Wednesday, November 7, 2018

सगोत्र विवाह का निषेध क्यों?



सगोत्र विवाह का निषेध क्यों?

पं0 जगदेवसिंह सिद्धांती 

मनुष्य (चाहे पुरुष हो, चाहे स्त्री) में माता-पिता के रजःवीर्य के सम्बन्ध के कारण सन्तान रूप में शारीरिक रक्त आदि अंश अवश्य परम्परया पहुँचते हैं। यह आयुर्वेद का विशुद्ध वैज्ञानिक सिद्धान्त है। इस कारण समान रजः$वीर्य के मिलने में सन्तान में कुछ विशेषता उत्पन्न नहीं होती और भाई-बहिन आदि अनेक सम्बन्ध नष्ट हो जाने से सदाचार का नाश और व्यभिचार की वृद्धि होती है, अतः समान गोत्र में विवाह कभी नहीं होना चाहिये। माता आदि का गोत्र भी छोड़ा जावे तो और भी अच्छा है, परन्तु माता की सपिण्डता=छः पीढ़ियां तो अवश्य छोड़ देनी वैधानिक हैं। पिता- पितामह-प्रपितामह आदि क्रम से हजारों पीढ़ियों तक पीछे जाना गोत्र कहलाता है। 6 पीढ़ी तक के बालक सपिण्ड कहलाते हैं-अर्थात् 6 पीड़ी ऊपर तक जितने पितृ गोत्र और मातृ गोत्र में पुरुष होंगे वे परस्पर सिपण्ड कहलाते हैं। सातवीं पीढ़ी पर पहुँच कर मातृवंश की सपिण्डता समाप्त हो जाती है, क्योंकि वैज्ञानिक आधार पर माता के रक्त (रजः) का अंश बालक में 6 पीढ़ी तक अवश्य पहुँचता है; अतः इस मर्यादा का विवाह में कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिये, कि माता के वंश की पीढ़ियों के भीतर के परिवार की कन्या से विवाह सम्बन्ध नहीं होना चाहिये। पिता के वीर्य का साक्षात् सम्बन्ध अवश्य 14 पीढ़ी तक चलता है। उसको ‘‘समानोदक’’ कहते हैं। उदक नाम वीर्य का है। अतः पिता के वंश की 14 पीढ़ियाँ समानोदक कहलाती हैं। इन पीढ़ियों के भीतर के पुरुष=सम्बन्धी, बन्धु-बान्धव सनाभि, सकुल्य आदि नामों से पुकारे जाते हैं। इन सब का व्यापक शब्द परिवार और कुटुम्ब कहा जाता है। अनेक परिवारों के समूह को वंश कहते हैं। अर्थात् एक ही वंश में अनेक एक गोत्रीय परिवार रहते हैं। इसी प्रकार अनेक वंशों के समूह को गोत्र कहा जाता है। अर्थात् एक गोत्र में अनेक वंश होते हैं, जिनका गोत्र समान होता है। जब तक गोत्र का नाम बना रहता है तब तक उन सब वंश वालों का एक ही गोत्र कहलाता है। तब उन अपने गोत्र में उत्पन्न हुई किसी भी कन्या से उसी गोत्रीय कुमार का विवाह नहीं होना चाहिये। क्योंकि रक्त संबंध का अंश- स्मरण बना हुआ रहता है। इसी कारण वैदिक विवाह मर्यादा में सगोत्रता का युक्ति युक्त निषेध पाया जाता है। ऐसे ही अनेक गोत्रों के समूह एक संघ को ‘‘कुल’’ कहा जाता है। 
    एक कुल में अवस्था के कारण भिन्न-भिन्न गोत्रों का समावेश हो जाता है। विवाह सम्बन्ध में समान कुलोत्पन्न वर-वधू का विवाह हो सकता है, क्योंकि वहां रक्त सम्बन्ध का नाम मात्र भी नहीं होता, परन्तु गोत्र में विवाह सम्बन्ध त्याज्य है। इसी पवित्र नियम का पालन करती हुई आर्य जाति आज भी शुद्ध रूप में बनी हुई है। यह गोत्र विचार पाखंड और ढ़ोंग नहीं किन्तु पूर्ण वैज्ञानिक और वैदिक है। इस नियम का पालन करने से सन्तान श्रेष्ठ, सदाचारी, कुलीन, विद्या विभूषित, बलवान, दृढ़ांग और नीरोग बने रहते हैं। विवाह संस्कार के नियमों का पालन अवश्य करना चाहिये। इस प्रकार के विवाह सम्बन्ध द्वारा ही गृहस्थाश्रम का पालन मर्यादा पूर्वक किया जा सकता है। इसी से मनुष्यों की आयु 100 वर्ष की सामान्य रूप से बनी रहती है। जिन देशों और जातियों में इस नियम का पालन नहीं होता वे शीघ्र पतनावस्था में पहुंच जाते हैं।  (वैदिक धर्म परिचय से)

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