महात्मा गाँधी - ईसाई मत के समालोचक के रूप में
(महात्मा गाँधी का एक कट्टर ईसाई प्रचारिका से शास्त्रार्थ)
(लेखक-धर्मदेव वि० वा० विद्यामार्तण्ड)
कई पाठक महानुभावों को उपर्युक्त शीर्षक देख कर आश्चर्य होगा क्योंकि महात्मा गांधी जी के विषय में प्रायः यह माना जाता है कि वे ईसाइयत को भी पूर्णतया सत्य मानते थे, किन्तु यह धारणा ठीक नहीं है। इस विषय में महात्माजी का एक कट्टर ईसाई प्रचारिका 86 वर्ष की वृद्धा लेडी एमिली के साथ 25 जुलाई 1940 को सेवाग्राम में जो मनोरञ्जक शास्त्रार्थ हुआ था। उसका वृत्तान्त नव जीवन प्रेस अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित और श्री महादेव देसाई द्वारा सम्पादित Christian Mission in India नामक पुस्तक से देने से पूर्व मैं महात्माजी की 'आत्मकथा' से निम्न उद्धरण देना चाहता हूँ।
इस 'आत्मकथा' में महात्माजी ने पर लिखा है:-
'मेरी कठिनाईयों की जड़ बहुत गहरे में थी । एक मात्र ईसामसीह हो ईश्वर के पुत्र हैं, जो उन्हें मानता है वही मुक्ति का अधिकारी हो सकता है । यह बात मेरा मन किसी तरह स्वीकार करने को तैयार नहीं होता था । यदि ईश्वर का पुत्र होना सम्भव है तो हम सभी उसके पुत्र हैं। ईसा मसीह ने अपनी जान देकर अपने खून से संसार के सब पापों को धो डाला है। इस बात को अक्षरशः सत्य मानने को मेरी बुद्धि कबूल नहीं करती। इसके अलावा ईसाई लोगों का विचार है कि आत्मा केवल मनुष्यों में ही है, अन्य जीवों में नहीं है, एवं शरीर के विनाश के साथ ही उनका सब कुछ विनष्ट हो जाता है। इस बात से मेरा मन सहमत नहीं है । ईसामसीह को मैं एक त्यागी महापुरुष और धर्म गुरु के रूप में मान सकता हूँ। यह भी मैं स्वीकार करता हूँ कि ईसा की मृत्यु संसार में बलिदान का एक महान् दृष्टान्त छोड़ गई है । पर मेरा हृदय यह स्वीकार नहीं कर सका है कि उनकी मृत्यु ने संसार में कोई अभूतपूर्व या रहस्यपूर्ण प्रभाव डाल रखा है । ईसाई लोगों के पवित्र जीवन में मुझे कुछ ऐसा नहीं मिलता है जो अन्य धर्मावलम्बियों के पवित्र जीवन में नहीं मिलता। सात्विक दृष्टि से भी ईसाई धर्म के तत्वों में कोई ऐसी असाधारगता नहीं है और त्याग की दृष्टि से देखने पर तो हिंदू धर्म ही श्रेष्ठ प्रतीत होता है, मैं ईसाई धर्म को पूर्ण अथवा सर्व श्रेष्ठ धर्म मानने को तयार नहीं हूँ | जब प्रसङ्ग या उपस्थित होता है तो मैं अपने ईसाई मित्रों के आगे धर्म संबंधी यह हृदयोद्गार व्यक्त कर दिया करता हूँ पर मुझे इसका सन्तोषजनक उत्तर उनसे नहीं मिलता।' (आत्म कथा महात्मा गांधी कृत नवजीवन प्रेस, अहमदाबाद)
लेडी एमिली से शास्त्रार्थ
अब पाठक उस मनोरंजक शास्त्रार्थ का वृत्तान्त पढ़ें जो 24 जुलाई 1940 को सेवाग्राम में महात्मा गांधी और इङ्गलैण्ड की वृद्धा प्रचारिका लेडी एमिली के मध्य में हुआ और जिसका वृत्तान्त महात्मा जी के निज मन्त्री श्री महादेव भाई देसाई ने 'A Hot Gospeller' इस शीर्षक से Christian Mission in India नामक संग्रह ग्रन्थ में प्रकाशित कराया था । उसमें से निम्न अंश विशेष उल्लेखनीय है ।
लेडी एमिली ने ईसा मसीह के विषय में कहा कि 'Jesus Christ was the Son of God' अर्थात् ईसा मसीह ईश्वर का पुत्र था । इस पर महात्मा गाँधी जी ने उत्तर दिया 'And so we ही ( ईश्वर के पुत्र ) हैं । लेडी एमिली ने इसे अस्वीकार करते हुए कहा 'Jesus Christ was the only Son of God' अर्थात् ईसामसीह ईश्वर का एकमात्र पुत्र था।
इस पर महात्मा गांधीजी ने जो उत्तर दिया और इस ईसाई सिद्धांत से अपना स्पष्ट मत भेद प्रकट किया वह उस पुस्तक के निम्न शब्दों में उल्लिखित है :-
'It is there said Gandhi Ji that the mother (Lady Emily) and son (Gandhi Ji ) must differ with you. Jesus was the only begotten son of God. With me he was the son of God, no matter how much purer than us all, but every one of us is a son of God and capable of doing what Jesus did, if we but endeavour to express the Divine in us" (Christian Missions in India P. 282 )
अर्थात यहाँ माता ( लेडीएमिली ) और पुत्र ( गाँधी ) का घोर मत भेद है । आपके विचार में ईसा मसीह ईश्वर का इकलौता बेटा था पर मेरे विचार में वह ईश्वर का एक पुत्र था | चाहे हमारी अपेक्षा वह कितना ही अधिक पवित्र क्यों न हो। किंतु हम में से प्रत्येक ईश्वर का पुत्र है और वह कार्य कर सकता है जो ईसा ने किया । यदि हम अपने अन्दर ईश्वरीयता वा दिव्यता को प्रकट करने का यत्न करें।'
इस पर लेडी एमली ने महात्मा गाँधी जी के विचार से सहमति करते हुए कहा:-
'Yes that is where I think you are wrong. Christ is our salvation and without receiving Him in our hearts, we can not be saved' she added अर्थात् हाँ, यहाँ आपका विचार अशुद्ध है । ईसामसीह हमारे लिये मुक्ति दाता है और उसको हृदय में ग्रहण किये बिना हम रक्षा नहीं पा सकते।'
इस पर महात्मा गाँधी जी ने निम्न तर्क किया:-
'So those who accept the Christ are all saved. They need do nothing more ?' अर्थात इस प्रकार आपकी बात को मानने पर जो ईसा मसीह को मानते हैं वे सब रक्षा व मुक्ति पाते हैं । उनको और कुछ करने की आवश्यकता नहीं ? लेडी एमिली ने उत्तर दिया:-
We are sinners all, and we have but to accept Him to be saved अर्थात् हम सब पापी हैं और हमें रक्षा अथवा मुक्ति पाने के लिये केवल उसको स्वीकार कर लेने की आवश्यकता है।
महात्मा गाँधी जी ने इस पर व्यङ्ग पूर्ण भाषा में कहा:
And then we may continue to be sinners ? Is that what you mean ?'और तब हम पापी बने रहें ? क्या आपका यही मतलब है ? इत्यादि ।
विस्तार भय से इस मनोरंजक संवाद वा शास्त्रार्थ का इतना अंश उल्लिखित करना ही पर्याप्त है जिससे स्पष्ट है कि महात्मा गाँधी जी ईसाई मत की बहुत सी बातों को सत्य और युक्ति युक्त नहीं मानते थे । रूस के सुप्रसिद्ध विचारक टालस्टाय ने जिसे महर्षि के नाम से भी पुकारा जाता है तो ईसाई मत की आलोचना करते हुए 'What is Religion' में यहाँ तक लिख दिया कि
"Really no religion has ever preached things so evidently incompatible with contemporary knowledge or so immoral, as the doctrines preached by church-Christianity” ( What is Religion by Tolstoy p.18 )
अर्थात् वास्तव में किसी मत ने इतनी स्पष्ट वर्तमान ज्ञान विज्ञान विरुद्ध और अनैतिकता पूर्ण बातों का प्रचार नहीं किया जितना गिर्जा घरों में प्रचारित ईसाइयत ने।इसके टालस्टाय ने बहुत से उदाहरण बाइबल के पुराने और नये वसीयत नाम से दिये हैं जिनको फिर कभी टालस्टाय, बनार्डशा और महर्षि दयानन्द का इसाई मत के समालोचक के रुप में तुलनात्मक अनुशीलन करते हुए हमारा दिखाने की विचार है । वस्तुतः महर्षि दयानन्द की समालोचना तो अन्य समालोचकों की अपेक्षा बहुत नर्म है ।
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