Saturday, November 28, 2020

The Vedas and Maharshi Dayanand Saraswati


 


• The Vedas and Maharshi Dayanand Saraswati •

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- Swami Vidyanand Saraswati

The Vedas are the bed-rock on which the edifice of culture and civilisation has been raised. They are the quintessence of India's moral and spiritual philosophy - the fountainhead of all knowledge. The Vedas have always exercised, and do still exercise the highest influence on the minds of the Indian people, particularly the Hindus. Whatever the differences among the various religious sects, all of them hold the Vedas in the highest respect. All the scriptures admit the eternality of the Vedas which consists in the unbroken continuity of their tradition, study and application.

The entire Aryan literature of ancient India not only shows reverential attitude towards the Vedas, it regards them the final authority in all matters, mudane or spiritual. Whatever is in the Vedas is supreme; it is the self-luminous light which needs no other light to establish its validity or identity; it is known as the Absolute Authority or self-evident testimony (स्वत: प्रमाण). All other literature comes under the category of परत: प्रमाण, that is, they are held in esteem or authority, in as much as they are in conformity with the Vedas and do not disagree with or do not oppose the Vedic texts. Such literature is deemed to have received light from the Vedas.

During the middle ages intellectuals like Sayana, Mahidhara and Uvat wrote commentaries on the Vedas according to classical Sanskrit, instead of following the ancient Vedic Rishies. That made all the differences. They suited the western scholars in their deliberately erring in their exposition of the Vedic texts.

At the time when the Europeans came into direct contact with India, it was undergoing a decline and they took it for granted that the Indians were all uncivilised and unclutured people. Their thinking was circumscribed and coloured by the teachings of christianity. It is to the credit of the western scholars that the Vedic and other oricntal texts havc been scientifically edited with their glosses, indexes and concordonces. But their translations, annotations and the critical study lacked in sympathy and credibility which a scripture meant to elevate mankind through all times deserves. But it is not the fault of those scholars so much as of our own saholiasts for whom the Vedic texts, instead of being the source of knowledge and inspiration, remained for centuries merely a means of ritualistic and ecelesiastical practices. Their meaningfulness was entirely lost to them. It was a great blessing for all of us that towards the close of the nineteenth century we had a man of the stature of Dayananda who saved the Vedas for us from the ravages of time and gave us a new insight into the Vedic text after nearly five thousand years.

Dayanand gave a new interpretation to this scripture of Divine knowledge, Divine worship and Divine action and presented it in its pristine purity and glory. The earlier this original and powerful commentary is widely accepted as the definite word on the Veda, the better it would be for all mankind.

The great scholiast and savant, Aurobindo was convinced that "whatever may be the final interpretation, Dayananda will be honoured as the first discoverer of the right clues. Amidst the chaos and obscurity of old ignorance and age-long misunderstanding, his was the eye of direct vision, that pierced to the truth and which was essential. He has found the keys of the doors that time had closed and rent asunder the seals of the imprisoned fountains." (The Arya, 1912)

Dayanand's idea is being increasingly supported by the recent trend of knowledge about the ancient world. The ancient civilisation did possess secrets of science which modern science has recovered, extended and made more rich and precise. There is then nothing fantastic in Dayananda's idea that Ved contains truths of science as well as truths of religion. To this Dayanand has added his own conviction that "the Veda contains other truths of science the modern world does not at all possess, and in that case Dayanand has rather understated than overstated the depth and range of Vedic wisdom."

[Source:  On the Vedas, Preface, pp. 3-4, 1st edition, 1996, Publisher: Vijaykumar Govindram Hasanand - Delhi, presented by: Bhavesh Merja]

स्व. पंडित कमल देव आर्योपदेशक [मथुरा उत्तरप्रदेश]


 


स्व. पंडित कमल देव आर्योपदेशक [मथुरा उत्तरप्रदेश]

कृष्णा: श्वेतो अरुषो यामो अस्य ब्रघ्न रुज उत शोणो
यशस्वान्। हिरण्य रुपम् जनिता जजान।।

धार्मिक व अध्यात्मिक दृष्टि से मथुरा जनपद अपनी पहचान के लिए जगत प्रसिद्ध है। इसी ऐतिहासिक नगरी मथुरा जनपद में आर्य समाज में के प्रवर्तक महर्षि दयानंद ने गुरु विरजानंद जी से मथुरा में रहकर व्याकरण आदि आर्ष ग्रंथो का अध्ययन किया था। वेद के रहस्यों को समझा था।

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जन्म
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आर्य समाज के प्रसिद्ध भजनोपदेशक पंडित श्री कमलदेव जी ने इसी ब्रजभूमी मथुरा जनपद के ग्राम गढ़ी महाराम पोस्ट - अकोश (बल्देव) में श्री किशनलाल जी के यहां जनवरी 1920 में जन्म लिया था। पंडित श्री कमलदेव जी के पिता जी का नाम किशनलाल माता का नाम नारायणी देवी था। छोटे भाई प्रताप का 14 वर्ष की अवस्था में विसूचिका रोग से छोटी सी आयु में निधन हो गया था।

श्री किशनलाल जी व श्रीमती नारायणी देवी अत्यंत धार्मिक एवं सरल प्रकृति के थे। श्री किशनलाल जी धार्मिक भक्ति के गीत गाते थे। महाभारत पर आधारित भजन तथा महाभारत की घटनाएं उन्हें कंठस्थ थी। श्री किशनलाल जी उपनाम भगत जी के नाम से भी जाने जाते थे। पंडित श्री कमलदेव जी के भाई छोटी आयु में चले जाने के बाद इकलौती संतान थी। प्रताप का वियोग असहाय था। परिवार पर विपत्ती का पहाड़ टुट पड़ा। श्री किशनलाल जी इसी वियोग में कुछ दिन बाद दीवगंत हो गए। माता नारायणी देवी का पुत्र वियोग में रोते रोते जीवन बीता। पंडित श्री कमलदेव जी का सुखदेवी के साथ विवाह सम्पन्न हुआ। सुखदेवी धार्मिक प्रवृत्ति की गृहणी थी उन्होने गृहस्थी का निर्वाह पूर्ण उत्तरदायित्व के साथ निभाया।

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मृतक भोज के प्रति घृणा
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छोटे भाई प्रताप का 14 वर्ष की आयु में निधन हो गया था। पुत्र वियोग में मात पिता ने अन्न जल त्याग दिया था। मृत्यु के बाद मृतक भोज आयोजित किया गया था। मृतक भोज में ब्राह्मणों को भोजन कराया जा रहा था। श्री कमलदेव जी की आंखो से आंसू टप टप गीर रहे थे, जो भोजन कर रहे थे उनकी आंखो में मृतक परिवार के प्रति कोई सहानुभूती नहीं थी। वे कह रहे थे लाला खीर बहुत बढ़िया है साग अच्छौ है नेक खीर में घ्यौ डार दे बूरौ चौखौं सौ डार दे दैखि बढ़िया खवाय पहुंचा। जैसे कि बुद्ध को जरा वृद्धा के देखने तथा स्वामी दयानंद को मूसको की उछल कुद को देखकर वैराग्य भाव प्राप्त हुआ था वैसे ही ब्राह्मण भोज के अवसर पर भोजन करने वालों के शब्दों को सुनकर मन आंदोलित हो उठा कि खिलाने से और बढ़िया घी डालने से मृतक स्वर्ग को चला जाता है। यह बात समझ में नहीं आई। उन्होने निश्चय किया कि यह कुप्रथा है पाखंड है जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। सही क्या है और गलत क्या है वास्तविकता को जानने की उधेड़ बुन मन में पैदा हो गई। अंत में निश्चय किया कि इस कुप्रथा का बहिष्कार करुंगा।

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आर्य समाज में प्रवेश
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श्री कमलदेव जी का स्वभाव अत्यंत सरल व धार्मिक था। गाने बजाने वालों से बड़ा प्रेम करते थे। हारमोनियम सीखकर धीरे धीरे गाना आरंभ कर दिया। आगरा में किसी के यहाँ गए हुए थे, वापसी पर जब हारमोनियम की आवाज सुनायी दी रुके और जिधर से आवाज आ रही थी उधर चल दिये। वहां पर आर्य समाज का कार्यक्रम चल रहा था। संयोग से मृतक श्राद्ध का खंडन हो रहा था। पंडित जी की शंका का निराकरण हो गया। वे दो दिन तक आर्य समाज के कार्यक्रम में रुके। आर्य समाज की भजन पुस्तकें खरीदी, सत्यार्थप्रकाश खरीदा, महर्षि का जीवन परिचय खरीदा और खूब पढ़ा तथा सिद्धांतो की अच्छी जानकारी प्राप्त कर ली। कुछ ही समय पश्चात पंडित जी महर्षि के अनुयायी हो गए। सारी उधेड़बुन समाप्त हो गई। इन्हीं दिनों इनकी माता श्रीमती नारायणी देवी का निधन हो गया। मृतक भोज के लिए सामाजिक दबाव था। भाई के वियोग और मृतक भोज की घटना से व्यथित थे। अंत: मन की प्रेरणा ब्राह्मण भोज को अस्वीकार कर चुकी थी। भारी दबाव के बाद भी उन्होने माता का मृतक भोज नहीं कराया। समाज में इनको अपमानित किया गया बहिष्कृत किया गया लेकिन यें अपने निश्चय पर अडिग रहे।

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आर्य समाज को समर्पण और कार्य
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आर्य समाज के सिद्धांतो को गहराई से समझा। पाखंड की गहरी जड़ो को उखाड़ने का काम किया। राम राम की जगह नमस्ते का प्रचार किया। जन विरोध और सामाजिक बहिष्कार हुआ। धूम्रपान, हुक्का, बीड़ी से होने वाली बीमारियों से जन जन को मुक्त कराया। मृतक श्राद्ध अवैदिक है। मूर्तिपूजा अवतार वाद वेद विरुद्ध है। इनका खंडन किया और एक ईश्वर की सत्ता का प्रतिपादन किया। संसार की तीन चीजें अनादि है ईश्वर जीव प्रकृति। ये सृष्टि का आधार हैं।

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करोली राजस्थान में धर्मप्रचार
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राजस्थान के करोली नगर में देवी के नाम पर हजारों की संख्या में प्रतिदिन भैंसे व बकरे काटे जाते थे। घर छोड़ दिया करोली में भैंसे बकरे काटने का घोर विरोध किया, आंदोलन किया वर्षों तक अपने खर्चे पर भैंसे बकरों को काटे जाने से रोकने के लिए प्रचार करते रहे। अंत में जब घर लौटे जब सरकार की ओर से भैंसे काटे जाने पर रोक लगाने का आदेश प्राप्त हो गया।

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छुआछूत का विरोध
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आर्य समाज छुआछूत का विरोध करता है। आर्य समाज द्वारा संचालित गुरुकुलों में छुआछुत रहित बिना किसी भेदभाव के बच्चों को शिक्षा दी जाती है। ऐसे पंडित श्री कमलदेव जी छुआछूत के घोर विरोधी थे। उन्होनें अपने गांव के सवर्ण व हरिजन तथा पिछड़ा वर्ग के बच्चों को गुरुकुल शिक्षा के लिए गुरुकुल साधुआश्रम हरदुआगंज अलीगढ़ भेजा वहां स्वयं अपने घर को छोड़कर उनकी देख रेख में लगे रहे। अपनी बेटी को भी गुरुकुल में पढ़ने को भेजा। गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली के घोर समर्थक व प्रचारक थे।

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गोचर भूमि
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महर्षि दयानंद द्वारा लिखित गोकरुणानिधि वैदिक सम्पति को पढ़ा।उसके अनुसार वैदिक अर्थव्यवस्था का मूल कृषि गऊ पालन और वृक्ष को आधार मानते हुए 30 गायें अपने घर पर रखी। आधी भूमी को गाय को चरने के लिए गोचर भूमि के रुप में छोड़ दिया तथा आधी भूमि कृषि के उपयोग के लिए छोड़ दिया। पूरा जीवन वैदिक सिद्धांतो का पालन करते हुए व्यतीत किया।

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आर्य समाज के उत्सवों का आयोजन
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पंडित श्री कमलदेव जी ने क्षेत्र में व्यापक रुप से आर्य समाज के कार्यों को सफल बनाने के लिए बाहर से उपदेशकों को बुलाकर उत्सवों का आयोजन करना प्रारम्भ किया। क्षेत्र में जहां कहीं भी मेले आदि कार्यक्रम होते थे वहां अपने बल पर वैदिक धर्म के प्रचार हेतु स्वयं पुरुषार्थ कर प्रचार कैम्प लगाये ओर उपदेशकों के माध्यम से प्रचार कराया। जब उपदेशकों को दक्षिणा की बात आई तो अपनी फसल बेचकर उपदेशकों को दक्षिणा दी। आर्य समाज के प्रति लगन और आर्य समाज की उन्नति के लिए सदा संघर्षरत रहे।

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संस्मरण - पंडित श्री कमलदेव जी का कार्यक्षेत्र
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पंडित श्री कमलदेव जी का कार्यक्षेत्र उतरप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली, बिहार नेपाल रहा। श्री कमलदेव जी ने 65 वर्ष तक भजनोपदेशक के रुप में आर्य समाज का तन मन धन से कार्य किया। अंतिम सांस तक आर्य समाज का कार्य करता रहूं, मैं जब तक जीऊं तक तक आर्य समाज की सेवा करता रहूं उनकी प्रबल इच्छा थी।

1. उत्तर प्रदेश के एक जिले में आर्य समाज का वार्षिकोत्सव आयोजित किया गया था। जिसमें पंडित श्री कमलदेव जी आमंत्रित थे जहां उन्होनें मूर्तिपूजा व अवतारवाद का खंडन किया। दो दिन तक कार्यक्रम चला। उनके पास दो दम्पती आये फल व कपड़े लाये। वे कहने लगे हम आपको गुरु बनाने आये हैं हमें गुरु दीक्षा दीजिए। पूज्य पंडित श्री कमलदेव जी ने कहा मैं गुरु दीक्षा नहीं देता मेरे गुरु स्वामी दयानंद हैं उनके मार्ग व सिद्धांत को स्वीकार कीजिये। दम्पति कहने लगे की हमने आपके उपदेश सुनकर मूर्तिपूजा छोड़ दी है। घंटी और शालीग्राम साथ लाये हैं। ये घंटी ओर मूर्ति शालीग्राम पीढियों पुराने हैं। इनकी लम्बे समय से हमारे यहां पूजा की जाती है। ये फल ओर मूर्ति आपको समर्पित हैं। पंडित जी ने उनको घर बुलाया उनके व्याख्यान व उपदेश का कार्यक्रम रखा। गांव के सम्पन्न और उच्च व्यक्ति थे। उनके मूर्ति पूजा के छोड़ देने पर सैंकड़ो लोगों ने मूर्ति पूजा छोड़ी ओर व्रत लिया की मूर्तिपूजा नहीं करेगें। ऐसा उनका वाणी का प्रभाव था।

2. एक व्यक्ति उनके व्याख्यान से प्रभावित हुआ और उन्हें अपने घर बुलाने का निमंत्रण दिया। पंडित जी ने उसका निमंत्रण स्वीकार कर लिया। निर्धारित तिथि पर 8 मील पैदल चलकर उसके गांव पहुंचे। उस गांव के अधिकांश लोग शराबी व मांसाहारी थे। उसने शराब और मांस पर बोलने की प्रार्थना की। दो घंटे कार्यक्रम चला जिसमें शराब और मांस का खंडन किया। शराबियों में खलबली मच गई।पंडित जी पर जानलेवा हमला कर दिया। उनका हारमोनियम जला दिया। जिसने आमंत्रित किया था उसने हाथ खड़े कर दिये और कहा आपका जीवन खतरे में है, मैं आपकी रक्षा नहीं कर पाऊंगा। रात में ही पैदल चलकर पंडित जी घर पहुंचे ऐसा था उनका संघर्षमय जीवन।

3. पंडित प्रकाशवीर शास्त्री ने हरियाणा से प्रथम बार लोकसभा चुनाव लड़ा था, तब पंडित श्री कमलदेव जी उनके प्रचार में गए थे। उनसे परिचय था। बहुत दिनों बाद शास्त्री जी किसी वार्षिक उत्सव में मिले। शास्त्री जी ने कहा कि आप प्रतिनिधि सभा उत्तरप्रदेश में आ जाये और काम करें। उन्हें मेरठ में बुलाया और कहा हम आपकी सेवाएं आर्य प्रतिनिधि लखनऊ में चाहते हैं। उनके कहने पर कुछ दिन सभा में कार्य किया। पंडित जी बहराइंच के वार्षिकोत्सव पर गए थे। लौटते समय सभा कार्यालय में भी गए। सभा कार्यालय के मुख्य द्वार पर एक युवक बीड़ी पी रहा था। अंदर गए तो बाबू मुख्य सीट पर बैठ कर तम्बाकू व पान चबा रहा था। सुबह सभा के अधिकारी मूर्तियों की पूजा कर रहे थे। ये दृश्य देखकर पंडित जी ने सभा छोड़ दी। पंडित जी एक बार हाथरस आर्यसमाज के उत्सव पर गए हुए थे। वहां पर मंत्री प्रेमचंद जी ने पूछा आपने सभा क्यों छोड़ दी। पंडित जी ने कहा मैं बाहर मूर्ति पूजा का खंडन करता हूं, सभा वाले मंडन कर रहे हैं। एक ही स्थान पर मंडन ओर खंडन नहीं चल सकते। इस लिए मैने सभा छोड़ दी। फिर कभी भी सभा में नहीं गए।

4.किसी समाज का वार्षिकोत्सव था। कई उपदेशक बुलाये गए थे। वहां पंडित जी को बुलाया गया था। उत्सव में किसी उपदेशक ने आर्य समाज आयोजकों पर टिप्पणी की। उपदेशक बोले सूखी रोटी दूध घी भी नहीं देते। पंडित जी उपदेशक महोदय से कहा - उपदेशक जी! आर्य समाज के सिद्धांत ही दूध घी हैं, इससे बढ़ चढ़कर और कोई दूध और घी नहीं है। लोगों को सिद्धांत रुपी घी और दूध पिलाओ और खूद पियो कभी बिमार नहीं होओगे 100 वर्ष तक जिओगे। टिप्पणी मत करो। ईंट ओर पत्थर खाने वाले महर्षि हमारे गुरु हैं। गुरु की आज्ञा का पालन करो। टिप्पणी करने से कुछ नहीं होगा। दूध ओर घी खाना है तो मेरे घर आओ। ऐसा था उनका संतोष ओर धैर्य

5. पंडित जी ने निस्वार्थ भाव से आर्य समाज की सेवा की। अपना भरा पूरा जीवन परिवार छोड़कर गए हैं। परिवार में 6 पुत्र, 6 पुत्रवधु, 1 पुत्री, 11 पौत्र, 9 पौत्री हैं तथा 4 परपौत्र, 3परपौत्री, दोहित्र व दोहित्रों से भरा पूरा परिवार ह। पंडित जी निरोग रहे। उन्हें कोई बिमारी नहीं थी। अंतिम समय तक रक्तचाप 80-120 था। मानसिक स्थिति बिल्कुल ठीक थी। स्मरणशक्ति पूरी तरह स्वस्थ जीवेम् शरद: शतम् - भूयश्च शरद: शतात्। सौ वर्ष जीने का संकल्प पूरा अंतिम सांस ली। जीवन में कोई दवाई नहीं खाई। न ही किसी चिकित्सालय में भर्ती हुए। आहार पर नियंत्रण था। अंतिम सांस छोड़ते समय कोई उपद्रव नहीं था।

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देह त्याग
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पूज्य पंडित जी आर्य समाज के प्रखर प्रचारक थे। आर्य समाज के कागजी इतिहास के पन्नों में उनका नाम अंकित हो या न हो किंतु उनकी पहचान स्वतंत्रता आंदोलनकारियों की तरह अमर रहेगी। आर्य समाज में पंडित जी का योगदान था उनका नाम सैदव चिरस्मरणीय रहेगा। उनके कार्यों को कभी भुलाया नहीं जा सकता। पंडित जी 1920 में जन्म लेकर अंतिम सांस 21 सितम्बर 2020 सायं 7 बजे ली। ईश्वर उनकी आत्मा को सदगति और परिवार को उनके दिखाये मार्ग पर चलने की शक्ति प्रदान करें। पंडित जी शत शत नमन। वैदिक धर्म की जय

लेखक :- श्री देवेन्द्र विद्याभास्कर
प्रस्तुति:- अमित सिवाहा

Friday, November 13, 2020

दिव्य दीपावली



दिव्य दीपावली

लेखक- आचार्य अभयदेव जी
प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ

ध्रुवं ज्योतिर्निहितं दृशये कं -ऋग्वेद ६/९/५
(एक नित्य ज्योति है जो कि देखने के लिये अन्दर रखी गयी है)

दीपावली आयी। प्रतीक्षा करते हुए और उत्सुक बच्चे (दिन में ही तेल बत्ती से तैय्यार किये) अपने-अपने दीपक लाकर सांझ होते ही मां से कहने लगे 'मेरा भी दीपक जला दे, मां, मेरा भी दीपक जला दे'। मां अपने जलते दीपक से उनके भी दीपक जलाने लगी। खूब आनन्द से दीपावली मनाई गई।
मेरे हृदय में रहने वाले 'बालक' ने भी प्रति ध्वनि की 'मां, मेरा दीपक भी जला दे'।

हम और बड़े हुवे। प्रतिवर्ष ही कार्तिक अमावस पर दीपावली आने लगी और खूब मजे से मनाई जाने लगी। इतने में महात्मा गांधी की वाणी सुनायी दी 'दीवाली की खुशी कैसी? हम गुलाम क्या दीवाली मनायें? दीवाली तो तब मनायी जायगी जब भारत स्वाधीन हो जायगा'। मैंने कार्तिक अमावस को दीपक जलाने छोड़ दिये और भारतमाता से प्रतिवर्ष प्रार्थना करने लगा, 'मां, तू मेरा स्वाधीनता का दीपक जला दे'। "ओह, वह सच्ची दीपावली कब आवेगी जब कि हम स्वाधीन हुये तेरे पुत्र सचमुच आनन्द से दीपक जलाकर तेरी पूजा कर सकेंगे"। तब से रूढ़ि की दीवाली फीकी हो गयी, उस दिन दिये जलाना बुरा लगने लगा।

और वर्ष बीते। अभी तक १९४७ की दीपावली का दिन नहीं आया था। उसके आने से १०, १२ वर्ष पहले ही एकान्त में एक पवित्र वाणी सुनाई दी 'अरे, बाहर के दीपक में क्या रक्खा है, अन्दर का दीपक जला'। "ये बाहर के दीपक तो सिनेमा घरों में रोज-रोज जलते हैं, वहां हर रोज ही दीवाली रहती है। बाहर के दिये तो जिस दिन चाहो, चाहे जितने, जला लो"। मैं अन्दर की तरफ मुड़ा, मैंने जगन्माता से प्रार्थना की 'मेरा अन्दर का दिया जला दे, मां, मेरा अन्दर का दिया जला दे'। तब से ये बाहर के सब दिये फीके हो गये। स्वाधीन हो जाने पर मनायी जाने वाली दीपावली भी फीकी हो गयी और मैं प्रतीक्षा करने, प्रतिवर्ष प्रतीक्षा करने लगा कि यह सच्ची दीवाली कब आवेगी, जब मेरा अन्तर का दिया जल उठेगा।

और समय बीता। श्री अरविन्द के हृदय को प्यारी लगने वाली वाणी ने मेरा ध्यान खींचा। 'अन्दर के 'टार्च' जैसे प्रकाश भी किस काम के, कभी-कभी चमकने वाली विद्युत् के प्रकाश भी तेरे मार्ग को आलोकित नहीं कर सकेंगे'। वेद में कहे "ध्रुवं ज्योतिनिर्हितं दृशये कं" वचन का नया अर्थ समझ में आया। अन्दर स्थिर ज्योति पा लेने की अभीप्सा तीव्र हो उठी। उस ज्योति की जिसके विषय में उपनिषद् के ऋषि ने 'आत्मज्योतिरयं पुरुष:' की व्याख्या में कहा है कि जब सूर्य अस्त हो जाता है, जब चन्द्र की एक भी कला नहीं रहती, जब अग्नि भी नहीं जलती, जब वाणी भी कुछ प्रकाशित नहीं कर सकती, तब भी जो नित्य ध्रुव ज्योति सब कुछ दिखाती है, उस ज्योति को जिसके विषय में सन्तों ने कहा है-
आप ही जोया, आप ही बाती।
अखण्ड जरे दिन राती।।

मैंने दिव्या, भगवती से प्रार्थना की 'मां, मेरे अन्दर स्थिर ध्रुव ज्योति जगा दे'। "मेरे हृदय गुहा में वह दीपक जला दे, जो दिन रात अखण्ड जलता है, जो कभी बुझ नहीं सकता"। असल में मेरी दीवाली तो तभी मनाई जा सकेगी। अन्दर से आने वाली अस्थायी ज्योतियां भी फीकी लगने लगीं और मैं इस दिव्य दीवाली की बाट जोहने लगा, जब कि मेरा हृदय एक नित्य, स्थिर ज्योति से आलोकित रहने लगेगा।

और वह क्या ही दिव्य दीवाली होगी जब कि हृदय-हृदय में उस ध्रुव ज्योति का दिव्य दीपक जग उठेगा और ऐसे सैकड़ों हजारों दीपकभूत पुरुष स्त्रियों का समाज मिलकर पूर्ण सामंजस्य के साथ, इस पृथ्वी पर कार्य कर रहा होगा। ओह, वह देवों के भी देखने योग्य दीवाली होगी।
तब ये सब मनायी गयी अनन्त दिवालियां सार्थक हो जायेंगी। ओह, हम न जाने कब से दीपावली मना रहे हैं। लोग कहते हैं, जब से देवी ने नरकासुर का वध किया था तब से दीवाली मनायी जा रही है। कई कहते हैं, श्री रामचन्द्र जी के युग से दीवाली चली आ रही है। कम से कम, हम तो कई बार जन्म ले चुके हैं, कई बार बच्चे, जवान और बुढ्ढे हो चुके हैं, तब से दीवाली मनायी जाती रही है। वे सबकी सब मनायी गयी दिवालियां उस दिन सार्थक हो जायेंगी- अपने मनाये जाने के उद्देश्य को प्राप्त कर लेंगी। असल में उसी भविष्य में आने वाली दिव्य दीपावली तक पहुंचने के लिये ही जाने अनजाने हम बच्चे मां से, हम भारतवासी उस भारत माता से, हम जगत्पुत्र उस जगज्जननी से, हम दिव्य अमृतपुत्र उस दिव्या भगवती से प्रार्थना करते आ रहे हैं 'मां, मेरा भी दीपक जला दे', अपनी नित्य, ध्रुव, सत्य ज्योति से मेरा भी दीपक जग मगा दे!!!
-'वेदवाणी' १९५४ के वेदांक से साभार

Thursday, November 12, 2020

हैदराबाद सत्याग्रह में फिल्ड मार्शल "भजनोपदेशक"




हैदराबाद सत्याग्रह में फिल्ड मार्शल "भजनोपदेशक"

अमित सिवाहा

वर्ष 1938-39 में हैदराबाद निजाम के विरुद्ध आर्य समाज के सत्याग्रह में भजनोपदेशकों का योगदान चिरस्मरणीय रहेगा। हमारे भजनोपदेशकों ने हरियाणा प्रदेश में फिल्ड मार्शल की भुमिका निभाई। आज कुछ भजनोपदेशकों द्वारा भोगी यातनाओं का विवरण प्रस्तुत कर रहे है। हमारे भजनीकों ने आर्य समाज का प्रचार बेहद विकट परिस्थितियों में करके मिशाल कायम की है। अपने जीवन की सारी तमन्नाएं देश धर्म को अर्पित कर दी।

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महाशय हीरालाल आर्योपदेशक
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आर्यों का हैदराबाद में साधना और संघर्ष अपने आप में बेजोड़ रहा। इस धर्म की लड़ाई में देश का कोई भी भाग ऐसा नही था जहां से जाकर आर्यो ने भाग ने लिया हो। इतने विशाल स्तर का था आंदोलन। इस आंदोलन न्यायोचित कारण भी था। हैदराबाद का नवाब धर्मांध मुसलमान था। वह हिंदुवों को जीवन का अधिकार देना पसंद नही करता था। इस बारे सबसे दुखी सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा ने निजाम की निरंकुशता को विराम देने के लिए आंदोलन की रुपरेखा तय की। आंदोलन समाप्ती के बाद सरकार ने इसे "धर्म युद्ध " तथा सत्याग्रहियों को ""स्वतंत्रता सेनानी "" का दर्जा दिया।

हैदराबाद सत्याग्रह में महाशय जी का एक जत्था 15अगस्त 1938 को रवाना हूआ। निजाम की जेल में बंदी रहे। वहां की जेल नरक का दृश्य पेश करती थी। जेल का गंदा भोजन व दूषित जलवायु तो परेशान किए ही हुए थे, उपर से अधिकारियों ने भी खूब सख्ती कर दी थी। अधिकारियों की कठोरता और न ही उदारता उन्हें अपने किये निश्चय से गिरा सकी। जेल से दिनांक 27 सितंबर 1939 को घर आए । जेल की यातनाएं, अशुद्ध भोजन, के चलते इनको ह्रदय रोग हो गया ओर इनके साथ ही चला गया। जब सरकार ने ऐसे सत्याग्रहियों को पैंशन देना चाही तो ये संसार छोडकर जा चूके थे।

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स्वामी जगतमुनी सरस्वती
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हैदराबाद सत्याग्रह में श्री जगतराम जी ने बढ़ चढ़कर भाग लिया। सर्वप्रथम सत्याग्रहियों की सहायता हेतू दान किया तथा खूद स्वामी ओमानंद सरस्वती जी के साथ हैदराबाद की गुलबर्गा जेल में 6 महिने तक यातनाएं सही। इनके साथ जेल में पंडित जगदेव सिंह सिद्धांति जी, महाशय रामपत वानप्रस्थी जी इत्यादि आर्य समाज के दीवाने थे। स्वामी जी वहां जेल में भी भजन सुनाकर सत्याग्रहियों का मनोबल बढ़ाते थे।

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स्वामी विद्यानन्द सरस्वती झांसवा
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गांव लुखी व रेवासा ओर निकटवर्ती क्षेत्रों में स्वामी जी अपनी ओजस्वी वाणी व्याख्यानो का जलवा बिखेर चुके थे। उनके ओजस्वी व्याख्यानो का जिक्र कांग्रेस मुख्यालय में भी होने लगा, पंडित श्री राम शर्मा ने भी लोगो को जागरुक करने के लिए स्वामी जी के उपदेश करवाए। तत्पश्चात हैदराबाद का बिगुल बज गया। स्वामी जी निसंकोच हैदराबाद सत्याग्रह में जत्था लेकर गए और सत्याग्रह जीत कर लोटे। वापिस आए तो संस्कृत पाठशाला बंद हो चूकी थी। लेकिन उसके बाद स्वामी जी स्वतंत्र रुप से आर्य समाज के प्रचार में आ गए।

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स्वामी हीरानंद बेधड़क धमतान साहिब जींद
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देश की आजादी के लिए मर मिटने वालो में स्वामी जी का नाम भी अग्रिम पंक्तियों में लिखा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं, क्योंकि स्वामी जी पहले अंग्रेजी फौज में थे, नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के व्याख्यान सुनकर अंग्रेजी फौज छोड़ दी। कई वर्षों तक नेता जी के विचारो का प्रचार भी करते रहे, वर्ष १९३८,३९ के हैदराबाद सत्याग्रह में स्वयं का जत्था लेकर गए। जेल काटी, निजाम की यातनाएं सही। हैदराबाद के सफल सत्याग्रह के बाद आर्यों में खुशी का माहौल था, स्वामी जी ने सम्पूर्ण जीवन में नौ बार जेले काटी थी।

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महाशय बलबीर झाबर अलेवा
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वर्ष १९३८/३९ के हैदराबाद सत्याग्रह में महाशय बलवीर जी भी पीछे नही रहे। सत्याग्रहियों को प्रचार के द्वारा तैयार कर खुद जत्था लेकर गए, महाशय जी के साथ प्रमुख अलेवा के श्री दलीप सिंह, श्री दीप सिंह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वहां पर महाशय जी को अमानवीय यातनाएं दी गई। निजाम की जेल में बंद रहने के बाद भी आप अविचलित रहे। ज्वार की कच्ची ,जली रोटी, कई -कई दिन सप्ताह बिना स्नान के रहे। मिट्टी के बर्तनों में खाना खाया। कोड़े खाए, लाठियां सहीं, चक्की ओर कोल्हू चलाए, परंतु अपने उद्देश्य को नहीं छोड़ा। समझौता होने के बाद आप अपने प्रांत, गांव में पहुंचे।

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चौधरी पृथ्वी सिंह बेधड़क
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सन् १९३८,३९ में आर्य समाज ने हैदराबाद निजाम के हिंदुजाति के पूजा पाठ के पर प्रतिबंध के खिलाफ क्रांति का बिगुल बजाया। उस समय महाशय जी ने युवावस्था में कदम रखा ही था। जोश उनकी रग रग में भरा था। उस सत्याग्रह में इनका योगदान अग्रणी था। जहां जेल की यातनाओं का सहवन भी किया ओर अपनी ओजस्वी वाणी से सबका मन हर लिया। यहां सब इन्हें पिता जी के नाम से बुलाते। निजाम उनसे क्रोधित थे। ओर कैदियों को सीमेंट मिले आटे की रोटियां देते
तब महाशय जी ने ललकार कर कहा - देखी हमने निजाम, तेरी निजामी, हैदराबाद जेल में। निजाम भी उनके तर्क एवं संगत पूर्ण विचारों से प्रभावित हूए बीना रह न सके। ओजस्वी गाने की पक्तिं के आधार पर भोजन व्यवस्था में सुधार कर दिया ओर पुजा पाठ पर से प्रतिबंध हटा दिया।

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पंडित भूराराम आर्योपदेशक
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पंडित भूराराम जी इनके बेटे, वैद्य हरिसिंह व इनके बेटे अपने पूरे परिवार सहित हैदराबाद सत्याग्रह में कूच कर गए। इनको हैदराबाद की जेलों में बंदी बनाकर रखा गया। भूराराम जी स्वयं का जत्था लेकर रोहतक से रवाना हुए थे। इनको हैदराबाद के निजाम ने सीमेंट मिली आटे की रोटी मिलती। निजाम की क्रूरता आर्य समाजियों के प्रति ज्यादा थी। हैदराबाद सत्याग्रह समाप्त होने के बाद ये गांव लौेटे। हैदराबाद सत्याग्रह की पैंशन भी लेने से मना कर दिया था। इसके थोड़े दिन बाद लोहारु कांड में भी भूराराम जी गए। आजादी के बाद भूराराम जी जालंधर प्रतिनिधि सभा के उपदेशक रहे।

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स्वामी नित्यानंद सरस्वती
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स्वामी नित्यानंद जी ने हैदराबाद सत्याग्रह को सफल बनाने के लिए तन मन धन से सहयोग किया। उन्होने प्रचार करके सत्याग्रह को जन जन तक पहूंचा दिया। ओर भगत फूल सिंह जी रोहतक जत्थे को लेकर प्रधानता कर रहे थे। स्वामी नित्यानंद जी २५ सत्याग्रहियों के साथ निकल पड़े जिनको तिलक खूद बहन सुभीषिणि व यशोदा ने किया। जत्था हैदराबाद पहूंचा तो निजाम के सामने स्वामी नित्यानंद जी भजन गा रहे थे वो चौंकन्ने होकर बोले ये आदमी आ रहे हैं या हाथी। हरेक आर्य विद्वज्जन ने इस आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। कुंवर जौहरी सिंह जसराणा भी इस सत्याग्रह में स्वयं ही पहुंच गए। भक्त फुल सिंह जी ने इनका विरोध किया ओर कहा आपकी यहां जरुरत नहीं है। अपितु आप वहां रहकर जत्थे भेजने का कार्य करे। कुंवर जौहरी सिंह जी ने ऐसा उचित समझा।

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कवि रतन सिंह चौहान मितरौल
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हैदराबाद सत्याग्रह में कवि रतन सिंह जी औरंगाबाद जत्थे में सम्मिलित हुए ओर गिरफ्तार देकर करीबन ढेड वर्ष के बाद वापस आए। आपके साथ, जसवंत आर्य,स्वामी रघुवर दास जी व अन्य सत्याग्रही (नाम ज्ञात नहीं) सम्मिलित थे। आपने पैंशन लेने के लिए भी मना कर दिया। ये जानकारी आपके शिष्य महाशय भजनलाल जी ने बताई। आपने आर्य समाज के शुद्धि आंदोलन में भी भाग लिया।

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पंडित प्रभुदयाल आर्य प्रभाकर पौली जींद
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इस आंदोलन में अनेको जगह से आर्यों ने इकट्टे होकर निजाम का विरोध किया ओर आर्य समाज की विजय हूई।इस आंदोलन में आर्य प्रादेशिक सभा दिल्ली के अंतर्गत पंडित जी भी गए। ओर सक्रिय भूमिका निभाई। इसी दौरान इनको सात महिने की जेल हूई। हैदराबाद के निजाम उस्मान ने इनको इतनी यातनाएं दी की दिन में भुखे पेट चार चार किलो ज्वार का आटा पिसना, सोने के लिए भी कंकरों के उपर बीना बिस्तर के सोना, ओर खाने में दो ज्वार के आटे की रोटी। भुख प्यास से व्याकुल हूए लेकिन फिर भी अपने पथ पर रहे। हैदराबाद जेल में पंडित जी 22/1/1939से 18/8/1939तक रहें। अंग्रेजो का दमन चक्र भी सहा, आजादी के लिए भी पंडित जी ने जमकर प्रचार किया। अप्रैल 1939 में रोहतक जत्थे पर मुसलमानों ने हमला कर दिया जिससे गुरुकुल भैंसवाल के ब्रह्मचारी बुरी तरह घायल हो गए, इस हमले से पंडित जी को बहुत चोटें आई। ऐसे ही जून में निजाम के सिपाहियों ने जत्थे पर हमला किया वहां भी पंडित जो अनेको चोटें आई। कड़कति धूप में पंडित घास खोदते तब जाकर वहां का निजाम रुखी सुखी रोटी देता। लेकिन अंतत: आर्यो के सामने निजाम ने घुटने टेक दिये।

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महाशय रामपत वानप्रस्थी आसन रोहतक
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१९३९ के हैदराबाद आंदोलन में आर्यों ने अपनी ताकत लोहा मनवाया जिसका श्रेय उपदेशको, भजनोपदेशकों, विद्वानों को जाता है। महाशय रामपत जी ने इस आंदोलन में आसन्न गांव के आसपास पाक्कसमां, भालौट, बोहर इत्यादि गांवो से दो महिने तक जत्थे तैयार करते रहे, वहां से सत्याग्रही तैयार कर उन्होनें अपनी अपनी गिरफ्तारी दी। हैदराबाद के निजाम द्वारा दी गई अनेकों यातनाएं वहन की। भक्त फूल सिंह जी से महाशय रामपत जी भी आज्ञा पाकर खूद सत्याग्रह के लिए निकल पड़े, आचार्य भगवान देव,जगदेव सिंह सिद्धांति जी के साथ इनको गुलबर्गा जेल में रखा, वहां भी महाशय जी जोशीले भजन सुनाकर सत्याग्रहियों में जोश भरते थे। निजाम हैदराबाद से समझौता होने पर घर लौटे, ओर आर्य समाज के प्रचार में लगे रहे।

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चौधरी नर सिंह भापड़ोदा
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हैदराबाद सत्याग्रह में भापड़ोदा गांव का विशेष योगदान था। गांव की गली गली से सत्याग्रही तैयार हो गए। क्रांतिकारियों ने सीधा निजाम से टक्कर जा ली। चौधरी नरसिंह जी व प्यारेलाल जी ने पैदल कूच करते हुए सत्याग्रह का नाद अपने क्षेत्र में गुंजा दिया। चौधरी नरसिंह जी व अन्य उपदेशक इस दृष्टिकोण से सत्याग्रह के लिये सबसे उपयुक्त थे। वे जनसाधारण में उन्हीं की भाषा में और उन्हीं की निजाम की बुराई करते और सत्याग्रह के लिए वातावरण तैयार किया। इस प्रकार के गीत की एक पंक्ति देखिए, जो नरसिंह जी व अन्य उपदेशक गाया करते ---

"कान शेर के थ्यागे धोके में, निजाम कै"

इस प्रकार के गीत गाकर सत्याग्रहियों में जोश फुंक देते थे। चौधरी नरसिंह जी खूद सत्याग्रह में गांव वालो के साथ चले गए और हैदराबाद की जेलों में कैद हो गए। इनके साथ भापड़ोदा के कन्हैयालाल, जयदेव सिंह, देशराज, मांगेराम, मातूराम, लालचंद,मनफुल,सिद्धराम,सूरजभान,हेतराम, हिरदे, ज्ञानचन्द्र, ज्ञानीराम इत्यादि सत्याग्रहियों को औरंगाबाद निजामाबाद की जेलों में रखा गया। वहां पर सभी सत्याग्रहियों को खाने पीने, नहाने इत्यादि की यातनाएं दी गई। सत्याग्रहियों को निजाम के सैनिक कोड़े बैंत इत्यादि भी मारते। निजाम के साथ समझोता होने पर सभी सत्याग्रही घर वापिस लौटे।

नोट :- वर्तमान समय में कुछ मतिभ्रष्ट, तुच्छ प्राणी आर्य समाज के भजनोपदेशकों को चटोरा लिखते हैं। जबकि खुद का चरित्र हरियाणा जानता है। इन्हीं भजनोपदेशक की वजह से सभी सत्याग्रह सफल रहे। जिसका आज हरियाणा की जनता आनंद ले रही है। हमारा अगला लेखन हिंदी आंदोलन में भजनोपदेशकों के समर्पण पर होगा।

Monday, November 2, 2020

पारिवारिक व्रत एवं आचरण


पारिवारिक व्रत एवं आचरण

लेखक- पं० गंगाप्रसाद उपाध्याय

ओ३म् अनुव्रत: पितु: पुत्रो माता भवतु संमना:।
जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शान्तिवाम्।। -अथर्ववेद ३/३०/२

अन्वय- पुत्र: पितु: अनुव्रत: भवतु। पुत्रः माता सह संमना: भवतु। जाया पत्ये मधुमतीं शान्तिवां वाचं वदतु।।

अर्थ- (पुत्र:) पुत्र (पितु:) पिता का (अनुव्रत:) अनुव्रत हो अर्थात् उसके व्रतों को पूर्ण करे। पुत्र (मात्रा) माता के साथ (संमना:) उत्तम मनवाला (भवतु) हो अर्थात् माता के मन को संतुष्ट करने वाला हो। (जाया) पत्नी को चाहिए कि वह (पत्ये) पति के साथ (माधुमतीम्) मीठी और (शान्तिवाम्) शान्तिप्रद (वाचम्) वाणी (वदतु) बोले।

व्याख्या- इस वेदमंत्र में वे आरम्भिक साधन बताये हैं जिनसे गृहस्थ सुव्यवस्थित रह सकता है।
ऊपरी दृष्टि से ऐसा लगता है कि जिन बातों का इस मन्त्र में प्रतिपादन है वे अतिसाधारण और चालू हैं। उनको असभ्य और अशिक्षित लोग भी समझते हैं। उनके लिए वेदमंत्र की आवश्यकता नहीं। परन्तु गम्भीर दृष्टि से पता चलेगा कि बहुत सी बातें विचारणीय और ज्ञातव्य हैं। उदाहरण के लिए दो शब्दों पर विचार कीजिए- एक 'पुत्र' और दूसरा 'अनुव्रत:'। यहां केवल इतनी ही बात नहीं है कि सन्तानों को मां-बाप की सेवा करनी चाहिए और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए। यद्यपि जिस किसी ने संसार में सबसे पहले लोगों को यह उपदेश किया होगा, उस समय इतनी छोटी-सी बात भी बहुत बड़ी और अद्भुत मालूम होती होगी। आज भी यद्यपि कथन मात्र से इस बात को सभी जानते हैं, फिर भी व्यवहार में तो अत्यन्त न्यूनता दिखाई देती है। आज्ञाकारी राम तो कथाओं का ही विषय हैं। व्यवहार में तो जिन घरों में हिरण्यकश्यप नहीं हैं वहां भी किसी न किसी बहाने से सन्तान प्रह्लाद का स्वांग खेलने के लिए उत्सुक रहती है। कुछ ऐसे भी मनचले हैं जो ऐसी शिक्षाओं को असामयिक और प्राचीनकाल की दास-प्रथा का प्रतीक समझते हैं। बेटा बाप की आज्ञा क्यों मानें? इस प्रकार प्राचीन आचार शास्त्र के बहुत से छोटे-मोटे नियम हैं जो आजकल भावी विकास में बाधक समझे जाते हैं। यूँ तो हर मानवी संस्था में समय-समय पर दोष आ जाया करते हैं और उनके सुधार की आवश्यकता होती है। यदि संसार के पिता हिरण्यकश्यप बन जाएं तो ऐसी संस्थाएँ भी प्रशंसा की दृष्टि से देखी जायेंगी जो बालकों में प्रह्लाद की भावनाओं का प्रसार करें, क्योंकि परिवार का संगठन तो तभी सुरक्षित रह सकता है जब पिता और पुत्र दोनों धार्मिक हों। कोढ़ी माँ-बाप की सन्तान को उनसे अलग रखा जाता है कि वह कोढ़ दूसरी पीढ़ी में भी न आ जाए। चोर और डाकुओं की सन्तान के भी पृथक्करण की आवश्यकता होती है। परन्तु ये तो अपवाद मात्र हैं। यह साधारण जीवन का आचार शास्त्र नहीं, अपितु आचार सम्बन्धी अस्पतालों की नियमावली है, जो सामान्य जीवन से कुछ भिन्नता रखती है।

अच्छा! आइये पहले 'अनुव्रत' शब्द पर विचार करें। इसके लिए देखना यह है कि सृष्टिक्रम में सन्तानोत्पत्ति की व्यवस्था क्यों रखी गई? यदि कोई परिवार सन्तानहीन ही लुप्त हो जाए तो क्या हानि है? और यदि एक क्षण में समस्त संसार नष्ट हो जाए तो किसका क्या बिगड़े? परन्तु ये प्रश्न वही कर सकते हैं जो जीव की स्वतन्त्र सत्ता और उसकी आवश्यकताओं पर विचार नहीं करते। परमात्मा ने यह सृष्टि खेल के लिए नहीं बनाई। यह जीव के विकास के लिए बनाई गई है। दुर्गुणों से बचने और सद्गुणों को ग्रहण करने के लिए बनाई गई है। पशु-पक्षियों की बुद्धि इतनी कम है कि उनके आचार की व्यवस्था ईश्वर ने सीधी अपने हाथ में रखी है। जैसे बहुत छोटे बालकों पर बुद्धिमान् पिता उनकी व्यवस्था का भार नहीं छोड़ता, परन्तु विद्वान् और परिपक्व सन्तान अपना विधान आप बनाने में स्वतन्त्र होती है। यही प्रथा पशु-पक्षियों की है। मधुमक्खी को छत्ता बनाने या बया को घोंसला बनाने के लिए किसी इंजीनियरिंग कॉलेज की आवश्यकता नहीं पड़ती, परन्तु मनुष्य का बच्चा तो मुंह धोने का नियम भी सीखता है। अतः स्पष्ट है कि मानवजाति के लिए एक आचार शास्त्र चाहिए जो परम्परा से चालू रहे। इसी का नाम व्रत है। अब यज्ञोपवीत दिया जाता है तो एक मन्त्र पढ़ते हैं-

अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्।
इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि।। -यजुर्वेद १/५

अर्थात् मैं एक व्रत करता हूँ। परमात्मा इस व्रत के पालन में मेरी सहायता करें वह व्रत क्या है? अनृतात् सत्यमुपैमि। असत्य का त्याग और सत्य का ग्रहण। वेदों के पुनरुद्धारक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने इसीलिए इस व्रत (सत्य) को विशेष स्थान दिया है। इस नियम पर प्रत्येक मनुष्य के विकास का आधार है। महात्मा गाँधी का समस्त जीवन सत्य की खोज और उसके पालन में व्यतीत हुआ। जिसने सत्य की खोज नहीं की वह सत्य का पालन क्या करेगा? जो लोग 'श्रद्धा' का अर्थ लेते हैं- 'सत्य की खोज से संकोच और प्रचलित प्रथाओं या गुरुजनों पर अन्धविश्वास', वे श्रद्धा शब्द की व्युत्पत्ति तथा अर्थों से अनभिज्ञ हैं। 'श्रद्धा' दो शब्दों से बनता है, 'श्रत्' अर्थात् सत्य और 'धा' अर्थात् धारण करना। अतः श्रद्धा का भी वही अर्थ है जो अनृतात् सत्यमुपैमि का। प्रत्येक बच्चे को यह व्रत लेना पड़ता है और यह आशा की जाती है कि आयुपर्यन्त इसका पालन करे। मानवजाति के कल्याण के लिए यह आवश्यक है और हर गृहस्थ को यह व्रत लेना चाहिए।

परन्तु यह परम्परा तो तभी चल सकती है, जब भावी सन्तान पूर्वजों के व्रत का आदर करे। इसीलिए कहा कि पुत्र को पिता का 'अनुव्रत' होना चाहिए। यह दायभाग में सबसे बड़ी सम्पत्ति है, जो कोई पिता अपने पुत्र के लिए या कोई आचार्य अपने शिष्य के लिए छोड़ सकता है। 'अनुव्रत' का प्रश्न तो तभी उठेगा जब 'व्रत' होगा। माता-पिता के जो आचरण आकस्मिक या स्वाभाविक रूप से इस 'व्रत' के अन्तर्गत नहीं वे अनुपालनीय भी नहीं। इसीलिए गुरु उपदेश देता है कि हमारे जो-जो सुचरित हैं वे ही पालनीय हैं (नो इतराणि) अन्य नहीं। व्यक्तिगत घटनाएँ नहीं अपितु वैदिक संस्कृति ही प्रत्येक माता-पिता को करणीय और प्रत्येक पुत्र या पुत्री को अनुकरणीय है।

अब 'पुत्र' शब्द के अर्थों पर विचार कीजिए। हर बच्चा जो उत्पन्न होता है पुत्र कहलाने के योग्य नहीं। शास्त्र के विधान से उसको 'पुत्र' बनने की योग्यता प्राप्त करनी चाहिए। सन्तान के लिए संस्कृत में अनेक पर्याय हैं जैसे- तुक्, तोकं, तनय:, तोक्म्, तक्म, शेष:, अप्न:, गय:, जा:, अपत्यं, यहु:, सूनु:, नपात्, प्रजा, बीजम् इति पंचदश अपत्यनामानि (निघण्टु २/२)। परन्तु पुत्र का एक विशेष अर्थ है। यास्काचार्य ने निरुक्त में पुत्र शब्द की यह व्युत्पत्ति दी है 'पुत् + त्र'। पुत् नाम है नरक का। नरक से हो रक्षा करे उसे पुत्र कहते हैं। मनुस्मृति में भी यही कहा है-
पुंनाम्नो नरकाद् यस्मात् त्रायते पितरं सुत:। तस्मात् पुत्र इति प्रोक्त: स्वयमेव स्वयम्भुवा।। पौत्रदौहित्रयोर्लोके विशेषो नोपपद्यते। दौहित्रोपि ह्यमुत्रैनं संतारयति पौत्रवत्।। (मनुस्मृति ९/१३८, १३९)
'पुत्' अर्थात् नरक से जो तारे वह है पुत्र। पुत्र के अन्तर्गत लड़के और लड़की तो आते ही हैं, इनके लड़के-लड़कियाँ भी आते हैं, क्योंकि वे सब ही नरक से तारने वाले हैं।

यह नरक त्राण क्या है, इस पर विचार करना चाहिए। पौराणिकों ने नरक को एक स्थान विशेष माना है जहां पापी लोग जाते हैं और यदि पुत्र मृतकों का श्राद्धतर्पण करता है तो उसके पितृगण नरक से छूटकर स्वर्ग में चले जाते हैं। यह बात वैदिक कर्मफलवाद के सिद्धान्त के सर्वथा विरुद्ध है। फिर प्रश्न है कि पुत्र पिता को नरक से कैसे छुड़ाता है?
कोई मनुष्य एक जन्म में पूर्ण विकास या परमपद को प्राप्त नहीं हो सकता इसके लिए जन्म-जन्मान्तर का अभ्यास आवश्यक है। यह पुनर्जन्म के द्वारा होता है। जो आज बाप कहलाता है वह कल बेटा होगा। जिसको अगली पीढ़ी कहते हैं वह पिछली पीढ़ी हो जायेगी। और अगली पीढ़ी की शिक्षा-दीक्षा का भार उसी पीढ़ी पर होगा। आज मैं और मेरे समवयस्क पितृश्रेणी में हैं। उनके ऊपर सन्तान की शिक्षा का भार है। कल हम मरकर बच्चे होंगे और जिनको हम पुत्र-पौत्र कहते हैं, वे पितृगण कहलायेंगे और हमारी शिक्षा का भार उन पर होगा। यह पिता-पुत्र का सम्बन्ध अनादि काल से प्रवाह चक्र के समान चला आता है। यदि हमारी सन्तान ने हमारी सुरक्षित संस्कृति को अपने हाथ में लेकर उसे समुन्नत किया तो वह समुन्नत संस्कृति हमारे दूसरे जन्म में हमारी सहायक होगी और इस प्रकार हमारे वर्तमान पुत्र अपने सुकर्मों के द्वारा हमारे कर्म और विकास के लिए उत्कृष्ट क्षेत्र छोड़ सकेंगे। इसी का नाम है नरक त्राण या पुत् नामक नरक से रक्षा। प्रत्येक अतीत पीढ़ी के जीवात्मा अगले जन्म में भावी बन जाते हैं और उनको अपनी पिछली पीढ़ी वालों के निर्मित क्षेत्र की अपेक्षा और आकांक्षा होती है।

एक दृष्टान्त लीजिए। आज हमारे पुत्रों ने अपनी योग्यता से देश-देशान्तरों में वैदिक भाषा, वैदिक परम्पराओं और वैदिक संस्कृति का प्रचार कर दिया। जब हमने दूसरा जन्म लिया तो ये परम्पराएँ उस जन्म में हमारी सहायक होंगी। यदि हमारी सन्तान की भूलों से वैदिक परम्पराएँ नष्ट हो गई तो हम ऐसी दुनिया में जन्म लेंगे जो अवैदिक और प्रतिकूल होंगी, अत: हमें बड़ी कठिनाई होगी। यही नरक है।

कल्पना कीजिए कि आप एक बाग लगाते हैं और उसका निरीक्षण अपने लड़कों पर छोड़कर चार वर्ष के लिए विदेश चले जाते हैं। अब यदि आपके लड़के योग्य हैं तो बाग को समुन्नत करेंगे और जब आप विदेश से लौटेंगे तो बाग अच्छा मिलेगा। परन्तु यदि सन्तान ने प्रमाद किया और बाग उजड़ गया तो आपको नये सिरे से काम करना पड़ेगा। यही स्वर्ग और नरक है और यह आपके विकास में साधक या बाधक है। महर्षि स्वामी दयानन्द से पूर्व की सैकड़ों पीढ़ियों के लोग यदि यह समझते कि अपने पूर्वजों के नरक त्राण की दृष्टि से वैदिक धर्म का लोप न होने दें, तो महर्षि दयानन्द को फिर से वैदिक धर्म का जीर्णोद्धार करने का कष्ट न उठाना पड़ता और उनका जीवन आरम्भिक कक्षा की शिक्षा देने के स्थान में उच्च कक्षा की शिक्षा देने में काम आता।
कल्पना कीजिए कि मैं मरकर अरब में पुनर्जन्म लूँ तो वहाँ अवैदिक इस्लाम का प्रचार पाऊँगा और अपने पूर्वजन्म के संस्कारों के प्राबल्य के आधार पर यदि वैदिक जीवन व्यतीत करना चाहूँ तो कितनी कठिनाई होगी। परन्तु यदि इस पीढ़ी में वहाँ वेदिकधर्म का प्रचार हो जाए तो मुझे कितनी सुविधा हो! वैदिक संस्कृति में पले हुए वैदिकव्रतों के व्रती पिताओं के पुत्रों का कर्त्तव्य है कि अपने पितृगण के भावी क्षेत्र को अनुकूल बनाने के लिए पिताओं के अनुव्रत हों। इस प्रकार वे अपने और अपने पीछे आने वालों के लिए क्षेत्र तैयार कर सकेंगे। व्यक्ति तो मर चुकते हैं परन्तु संस्कृतियाँ बनी रहती हैं। कुलों की सन्तति, राज्यों की सन्तति और धन-सम्पत्ति को स्थिर या चिरस्थायी बनाने के हेतु हम सन्तान चाहते हैं। संस्कृति की सन्तति मुख्य चीज है। वही साध्य है और सन्तान उस सन्तति का साधन है।

अब कहा कि पुत्र को 'मात्रा संमना:' माता के साथ समान मन वाला होना चाहिए। माता प्रेम की निधि है। माता से अधिक प्रेम तो कोई करता ही नहीं और प्रेम एक प्रकार का गोंद है जिससे अनैक्य में ऐक्य उत्पन्न होता है, स्वार्थ में परमार्थ आता है, दानवता में मानवता का संचार होता है। अतः अपने मानसिक विकास का सबसे बड़ा साधन है माता के स्नेह को स्मरण रखना। माता का कृतज्ञ होना ही मनुष्य के आत्म-निर्माण की पहली सीढ़ी है।

मन्त्र के पिछले चरण में पत्नी के लिए उपदेश है कि पति के साथ मीठी और शान्तिप्रद वाणी बोले। पुरुष स्वभाव से कुछ कर्कश होता है और स्त्री का स्वभाव कोमल होता है। पुरुष दांत है तो स्त्री जीभ है। जीभ और दांत का सामीप्य है। कर्कशता और कोमलता का सम्मिलन है। समस्त शरीर में जहां नर्म पेशियाँ हैं वहां कठोर अस्थियाँ भी हैं। यदि हड्डियाँ ही होती, मांस नहीं होता तो शरीर का व्यापार कैसे चलता? शरीर शरीर न होता, पत्थर की चट्टान होता और यदि पेशियाँ ही होती तो यह ढाँचा ही न होता, हम चल-फिर न पाते। अतः कठोर वस्तुओं को अपना धर्म पालने के लिए कोमल वस्तुओं के सामीप्य, सान्निध्य और साहाय्य की आवश्यकता होती है। मशीन को चालू रखने के लिए तेल की आवश्यकता होती है। गृहस्थ के जटिल जीवन में पत्नी अपनी मधुरवाणी से कर्कशता को कोमल बनाए रखती है। जब पति बाहर के व्यापार से थका-मांदा झुंझलाया हुआ सायंकाल को घर लौटता है तो पत्नी अपनी मधुर स्वागतकारिणी वाणी से भारी थकावट दूर कर देती है। पत्नी वस्तुतः पत्नी अर्थात् पति की रक्षिका बन जाती है। यह आनन्द केवल वैवाहिक जीवन में ही प्राप्त हो सकता है, अन्यत्र नहीं। इसीलिए पत्नी को 'जाया' कहा। न केवल इसलिए कि उससे पुत्र उत्पन्न होगा जो उसके कुल और नाम को स्थिर रखेगा, यह तो गृहस्थ का एक स्थूल पक्ष है। परन्तु इसलिए भी कि पत्नी की मीठी बोली पति के लिए प्रतिदिन नये जीवन का संचार करती है। विवाह संस्कार के समय इसी बात को दृष्टि में रखकर ऋग्वेद के इन मन्त्रों का विनियोग रखा गया है-

मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धव:। माध्वीर्न: सन्त्वोषधी:।।
मधु नक्तमुतोषसो मधुमत् पार्थिवं रज:। मधु द्यौरस्तु न: पिता।।
मधुमान् नो वनस्पतिर्मधुमाँ अस्तु सूर्य:। माध्वीर्गावो भवन्तु न:।। (ऋग्वेद १/९०/६, ७, ८)

[स्त्रोत- वैदिक सार्वदेशिक : सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, नई दिल्ली का साप्ताहिक मुख-पत्र का २२-२८ अक्टूबर २०२० का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]