वैदिक कर्मफल सिद्धान्त
वैदिक मान्यता है कि जीवात्माएँ कर्म करने में स्वतन्त्र हैं क्योंकि प्रत्येक जीवात्मा को ईश्वर की न्यायव्यवस्था में अपने अच्छे तथा बुरे किए कर्मों का फल भोगना पड़ता है। शुभ कर्मों का फल सुख तथा अशुभ कर्मों का फल दुःख जीवात्माएं भोगती हैं। प्रश्न है कि कर्म क्या है। कर्म शब्द "कृ" धातु से बना है जिसका अर्थ होता है क्रिया करना। संस्कृत के विद्वानों ने कर्म की परिभाषा की है 'यत्क्रियते तत्कर्म' अर्थात् जो किया जाता है उसे कर्म कहते हैं। कर्म का अभिप्राय है चेतन द्रव्य की सोची समझी क्रिया। जड़ द्रव्य की क्रिया कर्म नहीं कहलाती। पृथ्वी का अपनी धूरी पर घूमना, सूर्य की ग्रहों द्वारा परिक्रमा करना क्रिया तो है कर्म नहीं। कर्म उन्हें ही कहते है जो चेतन द्रव्य-आत्मा द्वारा निश्चयपूर्वक क्रिया (रूप में) किये जाते हैं। आंख का झपकना, दिल का धड़कना आदि नैसर्गिक क्रियाएं कर्म के अन्तर्गत नहीं आती।
प्रश्न यह होता है कि कर्म का आरंभ कब से हुआ? इसका सीधा उत्तर है कि जब से शरीर तथा आत्मा का सम्बन्ध हुआ। यहां यह जानना आवश्यक है कि जिस प्रकार सृष्टि प्रवाह से अनादि है इसी प्रकार जीव तथा शरीर का सम्बन्ध अनादि है इसलिए कर्म भी प्रवाह से अनादि है। अत: कर्म का आरम्भ नहीं होता। कर्म और जीवात्मा का स्वाभाविक सम्बन्ध है अतः जीवात्मा बिना कर्म के नहीं रह सकता। पाणिनि ने अष्टाध्यायी में 'स्वतंत्र कर्त्ता' सूत्र द्वारा कहा कि कर्त्ता कर्म करने में स्वतन्त्र है। कर्त्ता यदि चाहे तो कल्याण का कार्य अर्थात् परोपकार करे, दीन-दुखियों की सेवा करे अथवा अशिव अर्थात् अन्याय, अत्याचार, चोरी, बलात्कार करे। परन्तु उसका फल उसके हाथ में नहीं है। जैसा कि महाभारत में कहा है: 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन'। कर्म करना अधिकार में है परन्तु उसका फल नहीं है। फल दाता दूसरा है।
वेद में एक मन्त्र में स्पष्ट कहा है:-
न किल्विषमत्र नाधारो अस्ति न यन्मित्रै: समममान एति।
अनूनं निहितं पात्रं न एतत् पक्तारं पक्व: पुनराविशति।। -अथर्व १२/३/४८
अर्थ- "कर्मफल के विषय में कोई त्रुटि कभी नहीं होती और किसी की सिफारिश भी नहीं सुनी जाती, ऐसी बातें नहीं होती। यह भी नहीं है कि मित्रों के साथ सङ्गति करता हुआ जा सकता है। कर्मफल रूपी तराजू पूर्ण है बिना किसी घटा-बढ़ी के सुरक्षित रखी है। पकाने वाले को पकाया हुआ पदार्थ, कर्मफल के रूप में आ मिलता है, प्राप्त हो जाता है।"
उपर्युक्त मन्त्र में स्पष्ट किया गया है कि ईश्वरीय न्याय व्यवस्था में प्रत्येक को उसके कर्मों के अनुसार फल प्राप्त होता है। यदि धर्म के मार्ग पर चलकर कल्याणार्थ कर्म है तो इसका फल पुण्य तथा अधर्मपूर्ण कार्य है तो पाप फल प्राप्त होगा। जिसे हम दूसरे शब्दों में धर्म वाले कार्य का फल स्वर्ग (सुख) तथा अधर्म वाले कार्य का फल नरक (दुःख) भोगना पड़ेगा ऐसा कहते हैं। कहा भी है-
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।
प्रत्येक जीव को अपने किये हुए अच्छे एवं बुरे कर्मों के फल को भोगना पड़ता है।
कर्म कितने प्रकार के हैं यदि हम इस विषय में विचार करें तो कर्म का साधन मन, वाणी और शरीर हैं। इनकी दृष्टि से कर्म तीन प्रकार के होते हैं- मानसिक, वाचिक तथा शारीरिक। प्रकृति के तीन गुण होते हैं- सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण। इन्हीं गुणों के आधार पर जो कर्म किये जाते हैं उन्हें सात्विक, राजसिक, सामसिक कर्म कहते हैं। मनु महाराज ने सात्विक कर्मों की व्याख्या इस प्रकार की है-
वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धर्मक्रियात्मचिंता च सात्विकं गुण लक्षणम्।। -मनु. १२/३१
अर्थ- जो वेदों का अभ्यास, धर्मानुष्ठान, ज्ञान की वृद्धि, पवित्रता की इच्छा, इन्द्रियों का निग्रह, धर्म के कार्य और आत्मा का चिंतन होता है यही सत्वगुण का लक्षण है। (स. प्र. नवम समु.)
जो कर्म अहंकार और फल की कामना से अति प्रपण के साथ किया जाता है वह रजोगुणी कहा जाता है। (गीता १८/२४)
लोभ, अत्यन्त आलस्य और निद्रा, धैर्य का अभाव, अत्याचार, नास्तिकता, एकात्मता का अभाव, जिस किसी से मांगना, प्रमोद अर्थात् मद्यपानादि और दुष्ट व्यसनों में फंसना यह तमोगुण के लक्षण हैं। -मनु. १२/३३
कुछ कर्मों का फल दृष्य होता है जो इस लोक और इस जन्म में प्राप्त होता है, और अन्य कर्मों का फल अदृष्य है जन्म-जन्मान्तर में मिलता है। जिसे जीव उपर्युक्त कर्मानुसार भोगता है।
फल की दृष्टि से कर्म का एक अन्य विभाजन तीन प्रकार से किया गया है- संचित, प्रारब्ध तथा क्रियमाण। मनुष्य जो कर्म करता है उसे क्रियमाण कहते हैं। जन्म जन्मान्तर के किये हुए तथा उन कर्मों का कोष जिनका फल नहीं प्राप्त हुआ है उन्हें संचित कर्म कहते हैं। संचित कर्मों से जिन कर्मों का फल हम वर्तमान में भोग रहे हैं उसे ही प्रारब्ध कहते हैं इसी प्रारब्ध को लोग दूसरे शब्दों में 'भाग्य' कहते हैं। भाग्य ईश्वर की ओर से नहीं होता अपितु जीवों के कर्मों का कर्मफल ही भाग्य है।
कुछ विचारकों ने कर्म के दो रूप बताये हैं- सकाम कर्म तथा निष्काम कर्म। इस संसार में कामना के बिना कोई कर्म नहीं होता, मनुष्य जो भी कर्म करता है वह कामना के द्वारा ही करता है। संसार में कोई कर्म निष्काम नहीं होता। उसे भले ही मनोभावों से निष्काम बनाया जाय। जैसे माता-पिता अपने सन्तान का जन्म से पालन-पोषण करते हैं एवं ईश्वर की भक्ति पावन कर्म है किन्तु स्वार्थ एवं मुक्ति की कामना न रख कर किया जाए। लोग इन्हें ही निष्काम कर्म की संज्ञा देते हैं।
कतिपय लोगों का मानना है कि ईश्वर ही जीवों से अच्छे बुरे कर्म करवाता है। परन्तु यह भ्रांत धारणा है क्योंकि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है। यदि ईश्वर कर्म कराता होता, जीव कोई भी पाप कर्म न करता क्योंकि परमात्मा पवित्र एवं धार्मिक होने से किसी जीव को पाप करने की प्रेरणा नहीं करता है अतः जीव कर्म करने में पूर्ण स्वतन्त्र है। जीवात्मा और कर्म का स्वाभाविक सम्बन्ध है अतः जीवात्मा बिना कर्म किये नहीं रह सकता इसलिए वेद में कहा है-
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समा:।
एवन्त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे। -यजु ४०/२
अर्थ- "परमात्मा आदेश करते हैं कि ऐ मनुष्यो आलस्य त्यागकर सत्कर्मों को करते हुए सौ वर्ष या उससे अधिक जीने की शुद्ध मन से कामना करो। क्योंकि यही मनुष्य के लिए श्रेष्ठ मार्ग है। ऐसा करने वाला मनुष्य कर्म में लिप्त नहीं होता। इसके अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग नहीं है।"
उपर्युक्त मन्त्र में स्पष्ट कहा गया है कि मनुष्य निष्क्रिय या निष्कर्म होकर जीने की कभी इच्छा न करे। जीवन भर सत्कर्म करते हुए, सेवा कर्म करते हुए जीवे। निठल्ला, निष्क्रिय या निष्कर्म होकर न जीवे क्योंकि कर्म ही मनुष्य की शोभा है। मानव जीवन की सार्थकता है। कर्म ही पूजा है, कर्म ही उन्नति का मार्ग है और सफलता की कुंजी है। चारों वेदों में सर्वत्र मनुष्य को श्रेष्ठ कर्म करने की प्रेरणा देते हुए जीवन में उन्नति, सौभाग्य और धन अर्जन कर दानादि देकर समाज, देश तथा राष्ट्र के कल्यार्थ कर्म करना उसका परम कर्तव्य बताया गया है। महर्षि दयानंद जी श्रेष्ठ कर्म करने के लिए सदैव प्रेरित करते रहे, उनका मानना था कि मानव धर्म श्रेष्ठ है तथा मानवता के कल्याण में मनसा, वाचा, कर्मणा संलग्न रहना चाहिए। वह देश ही सुखी, सम्पन्न तथा स्वस्थ माना जाता है जहां के लोग कर्मशील व धार्मिक हों। इसलिए ही ज्ञान, कर्म तथा उपासना को भौतिक सुख तथा अध्यत्मिक आनन्द प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन माना गया है। इससे हम जहां सांसारिक जीवन को सुखी बना सकते हैं वहीं हम ईश्वर प्राप्ति कर मोक्ष के मार्ग को प्रशस्त करते हैं। कर्मफल का मूल उद्देश्य सद्गुणों का विकास कर सुधार करना है।
कई लोग यह प्रश्न करते हैं कि ईश्वर ने जीव को क्यों बनाया? न जीव को बनाता, न जीव इस ईश्वर की दुःखमयी सृष्टि में दुःख भोगता। उन्हें जानना चाहिए कि ईश्वर ने जीव को नहीं बनाया बल्कि ईश्वर, जीव तथा प्रकृति तीन अनादि सत्ताएं हैं। जिन्हें न कोई बना सकता है न नष्ट कर सकता है। ईश्वर की सृष्टि व्यवस्था में जीव को शरीरधारी बनाकर उसको भोग और कर्म करने का अवसर प्रदान किया गया है। जीव स्वतन्त्रता पूर्वक पुण्य का कार्य करके सुख प्राप्त करे तथा यदि पाप कर्म करे तो उसे दुःख प्राप्त होगा। इसी प्रकार जो लोग जीव को ईश्वर का अंश मात्र मानते हैं वह कर्मवाद पर पूर्ण विचार नहीं करते। जीव को ईश्वर का अंश मानना तो ईश्वर को अखण्ड तथा अखण्डनीय मानने से इन्कार करना है। यह दोष ईश्वर पर लागू होगा। जैसे ईश्वर का एक अंश, ईश्वर के दूसरे अंश के यहां चोरी करे, बलात्कार करे, हत्या करे आदि बुरे कर्म को दूसरा अंश पुलिस में रिपोर्ट करे, ईश्वर का अंश पकड़ा जाए, वाद न्यायालय जाए में एक अंश उसे दोषी माने और दण्ड दे। ईश्वर का एक अंश पाप कर्म करे और दूसरा अंश दण्ड दे। जीव को ईश्वर का अंश मानना न तर्कपूर्ण है न वैज्ञानिक है। हां ऐसी काल्पनिक बात तो कल्पना मात्र ही है। ईश्वर पर दोषारोपण है। सत्यता यह है कि जीव सूक्ष्म है, परमात्मा सूक्ष्मतम है, दोनों में व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है।
ईश्वर की सृष्टि में जीव को सुख और दुःख दोनों प्राप्त होते रहते हैं क्योंकि दोनों की आवश्यकताएं हैं। यदि जीव को केवल सुख प्राप्त हो तो वह भी कुछ दिनों के बाद दुःख लगने लगता है और दुःख तो दुःख ही है। "सुख तो आत्मा का भोजन एवं वरदान है और दुःख अमृत और औषध।" सुखी होकर आत्मा अच्छे एवं इष्ट काम करने को उत्साहित होता है और दुःख दोनों आत्म विकास के श्रेष्ठ साधन हैं। अतः सुख-दुःख जीव के कर्मों का फल है।
लेखक- कामता प्रसाद मिश्र
वैदिक दृष्टि से बढ़िया विचार है। अन्य धर्मों में कर्म की क्या मान्यता है बतावे।
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