Wednesday, November 28, 2018

सूफीवाद का असली चेहरा



सूफीवाद का असली चेहरा
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(ढाई वर्ष पूर्व दिल्ली में आयोजित "विश्व सूफी सम्मेलन" के संदर्भ में लिखा गया यह लेख कुछ पुराना है, पर आज भी पठनीय व प्रासंगिक है।)
दिल्ली में चल रहे 'विश्व सूफी सम्मेलन' और उसके द्वारा आतंकवाद की निन्दा की खबर आश्वस्तकारी होनी चाहिए थी, किन्तु अंग्रेजी कहावत है, "तफसील में शैतान मिलता है।" इस पूरे आयोजन, आयोजक, अब तक के वक्तव्य तथा प्रस्तावित वक्ताओं, आदि की तफसील निराशाजनक है। बल्कि संदेह पैदा करती है। कि यह किस सूफी परंपरा वाला सम्मेलन हैः सरहिन्दी, चिश्ती, औलिया वाला या बुल्लेशाह, जफर, गालिब वाला? पहली परंपरा छल-बल से केवल इस्लाम के प्रसार के लिए कटिबद्ध थी, जबकि दूसरी मानवतावादी थी। इसे बिना स्पष्ट किए गोल-मोल सूफीवाद की बात करना घातक हो सकता है।
यह सम्मेलन 'ऑल इंडिया उलेमा और मशाइख बोर्ड' द्वारा आयोजित किया गया है। इस संस्था का जन्म हुए अभी साल भर भी नहीं हुआ। इस की वेबसाइट पर सारी गतिविधि, सामग्री राजनीति-केंद्रित है। इसके स्मरणीय, मार्गदर्शक सूफियों की तफसील से यह पहली परंपरा वाला ही साबित होता है! जैसे, जुनैद बगदादी और मोइनुद्दीन चिश्ती का नाम उस में दर्ज है। बगदादी ने कहा था, “जो खुदा के पैगम्बर (मुहम्मद) के मार्ग पर चलता हो, उसके सिवा सभी रहस्यवादी रास्ते निषिद्ध हैं।”
यही बात समझने की है। आखिर क्या कारण है कि ऐसा सूफी सम्मेलन किसी मुस्लिम देश में नहीं होता? इसलिए, क्योंकि वहाँ इस्लाम के प्रसार का काम नहीं बचा है। अतः केवल भारत में ही ऐसी गतिविधियाँ चर्च-मिशनरियों की तरह काफिरों को नूरे-इलाही देने की जुगत भिड़ाने, इस्लाम के प्रति आदर पैदा करने, और इस्लामी कारनामों के कुरूप इतिहास-वर्तमान पर पर्दा डालने का एक मिशन जो है।
यह कोई आज की बात नहीं। सूफियों का पूरा इतिहास मुख्यतः राजनीति से जुड़ा रहा है। सूफी सक्रियता इस्लाम के प्रभुत्व की सीमाओं पर ही होती थी। अर्थात्, जहाँ अभी तक इस्लामी राज कायम नहीं हुआ वहाँ भी इस्लाम का ‘नूर’ फैले, इसके लिए अनेक सूफियों ने खूनी लड़ाइयाँ भी लड़ी। कर्नाटक और महाराष्ट्र मे ऐसे अनेक सूफियों की दास्तानें सर्वविदित हैं। मुहम्मद इब्राहीम जुबैरी द्वारा संकलित 'सूफियों की जीवनी' (तजकिरा-ए-औलिया) में ऐसे सूफियों का विवरण पढ़ लें।
अधिकांश सूफी इस्लामी विस्तारवाद के सचेत अंग रहे हैं। यहाँ सूफी अरब या मध्य एसिया से आते थे। अक्सर वे किसी नए इलाके पर कब्जे को जाने वाली इस्लामी सेनाओं के साथ जाते थे और लड़ाइयाँ लड़ते थे। जैसे, पीर मबारी खंदायत। वे दिल्ली से अल्लाउद्दीन खिलजी की सेनाओं के साथ दक्षिण गए थे और बीजापुर पर नियंत्रण करने में बड़ी भूमिका निभाई थी। दक्षिण-पश्चिमी भारत में मशहूर शेख सूफी सरमस्त की ख्याति अपने चुने हुए लड़ाकों के साथ सैनिक अभियान चलाकर हिन्दू राजाओं के खात्मे की ही है।
सूफी सरमस्त अरब से आए थे। शेख अली पहलवान, शेख शाहिद, पीर जुमना आदि जैसे इस तरह के कई अन्य सूफी थे। इसीलिए, अनातोलिया से अफगानिस्तान तक, कई सूफी एक साथ 'गाजी' (जिहाद लड़ने वाले) और 'औलिया' दोनों कहलाते थे। ‘गाजी-बाबा’ शब्द का चलन उसी से हुआ जो आज भी तालिबानों के बीच चलता है।
रिचर्ड ईटन की प्रसिद्ध पुस्तक "सूफीज ऑफ बीजापुर" (प्रिंसटन, 1978) में सूफी इतिहास की चार शताब्दी का विस्तृत वर्णन है। इस में ‘योद्घा सूफियों’ पर एक पूरा अध्याय है। ईटन के अनुसार सूफियों के बारे में शान्ति-प्रेमी ईश्वरभक्त होने की सामान्य धारणा गलत है। दक्षिण भारत की ओर जाने वाले पहले सूफी "जिहादी" लड़ाके ही थे। तब उत्तर भारत में जहाँ दिल्ली सल्तनत थी, उनकी भूमिका समझी जा सकती है।
ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती भी बारहवीं सदी में मध्य एसिया से शहाबुद्दीन घूरी के सैन्य आक्रमण के साथ ही अजमेर आए थे। उनके बीच सहयोग पूर्ण संबंध थे। चिश्ती की मदद से ही शहाबुद्दीन घूरी ने पृथ्वीराज चौहान को अंततः हराया और मार डाला था। खुद मोइनुद्दीन चिश्ती के शब्दों में, “हम ने पिथौरा (पृथ्वीराज चौहान) को जीवित पकड़ा और उसे इस्लामी सेना के सुपुर्द कर दिया।” (एस. ए. ए. रिजवी, "ए हिस्ट्री ऑफ सूफीज्म इन इंडिया") यही मोइनुद्दीन चिश्ती इस ‘ऑल इंडिया उलेमा और मशाइख बोर्ड’ के मार्गदर्शक हैं, जिसने 'विश्व सूफी सम्मेलन' आयोजित किया! अतः इन की सूफी-सूची में राबिया, बुल्लेशाह या गालिब का नाम न होना अर्थपूर्ण है। यदि चिश्ती वाला इतिहास दुहराया जा सके, तो वर्तमान सूफी साहबान नरेंद्र मोदी को इस्लामी स्टेट के हवाले कर फख्र महसूस करेंगे।
यदि हमारी बात विचित्र लगे, तो कारण यही है कि उच्च-वर्गीय हिन्दुओं को सूफीवाद के बारे में नशा पिला के रखा गया है। नशा ऐसा कि वे खुली आँख सामने रखी किताब या अपने कान सूफी महोदय का व्याख्यान सुन कर भी नहीं समझ पाते कि जनाब का इरादा और संदेश क्या है! जबकि यह देखा सकता है कि आज या पहले, ऐसे सूफियों की किसी आध्यात्मिक उपलब्धि का जिक्र खोजे नहीं मिलता। यह संयोग नहीं कि इस सम्मेलन में या इन आयोजकों की पिछली गतिविधियों में केवल राजनीतिक वक्तव्य और हरकतें मिलती हैं। किसी ‘हिन्दू-मुस्लिम दार्शनिक समन्वय’ जैसी बात की झलक दूर से भी नहीं मिलती। यही पहले भी था। चिश्ती हो या औलिया, सूफियों की तमाम शोहरत ‘काफिरों को इस्लाम तले लाने’ में सफलता की ही नोट की गई है। चाहे वह जैसे हो।
दरअसल, सूफियों की राजनीतिक भूमिका मुख्यतः इस्लाम का प्रभुत्व फैलाने की, भाषणों, बयानों में हिन्दू धर्म पर कीचड़ उछालने की, यानी दारुल-हरब को दारुल-इस्लाम में बदलने की रही है। यह इस से भी स्पष्ट होगा कि जहाँ इस्लामी राज पूरी तरह जम चुका हो, वहाँ से वे चले भी जाते थे। ईटन के शब्दों में, “जिस क्षेत्र में इस्लाम का राजनीतिक दबदबा पूरी तरह कायम हो चुका, वहाँ उन की जरूरत नहीं रह जाती थी।” ठीक चर्च-मिशनरियों की तरह, जो एसिया, अफ्रीका में जमे रहते हैं; यूरोप, अमेरिका में नहीं।
निस्संदेह, ऐसे सूफी भी हुए जो कुरान के बंधनों को नहीं मानते थे, मगर रहस्यवाद, प्रेम की बात करने और राजनीति से निरपेक्ष रहने वाले ऐसे सूफी बहुत कम हुए, जो बिना किसी मध्यस्थ, यानी पैगम्बर, के ईश्वर की लौ लगाते थे। जैसे, राबिया, बुल्लेशाह, गालिब या अंतिम मुगल बादशाह जफर। पर इस्लामी इतिहास में उन की कोई कद्र नहीं है। शायर इकबाल ने तो ऐसे सूफियों को ‘इस्लाम के पतन के दौर की उपज’ बताया था। इस से समझें कि दूसरे प्रकार के सूफी क्या होते थे! सूफियों के उलेमा से जो वैचारिक मतभेद रहे हों, शरीयत को सर्वोच्च मानने और हिन्दुओं को नीच समझने में वे प्रायः एक रहे हैं।
आखिर क्या कारण है कि किसी सूफी ने हिन्दुओं पर जजिया-टैक्स लगाने का विरोध नहीं किया था? किसी सूफी ने सल्तनत के सुलतानों और मुगल बादशाहों को हिन्दू मंदिर तोड़ने से मना नहीं किया था। महमूद गजनवी से लेकर औरंगजेब तक, सदियों में, किसी सूफी का जिक्र नहीं मिलता जिसने हिन्दुओं पर उनकी क्रूरता का विरोध किया हो या उस पर अफसोस भी दिखाया हो। उलटे, कई सूफियों ने विदेशी मुस्लिमों को भारत पर हमले का न्योता दिया। यह सूफी शाह वलीउल्ला ही थे जिन्होंने अफगानिस्तान के अहमद शाह अब्दाली को मराठाओं पर हमला करने के लिए बुलाया था, ताकि यहाँ फिर इस्लामी राज स्थापित हो! यही पानीपत की तीसरी लड़ाई थी।
इस्लामी आक्रांताओं को न्योतने की सूफी परंपरा यहाँ बीसवीं सदी तक चलती रही है। उन्हीं वलीउल्ला के पोते शाह इस्माइल और उनके संगी सैयद अहमद बरेलवी ने सिखों के खिलाफ जिहाद करने के लिए पख्तून सरदार अखुंद गफूर और दोस्त मुहम्मद खान को बुलाया था। गफूर खुद सूफी माना जाता था। बीसवीं सदी में भी कुछ सूफियों ने अफगानों को भारत पर हमले के लिए बुलाया था, जिसकी एनी बेसेंट, रवीन्द्रनाथ टैगोर, आदि ने भर्त्सना की थी। क्या सूफी राजनीति की वह अदाएं आज खत्म हो गई है, या उस ने केवल भेष बदला है? ‘वर्ल्ड सूफी फोरम’ के आयोजकों से और उन पर मेहरबान नेताओं से यह प्रश्न जरूर पूछा जाना चाहिए।
लेखक : डॉ. शंकर शरण

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