Monday, July 30, 2018

क्या वेद में सौतिया डाह और टोना-टोटका है?



*क्या वेद में सौतिया डाह और टोना-टोटका है?*
- कार्तिक अय्यर
( दिनांक- २९/७/१८)
।।ओ३म्।।
पाठकगण! हमने प्रतिज्ञा की थी कि वामपंथी नवबौद्ध लेखक सुरेंद्र कुमार शर्मा अज्ञात की इंग्लिश वाली पुस्तक का प्रत्याख्यान करेंगे।हमने पहले सूचित किया था कि वेदों में स्त्री विषयक अाक्षेपों को का उत्तर हम देंगे।इस खंडन-मंडन में 2-3 लेख हो जाएंगे।इस लेख में हम वादी के एक अाक्षेप की चर्चा करेंगे जो कि वेदों में सपत्नी यानी सौत को लेकर किया है । वादी ऋग्वेद १०/१४५/१-६ व अथर्ववेद ३/१८/१-६ पर प्रश्न करता है।दोनों वेदों में यही सूक्त आया हुआ है। इन मंत्रों पर अक्सर नास्तिक लोग अाक्षेप करते हैं ,कि वेद में एक पत्नी अपनी सपत्नी के विनाश के लिए तथा पति को अपने वश में करने के लिए टोना टोटका आदि करती है।
हम सबसे पहले स्वामी ब्रह्ममुनि कृत ऋग्वेद भाष्य के कुछ प्रमाण उद्धृत करते हैं।उसके बाद अथर्ववेद तथा ऋग्वेद के आधुनिक भाष्यकार पंडित हरि शरण विद्यालंकार तथा पंडित जयदेव शर्मा इनके भाष्यों की भी चर्चा करेंगे तथा लेख के अंत में यह भी बताएंगे कि वेद में सौतिया डाह के बारे में क्या कहा गया है।
सबसे पहले ऋग्वेद के १०/१४५ को लेते हैं-
ऋषि: (Rishi) :- इन्द्राणी
देवता (Devataa) :- उपनिषत्सपत्नीबाधनम्
यहां मंत्र का देवता यानी प्रतिपाद्य विषय "उपनिषत्सपत्नीबाधनम्" है- यानी उपनिषद रूपी ब्रह्मविद्या से सपत्नी को बांधना"। इसके पहले मंत्र पर ब्रह्ममुनि का भाष्य देते हैं-
इ॒मां ख॑ना॒म्योष॑धिं वी॒रुधं॒ बल॑वत्तमाम् । यया॑ स॒पत्नीं॒ बाध॑ते॒ यया॑ संवि॒न्दते॒ पति॑म् ॥
ब्रह्ममुनि का भाष्य इस लिंक पर आप देख सकते हैं-
http://www.vedakosh.com/…/m…/sukta-145/mantra-rig-10-145-001
इस सूक्त में कामवासना की नाशक अध्यात्मविद्या है, परमात्मा के साथ मेल करानेवाली भी है, इसकी सहायक सोम ओषधि भी, अध्यात्मप्रेमी को उसका भी सेवन करना है, इत्यादि विषय हैं।
(इमाम्-ओषधिम्) इस दोष पीनेवाली (बलवत्तमां वीरुधम्) बलिष्ठ विशेषरूप से रोहणसमर्थ विद्या को (खनामि) निष्पादित करता हूँ (यया) जिसके द्वारा (सपत्नीं बाधते) विरोधिनी अनिष्ट कामवासना को बाधित करती है, जो उपनिषद्-अध्यात्मविद्या की सपत्नी है (यया पतिं संविन्दते) जिस उपनिषद्-अध्यात्मविद्या द्वारा विश्वपति परमात्मा को मनुष्य प्राप्त होता है ॥१॥
भावार्थः
कामवासना को मिटानेवाली उपनिषद् अध्यात्मविद्या को निष्पादित करना चाहिए तथा जो कामवासना को मिटाकर विश्वपति परमात्मा को प्राप्त कराती है ॥१॥
(देवजूते) हे जीवन्मुक्तों के द्वारा प्रीति-चाही हुई (सहस्वति) बलवाली (सुभगे) सुभाग की निमित्तभूत (उत्तानपर्णे) उत्कृष्ट पालन जिसका है, ऐसी अध्यात्मविद्या या उसके निमित्त सोम ओषधि ! (मे) मेरी (सपत्नीं पराधम) विरोधी कामवासना को परे कर (मे पतिं केवलं कुरु) मेरे विश्वपति परमात्मा को नितान्त बना ॥२॥
भावार्थः
जीवन्मुक्तों के द्वारा अध्यात्मविद्या या उसकी निमित्तभूत सोम ओषधि सेवन की जाती है, जो कामवासना को मिटाती है, परमात्मा का सङ्ग कराती है ॥२॥
सूक्त के देवता तथा भाष्य से यह स्पष्ट हो जाता है की इन मंत्रों में सपत्नी का अर्थ विद्या की सपत्नी=दुश्मन अविद्या के नाश के लिये ब्रह्मविद्यारूपी औषधि की बात की जा रही है।
अब हम पंडित हरि शरण और पंडित जयदेव के भाष्यों से कुछ वचन को उद्धृत करते हैं:-
उपनिषद ब्रह्मविद्या की सपत्नी अविद्या का दृष्टांत से स्पष्ट करते हैं।.... यहां केवल जिस तरह सौत को सौत हटाती है वैसे ही अविद्या को विद्या दूर हट आती है। ( अथर्ववेद ३/१८/१)
मैं विपरीत मार्ग में ले जाने से रोकने वाली पाप संकल्पों को दग्ध करने वाली अत्यंत बलवती उपनिषद ब्रम्हविद्या से विद्या की सौत अविद्या का नाश करता हूं।( ऋग्वेद १/१४५/१)
( पं जयदेव कृत ऋग्वेद व अथर्ववेद भाष्य से)
आध्यात्मविद्या की सपत्नीभूत भोगवृत्ति।( ऋग्वेद १०/१४५/१,२)
इंद्राणी की सपत्नी रूप भोगवृत्ति।(अथर्ववेद ३/१८/१)
( पं हरिशरण जी के भाष्यों से)
आध्यात्मविद्या की सपत्नीभूत भोगवृत्ति।( ऋग्वेद १०/१४५/१,२)
इंद्राणी की सपत्नी रूप भोगवृत्ति।(अथर्ववेद ३/१८/१)
( पं हरिशरण जी के भाष्यों से)
इन भाष्यों से सिद्ध है कि इन सूक्तों में सपत्नी यानी अविद्या के नाश हेतु ब्रह्मविद्या रूप औषधि का नाश करना है; नाकि कोई टोना-टोटका करके अपनी सौत का विनाश करना।
वैदिक परंपरा में एकपत्नीकव्रत आदर्श माना गया है ।चारों वेदों में एक भी मंत्र में एक ही समय में एक से अधिक पत्नियां रखने की कोई आज्ञा नहीं है। हम ऋग्वेद आदि के कुछ उदाहरण देकर अपनी बात को सिद्ध करने का प्रयास करते हैं;-
ऋग्वेद के तीनों मंत्र ( १।१२४।७, ४।३।२ तथा १०।७१।४) वर्णित करते हैं – ‘ जाया पत्य उशासी सुवासा ‘ अर्थात विद्या विद्वानों के पास उसी प्रकार आती है जैसे एक समर्पित हर्षदायिनी पत्नी सिर्फ अपने पति को ही प्राप्त होती है| ‘ जाया’ तथा ‘ पत्य’ क्रमशः पत्नी तथा पति का अर्थ रखते हैं | यह दोनों शब्द एकवचन में प्रयुक्त हुए हैं, जो सिर्फ एक पति और एक पत्नी के आदर्श रिश्ते को प्रस्तुत करते हैं |
ऋग्वेद १। ३ ।३ में परमात्मा को पवित्र और उच्च आचरण वाली समर्पित पत्नी की उपमा दी गई है, जिस में एक पत्नीत्व का आदर्श भी अन्तर्निहित है |
लीजिये, यहां पर यहां पर ईश्वर को ही पत्नी की उपमा दी गई है! तब फिर ईश्वर की ब्रह्मविद्या को पत्नी क्यों न कहा जाये? "पत्नी" शब्द पति का स्त्रीलिंग है। पति शब्द "पा रक्षणे" धातु से बना है। यानी जो रक्षण,पोषण करे , वो पति। इसका स्त्रीलिंग पत्नी हुआ। अतः ब्रह्मविद्या व परमात्मा को पत्नी कहा जा सकता है।
विवाह से संबंधित सभी मंत्र द्विवचन सूचक शब्द दंपत्ति को संबोधित करते हैं, जो एक ही पत्नी और एक ही पति के रिश्ते को व्यक्त करता है | जिस के कुछ उदाहरण ऋग्वेद १०।८५।२४, १०।८५।४२ तथा १०।८५।४७ हैं , अथर्ववेद के लगभग सम्पूर्ण १४ वें कांड में विवाह विषयक वर्णन में इसका उपयोग हुआ है | प्रायः मंत्रों में जीवन पर्यंत एकनिष्ठ सम्बन्ध की प्रार्थना की गई है |
कृपया ध्यान दें, संस्कृत में एकवचन और बहुवचन से पृथक द्विवचन का प्रयोग है, ताकि किसी भ्रम की गुंजाइश ना रहे |
वेदों में एक से अधिक पत्नियां रखने का हर जगह निषेध ही किया है-
a. ऋग्वेद १०। १०५।८ एक से अधिक पत्नीयों की मौजूदगी को अनेक सांसारिक आपदाओं के सादृश्य कहता है |
b. ऋग्वेद १०। १०१ ।११ कहता है – दो पत्नियों वाला व्यक्ति उसी प्रकार दोनों तरफ़ से दबाया हुआ विलाप करता है, जैसे रथ हांकते समय उस के अरों से दोनों ओर जकड़ा हुआ घोड़ा हिनहिनाता है |
c. ऋग्वेद १०। १०१ । ११ के अनुसार दो पत्नियां जीवन को निरुदेश्य बना देती हैं |
d. अथर्ववेद ३ । १८।२ में प्रार्थना है – कोई भी स्त्री सह – पत्नी के भय का कभी सामना न करे |
हम इस संदर्भ में प्रमाणों के लिये अग्निवीर साइट का धन्यवाद करते हैं नीचे दी गई लिंक में जाकर आप अग्निवीर के विस्तृत लेख को पढ़ सकते हैं:-
अगले लेख में इसी विषय को आगे बढ़ायेंगे तथा नास्तिकों के अन्य आक्षेपों की क्रमशः समीक्षा करेंगे।
.... क्रमशः ।।
।।नमस्ते।।
।।वैदिक धर्म की जय।।

No comments:

Post a Comment