Monday, October 30, 2017

फिर दिवाली आ गई



फिर दिवाली आ गई
रचियता-सतपाल पथिक
यह आ गई आ गई फिर दिवाली आ गई, दिल पर ऋषि की याद फिर बनकर घटा सी छा गई।
जिस दिन हुए संसार में दर्शन ऋषि के आखिरी,सुन लो कथा उस दिन की ओ पत्थर को भी पिंघला गई।
अजमेर की भूमि थी वह और वक्त था शाम का, इक जोत जब बुझने लगी हर जिंदगी घबरा गई।
पिए दूध में कांचों-जहर पूरा महीना हो गया, सारा जिस्म जख़्मी हुआ नस-नस चुभन तड़पा गई।
अंदर से जिसकी नाड़ियां उस कांच ने थी काट दी, और झर की तासीर भी अपना असर दिखला गई।
वेदों में जितने मंत्र हैं उतने ही छाले देह पर, प्यारे ऋषि की यह दशा भक्तों के दिल दहला गई।
सारे बदन में दर्द था दुःखता था चाहे रोम रोम, पर मुस्कराहट अंत तक चेहरे का साथ निभा गई।
यह तो वही काया है जो रखती थी ताकत शेर की, पर अब पड़ी मजबूर है गुल की तरह कुम्हला गई।
उसने कहा अब खोल दो दरवाजे और सब खिड़कियां, यह बात ही अब कुछ का बस वक्त है समझा गई।
और फिर कहा आकर मेरे पीछे खड़े होवो सभी, खुद ही समाधी की दशा जो अपूर्व दृश्य बन गई।
मन्त्रों का उच्चारण किया और प्रेम की संध्या करी, फिर लेट गए आराम से जिव्हा यह बोल सुना गई।
अच्छी करी लीला प्रभु इच्छा तुम्हारी पूर्ण हो, यह कह के ऑंखें मूंद लीं बिजली सी इकलहरा गई।
फिर श्वास खिंचा जोर से और तन से बाहर कर दिया, बस यह हवा जाती हुई परलोक में पंहुचा गई।
लो देखते ही देखते पिंजरे का पंछी उड़ गया, हर दिल की धड़कन रुक गई हर एक नजर पथरा गई।
यह आ गई आ गई फिर दिवाली आ गई, दिल पर ऋषि की याद फिर बनकर घटा सी छा गई।

Tuesday, October 17, 2017

सत्यार्थ प्रकाश क्यों पढे ?



सत्यार्थ प्रकाश क्यों पढे ?

रोहिताश आर्य

महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा लिखित ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश एक अनुपम ग्रंथ है। इसमें ऋषि ने 377 ग्रंथो के प्रमाण दिये है।और 1542 वेद मन्त्र व श्लोक लिखे है,इसमें कुल प्रमाणो की संख्या 1886 है। ऋषि ने अपनी ओर से कुछ नहीं कहा वे ऋग्वेद से लेकर पूर्व मीमांसा तक लगभग 3000 संस्कृत ग्रंथो को प्रमाणिक मानते थे और इन्ही ग्रंथो का निचोड़ सत्यार्थ प्रकाश मे है।  ऋषि ने इसे मात्र साढ़े तीन माह मे मौखिक रुप से बोलकर लिखवाया।इससे उनके विशाल शास्त्र ज्ञान ,व्यापक अनुभव और दिव्य प्रतिभा का परिचय मिलता है।इसमे 14 समुल्लास व पांच भूमिका है। पहले दस समुल्लास मे ऋषि ने सत्य का मंडन किया है,और अन्तिम चार मे संसार मे फैले विभिन्न मत मतान्तरो का वेद के आधार पर निष्पक्ष रुप से खण्डन किया है।चारो समुलासो से पहले भूमिका से यह प्रकट होता है।अंधेरे मे सोये लोगोको जगाने की आवश्यकता है।  जिससे वे सूर्य का प्रकाश देख सके।गलत रास्ते पर चलने वाले पथिक को पहले ऊंचे स्वर मे यह बताने की जरुरतहै कि तू उल्टे मार्ग पर जा रहा है।  वहाँ से वापस आ और इधर चल। सत्यार्थ प्रकाश विभिन्न मतो की अविद्या मे सोये लोगो को जगाकर वेद रुपी सूर्य के दर्शन करने की प्रेरणा देता है।सत्यार्थ प्रकाश उस मनुष्य के समान है, जो सोते लोगो के सामने अपनी एक उंगली से सूर्योदय को बतला रहा है।  जबकि दूसरे हाथ से आलस्य को त्यागकर उठने के लिए झिझोड रहा है। इसके दो भागो मे पहला वेदसूर्य की ओर अगुली कर रहा है और दूसरा मतो के आलस्य त्यागने के लिए गति दे रहा है। यदि मनुष्य को केवल गति ही देते जाओ कि उठो तो उठने वाला करवट बदलता रहता है और कहता है कहीं सूर्य दिखाई नहीं देता अभी रात है और वह नहीं उठता। सत्यार्थ प्रकाश उस मनुष्य के समान है जिसके एक हाथ मे दवाई व दूसरे मे पौष्टिक भोजन है। पहला भाग पौष्टिक भोजन है तो दूसरा कडवी दवाई। स्वस्थ मनुष्य को केवल पौष्टिक भोजन की आवश्यकता होती है।  जबकि बीमार को भोजन व दवा दोनों चाहिए। जागते हुए मनुष्य के लिए मंडन हुआ करता है, परन्तु सोये हुओ के लिए मंडन व खण्डन दोनों आवश्यक है। कुछ लोग कहते है कि खण्डन नहीं करना चाहिए केवल अपना मंडन कर दिया।लोग अपना भला बुरा स्वयं सोचे हम किसी का मन क्यों दुखावे। लेकिन यह कथन हर जगह लागू नहीं होता। जैसे एक रोगी मनुष्य को रोग से बचाने के लिए हम उसे कडवी दवा जबरदस्ती भी देते है।   वह हमारे लात भी मारता है गाली भी देता है फिर भी हम दवा देते है।इसका अर्थ यह नहीं कि हम उसका बुरा चाहते है। रोगी को दवा के साथ पौष्टिक भोजन चाहिए और सत्यार्थ प्रकाश दोनों काम करता है। सत्यार्थ प्रकाश वह ज्ञान रुपी टार्च है जो हमे अविद्या अन्धकार रुपी गड्ढे मे गिरने से बचाता है।यह निश्चित है जिसने सत्यार्थ प्रकाश पढ लिया उसको कोई धोखा नहीं दे सकता ।

इसके लिए पहले ऋषि की भावना देखते है आरंभ मे वे प्रतिज्ञा करते है कि हे ईश्वर आप ही अन्तर्यामी रुप से प्रत्यक्ष ब्रह्म हो जो आपकी वेदस्थ आज्ञा है उसी को मै सबके उपदेश और आचरण भी करुंगा। सत्य बोलू ,सत्य मानू और सत्य ही करुंगा,सो आप मेरी रक्षा करो आप मुझ सत्य वक्ता की रक्षा किजिये।  जिससे मेरी बुद्धि आपकी आज्ञा के विरुद्ध कभी न हो क्योंकि जो आपकी आज्ञा वही धर्म और उसके विरुद्ध अधर्म है मै धर्म का पालन व अधर्म से घृणा सदा करु ऐसी कृपा मुझ पर किजिए मै आपका उपकार मानूगा।

सत्यार्थ प्रकाश के पहले समुल्लास मे ऋषि ने ईश्वर के मुख्य निज नाम ओ३म् की व्याख्या की है इसका क्या अर्थ है यह बताया है फिर ईश्वर के सौ गुण वाचक नाम शिव विष्णु ,गणेश आदि की व्याख्या की है और बाद मे गणेशाय: नम:आदि लिखने को गलत बताया है क्योंकि यह ऋषि परम्परा के विपरीत है।
दूसरे समुल्लास मे सन्तान की शिक्षा व पालन के विषय मे कहा है बच्चे को भूत प्रेत आदि से डराने को गलत बताते है वे कहते है माता पिता ,आचार्य अपने सन्तान व शिष्य को उपदेश करे और यह कहे जो-२ हमारे धर्म युक्त कर्म है उनको ग्रहण करो और जो दुष्ट कर्म है उनका त्याग करो।

तीसरे समुल्लास मे वे बच्चो की शिक्षा कैसी हो कौन सी पुस्तक पढे कौन सी नही ।संध्या के विषय मे कहते है-न्यून से न्यून एक घण्टा ध्यान अवश्य करे।जैसे समाधिस्थ होकर योगी ईश्वर का ध्यान करते है वैसे ही सन्ध्योपासना करे।हवन के बारे मे कहते है प्रत्येक मनुष्य सोलह -२ आहुति और छ:-२ माशे घृत की आहुति रोज अग्नि मे दे जो ऐसा नहीं करता वह पापी है।

चौथे समुल्लास मे वे विवाह कितने प्रकार के होते है कौन से उत्तम है विवाह कहाँ करना चाहिए किससे करना चाहिए कब करना चाहिये ये प्रमाण सहित बताया है।परिवार मे स्त्री पुरुष का कैसा व्यवहार हो उनके दैनिक कार्य क्या है यह बताया है।

पांचवे समुल्लास मे आश्रम व्यवस्था का पालन न होने से क्या हानि है वानप्रस्थ व सन्यास आश्रम के विषय मे कहा है। सन्यासी के गुणो का वर्णन किया है।

छटे समुल्लास मे राज्य व्यवस्था का वर्णन किया है विद्यार्य सभा ,धर्मार्य सभा और राजार्य सभा व सभापति के बारे मे कहा है।राजा के कर्तव्य मन्त्री ,युद्ध कला दंड व्यवस्था का वर्णन किया है।

सातवे समुल्लास मे ईश्वर व वेद विषय मे बताया है।ईश्वर की प्रार्थना के विषय मे कहते है -केवल मुख से बोलने का नाम प्रार्थना नहीं बल्कि मनुष्य जिस बात की प्रार्थना करे वैसा ही आचरण भी करना चाहिये ।प्रार्थना के बाद अष्टांग योग की रीति से उपासना करने का वर्णन किया है।

आठवे समुल्लास मे सृष्टि की उत्पत्ति कैसे हुई उसकी स्थिति व प्रलय क्या है,मनुष्य की सर्वप्रथम उत्पत्ति कहाँ हुई आर्य कौन है कहाँ के निवासी है आदि का वर्णन किया है।

नवे समुल्लास मे विद्या अविद्या बन्धन और मोक्ष विषय मे बताया है।अन्नमय ,मनोमय,प्राणमय,विज्ञानमय और आनन्दमय कोश क्या है ये बताया ।मुक्ति क्या है इसका समय कितना है क्या मुक्ति के बाद जीव पुन:जन्म लेता है वेद के आधार पर बताया है।

दसवे समुल्लास मे आचार अनाचार व क्या खाना क्या नहीं खाना इसका वर्णन किया है वे कहते है जितना हिंसा और चोरी ,विश्वासघात ,छल कपट आदि से प्राप्त पदार्थो का भोग करना वह अभक्ष्य और अहिंसा ,धर्म आदि कर्मो से प्राप्त होकर भोजन करना भक्ष्य है।

ग्यारहवे समुल्लास मे आर्यवृत मे फैले अनेक मत मतान्तर के दोषो का बिना पक्षपात के वर्णन किया है।इन मतो से क्या हानि है दृष्टान्त देकर विनोद पूर्ण ढंग से बताया है।

बारहवे समुल्लास मे जैन मत बौद्ध मत चार्वाक और मूर्ति पूजा कब शुरु हुई इसकी हानि क्या है यह बताया है।

तेरहवे समुल्लास मे ईसाई मत बाईबिल के विषय मे बताया है और चौदहवे समुल्लास मे इसलाम व कुरान की पक्षपात रहित होकर समीक्षा की है।

इन चारो समुल्लासो को पढने से पहले इनकी भूमिका पढनी आवश्यक है क्योंकि ऋषि ने वहाँ अपना मनत्वय बताया है।

अन्त मे कहते है सबको सुख लाभ पहुँचाने का मेरा प्रयत्न और अभिप्राय है---

जिससे सब लोग सहज से धर्मार्थ काम मोक्ष की सिद्धि करके सदा उन्नत और आनन्दित होते रहे यही मुख्यतः मेरा प्रयोजन है।-स्वामी दयानन्द
  

सिख इतिहास के साथ धोखा---मियां मीर द्वारा श्री हरिमन्दिर की नींव रखने का झूठ



सिख इतिहास के साथ धोखा---मियां मीर द्वारा श्री हरिमन्दिर की नींव रखने का झूठ

---राजिंदर सिंह

यह उल्लेखनीय है कि सिक्ख इतिहास के मूल स्रोतों में यही बताया गया है कि श्री हरिमन्दिर की नींव स्वयं श्रीगुरु अर्जुनदेव (१६१०-१६६३ वि•=१५५३-१६०६ ई•) ने अपने कर-कमलों से रक्खी थी। बहुत बाद में यह बात उड़ा दी गई कि यह नींव श्री पंचम गुरु जी ने नहीं बल्कि मुसलमान पीर-फ़क़ीर या दरवेश शेख़ मुहम्मद=मियां मीर (१६०४-१६९२ वि•=१५४७-१६३५ ई•) ने रक्खी थी। वस्तुतः इस उत्तरवर्ती उड़ाई बात में कोई सार नहीं है। यहां यह विचारणीय है कि मियां मीर द्वारा श्री हरिमन्दिर की नींव रखने की इस निराधार और झूठी बात को किसने पहले-पहल तूल देकर उड़ाया।

यह बात ध्यान देने योग्य है कि उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में पंजाब के तत्कालीन गवर्नर हेनरी डेविस के अधीन कार्यरत लेखक कन्हैयालाल हिन्दी ने अपनी फ़ारसी रचना तारीख़े पंजाब (१९३२ विक्रमी=१८७५ ईसवी में श्रीगुरु अर्जुनदेव और उनसे सम्बन्धित सारे प्रसंग का उल्लेख करते हुए मियां मीर का नाम तक नहीं लिया। इससे यह भली-भांति स्पष्ट हो जाता है कि मियां मीर द्वारा हरिमन्दिर की नींव रखने या रखवाए जाने की लिखित-कल्पना १९३२ वि•=१८७५ ई• के बाद किसी समय प्रकाश में आई होगी।

ज्ञानी ज्ञान सिंह कृत श्री गुरु पन्थ प्रकाश के पहले पत्थरछापा संस्करण (दर मतबा मुर्तज़वी, दिल्ली, १९३६ विक्रमी=१८७९ ई•) में भी मियां मीर वाली कल्पना को कोई स्थान प्राप्त नहीं है। किन्तु इसी ग्रन्थ श्री गुरु पन्थ प्रकाश के दूसरे पत्थरछापा संस्करण (दीवान बूटा सिंह द्वारा मुद्रित, लाहौर, २० चैत्र १९४६ वि• = मार्च १८८९ ई•) पूर्वार्द्ध पृष्ठ २१२-२१३ पर पहली बार हरिमन्दिर की नींव रखने के सन्दर्भ में मियां मीर का उल्लेख मिलता है। उसके बाद उन्हीं की प्रसिद्ध रचना तवारीख़ गुरू ख़ालसा (भाग-१, गुरु गोविन्द सिंह प्रेस, सियालकोट, १९४८ विक्रमी=१८९१ ईसवी) के पृष्ठ १९७ पर इसी बात को दोहराया गया है।

इस पर भी ज्ञानी ज्ञान सिंह मियां मीर वाली बात को तूल देने वाले सबसे पहले व्यक्ति नहीं है। वस्तुतः इस बात को सबसे पहली बार तूल देने वाला एक अंग्रेज़ अधिकारी था।
ई• निकौल ने मियां मीर की बात उड़ाई
हरिमन्दिर की नींव रखने का श्रेय मियां मीर को देने की बात अमृतसर की म्यूनिसिपल कमेटी के सेक्रेटरी ई• निकौल (E. Nicholl) ने उड़ाई थी। दि पंजाब नोट्स एण्ड क्वैरीज़ (१८४९-१८८४), जिल्द-१, टाइप्ड कापी, एकाऊंट नं• १२१४ (सिक्ख रेफ़रेंस लाइब्रेरी, अमृतसर) के पृष्ठ १४१ पर ई• निकौल ने यह नोट दर्ज किया है :

"The foundation stone of the Hari-mandir was laid by Mian Mir •• between whom and Guru Ram Das there existed a strong frendship."

[ हरिमन्दिर की नींव का पत्थर मियां मीर ने स्थापित किया था •• जिसमें और गुरु राम दास में बड़ी गहरी मित्रता थी ]।

बस ! इतना ही नोट लिखा मिलता है। ई• निकौल ने इसका स्रोत नहीं बताया है। इस प्रकार बिना आधार बताए इस अंग्रेज़ अधिकारी ने श्री हरिमन्दिर की नींव रखने का सारा श्रेय मियां मीर को दे डाला।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि क़ादिरी सूफ़ी सिलसिले के लाहौरवासी सूफ़ी पीर शेख़ मुहम्मद=मियां मीर (९३८-१०४५ हि•=१६०४-१६९२ वि•=१५४७-१६३५ ई•) और गुरु अर्जुनदेव (१६१०-१६६३ वि•=१५५३-
१६०६ ई•) दोनों समकालीन थे। इतना होने पर भी ई• निकौल के उपरोक्त निराधार और नितान्त काल्पनिक नोट से पहले के जितने भी सिक्ख स्रोत मिलते हैं, उनमें से किसी में भी श्रीगुरु रामदास या श्रीगुरु अर्जुन देव के साथ हरिमन्दिर की नींव रखने के सन्दर्भ में मियां मीर का उल्लेख नहीं मिलता।

अंग्रेज़ी प्रभाव से सिंघ-सभाओं का गठन

ई• निकौल की उपरोक्त निराधार टिप्पणी के काल से थोड़ा पहले ही पंजाब में अलगाववाद के अंग्रेज़ी बीज बोए गए थे। सन् १८७३ में उस बीज का अंकुर श्री गुरु सिंघ सभा, अमृतसर के रूप में फूट निकला था। इस अंकुरित सिंघ सभा से प्रेरणा लेकर २ नवम्बर १८७९ ई• को सिंघ सभा, लाहौर अस्तित्व में आई। विशुद्ध पृथक्ता-वादी विचारों की स्थापना करने वाली इस नवजात सभा के प्रधान बूटा सिंह थे।

ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि दीवान बूटा सिंह के मुद्रणालय=छापेख़ाने में ही ज्ञानी ज्ञान सिंह कृत श्री गुरु पन्थ प्रकाश का दूसरा पत्थरछापा संस्करण (लाहौर, २० चैत्र १९४६ विक्रमी=मार्च १८८९ ई•) तैयार हुआ था। दीवान बूटा सिंह और उनके द्वारा स्थापित सिंघ सभा, लाहौर की अंग्रेज़-भक्ति जगत् प्रसिद्ध है।

सिंघ साहिब ज्ञानी कृपाल सिंह (श्री अकाल तख़्त साहिब के भूतपूर्व जत्थेदार और श्री हरिमन्दिर के भूतपूर्व प्रमुख ग्रन्थी) द्वारा सम्पादित "श्री गुरु पन्थ प्रकाश" में लाहौर और अमृतसर दोनों के पत्थरछापा संस्करणों (क्रमशः २० चैत्र १९४६ वि• और ज्येष्ठ शुक्ला ४, १९४६ वि• को प्रकाशित) का उपयोग हुआ है। अजीत नगर, अमृतसर से २०३४ वि•=१९७७ ई• में प्रकाशित इस टाइप्ड-संस्करण की कुल २५० पृष्ठों में छपी प्रस्तावना के पृष्ठ ९०-९४ पर ज्ञानी कृपाल सिंह सप्रमाण बताते हैं कि दीवान बूटा सिंह द्वारा मुद्रित श्री गुरु पन्थ प्रकाश (पत्थरछापा संस्करण, लाहौर, २० चैत्र १९४६ वि•=मार्च १८८९ ई•) के अनेक स्थलों पर प्रक्षेप हुआ है।

ज्ञानी ज्ञान सिंह की लाहौर से प्रकाशित इस प्रक्षिप्त रचना श्री गुरु पन्थ प्रकाश में पहली बार मियां मीर का उल्लेख इस प्रकार किया गया है :

बिस्नदेव जहि कार कराई। हरि पौड़ी गुरु रची तहांई।
संमत सोलां सै इकताली। मैं, मंदर यहि रचा बिसाली।
मींआ मीर तै नीउ रखाई। कारीगरे पलटि कर लाई।
यहि पिख पुन गुर यों बच कहे। धरी तुरक की नीउ न रहे।
इक बार जर तै उड जैहै। पुन सिखन कर तै दिढ ह्वै ह्वै।
कह्यो जैस गुर भयो तैस है

[ विष्णुदेव ने जहां कारसेवा कराई थी, गुरु अर्जुनदेव ने वहीं हरि की पौड़ियां बनाई थीं। सम्वत् १६४१ विक्रमी में यह विशाल हरिमन्दिर रचा था। गुरु जी ने मियां मीर से इसकी नींव रखवाई थी, किन्तु कारीगर ने नींव की ईंट पलट कर लगा दी। यह देख कर गुरु जी ने पुनः यह वचन कहे : तुरक=मुसलमान द्वारा धरी गई नींव स्थिर न रहेगी, एक बार यह जड़ से उखड़ जाएगी, फिर यह सिक्खों द्वारा दृढ़ होगी। गुरु जी ने जैसा कहा था, आगे चलकर वैसा ही हुआ है ]।

इस प्रकार एक अंग्रेज़-भक्त दीवान के मुद्रणालय में छपी उक्त प्रक्षिप्त रचना में वस्तुतः मियां मीर सम्बन्धी प्रसंग की नींव रक्खी गई। यह सब अंग्रेज़ विचारकों की कल्पना का पिष्ठ-पेषण मात्र था जो आगे चलकर अपनी मुख्यधारा से धीरे-धीरे कटते जा रहे अलगाव-वादी सिक्ख इतिहासकारों के बार-बार झूठे प्रचार से एक ऐतिहासिक तथ्य के रूप में प्रसिद्ध होता चला गया। सच तो यही है कि इसमें कोई सार नहीं।

वस्तुतः श्री गुरु पन्थ प्रकाश के उपरोक्त दूसरे पत्थर छापा संस्करण के इस प्रसंग की अविश्वसनीयता इस बात से और अधिक पुष्ट हो जाती है कि इसके तीसरे पत्थर-छापा संस्करण (भाई काका सिंह की आज्ञा से मतबा चश्मे नूर, श्री अमृतसर द्वारा लाला नृसिंहदास के ऐहतमाम में ज्येष्ठ शुक्ला ४, रविवार १९४६ विक्रमी को प्रकाशित) में मियां मीर द्वारा श्री हरिमन्दिर की नींव रखने का कोई उल्लेख नहीं किया गया है।

ज्ञानी ज्ञान सिंह पर सिंघ सभा का प्रभाव

ज्ञानी ज्ञान सिंह अपनी एक और रचना श्री रिपुदमन प्रकाश (भूपेन्द्र स्टेट, पटियाला, १९७६ वि•=१९१९ ई•) में बताते हैं :

उन्नी सौ बत्ती बिखै, बैठ सुधासर माहि।
तवारीख़ गुरू ख़ालसा, रची सहित उतसाहि।

इस काव्यांश से ज्ञात होता है कि ज्ञानी ज्ञान सिंह १९३२ विक्रमी=१८७५ ईसवी तक सुधासर=अमृतसर आ बसे थे जहां उन्होंने बड़े उत्साह से तवारीख़ गुरू ख़ालसा लिखना प्रारम्भ कर दिया था। इस समय तक यहां पर "सिंघ सभा" का गठन हो चुका था। तवारीख़ गुरू ख़ालसा के प्रकाशित हो चुके पहले तीन भागों के मुख पृष्ठों पर इनका प्रकाशन-वर्ष इस प्रकार दिया है :

१• गुरू ख़ालसा १९४८ वि• = १८९१ ई•
२• शमशेर ख़ालसा १९४९ वि• = १८९२ ई•
३• राज ख़ालसा १९४९ वि• = १८९३ ई•

इन पुस्तकों के प्रकाशित होने तक सिंघ सभाओं का प्रभाव बहुत बढ़ चुका था। लाहौर में अंग्रेज़-भक्त प्रो• गुरमुख सिंह और दीवान बूटा सिंह के प्रयत्नों से सिंघ सभा, लाहौर का गठन २ नवम्बर १८७९ ई• को हो गया था। इसे ११ अप्रैल १८८० ई• में सिंघ सभा, अमृतसर में मिला दिया गया और तब दोनों का संयुक्त नाम "श्री गुरू सिंघ सभा जनरल" रक्ख दिया गया।

फिर प्रो• गुरमुख सिंह के प्रयत्नों से स्थान-स्थान पर घूम-फिर कर अनेकानेक सिंघ सभाओं का बनाया जाना प्रारम्भ हुआ। इसी समय एक केन्द्रीय जत्थेबन्दी की आवश्यकता समझी गई। इसकी पूर्ति हेतु १८८३ ई• में "ख़ालसा दीवान" की स्थापना की गई जो बहुत-सी सिंघ सभाओं के गठजोड़ का परिणाम था।

इसके बाद तो सिंघ सभाओं की संख्या के साथ ही "ख़ालसा दीवान" का घेरा भी बढ़ता चला गया। वैशाखी और दीवाली जैसे त्यौहारों पर इस दीवान द्वारा ऐसे मेले आयोजित किए जाने लगे जिनमें हिन्दुओं जैसी सिक्ख रीतियों, ठाकुरों=देवमूर्तियों और विशेषकर श्री हरिमन्दिर के प्रमुख पूजास्थल और परिक्रमा मार्ग में प्रतिष्ठित देवमूर्तियों की पूजा इत्यादि विषयों की निषेधपरक आलोचना की जाती थी।

इस प्रकार की आलोचना द्वारा सिक्ख पन्थ को एक ऐसी दिशा की ओर ले जाने का प्रयास किया जा रहा था जो भारतवर्ष की मुख्य सांस्कृतिक धारा से किसी-न-किसी अंश से दूर ले जाने वाला था। वस्तुतः अंग्रेज़ विचारकों के सम्पर्क और प्रभाव में आए सिक्ख- विद्वानों के मानस से इसी समय से अलगाववाद की वह धारा फूट निकली जिसके फलस्वरूप सन् १९८० के दशक में इसने सारे पंजाब में बड़ा ही उग्र रूप धारण कर लिया था।

सन् १८७३-१८९० के जिस काल में अंग्रेजों की भारत को जातियों-उपजातियों में बांटकर रखने वाली राष्ट्र-घाती मानसिकता से प्रभावित प्रो• गुरमुख सिंह और दीवान बूटा सिंह जैसे सिक्ख-नेता और विचारक सिंघ सभाओं और ख़ालसा दीवान के माध्यम से सिक्ख-समाज को मनचाही दिशा प्रदान कर रहे थे, उसी अन्तराल में ज्ञानी ज्ञान सिंह अपनी रचना तवारीख़ गुरू ख़ालसा के लेखन-कार्य को अमृतसर में रहते हुए ही अन्तिम रूप दे रहे थे। उधर श्री गुरू सिंघ सभा जनरल और ख़ालसा दीवान का प्रमुख कार्यालय भी अमृतसर ही में था। अतः यह बात मानने योग्य नहीं हो सकती कि ज्ञानी ज्ञान सिंह इन दोनों संस्थाओं के कार्यकलापों और अंग्रेज़ी मानसिकता से परिचित न रहे हों और उन पर इनका कोई प्रभाव न पड़ा हो।

तवारीख़ गुरू ख़ालसा पर अंग्रेज़ी प्रभाव

तवारीख़ गुरू ख़ालसा के भाग-१ (गुरू ख़ालसा, १९४८ वि•=१८९१ ई•) का अवलोकन करने पर यह ज्ञात होता है कि ज्ञानी ज्ञान सिंह के लेखन-कार्य पर अमृतसर की म्युनिसिपल कमेटी के तत्कालीन सेक्रेटरी ई• निकौल द्वारा मियां मीर के हाथों हरिमन्दिर की नींव रक्खे जाने सम्बन्धी फैलाए गए शिगूफ़े का प्रभाव अवश्य पड़ गया था। इस शिगूफ़े से प्रभावित होकर वह अपनी इस रचना के पृष्ठ १९७ पर लिखते हैं :

"यद्यपि श्री अमृतसर तालाब (सरोवर) सम्वत् १६३३ वि• में गुरु रामदास ने भी पटवाया था परन्तु पांचवें गुरु ने अधिक खुदवाकर पक्का करवाया और पुल बंधवाया है। इस तीर्थ के बीच में १ माघ सम्वत् १६४५ वि• और साल ११९ गुरु (नानकशाही) में गुरु वार को हरिमन्दिर की नींव रक्खी थी।

उस वक़्त मियां मीर साहिब, मशहूर पीर जो गुरु साहिब के साथ बहुत प्रेम रखता था, अचानक आ गया। गुरु जी ने उसका मान रखने के वास्ते उसके हाथों पहली ईंट रखवाई परन्तु बिना जाने उसने उलटी रक्ख दी, राज (मिस्त्री) ने उठाकर फिर सीधी करके रक्खी। गुरु जी ने कहा : यह मन्दिर गिर कर फिर बनेगा। यही बात सच हुई।

सम्वत् १८१८ विक्रमी में अहमदशाह दुरानी बारूद के साथ इस मन्दिर को उखाड़ गया। फिर ११ वैशाख सम्वत् १८२१ में गुरुवार को बुड्ढा दल ख़ालसा ने सर-दार जस्सा सिंह आहलुवालिया के हाथों नींव रखवाई और यह टहल (सेवा) दीवान देसराज सिरसा वाले खत्री के सुपुर्द की गई।"

इस स्थल पर ज्ञानी ज्ञान सिंह ने मियां मीर के अचा-नक पहुंचने और हरिमन्दिर की नींव की पहली ईंट रक्खे जाने के सम्बन्ध में जो कुछ भी लिखा है उसके मूल स्रोत का कहीं कोई उल्लेख नहीं किया है। इससे यह पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञानी ज्ञान सिंह सदृश विद्वान् भी उन दिनों अंग्रेज़ अधिकारी द्वारा छोड़े गए पूर्व चर्चित शिगूफ़े से प्रभावित हो गए थे। वस्तुतः इस शिगूफ़े और उस पर आधारित लेखन-कार्य में कोई सार नहीं।

प्राचीन परम्परा के पक्षधर विद्वान्

श्रीगुरु अर्जुनदेव के मामा और शिष्य भाई गुरदास (१६०२-१६९४ वि•) से लेकर १९३२ वि•=१८७९ ई• तक के जितने भी प्राचीन स्रोत हैं उन सब में श्री हरि-मन्दिर की नींव रखने के सन्दर्भ में मियां मीर का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। जैसा कि प्रमाण सहित सिद्ध किया जा चुका है कि प्राचीन सिक्ख परम्परा के अनु-सार श्री हरिमन्दिर जी की नींव स्वयं श्रीगुरु अर्जुनदेव ने ही रक्खी थी। इस प्रचीन परम्परा के पक्षधर विद्वानों में से कुछ एक के विचार इस प्रकार प्रस्तुत हैं :

१• मैक्स आर्थर मैकालिफ़ (१८३७-१९२३ ई•) से प्रेरित होकर अलगाववादी रचना "हम हिन्दू नहीं" (१८९८ ई•) लिखने वाले भाई काहन सिंह नाभा (१८६१-१९३८ ई•) अपनी एक अन्य रचना महान कोश में बताते हैं :
"श्रीगुरु अर्जुनदेव ने •• सम्वत् १६४३ में सरोवर को पक्का करना आरम्भ किया और नाम अमृतसर रक्खा (सरोवर की लम्बाई ५०० फ़ुट, चौड़ाई ४९० फ़ुट और गहराई १७ फ़ुट है), जिससे शनै-शनै नगर का नाम भी यही हो गया। १ माघ सम्वत् १६४५ को पांचवें सत्गुरु ने ताल के मध्य हरिमन्दिर की नींव रक्खी और उसकी इमारत पूरी करके सम्वत् १६६१ में श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी स्थापित किए" (महान कोश, भाषा विभाग पंजाब, पटियाला, छठा संस्करण, १९९९ ई•, पृष्ठ ७६)।

यह बात ध्यान देने योग्य है कि अलगाववाद के मूल प्रेरकों में से एक होते हुए भी भाई काहन सिंह नाभा ने महान कोश में, जिसका पहला संस्करण सन् १९३० में प्रकाशित हुआ था, श्री हरिमन्दिर की नींव रखने का श्रेय श्रीगुरु
अर्जुनदेव को ही दिया है।

इसी महान कोश के पृष्ठ ९७२ पर भाई काहन सिंह नाभा ने मियां मीर का परिचय देते हुए कहीं पर भी उसके द्वारा श्री हरिमन्दिर की नींव रखने का कोई उल्लेख नहीं किया है।

२• इतिहासकार तेजासिंह-गण्डासिंह अपनी रचना सिक्ख इतिहास (पंजाबी यूनीवर्सिटी, पटियाला १९८५ ई•) के पृष्ठ ३२ पर स्पष्ट लिखते हैं :

"सन् १५८९ (१६४६ विक्रमी) में गुरु अर्जुन जी ने केन्द्रीय मन्दिर की, जिसको अब गोल्डन टेम्पल या हरिमन्दिर साहिब कहा जाता है, अमृतसर के सरोवर के मध्य में नींव रक्खी। इसके दरवाज़े सब ओर को खुलते थे जिसका भाव यह है कि सिक्ख पूजा स्थान सबके लिए एक समान खुला है।"
३• इसी प्रकार इतिहासकार डा• मनजीत कौर भी अपनी रचना दि गोल्डन टेम्पल : पास्ट एण्ड प्रैज़ेण्ट (गुरु नानकदेव यूनीवर्सिटी प्रेस, अमृतसर, १९८३ ई•) में प्राचीन परम्परा का समर्थन करते हुए यही बताती हैं कि श्री
हरिमन्दिर की नींव  श्रीगुरु अर्जुनदेव ने ही रक्खी थी।

मियां मीर और अंग्रेज़ों के पक्षधर विचारक

ई• निकौल की निराधार कल्पना से प्रभावित सिक्ख विचारकों ने कालान्तर में यह मिथ्या प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया कि श्री हरिमन्दिर की नींव मियां मीर ने रक्खी थी। उधार ली हुई बुद्धि वाले इन सिक्ख विचारकों ने सिक्ख समाज को वैष्णव भक्ति से तोड़ कर इस्लामी-ईसाई विचारधारा से जोड़ने में कोई क़सर नहीं छोड़ी।
ऐसे अंग्रेज़ी शिगूफ़े और दुष्प्रचार के समर्थक प्रो• साहिब सिंह डी लिट् अपनी पंजाबी कृति जीवन ब्रितान्त श्री गुरू अरजन देव जी (सिंह ब्रदर्ज़, अमृत-सर, तीसरा संस्करण, १९७५ ई•) के पृष्ठ १५ पर बिना प्रमाण दिए यह लिखते हैं :
"सिक्ख इतिहास लिखता है कि हरिमन्दिर साहिब की नींव सत्गुरु जी ने लाहौर के वली मियां मीर के हाथों रखवाई थी।"

यह बात ध्यान देने योग्य है कि ई• निकौल की पूर्व चर्चित मनगढ़न्त बात की पुष्टि न तो प्राचीन सिक्ख इतिहास से होती है और न ही मुस्लिम पीर-फ़क़ीर मियां मीर की समकालीन मुस्लिम जीवन-गाथाओं से।

यहां पर यह भी उल्लेखनीय है कि अमृतसर से सन् १९३० में प्रकाशित "Report Sri Darbar Sahib" में भी श्री हरिमन्दिर की नींव मियां मीर द्वारा रक्खे जाने का ही समर्थन किया गया है। यह भी उल्लेखनीय है कि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के अन्तर्गत कार्यरत रागी कीर्त्तन-कथा करते समय उपस्थित हिन्दू-सिक्ख-संगत को यही बताया करते हैं कि हरिमन्दिर की नींव मियां मीर ने रक्खी थी। इस प्रकार सच्ची गुरुवाणी के शबदों = पदों को गाते समय वे मियां मीर सम्बन्धी नितान्त झूठी बात का प्रचार करते हुए पाप को भी अर्जित कर रहे हैं। इस सारे कृत्य को अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है कि किस प्रकार झूठ को बार-बार परोसा जा रहा है !!!
उपरोक्त सारे प्रसंग का ध्यानपूर्वक अवलोकन करने से यही सिद्ध होता है कि वस्तुतः श्री हरिमन्दिर जी की नींव श्रीगुरु अर्जुनदेव ने ही रक्खी थी जैसा कि प्राचीन सिक्ख स्रोतों में लिखा है।

श्रीगुरु अर्जुनदेव की दृष्टि में श्री हरिमन्दिर की अपार महिमा

समय पाकर श्री हरिमन्दिर के निर्माण का कार्य निर्विघ्न सम्पूर्ण हुआ। कवि सोहन कृत गुर बिलास पातशाही छह (१७७५ विक्रमी, भाषा विभाग पंजाब, पटियाला, १९७२ ई•) ५/४-५ के अनुसार श्रीगुरु अर्जुनदेव जी ने श्री हरिमन्दिर की अपार

महिमा बताते हुए बाबा बुड्ढा जी से कहा था :
साहिब बुड्ढा जी सुनो, महिमां अपर अपार।
परतक्ख रूप रामदास को, सोभत स्री दरबार।४।
हरि मंदर हरि रूप है, लछमी चरन बसाइ।
जोऊ शरनि इह की पड़ै, दारद रहै न काइ।५।

[ बाबा बुड्ढा जी ! श्री हरिमन्दिर की अपार महिमा सुनें। श्रीगुरु रामदास जी के शुभ संकल्प का साकार रूप श्री हरिमन्दिर शोभायमान है। यह हरिमन्दिर उन श्रीहरि का रूप है जो अपने चरणों में लक्ष्मी जी को बसाए हुए हैं। जो श्री हरि रूप इस मन्दिर की शरण में आ जाता है उसे कोई दुःख-दारिद्र्य नहीं रहता ]। ०

गुरु गोविन्द सिंह की कृतियों का परिचय




गुरु गोविन्द सिंह की कृतियों का परिचय • भगवती दुर्गा-तत्त्व के सन्दर्भ में

(यह एक शोध पत्र है जिस पर विचार करने के लिए सिख विद्वानों का स्वागत है।)
शास्त्र और शस्त्र को विवेकपूर्वक धारण करने में समर्थ गुरु गोविन्द सिंह (१७१८-१७६५ विक्रमी) द्वारा रचित विशाल साहित्य में भगवती तत्त्व के सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। यहां भगवती दुर्गा के विविध रूपों से सम्बन्धित श्रीगुरु जी की रचनाओं का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है :

श्री दसम-ग्रन्थ साहिब में संकलित वाणियां

गुरु गोविन्द सिंह की इस विशालकाय रचना में जापु साहिब, अकाल उसतति, बचित्र नाटक, चण्डी चरित्र (उकति बिलास), चण्डी चरित्र-२, वार दुरगा की, गिआन प्रबोध, चौबीस अवतार ( इन्हीं में से रामावतार ८६४ छन्दों में और कृष्णावतार २४९२ छन्दों में प्राप्त होती हैं ), शबद, सवैये, शसत्र नाम माला, चरित्रोपा-खिआन (४०४ स्त्रियों के चरित्र), ज़फ़रनामह, और हिकाइतां संकलित हैं। इनमें से "वार दुरगा की" पंजाबी में, ज़फ़रनामह और हिकाइतां फ़ारसी में तथा शेष सभी रचनाएं ब्रज भाषा में रची गई हैं।

१• चण्डी चरित्र (उकति बिलास)

इस रचना में कुल २३३ छन्द हैं। इसमें पहले भगवती दुर्गा द्वारा मधु-कैटभ और महिषासुर नामक आसुरी शक्तियों के वध का वर्णन किया गया है। उसके बाद शुम्भ-निशुम्भ और धूम्रलोचन के वध का उल्लेख प्राप्त होता है। अन्त में देवी दुर्गा द्वारा चण्ड-मुण्ड और रक्तबीज के वध का उल्लेख किया गया है।

२• चण्डी चरित्र - २

कुल २६२ छन्दों वाली इस रचना में भगवती दुर्गा द्वारा पहले दैत्य-दानव-राज महिषासुर के वध का और फिर शुम्भ-निशुम्भ तथा चण्ड-मुण्ड के मारे जाने का उल्लेख मिलता है। इसके बाद इस रचना में धूम्रनैन और रक्तबीज नामक आसुरी शक्तियों के वध का वर्णन किया गया है।

३• वार दुरगा की

गुरु गोविन्द सिंह की इस एक मात्र पंजाबी रचना में कुल ५५ पउड़ियां हैं। इसकी पहली पउड़ी सिक्खों की प्रातः सायं होने वाली दैनिक "अरदास" में सम्मिलित है। यह पउड़ी इस प्रकार पठित है :

प्रथमि भगउती सिमरकै गुरू नानक लई धिआइ।
फिर अंगद गुर ते अमरदास रामदासै होई सहाइ।
अरजन हरिगोबिन्द नो सिमरो स्री हरिराइ।
स्री हरि क्रिसनि धिआइऐ जिसु डिठे सबु दुखु जाइ।
तेग बहादुर सिमरीऐ घरि नौ निध आवै धाइ।
सभ थाई होइ सहाइ।१।

यहां यह स्पष्ट कर देना बड़ा आवश्यक जान पड़ता है कि अलगाववादी मानसिकता वाले सिक्खों ने इस पहली पउड़ी का भावार्थ अत्याधिक बिगाड़ कर रक्ख दिया है। प्रसिद्ध टीकाकार गिआनी नरैण सिंह ने इसका भावार्थ इस प्रकार किया है :

"सबसे पहले मैं भगवती शक्ति को स्मरण करके फिर अपने सत्गुरु श्रीगुरु नानकदेव जी को ध्याता हूं। इसके बाद मैं सत्गुरु श्री अंगददेव जी, श्रीगुरु अमर दास जी और श्रीगुरु रामदास को स्मरण करता हूं, जो मेरे सहायी होंगे। फिर मैं श्रीगुरु अर्जुनदेव जी, श्रीगुरु हरिगोविन्द जी और श्रीगुरु हरिराय जी को स्मरण करता हूं। फिर मैं श्रीगुरु हरिकृष्ण जी को ध्याता हूं, जिनके दर्शन करने से सब दुःख दूर हो जाते हैं। मैं इसके बाद श्रीगुरु तेग बहादुर जी को स्मरण करता हूं जिनका स्मरण करने से मनुष्य को नौ निधियां अर्थात् सब सांसारिक सुख और धन-दौलत प्राप्त हो जाते हैं। सर्व शक्तिमान् अकाल पुरख और सब सत्गुरु साहिबान के चरणों में मेरी अरदास है कि मेरी सहायता करें ताकि मैं इस वार श्री भगउती जी की निर्विघ्न समाप्ति कर सकूं"(श्री दसम-ग्रन्थ साहिब जी, सटीक, भाग-१, भाई चतरसिंह-जीवनसिंह, अमृतसर, छठा संस्करण, जून २००९, पृष्ठ ४१५)।

ऐसा ही भ्रष्ट भावार्थ डा• रतन सिंह जग्गी और डा• गुरशरन कौर जग्गी ने भी किया है :

"सबसे पहले भगवती को स्मरण करता हूं। फिर गुरु नानकदेव जी को याद करता हूं। फिर गुरु अंगद, गुरु अमरदास और गुरु रामदास को सिमरता हूं कि मेरे सहायी हों। गुरु अर्जुनदेव, गुरु हरिगोविन्द और गुरु श्री हरिराय को सिमरता हूं। फिर गुरु श्री हरिकृष्ण को आराधता हूं जिनके दर्शन करने से सारे दुःख दूर हो जाते हैं। गुरु तेग़ बहादुर के सिमरन से नौ निधियां (ख़ज़ाने) घर में दौड़ी चली आती हैं।सारे गुरु मुझे सब स्थानों पर सहायक हों" (श्री दसम-ग्रन्थ साहिब, भाग-१, गोबिन्द सदन, महरौली, नई दिल्ली-३०, दूसरा संस्करण, जून २००७, पृष्ठ ३१५)।

वस्तुतः उपरोक्त दोनों ही भावार्थ कविवर गुरु गोविन्द सिंह के मूल आशय के सर्वथा विपरीत हैं। यहां पहली पउड़ी का भावार्थ समझने के लिए अन्तिम ५५ वीं पउड़ी को उद्धृत किया जाता है। उसमें लिखा है :

सुंभ निसुंभ पठाइआ जम दे धाम नो।
इंद्र सदि बुलाइआ राज अभिखेख नो।
सिर पर छत्र फिराइआ राजे इंद्र दे।
चउदी लोकी छाइआ जसु जगमात दा।
दुरगा पाठ बणाइआ सभे पउड़ीआ।
फेरि न जूनी आइआ जिनि इह गाइआ।५५।

[ देवी दुर्गा ने शुम्भ और निशुम्भ को यम के धाम पठा दिया। फिर इन्द्र को राज्याभिषेक के लिए अपने पास बुलाया। राजा इन्द्र के सिर पर छत्र फिरा दिया। इस प्रकार १४ लोकों में जगमाता का यश छा गया। यह दुर्गा पाठ सभी पउड़ियों में बनाया है। फिर किसी योनि में वह नहीं आ पाएगा जिसने इसे श्रद्धा से गाया है ]।

पहली पउड़ी का वास्तविक भावार्थ

यहां पर श्रीगुरु जी ने स्पष्ट रूप से कहा है कि यह दुर्गा पाठ सभी पउड़ियों में बनाया है। इससे यह बात भली-भांति साफ़ हो जाती है कि पहली पउड़ी में भी भगवती दुर्गा का ही यशोगान किया गया है, नौ गुरुओं का नहीं। इसलिए उपरोक्त दोनों टीकाकारों के भावार्थ गुरु गोविन्द सिंह के आशय के अनुरूप नहीं हैं। अतः अब इस पहली पउड़ी का वास्तविक भावार्थ नीचे दिया जा रहा है :

"सबसे पहले भगवती दुर्गा सिमर कर गुरु नानकदेव ने ध्या ली थी। फिर गुरु अंगददेव, गुरु अमरदास और गुरु रामदास के प्रति वह देवी सहायी हुई थी। गुरु अर्जुनदेव, गुरु हरिगोविन्द और गुरु हरिराय ने भी वह श्री देवी सिमरी थी। श्री हरिकृष्ण ने भी वह देवी सिमरी है, जिसके दर्शन मात्र से सब दुःख दूर हो जाते हैं। गुरु तेग़ बहादुर ने भी वह देवी सिमरी है जिसके सिमरन से घर में नौ निधियां आ विराजती हैं। वह देवी सब स्थानों पर सहायी होती है।"

दुर्गा देवी का आध्यात्मिक-दार्शनिक स्वरूप

गुरु गोविन्द सिंह ने भगवती दुर्गा-तत्त्व के आध्या-त्मिक और दार्शनिक स्वरूप का भी चिन्तन किया है। अपनी रचना "चौबीस अवतार" १/२९-३० में श्रीगुरु जी लिखते हैं :

प्रथम काल सब जग को ताता। ता ते भयो तेज बिख्याता।

सोई भवानी नामु कहाई। जिनि सिगरी यह स्रिसटि उपाई।२९।
प्रिथमे ओअंकार तिनि कहा। सो धुनि पूर जगत मो रहा।
ता ते जगत भयो बिसथारा। पुरखु प्रक्रिति जब दुहू बिचारा।३०।
[ पहले-पहल काल सारे जगत् का पिता था। उससे तेज प्रकट हुआ। वही तेजो-शक्ति भवानी नाम से जानी गई जिसने यह सकल सृष्टि उपजाई। उसने सबसे पहले ओंकार का उच्चारण किया। वह ध्वनि सारे जगत् में पसर गई। उससे तब जगत् का विस्तार हुआ, जब पुरुष और प्रकृति ने मिलकर काम किया ]।
यहां पर गुरु गोविन्द सिंह ने सत्, चित्त और आनन्द स्वरूप सच्चिदानन्द = परमेश्वर की चिद् शक्ति प्राण के सक्रिय हो उठने से सत्त्व-रज-तम स्वरूप त्रिगुणात्मक प्रकृति के तीन गुणों की साम्यावस्था भंग होने से सृष्टि उत्पन्न होने की बात कही है। ठीक ऐसी ही बात देवी-भागवतपुराण ५/१६/३५-३७ में भगवती दुर्गा दैत्य-दानव-राज महिषासुर से कहती हैं :

"मैं परमपुरुष के अतिरिक्त अन्य किसी पुरुष को नहीं चाहती। हे दैत्य ! मैं उनकी इच्छाशक्ति हूं, मैं ही सकल जगत् की सृष्टि करती हूं। वे विश्वात्मा मुझे देख रहे हैं, मैं उनकी शिवा=कल्याणमयी प्रकृति हूं। उनके निरन्तर सान्निध्य के कारण ही मुझमें शाश्वत चैतन्य है। वैसे तो मैं जड़ हूं, किन्तु उन्हीं के संयोग से मैं चेतनायुक्त हो उठती हूं।"

इससे यह भली-भांति स्पष्ट हो जाता है कि गुरु गोविन्द सिंह का कथन शास्त्र के सर्वथा अनुरूप है।

श्रीगुरु जी की उपरोक्त रचना "वार दुरगा की" का एक नाम " चण्डी दी वार" भी है। इसे "वार श्री भगउती जी की" भी कहते हैं। कुल ५५ पउड़ियों वाली इस रचना में दुर्गा शब्द २३ बार, दुर्गशाह ६, देवी ५, भवानी ३, भगवती २, चण्डी २ तथा राणी, महामाई, जगमात, रणचण्डी, कालिका और काली शब्द एक-एक बार प्रयुक्त हुआ है। दुर्गा शब्द के सर्वाधिक प्रयुक्त होने से इस रचना का नाम "वार दुरगा की" बड़ा सार्थक और विषय के अनुरूप है।

गुरु गोविन्द सिंह की रचनाओं के संग्रह के रूप में प्रसिद्धि-प्राप्त "श्री दसम-ग्रन्थ साहिब" का पहले सिक्खों में बड़ा सम्मान था। श्री आदि ग्रन्थ के साथ ही इसका भी समान रूप से आदर-सत्कार और नित्य ही पाठ किया जाता था। अंग्रेज़ फ़ौजी अफ़्सर लैफ़्टिनेंट कर्नल जाॅन मैल्कम ने १८१२ ईसवी में रचित अपनी पुस्तक में स्पष्ट लिखा है :

"जब सिक्खों के चीफ़ और प्रमुख लीडर एकत्र होकर बैठते थे तो श्री आदिग्रन्थ और श्री दसम पादशाह का ग्रन्थ का उनके सामने प्रकाश किया जाता था। वे सभी इन ग्रन्थों के सामने शीश झुकाते थे और वाहे गुरू जी का ख़ालसा वाहे गुरू जी की फ़तह का उच्चारण करते थे। फिर गेहूं के आटे, घी और मीठे से बना हुआ कड़ाह-प्रसाद कपड़े के ढककर इन दोनों पवित्र ग्रन्थों के सामने रक्खा जाता था। उसके बाद रागियों द्वारा कीर्त्तन और पाठ के अन्त में कपड़े को हटा कर प्रसाद को सिक्खों के सभी वर्गों में बांट दिया जाता था।•••पहला गुरु-मता गुरु गोविन्द सिंह ने आयोजित किया था और अन्तिम गुरु-मता १८०५ में आयोजित किया गया था" ( स्केच आॅफ़ दि सिक्ख्स, १८१२ ईसवी, विनय पब्लिकेशन्स, चण्डीगढ़, रिप्रिंट १९८१ ईसवी, पृष्ठ ९६-९७,९८)।

जाॅन मेैल्कम के उपरोक्त उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि सन् १८१२ तक सिक्खों के मन में श्री दसम-ग्रन्थ साहिब के प्रति श्री आदि ग्रन्थ जैसा ही सम्मान और आदर-सत्कार था।

महाराजा रणजीत सिंह के देहान्त के बाद

२७ जून सन् १८३९ को हुए शेरे पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के देहान्त के बाद केवल १० वर्ष के भीतर ही अंग्रेज़ों ने षड्यन्त्र रचकर उनका विस्तृत राज्य २९ मार्च १८४९ ईसवी को अपने अंग्रेज़ी साम्राज्य में मिला लिया था। इस षड्यन्त्रपूर्ण विलय के तुरन्त बाद लार्ड डल्हौज़ी और उसके सहयोगी अंग्रेज़ों ने मुसलमानों का सहयोग पाने के लिए १० अप्रैल १८४९ ईसवी को एक आदेश जारी करके बृहत्तर पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह द्वारा गोवध पर लगाए पूर्ण प्रतिबन्ध को समाप्त कर दिया और हिन्दू-सिक्ख जनमानस की धार्मिक-सांस्कृतिक भावनाओं को अनेकविध आहत करते हुए अमृतसर के सुप्रसिद्ध स्वर्णमन्दिर के बिल्कुल समीप ही एक बूचड़ख़ाना स्थापित करने की अनुमति प्रदान कर दी। अंग्रेज़ों की शह से प्रोत्साहित होकर मुसलमान क़साइयों ने बृहत्तर पंजाब के अन्यान्य स्थानों पर भी बहुत सारे बूचड़ख़ानों की पुनर्स्थापना की जहां अन्य पशुओं के साथ-साथ गायों का भी व्यापक स्तर पर वध किया जाने लगा था।

कूकाओं का गोवध विरोधी आन्दोलन

ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण राष्ट्रघाती संकट के पुनः पनपाए जाने के कारण हिन्दू-सिक्ख जनमानस में खलबली मच गई। तब इससे पार पाने का सटीक उपाय सोचा जाने लगा। आगे चलकर नामधारी बाबा राम सिंह कूका के कुशल नेतृत्व में १९१४ विक्रमी = १८५७ ईसवी के वैशाखी-पर्व पर एक ऐसे राष्ट्रभक्त संगठन का उदय हुआ जिसने गोघात का दोष मिटाने के लिए बूचड़ख़ानों को समूल उखाड़ फैंकने का बीड़ा उठाते हुए सन् १८६०-१८७० के दशक में बड़े व्यापक स्तर पर गोभक्तिपूर्ण आन्दोलन चलाया और सफलता अर्जित की।

सिक्खों में अलगाववादी मानसिकता का पनपना

इन्हीं दिनों सिक्खों में ऐसे लोग भी प्रकट होने लगे जिन के मन में अलगाववादी मानसिकता पनपने लगी थी। अंग्रेजों की शह से इस अलगाववादी मानसिकता का पहला अंकुर श्री गुरू सिंघ सभा,अमृतसर के रूप में सन् १८७३ ईसवी में फूट निकला था। इस अंकुरित सभा से प्रेरणा लेकर २ नवम्बर १८७९ ईसवी को सिंघ सभा, लाहौर अस्तित्व में आ गई। इन नवगठित सिंघ सभाओं के विशेष नियमों और मुख्य आशय में ये बातें भी जुड़ी हुई थीं :

७ • बड़े मर्तबे वाले अंग्रेज़ बहादुर विद्या-शाखा के मेम्बर बन सकते हैं।
९ • श्री गुरू सिंघ सभा में कोई बात सरकार के मुता- ल्लिक़ नहीं की जाएगी।
१०• ख़ैर-ख़्वाही क़ौम, फ़रमाबरदारी सरकार।

अमृतसर तथा लाहौर में गठित हुई सिंघ सभाओं के प्रमुखों में अग्रणी अंग्रेज़-भक्त सिक्ख प्रोफ़ेसर गुरमुख सिंह और गिआनी दित्त सिंह इत्यादि विद्वानों ने श्री दसम-ग्रन्थ साहिब की प्रामाणिकता पर शंका करना प्रारम्भ कर दिया।
फिर सिंघ सभा, लाहौर को ११ अपैल १८८० ईसवी से सिंघ सभा, अमृतसर में मिला दिया गया और दोंनों का संयुक्त नाम "श्री गुरू सिंघ सभा जनरल" रक्ख दिया गया। उसके बाद प्रो• गुरमुख सिंह के प्रयत्नों से स्थान-स्थान पर घूम-फिरकर अनेकानेक सिंघ सभाओं का बनाया जाना प्रारम्भ हुआ। इसी समय एक केन्द्रीय जत्थेबन्दी की आवश्यकता समझी जाने लगी। इसकी पूर्ति हेतु सन् १८८३ में "ख़ालसा दीवान" की स्थापना की गई जो बहुत-सी सिंघ सभाओं के गठजोड़ का परिणाम था।

इसके बाद तो सिंघ सभाओं की संख्या के साथ ही "ख़ालसा दीवान" का घेरा भी बढ़ता चला गया। तब वैशाखी और दीपावली जैसे त्यौहारों पर इस दीवान द्वारा ऐसे मेले आयोजित किए जाने लगे जिनमें हिन्दुओं जैसी रीतियों, ठाकुरों=देवमूर्तियों और विशेष कर श्री हरिमन्दिर के प्रमुख पूजास्थल और परिक्रमा-मार्ग में पहले से सुप्रतिष्ठित देवमूर्तियों की पूजा इत्यादि विषयों की निषेधपरक आलोचना की जाती थी।

इस प्रकार की आलोचना द्वारा सिक्ख-पन्थ को एक ऐसी दिशा की ओर ले जाने का कुप्रयास किया जा रहा था जो भारतवर्ष की मुख्य सांस्कृतिक धारा से किसी-न-किसी अंश में दूर ले जाने वाला था। वस्तुतः अंग्रेज़ विचारकों के सम्पर्क और प्रभाव में आए सिक्ख-विद्वानों के मानस से इसी समय से अलगाववाद की वह धारा फूट निकली थी जिसके फलस्वरूप आगे चल कर सन् १९८० के दशक में इसने सारे पंजाब में बड़ा ही उग्र रूप धारण कर लिया था।

भाई काहन सिंह नाभा का अलगाववाद

उधर आयरलैंड निवासी मैक्स आर्थर मैकालिफ़ (१८३७-१९१३ ईसवी) ने भाई काहन सिंह नाभा ( १८६१-१९३८ ईसवी) से सम्पर्क स्थापित कर लिया था। वस्तुतः मैकालिफ़ पहले ही ओरिएण्टल कालेज, लाहौर के प्रो• गुरमुख सिंह के सम्पर्क में आ चुका था।

फिर सन् १८८३ में उसने नाभानरेश महाराजा हीरा सिंह को आदेश दिया कि भाई काहन सिंह उसे श्री आदि ग्रन्थ पढ़ाया करे। इस प्रकार भाई काहन सिंह नाभा और मैकालिफ़ यथावसर एक-दूसरे के घर रहने लगे।

सन् १८९३ में मैकालिफ़ ने सरकारी नौकरी छोड़ दी और सारा समय सिक्ख विद्वानों को अलगाववाद के मार्ग पर डालने में व्यतीत करने लगा। इसके परिणामस्वरूप सन् १८९८ में भाई काहन सिंह नाभा की वह अलगाववादी रचना "हम हिन्दू नहीं" प्रकाशित हुई जो अलगाववादी सिक्खों का आज भी मूल प्रेरणा-स्रोत बनी हुई है। इसी अलगाववादी सोच से ओत-प्रोत शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी की धर्म प्रचार कमेटी, श्री अमृतसर ने "हम हिन्दू नहीं" नामक उपरोक्त रचना को सन् १९८१ में ५००० की संख्या में पुनः प्रकाशित किया है।

इधर सन् १८९३ में नौकरी छोड़ने के १६ वर्ष बाद मैकालिफ़ की पुस्तक "दि सिक्ख रिलीजन" सन् १९०९ में प्रकाशित हुई। भाई काहन सिंह नाभा ने अपनी रचना "महान कोश" में स्वयं ही बताया है कि "मैकालिफ़ साहिब ने कृतज्ञता प्रकट करने के लिए अपने इस ग्रन्थ का कापीराइट अपनी वसीयत में मुझे दे दिया है"

(महान कोश, भाषा विभाग पंजाब, पटियाला, छठा संस्करण, १९९९ ईसवी, पृष्ठ ९३९)।

वस्तुतः "हम हिन्दू नहीं" और "दि सिक्ख रिलीजन" दोनों ही पुस्तकें अलगाववादी सिक्खों का मूल प्रेरणा स्रोत हैं। इनमें गुरुवाणी की भ्रष्ट व्याख्या करने के विविध तरीक़े सुझाये गए हैं। इन्हीं पुस्तकों के आधार पर सिक्ख लोग स्वयं को एक अलग क़ौम मानकर अलगाववादी मार्ग पर चलने लगे हैं और अपने ही प्रिय गुरु श्री गोविन्द सिंह की रचना श्री दसम-ग्रन्थ साहिब की प्रामाणिकता पर सन्देह करने लगे हैं। उनके लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य और भला क्या हो सकता है !!!

भाई काहन सिंह नाभा की अलगाववादी सरगर्मियां "हम हिन्दू नहीं" की रचना तक ही सीमित नहीं रहीं। वे आगे बढ़ती रहीं। "श्री दसम-ग्रन्थ साहिब" के प्रति शंका रखने वाले प्रो• गुरमुख सिंह का सन् १८९८ में तथा "ख़ालसा अख़बार" के सम्पादक गिआनी दित्त सिंह का सन् १९०१ में देहान्त हो चुका था। "भाई काहन सिंह जी दा जीवन-वृत्तान्त" शीर्षक के अन्तर्गत श्री शमशेर सिंह अशोक, जो स्वयं सन् १९३२ में भाई काहन सिंह नाभा के सम्पर्क में आ चुके थे, बताते हैं :

"साहित्यिक सेवा के साथ ही बारी आती है कुछ धार्मिक सुधारों की जो भाई काहन सिंह ने सिंघ सभा के प्रचार से प्रभावित होकर किए। सन् १९०५ में श्री दरबार साहिब, अमृतसर के परिक्रमा-मार्ग में बुत-परस्ती दूर करने का प्रश्न उठा जिसमें बड़ी कठिनाई यह आई कि सिंघ सभाई तो बुत-परस्ती हटाना चाहते थे और सनातनी विचारों के सिक्ख उनके इस विचार के उलट थे।
अन्ततः यह प्रश्न मिस्टर किंग, डिप्टी कमिशनर, अमृतसर के पास गया। उसकी ओर से इस बारे खोज की नुक़्ता-निगाह से भाई काहन सिंह जी की राय पूछी गई। भाई साहिब ने अपनी राय बुत-परस्ती के विरुद्ध दी, जिस करके श्री
दरबार साहिब के परिक्रमा-मार्ग में से सब बुत हुक्मन उठाए गए।

इस प्रकार बुत-परस्ती बन्द हुई देखकर अमृतसर और लाहौर के कुछ प्रसिद्ध सज्जन पहले मिस्टर किंग, डीसी अमृतसर के पास और फिर भाई भाई काहन सिंह के विरुद्ध शिकायत लेकर महाराजा हीरा सिंह के पास पहुंचे और उन्होंने उस चिट्ठी का भी हवाला दिया जो भाई साहिब ने बुत-परस्ती के विरुद्ध मिस्टर किंग को लिखी थी। महाराजा साहिब ने समय की नज़ाकत को देखकर भाई साहिब को कुछ समय के लिए ख़ाना नशीन कर दिया" (महान कोश, भाषा विभाग, पंजाब, छठा संस्करण, १९९९ ईसवी, पृष्ठ क)।

देवमूर्तियों की दुर्गियाना मन्दिर में स्थापना

जिन देवमूर्तियों को भाई काहन सिंह नाभा की अलगाववादी मानसिकता की प्रेरणा से सन् १९०५ में श्री दरबार साहिब, अमृतसर के परिक्रमा-मार्ग से हुक्मन और बलपूर्वक हटाया गया था, उन्हें कालान्तर में श्री दरबार साहिब से लगभग अढाई किलो मीटर की दूरी पर स्थित श्री दुर्गियाना मन्दिर में विधिपूर्वक स्थापित कर दिया गया था।

श्री भागमल-भागसिंह का मत

फिर सिंघ सभा भसौड़ ने भी "श्री दसम-ग्रन्थ साहिब" का कुतर्कपूर्ण विरोध करना प्रारम्भ कर दिया था। इसके बाद अम्बाला के श्री भागमल ने सन् १९३९ में "गुरमति दर्शन" नामक पुस्तक में श्रीगुरु जी की रचना का विरोध करने का काम किया। सन् १९४१ में ये महानुभाव भागमल से भागसिंह बन गए। फिर इन्होंने "दसम ग्रन्थ निरणै" नामक ग्रन्थ सन् १९७६ में चण्डीगढ़ से स्वयं प्रकाशित किया।


डा• रतन सिंह जग्गी का गुरु-विरोधी मत

इन्होंने "दसम ग्रन्थ दा पौराणिक अध्ययन" और "दसम ग्रन्थ दा कर्तृत्व" नामक दो पुस्तकें हिन्दी और पंजाबी मेम लिखी हैं जिनमें "श्री दसम-ग्रन्थ साहिब" का कुतर्कपूर्ण खण्डन किया है। ऐसा ही उन्होंने अब गिआनी भाग सिंह की उपरोक्त पुस्तक में "दो शब्द" लिखते समय २१/१२/१९७४ को किया है। आप लिखते हैं :

"सनातनी गिआनी वर्ग परम्परा से दसम-ग्रन्थ को गुरु गोविन्द सिंह की रचना मानता आया है, परन्तु गम्भीर अध्ययन से इसके भीतरी तथ्य गुरमत और गुरु गोविन्द सिंह जी के व्यक्तित्व से मेल नहीं खाते और न ही ऐतिहासिक और।साहित्यिक मर्यादा को अंगीकार करते हैं। फलस्वरूप इस ग्रन्थ की भीतरी सारी सामग्री को गुरु गोविन्द सिंह की रची हुई मान लेना किसी कसौटी पर भी प्रमाणित नहीं होता। केवल जापु, अकाल उसतति आदि कुछ एक भक्ति पूरक रचनाओं को ही गुरु साहिब का रचा हुआ माना जा सकता है।

वस्तुतः गुरु जी के दरबारी कवियों की रचनाओं को गुरु जी के ज्योति-ज्योत समाने के बहुत बाद भाई मनी सिंह, भाई दीप सिंह, भाई सुक्खा सिंह आदि सिक्ख अग्रणियों ने श्री गुरू ग्रन्थ साहिब की तर्ज़ पर एक ग्रन्थ में इकट्ठा कर दिया, जो पहले 'बचित्र नाटक दा ग्रन्थ' आदि नामों से प्रसिद्ध हुआ, परन्तु बाद में श्री गुरू ग्रन्थ साहिब से अलग रखने के लिए उसे 'आदि ग्रन्थ' और इसको 'दसम ग्रन्थ कहा जाने लगा। 'दसम ग्रन्थ' नाम से भ्रमित होकर अन्ध-श्रद्धालु इसको दशम गुरु जी की रचना मान कर प्रचार करने लग पड़े। इस भ्रम को दूर करने के लिए गिआनी भाग सिंह का वर्तमान पुस्तक के रूप में किया गया उद्यम बड़ा श्लाघा योग्य है" (दसम ग्रन्थ निरणै, गिआनी भाग सिंह अम्बाला, २७९६, सैक्टर ३७-सी, चण्डीगढ़, १९७६ ईसवी, पृष्ठ १४-१५)।

इस प्रकार डा• रतन सिंह जग्गी "श्री दसम-ग्रन्थ साहिब" की प्रामाणिकता पर प्रारम्भ से ही सन्देह करते चले आए हैं। किन्तु अब "ख़ालसा तीसरी जन्म शताब्दी" के शुभावसर पर १३ अपैल १९९९ को गोविन्द सदन, महरौली, नई दिल्ली से जो "श्री दसम ग्रन्थ साहिब" ५ भागों में प्रकाशित हुआ है, उसके पाठ-सम्पादक और व्याख्याकार के रूप में डा• रतन सिंह जग्गी ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है जिससे यह पता चल सके कि उन्होंने पहले दौर में श्री दसम-ग्रन्थ साहिब का खण्डन किया था। इससे तो यही ज्ञात होता है कि अब उन्होंने अपने पहले मत को त्यागकर श्री दसम ग्रन्थ की प्रामाणिकता को स्वीकार कर लिया है।

श्री दसम-ग्रन्थ के विरुद्ध विचार-गोष्ठी

६-७ अक्तूबर १९७३ को साप्ताहिक अख़बार "मान- सरोवर" के मालिक स• मान सिंह, भगत सिंह मार्किट, नई दिल्ली ने "श्री दसम-ग्रन्थ साहिब" के पक्ष-विपक्ष विषय को लेकर भाई अरदमन सिंह बागड़ीआं की अध्यक्षता में एक विचार-गोष्ठी का आयोजन किया जिसमें लगभग ४१ सिक्ख विद्वानों ने भाग लिया था।

श्री दसम-ग्रन्थ साहिब के सन्दर्भ में विभिन्न विचार प्रकट हो जाने के उपरान्त सर्व सम्मति से यह निर्णय लिया गया कि किसी भी गुरुद्वारे में श्री गुरू ग्रन्थ साहिब के साथ "दसम-ग्रन्थ" का प्रकाश न किया जाए। दूसरा निर्णय यह लिया गया कि दशमेश गुरु जी की वाणी और कवियों की वाणियां दसम-ग्रन्थ में से अलग कर दी जाएं।

दूसरी बार ९ मार्च १९७४ को उन्हीं लोगों द्वारा आयोजित की गई विचार-गोष्ठी में भी पहले वाले निर्णय को दोहरा दिया गया था।

जैसा कि गुरु गोविन्द सिंह की कृतियों का परिचय • २ में यह बताया जा चुका है कि सन् १८१२ तक सिक्खों में श्री आदि ग्रन्थ साहिब के साथ ही श्री दसम-ग्रन्थ  साहिब को भी समान रूप से आदर दिया जाता था। किन्तु उसके बाद अंग्रेज़ों की शह पाकर सिक्खों में एक वर्ग ऐसा पनप गया जो अपने ही गुरु की रचना "श्री दसम-ग्रन्थ साहिब" की प्रामाणिकता पर सन्देह करने लगा था। फिर सन् १९७३-१९७४ में इस वर्ग में उपरोक्त प्रकार से विस्तार हो गया। अब इन बातों का हमारे फ़रीदाबाद में भी दुष्प्रभाव पड़ने लग गया है। एनआइटी फ़रीदाबाद में एनएच दो स्थित "भाई भगत जोधा राम सिंह गुरुद्वारे" में शुक्रवार १० नवम्बर २००६ से सन्त समागम चल रहा था जिसमें शनिवार को अमृतसर से श्री अकाल तख़्त के जत्थेदार श्री जोगेन्द्र सिंह वेदान्ती शामिल होने आए हुए थे।

ऐसे समय में "दसम-ग्रन्थ विचार इंटरनेशनल" के संयोजक स• उपकार सिंह के आह्वान पर सिक्खों के एक वर्ग ने रविवार १२ नवम्बर २००६ को एनएच ५ स्थित पार्क में सभा कर "काला दिवस" मनाया। स• उपकार सिंह के अनुसार यह "काला दिवस" इसलिए मनाया गया था क्योंकि ज्ञानी जोगेन्द्र सिंह वेदान्ती सिक्ख समुदाय के "दसम-ग्रन्थ" को "श्री गुरू ग्रन्थ साहिब" के बराबर का दर्जा देने के पक्ष में हैं, जबकि दसम ग्रन्थ के पेज नम्बर ८०९ से लेकर १३८८ तक जो भी लिखा है उसकी भाषा असभ्य है जो कि गुरु गोविन्द सिंह महाराज के चरित्र से मेल नहीं खाती है

(दैनिक जागरण, नई दिल्ली, जागरण सिटी, फ़रीदाबाद, सोमवार दिनांक १३ नवम्बर २००६, पृष्ठ १५)।

यहां पर यह बात ध्यान देते योग्य है कि अपनी बात बताने के लिए स• उपकार सिंह ने उन्हीं कुतर्कों का आश्रय लिया है जिनका प्रयोग अंग्रेजों से प्रभावित अलगाववादी मानसिकता वाले सिक्ख उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध से यथावसर करते चले आ रहे थे।

वस्तुतः व्यर्थ का विवाद खड़ा करने वाले इन सभी सिक्खों को यह बात समझ में नहीं आती कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश, वामन, राम, कृष्ण, भगवती इत्यादि पौराणिक पात्रों की भक्तिपूर्ण बातें जहां श्री आदि ग्रन्थ में संक्षेप में मिलती हैं वहां श्री दसम-ग्रन्थ साहिब में विस्तार से प्राप्त होती हैं। यदि श्री आदि ग्रन्थ में से पौराणिक पात्रों की भक्तिपूर्ण बातें निकाल दी जाएं तो फिर उसमें भला बचता ही क्या है !!

गुरु गोविन्द सिंह के साथ होने वाले युद्धों में अपनी बार-बार पराजय होती देखकर औरंगज़ेब तिलमिला उठा। तब उसने अपनी भारी इस्लामी फ़ौज और अपने सहयोगी पहाड़ी राजाओं की सेनाओं के सम्मिलित प्रयास से आनन्दपुर को घेरने का दृढ़ निश्चय किया। भट्ट स्वरूप सिंह कोशिश अपनी रचना "गुरू कीआं साखीआं" (१८४७ विक्रमी) में लिखते हैं कि अपने निश्चय के अनुसार औरंगज़ेब ने सम्वत् १७६२ विक्रमी के ज्येष्ठ ५ को चारों ओर से आनन्दपुर को घेर लिया।

इस घेरे को पड़े ६ मास से अधिक समय बीत गया था।

फिर १७६२ विक्रमी पौष ५ के दिन दक्षिण दिशा से शाही क़ाज़ी बादशाह औरंगज़ेब का एक परवाना लेकर आया जो क़ुरान शरीफ़ की जिल्द पर लगा हुआ था। उस परवाने में लिखा था कि "पीर जी ! आप माखोवाल गांव को छोड़ कर क़स्बा कांगड़ में आ जाएं, वहां परस्पर मुलाक़ात होगी।"

अगले दिन ६ पौष १७६२ विक्रमी को पिछले पहर गुप्तचर ने आकर सूचना दी कि सरहिन्द नगरी से राजा अजमेर चन्द की बुलाई हुई फ़ौज आ रही है जिसका आज रोपड़ में मुक़ाम है।

ऐसी भयानक विपदा के समय गुरु गोविन्द सिंह ने सभी प्रमुख दीवानों और अन्य लोगों से विचार-विमर्श करके आधी रात को क़िला आनन्दगढ़ त्यागने का निर्णय कर लिया। फिर उन्होंने सबसे पहले माता गुजरी जी और दोनों छोटे साहिबज़ादों (ज़ोरावर सिंह और फ़तह सिंह) को एक दास और एक दासी के साथ कीरतपुर की ओर भेज दिया (गुरू कीआं साखीआं, १८४७ विक्रमी, सम्पादक : प्यारा सिंह पदम, सिंह ब्रदर्ज़, अमृतसर, पांचवां संस्करण, २००३ ईसवी, साखी ७८, पृष्ठ १५२-१५३)।

ये दास-दासी वास्तव में "कथा गुरू जी के सुतन की" नामक समकालीन रचना के लेखक भाई दुन्ना सिंह हण्डूरी और उनकी धर्मपत्नी सुभिक्खी थे।
सामान्यतः यही माना जाता है कि उस समय माता गुजरी जी के साथ गंगू रसोइया नामक ब्राह्मण भेजा गया था। वस्तुतः गंगू रसोइये नामक ब्राह्मण का कोई ऐतिहासिक अस्तित्व ही किसी भी समकालीन रचना से सिद्ध नहीं होता। यह एक विशुद्ध कपोल-कल्पित पात्र है, ऐतिहासिक कदापि नहीं।

श्रीगुरु जी ने आनन्दगढ़ छोड़ा

माता गुजरी जी इत्यादि को भेजने के बाद गुरु गोविन्द सिंह ने भाई मोहकम सिंह से कहकर औरंग-ज़ेब की आई चिट्ठी को सम्भाला। फिर भाई उदय सिंह आदि प्रमुख सिक्खों के साथ क़िला आनन्दगढ़ छोड़ दिया।

श्री दसम-ग्रन्थ साहिब का तितर-बितर होना

बस ! इसी उधेड़-बुन और उथल-पुथल में गुरु गोविन्द सिंह की रचना "श्री दसम-ग्रन्थ साहिब" कहीं तितर-बितर हो गई। भट्ट स्वरूप सिंह कोशिश ने श्रीगुरु जी की रचनाओं के सन्दर्भ में दो-तीन बातें बड़ी ही महत्त्वपूर्ण कही हैं।
१७४१ विक्रमी की घटनाएं का उल्लेख करते हुए वह लिखते हैं :

"इसी साल सत्गुरु (गोविन्द सिंह) ने श्री कृष्ण अष्टमी से श्री कृष्ण अवतार का प्रारम्भ किया।•• जिस की समाप्ति पांवटे नगर १७४५ विक्रमी को श्रावण सुदी सप्तमी मंगलवार के दिवस यमुना नदी के किनारे पर हुई" ( गुरू कीआं साखीआं, १८४७ विक्रमी, साखी ३८, पृष्ठ ९३)।

१७५३ विक्रमी की एक घटना का उल्लेख करते हुए भट्ट स्वरूप सिंह लिखते हैं :"सत्गुरु (गोविन्द सिंह) ने इस समय सम्वत् १७४८ से प्रारम्भ किया ग्रन्थ 'चरित्रोपाख्यान' १७५३ विक्रमी भाद्रपद सुदी अष्टमी के दिन सम्पूर्ण किया" (वही, साखी ५५, पृष्ठ ११५)।

इसी प्रकार १७५५ विक्रमी की घटना के सन्दर्भ में वह आगे लिखते हैं :

" इसी वर्ष साल १७३९ से प्रारम्भ हुआ ग्रन्थ 'बचित्र नाटक' सम्वत् १७५५ आषाढ़ वदी एकम् के दिन सम्पूर्ण हुआ। समाप्ति पर सत्गुरु ने उच्चारण किया :
संमत सतरह सहस पचावन। हाड़ बदी, प्रिथमै सुख दावन।
तव प्रसादि कर ग्रंथ सुधारा। भूल परी कवि लेहु सुधारा।

इस तरह आगे से इस ग्रन्थ की समाप्ति से धर्मयुद्ध की तैयारियां प्रारम्भ हुईं" (गुरू कीआं साखीआं, १८४७ विक्रमी, प्यारा सिंह पदम द्वारा सम्पादित, सिंह ब्रदर्ज़, अमृतसर, पांचवां संस्करण, २००३ ईसवी, साखी ६३, पृष्ठ १२८)।

भट्ट स्वरूप सिंह कोशिश द्वारा दिए गए प्रमाणों से यह बात पूर्णतः सिद्ध हो जाती है कि श्री कृष्णावतार, चरित्रोपाख्यान और बचित्र नाटक इत्यादि रचनाएं गुरु गोविन्द सिंह द्वारा ही रची गई हैं। अतः इनका श्रेय किसी दूसरे अथवा दरबारी कवियों को देना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है। यहां यह भी स्पष्ट हो जाता है कि १७५५ विक्रमी तक गुरु गोविन्द सिंह की सभी प्रमुख रचनाएं रची जा चुकी थीं। ये सभी रचनाएं क़िला आनन्दगढ़ छोड़ते समय तितर-बितर हो गईं जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है।

भाई मनी राम (सिंह) का गुरुघर से जुड़ना

श्री गुरु तेग़ बहादुर ने १७१३ विक्रमी में अपनी तीर्थ यात्रा प्रारम्भ की थी। इस सन्दर्भ में भट्ट स्वरूप सिंह कोशिश बताते हैं :

"श्री तेग़ बहादुर जी पैंतीस सालों की आयु में सम्वत् १७१३ विक्रमी आषाढ़ सुदी एकम् के दिन कोट गुरु हरिराय से तीर्थयात्रा करने चले आए थे। श्री गुरु हरिराय के ज्योति-ज्योत समाने के समय ये परिवार सहित पटना नगरी में विराजमान थे। यहीं पर सम्वत् १७१८ विक्रमी को पौष सुदी सप्तमी बुधवार के दिवस श्री गोविन्द दास जी ने अवतार लिया" (गुरू कीआं साखीआं, साखी १४, पृष्ठ ५८-५९)।

इस पूरे तीर्थयात्रा-काल में भाई मनी राम, जो आगे चलकर १७५४ विक्रमी में भाई मनी सिंह बने, श्री तेग़ बहादुर के साथ रहे। वे पटना से ८-९ वर्षीय गुरु गोविन्द दास और उनकी माता गुजरी जी इत्यादि के साथ अयोध्या में श्री राम जन्मभूमि मन्दिर के दर्शन करते हुए पजांब लौटे थे। भट्ट वही मुल्तानी सिन्धी के अनुसार ये लोग १७२७ विक्रमी की आश्विन शुक्ला नवमी के दिन लखनौर, अम्बाला पहुंचे थे जहां पर श्री गोविन्द दास के मामा कृपाल चन्द का घर था।

वहां से भाई मनी राम अपने परिवार से मिलने गांव अलीपुर (ज़िला मुज़फ़्फ़रगढ़) आ गए थे। फिर वहां से परिवार के साथ चैत्र १७२९ विक्रमी में गुरु तेग़ बहादुर की सेवा में लौट आए थे। १७४८ विक्रमी को वैशाख प्रतिपदा के दिन श्री दशम गुरु ने रवालसर के मुक़ाम पर भाई मनी राम को अपना दीवान बना लिया था।

भाई मनी सिंह स्वर्णमन्दिर की सेवा में

छठे गुरु श्री हरिगोविन्द ने अपने ताऊ बाबा पृथी चन्द के पुत्र और अपने पिता गुरु अर्जुनदेव के भतीजे और शिष्य सोढी मनोहरदास मेहरबान की विद्वता से प्रभावित होकर १६७७ विक्रमी की माघ प्रविष्टे पहली को श्री हरिमन्दिर साहिब जी में दीया-बाती करने का काम श्री मेहरबान को सौंप दिया (भट्ट वही तलउंडा, परगना जींद)। इस प्रकार सोढी मनोहरदास मेहरबान श्री स्वर्णमन्दिर के प्रमुख ग्रन्थी-पुजारी-सेवादार अपने देहान्तकाल १६९६ विक्रमी माघ शुक्ला पंचमी तक बने रहे।

इनके बाद यह पद इनके योग्य पुत्र सोढी हरि जी को सौंप दिया गया। श्री हरिमन्दिर में बड़े मनोयोग से सेवाकार्य करते हुए सोढी हरि जी १७५३ विक्रमी की वैशाख कृष्णा एकादशी के दिन परलोक सिधार गए।

सोढी हरि जी के कमल नयन, हरि गोपाल और निरंजन राय नामक तीन पुत्र थे। उनके देहान्त के बाद श्री दरबार साहिब का सेवाकार्य तीनों पुत्र सम्भालने लगे किन्तु शीघ्र ही उन्होंने अपनी अयोग्ता सिद्ध कर दी। भाई दरबारी दास कृत "गुरू प्रिथीचन्द गुर बंसा-वली" से ज्ञात होता है कि सोढी हरिजी के देहान्त के बाद उनकी संगत घर की फूट के कारण किसी एक व्यक्ति को गद्दी पर न टिका सकी। तीनों ने अमृतसर की संगत को तीन भागों में विभाजित कर दिया था। अन्ततः उसी फूट के कारण वे लोग श्री दरबार साहिब की सेवा का कार्य छोड़कर मालवा में घरांचो-ढिलवां नगर को चले गए।

श्री हरिमन्दिर जी में कोई उत्तरदायी प्रबन्धक न रहने के कारण अमृतसर की सिक्ख संगत १७५५ विक्रमी के वैशाख मास में श्री दशम गुरु गोविन्द सिंह की सेवा में आनन्दपुर आ उपस्थित हुई। भट्ट सेवा सिंह कोशिश अपनी कृति "शहीद बिलास भाई मनीसिंह"(१८६० विक्रमी) के छन्द ८०-८२ में बताते हैं कि गुरु-भक्त

संगत ने श्री दशम गुरुजी से निवेदन किया :

"हे जगदीश ! हमारा निवेदन सुनें। आपके चाचा श्री हरि जी परलोक सिधार गए हैं। हरि जी के पीछे निरंजन राय गद्दी पर बैठा था। इसका बल क्षीण हो गया है और सिक्ख संगत इसके साथ नहीं। अतः अकाल बूंगे और श्री हरिमन्दिर जी के लिए कोई सेवा-दार भेजें। श्री पृथीचन्द के वंशज तो श्री दरबार साहिब छोड़कर जा चुके हैं।"

इस घटना से कुछ दिन पहले भाई मनी राम "मनी सिंह" बन चुके थे। भट्ट स्वरूप सिंह कोशिश बताते हैं :

"गुरु जी ने अमृतसरी सिक्खों की बेनती मानकर दीवान मनी सिंह से कहा : आप श्री हरिमन्दिर साहिब में श्री रामदासपुरे (अमृतसर) इनके साथ जाएं।
बचन पाकर भाई मनी सिंह ने तैयारी की, इनके साथ पांच सिक्ख भाई भूपत सिंह, गुलज़ार सिंह, कोइर सिंह चन्द्रा, दान सिंह और कीरत सिंह भेजे। इन्हें जाते समय एक श्री ग्रन्थ साहिब की प्रति और सुरमई पोशाक वाला निशान देकर विदा किया। भाई मनीसिंह सत्गुरु की आज्ञा पाकर पांच सिक्खों के साथ श्री अमृतसर की ओर आए। (१७५५ विक्रमी) की ज्येष्ठ सुदी चतुर्थी से एक दिन पहले गुरु की नगरी में भाई देसा सिंह तखणेटा सिक्ख के गृह में जा निवास किया। अगले दिवस श्री हरिमन्दिर जी के दर्शन पाकर निशान साहिब झुलाकर भाई जी ने श्री ग्रन्थ जी का प्रकाश किया।••

उधर श्री आनन्दपुर में दीवान मनी सिंह के चले जाने के बाद भाई साहिब सिंह छिब्बर को दरबारी दीवान नियत किया। घरबारी दीवान पहले से ही धर्म चन्द छिब्बर थे। दोनों मिलकर गुरुघर का काम चलाने लगे" ( गुरू कीआं साखीआं, १८४७ विक्रमी, प्रो• प्यारा सिंह पदम द्वारा सम्पादित, सिंह ब्रदर्ज़, अमृतसर, ५ वां संस्करण, २००३ ईसवी, साखी ६१, पृष्ठ १२६)।

इस प्रकार भाई मनी सिंह श्री स्वर्णमन्दिर के प्रमुख ग्रन्थी-पुजारी-सेवादार के पद पर आजीवन (१७९१ विक्रमी तक) कार्य करते रहे।

इसी पद पर रहते हुए भाई मनी सिंह को तितर-बितर हो चुके "श्री दसम-ग्रन्थ साहिब" को ढूंढकर एकत्र करने का काम गुरु गोविन्द सिंह की धर्मपत्नी माता सुन्दरी ने सौंप दिया क्योंकि भाई जी जीवन भर गुरु जी के साथ रहने के कारण उनकी रचनाओं को भली-भांति जानते और पहचानते थे। ०

१७६२ विक्रमी पौष ५ को आनन्दगढ़ का क़िला छोड़ते समय जो उथल-पुथल मची उसमें गुरु गोविन्द सिंह की रचनाएं तितर-बितर हो गई थीं। श्रीगुरु जी के १७६५ विक्रमी की कार्त्तिक शुक्ला पंचमी के दिन परलोक सिधारने के बाद समय पाकर उनकी धर्मपत्नी माता सुन्दर स्वरूप कौर (माता सुन्दरी) ने भाई मनी सिंह को श्री गुरु जी की रचनाएं ढूंढने का काम सौंप दिया। उन दिनों माता सुन्दरी दिल्ली आकर रहने लगी थीं।

इतिहासकार ज्ञानी ज्ञानसिंह अपनी रचना "शमशेर ख़ालसा (तवारीख़ ख़ालसा, भाग-२) में बताते हैं कि औरंगज़ेब की १७६४ विक्रमी (१७०७ ईसवी) में हुई
मृत्यु के बाद बादशाह बने बहादुरशाह के समय में "मुसलमानों ने जगह-जगह हिन्दुओं पर ज़ुल्म करने शुरू कर दिए। कुंओं-तालाबों में गायों की हड्डियां फेंकवा दीं। जिन हिन्दुओं ने बन्दा बहादुर की किसी तरह भी मदद की वे सब पकड़-पकड़ कर क़त्ल कर दिए गए। इस ज़ुल्म की ख़बर जब लौहगढ़ वाले सिक्खों ने बाबा बन्दे को दी तो भाद्रपद सम्वत् १७६७ विक्रमी को बन्दा बहादुर पहाड़ों में सिक्खों को इकट्ठा करके सरहिन्द की तरफ़ बेधड़क चला आया।••बन्दे ने फिर वहीं तक सिक्खों का क़ब्ज़ा मुल्क पर करा दिया जहां तक पहले था" (शमशेर ख़ालसा, तवारीख़ गुरू ख़ालसा, भाग-२, गुरु गोविन्द सिंह प्रेस, बेर बाबा नानक, सियालकोट, १९४९ विक्रमी, पृष्ठ ३८१)।

फिर मार्गशीर्ष १७६७ विक्रमी में वीर बन्दा बहादुर की लड़ाई बहादुरशाह की इस्लामी फ़ौज से हुई। रसद इत्यादि की कमी के कारण सिक्ख कई दिन तक लड़ते रहे। अन्ततः बन्दे ने अपनी जैसी शक्ल वाले भाग सिंहको अपना लिबास पहना दिया और फिर वह कुछ सिक्खों के साथ मुसलमानों के घेरे में से निकलने में सफल हो गया।

श्री दसम-ग्रन्थ साहिब के अंश प्राप्त हुए

इसी दौरान भाई मनी सिंह को "श्री दसम-ग्रन्थ साहिब" के कुछ अंश प्राप्त होने में सफलता मिल गई।

उन्होंने अमृतसर से दिल्ली में विराजमान माता सुन्दरी को २२ वैशाख १७६८ विक्रमी को लिखे अपने पत्र में ये सूचनाएं दीं :

"पूज्य माता जी के चरणों पर मनी सिंह की दण्डवत् वन्दना। आगे समाचार वाचना कि एक यहां आने से हमारा शरीर वायु का अधिक विकारी हो गया। ताप की कथा दो बार सुनी। पर मन्दिर (श्री हरिमन्दिर साहिब) की सेवा में कोई आलस नहीं।

देश में ख़ालसे का बल छूट गया है। सिंह पर्वतों-वनों में जा बसे हैं। म्लेच्छों की देश में दुहाई है। बस्ती में बालक-युवा-स्त्रियां सलामत नहीं। टुकड़े-टुकड़े करके मारते हैं। गुरु-द्रोही भी उनके संग मिल गए हैं। हंदा- लिए मिलकर मुख़बरी करते हैं। सभी चक्क छोड़ गए हैं। मुत्सद्दी भाग गए हैं। हम पर अभी तो अकाल की रक्षा है। कल की ख़बर नहीं। साहिबों के हुक्म अटल हैं। विनोद सिंह के पालित पुत्र का हुक्म सच हो गया है।

पोथियां जो झण्डा सिंह के हाथ भेजी थीं, उनमें साहिबों (गुरु गोविन्द सिंह) के ३०३ चरित्रोपाख्यान की जो पोथी है वह सींहां सिंह के घर में देना जी। नाम- माला की पोथी की ख़बर अभी मिली नहीं। कृष्णाव-तार पूर्वाद्ध तो मिला, उत्तरार्द्ध नहीं। यदि मिला तो हम भेज देंगे।

देश में अफ़वाह है कि बन्दा (बहादुर) बन्धन-मुक्त होकर भाग गया है। साहिब भली करेंगे।••

मुत्सद्दियों ने हिसाब नहीं दिया। यदि दे देते तो बड़े शहर से हुण्डी करवाकर भेज देते।हमारे शरीर की रक्षा रही तो कुआर (आश्विन) के महीने में आएंगे।
मिती वैशाख २२, दस्तख़त मनी सिंह। गुरु चक्क बूंगा।"

इस पत्रिका का ब्लाॅक पहले डा• ट्रम्प (Dr. Trumpp) की पुस्तक "ट्रांसलेशन आॅफ़ श्री गुरू ग्रन्थ साहिब" में छपा था। उसके बाद यह प्रो• प्यारा सिंह पदम कृत "दसम ग्रन्थ दरशन" (कलम मन्दिर, लोइर माल पटियाला, १९६८ ईसवी) में भी छपा है। इसको इस लेख के अन्त में दिया जा रहा है।

भाई मनी सिंह गुरु गोविन्द सिंह की रचनाओं को ढूंढने के प्रयास में अन्ततः सफल हो गए। इतिहासकार प्रो• गण्डा सिंह अपनी कृति "अफ़ग़ानी सफ़रनामा" में बताते हैं कि भाई मनी सिंह द्वारा सम्पादित और भाई सींहां सिंह के प्रयास से १७६९ विक्रमी में तैयार की गई "श्री दसम ग्रन्थ साहिब" की एक प्रति उन्होंने अफ़ग़ा- निस्तान के प्रसिद्ध शहर काबुल में "गुरुद्वारा भाई गुर- दास" में सुरक्षित देखी थी जिसके कुल ५७८ पत्रे हैं ( अफ़ग़ानी सफ़रनामा, पटियाला, ऐतिहासिक पत्र १९५२-१९५३, पृष्ठ ५१)।

श्री दसम-ग्रन्थ साहिब की दूसरी प्रति

इस दूसरी प्रति के सम्पादन का कार्य माघ १७६८ विक्रमी में प्रारम्भ हुआ था और इसकी समाप्ति १७७० विक्रमी में हुई थी जैसा कि इसमें लिखा है। यह प्रति पहले भाई गगन सिंह ग्रन्थी तख़्त श्री हज़ूर साहिब, नांदेड़ के पास सुरक्षित थी। वहां से राजा गुलाब सिंह सेठी लाहौर वाले ले आए थे। फिर वहां से यही राजा साहिब इसे ४७ हनुमान रोड, नई दिल्ली (रिवोली सिनेमा के पीछे वाली गली) में ले आए थे। अब यह उनके परिवार के पास सुरक्षित है। प्रो• प्यारा सिंह पदम ने इस प्रति के २ अगस्त १९६५ में दर्शन किए थे।

यह प्रति श्री आदि ग्रन्थ और श्री दसम-ग्रन्थ का एक ही जिल्द में एकत्रित रूप है। इसमें श्री आदि ग्रन्थ की वाणी को रागों के स्थान पर गुरुओं के क्रम से बांटा गया है और महला-१ इत्यादि प्रचलित क्रम को छोड़ कर पातशाही-१ इत्यादि शब्द प्रयुक्त हुए हैं। इसमें कुल १०९६ पत्रे हैं। श्री दसम-ग्रन्थ वाला भाग ५३७ पत्रे से १०२८ पत्रे तक मिलता है। इस भाग को "दसवें पात-शाह का ग्रन्थ" कहा गया है। इसमें श्री दशम गुरु की वाणी इस क्रम से संकलित है :

१• जापु ५४६ पत्रा
२• बचित्र नाटक (चण्डी चरित्र दोनों, चौबीस
अवतार, ब्रह्मावतार, रुद्रावतार, ३२ सवैये
और ९ शबद रागों के) ५४९ पत्रा
३• शस्त्रनाममाला ७८६ पत्रा
४• गिआन प्रबोध ८२१ पत्रा
५• अकाल उसतति ८३० पत्रा
६• वार दुरगा की ८३८ पत्रा
७• चरित्रोपाख्यान ८४६-१०८८ पत्रा
८• ज़फ़रनामा(गुरमुखी-फ़ारसी) १०९०-१०९५ पत्रा
९ • सद्द (लक्खी जंगल वाली) अन्त में

असफ़ोटक कबित्त और ख़ालसा महिमा वाले छन्द इसमें संकलित नहीं हैं।

इस प्रकार भाई मनी सिंह द्वारा १७७० विक्रमी में सम्पादित यह एक प्रामाणिक प्रति है।

लेखक- श्री रजिंदर सिंह जी
भाई मनी सिंह ने जो पत्र २२ वैशाख १७६८ विक्रमी को अमृतसर से माता सुन्दरी को दिल्ली लिख भेजा था वह नीचे दिया जा रहा है :


Friday, October 13, 2017

बुद्ध मत बनाम वैदिक धर्म



बुद्ध मत बनाम वैदिक धर्म

डॉ विवेक आर्य

फेसबुक पर एक नवबौद्ध उछलता हुआ बोला। बुद्ध मत वैदिक धर्म से श्रेष्ठ है।  महात्मा बुद्ध अहिंसा में विश्वास रखते थे। उन्होंने कभी कोई युद्ध नहीं किया।    मैंने कहा आपका कथन सुनने में बहुत अच्छा लगता है। मगर सत्य भिन्न है। बुद्ध और युद्ध एक दूसरे के पूरक नहीं है। महात्मा बुद्ध अहिंसा के समर्थक थे। अच्छी बात थी। मगर अहिंसा का तात्पर्य भी समझना आवश्यक था। शत्रु को युद्ध में यमलोक भेजना हिंसा नहीं है। एक चिकित्सक द्वारा प्राण-रक्षा के लिए शल्य चिकित्सा करना हिंसा नहीं है। इसलिए पाकिस्तान जैसे आतंवादी देश को प्रतिउत्तर देना भी हिंसा नहीं है।

मध्यकाल में हमारे देश में दो विचारधारा प्रचलित हुई। एक बुद्ध मत और दूसरा जैन मत। दोनों ने अहिंसा को भिन्न भिन्न प्रकार से समझने का प्रयास किया। जैन मत ने अति अहिंसा को स्पर्श करने का प्रयास किया। छानकर जल पीना, नंगे पैर चलना, वाहन का प्रयोग न करना, मुख पर पट्टी बांधने से अतिसूक्षम जीवों की रक्षा करना जैन समाज के अनुसार धार्मिक कृत्य समझा गया। जैन शासकों ने इन मान्यताओं को प्रचलित किया। यहाँ तक एक सेठ द्वारा सर की जूं मारने पर उसे दण्डित किया गया। उसे जेल में डाल दिया गया और उसकी संपत्ति जब्त कर मृत जूं की स्मृति में मंदिर का निर्माण किया गया। इस विचार का दूरगामी परिणाम अत्यंत कष्टदायक था। हमारे देश के लोग शत्रु का सामना करने को हिंसा समझने लगे। हमारी रक्षा पंक्ति टूट गई। देश गुलाम बन गया। शत्रु का हनन करना हिंसा का प्रतीक बन गया।

बुद्ध मत में अहिंसा को नया नाम मिला। वह था "निराशावाद" ।महात्मा बुद्ध के काल में शरीर को पीप-विष्ठा-मूत्र का गोला कहा जाने लगा। विश्व को दुःख , असार, त्याग्य, हेय, निस्सार, कष्ठदायी माना जाने लगा और अकर्मयता एवं जगत के त्याग का भाव दृढ़ होने लगा। कालांतर में उपनिषदों और गीता में यही जगत दुखवाद का भाव लाद दिया गया। भारतीयों की इच्छा जगत को स्वर्ग बनाने के स्थान पर त्याग करने की होने लगी। अकर्मयता के साथ निराशावाद घर करने लगी। इससे यह भावना दृढ़ हुई की इस दुखमय संसार में मलेच्छ/विधर्मी  राज्य करे चाहे कोई और करे हमें तो उसका त्याग ही करना हैं।

ऐसे विचार जिस देश में फैले हो वह देश सैकड़ों वर्षों क्या हज़ारों वर्षों तक भी पराधीन रहे तो क्या आश्चर्य की बात है।

इन दोनों विचारधाराओं से भिन्न वेद का दृष्टिकोण व्यावहारिक एवं सत्य है।

एक ओर वेदों में शत्रु का नाश करने के लिए सामर्थ्यवान बनने का सन्देश दिया गया है। वहीं दूसरी ओर सभी प्राणियों को मित्र के समान देखने का सन्देश दिया गया है।

यजुर्वेद 1/18 में स्पष्ट कहा गया कि हे मनुष्य तू शत्रुओं के नाश में समर्थ बन।
यजुर्वेद 36/18 में मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे अर्थात हे मनुष्य तो सभी को मित्र के समान देख।

हिंसा और अहिंसा का ऐसा सुन्दर सन्देश संसार में किसी अन्य विचारधारा में कहीं नहीं मिलता।

जहाँ तक निराशावाद की बात है। वेद में हमारे शरीर का सुन्दर वर्णन मिलता हैं। अथर्ववेद के 10/2/31 मंत्र में इस शरीर को 8 चक्रों से ...रक्षा करने वाला (यम, नियम से समाधी तक) और 9 द्वार (दो आँख, दो नाक, दो कान, एक मुख, एक मूत्र और एक गुदा) से आवागमन करने वाला कहा गया हैं। जिसके भीतर सुवर्णमय कोष में अनेक बलों से युक्त तीन प्रकार की गति (ज्ञान, कर्म और उपासना ) करने वाली चेतन आत्मा है। इस जीवात्मा के भीतर और बाहर परमात्मा है और उसी परमात्मा को योगी जन साक्षात करते है। शरीर का यह अलंकारिक वर्णन राज्य विस्तार एवं नगर प्रबंधन का भी सन्देश देता है। शरीर के समान राज्य की भी रक्षा की जाये। वैदिक अध्यात्मवाद जिस प्रकार शरीर को त्यागने का आदेश नहीं देता। वैसे ही नगरों को भी त्यागने के स्थान पर उन्हें सुरक्षित एवं स्वर्ग-समान बनाने का सन्देश देता है। वेद बुद्धि को दीर्घ जीवन प्राप्त करके सुखपूर्वक रहने की प्रेरणा देते हैं। वेद शरीर को अभ्युदय एवं जगत को अनुष्ठान हेतु मानते थे। वैदिक ऋषि शरीर को ऋषियों का पवित्र आश्रम, देवों का रम्य मंदिर, ब्रह्मा का अपराजित मंदिर मानते थे।

बुद्ध मत की अतिअहिंसा और निराशावाद के कारण हमारा देश विधर्मियों का गुलाम बना। आज जो अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश है। वहां कभी बुद्ध मत प्रचलित था। इस्लामिक आक्रांताओं के हलके से झटके से ये प्रदेश इस्लामिक मुल्क में बदल गए। इसलिए बुद्धमत के अतिवादी या छदम अहिंसा के सन्देश से संसार का कुछ भला नहीं होने वाला। आपको अहिंसा और स्वरक्षा के मध्य के सन्देश को समझना होगा। इसी में सभी का हित है।


(सलंग्न चित्र- बुद्ध भिक्षु तांत्रिक नरकंकाल उपासना करते हुए)

Thursday, October 12, 2017

पुनर्जन्म सिद्धान्त समीक्षा



पुनर्जन्म सिद्धान्त समीक्षा :-

प्रश्न :- पुनर्जन्म किसे कहते हैं ?
उत्तर :- आत्मा और इन्द्रियों का शरीर के साथ बार बार सम्बन्ध टूटने और बनने को पुनर्जन्म या प्रेत्याभाव कहते हैं ।

प्रश्न :- प्रेत किसे कहते हैं ?
उत्तर :- जब आत्मा और इन्द्रियों का शरीर से सम्बन्ध टूट जाता है तो जो बचा हुआ शरीर है उसे शव या प्रेत कहा जाता है ।

प्रश्न :- भूत किसे कहते हैं ?
उत्तर :- जो व्यक्ति मृत हो जाता है वह क्योंकि अब वर्तमान काल में नहीं है और भूतकाल में चला गया है इसी कारण वह भूत कहलाता है ।

प्रश्न :- पुनर्जन्म को कैसे समझा जा सकता है ?
उत्तर :- पुनर्जन्म को समझने के लिये आपको पहले जन्म और मृत्यु के बारे मे समझना पड़ेगा । और जन्म मृत्यु को समझने से पहले आपको शरीर को समझना पड़ेगा ।

प्रश्न :- शरीर के बारे में समझाएँ ।
उत्तर :- शरीर दो प्रकार का होता है :- (१) सूक्ष्म शरीर ( मन, बुद्धि, अहंकार, ५ ज्ञानेन्द्रियाँ ) (२) स्थूल शरीर ( ५ कर्मेन्द्रियाँ = नासिका, त्वचा, कर्ण आदि बाहरी शरीर ) और इस शरीर के द्वारा आत्मा कर्मों को करता है ।

प्रश्न :- जन्म किसे कहते हैं ?
उत्तर :- आत्मा का सूक्ष्म शरीर को लेकर स्थूल शरीर के साथ सम्बन्ध हो जाने का नाम जन्म है । और ये सम्बन्ध प्राणों के साथ दोनो शरीरों में स्थापित होता है । जन्म को जाति भी कहा जाता है ( उदाहरण :- पशु जाति, मनुष्य जाति, पक्षी जाति, वृक्ष जाति आदि )

प्रश्न :- मृत्यु किसे कहते हैं ?
उत्तर :- सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर के बीच में प्राणों का सम्बन्ध है । उस सम्बन्ध के टूट जाने का नाम मृत्यु है ।

प्रश्न :- मृत्यु और निद्रा में क्या अंतर है ?
उत्तर :- मृत्यु में दोनों शरीरों के सम्बन्ध टूट जाते हैं और निद्रा में दोनों शरीरों के सम्बन्ध स्थापित रहते हैं ।

प्रश्न :- मृत्यु कैसे होती है ?
उत्तर :- आत्मा अपने सूक्ष्म शरीर को पूरे स्थूल शरीर से समेटता हुआ किसी एक द्वार से बाहर निकलता है । और जिन जिन इन्द्रियों को समेटता जाता है वे सब निष्क्रिय होती जाती हैं । तभी हम देखते हैं कि मृत्यु के समय बोलना, दिखना, सुनना सब बंद होता चला जाता है ।

प्रश्न :- जब मृत्यु होती है तो हमें कैसा लगता है ?
उत्तर :- ठीक वैसा ही जैसा कि हमें बिस्तर पर लेटे लेटे नींद में जाते हुए लगता है । हम ज्ञान शून्य होने लगते हैं । यदि मान लो हमारी मृत्यु स्वाभाविक नहीं है और कोई तलवार से धीरे धीरे गला काट रहा है तो पहले तो निकलते हुए रक्त और तीव्र पीड़ा से हमें तुरंत मूर्छा आने लगेगी और हम ज्ञान शून्य हो जायेंगे और ऐसे ही हमारे प्राण निकल जायेंगे ।

प्रश्न :- मृत्यु और मुक्ति में क्या अंतर है ?
उत्तर :- जीवात्मा को बार बार कर्मो के अनुसार शरीर प्राप्त करे के लिये सूक्ष्म शरीर मिला हुआ होता है । जब सामान्य मृत्यु होती है तो आत्मा सूक्ष्म शरीर को लेकर उस स्थूल शरीर ( मनुष्य, पशु, पक्षी आदि ) से निकल जाता है परन्तु जब मुक्ति होती है तो आत्मा स्थूल शरीर ( मनुष्य ) को तो छोड़ता ही है लेकिन ये सूक्ष्म शरीर भी छोड़ देता है और सूक्ष्म शरीर प्रकृत्ति में लीन हो जाता है । ( मुक्ति केवल मनुष्य शरीर में योग समाधि आदि साधनों से ही होती है )

प्रश्न :- मुक्ति की अवधि कितनी है ?
उत्तर :- मुक्ति की अवधि 36000 सृष्टियाँ हैं । 1 सृष्टि = 8640000000 वर्ष । यानी कि इतनी अवधि तक आत्मा मुक्त रहता है और ब्रह्माण्ड में ईश्वर के आनंद में मग्न रहता है । और ये अवधि पूरी करते ही किसी शरीर में कर्मानुसार फिर से आता है ।

प्रश्न :- मृत्यु की अवधि कितनी है ?
उत्तर :- एक क्षण के कई भाग कर दीजिए उससे भी कम समय में आत्मा एक शरीर छोड़ तुरंत दूसरे शरीर को धारण कर लेता है ।

प्रश्न :- जन्म किसे कहते हैं ?
उत्तर :- ईश्वर के द्वारा जीवात्मा अपने सूक्ष्म शरीर के साथ कर्म के अनुसार किसी माता के गर्भ में प्रविष्ट हो जाता है और वहाँ बन रहे रज वीर्य के संयोग से शरीर को प्राप्त कर लेता है । इसी को जन्म कहते हैं ।

प्रश्न :- जाति किसे कहते हैं ?
उत्तर :- जन्म को जाति कहते है । कर्मों के अनुसार जीवात्मा जिस शरीर को प्राप्त होता है वह उसकी जाति कहलाती है । जैसे :- मनुष्य जाति, पशु जाति, वृक्ष जाति, पक्षी जाति आदि ।

प्रश्न :- ये कैसे निश्चय होता है कि आत्मा किस जाति को प्राप्त होगा ?
उत्तर :- ये कर्मों के अनुसार निश्चय होता है । ऐसे समझिए ! आत्मा में अनंत जन्मों के अनंत कर्मों के  संस्कार अंकित रहते हैं । ये कर्म अपनी एक कतार में खड़े रहते हैं जो कर्म आगे आता रहता है उसके अनुसार आत्मा कर्मफल भोगता है । मान लो आत्मा ने कभी किसी शरीर में ऐसे कर्म किये हों जिसके कारण उसे सूअर का शरीर मिलना हो । और ये सूअर का शरीर दिलवाने वाले कर्म कतार में सबसे आगे खड़े हैं तो आत्मा उस प्रचलित शरीर को छोड़ तुरंत किसी सूअरिया के गर्भ में प्रविष्ट होगी और सूअर का जन्म मिलेगा । अब आगे चलिये सूअर के शरीर को भोग जब आत्मा के वे कर्म निवृत होंगे तो कतार में उससे पीछे मान लो भैंस का शरीर दिलाने वाले कर्म खड़े हो गए तो सूअर के शरीर में मरकर आत्मा भैंस के शरीर को भोगेगा । बस ऐसे ही समझते जाइए कि कर्मों की कतार में एक के बाद एक एक से दूसरे शरीर में पुनर्जन्म होता रहेगा । यदि ऐसे ही आगे किसी मनुष्य शरीर में आकर वो अपने जीवन की उपयोगिता समझकर योगी हो जायेगा तो कर्मो की कतार को 36000 सृष्टियों तक के लिये छोड़ देगा । उसके बाद फिर से ये क्रम सब चालू रहेगा ।

प्रश्न :- लेकिन हम देखते हैं एक ही जाति में पैदा हुई आत्माएँ अलग अलग रूप में सुखी और दुखी हैं ऐसा क्यों ?
उत्तर :- ये भी कर्मों पर आधारित है । जैसे किसी ने पाप पुण्य रूप में मिश्रित कर्म किये और उसे पुण्य के आधार पर मनुष्य शरीर तो मिला परंतु वह पाप कर्मों के आधार पर किसी ऐसे कुल मे पैदा हुआ जिसमें उसे दुख और कष्ट अधिक झेलने पड़े । आगे ऐसे समझिए जैसे किसी आत्मा ने किसी शरीर में बहुत से पाप कर्म और कुछ पुण्य कर्म किए जिस पाप के आधार पर उसे गाँय का शरीर मिला और पुण्यों के आधार उस गाँय को ऐसा घर मिला जहाँ उसे उत्तम सुख जैसे कि भोजन, चिकित्सा आदि प्राप्त हुए । ठीक ऐसे ही कर्मों के मिश्रित रूप में शरीरों का मिलना तय होता है ।

प्रश्न :- जो आत्मा है उसकी स्थिति शरीर में कैसे होती है ? क्या वो पूरे शरीर में फैलकर रहती है या शरीर के किसी स्थान विशेष में ?
उत्तर :- आत्मा एक सुई की नोक के करोड़वें हिस्से से भी अत्यन्त सूक्ष्म होती है और वह शरीर में हृदय देश में रहती है वहीं से वो अपने सूक्ष्म शरीर के द्वारा स्थूल शरीर का संचालन करती है । आत्मा पूरे शरीर में फैली नही होती या कहें कि व्याप्त नहीं होती । क्योंकि मान लें कोई आत्मा किसी हाथी के शरीर को धारण किये हुए है और उसे त्यागकर मान लो उसे कर्मानुसार चींटी का शरीर मिलता है तो सोचो वह आत्मा उस चींटी के शरीर में कैसे घुसेगी ? इसके लिये तो उस आत्मा की पर्याप्त काट छांट करनी होगी जो कि शास्त्र विरुद्ध सिद्धांत है, कोई भी आत्मा काटा नहीं जा सकता । ये बात वेद, उपनिषद्, गीता आदि भी कहते हैं ।

प्रश्न :- लोग मृत्यु से इतना डरते क्यों हैं ?
उत्तर :- अज्ञानता के कारण । क्योंकि यदि लोग वेद, दर्शन, उपनिषद् आदि का स्वाध्याय करके शरीर और आत्मा आदि के ज्ञान विज्ञान को पढ़ेंगे तो उन्हें सारी स्थिति समझ में आ जायेगी और लेकिन इससे भी ये मात्र शाब्दिक ज्ञान होगा यदि लोग ये सब पढ़कर अध्यात्म में रूचि लेते हुए योगाभ्यास आदि करेंगे तो ये ज्ञान उनको भीतर से होता जायेगा और वे निर्भयी होते जायेंगे । आपने महापुरुषों के बारे में सुना होगा कि जिन्होंने हँसते हँसते अपने प्राण दे दिए । ये सब इसलिये कर पाए क्योंकि वे लोग तत्वज्ञानी थे जिसके कारण मृत्यु भय जाता रहा । सोचिए महाभारत के युद्ध में अर्जुण भय के कारण शिथिल हो गया था तो योगेश्वर कृष्ण जी ने ही उनको सांख्य योग के द्वारा ये शरीर, आत्मा आदि का ज्ञान विज्ञान ही तो समझाया था और उसे निर्भयी बनाया था । सामान्य मनुष्य को तो अज्ञान मे ये भय रहता ही है ।

प्रश्न :- क्या वास्तव में भूत प्रेत नहीं होते ? और जो हम ये किसी महिला के शरीर मे चुड़ैल या दुष्टात्मा आ जाती है वो सब क्या झूठ है ?
उत्तर :- झूठ है । लीजिए इसको क्रम से समझिए । पहली बात तो ये है कि किसी एक शरीर कां संचालन दो आत्माएँ कभी नहीं कर सकतीं । ये सिद्धांत विरुद्ध और ईश्वरीय नियम के विरुद्ध है । तो किसी एक शरीर में दूसरी आत्मा का आकर उसे अपने वश में कर लेना संभव ही नही है । और जो आपने बोला कि कई महिलाओं में जो डायन या चुड़ैल आ जाती है जिसके कारण उनकी आवाज़ तक बदल जाति है तो वो किसी दुष्टात्मा के कारण नहीं बल्कि मन के पलटने की स्थिति के कारण होता है । विज्ञान की भाषा में इसे Multiple Personality Disorder कहते हैं जिसमें एक व्यक्ति परिवर्तित होकर अगले ही क्षण दूसरे में बदल जाता है । ये एक मान्सिक रोग है ।

प्रश्न :- पुनर्जन्म का साक्ष्य क्या है ? ये सिद्धांतवादी बातें अपने स्थान पर हैं पर इसके प्रत्यक्ष प्रमाण क्या हैं ?
उत्तर :- आपने ढेरों ऐसे समाचार सुने होंगे कि किसी घर में कोई बालक पैदा हुआ और वह थोड़ा बड़ा होते ही अपने पुराने गाँव, घर, परिवार और उन सदस्यों के बारे में पूरी जानकारी बताता है जिनसे उसका प्रचलित जीवन में दूर दूर तक कोई संबन्ध नहीं रहा है  । और ये सब पुनर्जन्म के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । सुनिए ! होता ये है कि जैसा आपको ऊपर बताया गया है कि आत्मा के सूक्ष्म शरीर में कर्मो के संस्कार अंकित होते रहते हैं और किसी जन्म में कोई अवसर पाकर वे  उभर आते हैं इसी कारण वह मनुष्य अपने पुराने जन्म की बातें बताने लगता है । लेकिन ये स्थिति सबके साथ नहीं होती । क्योंकि करोड़ों में कोई एक होगा जिसके साथ ये होता होगा कि अवसर पाकर उसके कोई दबे हुए संस्कार उग्र हो गए और वह अपने बारे में बताने लगा ।

प्रश्न :- क्या हम जान सकते हैं कि हमारा पूर्व जन्म कैसा था ?
उत्तर :- महर्षि दयानंद सरस्वति जी कहते हैं कि सामान्य रूप में तो नहीं परन्तु यदि आप योगाभ्यास को सिद्ध करेंगे तो आपके करोंड़ों वर्षों का इतिहास आपके सामने आकर खड़ा हो जायेगा । और यही तो मुक्ति के लक्षण हैं ।

-- कुमार आर्य

Tuesday, October 10, 2017

● Swami Dayananda Saraswati explains Divine & Revealed Character of the Vedas ●



● Swami Dayananda Saraswati explains Divine & Revealed Character of the Vedas ●
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Date: 13th September 1882

Location: Udaipur (Rajasthan)
[Introduction: Below given contents are extracted from Swami Dayananda Saraswati’s famous biography compiled by Pandit Lekh Ram. The contents are translated from Hindi for the benefit of English knowing readers. This is a part of a written debate the great Swami had for 3 days with Maulavi Abdul Rahaman, a scholar of Islam who was at that time Civil Judge of Udaipur. Swami tried to clarify the doubts the opponent had regarding the divine character and the process of revelation of the Vedas.- Bhavesh Merja]

Maulavi: How one can prove based on knowledge and intellect that God gave the light of Vedas to four seers?

Swami: The effect cannot exist without the cause. So, even for knowledge, there must be some cause and the cause of knowledge should be eternal. The eternal knowledge of God is evident when His creation is beheld. He is the efficient cause of the entire creation and so is His knowledge the cause of the knowledge we the humans possess. Hadn’t he given the knowledge to those seers in the beginning of the creation, the stream of these books of knowledge which correspond to the laws of nature would not have flowed further at all.
Maulavi: Did God teach those four seers one by one or together at the same time?
Swami: God being Omnipresent, taught these four seers separately as well as one by one in orderly or sequential manner because those seers had been with limited intellect and so they were incapable to learn or assimilate so many branches of knowledge at a time. Moreover, they had different potential to acquire the intellect or understanding. Therefore, they sometimes learned jointly at the same time and sometimes understanding individually kept on learning jointly. As the four Vedas are having the individual identities, same way God too taught each of these four seers one-one Veda.
Maulavi: What time did God take to teach the Vedas to those four seers?
Swami: It took time adequately required for getting maturity of their intellect.
Maulavi: Whether the teaching was a process of mental inspiration or through words and letters etc. which we find in the Vedas? I mean to know whether the teaching involved the process of word-meaning-relation i.e. the knowledge of the words, their meanings and their relations with the corresponding objects or substances.
Swami: God taught the words which we read in the Vedas and along with the words also taught their meanings and their relations with the corresponding objects or substances.
Maulavi: To pronounce the words, vocal organs like mouth, tongue etc are required. Does God who is supposed to be a teacher possess such organs or not?
Swami: God doesn’t possess any such organs because He is formless – body less. He is devoid of such physical instrumentality of pronouncement, even for imparting the knowledge to these four seers.
Maulavi: Then how the word was uttered by God?

Swami: The way it is spoken, listened and understood in the soul and mind.

Maulavi: Without knowing the language, how the words were received in their souls?

Swami: The words were inspired in their souls by God, because He is Omnipresent.
Maulavi: In this discussion, we find two things which go against inference or reasoning: first, God gave the teachings of the Vedas to only those four men and that too in a language which was not a language of any nation or any race. Second, God instilled those words into the minds of those four seers, which were not known earlier by them and they understood their meanings. If we go on accepting such things, then we would be compelled even to accept all those things like miracles which are against dictates of inference and reasoning prevalent in all sects, as true.
Swami: These two things are not against inference or logic. Both are true. Whatever is expressed through tongue or by the soul cannot be possible without words. When God revealed the words say the Vedas to those four seers, they had the inherent capacity to grasp those words. With the help of that capacity to grasp, they could acquire those words of the Vedas in accordance with their capacities, through the grace of God. Moreover, one should know that the necessity of the physical means of pronunciation and hearing is arisen only when there exists some distance in space between the speaker and the hearer. Because if the speaker doesn’t speak through his mouth and the listener doesn’t have ears to listen, there will be no scope for any teaching or listening. But God being Omnipresent resides in the souls. Distance wise He is never away from the souls. So, God expressed in those four souls of the seers the words of His eternal knowledge i.e. the Vedas and taught their meanings also. A person having knowledge of any foreign language is able to teach that language to a person who doesn’t know that language; same way God who is all-knowing – Omniscient and also the knower of that language of His knowledge, taught the same to those four seers. Therefore, this theory of revelation of the Vedas is not against the dictates of the inference or the reasoning and no one can prove this process of revelation of the Vedas unreasonable or against the dictates of inference. There are four Braahman-books of the Vedas (Satapath, Gopath etc) which are very ancient works of sages and are acceptable to the extent they are in agreement with the four Vedas, otherwise not. These Brahman books can be rightly called the ‘Puraans’ means the ancient works. Bhaagawat, Padma and other so-called Puraans are actually not entitled to be called Puraans, as they are actually recent books and being against the natural laws and dictates of knowledge are also not worthy of acceptance.
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Monday, October 9, 2017

रामायण में अहिल्या के पत्थर बनना



शंका-- रामायण में अहिल्या के पत्थर बनने और श्री राम जी के स्पर्श मात्र से सजीव होने की कहानी रामायण में पायी जाती है। क्या वह सत्य है?

समाधान

अहिल्या का रूपक वेद में है। रामायण में उसके आधार पर कहानी लिखी है जो मिलावट है। स्वामी दयानन्द ने इस शंका का समाधान किया है।

इन्द्रा गच्छेति । .. गौरावस्कन्दिन्नहल्यायै जारेति । तधान्येवास्य चरणानि तैरेवैनमेंत्प्रमोदयिषति ।।

शत ० का ० ३ । अ ० ३ । ब्रा ० ४ । कं ० १ ८
रेतः सोम ।।  शत ० का ० ३ । अ ० ३ । ब्रा ० २  । कं ० १
रात्रिरादित्यस्यादित्योददयेर्धीयते  निरू ० अ ० १२ । खं० १ १
सुर्य्यरश्पिचन्द्रमा गन्धर्वः।। इत्यपि निगमो भवति । सोअपि गौरुच्यते।। निरू ० अ ० २ । खं० ६
जार आ भगः जार इव भगम्।। आदित्योअत्र जार उच्यते, रात्रेर्जरयिता।। निरू ० अ ० ३  । खं० १ ६

(इन्द्रागच्छेती०) अर्थात उनमें इस रीति से है कि सूर्य का नाम इन्द्र ,रात्रि का नाम अहल्या तथा चन्द्रमा का गोतम है। यहाँ रात्रि और चन्द्रमा का स्त्री-पुरुष के समान रूपकालंकार है। चन्द्रमा अपनी स्त्री रात्रि के साथ सब प्राणियों को आनन्द कराता है और उस रात्रि का जार आदित्य है। अर्थात जिसके उदय होने से रात्रि अन्तर्धान हो जाती है। और जार अर्थात यह सूर्य ही रात्रि के वर्तमान रूप श्रंगार को बिगाड़ने वाला है। इसीलिए यह स्त्रीपुरुष का रूपकालंकार बांधा है, कि जिस प्रकार स्त्रीपुरुष मिलकर रहते हैं, वैसे ही चन्द्रमा और रात्रि भी साथ-२ रहते हैं।

चन्द्रमा का नाम गोतम इसलिए है कि वह अत्यन्त वेग से चलता है। और रात्रि को अहल्या इसलिये कहते हैं कि उसमें दिन लय हो जाता है । तथा सूर्य रात्रि को निवृत्त कर देता है, इसलिये वह उसका जार कहाता है।

इस उत्तम रूपकालंकार को अल्पबुद्धि पुरुषों ने बिगाड़ के सब मनुष्य में हानिकारक मिथ्या सन्देश फैलाया है। इसलिये सब सज्जन लोग पुराणोक्त मिथ्या कथाओं का मूल से ही त्याग कर दें।

–: ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका , महर्षि दयानंद सरस्वती
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ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के ‘ग्रन्थप्रामाण्याप्रामाण्यविषयः’ अध्याय में महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि इन्द्र और अहल्या की कथा मूढ लोगों ने अनेक प्रकार से बिगाड़ कर लिखी है। उन्होंने ऐसा मान रखा है कि ‘देवों का राजा इन्द्र देवलोक में देहधारी देव था। वह गौतम ऋषि की स्त्री अहल्या के साथ जारकर्म किया करता था। एक दिन जब उन दोनों को गौतम ने देख लिया, तब इस प्रकार शाप दिया कि —हे इन्द्र ! तू हजार भगवाला हो जा। अहल्या को शाप दिया कि तू पाषाणरूप हो जा। परन्तु जब उन्होंने गौतम की प्रार्थना की कि हमारे शाप का मोक्षण कैसे वा कब होगा, तब इन्द्र से तो कहा कि तुम्हारे हजार भग के स्थान में हजार नेत्र हो जायं, और अहल्या को वचन दिया कि जिस समय रामचन्द्र अवतार लेकर तुझ पर अपना चरण लगावेंगे, उस समय तू फिर अपने स्वरूप में आजावेगी।’ महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि इस प्रकार से पुराणों में यह कथा बिगाड़ कर लिखी गई है। सत्य ग्रन्थों में ऐसा नहीं है। सत्यग्रन्थों में इस कथा का स्वरूप निम्न प्रकार है।

सूर्य का नाम इन्द्र है, रात्रि का नाम अहल्या है तथा चन्द्र का नाम गौतम है। यहां रात्रि और चन्द्रमा का स्त्री-पुरूष के समान रूपक अलंकार है। चन्द्रमा अपनी स्त्री रात्रि से सब प्राणियों को आनन्द कराता है और उस रात्रि का जार आदित्य है। अर्थात् जिस (सूर्य) के उदय होने से (वह) रात्रि के वत्र्तमान रूप श्रृंगार को बिगाड़ने वाला है। इसलिये यह स्त्री पुरूष का रूपकालंकार बांधा है। जैसे स्त्ऱी-पुरूष मिल कर रहते हैं, वैसे ही चन्द्रमा और रात्रि भी साथ-साथ रहते हैं। चन्द्रमा का नाम ‘गौतम’ इसलिये है कि वह अत्यन्त वेग से चलता है और रात्रि को ‘अहल्या’ इसलिये कहते हैं कि उसमें दिन का लय हो जाता है। सूर्य (इन्द्र) रात्रि को निवृत्त कर देता है, इसलिए वह उसका ‘जार’ कहलाता है। इस उत्तम रूपकालंकार विद्या को अल्प बुद्धि पुरूषों ने बिगाड़ के सब मनुष्यों में हानिकारक फल धर दिया है। इसलिये सब सज्जन लोग पुराणों की मिथ्या कथाओं का मूल से ही त्याग कर दें। ऐसी अनेक मिथ्या कथायें पुराणों में दी गई हैं जिन्हें विवेकशील मनुष्यों को स्वीकार नहीं करना चाहिये। रामायण में यह कथा वैदिक ग्रन्थों से आयातित है।
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 वाल्मीकि रामायण में अहिल्या का वन में गौतम ऋषि के साथ तप करने का वर्णन हैं

वाल्मीकि रामायण 49/19 में लिखा हैं की राम और लक्ष्मण ने अहिल्या के पैर छुए। यही नहीं राम और लक्ष्मण को अहिल्या ने अतिथि रूप में स्वीकार किया और पाद्य तथा अधर्य से उनका स्वागत किया। यदि अहिल्या का चरित्र सदिग्ध होता तो क्या राम और लक्ष्मण उनका आतिथ्य स्वीकार करते?

विश्वामित्र ऋषि से तपोनिष्ठ अहिल्या का वर्णन सुनकर जब राम और लक्ष्मण ने गौतम मुनि के आश्रम में प्रवेश किया तब उन्होंने अहिल्या को जिस रूप में वर्णन किया हैं उसका वर्णन वाल्मीकि ऋषि ने बाल कांड 49/15-17 में इस प्रकार किया हैं

स तुषार आवृताम् स अभ्राम् पूर्ण चन्द्र प्रभाम् इव |
मध्ये अंभसो दुराधर्षाम् दीप्ताम् सूर्य प्रभाम् इव || ४९-१५

सस् हि गौतम वाक्येन दुर्निरीक्ष्या बभूव ह |
त्रयाणाम् अपि लोकानाम् यावत् रामस्य दर्शनम् |४९-१६

तप से देदिप्तमान रूप वाली, बादलों से मुक्त पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा के समान तथा प्रदीप्त अग्नि शिखा और सूर्य से तेज के समान अहिल्या तपस्या में लीन थी।

सत्य यह हैं की देवी अहिल्या महान तपस्वी थी जिनके तप की महिमा को सुनकर राम और लक्ष्मण उनके दर्शन करने गए थे। विश्वामित्र जैसे ऋषि राम और लक्ष्मण को शिक्षा देने के लिए और शत्रुयों का संहार करने के लिए वन जैसे कठिन प्रदेश में लाये थे।

किसी सामान्य महिला के दर्शन कराने हेतु नहीं लाये थे।


--संजय कुमार 

Tuesday, October 3, 2017

धर्म के नाम पर पशुवध और आर्यसमाज का पुरुषार्थ



धर्म के नाम पर पशुवध और आर्यसमाज का पुरुषार्थ

दशहरे के पर्व पर एक ओर हिन्दू समाज मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम जी द्वारा रावण पर विजय प्राप्त करने को बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में बनाया जाता है। जबकि दूसरी ओर हिन्दू समाज द्वारा ही भारत में अनेक स्थानों पर बेरहमी से निरीह बकरों की गर्दनों पर तलवार चलाई गई।

आर्यसमाज आरम्भ से ही इस क्रूर प्रथा रूपी अन्धविश्वास का विरोध करता रहा है।

स्वामी दयानंद द्वारा सबसे पहले ऋग्वेद का भाष्य प्रारम्भ किया गया मगर कुछ शुभचिंतकों के अनुरोध पर की महीधर कृत यजुर्वेद भाष्य में यज्ञ रूपी कर्म कांड में पशु बलि का स्पष्ट समर्थन है। स्वामी जी ने पहले यजुर्वेद का भाष्य सम्पन्न किया जिससे इस भ्रान्ति का निराकरण हो जाये। स्वामी जी के यजुर्वेद भाष्य का उन्हीं के जीवन काल में प्रभाव दिखना आरम्भ हो गया था। तब राजस्थान की जोधपुर रियासत में सोम याग किया गया था। जिसमें दो बकरों की बलि तो दी गई। मगर राजपूत राजाओं ने उसके मांस को प्रसाद के रूप में ग्रहण न किया। ऐसा सदियों के बाद प्रथम बार हुआ था जब मांस को ग्रहण नहीं किया गया था। परिवर्तन आरम्भ हो गया था।

उड़ीसा में आर्य प्रचारक श्री वत्स पंडा जी का पशुबलि करने का विरोध अनोखा था। वे अपने एक शिष्य के गले में रस्सी बांध कर उसे बकरा बनाकर वध स्थल पर ले गए और यह कहा की पहले मेरे बकरे की गर्दन काटो तभी और बकरों को काटना। अन्यथा मेरे साथ शास्त्रार्थ कर लो जो जीता उसी का मत सर्वमान्य होगा। उनका उद्देश्य जनचेतना लाना था। उनके प्रयास से जनचेतना हुई। अनेक बकरे कटने से बच गए।

कोलकाता के गोविन्द भवन से कलकत्ते की काली और गुवहाटी की कामाख्या के मंदिर में पशु बलि के विरुद्ध जनांदोलन चलाया गया था। आर्यसमाज के विद्वान नरदेव जी विद्यालंकार जी ने श्रोत्र सूत्र एवं स्मृति ग्रंथों के आधार पर एक पुस्तक पशु बलि के विरुद्ध प्रकाशित कर चेतना लाने का प्रयास किया था।

गुरुकुल कांगड़ी के प्रकांड विद्वान पंडित विश्वनाथ जी वेदालंकार द्वारा यज्ञ एवं पशुवध मीमांसा नामक ग्रन्थ लिखकर पशु वध के विरुद्ध लोगों को जागृत किया था।

आर्य प्रतिनिधि सभा सिंध के ताराचंद गाजरा द्वारा आंगल भाषा में लिखित पशु वध क्यों अवैदिक है एक लेख लिखा गया था। इस लेख के लिए उन्हें प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। ताराचंद जी ने सिंध प्रान्त में मांसाहार के विरुद्ध व्यापक प्रचार किया था। जिसके वांछित परिणाम भी निकले थे।

केरल के विद्वान स्वर्गीय नरेंदर भूषण जी केरल में सोमयाग में बलि देने के विरुद्ध दिल्ली आकर श्री रामगोपाल शालवाले के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिले और यज्ञ में पशु वध के विरुद्ध सरकारी रूप से निषेधाज्ञा पारित करने का अनुरोध किया था। श्रीमती इंदिरा गांधी ने तत्काल प्रभाव से केरल के तत्कालीन मुख्यमंत्री करुणाकरन को दूरभाष पर सूचित कर याग में बलि देने के विरुद्ध राज्य सरकार द्वारा सरकारी आदेश लागु करने को कहा था। जिस पर अमल होने से अनेक पशुओं की रक्षा हुई थी।

यह आर्यसमाज की चेतना का ही परिणाम था कि गायत्री परिवार के संस्थापक श्रीराम शर्मा द्वारा जब मथुरा में सोमयाग किया गया। तब जीवित पशु के स्थान पर चावल से बनाई गई पशु की आकृति को प्रतिलिपि रूप में काटा गया था। जीवित पशु को काटने की उनकी भी हिम्मत न हुई थी।
उत्तराखंड में आर्य प्रचारकों द्वारा दशहरा पर व्यापक रूप से पशुबलि देने की कुप्रथा और मांसाहार का विरोध कर जनचेतना लाने का प्रयास किया गया था।

आर्यसमाज के इतिहास में ऐसे अनेक उदहारण मिल जायगे जिसमें निरीह पशुओं की रक्षा करने के लिए प्रचारकों ने भरपूर प्रयास किये हैं। हाल ही में हिमाचल सरकार द्वारा कुल्लू के दशहरा में पशु वध पर प्रतिबन्ध सराहनीय कदम है।

आर्यसमाज का जनचेतना अभियान अविरल चलता रहे। यही ईश्वर से प्रार्थना है।

डॉ विवेक आर्य