🔥 ओ३म् 🔥
🌷पुनर्जन्म पर आक्षेपों का उत्तर🌷
अब हम उन आक्षेपों का उत्तर देंगे जो विधर्मियों द्वारा किये जाते हैं। पुनर्जन्म पर आक्षेप किया जाता है कि इसके विषय में कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है। इस आक्षेप का उत्तर यह है कि संसार में कर्म और उसका फल सुख-दु:ख प्रत्यक्ष ही हैं। पुनर्जन्म भी कर्मफल का ही एक रुप है। अत: इसे प्रत्यक्ष ही मानना चाहिए।
आक्षेप― स्मृति के अनुसार भी पुनर्जन्म की कोई साक्षी नहीं है। कर्मों की स्मृति ही नहीं तो कैसे माना जाए कि इस जन्म के सुख-दु:ख पूर्वजन्म के कर्मों के फल हैं?
उत्तर― पूर्वजन्म की स्मृति की बात तो दूर रही, इस जन्म की घटनाओं की स्मृति मनुष्य को नहीं रहती। नौ मास तक गर्भ में रहने का हाल किसी को ज्ञात नहीं। पांच वर्ष की आयु का वृत्तान्त किसी को भी स्मरण नहीं रहता। सुषुप्ति में जागृत अवस्था का व्यवहार स्मरण नहीं रहता। यदि इस जन्म की यह अवस्था है तो पूर्वजन्म की स्मृति यदि मनुष्य को नहीं रहती तो इसमें क्या आश्चर्य है ! यदि पिछले सब दु:खों, कष्टों और क्लेशों की स्मृति मनुष्यों को बनी रहे तो उसका जीवन बिताना ही दुष्कर हो जाए। यदि पिछली सब घटनाओं की स्मृति बनी रहे तो उपयोगी बातें मस्तिष्क में नहीं समा पाएँगी। स्मृति के लिए विस्मरण भी आवश्यक होता है। पूर्वकृत सब कर्मों की स्मृति की आवश्यकता भी नहीं है, क्योंकि कर्मों के संस्कार आत्मा पर अंकित होते रहते हैं जो भावी जीवन के निर्माण में सहायक होते हैं।
आक्षेप― पशुओं की योनि में मनुष्यों के जीवात्माओं का जाना पशुओं पर किए गए अत्याचारों के बदले में माना जाता है, यह अनुचित है। प्रत्येक पशु अपनी ही योनि में प्रसन्न है। दण्ड के रुप में पशु-योनि में जाने की बात मानना ठीक नहीं है।
उत्तर― पशुओं और पक्षियों का अपनी योनियों में प्रसन्न रहना ईश्वर की कृपा और महिमा का परिणाम है। जैसे दास-दासियाँ, बेगार में काम लिये जाने वाले व्यक्ति और पागल, अपनी अवस्था में प्रसन्न रहते हैं, वैसी ही स्थिति पशु-पक्षियों की होती है। पाप-कर्मों का फल भोगने पर जब उन्हें मनुष्य योनि प्राप्त होती है तो वे मनुष्य-जीवन का आनन्द प्राप्त करते हैं और पिछले दु:खों को भूल जाते हैं।
आक्षेप– जन्म से सुखी-दु:खी, रोगी-निरोग और निर्धन-धनवान् होने का कारण पूर्वजन्म के कर्मों को मानना ऐसे ही है जैसे अँधेरी रात में किसी व्यक्ति को जाता हुआ देखें तो कह दें कि यह चोर ही है।
उत्तर― कार्य को देखकर कारण का अनुमान होता है। जेलखाने के कैदियों को देखकर अपराध का ज्ञान होता है और अपराध को देखकर कैद का पता चलता है। इसी प्रकार इस जन्म के सुख-दु:ख को देखकर पूर्वजन्म के कर्मों का अनुमान होता है। यदि ऐसा नहीं माना जायेगा तो भेद-भाव और पक्षपात का लांछन परमात्मा पर आयेगा।
आक्षेप― वर्तमान जन्म के सुख और दु:ख पूर्वजन्म के कर्मों का परिणाम नहीं हैं, अपितु ये तो ईश्वर की महिमा का परिचय देते हैं
उत्तर― वर्तमान काल के सुख-दु:ख ईश्वर की महिमा को प्रकट नहीं करते अपितु उसके अन्याय को प्रकट करते हैं। जब पूर्वजन्म के कर्मों के आधार के बिना ही ईश्वर किसी को निर्धन और किसी को धनवान्, किसी को मूर्ख और किसी को विद्वान्, किसी को राजा और किसी को रंक बना देता है तो क्या यह उसका अन्याय नहीं है?
आक्षेप― जन्म से लूले, लँगड़े, अंधे, बहरे, रोगी परिस्थितियों के परिणाम हैं। इसका पूर्वजन्म से कोई सम्बन्ध नहीं।
उत्तर― परिस्थितियाँ भी कर्मों के अनुसार बनती हैं। ये जन्मजात रोग पूर्व-कर्मों के परिणाम हैं।
आक्षेप― यदि ईश्वर दया न करे तो दुष्ट लोगों की प्रार्थना-याचना व्यर्थ सिद्ध होगी।
आक्षेप― यदि ईश्वर बुरे कर्मों को क्षमा करे तो संसार में पाप की वृद्धि होगी और वह अन्यायकारी कहलायेगा।
आक्षेप― तुम्हारे पूर्वज बुरे थे। यदि बुरे न होते तो आवागमन में न पड़ते।
उत्तर― किसी भी जाति के सभी पूर्वज न अच्छे होते हैं न बुरे। जो शुभ-कर्म करते हैं, उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। जिनके पुण्य अधिक होते हैं, वे देव अथवा विद्वानों के शरीर को प्राप्त होते हैं। जब पाप और पुण्य बराबर होते हैं तो मनुष्य का शरीर मिलता है। जब पाप अधिक होते हैं तो जीव पशु, पक्षी, कीट और पतंग योनि में जाता है। ये नियम सभी प्राणियों पर लागू होते हैं।
आक्षेप― कर्मफल-सिद्धान्त के अनुसार जो भी रोग हैं वे पिछले कर्मों के फल हैं। पिछले जन्म के कर्मों का फल रोगों के रुप में भोगना ही है तो चिकित्सा शास्त्र बेकार है।
उत्तर― जन्मजात रोग पूर्वजन्म के कर्मफल होते हैं। वर्तमान जीवन के कई रोग वर्तमान काल के कुपथ्य और लापरवाही के कारण होते हैं। वर्तमान काल के कई रोग, जिनके कारण हमारे सामने प्रत्यक्ष नहीं होते, वे भी पूर्वजन्म के कर्मों के कारण होते हैं। रोग चाहे पूर्वजन्म के कारण हो अथवा वर्तमान काल के कुपथ्य और लापरवाही के कारण, उनका उपचार भी आवश्यक है। परमात्मा ने ओषधियों में रोग-निवारण के गुण भर रखे हैं। यदि इन ओषधियों का सेवन न किया जाए तो फिर उनका बनाया जाना ही व्यर्थ है। परमात्मा की कोई रचना व्यर्थ नहीं होती।
आक्षेप― जब सुख-दु:ख कर्मों के फल हैं तो परोपकार करने की कुछ भी आवश्यकता नहीं।
उत्तर― सुख-दु:ख तो अपने कर्मों का फल है ही, परन्तु ह्रदय की पवित्रता, ईश्वर की कृपा का पात्र बनने और नए शुभ कर्म करने के लिए परोपकार भी आवश्यक है, अत: इन दोनों का आपस में कोई विरोध नहीं है।
आक्षेप― छोटे-मोटे बच्चों को हम रोगग्रस्त देखते हैं। ये रोग किन कर्मों के परिणाम हैं?
उत्तर― बच्चों के कष्ट इस जन्म के कर्मों का फल नहीं हैं। ये तो कर्म-बीज के फल हैं बीज अर्थात् पूर्व-कर्म यहाँ प्रकट नहीं हैं। बच्चों का जन्मजात अन्धापन, बहरापन, गूँगापन, लँगड़ापन, लूलापन, जन्मजात सुख-दु:ख और रोग पूर्वजन्मों के कर्मों के फल हैं। इनका और कोई उत्तर हो ही नहीं सकता।
आक्षेप― यह कैसे पता चले कि मनुष्य के शरीर में किसी दूसरे शरीर की आत्मा आई है?
उत्तर― किसी भी प्राणधारी की सूक्ष्मवृत्तियों का अध्ययन करने से यह ज्ञान हो सकता है कि आत्मा का सम्बन्ध पहले किस प्रकार के शरीर से था।
आक्षेप― परमात्मा ने पशुओं को एक विशेष प्रकार का स्वभाव प्रदान कर रखा है। वे उसी स्वभाव के अनुसार काम करते हैं। न वे अच्छे कर्म करते हैं और न बुरे। अत: उनके आत्मा मनुष्य-योनि में नहीं आ सकते।
उत्तर― पशुयोनि भोगयोनि होती है। जो मनुष्य अतिनिकृष्ट कर्म करते हैं वे ईश्वर की व्यवस्था के अन्तर्गत पशुयोनि को प्राप्त होते हैं। जब वे कर्मफल भोग लेते हैं तो मनुष्ययोनि को प्राप्त होते हैं, जैसे बन्दी बन्दीगृह की यातना को भोगकर बन्दीगृह से मुक्त कर दिए जाते हैं।
आक्षेप― मनुष्य की आत्माएँ पशुयोनि में जाकर उनके स्वभावानुसार कर्म कर ही नहीं सकतीं।
उत्तर― मनुष्यों की जो आत्माएँ पशुओं की योनि को धारण करती हैं, उन्हें पशुओं के स्वभावानुसार ही कर्म करने पड़ते हैं।
आक्षेप― जब पशु पाप-पुण्य करने में असमर्थ हैं तो उन्हें सुख-दु:ख और रोगों की प्राप्ति क्यों होती है?
उत्तर― पशुओं की योनि भोगयोनि होती है। इसमें वे केवल फल ही भोगते हैं। जिन रोगों और दु:खों के कारण ज्ञात हैं वे वर्तमान परिस्थितियों के कारण हैं। जिन रोगों व दु:खों के कारण अज्ञात हैं वे पूर्वजन्मों के कर्मों के कारण हैं।
आक्षेप― जीव शुभकर्म करते हैं और परमात्मा शुभ फल देता है तो वह एक स्वार्थी दुकानदार ठहरता है।
उत्तर― शुभ कर्मों का फल देने के नाते वह एक स्वार्थी दुकानदार नहीं ठहरता, अपितु न्यायकारी ठहरता है।
आक्षेप― यह कितनी लज्जास्पद बात है कि पुनर्जन्म के अनुसार हमारे माता-पिता, बुजुर्ग, बन्धु-बान्धव, और मित्र गधे, घोड़े, कुत्ते, सूअर और साँप बने, हम उनकी सवारी करें अथवा उनका सिर कुचलें।
उत्तर― जब तक आत्मा और शरीर का संयोग रहता है तब तक ये सम्बन्ध रहते हैं। जब आत्मा और शरीर का मृत्यु के समय वियोग हो जाता है, तब ये सम्बन्ध नहीं रहते।
आक्षेप― मनुष्य तो पाप करें और उनका फल पशु, पक्षी, कीट और पतंग भोगें, क्या यह अन्याय नहीं है?
आक्षेप― पाप और पुण्य का कर्ता एवं भोक्ता आत्मा होता है, शरीर नहीं। जो आत्मा पापकर्म करता है वही दूसरे शरीर में उनका फल भोगता है। शरीर न कर्म करता है और न फल भोगता है।
आक्षेप― अपराधी को उसके अपराध का ज्ञान कराये बिना दण्ड देना क्या घोर अन्याय नहीं है?
उत्तर― आत्माओं को अपने सब अच्छे कर्मों और सब बुरे कर्मों का ज्ञान हो ही नहीं सकता। यह अल्पज्ञ जीवात्मा का विषय नहीं, अपितु सर्वज्ञ परमात्मा का विषय है। अत: जीवात्मा को अपराधों का बोध नहीं हो सकता। वर्तमान काल के दु:ख और निर्धनता को देखकर पूर्वजन्म और पूर्वकृत पाप और अपराध का बोध करना चाहिए। अपराधी को यदि अपराध का बोध कराए बिना ही दण्ड दिया जाए तो वह अपराध के बोध से होने वाली मानसिक पीड़ा से बच जाएगा।
आक्षेप― आवागमन की मान्यता मनुष्य को पतन की ओर ले-जाने वाली है। कल्पना करो कि पूर्वजन्म में जो किसी की माता थी, वह इस जन्म में घोड़ी हो और वह उस पर सवारी करे तो क्या वह अपनी माता पर सवारी करता है?
आक्षेप― आत्मा का लिंग नहीं हुआ करता। लिंग शरीर का होता है, अत: यह प्रश्न अनर्गल है।
साभार―
["वैदिक धर्म का स्वरुप" पुस्तक से,लेखक–प्रा० रामविचार एम.ए.]
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