"राम कृष्ण को ऐतिहासिक महापुरुष समझकर उनका जीवन चरित्र पढ़ो और उनके आचरणों का अनुसरण करो।"
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वेद के इस मन्त्र में राम शब्द आया है।
वेद के इस मन्त्र में राम शब्द आया है।
भद्रो भद्रया सचमान आगात्स्वसारं जारो अभ्येति पश्चात्।
सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन् रुशद्भिर्वर्णैरभि रामस्थात्।।
【सामवेद उत्तरार्चिक १२/५/३ (१५४८) ऋग्वेद १०/३/३]
सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन् रुशद्भिर्वर्णैरभि रामस्थात्।।
【सामवेद उत्तरार्चिक १२/५/३ (१५४८) ऋग्वेद १०/३/३]
यहां 'राम' शब्द आया है। सायणाचार्य इसका अर्थ कहते हैं, 'रामकृष्ण शार्वरतमः' अर्थात राम कहते हैं रात के काले अंधेरे को। इससे मालूम होता है कि सायण के समय में भी कोई यह नहीं मानता था कि वेदों में ईश्वर-अवतार है।
यह संभव है कि राम को पहले लोग राजा के अर्थ में ईश्वर कहते हों क्योंकि ईश्वर का अर्थ राजा भी है और परमात्मा भी। (प्रश्न) 'ईश्वर' शब्द अकेला राजा के अर्थ में कभी नहीं आता। केवल समास में आता है। (उत्तर) यह गलत है। तुमने पढ़ा नहीं, हम प्रमाण देते हैं।
अपि त्वामीश्वरं प्राप्य कामवृत्तं निरंकुशम्।
न विनश्येत् पुरी लंका त्वया सह सराक्षता।।
न विनश्येत् पुरी लंका त्वया सह सराक्षता।।
यह वाल्मीकि रामायण का श्लोक है। मारीच रावण से कहता है कि कहीं ऐसा न हो कि तुझ निरंकुश और कामवृत्त राजा को पाकर लंका राक्षसों और तेरे सहित नाश हो जाय।
और लो।
ईश्वरस्य निशाटानां विलोक्य निखिलां पुरीम्।
कुशलोन्वेषणस्याहमायुक्तो दूत कर्मणि।।
(भट्टिकाव्य ८/१५)
कुशलोन्वेषणस्याहमायुक्तो दूत कर्मणि।।
(भट्टिकाव्य ८/१५)
अर्थ -- हनुमान कहते हैं कि मैं निशाचरों के स्वामी रावण की समस्त पुरी को देखकर सीता के अन्वेषण के लिए दूत कर्म में नियुक्त हूं।
इन दोनों श्लोकों में समास न होता हुआ भी 'ईश्वर' शब्द केवल राजा के लिए आया है। संभव है पहले राम को भी कहीं-कहीं ईश्वर शब्द से संबोधित किया हो फिर भूल से लोग राम को परमात्मा समझने लगे हों।
वस्तुतः राम और कृष्ण दोनों ईश्वर के भक्त थे। उनके संध्या करने का वर्णन पाया जाता है। यदि ईश्वर होते तो अपनी ही संध्या कैसे करते ? पीछे से लोगों ने उनके विषय में बहुत सी झूठी कथाएं जोड़ ली हैं। उनकी मूर्तियां बनाकर पूजते और उनके चढ़ावे से अपनी जीविका करते हैं। यह लज्जा की बात है। ईश्वर अवतार नहीं लेता, केवल जीव अवतार लेता है। चींटी, हाथी, कुत्ता, बिल्ली, मनुष्य यह सब जीव के अवतार हैं क्योंकि जीव निर्बल है। इसको अपने काम के लिए शरीर की जरूरत होती है। इसलिए जीव उस समय तक अवतार लिया करता है जब तक उसकी मुक्ति नहीं होती। जीव के कर्म जितने बुरे होते हैं उतना ही नीचे उसका अवतार होता है, क्योंकि अवतार का अर्थ ही है उतरना या नीचे गिरना। अभौतिक चेतन जीव जब जड़ शरीर में उतरता है तब इसी को जीव का अवतार कहते हैं, परंतु जीव का यह अवतार उपासना के योग्य नहीं है। उपासना के योग्य केवल परमात्मा है जो निराकार और निर्विकार और अजन्मा है। इसलिए उसको वेदों में 'अज एकपात्' कहा है। उसी की उपासना करनी चाहिये। राम कृष्ण को ऐतिहासिक महापुरुष समझकर उनका जीवन चरित्र पढ़ो और उनके आचरणों का अनुसरण करो। परंतु उनकी मूर्ति बनाकर उनको ईश्वर के स्थान में मत पूजो, क्योंकि ईश्वर के स्थान में अन्य को पूजना पाप है।
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स्रोत - वैदिक मान्यताएं।
लेखक - पं० गंगाप्रसाद उपाध्याय।
प्रस्तुति - आर्य रमेश चन्द्र बावा।
स्रोत - वैदिक मान्यताएं।
लेखक - पं० गंगाप्रसाद उपाध्याय।
प्रस्तुति - आर्य रमेश चन्द्र बावा।
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