Monday, November 19, 2018

कुरान में वेदांश (भाग-१)

◼️कुरान में वेदांश (भाग-१)◼️
(यह लेख तीन भागों में लिखा गया है)
✍🏻 लेखक - पंडित चमूपति एम॰ए०
[पण्डितजी की यह लेखमाला 'आर्य' में छपी थी। यह लेख मार्गशीर्ष १९८७ के अंक में छपा था। ऊपर सम्पादकीय टिप्पणी पं० विश्वनाथजी आर्योपदेशक की है। वे बड़े विद्वान लेखक व कवि थे।]
“श्रीमान् पण्डितजी के विख्यात् नाम से पाठक अपरिचित नहीं हैं। आप उच्च कोटि के लेखक और कवि हैं। आपके लेखों में मधुरता और सरसता इस दरजा की होती है। कि एक दो वाक्यों को पढ़कर ही पाठक मुग्ध होने लगते हैं। सूक्ष्म से सूक्ष्म विषय भी अपने आप स्फुट होता चला जाता है। “आर्य'' आपके सम्पादकत्व का सौभाग्य प्राप्त कर चुका है। यह सम्बन्ध और वैदिक धर्म के प्रचार की लग्न आपको “आर्य' में कुछ लिखते रहने के लिये बाधित करते रहेंगे, अतएव पाठक आपके शुभ विचारों से लाभ उठाते ही रहेंगे। आपके इस शीर्षक के पूर्व लेख साप्ताहिक आर्य में निकल चुके हैं पाठक वहाँ से सिलसिला मिला लें।" ( सम्पादक )
🌺 ईश्वर -
ईश्वर-वादी धर्मों का प्राण परमेश्वर का विचार है। इसी में उनकी दार्शनिक दृष्टि तथा आध्यात्मिक अनुभव की पराकाष्ठा होती है। “अनादित्रयी' विषयक व्याख्यान में हम ईश्वर की सत्ता की दार्शनिक आवश्यकता पर विचार कर चुके हैं। ईश्वर के अतिरिक्त जीव तथा प्रकृति के अनादित्व पर दार्शनिक विचार कर, इस त्रैतवाद की पुष्टि में वेद तथा कुरान दोनों के वाक्य भी उसी स्थल पर उपस्थित किये गये थे। आज के व्याख्यान में हमें ईश्वर के स्वरूप पर विचार करना है। इसके लिए हमें वेद और कुरान दोनों के ईश्वर की स्तुति से परिपूर्ण आलापों में से प्रभु के उन विशेषणों का संग्रह करना होगा जिनसे प्रभु का प्यारा, भक्ति-भाव में भीज-भीज कर, प्रभु की अपार महिमा का गान करता है। प्रभु की महिमा गाते न वेद अघाता है न कुरान! विषय कुछ हो,ईश्वर की स्तुति की टेक प्रत्येक गान, प्रत्येक तान में ओत-प्रोत है। अनजान लोग इस पर अप्रसंग की आपत्ति उठाते हैं, वे यह नहीं जानते कि सच्चे आस्तिक के प्राण-प्राण में प्रभु की प्रीति रमी रहती है। वह बाह्य साधनों से कोई कार्य करता रहे, उसका हृदय ईश्वर ही में विलीन रहता है। इसीलिये तो ऋषि दयानन्द कहते हैं
🔥 “परन्तु नैवेश्वरस्यैकस्मिन्नपि मन्त्रार्थे अत्यन्तं त्यागो भवति। कुतः १ निमित्तकारणस्येश्वरस्यास्मिन् कार्ये जगति सर्वाङ्गव्याप्तिमत्वात् ।'' ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृ० ३६३
एक भी मन्त्र के अर्थ में ईश्वर का सर्वथा त्याग नहीं किया जा सकता। कारण कि निमित्तकारण परमेश्वर इस कार्य जगत् के अंग-अंग में व्यापक है।
वेद तथा कुरान दोनों की प्रधान लय ईश्वर-स्तुति है। ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज के दूसरे नियम में ईश्वर के कुछ गुणों का संग्रह किया है। ईश्वर के सामान्य ध्यान के लिये यह संग्रह एक अनूठी वस्तु है। अत्यन्त संक्षेप में प्रभु की महिमा का एक सुन्दर समूचा परिचय दे दिया है। इन गुणों को लक्ष्य में रखकर हम वेद और कुरान की समानार्थक उक्तियाँ उद्धृत करेंगे। इससे हमें यह विचार करने का अवसर मिल जायेगा कि प्रभु के स्वरूप का जो चित्र ऋषि ने खींचा है वह वेद पर आश्रित तो है ही। क्या कुरान के अनुयायी भी उसी चित्र को अपनी अभिमत पुस्तक के आधार पर अपने हृदय मन्दिर में पूर्ण श्रद्धा, पूर्ण आस्था के साथ प्रतिष्ठित कर सकते हैं या नहीं?
🌺 आर्यसमाज का दूसरा नियम यह है -
परमेश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तरयामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है उसी की उपासना करनी योग्य है।
इस नियम में सबसे पूर्व परमात्मा का स्वरूप या दार्शनिक भाषा में स्वरूप लक्षण बतलाया गया है। स्वयं सत् द्रव्य तीन हैं यह इसी स्वरूप-लक्षण से ही स्पष्ट है। यदि एक ईश्वर ही स्वत: सत् होता तो उसे केवल सत् कहना पर्याप्त था। अपने अनादि-त्रयी शीर्षक व्याख्यान में मैंने आपका ध्यान इस ओर भी खेंचा था कि जब किसी पदार्थ को सत् ही कह दिया गया तो वह इसी से अव्यपदेश्य तो रहा नहीं। फिर यहाँ तो सत् भी कहा है और चित् और आनन्द भी। कारण कि सत् तो प्रकृति भी है और आत्मा भी। चित् कहने से ईश्वर और जीव की प्रकृति से व्यावृत्ति होती है और आनन्द कहने से जीव से ईश्वर की व्यावृत्ति हो जाती है। इस प्रकार सच्चिदानन्द परमात्मा का सारगर्भित लक्षण है। इस लक्षण में जहाँ यह स्पष्ट हो गया कि ईश्वर में जीव और प्रकृति दोनों के गुण विद्यमान हैं। वहाँ यह भी बता दिया गया है कि ईश्वर की विशेषता विभिन्नता इन दोनो पदार्थों से क्या है। वेद में इस अभिप्राय को 🔥 भूभुव: स्व: (यजु०) कहकर प्रकट किया गया है। भूः का अर्थ है सत् । भुव: का अर्थ है चित् । और स्व: का अर्थ है आनन्द ईश्वर का विशेष व्यावर्तक गुण आनन्द है। इस तथ्य को वेद इन शब्दों में कहता है।
🔥 स्वर्यस्य च केवलम् ।
कुरान में इस प्रकार का स्रोत जिससे प्रकृति और जीव के गुणों का प्रभु में समावेश भी हो जाय और इनसे भेद भी दर्शा दिया जाय कहीं अलग नहीं मिलता तो भी प्रभु की महिमा के विविध स्रोतों से जो कुरान के पृष्ठों में सर्वत्र फैले हुए हैं। यह बात स्पष्ट निकलती है कि ईश्वर का यह स्वरूप कुरानकार को अभिमत है। ईश्वर को “औवल'' और “आखिर"- पूर्व और शेष- कहकर उसकी नित्यता द्योतित की है। यह हुआ सत् । (सू० हदीद रु० १) फिर ईश्वर को सर्वज्ञ तो स्थान स्थान पर कहा है
🔥 अल्लाह आसमानों और जमीन में है। वह जानता है तुम्हारा गुप्त और तुम्हारा प्रकट और जानता है जो तुम कमाते हो।( सू० अनाम रु० १)
🔥 क्या तू नहीं देखता कि ईश्वर जानता है जो आसमानों में और जो है पृथ्वी पर। तीन पुरुष वहीं मन्त्रणा कराते जब न हो वह चौथा और न पांच जब न हो वह छटा।(सू० मजादलत रु० १)
कुरान के इन वाक्यों को सुनते हुए आपको स्वभावत: अथर्ववेद का यह मन्त्र स्मरण हो जावेगा।
🔥 यस्तिष्टति चरति यश्च वञ्चति यो निलायं चरति यः प्रतङ्कम्।
द्वौसन्निषध यन्मत्रयेते राजा सद्वेद वरुण सस्तृतीया॥
अथर्व० ४/१/६/२
जो कोई ठहरता है, वो चलता है, ठगता है, छिपकर क्रिया करता है, किसी का अहित करता है दो मिलकर जो मन्त्रणा करते हैं। उसे वरुण तीसरा होकर जानता है।
ज़मीन और आसमान की बात भी वेद ने मजे ले लेकर कही है
🔥 उतेयं भूमिवरुणस्य राज्ञः उतासौ द्यौबृहती दूरे अन्ता।
उतो समुद्रौ वरुणस्य कुक्षी उतास्मिन्नल्प उदके निलीनः॥
यह पृथ्वी और वह द्यौलोक- इतने दूर-दूर पड़े हुए उसी राजा वरुण के ने दी हैं। दोनों समुद्र ऊपर के वास्य और नीचे के जल उसकी कोख हैं। और वह पानी की बूंद-बूंद में समा रहा है।
इसमें ईश्वर कवियों की भाषा में 🔥 “अणोरणीयाम् महतो महीयान्' कहा गया है। कुरान में यह बात उसे 🔥 “वसी'' और 🔥 “लतीफ'' ( सू० अनाम रु० १३) बतला कर कही गई है। सुनिये क्या सुन्दर वर्णन है। आपको उपनिषद् याद आएगी-
🔥 आँखें उसे नहीं देखतीं परन्तु वह आँखों को देखता है। वह सूक्ष्म है, सब जाननेवाला । अनाम रु० १३
🔥 नैनद्देवा आप्नुवन् पूर्वर्मषत् । यजु० ४०
🔥 उस पहिले से आगे निकल गये को इन्द्रियाँ नहीं जानतीं ।
और उसने गिन लिया है सब चीजों की संख्या को ।(सू० मुजम्मिल रु २०)
अथर्व में भी आया है -
🔥 संख्याता अस्य निमिषो जनानाम् ।
जीवों के निमेष तक उसके गिने हुए हैं। अ० ४/१६/५
रहा आनन्द । उसका रस तो स्वर्ग के भोगों में अलंकार-रूप से वर्णित है। अल्लाह सरूर का प्रथम स्रोत है। यह बहिश्तियों को अपने हाथों 🔥 “शराबे तहूर' देगा अर्थात् पवित्र मय। यह वेद का 🔥 सोम है- अर्थात् भक्ति की मस्ती ।
🌺 निराकार -
आकार मध्यम परिमाण की वस्तु का होता है। अणु और विभु का नहीं। वेद ने परमेश्वर को “अकाय'' कहा है। यजुर्वेद में आया है
🔥 विभूरसि प्रवाहणः ।
तू विभु है और विश्व को गति देता है।
कुरान में भी यह तो कहा ही है-
🔥 उसकी कुर्सी ने जमीन और आसमान को छा लिया है। सू० बकर० रु० ३४
परन्तु इस कुर्सी का लाक्षणिक अर्थ ईश्वर की शक्ति या ज्ञान अथवा दया किया जाता है। अर्थात् समझा यह जाता है कि ईश्वर हर जगह स्वयं तो है नहीं किन्तु अपनी अनन्त शक्ति द्वारा सर्वत्र राज्य करता है।
कुरान में ईश्वर की व्यापकता का वर्णन साधारण तथा उसके ज्ञान तथा कृपा दृष्टि से या इनके गुणों के साथ ही किया गया है, यथा -
🔥 वह व्यापक है सब वस्तुओं पर ज्ञान द्वारा । सू० अनाम रु० १
🔥 हमारे पालक। तू ने छा लिया है आसमानों और पृथ्वी को । दया और ज्ञान द्वारा। सू० मोमिन रु० १
कहने को तो यह भी कह दिया है कि-
🔥 वह तुम्हारे साथ है जहाँ कहीं तुम हो । सू० हदीद० रु० १
परन्तु उसी जगह यह भी लिखा है-
🔥 अल्लाह तुम्हारे सारे काम देखता है।
एक और स्थान पर आया है-
परमेश्वर निकट है शहरग से । सूए० काफ रु. १
अधिक कठिनता वहाँ होती है जहाँ कयामत के दिन में सुकर्मियों को अल्लाह की दाईं ओर और कुकर्मियों को बाईं ओर बिठाया है। इन स्थलों का लाक्षणिक अर्थ कर ईश्वर को स्वरूप से ही सत्ता की दृष्टि से ही विभु समझने में कठिनता होनी चाहिये। विभु के ज्ञान तथा शक्ति को सर्वव्यापक मानना सरल है। अल्प परिमाण का पदार्थ सब दृष्टियों से परिमित रहता है। मध्यम की शक्ति विभु इसका कोई दृष्टान्त नहीं।
🌺 सर्वशक्तिमान
🔥 ईश्वर की ही शक्ति सब चीजों पर है। सू० आल अग्रमण रु० १५१
पहिले तो मुसलमान सर्वशक्तिमान् का अर्थ किया करते थे 'कुछ भी कर सकने वाला' परन्तु ऋषि दयानन्द के प्रचार से उनमें से कुछ लोग समझ गए हैं कि इसप्रकार की सर्वशक्तिमत्ता प्रभु का भूषण ही नहीं उलटा दूषण भी हो सकती है। पहिले तो अनादि और स्वत: सत् पदार्थ केवल ईश्वर ही को मानते थे। मैंने शिबली के प्रमाण से प्रदर्शित किया था कि यह मन्तव्य कतिपय मुसलमानों ने यूनानी दार्शनिकों की देखा देखी ही ग्रहण कर लिया था। कुरान की शिक्षा से इस मन्तव्य का कुछ सम्बन्ध न था । परन्तु अब ज्यों ज्यों उस विचार की अतार्किकता समझ में आती जाती है। सर्वशक्तिमत्ता का वही अर्थ अङ्गीकार किया जा रहा है जो ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में किया है। ऋषि लिखते हैं -
🔥 क्या दुसरा खुदा भी बन सकता है, अपने आप मर सकता है? मूर्ख रोगी और अज्ञानी बन सकता है? ...... परमेश्वर अपने और दूसरों के गुण कर्म स्वभाव के विरुद्ध कुछ भी काम नहीं कर सकता । सत्यार्थप्रकाश समुल्लास १४ पृ० ५९०
मुसलमान विचारकों की समझ में भी यह बात आ गई है। पिछले दिनों एक कादियानी महाशय, मौलवी मुहम्मद इसहाक साहिब ने एक पुस्तक लिखा जिसमें उन्होंने माना -
हम मुसलमान ..... उसकी अपरिमित सत्ता की तरह उसके हर एक गुण को अपरिमित मानते हैं। परन्तु एक नियम के अधीन और वह यह कि उसका कोई गुण किसी अन्य गुण को काटता नहीं।
सर्वशक्तिमान् सत्ता को किसी नियम के अधीन लाना ऋषि का पक्ष स्वीकार करना ही तो है। यदि ईश्वर न्यायकारी है, इसके प्रमाण मैं अपने पुनर्जन्म सम्बन्धी व्याख्यान में दे चुका हूँ। इससे अधिक न्याय क्या हो सकता है? कहा है -
🔥 और पूर्ण दिया जायगा जीव को जो उसने किया है। सू० महल आयत १०९
अन्यत्र कहा है-
🔥 वह स्थित है साथ न्याय के। आल अमरान रु० ३०
इसके विरुद्ध यह आया है कि-
🔥 जो भलाई हो उसे दुगना कर देता है। सू० नसा० आ. ३१
यह तो हुई भलाई की बात । बुराई की भी यही अवस्था है, यथा -
🔥 दूना किया जायगा उनके लिये दुःख कयामत के दिन, और वे सदा रहेंगे उसमें दुःख उठाते । सू० फुकीन० रु० ९
यह द्विगुण की बात मेरी समझ में कभी नहीं आई। भलाई और उसका फल एक ही द्रव्य की दो राशियाँ तो हैं नहीं कि एक दूसरे की दुगनी हो जाय। कुछ भलाई का फल कुछ सुख नियम कर दिया। फिर सबको उनके किये के अनुपात में सुख देते चले। इसमें न्यूनाधिक तो करना नहीं। भलाई का पैमाना निश्चित, फल की मात्रा निश्चित । अब इस फल को कर्म का दूना कह लो, चाहे चौगुना। कहने की ही बात है। वस्तुतः वे है बराबर। जैसे एक रुपये के बदले में जितनी खांड मिलती है, वह उसके बराबर है। मेरे विचार में यह दूने- और कहीं कहीं उससे अधिक फल का भी वचन दिया है की उक्ति केवल अर्थवाद है। उससे अन्याययुक्त दया अभिप्रेत नहीं । खेद है तो यह कि प्रचलित इसलाम इसी अर्थवाद को मुख्य सिद्धान्त मानता है।
🌺 दयालु -
ईश्वर को दयालु तो मुसलमान दिन में कई बार कहते हैं।
🔥“अर्रहमान अर्रहीम”।
‘रहमान' का अर्थ है बिना कर्म के सामान्य दया करने वाला। जैसे जगत् की सृष्टि कर उसमें वायु इत्यादि पदार्थ सर्व साधारण के लिये खुले दे देने से। और रहीम ! का अर्थ कर्मों का दयापूर्वक देनेवाला।
इस पर ऋषि दयानन्द का निम्न लेख देखने योग्य है-
देखो ईश्वर की पूर्ण दया तो यह है कि जिसने सब जीवों को प्रयोजन सिद्ध देने के अर्थ जगत् में सकल पदार्थ उत्पन्न करके दान दे रखे हैं। इससे भिन्न दूसरी बड़ी दया कौन सी है। अब न्याय का फल प्रत्यक्ष दीखता है कि सुख दुःख की व्यवस्था अधिक और न्यूनता से फल को प्रकाशित कर रही है। इन दोनों को इतना भेद है कि जो मन में सब सुख होने और दुःख छूटने की इच्छा किया करता है वह दया और बाह्य चेष्टा अर्थात् बन्धन छेदनादि यथावत् दण्ड देना न्याय कहाती है। दोनों का एक प्रयोजन यह है कि सबको पाप और दुखों से पृथक् कर देना। सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७ पृ० १९१
इन शब्दों में ऋषि ने दया और न्याय को खूब समन्वित किया है। इसी भाव को आधुनिक मुसलमानों ने रहीम और रहमान के अर्थों में लगा दिया है।
वेद में ईश्वर को मित्र कहा तो कुरान में भी-
🔥 वह तुम्हारा मालिमया मित्र है- बहुत अच्छा सहायक।सू०हज रु० १०
वेद का ईश्वर मित्र और अर्यमा साथ-साथ है तो कुरान को अल्लाह भी रहमान और रहीम एक साथ है। कैसा अच्छा मेल है ! कहते हैं -
🔥 अल्लाह मुहब्बत करता है उसे जिसे चाहता है और राह दिखाता है उसे जो उसकी ओर आता है।सूरा शूरा रु० २
🔥 यमेष वृणुते तेन लभ्य: का अनुवाद मात्र ही तो है।
🌺 अजन्मा -
जिसका शरीर नहीं उसे जन्म क्या लेना। वह तो अपनी महिमा द्वारा सब ओर* जात '- प्रकट हो रहा है। वेद कहता है-
🔥 अजायमानो बहुधा विजायते । यजु०
जन्म न लेकर विविध प्रकार से प्रकट हो रहा है।
कुरान में ईसाइयों के इस मन्तव्य का कि ईसा ईश्वर का औरस है स्थल-स्थल पर खण्डन किया है। प्रकरण वश यह भी कह गये हैं कि प्रभु का जन्म नहीं होता।
🔥 वह प्रजनन नहीं करता न प्रजनन किया जाता है।सू० ११२ आ० १
🌺 अनन्त -
अन्त एक तो देश का है सो तो विभु कहने मात्र से निराकृत है।ऋग्वेद में आता है -
🔥 न यस्य द्यावापृथिवी अनुव्यचो न सिन्धवो रजसो अन्तमानशु। ऋ० १.४.१४.१४
जिस सर्वव्यापक की महिमा का अन्त न आकाश ने पृथिवी न समुद्र पा सकते।
अर्थात् सूक्ष्म, स्थूल तथा मध्यम परिमाण का कोई तत्व नहीं पा सकता। अथर्व में
आया है-
🔥 अनन्तं विततं पुरुत्रानन्त वच्चा समन्ते ।।अथर्व १०/८/१२
उस अनन्त विभु का सान्त और अनन्त आश्रय लेते हैं। इस विषय में कुरान की स्थिति पर मैं निराकार के प्रकरण में प्रकाश डाल चुका हूँ। परमात्मा की विभुता स्वीकार तो की है परन्तु उसकी अनन्त शक्तियों द्वारा ही। वेद में
🔥 सर्वतो मुखः । यजु०
कहा है तो कुरान में भी आया है-
परमेश्वर के हैं पूर्व और पश्चिम । जिधर तुम मुख करो, उधर ही परमेश्वर को मुख है। निश्चय अल्लाह विभु है ज्ञानी । सू० बक्र ३० १३
🌺 निर्विकार -
परमेश्वर ही सारे संसार में विकार आने का कारण है, परन्तु स्वयं विकृत नहीं होता। इसी को कूटस्थ ब्रह्म कहते हैं । वेद कहता है--
🔥 तदेजति तन्नैजति । यजुः ४०
वह हिलाता है दिखता नहीं।
परमेश्वर का नाम है “अदिति'' अखण्ड।
अन्य विकार तो क्या, परमेश्वर के नियम ही नहीं बदलते।
🔥 नकिष्ट एता व्रता मिनन्ति।ऋ० १/६९/५
परमात्मा के नियम नहीं बदलते ।
कुरान ने जैसा इसका अनुवाद कर दिया हो। कहा है -
🔥 परमेश्वर की यही पुरानी रीति है। परमेश्वर की नीति में तुम कोई परिवर्तन नहीं पायगा।
सू० फतह अ० २३
🌺 अनादि -
अथर्व में आया है
🔥 सनातनमेनंमाहुरुताद्य: स्यात् पुनर्णवः ।
अहोरात्रे प्रजायते अन्यो अन्यस्य रूपयोः ।अथर्व० १०/८/२३
वह पुरातन है। प्रथम । सदा नया । सृष्टि और प्रलय एक दूसरे के पीछे रूप-परिवर्तनमात्र से घटित हो रहे हैं।
कुरान में भी तो लिखा है-
🔥 वह पूर्व-प्रथम है। वह शेष-अन्तिम है।सू० हरीद० रु० १
🌺 अनुपम
प्रभु की उपमा हो नहीं सकती। उस जैसा और कौन है । वेद ने कहा-
🔥 न तस्य प्रतिमा अस्ति । यजुः
तो कुरान ने झट अनुवाद किया।
🔥 उस जैसा कोई नहीं।
🌺 सर्वाधार
🔥 स्कम्भनेमे विष्टभिते द्यौश्च भूमिश्च तिष्ठतः।
स्कम्भ इदं सर्वमात्मन्वद् यत्प्राणन्निमिषच्चयत् ॥अथर्व १०/८/२
आश्रय रूप परमेश्वर द्वारा व्यस्थित द्यौः और पृथिवी खड़े हुए हैं। उसी आश्रय रूप परमेश्वर द्वारा सजीव प्राणी जो सांस लेते और आँख झपकाते हैं।
कुरान-
🔥 उसका सिंहासन है आसमानों पर और पृथिवी पर और वह थकता नहीं इन्हें थामने से। सू० बक्र रु० ३४ आ० २५८
🌺 सर्वेश्वर -
🔥 ऋषिर्हि पूर्व जा अस्येक ईशन ओजसा। ऋ० ५/८/१९/४१
हे प्रभो आप सर्वद्रष्टा, अनादि, अपनी शक्ति के कारण एक मात्र ईश्वर हैं।
🔥 उसी का है जो आसमानों में है और जो पृथिवी पर है। सू० बक्र रु० आ० २५८
🌺 सर्वव्यापक -
🔥 ता आपः स प्रजापतिः । यजु० ३२/१
वह सर्वव्यापक है वह प्रजा का स्वामी है।
🌺 सर्वान्तर्यामी
वेद ईश्वर को अन्तरिक्ष कहता है। अर्थात् सबके अन्दर बसने वाला। यजुर्वेद में कहा है-
🔥 तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य वाह्यतः ।
वह इस सबके अन्दर है, वह इस सबके बाहर है। कुरान कहता है-
🔥 अल्लाह रहता है मनुष्य और उसके हृदय के बीच में। सू० अनफाल ९० ३ ० २४
अन्तयमिता का क्या सुन्दर वर्णन है।
🌺 अजर अमर -
🔥 अकामो धीरो अमृत: स्वयम्भू रसेन तृप्तो न कुतश्चनो नः।
तमेव विद्वान् न विभाय मृत्योरात्मान धीरमजरं युवानम्॥ अथर्व १०/८/४४
कुरान में आया है-
🔥 सब चीज म्रियमान है। सिवाय इसके मुख के।सू० किसस रु० ८
🌺 अभय -
वेद तो परमेश्वर को अभयङ्कर कहता है यथा-
🔥 वृषेन्द्रपुरएतुन:सोमयाअभयङ्कर। अथर्व १/२१/१
🌺 नित्य
🔥 शश्वताम ! साधारणः । ऋ०
🔥 अल्लाह एक है, नित्य है। सू० बहरत, १
🌺 पवित्र
🔥 शुद्धमपापविद्धम ! । यजु० ४
वह शुद्ध है, पाप के लेश से भी मुक्त है। कुरान ने कह्म है-
🔥 अल्लाह के सिवाय पूज्य नहीं। उसी के हैं (सभी शुभ नाम)सू० ताहां० स० १
नाम गुणों ही का तो द्योतक होता है। नाम शुभ होने का अर्थ ही यह है कि उसे के गुण शुभ हैं।
🌺 सृष्टिकर्ता
ईश्वर के स्रष्टत्व पर यहाँ अधिक विचार करने की आवश्यकता नहीं । अनादि त्रयी प्रकरण में वेद तथा कुरान से केवल यही सिद्ध न किया गया था कि ईश्वर संसार को बनाता है किन्तु यह सिद्धान्त भी दोनों पवित्र पुस्तकों के आधार पर स्थापित किया था कि सृष्टि सदा असत् से नहीं, सत् स्वरूप प्रकृति से ही की जाती है।
🌺 उपास्य
इसी एक ईश्वर की उपासना करनी चाहिये। ईश्वर का उपासक एक अटूट आश्रय रखता है। अतः उसे भय किसी को नहीं रहता। वह किसी के आगे नहीं झुकता है। किसी की चरण-शरण में जाने से अपने आप को धन्य मानता है अत: उद्दण्ड भी नहीं होता। विनीत रहता है।
वेद का आदेश स्पष्ट है।
🔥 दिव्यो गन्धर्वो भुवनस्य यस्पतिरेक एवं नमस्यो विक्ष्वीडयः।
तं त्वा योमि ब्राह्मण दिव्य देव नमस्ते अस्तु दिविते सधस्यम्॥ अथर्व० २.२.१.
हे प्रभो ! आप ज्योति हैं । ज्ञान के आधार, संसार के स्वामी, अकेले उपास्य, प्रजाओं की स्तुतियों के पात्र । उन आपसे मैं वेदवाणी द्वारा संयुक्त होता हूँ। हे प्रकाशस्वरूप देवादिदेव ! आपको नमस्कार हो । आपका स्थान प्रकाश में है।
कुरान में आया है-
वह तुम्हारा ईश्वर है। उसके सिवा पूज्य नहीं । सब पदार्थों का स्रष्टा । पूजा उसी की करो। वह सर्व द्रष्टा है। सू० अनाम आ० १०२
ऋषि ने उपासना का अर्थ किया है-उपास्य के रंग में रंग जाना। हम गायत्री मन्त्र का ही जाप करते हुए रोज कहते हैं-
🔥 भर्गो देवस्य धीमहि ।
हम उस देवता के तेज का धारण करते हैं। उसके रंग में रंग जाते हैं। कुरान में आया है -
🔥 अल्लाह का रंग। कौन रंग अच्छा है अल्लाह के रंग से। हम उसी को पूजते हैं।सू० बकर सू० १९,
उद्धरण तो दोनों पुस्तकों से यथेच्छ दिये जा सकते हैं। परन्तु बानगी के रूप में इतने पर्याप्त हैं। परमेश्वर के संबंध में भी प्रचलित इस्लाम कुरान से उतना ही दूर जा पड़ा है जितना अपने और धार्मिक मन्तव्यों में । प्रचलित इस्लाम ईश्वर को सृष्टिकर्ता तो मानता है परन्तु असत् से । दैववाद इस मन्तव्य का स्वाभाविक परिणाम है। जब हम पहले थे ही नहीं तो हमारे भले बुरे भाग्य का प्रथमा विधाता भी बिना किसी आधार के-ईश्वर ही ठहरेगा। ईश्वर ने जैसा बना दिया। वैसे हम बन गये। हमारे कर्म को हमारे भाग्य में दखल क्या और जो एक बार बिना बीज बोये फसल काट ली तो आगे एकाएक बीजारोपण का नियम प्रवृत्त हो जाना किसी तरंगी शासक की तरंग भले ही हो, न्यायकारी, नियन्ता का निश्चित नियम नहीं हो सकता। किसी नियम का भी एकाएक चल पड़ना मौलिकआधारभूत-स्वछन्दता, अनियम है। जिस प्रवृत्ति का मूल ही अनियम-आकस्मिकता-परा हो, उसका फिर आगे भी भरोसा क्या? प्रचलित इस्लाम को आत्म-संगति का श्रेय अवश्य देना चाहिये। जिस प्रवृत्ति का आरम्भ परमेश्वर की स्वतन्त्र इच्छा से किया है, उसका अन्त भी अल्लाह की स्वच्छन्द इच्छा द्वारा निर्धारित अनिवार्य ही में करते हैं। संसार का अन्त बहिशत और दोज़ख में है। इन दोनों के लिये लोग पूर्व से निश्चत हैं। जिसे दोज़ख में जाना है, वह लाख यत्न करने पर भी कि बहिश्त में जाए, दोजख ही में जायगा। बुराइयों को सहसा भलाइयों को और भलाइयों को सहसा बुराइयों का रूप दे दिया जा सकता है। इसमें संदेह नहीं कि स्वयं कुरान में इस अभिप्राय के वाक्य मिल जाते हैं। परन्तु मैंने इनके विरुद्ध आशय रखने वाली आयतों ही की आपके सम्मुख उद्धरण किया है। मैं चाहता हूँ कि कुरान के अनुवादक मुख्तया इन आयतों को दें । इनके विपरीत आदेशों की संगति उन्हें गौन वृत्ति से अर्थवाद बताकर कर लें। वस्तुत: देववाद एक बला है जो मनुष्यों की कर्म-शक्ति का संहार कर देती है। यह एक सील है जो चुपके चुपके व्यक्तियों तथा जातियों के भाग्य भवन को अन्दर ही अन्दर से खोखला कर छोड़ता है। आधुनिक इस्लामी देशों की अनुन्नति-शीलता विज्ञान दर्शन, शासन प्रत्येक क्षेत्र में पीछे ही पीछे रह जाने की प्रवृत्ति धर्म में कट्टरपने ज्ञान में अंधविश्वास तर्क में असहिष्णुता का राज्य है। इन दुर्गुणों का इन देशों के प्रधान केन्द्र बने रहने देने का उत्तरदायित्व इसी भाग्यवाद पर है।
🌺 मौलाना शिब्ली का इस्लाम
मैंने अपने प्रथम व्याख्यान में उन परिवर्तनों के प्रमाण दिये थे जो इस्लाम के वर्तमान नेताओं की धर्म-दृष्टि में धीरे-धीरे प्रवेश पा रहे हैं। पर सैय्यद अहमद और गुलाम अहमद कादियानी ऋषि दयानन्द के समकालीन थे। उनका ऋषि दयानन्द से संसर्ग भी रहा था। सर सैय्यद ऋषि के भक्तों में से थे। मिर्जा ने ऋषि के जीवन-काल में तो उनका नाम भी अपने लेखों अथवा व्याख्यानों में नहीं किया। परन्तु उनके देहान्त के उपरांत लिख दिया कि मेरी अमुक घोषणा का सम्बोधन ऋषि दयानन्द की ओर था। इससे मानसिक संसर्ग स्पष्ट है। मौलाना शिब्ली इन दोनों से अधिक विद्वान हुए हैं। उन्होंने अपने पुस्तक 'अलकलाम' में प्रचलित इस्लाम का कायाकल्प करना चाहा है। इनकी एक और पुस्तक 'इलमकलाम' में स्पष्ट पृथक् मार्ग निकाला है। विद्वत्ता की शैली से 'इलकलाम' से एक आध उद्धरण मैं अपने अनादित्रयी शीर्षक व्याख्यान में उपस्थित कर चुका हूँ। स्पष्ट पृथक् मार्ग निकाला है। विद्वत्ता की शैली से ‘ईलाकलाम' से निम्नलिखित सन्दर्भ मौलाना की धर्म-दृष्टि के एक संक्षिप्त चित्र का परिचय देंगे।
(विशेष टिप्पणी:- पं० श्री चमूपतिजी ने अपनी मौलिक दार्शनिक पुस्तक चौदहवीं का चाँद में तकदीर की इस मान्यता पर एक पूरा अध्याय लिखा है । वह बड़ा रोचक व पठनीय है । आपने अपनी अंग्रेजी पुस्तक Ten commandments of Swami Dayananda में भी प्रसंगवश इस मान्यता का विवेचन किया है। ईश्वर के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुये आपके शब्द विचारणीय हैं:
(An unduly for giving god has nothing to prevent Him from becoming at times unduly tyrannous. The latter possibility is simply a Corollary from the former presumption, His mercies, if simply whims, will lack a uniform reliable rule to guide their dispensation.")
✍🏻 लेखक - पंडित चमूपति एम॰ए०
साभार - राजेंद्र जिज्ञासु जी (📖 पुस्तक -विचार वाटिका)
प्रस्तुति - 📚 अवत्सार
॥ ओ३म् ॥

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