आदर्श गुरु को आदर्श दक्षिणा
गुरुचरणसरोजद्वन्दसेवाप्रसादै-रधि गत शुभ विद्या तृप्त चेता व्रतीन्द्र:।
कृतन तिर तिनम्रो देव पुष्पाणि पाणौ गुरुवरमुपसन्न: श्रद्धयोवाच धृत्वा।।
स्वामी दयानन्द ने गुरुचरणरूपी कमलयुगल की सेवा रूप प्रसाद से शुभ विद्याएँ प्राप्त कर ली थीं। इसलिए व्रतीन्द्र दयानन्द प्रसन्न मन से (गुरु को भेंट देने के लिए) हाथों में लौंग लेकर अतिनम्रता और श्रद्धा गुरु के पास आये और भक्तिसहित प्रणाम करके बोले।
अनुपम कृपयाSस्मै ज्ञानमचार्यवर्यैर्बलवदुपकृतोSयंसंप्रदायात्मपुत्र: ।
उपकृतिमणिमूल्यं जीवनस्पर्शनेन प्रतिवितरितुमिशो नैव नूनं भवेयं।।
हे गुरुदेव! अनुपम कृपा से आपने इस पुत्र को सम्पूर्ण विद्या प्रदान करके अति उपकृत किया है। इस उपकाररूपी रत्न के मूल्य को जीवनदान से भी मैं सचमुच नहीं चुका सकता।
उपकृतिम तुलां ते लौकिकैश्वर्यहीन: कथमिव खलु दीनो देव निष्क्रेतु मिश: ।
इति तनुमनसो मे श्री मतामिशितृत्वं समुपह्रतमिदानीं तल्ल्वङ्गै: पदाब्जे ।।
लौकिक ऐश्वर्य से हिन यह दिन बालक भला किस प्रकार आपके अतुल उपकारों से उऋण हो सकता है? इसलिए मेरे तन-मन पर आप का ही स्वामित्व है। मैं इस समय लौंगों के साथ उसी को आपके चरणकमलों पर भेंट धर रहा हूँ।
प्रमुदितमन सैवं श्रद्धयाSSभाष्य शिष्यं गुरुवर पद कन्जे मञ्जुले प्राणतं तम्।
प्रणय पुल कि तांग: सन्नि धायोत्तमांगे करकमल वोच द्वेशिकेन्द्रस्तदिये।।
इस प्रकार अतिप्रसन्न मन से श्रद्धा सहित पवित्र गुरुचरणों पर प्रणत हुए उस शिष्य के मस्तक पर प्रेम पुलकित हृदय से गुरुने हाथ रखकर कहा कि-
न सौम्य! वाञ्छामि सुवर्ण दक्षिणां प्रयच्छ मे जीवनमेव केवलं।
स्वदेश धर्मोद्धरणाय वत्स! ते यतो नियुंजीय तदाश्रुतं कुरु।।
हे सौम्य पुत्र! मैं सोने-चाँदी की दक्षिणा नहीं चाहता, मुझे तू केवल अपना जीवन प्रदान कर; जिससे कि हे पुत्र! मैं तेरे जीवन को स्वदेश एवं स्वधर्म के उद्धार में लगाऊं। इसलिए तू अपने जीवनदान की प्रतिज्ञा कर।
समर्पितं श्री चरणे स्वजीवनं नियोज्य मेनं विनियो जयेद् यथा।
वंश वदोSयं प्रयतिष्यते तथा विचार णीया न गुरो निर्देशना।।
मैंने आपश्री के चरणों पर अपना जीवन समर्पण कर दिया। आप इस आज्ञाकारी शिष्य को जिस कार्य में लगाना चाहें लगावें क्यूंकि गुरु की आज्ञा में विचार का अवकाश नहीं होता।
उत्साह पूर्णा: निजशिष्यवाणीं निशम्य दण्डी निजगाद तुष्ट:।
अद्य श्रमै र्मे फलितं नितान्तं सत्पात्रदत्ता फल तीह विद्या।।
उत्साह से भरी अपने शिष्य की वाणी सुनकर दंडीजी संतुष्ट होकर बोले- सचमुच आज मेरा सारा परिश्रम फला। सत्पात्र में दी हुई विद्या सफल ही होती है।
स्वस्त्यस्तु ते याहि दिगन्त वृन्दे वन्द्यर्षि सद्ग्रन्थनिबद्दविद्या:।
विद्यो तय प्रोज्ज्वलवेद धर्मश्री वैजयन्तीं लघुलासय त्वम् ।।
तुम्हारा कल्याण हो। तुम जाओ। महा ऋषियों के सदग्रंथों का, वेदविद्या का और उज्जवल वैदिक सिद्धांतों का देश देशान्तरों में प्रकाश करो और शीघ्र ही वैदिक वैजयंती फहरा दो।
वर्णाश्रमाचार पवित्र धर्मान् प्रसार्य लोके चलिता: कुरीति:।
निर्वार्य विद्या महिमानमार्यान् विबोध्य कृत्वा मनुजाञ्ज्याशा:।।
वर्णों और आश्रमों के पवित्र धर्म को फैला कर संसार में प्रचलित कुरूढ़ियों का नाश कर विद्या की महिमा बताकर आर्यों को जागृत करो और दिग्विजयी बनो।
प्रणार्पणेनापि पवित्र धर्मप्रसारणां त्वं कुरु वत्स! कामम्।
परोपकाराय वपुस्त वेदं समर्प्यतां सा गुरु दक्षिणेति।।
हे वत्स, तुम्हें प्राण भी अर्पण करना पड़े तो भी तुम पवित्र धर्म को फैलाते रहना। तुम अपने शरीर को गुरुदक्षिणा के रूप में परोपकार्थ समर्पण कर दो।
ओ३म् तीर्थवर्येति पदारविन्दे प्रणम्रमौलि र्विनिगद्य देव:।
श्रीमान् दयानन्द सरस्वतिन्द्रोजेतुं दि गन्तान्तस तत: प्रतस्थे।।
श्री दयानन्द सरस्वती ने गुरु की आज्ञा सुनकर एवमस्तु कहा, और उनके चरणों पर नतमस्तक हुए। पश्चात वे दिग्विजय के लिए गुरुगृह से निकल पड़े।
गुरो निर्देशे स्व शिरो विनामितं समर्पितम् जीवनमेव तत्क्षणं।
तदुत्तरे नैव विचिन्तं मनाङ्ग निदर्शिता सद्गुरु भक्तिरुत्मा।।
दयानन्द ने गुरु की आज्ञा पर अपना शिर झुका दिया और तत्क्षण ही अपने जीवन को समर्पित कर दिया। गुरु जी के गुरुदक्षिणा मांगने पर इन्होंने जराभी विलम्भ नहीं किया और अपनी आदर्श गुरुभक्ति का निदर्शन उपस्थित कर दिया।
सन्दर्भ स्रोत्र -आचार्य मेधाव्रत संस्कृत महाकाव्यं दयानन्द दिग्विजयं।
प्रस्तुतकर्ता- डॉ विवेक आर्य
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