Tuesday, November 20, 2018

हुसैन की कला और कलाबाजी



हुसैन की कला और कलाबाजी...
[ यह लेख पुराना है, पर आज भी प्रासङ्गिक है। ]
भारत के लोग दिवंगत व्यक्तियों के प्रति अप्रिय सत्य सामान्यतः नहीं कहते। किन्तु राजनीतिक लोगों और राष्ट्रीय प्रश्नों पर यह सलीका छोड़ना पड़ता है। फिर भी यदि नीचे कही गई बातें किन्हीं को अवसर के उपयुक्त न लगे तो उसे निवेदन है कि मुल्कराज आनंद के निधन पर खुशवंत सिंह का लिखा लेख पढ़कर देखें। फिर इस हिन्दी लेखक को भी अपनी बात कहने की अनुमति दें। वैसे भी, एकतरफा बातें न केवल न्याय-भावना के विरुद्ध है, बल्कि वास्तविक बौद्धिक विमर्श के लिए भी हानिकारक है। अस्तु।
भारतीय मूल के चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन के देहांत पर एक बड़े अंग्रेजी अखबार तथा एकाधिक समाचार चैनलों ने संपूर्ण भारत को नीचा दिखाने की हरकत की है। मानो भारत ने हुसैन जैसे ‘महान कलाकार’ को ‘निर्वासन’ दे दिया था! सच यह है कि हुसैन न महान कलाकार थे, न उन्हें किसी ने निर्वासित किया। वह धन कमाने वाले एक सफल प्रोफेशनल थे, और विदेश जा बसना भी उन्होंने बिजनेस की सुविधा के लिए तय किया था। यह दोनों बातें प्रमाणित सत्य हैं, जो इसलिए कही जानी चाहिए क्योंकि हमारे उच्च वर्ग का एक पतित हिस्सा अपने ही देश पर कालिख पोतने में लगा है।
हुसैन ने बंबइया फिल्मों के होर्डिंग, पोस्टर बनाने से अपना कैरियर शरू किया था, यानी पैसे के लिए प्रायोजित पेंटिंग। कहना चाहिए कि उन्होंने आजीवन इसी तरह का कार्य किया। वह 60 साल की उम्र में भी ‘दरबारी पेंटर’ थे। यह बात सुप्रसिद्ध अंग्रेजी मासिक "सेमिनार" की संस्थापक राज थापर की संस्मरणात्मक पुस्तक "ऑल दीज इयर्स" (1991) में लिखी है। हुसैन ने इंदिरा गाँधी के इमरजेंसी वाले "बीस सूत्री कार्यक्रम" के लिए बीस घोड़े बनाए थे। यदि यह कला है, तो हर भाषण-पर्चे लिखने वाला महान लेखक कहा जाएगा। जीवन के अंतकाल में भी हुसैन दोहा (कतार) के राजपरिवार द्वारा दिए गए विषय पर पेंटिंग बना रहे थे। बल्कि, उन कामों से होने वाली आय पर टैक्स बचाने की गरज से उन्होंने कतार की नागरिकता ली थी। इस प्रकार, कैरियर की शुरुआत में ही नहीं, पूरी तरह सफल पेंटर के रूप में जम जाने के बाद भी वे प्रायोजित पेंटिंग करते रहे।
हुसैन साहब ने ऐसे काम अपवाद स्वरूप नहीं किए थे। वै सदैव ऐसे ही प्रोफेशनल रहे। 1970 के दशक में भारतीय राज्यसत्ता का दरबार बड़ा था, 1990 के दशक से बड़ी-बड़ी कारपोरेट कंपनियों, तथा विदेशी दाताओं का हो गया। जो उन दाताओं की रुचि, चाह या बिकाऊ संभावना हो, वैसी चीजें हुसैन बनाते रहे। इस में भी कुशलता प्राप्त करना, उससे करोड़ों रूपयों कमाना भी एक प्रशंसनीय सफलता है। किन्तु इन कामों को कला कहना कला की हैसियत गिराना है। जैसे कोई डिजाइनर कुर्ता सिलने वाले दर्जी को कलाकार नहीं कहा जा सकता। उसी तरह हुसैन की पेंटिगें मूढ़ धनाढ्य लोगों के घर या ऑफिस की सजावट की चीज है। चमकते काँच को हीरा समझ लेने वाले ही उस रेखाओं को कला कह सकते हैं जो हुसैन खींचते रहते थे। हुसैन को पिकासो बताने वाले क्या उनकी कोई पेंटिंग याद कर सकते हैं जो प्रसिद्ध हुई हो? या अपनी कलात्मक खूबी के कारण ध्यान में आती हो?
यहाँ भारत के दूसरे प्रसिद्ध चित्रकार सैयद हैदर रजा की पेंटिंगों से हुसैन के काम की तुलना कर सकते हैं। रजा और हुसैन ने एक साथ काम शुरु किया था। रजा भी 90 वर्ष के हो चुके हैं, और लगातार साठ वर्ष पेरिस में रहकर भी उन्होंने भारतीय नागरिकता नहीं छोड़ी। हाल में पुनः भारत लौटकर अपनी कला और चिंतन में डूबे हैं। जबकि हुसैन ने 94 वर्ष की आयु में भारतीय नागरिकता छोड़कर कतार की ले ली, यह कहते हुए कि इससे उन्हें काम में सुविधा रहेगी। वस्तुतः नागरिकता लेने से पहले ही पाँच वर्षों से वे कतार में रह रहे थे, और अपने को ‘भारतीय मूल का’ पेंटर कहने लगे थे। यह उनके देश-प्रेम की वास्तविकता है। नहीं तो वे कतार की नागरिकता पाकर ‘गौरवान्वित’ होने का बयान नहीं देते। सभ्यता, संस्कृति, वैभव, इतिहास, लोकतंत्र आदि किसी पैमाने पर कतार कोई महान देश नहीं है। यह केवल धंधे के लिए लाभकारी स्थान है जो हुसैन स्वयं स्वीकार करते थे। इसीलिए उन्होंने यह भी संकेत दिया था कि आगे वे कोई और देश भी जा सकते हैं। इसीलिए हुसैन के देश-बदल करने पर भारत सरकार और हिन्दू समाज की छीछालेदर करना एक राजनीतिक धूर्तता है। ऐसा करने वाले पत्रकार और बुद्धिजीवी देश के लिए घातक हैं।
पिछले वर्ष जब हुसैन ने कतार की नागरिकता ली, तो 3 मार्च को एक समाचार चैनल को दिए इंटरव्यू में स्वयं कहा था कि टैक्स बचाने की इच्छा, अपनी बड़ी मह्त्वाकांक्षी परियोजनाओं के लिए प्रायोजक ढूँढने, उन योजनाओं को पूरा करने की चाह, आदि उनके देश-बदल के कारण थे। यह लालसा 94 वर्ष की आयु में! मगर वस्तुतः बात इससे भी आगे है। जब भारत में उनके चित्रों की ब्रिक्री की अदायगी विदेशों में की जाने लगी, और फिर वही रकम किसी दान-खाते या दूसरे खाते में भारत भेजी जाने लगी – तब प्रवर्तन विभाग के अधिकारियों ने इस गैर-कानूनी गतिविधि पर ऊँगली रखी। दूसरे शब्दों में, मनी-लाँड्रिंग के आरोप का निपटारा करना भी हुसैन के देश-बदल का एक कारण था।
यह तो हुई, उनके ‘निर्वासन’ की बात। जहाँ तक कला-गुणवत्ता की बात है, तो हुसैन की पेंटिगें उत्तेजक, निरुद्देश्य या अत्यधिक दुहराव भरी हैं। जो पेंटिंगे हुसैन ने स्वेच्छा से बनाई हैं, उन्हीं में हिन्दू देवी-देवताओं की बेहद गंदी, बेहूदी पेंटिगें भी हैं। उन पेंटिगों का बचाव करने वाले भी आज तक उसकी व्याख्या या विश्लेषण के नाम पर दो पंक्ति भी नहीं लिख सके। अधिक से अधिक केवल पेंटर की ‘अभिव्यक्ति स्वतंत्रता’ का तर्क दिया गया। पर ध्यान दें, कम से कम हुसैन ने वह तर्क नहीं दिया। इतना वे अच्छी तरह जानते थे कि उसमें की गई अभिव्यक्ति क्या थी! अतः उन भद्दी पेंटिंगों के बचाव में जो तर्क दिए जाते हैं, वह अंग्रेजी मीडिया में हुसैन के यार-दोस्त देते रहे हैं। उन पेंटिंगों की कला-मूल्यवत्ता यही है कि उन पर जब तक कोई विवाद नहीं हुआ था, तब भी पत्र-पत्रिकाएं उन्हें नहीं छापती थी। क्या इस से भी स्पष्ट नहीं होता कि उन पेंटिगों में कैसी महान कला थी?
दरअसल, भारत में हुसैन के स्व-घोषित समर्थक उनके प्रशंसक होने से अधिक भारत के स्थाई निंदक हैं। एक प्रकार के मनोरोगी, जिन्हें हर घटना केवल भारत, विशेषकर हिन्दू समाज को नीचा दिखाने का एक अवसर मात्र होता है। अपनी गंदी और भद्दी पेंटिगों पर बचाव में स्वयं हुसैन ने एक शब्द नहीं कहा। बल्कि एक बार बंबई में किसी प्रदर्शनी में लगे उनके ऐसे चित्रों पर जब आपत्ति उठी तो उन्होंने माफी माँग कर चित्र हटा लिए। यदि हुसैन के पास उन गंदी तस्वीरों के कला-मूल्य के लिए कहने को कुछ नहीं, तो हिन्दू परिवारों में जन्मे सेक्यूलर-वामपंथी क्यों कुतर्क करते हैं? यह प्रश्न हमारे लिए अधिक चिंतनीय होना चाहिए।
यह संयोग नहीं कि मीडिया और बौद्धिक मंचों पर हुसैन की पेंटिंगों की कलात्मक मूल्यवत्ता का प्रश्न उठाया ही नहीं जाता। क्योंकि तब मनमानी लनतरानियाँ नहीं चलेगी। स्पष्ट बताना होगा कि घर-घर पूजी जाने वाली हिन्दू देवी को अपने वाहन पशु के साथ मैथुन-मुद्रा में दिखाने में क्या कलात्मक मूल्य है? इस पर मौन रख कर कला-अभिव्यक्ति का तर्क नहीं चलेगा। इस में दूसरे कलाकारों, दर्शकों, समीक्षकों के विचार को भी महत्व देना होगा। इस का उत्तर देना होगा, जैसा प्रसिद्ध चित्रकार सतीश गुजराल ने पूछा भी थाः “क्या हुसैन इस्लामी विभूतियों के साथ वही प्रयोग कर सकते हैं जो उन्होंने हिन्दू देवी-देवताओं के साथ किया है?”
इस का उत्तर सबको वैसे भी पता है। हुसैन ने पैगम्बर मुहम्मद की बेटी फातिमा, स्वयं अपनी माँ, मदर टेरेसा आदि अनके गैर-हिन्दू अराध्यों के चित्र पूरे शालीन वस्त्रों में बनाए हैं। चुनौती दिए जाने पर भी उन्होंने इस्लामी श्रद्धा-प्रतीकों के एकाध गंदे चित्र या ‘कला-प्रयोग’ नहीं किए। अतः कई तरह से स्पष्ट है कि हिन्दू देवियों के अश्लील चित्र बनाने में अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के कानूनी तर्क के सिवा बचाव में कुछ और कहा नहीं जा सकता। और उसी कानून से हुसैन भागते रहे!
कुछ लोगो ने तसलीमा नसरीन से हुसैन की तुलना की है। इस पर स्वयं तसलीमा ने गहरी आपत्ति दर्ज की। पिछले वर्ष जनसत्ता में एक लेख में तसलीमा ने लिखा था, “हुसैन के सरस्वती की नंगी तस्वीर बनाने को लेकर भारत में विवाद हुआ तो मैं स्वाभाविक रूप से चित्रकार की स्वाधीनता के पक्ष में थी। मुसलमानों में नास्तिकों की तादाद बहुत कम है। मैंने मकबूल फिदा हुसेन के चित्रों को हर जगह से खोजकर कर देखने की कोशिश कि हिंदू धर्म के अलावा किसी और धर्म, खासकर अपने धर्म इस्लाम को लेकर उन्होंने कोई व्यंग्य किया है या नहीं? लेकिन देखा कि बिल्कुल नहीं किया है बल्कि कैनवास पर अरबी में शब्दशः अल्लाह लिखते हैं। हिंदुत्व पर अविश्वास के चलते ही उन्होंने लक्ष्मी और सरस्वती को नंगा चित्रित किया। क्या वे मोहम्मद को नंगा कर सकते हैं? मुझे यकीन है, नहीं कर सकते।…हुसैन भी उन्हीं धार्मिक लोगों की तरह हैं जो अपने धर्म में तो विश्वास करते हैं लेकिन दूसरे लोगों के उनके धर्म में विश्वास की निंदा करते हैं।” वस्तुतः तसलीमा ने ही नहीं, कई भारतीय मुस्लिमों ने भी हुसैन के कामों का समर्थन नहीं किया।
इसलिए हुसैन को निर्वासित और महान कलाकार कहना घोर अज्ञान है। वे एक प्रसिद्ध पेंटर थे, कतार के नागरिक थे, और लंदन में उनकी मृत्यु हई। उनके प्रति सम्मान दर्शाने में भारत पर आक्षेप करना नितांत अनुचित है।
लेखक : डॉ. शंकर शरण

No comments:

Post a Comment