Monday, November 19, 2018

कुरान में वेदांश (भाग-२,३)



कुरान में वेदांश (भाग-२,३)
(यह लेख तीन भागों में लिखा गया है)
✍🏻 लेखक - पंडित चमूपति एम॰ए०
🌻 भाग-२
🌺 सृष्टि के आदि में ईश्वरीय ज्ञान
सृष्टि के आदि में ही ईश्वरीय ज्ञान का आविर्भाव कैसे हुआ? इस विषय में मुहद्दस (हदीस को जानने वाला) इब्न खुर्रम की सम्मति का प्रमाण दिया है, “तो यह बात आवश्यक ठहरी कि एक अथवा एक से अधिक इस प्रकार के मनुष्य पाए जायें जिनको ईश्वर ने ये विज्ञान व कलायें आरम्भ में बिना गुरु के अपनी प्रेरणा से सिखाईं और यही नबी की विशेषता है।''
संकेत स्पष्ट है । भले ही यह किसी प्रयोजन से अथवा यह भी सम्भव हो सकता है कि किसी विशेष प्रयोजन के बिना लिखा गया हो । इस उद्धरण में शब्द ‘एक से अधिक' विशेष रूप से ध्यान देने योग्य हैं । एक से अधिक तो वेद ही के ऋषि हैं और वे सृष्टि के आदि में हुए । बहिशत दोजख कयामत आदि को मौलाना शिब्ली केवल अलङ्कार मानते हैं । शाहबली# के प्रमाण से बुराक - वह पशु जिस पर चढकर मुहम्मद साहेब आसमानों पर गये थे । पैगम्बरों से मिलना, आसमानों पर चढना को कुछ कुछ आलम उपमा, उदाहरण और कुछ कुछ जागृत अवस्था के तथ्य मानतें है।
(# शाहवली एक नामी मुस्लिम विद्वान् व कुरान के भाष्यकार हुए हैं। इन्हीं के दो पुत्रों के कुरान के भाष्यों से महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में कुरान की आयतों के अर्थ दिये हैं। इनके नाम थे शाह रपीउद्दीन व शाह अब्दुल कादिर।)
ईश्वर के प्रकरण में सम्भवत: यह उद्धरण अप्रासंगिक प्रतीत हो परन्तु वास्तविक बात यह है कि धर्म में ईश्वर, पैगम्बर, अनादि पदार्थों की एकता, बहिश्त तथा एक दूसरे से गहरा सम्बंध रखने वाले विषय हैं । जिस धर्म के सिद्धान्तों में ईश्वर
अतिरिक्त भी नित्य पदार्थ हों और हों भी वाजबउलवजूद (स्वतन्त्र सत्ता ईश्वर के समान) और उनके गुणों का नाश न हो सके तो उसमें नियम की व्यवस्था ही सब पर नियन्त्र रखती है । ऐसी अवस्था में देववाद (ईश्वरेच्छा, अल्लाह जो चाहे-सुख दे या दु:ख दे) के लिए कोई स्थान नहीं रहता । यही स्थिति दोज़ख व बहिश्त की है । दु:ख को नरक और सुख को स्वर्ग समझ लो और उसका क्षेत्र इस संसार को मान लो । बस फिर तो अनगिनत भ्रान्तियों से बड़ी सरलता से छुटकारा हो जाता है।
ईश्वर का राज्य केवल अलौकिक होकर केवल इस लोक की समस्याओं का सैद्धान्तिक निर्णय नहीं करता प्रत्युत्त इस लोक के आचार विचार में पथप्रदर्शक का कार्य भी करता है। धर्म केवल मरणोपरान्त अवस्था के लिये ही न होकरे, इस जीवन के लिए भी एक अनोखी ज्योति बन जाता है ।
🌺 सारांश:- यह वह प्रभाव है जो आर्यसमाज के प्रचार का अन्य मतों के दार्शनिक दृष्टिकोण पर पड़ा है वेद के युग से इहै व सम्ध्वम (इस संसार में अलौकिक आनन्द प्राप्त करो) की सारपूर्ण गूंज सुनाई देती है । इस सारे निबंध में मैंने कुरान के प्रमाणों से सिद्ध किया है कि :
१. ज्ञान का स्रोत ईश्वर है। उसका प्रथम प्रकाश मानव जाति के एक होने के रूप में नबी-अन अर्थात् दो से अधिक ऋषियों के हृदय में हुआ ।
२. अनादि पदार्थ केवल खुदा ही नहीं प्रत्युत्त जीव व प्रकृति भी हैं। सृष्टि व प्रलय का अनादि प्रवाह सदा से चला आ रहा है । ईश्वर सृष्टिकर्ता है परन्तु उसका उपादान कारण पहले से ही विद्यमान रहता है । प्रत्येक सृष्टि ‘यथा पूर्वम् ' जैसी के पहले सृष्टि थी उसी उत्पत्ति के अनुरूप ही होती है ।
३. जीवों का सुख दुःख उनके कर्म व आचरण का परिणाम है । फल भोगने की प्रक्रिया पुनर्जन्म के रूप में सदा चलती रहती है ।
४. अहिंसा परम धर्म है । यज्ञ का यही प्रधान अंग है । अल्लाह को पशुओं का रक्त नहीं प्रत्युत्त शुद्ध आचरण (परहेजगारी) पहुँचती है। भोजन पवित्र वस्तुओं को करना चाहिये ।।
५. ईश्वर न्यायकारी व दयालु है । उसके रंग में सबको रंग जाना चाहिये । वास्तव में प्राचीन (पूर्व के ) लोगों का चलन है, मर्यादा है जिसे अरबी सन्देश देने वाले पुनर्जीवित करते चले आए हैं । यदि चौदहवीं शताब्दी के मुसलमान इस पुरानी आवाज़ को सुनें और इसे अपने विश्वासी हृदयों में स्थान देवें तो इस्लाम वैदिक धर्म का अरबी रूप हो जावे और ऋषि दयानन्द का यह कथन कि “जो इस कुरान में वेदानुकूल है वह मुझे और सब विद्वानों को मान्य है ।'' पूर्णरूपेण सफल हो ।
ऋषि का उद्देश्य था सर्वतन्त्र सिद्धान्तों का प्रचार । उनकी दिव्य दृष्टि ने इन स्वतन्त्र सिद्धान्तों की झाँकी प्रत्येक तन्त्र, प्रत्येक धर्म सम्प्रदाय के मान्य ग्रन्थों में देखी थी । वेद विरोधी मतों का खण्डन करते हुए स्थान-स्थान पर प्रत्येक मत की समीक्षा की अनुभूमिका और विहंगम दृष्टि से दिये गये सार में इस बात पर विशेष रूप से बल दिया कि इन सब मतों में एक समानता का अभेद का सूत्र है (अर्थात् एक बात सबमें एक जैसी है) और वही वैदिक धर्म है। मैंने इस लेखमाला में इस सूत्र का केवल एक सरल साधारण सा नमूना (Sample) कुरान की आयतों में दिखाने का यत्न किया है ।
प्रभु से प्रार्थना है कि सारा संसार इस सूत्र का दर्शन करे जिससे मनुष्यों के विचारों में एकता उत्पन्न हो । परस्पर प्रीति बढ़े और वेद के इस आदेश का पालन संसार की समस्त जातियों व व्यक्तियों के आचरणों में हो:
🔥 ते अज्येष्ठो अकिनष्ठास एते सं भातरो वाहधुः सौभाग्य।
सब मनुष्य परस्पर भाई भाई हैं । इसी भाव से समृद्धि के लिए आगे बढ़े । कोई छोटे बड़े का कृत्रिम भेदभाव न रखें ।
🌻 भाग-३
इस्लाम तथा विचार स्वातन्त्रय तथा अहिंसा पर्याय होने चाहियें क्योंकि इस्लाम के शाब्दिक अर्थ हैं शान्ति । अन्य मतों की भाँति इस्लाम का आरम्भिक प्रयोजन शान्ति की स्थापना ही था । लोग अंधविश्वास में फंसे हुए थे । मज़हबी मुल्लानों के अन्याय से दुखी थे । हज़रत मुहम्मद के विचार इसी दूषित अवस्था को पलट देने के थे । उन्होंने इसी विचार को दृष्टि में रखते हुये इस्लाम का प्रचार किया । प्रत्येक धर्म प्रचारक की भाँति उनका भी विरोध हुआ । लोगों ने उनको व उनके पीछे चलने वालों को अपशब्द कहे । तंग किया और शारीरिक कष्ट भी दिये । यह दुर्बल थे शत्रु प्रबल था । उन्होंने धैर्य रखा तथा अपने साथियों को भी धैर्य रखने की प्रेरणा दी । कुरान की वे आयतें वास्तविक धर्म का नमूना हैं । धर्म नाम ही सहनशीलता को है । कुरान की ११९ वीं सूरत में ख्यालात की आजादी ( विचार स्वातन्त्रय) के ही गीत गाये गये हैं । लिखा है:-
१. ऐ मुहम्मद ! कह, ऐ वे लोगो जो नहीं मानते ।
२. मैं नहीं पूजा करता उसकी जिसके तुम उपासक हो ।
३. न तुम उपासना करते हो उसकी जिसका मैं उपासक हूँ।
४ न मैं भक्ति करूंगा उसकी जिसकी कि तुम भक्ति करते हो।
५. न तुम उपासक बनोगे उसके जिसकी मैं भक्ति करता हूँ।
६. तुम्हारे लिये तुम्हारा दीन ( विश्वास, मत Faith) और मेरे लिये मेरा दीन ( विश्वास, मान्यता )।
इन आयतों के नजूल (उतरने) का यह कारण बताया जाता है कि विरोधियों ने हजरत से माँग की, आग्रह किया कि वह उनके मत को स्वीकार कर लें । उनके उत्तर में ये आयतें उतरीं। उसके पश्चात् एक समय वह आया जब मुहम्मद साहेब को मुसलमानों की संख्या बढ़ाने की बड़ी चाह हुई। विरोधी चमत्कार माँगने लगे। अनुयायिओं की भी यही माँग थी कि चमत्कार दिखाकर ही सच्चे दीन ( पंथ ) का प्रचार हो। इस पर ये
आयतें उतर आई:-
१. यदि वे मुसलमान बन जायें तो वे वास्तव में (मूल में शब्द हैं- फी अल साते मुस्तकीम।) सन्मार्ग पर चलने वाले होंगे परन्तु यदि वे हट जायें तो मेरा काम उन तक पहुँचा देना है। ( सूरते आल अमरान )
२. जो लोग तुझसे हट जायें, हमने तुम्हें उन पर निरीक्षक बनाकर नहीं भेजा। (४१८२)
३. कह ! मैं तुम्हारा निरीक्षक नहीं हूँ। (सूरते मायदा)
४. और उन्हें तज दे जो दीन को खेल समझते हैं। (सूरते मायदा)
५. जो सत्य मार्ग पर आएगा, वह अपने भले के लिए ही सीधी अच्छी राह पर चलेगा।
६. काफिरों के साथ शान्ति का व्यवहार कर और कुछ समय के लिये उन्हें छोड़
७. यदि तेरा खुदा चाहता तो धरती के सब लोग विश्वास करते । क्या उन पर बल प्रयोग करेगा कि वे विश्वास कर लें ।
इस भाव को एक और प्रकार से ऐसे व्यक्त किया है:-
🔥 प्रत्येक जाति के लिये बनाया ढंग उपासना का । (सूरते हज)
एक अन्य स्थान पर स्पष्ट लिखा है:-
🔥 दीन में (मत में) बल प्रयोग नहीं । (सूरत यानी आयत १५६)
इस आयत के उतरने का समय ऐसा बताया जाता है जब मुसलमान का पुत्र ईसाई होकर ईसाइयों के ही साथ यात्रा पर चला गया । उसके पिता ने चाहा कि उसका पीछा करके उसे मुसलमान बना लिया जाए। परन्तु इस आयत के द्वारा उसे ऐसा करने से रोक दिया गया। यह सब कुरान में आता है तथा किसी भी निष्पक्ष पाठक को उनमें सहनशीलता के अरबी धर्म की मीठी तान सुनाई देगी। इनमें शान्ति है। धार्मिक उदारता है। तबलीग (इस्लाम के प्रचार) की चाहना अधीर करती भी है तो उसे दिव्य धीरता रोक लेती है। कोई चुपके से कह जाता है हक धार्मिक विचार-भेद ईश्वर को स्वयं स्वीकार्य हैं।
🔥 जनं विभ्रती बहुधा विवाचसं ।
नाना धर्माणं पृथिवी यथौकसम्।। अ. १२/१/४५
पृथ्वी भिन्न-भिन्न बोलियाँ बोलने व देश काल के अनुसार विभिन्न स्मार्त (स्मृति का धर्म) धर्मों का अनुसरण करनेवाले मनुष्य समाज को धारण करती है ।
अथर्ववेद का यह सुप्रसिद्ध मन्त्र धीरे से अपनी गूंज अरबी मुबल्लग (पैगम्बर) के सन्देश में मिला देता है परन्तु मौलाना लोगों को कुरान की शान्ति की शिक्षा एक आँख नहीं भाई । उन्होंने प्रत्येक ऐसे स्थल पर टिप्पणी चढ़ी दी कि यह आदेश तलवार के अथवा दूसरे शब्दों में जिहाद के द्वारा निरस्त (cancle) हो चुका है। वह जिहाद की आयत सूरते तोबा की पाँचवी आयत है जैसे:-
🔥 सो जब हराम के माह अर्थात्- पवित्र मास बीत जाये तो मारो मूर्ति पूजकों को जहाँ पाओ। उन्हें बन्दी बनाओ, घेरो व सब ओर उनकी घात में रहो। तब यदि वे तोबा करें नमाज़ पढ़े और ज़कात दें तो उनका मार्ग खुला छोड़ दो। (सूरते तोबा आयत ५)
एक अन्य स्थान पर लिखा है:-
🔥 मुसलमान उनको जो मुसलमान नहीं हैं मित्र ने बनायें, सिवाय मुसलमानों के, जो ऐसा करते हैं, वह किसी बात में अल्लाह का नहीं । सिवाय इसके तुम उनसे डरो तकवा (खुदा के डर व आचरण की शुद्धता) के अनुसार ।
इस आयत पर तफसीरे जलालीन में है:- ( सूरते आल अमरान आयत २६७)
“यदि किसी भय के कारण छल से मित्रता कर ली जाय और उनमें द्वेष न शत्रुता रहे तो इसमें कोई हानि नहीं जहाँ इस्लाम का पूरा प्राबल्य नहीं वहाँ अब भी यह आदेश लागू होता है। काफिर की मित्रता खुदा के क्रोध के कारण है।''
एक अन्य स्थान पर आता है:
🔥 और लड़ो उनसे यहाँ तक कि न रहे झगड़ा और होवे दीन अल्लाह के लिए। ( सूरते इनफ़-आल )
इस आयत का भाव यही समझा जाता है कि तलवार से इस्लाम ही को समस्त संसार का मत बना देने की आज्ञा है। क्योंकि अल्लाह का दीन (पंथ) इस्लाम ही है।
इन दो प्रकार की आज्ञाओं में स्पष्ट परस्पर विरोध है। इस परस्पर विरोध का भी स्पष्ट है। पहली आयतें ऐसे समय में उतरीं जब मुसलमान शान्ति चाहते थे , बाद की आयतें ऐसे समय में जब दोनों पक्षों में भयङ्कर युद्ध हो रहे थे । युद्ध की स्थिति बाद की है। विजय मुसलमानों की हुई। इसलिये इस स्थिति का मुसलमानों की दृष्टि में अधिक महिमा या महत्व हो गया। परिणाम यह निकला कि बाद की आयतों को प्रामाणिक (Authority) स्वीकार किया गया । इनसे पूर्व की आयतें एक बीता हुआ सपना हो गई। विजेता मुसलमानों के लिये शान्ति के अनुग्रह-प्रेरणा का प्रमाण-पत्र -- न रहा।
(विशेष टिप्पणी:- देश व मनुष्य समाज के सभी हितचिन्तक यही चाहेंगे कि हमारे मुसलमान बंधु विश्वमैत्री के लिए, विश्वशान्ति के लिये व मानवीय भाईचारे के लिये हठ दुराग्रह को तजकर जो उचित है सो करें । कुरान में जो शान्ति की, प्रेम की हितकारी शिक्षा है, वह ग्रहण करें जिससे विवाद फिसाद हो वे सबकुछ छोड़ दें। पं० श्री चम्पति जी का इस लेखमाला के प्रकाशन का यही उद्देश्य था। वे देश का हित चाहते थे । आशा है विचारशील भाई इस विनती पर ध्यान धरेंगे। ‘जिज्ञासु')
✍🏻 लेखक - पंडित चमूपति एम॰ए०
साभार - राजेंद्र जिज्ञासु जी (📖 पुस्तक -विचार वाटिका)
प्रस्तुति - 📚 अवत्सार

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