1/32 


इन आयतों में भी यह बात न्यायतः सिद्ध नहीं होती कि मरयम कुमारी थी और ईश्वर उनका (श्री यीशु ) का पिता था। यहाँ भी फ़रिश्ते के आने का उल्लेख है । जिसका कोई प्रमाण नहीं । फ़रिश्ता क्या चीज़ है, उसे किसने देखा है ? ईश्वर उसको क्यों भेजता है ? आदि प्रश्नों को यदि छोड़ भी दिया जाय तो भी यह बात है कि मति मरकुस लूका और युहन्ना ने भी तो जो कुछ लिखा है, वह जनश्रुति के आधार पर ही लिखा है । यदि यह भी मान लिया जाय कि इन लेखकों ने हज़रत यीशु को अपनी आँखों से देखा था, तो यीशु की उत्पत्ति के समय उनका होना तो कोई भी प्रमाणित नहीं कर सकता क्योंकि वे श्री यीशु के शिष्य थे।


दूसरी बात यह है कि लूका, मति, मरकुस, युहन्ना आदि के वचनों में भेद क्यों है? मति तो मरयम को पवित्रात्मा से गर्भवती बताता है। मरकुस आसमान को आवाज़ द्वारा सन्देश को स्वीकार करता है और का इन सबसे बढ़कर कहते हैं, कि खुदा का फ़रिश्ता उसके पास आया और उससे कहा कि तू गर्भवती होगी । अर्थात् जब तक हुई नहीं थी और उसके बाद यूसुफ उसको अपने घर ले आते हैं ।


विचारिये कि किस पर विश्वास किया जाय । यदि तीनों सच्चे हैं तो तीनों एक बात कहते, नहीं तो यही मानना पड़ेगा कि तीनों ने जैसा जनता से सुना लिख दिया । वास्तविक तथ्य क्या है, इसका किसी को पता नहीं। आज भी हमें अनेक बार विचित्र स्वप्न आ जाते हैं, डर लगता है और कोई-कोई तो सोते हुये उछल पड़ते हैं, चिल्लाने लगते हैं । इन सब बातों का कारण अस्वस्थता, अस्वच्छता या हृदय की दुर्बलता आदि हो सकते हैं, परन्तु उनको सत्य स्वीकार कोई नहीं करते। मेरा तो यह दृढ़ विचार है कि यदि इसका निर्णय करने के लिये किसी न्यायाधीश को बैठाया जाय तो उसका निर्णय यही होगा कि इनके वचनों में भेद हैं। वह एक दूसरे से नहीं मिलते, इसलिये यह सुनने लायक़ नहीं और वह इसको समाप्त कर देगा । इसके सिवाय वह और कर ही क्या सकता है ।


जो लोग इस बात को मानते हैं कि श्री यीशु का जन्म कुआरी मरयम से हुआ था और वह पवित्रात्मा द्वारा गर्भवती हुई थी, उनके लिये इन दोनों वाक्यों का अर्थ स्पष्ट रूप से खोल कर रखना हमारी सभ्यता के बाहर है । जिसको हम अशिष्ठ समझाते हैं । 


अतः अब यह तो सिद्ध हुआ कि श्री यीशु कुमारी मरयम से उत्पन्न नहीं हुये थे और न आज तक कोई मनुष्य हुआ है। 



श्री यीशु ईश्वर पुत्र नहीं थे


संसार के प्रत्येक प्राणी को ईश्वर पुत्र कहा जाता है और वास्तव में परमात्मा ही हमारा पिता है इसलिये हम सभी उम अखण्ड ब्रह्म, सच्चिदानन्द, न्यायकारी ईश्वर के पुत्र हैं भी । वही हमारा सच्चा पिता है। उसके द्वारा हो हम पोषित होते हैं और वही संसार का निर्माण और संहार करता है। हम सब उसको सन्तान हैं और वह हमारा पिता है । किन्तु ईसाई लोग इस अर्थ में श्री यीशु को ईश्वर का पुत्र नहीं मानते। उनका कहना है कि मसीह ईश्वर के इकलौते पुत्र थे । इसका तात्पर्य आज तक समझ में नहीं आया ! ईश्वर पुत्र तो सब हैं ही किन्तु केवल केवल एक को पुत्र कहने का तात्पर्य यही है कि ईश्वर के कोई और पुत्र नहीं थे ! इसका स्पष्ट अर्थ है कि कोई भी पुरुष बिना किसी पुरुष के संयोग के एक दूसरे का पुत्र नहीं कहला सकता। यदि यही बात है, तो खुदा भी मनुष्य देहधारी हुआ । उसका घरबार भी होगा और उसका पिता भी ईसाइयों के यहाँ अवश्य ही होगा ।


अब यदि ईश्वर अथवा बाइबिल के खुदा को शरीरधारी मानते हैं, तो मरयम को ख़ुदा की पत्नी माननी पड़ेगी। जिसे कोई ईसाई स्वीकार नहीं कर सकता। दूसरी उक्ति यह है कि यदि सभी पुरुष ईश्वर के पुत्र हैं, तो सभी स्त्री ईश्वर की पुत्री। अतः मरयम का ईश्वर की पत्नी कहलाना कोई अर्थ ही नहीं रखता । अब विचार कीजिये कि मरयम का लड़का ईश्वर पुत्र कैसे कहला सकता, या हो सकता है ।


अब देखना यह है कि यदि श्री यीशु का शरीर ईश्वर का पुत्र था, तो वह मरा क्यों ? और जब वह मर गया, तो उसका शरीर तो यहीं पर रह गया, फिर वह ईश्वर पुत्र रह गया अथवा नहीं ! यदि कहो कि वह मर गया और मर कर जी उठा और सातवें आसमान पर चला गया तो मर कर जी  उठना पुनर्जन्म हुआ जिसको ईसाई नहीं मानते और आसमान पर गया, उसके लिये कोई ऐतिहासिक प्रमाण, वैज्ञानिक पुष्टि चाहिये। जिसके देने में ईसाई लोग कठिनता ही नहीं असम्भवतः प्रकट करते हैं। यदि कहा जाय कि श्री यीशु का आत्मा ईश्वर पुत्र था, तो उसमें विशेषता ही क्या हुई, सभी आत्मा ईश्वर के पुत्र हैं । हिन्दू धर्म तो इस सिद्धान्त को सबसे पहले अङ्गीकार किये हुये हैं । इस सिद्धान्त से तो ईसाइयत का दिवाला आज ही निकल जाता है । कुंवारी के मरयम के पेट से उत्पन्न वाला बाइबिल का सिद्धान्त इतना कच्चा है कि उस पर कोई भी बुद्धिजन आपत्ति कर सकता है और ईसाइयों के पास इसका कोई उत्तर नहीं। छोटे बालक भी यह समझते हैं कि हमारे भी पिता हैं, इसलिये सबके पिता होते हैं । जब कभी इस सिद्धान्त की समीक्षा की जाती है, तो ईसाई लोग यह कहकर रुष्ठ हो जाते हैं कि हमारे पूर्व पुरुषों का अपमान करते हो ! हमारा कहना यह है कि इसमें मान-अपमान का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता है। प्रत्येक स्वर्ण के लिये कसौटी होती है, यदि वह उस कसौटी पर खरा नहीं उतरता जो उसके लिये निश्चित है, तो उसको कोई बुद्धिजन ग्रहण नहीं करते, प्रत्येक उसको त्याज्य समझकर छोड़ देते हैं । यही स्थिति बाइबिल के इस सिद्धान्त के विषय में हैं । यदि वे अपने मान-अपमान का अनुभव करते हैं तो उनको चाहिये कि इस कच्चे सिद्धान्त को बाइबिल से अलग कर दें और लोगों को बहकाना छोड़ दें। सीधे यह क्यों नहीं मान लेते कि श्री यीशु यूसुफ़ के पुत्र थे जिनकी माँ का नाम मरयम था, यही बाइबिल में लिखा है और यही सृष्टि का नियम है ।


अब आप भली भांति समझ चुके होंगे कि श्री यीशु न खुदा के बेटे थे और न कुआंरी मरयम से उनका जन्म ही हुआ था । जैसा कि हमने भूमिका में कहा है कि असली बाइबिल इब्रानी भाषा में है । उसमें शब्द "उलमा" का अर्थ कुमारी किया गया है। ( पं० शांतिप्रकाश जी महोपदेशक, शास्त्रार्थ महारथी ने इसकी खोज की है, देखिये ! बाइबिल पोल प्रकाश में) कोश में इस शब्द का अर्थ युवती है चाहे वह विवाहिता हो । केवल कुंवारी का अर्थ करना नितान्त अशुद्ध है ।


मरयम की सगाई श्री यूसुफ़ के साथ हुई थी। जिसकी वंशावली हम पहले दे चुके हैं, जो गलील प्रान्त के नासिरा नगर के निवासी थे। उस समय की यहूदी प्रथा के अनुसार कुछ लोग सगाई के अनन्तर स्त्री सम्बन्ध में स्वतन्त्र समझे जाते थे, किन्तु अच्छे लोग इसको बुरा भी समझते थे । यही अवस्था यहाँ पर हुई है । श्री यीशु मसीह यूसुफ़ के द्वारा मरयम से उत्पन्न हुये। क्योंकि सगाई के अनन्तर यह सम्बन्ध स्थापित हुआ था, इसलिए श्री यीशु मरयम पुत्र कहलाये । इसमें ईश्वर के पुत्र और कुंवारी के पुत्र होने की कोई भी बात नहीं है । बाइबिल स्वयं श्री यीशु को यूसुफ़ के पुत्र बतलाती है। जो बढ़ई का काम करते थे | देखिये- 


(1.) उस की माता और भाई उसके पास आए, पर भीड़ के कारण उस से भेंट न कर सके। और उस से कहा गया, कि तेरी माता और तेरे भाई बाहर खड़े हुए तुझ से मिलना चाहते हैं। उस ने उसके उत्तर में उन से कहा कि मेरी माता और मेरे भाई ये ही हैं, जो परमेश्वर का वचन सुनते और मानते हैं। - लूका 8/19-21


(2.) क्या यह बढ़ई का बेटा नहीं? और क्या इस की माता का नाम मरियम और इस के भाइयों के नाम याकूब और यूसुफ और शमौन और यहूदा नहीं? -मति 13/55 


(3.) उस की माता ने उस से कहा; हे पुत्र, तू ने हम से क्यों ऐसा व्यवहार किया? देख, तेरा पिता और मैं कुढ़ते हुए तुझे ढूंढ़ते थे। - लूका 2/48 


 (4.) और जब माता-पिता उस बालक यीशु को भीतर लाए, कि उसके लिये व्यवस्था की रीति के अनुसार करें। - लूका 2/27 


 (5.) जब यीशु आप उपदेश करने लगा, जो लगभग तीस वर्ष की आयु का था और (जैसा समझा जाता था) यूसुफ का पुत्र था; और वह एली का।- लूका 3/23 


 (6.) वह यूसुफ का पुत्र, यीशु नासरी है।- युहन्ना 1/45


छः प्रमाण इस बात के लिये प्रर्याप्त हैं कि श्री यीशु ख़ुदा बेटे नहीं थे । वह श्री यूसुफ़ के पुत्र थे, जो दाऊद नबी के वंश से थे । यह वंश उबदा से चला था जिसको उसकी विधवा माता ने अपनी सास की आज्ञा से अपने मृत पति के लिये सन्नीपस्थ नियोग सम्बन्ध से उत्पन्न किया था। जिससे श्री मसीह को ईश्वर पुत्र सिद्ध करने की उक्ति समाप्त हो जाती है । यदि वे ऐसा स्वीकार नहीं करते तो शेष सब शैतान के द्वारा मानने पड़ेंगे। जिसे ईसाई पादरी कभी भी स्वीकार नहीं कर सकते। अब तक हमने जो कुछ कहा उसे पाठकवृन्द भली भांति समझ गये होंगे। अब आवश्यक यह है कि श्री यीशु के जीवन चरित्र पर कुछ प्रकाश डाला जाय, नहीं तो यह कार्य अधूरा रहेगा ।


श्री यीशु का चरित्र


ईसाई धर्म का मूलाधार श्री यीशु ही हैं इसलिये यह आवश्यक प्रतीत होता है कि उनके जीवन पर भी दो-चार बातें ज्ञात हों । किसी भी व्यक्ति की महानता को स्वीकार करने के लिये जन साधारण के सामने उसकी सत्यता, उसकी दीनता, उसकी सभ्यता तथा उसका आचरण होना चाहिये । वह अपने चरित्र बल के द्वारा हो संसार में अपना प्रभुत्व स्थापित करता है । मनुष्य की विशेषता उसके चरित्र में है, यदि एक मनुष्य दूसरे से श्रेष्ठ समझा जाता है, तो वह उसके चरित्र के ही कारण । मनुष्य का मूल्य उसके चरित्र में है । चरित्र से आत्म बल प्राप्त होता है और यह ज्ञात होता है कि मनुष्य कितने पानी का है। इस प्रकार चरित्र के द्वारा ही मनुष्य की मनुष्यता के दर्शन होते हैं । यह चरित्र क्या है, जो इतना महत्व रखता है ? यह चरित्र उन गुणों के समूहों का नाम है जो हमारे व्यवहारिक जीवन से सम्बन्ध रखते हैं । उदाहरण के लिये - उदारता, धैर्य, सत्य भाषण, मद-मोह और लोभ का त्याग आदि-आदि। अब देखना यह कि श्री यीशु मसीह में यह सब गुण विद्यमान थे या नहीं ! पहले सत्यता का ही लीजिये |


तब यीशु ने उस से कहा; हे शैतान दूर हो जा, क्योंकि लिखा है, कि तू प्रभु अपने परमेश्वर को प्रणाम कर, और केवल उसी की उपासना कर। -मति 4/10 


इस आयत में श्री यीशु स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि मनुष्य को केवल अपने ईश्वर की प्रार्थना करनी चाहिये | विचारये कि इसमें श्री यीशु असत्य वक्ता हुये कि नहीं क्योंकि दूसरी जगह कहते हैं कि भेड़ों का द्वार मैं हूँ केवल मेरे पर विश्वास करो। यदि यह सत्य है कि ईश्वर सब कुछ है, उसी की आराधना करनी चाहिये। तब तो मसीह पर ईमान लाने की आवश्यकता ही क्या ? और यदि यह कि ईसा पर विश्वास करना जरूरी है उसके बिना कोई मनुष्य मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता तो ईसा सत्य वक्ता न होकर असत्य वक्ता हुये।


काम, क्रोध, लोभ और मोह। यह चारों दुगा चरित्र हीन व्यक्ति में होते हैं । इसलिये मनुष्य को लोभ न करना चाहिये । किन्तु देखिये श्री यीशु की लोभ प्रियता ।


तब मरियम ने जटामासी का आध सेर बहुमूल्य इत्र लेकर यीशु के पावों पर डाला, और अपने बालों से उसके पांव पोंछे, और इत्र की सुगंध से घर सुगन्धित हो गया। परन्तु उसके चेलों में से यहूदा इस्करियोती नाम एक चेला जो उसे पकड़वाने पर था, कहने लगा।  यह इत्र तीन सौ दीनार में बेचकर कंगालों को क्यों न दिया गया? उस ने यह बात इसलिये न कही, कि उसे कंगालों की चिन्ता थी, परन्तु इसलिये कि वह चोर था और उसके पास उन की थैली रहती थी, और उस में जो कुछ डाला जाता था, वह निकाल लेता था। यीशु ने कहा, उसे मेरे गाड़े जाने के दिन के लिये रहने दे। क्योंकि कंगाल तो तुम्हारे साथ सदा रहते हैं, परन्तु मैं तुम्हारे साथ सदा न रहूंगा। - युहन्ना 12/3-8 


पाठकवृन्द ध्यान दें कि यदि कोई मनुष्य बुरा कर्म करता है, तो दूसरे के सावधान करने से हट जाता है। श्री यीशु को उनके प्रिय शिष्य ने प्रेरणा की कि यह तीन सौ रुपये का माल निर्धनों की सेवा के काम आये, तो उस पर चरित्र हीनता का दोष लगाया गया । किन्तु जो प्रत्यक्ष में एक स्त्री के साथ में विलासिता की सामग्री का उपयोग करता है, वह चरित्रशील है । हमारे यहाँ आठ प्रकार का मैथुन बताया गया है, जिसमें श्री यीशु का यह कृत्य भो क्षम्य नहीं है ।


दूसरी बात इसी आयत में ध्यान देने की यह है कि जब तक श्री यीशु स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि मैं सदैव तुम्हारे बीच में नहीं रह सकता, मेरा भी अन्त होने वाला है । तो फिर ईसाइयों से कोई पूछे कि तुम आज भी दो हजार साल पश्चात् उनकी कब्र को क्यों उखेड़ रहे हो ? कम से कम उन्हें स्वर्ग में चैन मिलना चाहिये । क्या हम इसको लोभ का प्रत्यक्ष उदाहरण नहीं कह सकते ? क्या यह श्री यीशु की कर्तव्य परायणता का नमूना है ? क्या श्री यीशु इससे एक श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध होते हैं ? एक श्रेष्ठ पुरुष के सामने एक स्त्री आती है और जो अपने को ब्रह्मचारी और खुदा का बेटा होने का दावा करते हैं, वह उस पर लालायित हो जाते हैं और अपने चेलों को डाँट देते हैं। क्या हम उनमें आत्म संयम पाते हैं ? अपनी इन्द्रियों का दमन क्या वह करना जानते हैं ? यदि हम यह स्वीकार कर लें कि जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जब मनुष्य की इन्द्रियों का दमन उसके वश में नहीं होता और वह गड्ढे में गिर जाता है । किन्तु यह सिद्धान्त एक गृहस्थ मनुष्य के लिये उपयुक्त हो सकता है, ख़ुदा के बेटे के लिये नहीं ।


महान् व्यक्तित्व कभी भी आपत्तियों में विचलित नहीं होते । यहाँ तक कि उनके लिये अपने प्राणों का भी कोई मूल्य नहीं होता ! धैर्य उनके पास एक अजेय अस्त्र होता है जिसको कोई विजय नहीं कर सकता, परन्तु प्रतीत ऐसा होता है कि श्री यीशु के पास धैर्य नाम वाली कोई वस्तु थी ही नहीं | देखिये:


यदि कोई मेरी सेवा करे, तो मेरे पीछे हो ले; और जहां मैं हूं वहां मेरा सेवक भी होगा; यदि कोई मेरी सेवा करे, तो पिता उसका आदर करेगा। जब मेरा जी व्याकुल हो रहा है। इसलिये अब मैं क्या कहूं? हे पिता, मुझे इस घड़ी से बचा? परन्तु मैं इसी कारण इस घड़ी को पहुंचा हूं। - युहन्ना 12/26-27 


ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे हजरत यीशु अपनी रक्षा के लिए एक दृढ़ संगठन बनाना चाहते थे, उसमें उन्हें भय, चिन्ता और धैर्य हीन भी होना पड़ता था ।


श्री यीशु का उद्देश्य क्या था ? वह क्या करना चाहते थे ? यह आप को इस आयत से स्पष्ट हो जायगा । देखिये:


यह न समझो, कि मैं पृथ्वी पर मिलाप कराने को आया हूं; मैं मिलाप कराने को नहीं, पर तलवार चलवाने आया हूं।  मैं तो आया हूं, कि मनुष्य को उसके पिता से, और बेटी को उस की मां से, और बहू को उस की सास से अलग कर दूं। मनुष्य के बैरी उसके घर ही के लोग होंगे।  जो माता या पिता को मुझ से अधिक प्रिय जानता है, वह मेरे योग्य नहीं और जो बेटा या बेटी को मुझ से अधिक प्रिय जानता है, वह मेरे योग्य नहीं। और जो अपना क्रूस लेकर मेरे पीछे न चले वह मेरे योग्य नहीं।- मति 10/34-38 



श्री यीशु प्रत्येक बात में अपना ही उल्लू सीधा करने पर तुले हुये हैं । जब श्री यीशु संसार से शांति विदा करना चाहते हैं और उसके स्थान पर हिंसा, क्रांति, मार और काट कराने आये हैं, तो उनके आने की क्या आवश्यकता थी ? पाठकगण सोच सकते हैं कि क्या यह वाक्य किसी शांतिप्रिय मनुष्य के हो सकते हैं ? इन शब्दों में प्रतिशोध की बिजली कौन्ध रही है। उसके हृदय में क्रोध, घृणा और क्षोभ एवं ग्लानि का एक छत्र राज्य रहा होगा ! उसके हृदय में तत्कालीन सामन्तशाही को चकनाचूर कर उस पर अपना एकाधिपत्य स्थापित करने की विशाल भावना कार्य कर रही होगी, इन शब्दों का तात्पर्य ही यह है।


संसार त्यागी, वीतरागी पुरुष को क्रोध भी शोभा नहीं देता । क्रोध से मनुष्य में कई प्रकार के विकार उत्पन्न हो जाते हैं ऐसा एक विद्वान का मत है । हज़रत यीशु के क्रोधी स्वभाव का इससे बढ़कर और उदाहरण मिलना कठिन है। देखिये:


दूसरे दिन जब वे बैतनिय्याह से निकले तो उस को भूख लगी और वह दूर से अंजीर का एक हरा पेड़ देखकर निकट गया, कि क्या जाने उस में कुछ पाए पर पत्तों को छोड़ कुछ न पाया; क्योंकि फल का समय न था। इस पर उस ने उस से कहा अब से कोई तेरा फल कभी न खाए। और उसके चेले सुन रहे थे। - मरकुस 11/12-14


फिर भोर को जब वे उधर से जाते थे तो उन्होंने उस अंजीर के पेड़ को जड़ तक सूखा हुआ देखा। - मरकुस 11/20 


 माना कि उनको खूब भूख लगी हुई थी किन्तु बेचारे और के पेड़ पर ही सारा क्रोध श्री यीशु ने उतारा और उस स्थिति में जबकि उसके फल का मौसम भी नहीं था, इससे प्रतीत यह होता है कि श्री यीशु ऋतु विज्ञान से अनभिज्ञ थे। क्या श्री यीशु को यह ज्ञान नहीं था कि इस फल का मौसम नहीं है ? इससे स्पष्टतः हम कह सकते हैं कि श्री यीशु क्रोधी थे और ऐसे क्रोधी जिनसे एक निर्दोष पेड़ भी न बच सका । इसी अध्याय की 15वीं आयत में और देखिये कि भूख से व्याकुल श्री यीशु क्या-क्या कुकृत्य करते हैं ।


फिर वे यरूशलेम में आए, और वह मन्दिर में गया; और वहां जो लेन-देन कर रहे थे उन्हें बाहर निकालने लगा, और सर्राफों के पीढ़े और कबूतर के बेचने वालों की चौकियां उलट दीं। और मन्दिर में से होकर किसी को बरतन लेकर आने जाने न दिया। - मरकुल 11/15-16 


 भूख से पीड़ित श्री यीशु और कर ही क्या सकते थे सिवाय इसके कि दूकानदारों को मारना पीटना, उनके वर्तन तोड़ना और चौकियाँ नष्ट करना । यह हज़रत ईसा का चरित्र है । एक ओर तो हज़रत यीशु भूख से व्याकुल होकर अंजीर के पेड़ पर क्रोध प्रकट करते हैं । दूसरी ओर यह देखिये:


यीशु ने उन से पूछा, तुम्हारे पास कितनी रोटियां हैं? उन्होंने कहा; सात और थोड़ी सी छोटी मछिलयां। तब उस ने लोगों को भूमि पर बैठने की आज्ञा दी। और उन सात रोटियों और मछिलयों को ले धन्यवाद करके तोड़ा और अपने चेलों को देता गया; और चेले लोगों को। सो सब खाकर तृप्त हो गए और बचे हुए टुकड़ों से भरे हुए सात टोकरे उठाए।और खाने वाले स्त्रियों और बालकों को छोड़ चार हजार पुरूष थे।- मति 15/34-38 


इन ईसाइयों से कोई पूछे कि अभी थोड़ी देर पहले तो श्रो यीशु भूख से व्याकुल थे और उसका क्रोध बेचारे अंजीर के पेड़ पर उतारा गया था । यदि सात रोटियों में उन्होंने चार हजार मनुष्यों को तृप्त कर दिया। उनमें और रोटियाँ कहाँ से आयी ? यदि कहो कि ईसा की करामात थी तो उस समय उनकी करामात कहाँ चली गई थी जब वह भूख से व्याकुल थे। उस समय उनकी करामात कहाँ चली गई थी जब उनको सूली पर लटकाया गया था | क्या यह केवल झूठा प्रचार नहीं है ? यदि ऐसी बात थी तो फिर उन रोटियों की भी क्या आवश्यकता थी । पत्थर और मिट्टी से काम लेकर हलवे और पूरी बनाते ।


अब कहाँ तक बाइबिल के सिद्धान्तों का पोल खोलें । एक-दो की गिनती नहीं अपितु सारी बाइबिल ही ऐसे सिद्धान्तों से भरी हुई है । केवल इन्हीं आयतों के देखने से पाठकगण सत्य असत्य का निर्णय कर सकते हैं । अब देखना यह है कि ईसाई लोग जो सदैव इस बात की डींग मारा करते हैं कि श्री यीशु शांतिप्रिय कोधादि दोष से रहित थे, इससे सिद्ध नहीं होता ।


आज कल ईसाई लोगों का धुआँधार प्रचार हो रहा है । ये लोग ग्रामों में जाते हैं और निर्धन हिन्दू जनता को उनके धर्म की बुराई बता कर फँसा लेते हैं । जब कोई सन्देह करता है तो कहते हैं कि हम उन प्रसिद्ध श्री यीशु के मिशन के प्रचारक हैं जिनका उपदेश यह था कि यदि कोई तुम्हारे गाल पर चपत मारे तो दूसरा भी आगे कर दो । किन्तु मैं अपने उन भाइयों को बता देना अपना प्रथम कर्तव्य समझता हूँ जिन्होंने बाइबिल का अध्ययन नहीं किया है की स्थिति भिन्न विपरीत है। तो आज की ईसाई जातियाँ जो आज कल संसार का विनाश करने के उपाय सोच रही हैं। उनको यह उपदेश क्यों नहीं सुनाया जाता। दूसरी बात यह कि उसी बाइबिल के मानने वाले जिसमें ईसाई लोग यह सिद्धान्त बताते हैं। एशिया के विनाश के कारण सोच रहे हैं और साक्षात रुद्र का रूप धारण किये हुये विश्व शांति के लिये भय का कारण बने हुये हैं। जिससे आज विश्व शांति के लिये चिल्ला रहा है। इस उक्ति से उनके इस सिद्धांत पर पानी फिर जाता है । आज अमेरिका युद्ध की तैयारियों में व्यस्त है और परमाणु बम और हाइड्रोजन बम से भी अधिक संसार के विनाशकारी अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हो रहे हैं किन्तु आप की यह भी स्मरण रखना चाहिये कि अमेरिका आदि ईसाई देशों का एशिया तथा भारत को ईसाई बनाकर उन्हें श्री यीशु के नाम से चपत खाना भी तो कोई अर्थ रखता है और इसी लिये करोड़ों रुपयों का धन पानी की भांति बहाया जा रहा है। यह सब कुछ दया के वशीभूत होकर अथवा भारत को मुक्ति दिलाने के निमित नहीं किया जा रहा है। अपितु इसमें भारत की शोक को दुर्बल बनाकर एशिया को साम्राजी चंगुल में फंसाने की एक नई चाल है और यही चाल हज़रत यीशु और उनके शिष्यों ने अपने समय में चली थी, यह बताने की आवश्यकता नहीं । जिन्होंने इंजीलों का पठन-पाठन किया है उनके हृदय स्थलों पर यह बातें अङ्कित होंगी कि ईसा मुक्तिदाता का रूप धारण करके सर्व साधारण को बहका कर अपने पीछे चलाना चाहते थे। जिससे राज्य शक्ति को निर्बल किया जा सके उन्हीं श्री यीशु ने जिनको शांति का दूत कहा जाता है, अपने शिष्यों को प्रेरणा दी कि वे अपना माल अपनी झोली और पहनने के कपड़ों को बेच कर तलवारें खरीदें | शिष्यों ने इस आज्ञा की रंच भर भी अवहेलना न की, उनकी वाणी इसके लिये मौन हो गई कि विश्व के मुक्तिदाता को तलवार से क्या काम ? तलवारे खरोदो गई. उनका प्रयोग भी हुआ, किन्तु समय रहते हुये गुप्तचरों ने राजा को सावधान कर दिया। जिसपर श्री यीशु के पकड़ने का निश्चय राज्य को करना पड़ा | पारितोषिक की घोषणा की गई। श्री मसीह के श्रेष्ठ और प्रिय शिष्यों में से एक ने जिसका नाम यहूदा यस्करयोती था, तीस रुपया के लोभ में आकर श्री मसीह को पकड़वाने का निश्चय किया । वह राज्य के सिपाहियों को वहाँ ले गया जहाँ हजरत यीशु मसीह छिपे हुये बैठे थे | यहूदा ने श्री मसीह के पाँव पकड़ कर कहा ऐ रबकी सलाम - हे स्वामिन प्रणाम ! सिपाही समझ गये कि यहीं श्री यीशु हैं जो यहूदियों के बादशाह बनना चाहते हैं। श्री मसीह के शिष्य लड़ने को उद्यत हुये, एक ने तलवार चलाई और एक सिपाही का कान काट दिया, किन्तु हार अन्त में शिष्यों की हुई और वे भाग गये । श्री ईसा पकड़े जाकर अभियुक्त हो फाँसी पर लटका दिये गये, उनके शरीर पर एक तख्ती लटका दी गई कि "यहूदियों का बादशाह", उनके हाथों में कील गाड़ दी गई, भाले मे पसली छेड़ दी गई और सिर पर कांटों का मुकुट पहना दिया गया। 


सिपाहियों ने यहूदियों ने और सर्व साधारण ने श्री ईमा से कहा कि अब आप अपनी करामात दिखायें। कल तक तो अपनी करामतों की सिंहगर्जना करते फिरते थे, यदि कोई करामात है तो अब दिखाओ और फाँसी से बच जाओ, तो हम जानें कि तुम ईश्वर के सच्चे दूत हो । यदि ऐसा करोगे तो हम तुम को अपना बादशाह भी मान लेंगे। श्री मसीह चिल्लाये और ईश्वर से प्रार्थना करने लगे कि "एली, एली, लमा शबक्तनी अर्थात हे मेरे परमेश्वर, हे मेरे परमेश्वर, तू ने मुझे क्यों छोड़ दिया?- मति 27/46 



किन्तु कुछ न बन सका कोई भी करामात  न दिखाई जा सकी और श्री मसीह फांसी  पाकर परलोक सिवार गये। शमऊन ने लाश को लेकर कब्र में दफना दिया। शिष्य ताड़ में थे, कब्र उखाड़ फेंकी, लाश गुम कर दी गई और प्रसिद्ध कर दिया गया कि श्री मसीह फॉसी पाकर पुनः जीवित हो उठे (40 दिन के बाद जीवित हो उठे) और संसार के पापों के बदले स्वयं फाँसी पाकर संसार से प्रायश्चित करके संसार को पापों से सदैव के लिए छुड़ा गये। बस पादरियों को अवसर मिल गया कि वह श्री मसीह के नाम का ढिंढोरा पीट अंजान जनता को बहकायें और अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करें। यह लोग कहते हैं कि श्री मसीह तुम्हारे लिये मुक्तिदाता हैं, यदि तुम श्री मसीह की भेड़ों में सम्मिलित होकर श्री ईसा पर ईमान लाओगे तो तुम्हारे पाप क्षमा कर दिये जायेंगे | तुम्हारी सिफ़ारिश श्री मसीह स्वयं करेंगे और तुम मुक्ति के अधिकारी बन जाओगे ।


जरा निहारिये तो सही कि जब श्री ईसा मसीह संसार के पापों को अपने सिर पर ले गये और संसार के पापों के लिये वे मरे, तो फिर संसार में पाप रह क्यों गये ? और श्री ईसा पर ईमान लाने की आवश्यकता क्यों हुई ? क्योंकि सबके पाप तो उन्होंने क्षमा कर दिये । फिर संसार में पाप रहा कहा ?


श्री ईसा मरे या नहीं !


एक सन्देह वाली बात और रह जाती है जिसका निवारण अब किया जाता है। जब श्री ईसा को सूली पर चढ़ा दिया गया धा तो वह मर गये होंगे । अब प्रश्न यह है कि वह जीवित किस प्रकार हुये ? संसार में मृत्यु शब्द उसी व्यक्ति के लिये प्रयुक्त होता है जिसकी आत्मा उसके शरीर को छोड़ देती है क्योंकि आत्मा तो शरीर नहीं और न शरीर ही आत्मा है । यदि यह मान लिया जाय कि श्री यीशु को जब फाँसी पर लटका दिया गया तो उन्होंने प्राणवायु को रोक कर योगिक क्रिया द्वारा मृत्यु के आघातों को सहन किया और वह मूर्छित अवस्था में रहे तत्पश्चान् मुद्दा भंग हुई और वे जीवित हो गये तो इसमें करामात की तो काई बात न हुई । आज भी भारत में सैकड़ों योगी इस प्रकार के चमत्कार दिखा सकते हैं । प्राचीन काल की बात जाने दें किन्तु आज भी भारत में योगियों की कमी नहीं है जो अपने योगाभ्यास द्वारा संसार को आश्चर्य में डाल सकते हैं । दूसरी बात यह है कि यह कहा जाय (जो हम पहले कह चुके हैं) कि उनकी आत्मा ने पुनः शरीर में प्रवेश किया, तो सीधी सी बात है कि तुम भी पुनर्जन्म मानते हो, हम भी मानते हैं । वैदिक मत को स्वीकार करो ।


श्री यीशु मुक्तिदाता नहीं !


जैसा कि हमने पहले कहा कि ईसाई कहते हैं कि ईसा पर ईमान लाओ, क्योंकि उन्होंने सूली पर चढ़ कर तुम्हारे पापों को क्षमा कर दिया, उनके बिना कोई मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता, जो उनकी भेड़ों में सम्मिलित होगा वही उस दरवाजे से जायगा जो मुक्ति का है ।


कोई उनसे पूछे कि श्री ईसा को जन्म ग्रहण किये लगभग दो हज़ार साल कुल हुये किन्तु उनके पहले जो मनुष्य पृथ्वी पर रहे होंगे उन्होंने मुक्ति कैसे प्राप्त की होगी क्योंकि उन बेचारों को तो समय ही नहीं मिला श्री ईसा पर ईमान लाने का ! आप यह भी नहीं कह सकते कि इनसे पूर्व सृष्टि नहीं थी क्योंकि विश्व का इतिहास इसका साक्षी है कि विश्व का प्रत्येक देश जब जंगली अवस्था में था तब हमारे भारतवर्ष की सभ्यता और संस्कृति उच्च शिखर पर विराजमान थी। अब पुनः अपने प्रश्न पर आते हैं कि उन बेचारों का क्या हुआ होगा जिनको श्री ईसा पर ईमान लाने का समय ही नहीं मिला ? हो सकता है कि आप यह उत्तर दें कि उस समय भी तो नबी थे। उनपर ईमान लाकर या उनकी सिफारिश पाकर उनको मुक्ति मिल गई, तो यह भी झूठ है क्योंकि श्री ईसा ने उन सब को जो उनसे पहले नबी इत्यादि हुये हैं चोर और डाकुओं की श्रेणी में रखा है। इसलिये चोर और डाकू मुक्ति जैसे श्रेष्ठ कार्य को कब कर सकते हैं । देखिये:


तब यीशु ने उन से फिर कहा, मैं तुम से सच सच कहता हूं, कि भेड़ों का द्वार मैं हूं। जितने मुझ से पहिले आए; वे सब चोर और डाकू हैं परन्तु भेड़ों ने उन की न सुनी। द्वार मैं हूं: यदि कोई मेरे द्वारा भीतर प्रवेश करे तो उद्धार पाएगा और भीतर बाहर आया जाया करेगा और चारा पाएगा।  चोर किसी और काम के लिये नहीं परन्तु केवल चोरी करने और घात करने और नष्ट करने को आता है। मैं इसलिये आया कि वे जीवन पाएं, और बहुतायत से पाएं। - युहन्ना 10/7-9


 अब या तो यह बाइबिल के खुदा की ग़लती है कि उसने श्री ईसा को सृष्टि के आदि में उत्पन्न नहीं किया और उन लोगों के साथ अन्याय किया जो उनसे पूर्व हुये थे। ऐसी अवस्था में ईश्वर का न्यायकारी विशेषण भी समाप्त हो जाता है और या जो कुछ बाइबिल में लिखा और श्री ईसा ने कहा है वह गलत है। विचारिये जब ईश्वर को अपना पुत्र ही भेजना था तो सृष्टि के आदि में क्यों नहीं भेजा ? उनके साथ अन्याय क्यों किया गया जिन्होंने श्री ईसा के दर्शन भी नहीं किये और उनका कलाम भी नहीं सुना । रहा प्रश्न श्री ईसा पर ईमान क्यों लाया जाय ? जब श्री ईसा संसार के पापों के लिये सूली पर चढ़ गये और संसार को पापों से मुक्त करा गये, तो उस समय संसार पापमय रहा होगा। इसीलिये श्री यीशु ने दया के वशीभूत होकर सूली पाई तो हमारा कहना यह कि अब संसार में पाप रहे कहाँ ? कारण यह कि समस्त पापों की गठरी तो श्री ईसा अपने सिर पर ले गये और जिस दिन वह स्वर्गवासी हुये होंगे पाप भी संसार से दूर हो जाने चाहिये थे । बाइबिल यह भी स्वीकार करती है कि समस्त संसार के पापों को लेकर श्री ईसा गये, तो सारा संसार तो आज ईसाई नहीं है और न जब रहा होगा ? जो ईसाई नहीं थे या जो श्री ईसा पर ईमान नहीं लाये थे उनके पाप भी उसमें सम्मिलित थे या नहीं ? यदि थे ! तो फिर क्या आवश्यकता है ईसाई धर्म की और श्री ईसा पर ईमान लाने की ? क्योंकि पापी तो कोई है ही नहीं ? यदि कहो कि ईसाइयों के ही पापों को ले गये तो यह मानना होगा कि वह स्वार्थी थे और जो कुछ उनके शिष्यों ने बाइबिल में लिखा है । वह ग़लत है ।


बाइबिल के मतानुसार मुक्ति श्री ईसा पर ईमान लाने से नहीं अपितु सत कर्म करने से होती है । जेसा काई करेगा वैसा ही भरेगा | देखिये, बाइबिल खोल कर (नया नियम) ।


(1.) जो मुझ से, हे प्रभु, हे प्रभु कहता है, उन में से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है।- मति 7/21 


(2.) क्योंकि तू अपनी बातों के कारण निर्दोष और अपनी बातों ही के कारण दोषी ठहराया जाएगा। -मति 12/37 



(3.) वैसे ही विश्वास भी, यदि कर्म सहित न हो तो अपने स्वभाव में मरा हुआ है। याकूब 2/17 


 (4.) तुझे विश्वास है कि एक ही परमेश्वर है: तू अच्छा करता है: दुष्टात्मा भी विश्वास रखते, और थरथराते हैं। पर हे निकम्मे मनुष्य क्या तू यह भी नहीं जानता, कि कर्म बिना विश्वास व्यर्थ है? - याकूब 2/19-20 


(5.) हे मेरे भाइयों, यदि कोई कहे कि मुझे विश्वास है पर वह कर्म न करता हो, तो उस से क्या लाभ?- याकूब 2/14 


(6.) धोखा न खाओ, परमेश्वर ठट्ठों में नहीं उड़ाया जाता, क्योंकि मनुष्य जो कुछ बोता है, वही काटेगा।- गलतियां 6/7


(7.)  फिर उस ने उन से कहा; चौकस रहो, कि क्या सुनते हो? जिस नाप से तुम नापते हो उसी से तुम्हारे लिये भी नापा जाएगा, और तुम को अधिक दिया जाएगा।- मरकुस 4/24


(8.)  क्योंकि हाकिम अच्छे काम के नहीं, परन्तु बुरे काम के लिये डर का कारण हैं; सो यदि तू हाकिम से निडर रहना चाहता है, तो अच्छा काम कर और उस की ओर से तेरी सराहना होगी। - रोमियों 13/3


(9.)  क्योंकि प्रभु की आंखे धमिर्यों पर लगी रहती हैं, और उसके कान उन की बिनती की ओर लगे रहते हैं, परन्तु प्रभु बुराई करने वालों के विमुख रहता है। - 1 पतरस 3/12


 बाइबिल के यह 9 प्रमाण इस बात के लिये पर्याप्त है कि मुक्ति ईमान लाने से नहीं, अपितु सत्कर्म करने से होती है। हमारा वैदिक धर्म भी यही स्वीकार करता है कि मनुष्य किसी के भी कर्मों के द्वारा मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता है, केवल मनुष्य के अपने कर्म ही उसके अपने साथ हैं। मनुष्य कर्म योनि है, संसार में वह सत्कर्म करके संसार के आवागमन के चक्कर से छूट सकता है । ईश्वर की न्याय व्यवस्था दोष रहित है उसमें किसी नवी अथवा रसूल की सिफारिश नहीं चल सकती। जैसा कर्म मनुष्य करेगा वैसा फल उसको प्राप्त होगा, कर्म करना मनुष्य का कर्तव्य है, फल ईश्वराधीन है।



श्री यीश शैतान भी बनाते थे


और उस ने टुकड़ा डुबोकर शमौन के पुत्र यहूदा इस्करियोती को दिया। और टुकड़ा लेते ही शैतान उस में समा गया।- युहन्ना 13/26-27 


इससे स्पष्ट है कि श्री यीशु का काम मनुष्यों को शैतान बनाना भी था। यदि उसकी टुकड़ा डुबोकर न देते तो वह इनसान से शैतान न बनता क्योंकि टुकड़ा लेते ही शैतान उसमें समा गया । 

बाइबिल की त्रुटियों का कहाँ तक आप को दिग्दर्शन कराया जाय । पृष्ठ के पृष्ठ इन त्रुटियों से रंगे हुये हैं । जिसको श्री यीशु ने शैतान बनाया था यह वही प्रिय शिष्य था जिसने 30 रुपये के लोभ में आकर श्री यीशु को पकड़वाया था ।


बाइबिल के मतानुसार :-


शराब पीना, बहन से शादी करना और निर्दयी होना, पाप है । किन्तु श्री ईसा शराब पीते थे, हज़रत इब्राहिम ने बहन शादी की और श्री मूसा ने अन्याय और अत्याचार किये ।


"शराब पोना "


उन्होंने पित्त मिलाया हुआ दाखरस उसे पीने को दिया, परन्तु उस ने चखकर पीना न चाहा। - मति 27/34


श्री मूसा बड़े अन्यायी आदमी थे


सो अब बाल-बच्चों में से हर एक लड़के को, और जितनी स्त्रियों ने पुरूष का मुंह देखा हो उन सभों को घात करो।  परन्तु जितनी लड़कियों ने पुरूष का मुंह न देखा हो उन सभों को तुम अपने लिये जीवित रखो।- गिनती 31/17-18 


 इब्राहीम ने कहा, मैं ने यह सोचा था, कि इस स्थान में परमेश्वर का कुछ भी भय न होगा; सो ये लोग मेरी पत्नी के कारण मेरा घात करेंगे। और फिर भी सचमुच वह मेरी बहिन है, वह मेरे पिता की बेटी तो है पर मेरी माता की बेटी नहीं; फिर वह मेरी पत्नी हो गई। - उत्पत्ति 20/11-12 




ख़ुदा के पुत्रों की मनुष्यों की पुत्री से शादी


फिर जब मनुष्य भूमि के ऊपर बहुत बढ़ने लगे, और उनके बेटियां उत्पन्न हुई, तब परमेश्वर के पुत्रों ने मनुष्य की पुत्रियों को देखा, कि वे सुन्दर हैं; सो उन्होंने जिस जिस को चाहा उन से ब्याह कर लिया। - उत्पत्ति 6/1-2 


ईसाई जाति ईसा पर विश्वास भी तो नहीं करती


देखिये !क्योंकि मैं तुम से सच कहता हूं, यदि तुम्हारा विश्वास राई के दाने के बराबर भी हो, तो इस पहाड़ से कह स को गे, कि यहां से सरककर वहां चला जा, तो वह चला जाएगा; और कोई बात तुम्हारे लिये अन्होनी न होगी।-मति 17/20 


उपसंहार


भारत से अंग्रेज चले गये, अंग्रेजी भी विदा ले रही है किंतु अंग्रेजियत आज भी भारतीय हृदय और मस्तिष्क को निर्बल बना रही है और इस अंग्रेजियत का विशाल प्रासाद ईसाइयत की नींव पर दृढ़ है । आज ईसाइयत का प्रचार भारत में दिन दूना और रात चौगना बढ़ रहा है । पादरी लोग अनपढ़ जनता को बहकाकर और श्री ईसा की करामातों की डींगें मार कर उनको ईसाइयत के चंगुल में फँसा लेते हैं । यदि पाठकवृन्द इस पुस्तक का पठन-पाठन करेंगे तो उनको ज्ञान हो जायगा कि उनके कथन में रंच मात्र भी सत्यता नहीं है ।


आज हम हिन्दू लोग यह कह कर अलग हो जाते हैं कि जी हमें क्या, कोई ईसाई होता है तो होने दो। इस अकर्मण्यता का परिणाम यह हुआ कि आज ईसाई लोग दिन दहाड़े हिन्दू धर्म पर डाका डाल रहे हैं । धन और भूमि का लोभ निर्धन हिन्दुओं को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। आज आवश्यकता इस बात की है कि उनके इस प्रचार के विरुद्ध डटकर मुक़ाबला किया जाय और जहाँ कहीं भी ईसाई मिलें उनसे शास्त्रार्थ किया जाय। अन्त में हमारा सरकार से निवेदन है कि वह इस अनुचित अत्याचार को कब तक देखती रहेगी ? इसके लिये आवश्यक कार्यवाही करे !


नश्तर को लेकर हाथ में फ़स्साद ने कहा । रग रग में ज़ख़्म है, मैं लगाऊँ कहाँ कहाँ ||


॥ इत्यालम् ॥

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