Monday, May 29, 2017

गोत्र परम्परा वैज्ञानिक है।



गोत्र परम्परा वैज्ञानिक है।

गोत्र परम्परा हमारे समाज में सदियों से चलती आयी हैं।  इस परम्परा के अनुसार अपने पिता, माता, नानी और दादी के गोत्रों में विवाह करना वर्जित हैं। मीडिया और कुछ छदम बुद्दिजीवी सदा हमारी इस परम्परा की बुराई करते आये हैं। वैसे हमारी कोई भी अच्छी बात, अच्छी परम्परा हो ये लोग उसका सदा विरोध ही करते है। इनकी दुकानदारी हमारे विरोध से ही चलती हैं। इन तथाकथित बुद्धिजीवियों को यह भी नहीं मालूम कि अगर पशुओं में एक ही परिवार में सम्बन्ध बनने लगते है तो उनके बच्चे या तो कमजोर पैदा होते हैं अथवा कुछ ही दिनों में मर जाते हैं।  गांव देहात के लोग जो गौ आदि पशु पालते है इस वैज्ञानिक सोच से भली प्रकार से जानते हैं।मगर पाकिस्तान में रहने वाले मुसलमान इस तथ्य को नहीं जानते। दो पीढ़ियों से पाकिस्तानी मुसलमान इग्लैंड जाकर बस गए। अपनी आदत के मुताबिक उन्होंने इंग्लैंड के ब्रैडफोर्ड, यॉर्कशायर  में एक ही स्थान पर पर बसना शुरू कर दिया। इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार उन्होंने केवल अपनी माँ का पेट छोड़कर आपस में विवाह करना शुरू कर दिया। खाला(मौसी) की बेटी, बुआ की बेटी, चाचा-ताऊ की बेटी, अपने ही बाप की दूसरी बीवी के बेटी आदि से भी सम्बन्ध बनाये। उनके इस प्रकार से सम्बन्ध बनाने का दुष्परिणाम आगे उनकी संतान में देखने में आया। इंग्लैंड जैसे देश में अगर एक भी बच्चे की मृत्यु अस्पताल में ईलाज के दौरान होती है तो उसका संज्ञान एक मेडिकल बोर्ड बनाकर लिया जाता हैं। ब्रैडफोर्ड, यॉर्कशायर के हस्पतालों में एशिया मूल की आबादी 20 से 30% हैं जबकि अस्पताल में भर्ती एवं मृत्यु दर में एशिया मूल के लोगों में 50% से अधिक पाई गई। मरने वाले बच्चों में तीन बातें समान पाई गई। पहली वे सभी मुस्लिम थे। दूसरी उन्होंने अपने ही परिवार में आपसी रिश्ते कायम किये थे। तीसरी वे दो तीन पीढ़ियों से ऐसा कर रहे थे। चिकित्सकों ने यह भी पाया कि सभी बच्चों में जो बीमारियां मिली वे अनुवांशिक अर्थात Genetic थी। वही इंग्लैंड में रहने वाले हिन्दुओं में ये बीमारियां बहुत न्यून मिली। इंग्लैंड में पैदा होने वाले पाकिस्तानी बच्चों की संख्या 3% है जबकि अनुवांशिक बिमारियों में उनका अनुपात 33% मिला। यानि हर तीन में से एक अनुवांशिक रोग से पीड़ित बच्चा पाकिस्तानी मुसलमान था। चिकित्सा विज्ञान के अनुसार इसका मूल कारण गोत्र परम्परा को नहीं मानना था। इंग्लैंड के शोध को पाठक जेनेटिक ग्रुप स्टडी के नाम से गूगल पर आसानी से खोज सकते है।

इंग्लैंड के इस प्रसिद्द शोध के आकड़ें स्पष्ट रूप से यह सिद्ध करते है कि गोत्र परम्परा वैज्ञानिक है। मैंने स्वयं तमिल नाडु में अपनी MBBS की शिक्षा के दौरान एक ही हिन्दू परिवार के तीनों बच्चों को एक ही अनुवांशिक बीमारी से पीड़ित देखा था। कारण उनके माता-पिता आपस में मामा -भांजी थे। तमिल नाडु में कुछ परिवारों में आज भी गोत्र परम्परा को न मानकर आपस में विवाह किया था।

हमें गर्व है कि हम आर्यों की महान एवं वैज्ञानिक गोत्र परम्परा को मानने वाले है।

डॉ विवेक आर्य, शिशु रोग विशेषज्ञ, दिल्ली

Link of Study

http://www.dailymail.co.uk/news/article-1394119/Its-time-confront-taboo-First-cousin-marriages-Muslim-communities-putting-hundreds-children-risk.html


Sunday, May 28, 2017

वीर सावरकर ने अंग्रेजों से माफ़ी क्यों मांगी?



वीर सावरकर ने अंग्रेजों से माफ़ी क्यों मांगी?

28 मई को वीर सावरकर जयंती पर विशेष रूप से प्रचारित

वीर सावरकर भारत देश के महान क्रांतिकारियों में से एक थे। कांग्रेस राज की बात है। मणिशंकर अय्यर ने मुस्लिम तुष्टिकरण को बढ़ावा देने के लिए अण्डेमान स्थित सेलुलर जेल से वीर सावरकर के स्मृति चिन्हों को हटवा दिया। यहाँ तक उन्हें अंग्रेजों से माफ़ी मांगने के नाम पर गद्दार तक कहा था। भारत देश की विडंबना देखिये जिन महान क्रांतिकारियों ने अपना जीवन देश के लिए बलिदान कर दिया। उन क्रांतिकारियों के नाम पर जात-पात, प्रांतवाद, विचारधारा, राजनीतिक हित आदि के आधार पर विभाजन कर दिया गया। इस विभाजन का एक मुख्य कारण देश पर सत्ता करने वाला एक दल भी रहा। जिसने केवल गांधी-नेहरू को देश के लिए संघर्ष करने वाला प्रदर्शित किया। जिससे यह भ्रान्ति पैदा हो गई हैं कि देश को स्वतंत्रता गांधी जी/कांग्रेस ने दिलाई? वीर सावरकर भी स्वाधीनता के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले, सर्वस्व समर्पित करने वाले असंख्य क्रांतिकारियों, अमर हुतात्माओं में से एक थे जिनकी पूर्ण रूप से उपेक्षा की गई।



वीर सावरकर ने अपनी कहानी में अंडमान की यात्राओं पर प्रकाश डालते हुए कोल्हू में बैल की तरह जुत कर तेल पेरने का बड़ा ही सजीव वर्णन किया है | उन्होंने लिखा है -

    "हमें तेल का कोल्हू चलने का काम सोंपा गया जो बेल के ही योग्य माना जाता है | जेल में सबसे कठिन काम कोल्हू चलाना ही था | सवेरे उठते ही लंगोटी पहनकर कमरे में बंद होना तथा सांय तक कोल्हू का डंडा हाथ से घुमाते रहना | कोल्हू में नारियल की गरी पड़ते ही वः इतना भारी चलने लगता की हृदय पुष्ट शरीर के व्यक्ति भी उसकी बीस फेरियां करते रोने लग जाते | राजनीतिक कैदियों का स्वास्थ्य खराब हो या भला, ये सब सख्त काम उन्हें दिए ही जाते थे | चिकित्सा शास्त्र भी इस प्रकार साम्राज्यवादियों के हाथ की कठपुतली हो गया | सवेरे दस बजे तक लगातार चक्कर लगाने से श्वास भारी हो जाता और प्रायः सभी को चक्कर आ जाता या कोई बेहोश हो जाते | दोपहर का भोजन आते ही दरवाजा खुल पड़ता, बंदी थाली भर लेता और अंदर जाता की दरवाजा बंद |
"यदि इस बीच कोई अभागा केडी चेष्टा करता की हाथ पैर धोले या बदन पर थोड़ी धूप लगा ले तो नम्बरदार का पारा चढ़ जाता | वह मा बहन की गालियाँ देनी शुरू कर देता था | हाथ धोने का पानी नहीं मिलता था, पीने के पानी के लिए तो नम्बरदार के सैंकड़ों निहार करने पड़ते थे | कोल्हू को चलाते चलाते पसीने से तर हो जाते, प्यास लग जाती | पानी मांगते तो पानी वाला पानी नहीं देता था | यदि कहीं से उसे एकाध चुटकी तम्बाकू की दे दी तो अच्छी बात होती , नहीं तो उलटी शिकायत होती की ये पानी बेकार बहाते हैं जो जेल में एक बड़ा भारी जुर्म होता | यदि किसी ने जमादार से शिकायत की तो वः गुस्से में कह उठता - " दो कटोरी पानी देने का हुक्म है , तुम तो तीन पि गया | और पानी क्या तुम्हारे बाप के यहाँ से आएगा ? " नहाने की तो कल्पना करना ही अपराध था | हां , वर्षा हो तो भले नाहा लें | " केवल पानी ही नहीं अपितु " भोजन की भी वाही स्थिति थी | खाना देकर जमादार कोठरी बंद कर देता और कुछ देर में हल्ला करने लगता - " बैठो मत , शाम को तेल पूरा हो नही तो पीते जाओगे | और जो सजा मिलेगी सो अलग | " इसे वातावरण में बंदियों को खाना निगलना भी कठिन हो जाता | बहुत से ऐसा करते की मुंह में कौर रख लिया और कोल्हू चलाने लगे | कोल्हू पेरते पेरते , थालियों में पसीना टपकाते टपकाते , कौर को उठाकर मुंह में भरकर निगलते कोल्हू पेरते रहते | " १०० में से एकाध ऐसे थे जो दिन भर कोल्हू में जुतकर तीस पौंड तेल निकाल पाते | जो कोल्हू चलाते चलाते थककर हाय हाय कर दते उन पर जमादार और वार्डन की मार पड़ती | तेल पूरा न होने पर उपर से थप्पड़ पड़ रहे हैं , आँखों में आंसुओं की धारा बह रही है | "

वीर सावरकर जानते थे कि यह अत्याचार क्रांतिकारियों पर अंग्रेजों द्वारा इसलिए किया जा रहा है ताकि वे मानसिक रूप से विक्षिप्त होकर या तो पागल हो जाये अथवा मर जाये। अंग्रेजों की छदम न्यायप्रियता का यह साक्षात उदहारण था। इतिहास फिर से दोहरा रहा था। औरंगजेब ने भी कभी अंग्रेजों के समान शिवाजी को कैद कर समाप्त करने का सोचा था ताकि शिवजी दक्कन का कभी दोबारा मुँह न देख सके। जन्मभूमि से इतनी दूर जाकर इस प्रकार से मरना वीर सावरकर को किसी भी प्रकार से स्वीकार्य नहीं था। उन्हें लगा की उनका जीवन इसी प्रकार से नष्ट हो जायेगा। मातृभूमि की सेवा वह कभी नहीं कर पाएंगे। उन्होंने साम,दाम, दंड और भेद की वही नीति अपनाई जो वीर शिवाजी ने औरंगज़ेब की कैद में अपनाई थी। उन्होंने अंग्रेजों से क्षमा मांग कर मातृभूमि जाने का प्रस्ताव उनके समक्ष रखा। अंग्रेज उनकी कूटनीति का शिकार बन गए। वीर सावरकर को सशर्त रिहा कर दिया गया। अपने निर्वासित जीवन में उन्हें न रत्नागिरी से बाहर नहीं निकलना था और न ही किसी भी प्रकार की क्रांतिकारी गतिविधि में भाग लेना था। वीर सावरकर ने अवसर का समुचित लाभ उठाया। उन्होंने अण्डेमान जेल के कैदियों के अधिकारों के लिए आंदोलन किया। उससे भी बढ़कर उन्होंने छुआछूत रूपी अन्धविश्वास के विरोध में आंदोलन चलाया। वीर सावरकर ने पतित पावन मंदिर की स्थापना की जिसमें बिना किसी भेदभाव के ब्राह्मण से लेकर शूद्र सभी को प्रवेश करने की अनुमति थी। सामूहिक भोज का आयोजन किया जिसमें शूद्रों के हाथ से ब्राह्मण भोजन ग्रहण करते थे। दलित बच्चों को जनेऊ धारण करवाने से लेकर गायत्री मंत्र की शिक्षा दी। रत्नागिरि में वीर सावरकर ने छुआछूत रूपी अभिशाप को समाप्त करने के लिए अत्यंत प्रभावशाली आंदोलन किया। इसके साथ साथ जनचेतना के लिए उनका लेखन कार्य अविरल चलता रहा।

खेद हैं कि वीर सावरकर के इस चिंतन, श्रम और पुरुषार्थ की अनदेखी कर साम्यवादी इतिहासकार अपनी आदत के मुताबिक उन्हें गद्दार कहकर अपमानित करते हैं।  उनकी माफ़ी मांगने की कूटनीति को कायरता के रूप में प्रेषित करते है। धिक्कार है ऐसे पक्षपाती लेखकों को और ऐसे राजनेताओं को जो वीर सावरकर के महान कार्यों की उपेक्षा कर अपने राजनीतिक हितों को साधने में लगे हुए हैं। उन्हें गद्दार कहते है।  वीर सावरकर गद्दार नहीं अपितु स्वाभिमानी थे। देशभक्त थे। धर्मयोद्धा थे। अनेक क्रांतिकारियों के मार्गदर्शक थे। कूटनीतिज्ञ थे। प्रबुद्ध लेखक थे। आत्मस्वाभिमानी थे। समाज सुधारक थे।

आईये आज वीर सावरकर की जयंती पर हम लोग यह प्राण करे कि हम भी उनके समान छुआछूत मिटाने, धर्म रक्षा, देश भक्ति के लिए पुरुषार्थ करेंगे।
 
हमारे क्रांतिकारी महान है गद्दार कभी नहीं। गद्दार तो वो है जो उनकी आलोचना करते है।

(सलंग्न चित्र-चित्रकार द्वारा वीर सावरकर को महाराष्ट्र के संत ध्यानेश्वर के समान चित्रित किया गया है) 

Wednesday, May 24, 2017

ईश्वर और मनुष्यों के कार्यों में अंतर



ईश्वर और मनुष्यों के कार्यों में अंतर

एक बार एक मौलाना ने कहा था कि'आप ईश्वर,जीव और प्रकृति को अनादि और अनंत मानते हैं और साथ ही यह भी कहते हैं,कि ईश्वर इस सृष्टि की रचना प्रकृति से करता है।यदि ऐसा मान लिया जाये तो फिर ईश्वर और मनुष्य के कार्यों में कोई विषेश अन्तर दृष्टिगोचर नहीं होता।
यदि आप किसी सुनार को सोना दें तो वह आपके लिए आभूषण तैयार करा देगा।उसी प्रकार यदि बढ़ई को लकड़ी मिल जाये तो वह मेज-कुर्सियां आदि बना देगा।यदि ईश्वर ने भी प्रकृति से सृष्टि की रचना की है,तो केवल इतना ही कह सके हो कि वह एक बड़ा शिल्पी है और हम छोटे।'

मैंने उन्हें जो उत्तर दिया वह निम्नलिखित है:-

(1) कोई भी शिल्पी चाहे वह लोहार हो या सुनार,बढ़ई या हलवाई,बिना औजारों एवं कुछ अन्य वस्तुओं के कोई भी कार्य नहीं कर सकता किन्तु ईश्वर को इनमें से किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं पड़ती।उदाहरण के लिए गर्भवती देवी के गर्भ में जिस बालक अथवा बालिका के शरीर का निर्माण हो रहा होता है उसमें नाक,कान और मुख के छिद्र बिना औजारों के बनाये जा रहे हैं।

(2) ईश्वर न करे यदि किसी शिल्पी की आंखें फूट जायें या हाथ कट जायें तो वह कोई भी कार्य नहीं कर सकेगा किन्तु ईश्वर निराकार होने के कारण बिना किसी अंग के अपना सारा कार्य सर्वोत्तम रीति से कर रहा है।जिसे देखकर मनुष्य आश्चर्यचकित हो जाता है।

(3) कोई भी शिल्पी अन्धेरे में कार्य नहीं कर सकता किन्तु परमात्मा को प्रकाश की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती,क्योंकि वह स्वयं प्रकाशस्वरुप है और समस्त विश्व को सूर्य एवं चन्द्र द्वारा प्रकाशित कर रहा है।

(4) मनुष्य एक समय में केवल एक ही स्थान पर कार्य कर सकता है,किन्तु ईश्वर सर्वव्यापक होने के कारण यत्र तत्र सर्वत्र अर्थात् समस्त विश्व में हर समय अपना कार्य करता रहता है।

(5) यदि कार्य अधिक हो तो प्रत्येक व्यक्ति अपने साथ और सहायकों को रख लेता है।किन्तु ईश्वर सर्वशक्तिमान होने के कारण अपना सारा कार्य अकेला करता है।

(6) प्रत्येक व्यक्ति का कोई न कोई शिक्षक हुआ करता है जो उसे कार्य करना सिखलाता है किन्तु ईश्वर को किसी से भी कुछ सीखने की आवश्यकता नहीं पड़ती,बल्कि उल्टा जितना ज्ञान हमें संसार में दृष्टिगोचर होता है वह भी ईश्वर का दिया हुआ है।

(7) मनुष्य कुछ देर कार्य करने के पश्चात् थक जाता है।उसे विश्राम करना पड़ता है किन्तु ईश्वर अनादि काल से हर समय अपना कार्य कर रहा है किन्तु थकता नहीं।

इसके अतिरिक्त मैंने उन्हें यह भी कहा कि हम वैदिक धर्मी ईश्वर को इस जगत का निमित्त कारण और प्रकृति को उपादान कारण मानते हैं।यदि हम भी आपके सदृश यह मान लें कि ईश्वर ने ही जीव और प्रकृति को उत्पन्न किया है, तो फिर हमारी भलाई व बुराई, पुण्य और पाप का उत्तरदायी भी भगवान हो जाता है।आप ईश्वर को दयालु और कृपालु मानते हैं। जब ईश्वर के अतिरिक्त संसार में कुछ भी नहीं था तो उसकी दया और करुणा का पात्र कौन था?

यदि पत्नि नहीं तो पति किसका?यदि संतान नहीं तो पिता किसका?

यदि विद्यार्थी नहीं तो अध्यापक किसका?

कहने का अभिप्राय ये है कि ईश्वर दयालु और कृपालु तब से बना जब से हम और हम उत्पन्न हुए ऐसी अवस्था में ईश्वर के गुण अनादि न रहे। जब गुण अनादि न रहे, तो गुणी अनादि न रहा जो अनादि न रहा तो वह ईश्वर न रहा।

अतः यह बात अति आवश्यक है कि हम ईश्वर,जीव और प्रकृति तीनों को अनादि और अनन्त मानें और साथ ही यह बात भी स्वीकार करें कि सृष्टि उत्पत्ति के पश्चात् प्रलय और प्रलय के पश्चात् सृष्टि उत्पत्ति होती है।

यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है और चलता रहेगा।

इसके विपरित ईश्वर पर सृष्टि उत्पत्ति के पूर्व और प्रलय के पश्चात् निकम्मा रहने का आक्षेप हो सकता है।उसी प्रकार के कई और आक्षेप भी हो सकते हैं।

मौलाना उत्तर सुनकर चुप हो गये।

सदाचार के सूत्र



*🌷 सदाचार के सूत्र 🌷*

*🌻(1) चरित्र की रक्षा यत्नपूर्वक करनी चाहिए, धन तो आता और जाता रहता है। धन से क्षीण क्षीण नहीं अपितु चरित्रहीन तो मरे हुए के समान ही है।*

*🌻(2) सदाचार ही जीवन है और दुराचार मृत्यु है। अत: जीवन सदाचार युक्त होना चाहिए।*

*🌻(3) सादा जीवन उच्च विचार, ये एक अच्छे मनुष्य के लक्षण हैं।*

*🌻(4) सदैव सत्य का आचरण करो, झूठे मनुष्य का कोई विश्वास नहीं करता।*

*🌻(5) बिना विचारे कोई भी काम मत करो क्योंकि इससे बड़ी हानि हो सकती है।*

*🌻(6) केवल ईश्वर से डरो, फिर किसी से डरने की नौबत ही नहीं आ सकती।*

*🌻(7) अण्डा और मांस मनुष्यों का आहार नहीं है। जो व्यक्ति अपने मन,बुद्धि शुद्ध करना चाहते हैं, उन्हें भूलकर भी इनका सेवन नहीं करना चाहिए।*

*🌻(8) जिन परिवारों में नारी जाति का सम्मान होता है और वे प्रसन्न रहती हैं, वहां उत्तम आत्मायें जन्म लेती हैं।*

*🌻(9) जहां नारी दु:खी होकर अपने आंखों से आंसू गिराती हैं वहां विनाश के बादल मंडराने लगते हैं।*
*🌻(10) जिस परिवार या राष्ट्र में पशु सताये जाते हैं, वहां गरीबी आ जाती है।*

*🌻(11) पराया धन और पराई स्त्री इनको दूर से ही त्याग दें।*

*🌻(12) ब्राह्मण वही है जो सत्यवादी है।*

*🌻(13) वाणी से सदा मीठे और हितकारी वचन बोलो।*

*🌻(14) कटु वचन बोलने से अपने भी पराये हो जाते हैं।*

*🌻(15) निर्दयी मनुष्य कभी धर्मात्मा नहीं हो सकता। जहां दया है वहां धर्म है।*

*🌻(16) स्त्री, बालक, वृद्ध और रोगी, ये चार प्रकार के मनुष्य दया के पात्र हैं।*

*🌻(17) अत्यन्त अभिमान, अधिक बोलना, त्याग का अभाव, क्रोध, अपना ही पेट पालने की चिन्ता और मित्र के साथ द्रोह (धोखा) करना ये छ: तीखी तलवारें देहधारियों की आयु को घटाती हैं।*

*🌻(18) जो मनुष्य अपने साथ जैसा बर्ताव करे उसके साथ वैसा ही बर्ताव करना चाहिए यही नीति है। कपट का आचरण करने वालों के साथ कपटपूर्ण और अच्छा बर्ताव करने वालों के साथ साधु भाव से बर्ताव करना चाहिए।*

*🌻(19) ब्राह्मण, गौ, कुटुम्बी, बालक, स्त्री, अन्नदाता और शरणागत ये अवध्य होते हैं, इन्हें नहीं मारना चाहिए।*

*🌻(20) जिन्हें अपने हित की बात भी अच्छी नहीं लगती, ऐसे मनुष्यों को योग-क्षेम की सिद्धि नहीं हो पाती।*

*🌻(21) परहित और परोपकार करने वाले को मान-अपमान सहना ही पड़ता है।*

*🌻(22) दुष्ट मनुष्यों का स्वभाव मेघ के समान चंचल होता है। ये सहसा क्रोध कर बैठते हैं, अकारण ही प्रसन्न हो जाते हैं।*

*🌻(23) प्रत्येक दशा में सूर्य उदय होने से पहले उठो। सूर्य उदय होने पर सोते रहने वाले अभागे मनुष्य का सब कुछ नष्ट हो जाता है।*

*🌻(24) व्यभिचारी (चरित्रहीन) मनुष्य शीघ्र मृत्यु का ग्रास बन जाता है।*

Monday, May 22, 2017

स्वामी दयानंद द्वारा 24 वर्ष की कन्या से 48 वर्ष के पुरुष का विवाह करना बताया गया हैं। यह कितना उचित है?



शंका समाधान

स्वामी दयानंद द्वारा 24 वर्ष की कन्या से 48 वर्ष के पुरुष का विवाह करना बताया गया हैं। यह कितना उचित है?

समाधान

सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में स्वामी दयानंद जी लिखते हैं –

16 वें से लेके 24 वें वर्ष तक कन्या और 25वें वर्ष से लेके 48 वें वर्ष तक पुरुष का विवाह समय उत्तम है।  इस में जो 16 और 25 में विवाह करे तो निकृष्ट , 18-20 वर्ष की स्त्री तथा 30-35 वा 40 वर्ष के पुरुष का मध्यम , 24 वर्ष की स्त्री और 48 वर्ष के पुरुष का विवाह उत्तम हैं। जिस देश में इसी प्रकार विवाह की विधि श्रेष्ठ और ब्रहमचर्य विद्या अभ्यास अधिक होता है वह देश सुखी और जिस देश में ब्रहमचर्य, विद्या रहन रहित बाल्यावस्था और अयोग्यों का विवाह होता है।  वह देश दुःख में डूब जाता है।

स्वामी जी ने 24 वर्ष की स्त्री के साथ 48 वर्ष के पुरुष का विवाह करने को क्यूँ कहा है?  इसका उत्तर सत्यार्थ प्रकाश के तृतीय समुल्लास में पठन-पाठन विधि में दिया गया है। वैदिक वांग्मय विशाल सागर के समान है। स्वामी दयानन्द व्याकरण से लेकर वेदों के विद्वान बनाने के लिए सत्यार्थ प्रकाश के तृतीया समुल्लास में पाठ विधि लिखते है।

स्वामी जी लिखते है---

इस पाठ विधि में (संक्षेप में) स्वामी जी द्वारा व्याकरण के प्रारंभ में अष्टाध्यायी तदनन्तर धातुपाठ, उणादिगण, शंका ,समाधान वार्तिक, कारिका , परिभाषा तदनन्तर महाभाष्य, यास्क मुनि कृत निघंटु और निरुक्त, तदनन्तर छन्द ग्रन्थ,मनुस्मृति,वाल्मीकि रामायण और महाभारत,विदुरनीति, तदनन्तर पूर्व मीमांसा,वैशेषिक,न्याय,योग,सांख्य और वेदांत, ईश,केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डुक्य, ऐतरेय , तैतरीय, छान्दोग्य और बृहद अरण्यक, तत्पश्चात ब्राह्मण ग्रन्थ ऐतरेय, शतपथ , साम और गोपथ के सहित चारों वेदों के स्वर, शब्द,अर्थ,सम्बन्ध तथा क्रियासाहित पढ़ना योग्य हैं। वेदों को पढ़ के आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्व वेद और अर्थवेद यह चार उपवेद पढ़े।

व्याकरण के महान विद्वान एवं स्वामी दयानंद के परम भक्त महामहोपाध्याय पंडित युधिष्ठर जी मीमांसक के अनुसार स्वामी दयानंद द्वारा सत्यार्थ प्रकाश में वर्णित आर्ष पाठ विधि का चार भाग में विभागीकरण किया जा सकता हैं।

प्रथम कल्प – 24 वर्ष तक ब्रहमचर्य पालन करने वाले के लिए-अर्थात 8 वर्ष की आयु में पठन पाठन आरंभ कर 16 वर्ष में तक निरन्तर व्याकरण में महाभाष्य पर्यन्त, निरुक्त, सामान्य कोष, छन्द शास्त्र साहित्य, ज्योतिष शास्त्र, कल्प सूत्र , धर्म सूत्र, उपनिषद् तथा एक वेद का अध्ययन हो सकता हैं।

द्वितीय कल्प- 32 वर्ष तक ब्रहमचर्य पालन करने वाले के लिए-अर्थात 8 वर्ष की आयु में पठन पाठन आरंभ कर 24 वर्ष में तक निरन्तर – पहले लिखे गए पाठ्यक्रम को पढ़ कर यजुर्वेद का अध्ययन करने वाला व्यक्ति 4 वर्ष में शतपथ ब्राह्मण, आयुर्वेद को पढ़े व सामवेद को वादित्रवाहन ,सामगान, नाट्य शास्त्र के साथ अध्ययन करें। इस प्रकार वह दो वेदों का विद्वान बन जायेगा।

तृतीय कल्प – 40 वर्ष तक ब्रहमचर्य पालन करने वाले के लिए-अर्थात 8 वर्ष की आयु में पठन पाठन आरंभ कर 32 वर्ष में तक निरन्तर – सम्पूर्ण ऋग्वेद को ऐतरेय ब्राह्मण के साथ, सामवेद को तांड्य ब्राह्मण के साथ , अथर्ववेद को गोपथ ब्राह्मण के साथ पढ़े।

चतुर्थ कल्प- 48 वर्ष तक ब्रहमचर्य पालन करने वाले के लिए-अर्थात 8 वर्ष की आयु में पठन पाठन आरंभ कर 40 वर्ष में तक निरन्तर – चारों वेदों का वेदांग और उपवेद सहित विद्वान होकर किसी भी विद्या क्षेत्र में विशेष योग्यता प्राप्त करे।

यहाँ तो तो पुरुष की आयु का समाधान हो गया। ऋषि परम्परा में पूर्ण विद्वान बनने में 40 वर्षों का समय लगता है।

 अब कन्या की आयु की शंका का समाधान चिकित्सा विज्ञान में मिलता है। चिकित्सा विज्ञान के अनुसार अगर संतान उत्पन्न करते समय माता की आयु अधिक हो तो संतान अनेक genetic अर्थात अनुवांशिक रोगों की शिकार होने की सम्भावना बढ़ जाती है।  जैसे एक उदहारण लीजिये। एक माता की  30 वर्ष की आयु में पैदा हुई संतान हुई है।  और दूसरी माता की 35 वर्ष की आयु में पैदा हुई संतान हुई है।  जो 35 वर्ष से अधिक आयु की संतान है उसे अनुवांशिक रोग जैसे Down's Syndrome होने की सम्भावना अधिक है। इससे आगे 40 वर्ष की आयु में अनुवांशिक रोग होने की सम्भावना और अधिक है। माता की 20 से 25 वर्ष की आयु में पैदा हुई संतान सबसे अधिक निरोगी होती है। क्यूंकि इस समय माता का शरीर सबसे अधिक बलशाली होता है।

48 वर्ष की आयु में कोई पिता बने तो उससे संतान में रोग होने की सम्भावना नहीं है। मगर कोई माता बने तो उससे रोग होने की सम्भावना अधिक है।
 48 वर्ष की आयु में भी वेदों में पारंगत विद्वान अपने नैष्ठिक ब्रहमचर्य के बल पर, अपने सुविचारों के कारण और संयम विज्ञान के कारण युवा जैसे शरीर का स्वामी  होगा। और ऐसे विद्वान का विवाह 16 वर्ष की कन्या से करना भी उचित नहीं होगा क्यूंकि 16 वर्ष की कन्या की विद्या,गुण और बल में और 24 वर्ष की कन्या की विद्या,गुण और बल में भारी अंतर होने से विवाहित जीवन सुखी न होगा।

इसलिए 48 की आयु के वेदों में पारंगत विद्वान् का विवाह 24 से तो किया जा सकता है। मगर 16 वर्ष की कन्या से अनुचित है। आज के परिवेश में अनुचित खान-पान, भोगवाद के कारण हम वैदिक काल की शिक्षा एवं विवाह व्यवस्था की कल्पना करना कठिन प्रतीत होता हैं। मगर प्राचीन काल में समाज की व्यवस्था ऐसी ही थी।  अंत में यही कहना सत्य होगा की स्वामी दयानंद के मूल मंतव्य को समझकर कुतर्क देने से कोई लाभ नहीं हैं। विवाह के समय में आयु के अंतर के पीछे कारण मूल रूप से विद्या की प्राप्ति कर उचित पात्र के साथ सम्बन्ध स्थापित करना है।

डॉ विवेक आर्य 

मनुष्य बन्दर नहीं अपितु युवा रूप में सबसे पहले पैदा हुआ था।



मनुष्य बन्दर नहीं अपितु युवा रूप में सबसे पहले पैदा हुआ था।

-सुभाषिनी शर्मा

पश्चिमी सभ्यता में डार्विन का विकासवाद का सिद्धांत प्रचलित है।  इसके अनुसार मनुष्य पहले बन्दर रूप में पैदा हुआ। बाद में विकास कर मनुष्य बना। वैदिक विचारधारा विकासवाद को नहीं मानती। इसके अनुसार मनुष्य सृष्टि की उत्पत्ति काल में युवा रूप में पैदा हुआ था। अगर बालक रूप में पैदा होता तो अपनी परवरिश करने में असक्षम होता और अगर वृद्ध होता तो संतान उत्पत्ति में असक्षम होता। इसलिए ईश्वर ने अनेक मनुष्यों को  युवा रूप पैदा किया। उनके सम्बन्ध से मनुष्यों की अगली पीढ़ी पैदा हुई। सर्वप्रथम सृष्टि अमैथुनी कहलाई अगली मैथुनी सृष्टि कहलाई।

वेदों में सृष्टि उत्पत्ति के समय मनुष्यों के अमैथुनी सृष्टि द्वारा युवावस्था में होने का प्रमाण मिलते है।

ते अज्येष्ठा अकनिष्ठास उद्भिदोऽ मध्यमासो महसा वि वावृधुः ।
सुजातासो जनुषा पृश्निमातरो दिवो मर्या आ नो अच्छा जिगातन ।।-(ऋ० ५/५९/६)

भावार्थ:- सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न होने वाले मनुष्य वनस्पति आदि की भाँति उत्पन्न हुए।उनमें कोई ज्येष्ठ-कनिष्ठ अथवा मंझला न था-अवस्था में वे सब समान थे।वे तेजी से बढ़े।उत्कृष्टजन्मा वे लोग जन्म से प्रकृति माता के प्रकाशमय परमात्मा के पुत्र हम सब मनुष्यों की अपेक्षा अत्यन्त उत्कृष्ट हैं।

अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभगाय ।
युवा पिता स्वपा रुद्र एषां सुदुघा पृश्निः सुदिना मरुद्भ्यः ।।-(ऋ० ५/६०/५)

भावार्थ:-सर्गारम्भ में उत्पन्न हुए मनुष्य छोटाई और बड़ाई से रहित होते हैं।ये भाई कल्याण के लिए एक-से बढ़ते हैं।सदा जवान,सदा श्रेष्ठकर्मा,पापियों को रुलाने वाला शक्तिशाली परमात्मा इनका पिता होता है और परिश्रमी मनुष्यों के लिए सुदिन लाने वाली प्रकृति अथवा पृथिवी इनके लिए सम्पूर्ण मनोरथों को पूर्ण करने वाली होती है।

इन मन्त्रों में जवान मनुष्यों की उत्पत्ति का अत्यन्त स्पष्ट वर्णन है।अब तो पाश्चात्य विद्वान भी इस बात को स्वीकार करने लगे हैं।बोस्टन नगर के स्मिथ-सोनयिम इनस्टीट्यूशन (Smithsoniam lnstitution) के अध्यक्ष डा० क्लार्क (Clark) का कथन है-

Man appeared able to walk,able to think and able to defend himself.

अर्थात् मनुष्य उत्पन्न होते ही चलने,विचारने तथा आत्मरक्षा करने में समर्थ था।

सर्गारम्भ में एक दो मनुष्य उत्पन्न नहीं हुए,अनेक स्त्री-पुरुष उत्पन्न हुए थे।यजुर्वेदीय पुरुषोपनिषद् में कहा है-

तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये।।-(यजु० ३१/९)

अर्थ:-उस परमेश्वर ने मनुष्य और ऋषियों को उत्पन्न किया।

यहाँ 'साध्याः' और 'ऋषयः' दोनों बहुवचन में हैं,अतः ईश्वर ने सैकड़ों-सहस्रों मनुष्यों को उत्पन्न किया।
मुण्डकोपनिषद् में भी इस बात का समर्थन किया गया है-

तस्माच्च देवा बहुधा सम्प्रसूताः,साध्या मनुष्याः पश्वो वयांसि।।-(मुण्डक० २/१/७)

अर्थ:-उस पुरुष (परमात्मा) से अनेक प्रकार के देव=ज्ञानीजन,साधनशील मनुष्य,पशु और पक्षी उत्पन्न हुए।


वेदों के प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि मनुष्य बन्दर नहीं अपितु युवा रूप में सबसे पहले पैदा हुआ था। 

Sunday, May 21, 2017

The importance of YAJNA



The importance of YAJNA

The word Yajna is derived from Yaj Dhatu according to Panini Grammar. Yajna means to add or to communion. It is clear that the Yajna communions the self with the Supreme Soul God.Most of the time we considers Havan or Agnihotra equivalent to but Yajna do have more elaborate meaning.

Definition of Yajna:

1: Respect of the learned
2: Proper use of physical sciences
3: To impart knowledge and good deeds
4: To perform Agnihotra by which all creatures are benefited through the process of purification of air, rain, herbs etc.

According to Swami Dayanand Yajna means “Beginning from Agnihotra (the fire-ritual) unto Ashvamedha (the daily-ritual), or the material transaction and physical science that are used for the welfare for the universe is called Yajna”. (Aryoddeshyaratnamala)

In the four Vedas the term “Yajna” has been described 1184 times, in Rig-Veda 580 times, in Yajur-Veda 243 times, in Sama-Veda 63 times and in Atharva-Veda the word ‘Yajna’ has come 298 times.

It is said “Yajyo Vai Shreshthatamam Karmah” (Shatpath Brahmana: 1.7.3.5) which means the Yajna Karma is the best Karma.

Aim of Yajna:

Yajna is said to be the combination of three things i.e.

1: Dev-Pooja or Worship of God, Noble People and the five elements of Nature

2: Sangati-Karan or companionship

3: Daan or Donation

Dev-Pooja is to respect elders parents, teachers, learned persons and guests etc. Dev pooja is to obey and to respect them. Performing of Agnihotra is to make pollution free atmosphere.

Sangati-Karan is to have company of virtuous people,to make friendship and love with them and to remove all enmity.

Daan or Charity means making sacrifice for the good of others without self-interest.

Vedas on Yajna:

The Veda says: -“He who desires a blissful life (heavenly
atmosphere) must perform Yajna”.

The Yajna is as old (ancient) as the Vedas. The Rigveda is the first Veda, in which the very first mantra says: —

“Agni Meede Purohitam Yajnasya Devamritvijam,Hotaaram Ratna Dhaatamam.” (Rigveda 1-1-1-1)

In this very first mantra of the Veda it is clearly described the words “Yajna”,”Purohit”, “Ritvij” and “Hotaa”, hence it clear that Yajna is to be performed in the guidance of Purohit – Ritvij – Hotaa, hence Yajna are as ancient as the Veda itself.

“Aram Krinvantu vedim Samagnimindhataam Purah” (Rigveda: 1-170-4)

Means it is a commandment of the Supreme Soul that “Decorate the Yajna-Vedi i.e. your places where Yajna is performed, and do lit the sacred fire in it and raise it.

“Aa Vakshi Devaam Iha Vipra Yakshi Cha” (Rigveda 2-36-4) Means –O learned man!Invite the Gods and perform Yajna i.e. sacred fire.

“Juhota Pra Cha Tishthata” (Rigveda 1-15-9) Means it is a God’s order to perform Yajna and develop.

“Pra Yajnamanmaa Vrijanam Tiraate” (Rigveda 7-61-4) Means performing sacred Yajna solves all problems of life.

“One’s intellect is purified with the Yajna” (Rigveda 3-32-12)
There are many mantras in the four Vedas related to Yajna, which inspire to perform holy and sacred Yajna, in return of which all actions are done properly and purely.

Physical aspect of Yajna:

We ponder over the ideals, hidden in the basic sacrificial performance of Yajna.

The welfare of all prominently does manifest as its primary aim, because the materials such as clarified butter and herbs etc. which a person offers in fire in a Yajna are not his own individual good only. They are not congenial to him only but it is for the welfare of all and that his own welfare is desired through this common welfare. As mentioned by Lord Krishna in the Geeta (Chapter # 3 –Couplets from 9 to 15) “Yajna purifies air, which in turn causes rains,purifies all vegetation and herbs, and finally produces cereals that bestow longevity of life.

If all citizens perform Yajna daily, as was prevalent in the Vedic age, this statement will not be an airy imagination but will again become a reality, as it was then. Today, the vexation and intricate problems of the atmospheric pollution are endangering human existence on earth. This serious challenge can be best controlled and eradicated, along with other means by the device of Yajna also and the congenial changes can be brought about by further discovering the materials for oblations more suited to our present needs.

Psychological aspects of Yajna:

The benefits cannot be limited only to the Yajmaanas (Persons offering oblation)

0n the plea that he has incurred all expenditure on it. The benefits will be for all animate beings when Yajna through oblations is performed, since the whole atmosphere is affected, extending the benefits to all beings, including the person performing the Yajna, and all those who breath the air purified by the Yajna, will be benefited equally. But on the contrary, if the Yajmaanas want to restrict the benefits only to themselves or to their friends and family members only, it will not be possible to do so. He will have to seek his benefits of all. Further the Vedic axiom teaches that we should always see each other with friendly eyes and fearlessness, as is provided in the following Vedic verse:

“Abhayam Naktam Abhayam Divaa Nah Sarvaa aashaa Mam Mitram Bhavantu.”(Atharvaveda: 19.15.6)

It means may all quarters be friendly for us so we may feel fearless throughout day and night. This will help in the development of an outlook of brotherhood for all, with no enmity towards anyone. This outlook is the psychological aspect of Yajna.

The spiritual aspect of Yajna:

When fire is kindled during Yajna, the mantra recited five times along with five oblations means my soul is like fuel to God who enkindles to enhance it and may He bestow upon us progeny, domestic animals, good intelligence, food grains etc. with all blessing of happy and prosperous life. He also concludes thereby affirming that his oblations are for God alone. The Intelligent and not for himself.

Through aforesaid mantra the person performing Yajna-offering oblations in the ritual fire) implores God to enlighten his soul with His light. Just as the Samidhaa (wood) and the materials offered as oblations into fire by getting burnt in to the fire attain the properties of fire but still keep their identity, in the same way the individual soul maintains its individuality, though pervaded by God in the state of salvation. It has a separate identity full of light. This is the spiritual aspect of the Agnihotra (Yajna in fires).

The prayer is in the plural number, since its purpose is not to implore only for individuals benefit but it also implores the welfare of all by bestowing gifts of intelligence, animals, cereals, vitality energy and wealth.

The mantra of oblation and many other mantras recited while offering oblations end with words “Idam Na Mama” i.e. it is not for me or belongs to me (alone) but is dedicated to God (for the benefit of all).

Yajna is the best deed in human life.The ultimate aim of human life is to get rid of all pains and attain liberation.

Yajna is said to be the best ‘Nishkaam karma’.

Scientific aspect of Yajna

Agnihotra consists of a base fire wherein some desirable herbal substances are added. Since the calorific value of firewood used to generate the base fire is much less, the base fire breaks up the molecule-to-molecule bond of the substances causing them to vaporize, and does not cause their independent combustion process. It is a well-known fact that the substances when taken in their vapor form through the nostrils have much greater efficacy – many hundred times more. And, the same quantity of substance can benefit a much larger population. It is a common experience that if an individual eats a green chilly then that person alone would be sneezing under its influence. But if the same chilly is put in the fire then the resultant air can cause many hundred people to sneeze. Agnihotra magnifies the advantages of the desirable herbal substances. Further to this, the thermal and associated aerodynamic effects of the base fire cause the vaporized substances to traverse and diffuse into every part of the enclosed surroundings where agnihotra may be conducted.

The overall temperatures in the combustion of firewood are lower to the extent that production of the oxides of nitrogen can be safely ruled out. Supply of more than adequate oxygen cannot give rise to production of unburned hydrocarbon or carbon monoxide in any significant measure. Minimum quantity of firewood is burned in the agnihotra. Burning of firewood is not the purpose of the agnihotra. The same is burned in minimum quantity so that the base fire remains available to vaporize the incoming oblations. Carbon dioxide, a greenhouse gas does get formed. With this in mind, the ancient Vedic seers always performed agnihotra in green surroundings and in the presence of sunlight so that the greenery utilizes the carbon dioxide so generated. In the modern times, when agnihotra is performed in cramped households care should be taken to keep some plants in the vicinity.

Yajna is a noble Karma for benefit of whole mankind.

Dr Vivek Arya

Saturday, May 20, 2017

स्वामी दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश में जाटजी और पोप जी की कहानी



स्वामी दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश में जाटजी और पोप जी की कहानी

(यह कथा यह सिद्ध करती है कैसे ब्राह्मणों ने जनसाधारण को पुराणों के नाम पर मुर्ख बनाया। धन्य को स्वामी दयानन्द का जिन्होंने इस पाखंड से हमें मुक्त करवाया)

एक जाट था । उसके घर में एक गाय बहुत अच्छी और बीस सेर दूध देने वाली थी । दूध उसका बड़ा स्वादिष्‍ट होता था । कभी-कभी पोपजी के मुख में भी पड़ता था । उसका पुरोहित यही ध्यान कर रहा था कि जब जाट का बुड्ढ़ा बाप मरने लगेगा तब इसी गाय का संकल्प करा लूंगा । कुछ दिन में दैवयोग से उसके बाप का मरण समय आया । जीभ बन्द हो गई और खाट से भूमि पर ले लिया अर्थात् प्राण छोड़ने का समय आ पहुंचा । उस समय जाट के इष्‍ट-मित्र और सम्बन्धी भी उपस्थित हुए थे । तब पोपजी पुकारा कि "यजमान ! अब तू इसके हाथ से गोदान करा ।" जाट 10 रुपया निकाल कर पिता के हाथ में रखकर बोला - "पढ़ो संकल्प !" पोपजी बोला - "वाह-वाह ! क्या बाप बारम्बार मरता है ? इस समय तो साक्षात् गाय को लाओ, जो दूध देती हो, बुड्ढी न हो, सब प्रकार उत्तम हो । ऐसी गौ का दान करना चाहिये ।"

जाटजी - हमारे पास तो एक ही गाय है, उसके बिना हमारे लड़के-बालों का निर्वाह न हो सकेगा इसलिए उसको न दूंगा । लो 20 रुपये का संकल्प पढ़ दे ओ ! और इन रुपयों से दूसरी दुधार गाय ले लेना ।

पोपजी - वाहजी वाह ! तुम अपने बाप से भी गाय को अधिक समझते हो ? क्या अपने बाप को वैतरणी नदी में डुबाकर दु:ख देना चाहते हो । तुम अच्छे सुपुत्र हुए ? तब तो पोपजी की ओर सब कुटुम्बी हो गये, क्योंकि उन सबको पहिले ही पोपजी ने बहका रक्खा था और उस समय भी इशारा कर दिया । सबने मिलकर हठ से उसी गाय का दान उसी पोपजी को दिला दिया । उस समय जाट कुछ भी न बोला । उसका पिता मर गया और पोप जी बच्छा सहित गाय और दोहने की बटलोही को ले अपने घर में गाय-बच्छे को बाँध बटलो ही धर पुन: जाट के घर आया और मृतक के साथ श्मशान भूमि में जाकर दाहकर्म्म कराया । वहाँ भी कुछ-कुछ पोपलीला चलाई । पश्‍चात् दशगात्र सपिण्डी कराने आदि में भी उसको मूंडा । महाब्राह्मणों ने भी लूटा और भुक्खड़ों ने भी बहुत सा माल पेट में भरा अर्थात् जब सब क्रिया हो चुकी तब जाट ने जिस किसी के घर से दूध मांग-मूंग निर्वाह किया । चौदहवें दिन प्रात:-काल पोपजी के घर पहुँचा । देखा तो पोपजी गाय दुह, बटलोई भर, पोपजी की उठने की तैयारी थी । इतने में ही जाटजी पहुँचे । उसको देख पोपजी बोला, आइये ! यजमान बैठिये !


जाटजी - तुम भी पुरोहित जी इधर आओ ।

पोपजी - अच्छा दूध धर आऊँ ।

जाटजी - नहीं-नहीं, दूध की बटलोई इधर लाओ ।

पोपजी बिचारे जा बैठे और बटलोई सामने धर दी ।

जाटजी - तुम बड़े झूठे हो ।

पोपजी - क्या झूठ किया ?

जाटजी - कहो, तुमने गाय किसलिए ली थी ?

पोपजी - तुम्हारे पिता के वैतरणी नदी तरने के लिए ।

जाटजी - अच्छा तो तुमने वहाँ वैतरणी के किनारे पर गाय क्यों न पहुँचाई ? हम तो तुम्हारे भरोसे पर रहे और तुम अपने घर बाँध बैठे । न जाने मेरे बाप ने वैतरणी में कितने गोते खाये होंगे ?

पोपजी - नहीं-नहीं, वहाँ इस दान के पुण्य के प्रभाव से दूसरी गाय बनकर उसको उतार दिया होगा ।

जाटजी - वैतरणी नदी यहाँ से कितनी दूर और किधर की ओर है ?

पोपजी - अनुमान से कोई तीस करोड़ कोश दूर है । क्योंकि उञ्चास कोटि योजन पृथ्वी है और दक्षिण नैऋत दिशा में वैतरणी नदी है ।

जाटजी - इतनी दूर से तुम्हारी चिट्ठी वा तार का समाचार गया हो, उसका उत्तर आया हो कि वहाँ पुण्य की गाय बन गई, अमुक के पिता को पार उतार दिया, दिखलाओ ?

पोपजी - हमारे पास 'गरुड़पुराण' के लेख के बिना डाक वा तारवर्की दूसरा कोई नहीं ।

जाटजी - इस गरुड़पुराण को हम सच्चा कैसे मानें ?

पोपजी - जैसे हम सब मानते हैं ।

जाटजी - यह पुस्तक तुम्हारे पुरषाओं ने तुम्हारी जीविका के लिए बनाया है । क्योंकि पिता को बिना अपने पुत्रों के कोई प्रिय नहीं । जब मेरा पिता मेरे पास चिट्ठी-पत्री वा तार भेजेगा तभी मैं वैतरणी नदी के किनारे गाय पहुंचा दूंगा और उनको पार उतार, पुन: गाय को घर में ले आ दूध को मैं और मेरे लड़के-बाले पिया करेंगे, लाओ ! दूध की भरी हुई बटलोही, गाय, बछड़ा लेकर जाटजी अपने घर को चला ।

पोपजी - तुम दान देकर लेते हो, तुम्हारा सत्यानाश हो जायेगा ।

जाटजी - चुप रहो ! नहीं तो तेरह दिन दूध के बिना जितना दु:ख हमने पाया है, सब कसर निकाल दूंगा । तब पोपजी चुप रहे और जाटजी गाय-बछड़ा ले अपने घर पहुँचे ।

जब ऐसे ही जाटजी के से पुरुष हों तो पोपलीला संसार में न चले ।

सन्दर्भ- सत्यार्थ प्रकाश:आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, 1975 पृष्ठ 234-36

Wednesday, May 17, 2017

इस्लामिक साम्राज्यवाद एवं उसका विस्तार : एक विश्लेषण



इस्लामिक साम्राज्यवाद एवं उसका विस्तार : एक विश्लेषण

डॉ विवेक आर्य

रिपब्लिक टीवी की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि जब से ज़ाकिर नाइक मलेशिया गया है तब से वहां के मुसलमान गैर मुसलमानों की धार्मिक मान्यताओं का विरोध करने लगे हैं।  पहले सभी भाई चारे से रहते थे और आपस में उनके सम्बन्ध सौहार्द थे। मैं अर्नब गोस्वामी के इस वक्तव्य को सत्य तो मानता हूँ परन्तु अपूर्ण भी मानता हूँ। क्यूंकि ज़ाकिर नाइक तो इस्लामिक साम्राज्यवाद का केवल एक पात्र है। एशिया क्या पूरे विश्व में यह साम्राज्यवाद का विस्तार पूरे 1200 वर्षों से निरंतर चल रहा है। भारतीय महाद्वीप को ही लीजिये। हिन्दू बहुल भारत में कहने को मुसलमान अल्पसंख्यक है। मगर भारत के अतिरिक्त पाकिस्तान और बंगलादेश के मुसलमानों की आबादी को भी जोड़ लिया जाये तो हर दो हिन्दू के बदले एक मुसलमान का आंकड़ा बनता है।

इस्लामिक साम्राज्यवाद के विस्तार को समझने के लिए हमें कुछ तथ्यों को जानना आवश्यक है।

2005 में समाजशास्त्री डा. पीटर हैमंड ने गहरे शोध के बाद इस्लाम धर्म के मानने वालों की दुनियाभर में प्रवृत्ति पर एक पुस्तक लिखी, जिसका शीर्षक है ‘स्लेवरी, टैररिज्म एंड इस्लाम-द हिस्टोरिकल रूट्स एंड कंटेम्पररी थ्रैट’। इसके साथ ही ‘द हज’के लेखक लियोन यूरिस ने भी इस विषय पर अपनी पुस्तक में विस्तार से प्रकाश डाला है। जो तथ्य निकल करआए हैं, वे न सिर्फ चौंकाने वाले हैं, बल्कि चिंताजनक हैं।

उपरोक्त शोध ग्रंथों के अनुसार जब तक मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश-प्रदेश क्षेत्र में लगभग 2 प्रतिशत के आसपास होती है, तब वे एकदम शांतिप्रिय, कानूनपसंद अल्पसंख्यक बन कर रहते हैं और किसी को विशेष शिकायत का मौका नहीं देते। जैसे अमरीका में वे (0.6 प्रतिशत) हैं, आस्ट्रेलिया में 1.5, कनाडा में 1.9, चीन में 1.8, इटली में 1.5 और नॉर्वे में मुसलमानों की संख्या 1.8 प्रतिशत है। इसलिए यहां मुसलमानों से किसी को कोई परेशानी नहीं है। इसे आप इस्लामिक साम्राज्यवाद का प्रथम चरण कह सकते है।

जब मुसलमानों की जनसंख्या 2 से 5 प्रतिशत के बीच तक पहुंच जाती है, तब वे अन्य धर्मावलंबियों में अपना धर्मप्रचार शुरू कर देते हैं। जैसा कि डेनमार्क, जर्मनी, ब्रिटेन, स्पेन और थाईलैंड में जहां क्रमश: 2, 3.7, 2.7, 4 और 4.6 प्रतिशत मुसलमान हैं। इसे आप इस्लामिक साम्राज्यवाद का द्वितीय चरण कह सकते है।

जब मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश या क्षेत्र में 5 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब वे अपने अनुपात के हिसाब से अन्य धर्मावलंबियों पर दबाव बढ़ाने लगते हैं और अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करने लगते हैं। उदाहरण के लिए वे सरकारों और शॉपिंग मॉल पर ‘हलाल’ का मांस रखने का दबाव बनाने लगते हैं, वे कहते हैं कि ‘हलाल’ का मांस न खाने से उनकी धार्मिक मान्यताएं प्रभावित होती हैं। इस कदम से कई पश्चिमी देशों में खाद्य वस्तुओं के बाजार में मुसलमानों की तगड़ी पैठ बन गई है। उन्होंने कई देशों के सुपरमार्कीट के मालिकों पर दबाव डालकर उनके यहां ‘हलाल’ का मांस रखने को बाध्य किया। दुकानदार भी धंधे को देखते हुए उनका कहा मान लेते हैं।

इस तरह अधिक जनसंख्या होने का फैक्टर यहां से मजबूत होना शुरू हो जाता है, जिन देशों में ऐसा हो चुका है, वे फ्रांस, फिलीपींस, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड, त्रिनिदाद और टोबैगो हैं। इन देशों में मुसलमानों की संख्या क्रमश: 5 से 8 फीसदी तक है। इस स्थिति पर पहुंचकर मुसलमान उन देशों की सरकारों पर यह दबाव बनाने लगते हैं कि उन्हें उनके क्षेत्रों में शरीयत कानून (इस्लामिक कानून) के मुताबिक चलने दिया जाए। दरअसल, उनका अंतिम लक्ष्य तो यही है कि समूचा विश्व शरीयत कानून के हिसाब से चले। इसे आप इस्लामिक साम्राज्यवाद का तृतीय चरण कह सकते है।

जब मुस्लिम जनसंख्या किसी देश में 10 प्रतिशत से अधिक हो जाती है, तब वे उस देश, प्रदेश, राज्य, क्षेत्र विशेष में कानून-व्यवस्था के लिए परेशानी पैदा करना शुरू कर देते हैं, शिकायतें करना शुरू कर देते हैं, उनकी ‘आॢथक परिस्थिति’ का रोना लेकर बैठ जाते हैं, छोटी-छोटी बातों को सहिष्णुता से लेने की बजाय दंगे, तोड़-फोड़ आदि पर उतर आते हैं, चाहे वह फ्रांस के दंगे हों डेनमार्क का कार्टून विवाद हो या फिर एम्सटर्डम में कारों का जलाना हो, हरेक विवादको समझबूझ, बातचीत से खत्म करने की बजाय खामख्वाह और गहरा किया जाता है। ऐसा गुयाना (मुसलमान 10 प्रतिशत), इसराईल (16 प्रतिशत), केन्या (11 प्रतिशत), रूस (15 प्रतिशत) में हो चुका है। इसे आप इस्लामिक साम्राज्यवाद का चतुर्थ चरण कह सकते है।

जब किसी क्षेत्र में मुसलमानों की संख्या 20 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है तब विभिन्न ‘सैनिक शाखाएं’ जेहाद के नारे लगाने लगती हैं, असहिष्णुता और धार्मिक हत्याओं का दौर शुरू हो जाता है, जैसा इथियोपिया (मुसलमान 32.8 प्रतिशत) और भारत (मुसलमान 22 प्रतिशत) में अक्सर देखा जाता है। मुसलमानों की जनसंख्या के 40 प्रतिशत के स्तर से ऊपर पहुंच जाने पर बड़ी संख्या में सामूहिक हत्याएं, आतंकवादी कार्रवाइयां आदि चलने लगती हैं। जैसा बोस्निया (मुसलमान 40 प्रतिशत), चाड (मुसलमान 54.2 प्रतिशत) और लेबनान (मुसलमान 59 प्रतिशत) में देखा गया है। शोधकत्र्ता और लेखक डा. पीटर हैमंड बताते हैं कि जब किसी देश में मुसलमानों की जनसंख्या 60 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब अन्य धर्मावलंबियों का ‘जातीय सफाया’ शुरू किया जाता है (उदाहरण भारत का कश्मीर), जबरिया मुस्लिम बनाना, अन्य धर्मों के धार्मिक स्थल तोडऩा, जजिया जैसा कोई अन्य कर वसूलना आदि किया जाता है। जैसे अल्बानिया (मुसलमान 70 प्रतिशत), कतर (मुसलमान 78 प्रतिशत) व सूडान (मुसलमान 75 प्रतिशत) में देखा गया है। इसे आप इस्लामिक साम्राज्यवाद का पांचवा चरण कह सकते है।

किसी देश में जब मुसलमान बाकी आबादी का 80 प्रतिशत हो जाते हैं, तो उस देश में सत्ता या शासन प्रायोजित जातीय सफाई की जाती है। अन्य धर्मों के अल्पसंख्यकों को उनके मूल नागरिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है। सभी प्रकार के हथकंडे अपनाकर जनसंख्या को 100 प्रतिशत तक ले जाने का लक्ष्य रखा जाता है। जैसे बंगलादेश (मुसलमान 83 प्रतिशत), मिस्र (90 प्रतिशत), गाजापट्टी (98 प्रतिशत), ईरान (98 प्रतिशत), ईराक (97 प्रतिशत), जोर्डन (93 प्रतिशत), मोरक्को (98 प्रतिशत), पाकिस्तान (97 प्रतिशत), सीरिया (90 प्रतिशत) व संयुक्त अरब अमीरात (96 प्रतिशत) में देखा जा रहा है। इसे आप इस्लामिक साम्राज्यवाद का छठा चरण कह सकते है।

                             यूरोप के अनेक देशों में प्रजनन दर संसार के सभी देशों में सबसे कम हैं। ऐसे में भारी संख्या में मुस्लिम शरणार्थी उन देशों के पर धर्म के आधार जनसंख्या के समीकरण को किस प्रकार से प्रभावित करेंगे इसका अनुमान लगाना सरल हैं। किसी भी मुस्लिम देश ने जिनकी सीमा तक सीरिया से लगती थी एक भी शरणार्थी को अपने यहाँ पर शरण क्यों नहीं दी? क्या इसे इस्लामिक साम्राज्यवाद का फैलाव करने की सोची समझी साजिश नहीं कहा जायेगा?

मलेशिया में गैर मुसलमानों का जो उत्पीड़न आरम्भ हुआ है।  वह इसी इस्लामिक साम्राज्यवाद के फैलाव का अगला चरण ही है। जो जो देश इस्लामिक साम्राजयवाद के आरम्भिक चरणों में है।  उन्हें यह सोचना होगा कि भविष्य को लेकर उनकी रणनीति क्या होगी।

इसलिए भारत में इस्लामिक साम्राज्यवाद के विस्तार को अगर रोकना है तो हमारे देश के राजनेता सेक्युलरवाद और अल्पसंख्यकवाद की जहरीली सोच से  ऊपर उठकर सोचना होगा। यह तभी संभव है जब हमारे देश के के हिन्दू जात-पात, बाहुबल, दबंगई आदि से ऊपर उठकर वोट देना आरम्भ करेंगे।

अंत में समझदार को ईशारा ही बहुत होता है।