Saturday, April 29, 2017

आदि शंकराचार्य एवं स्वामी दयानन्द



आदि शंकराचार्य एवं स्वामी दयानन्द

(30 अप्रैल को आदि शंकराचार्य जयंती के उपलक्ष में प्रकाशित)

डॉ विवेक आर्य

आदि शंकराचार्य एवं स्वामी दयानन्द हमारे देश के इतिहास की दो सबसे महान विभूति है। दोनों ने अपने जीवन को धर्म रक्षा के लिए समर्पित किया था। दोनों का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था और दोनों ने जातिवाद के विरुद्ध कार्य किया। दोनों के बचपन का नाम शंकर और मूलशंकर था। दोनों को अल्पायु में वैराग्य हुआ और दोनों ने स्वगृह त्याग कर देशाटन किया। दोनों ने धर्म के नाम पर चल रहे आडम्बर के विरुद्ध संघर्ष किया। दोनों की कृतियां त्रिमूर्ति के नाम से प्रसिद्द है। आदि शंकराचार्य की तीन सबसे प्रसिद्द कृतियां है उपनिषद भाष्य, गीता भाष्य एवं ब्रह्मसूत्र। स्वामी दयानन्द की तीन सबसे प्रसिद्द कृतियां है सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं संस्कार विधि। दोनों की मृत्यु भी असमय विष देने से हुई थी।

आदि शंकराचार्य एवं स्वामी दयानन्द

1. आदि शंकराचार्य का जिस काल में प्रादुर्भाव हुआ उस काल में उनका संघर्ष जैन एवं बुद्ध मतों से हुआ जबकि स्वामी दयानन्द का संघर्ष रूढ़िवादी एवं कर्मकांडी हिन्दू समाज के साथ साथ विधर्मियों के साथ भी हुआ।

2. आदि शंकराचार्य का संघर्ष भारत देश में ही उत्पन्न हुए विभिन्न मतों से हुआ जबकि स्वामी दयानन्द का संघर्ष देश के साथ साथ विदेश से आये हुए इस्लाम और ईसाइयत से भी हुआ।

3. आदि शंकराचार्य को मुख्य रूप से नास्तिक बुद्ध मत एवं जैन मत के वेद विरुद्ध मान्यताओं की तर्कपूर्ण समीक्षा करने की चुनौती मिली थी। जबकि स्वामी दयानन्द को न केवल वेदों को महान आध्यात्मिक ज्ञान के रूप में पुन: स्थापित करना था। अपितु विदेशी मतों द्वारा वेदों पर लगाए गए आक्षेपों का भी निराकरण करना था। हमारे ही देश में प्रचलित विभिन्न मत-मतान्तर की धार्मिक मान्यताएं भी विकृत होकर वेदों के अनुकूल नहीं रही थी। उनका मार्गदर्शन करना भी स्वामी जी के लिए बड़ी चुनौती थी।

4. आदि शंकराचार्य के काल में शत्रु को भी मान देने की वैदिक परम्परा जीवित थी। जबकि स्वामी दयानन्द का विरोध करने वाले न केवल स्वदेशी थे अपितु विदेशी भी थे। स्वामी जी का विरोध करने में कोई पीछे नहीं रहा। मगर स्वामी दयानन्द भी बिना किसी सहयोग के केवल ईश्वर विश्वास एवं वेदों के ज्ञान के आधार पर सभी प्रतिरोधों का सामना करते हुए आगे बढ़ते रहे।

5. आदि शंकराचार्य को केवल वैदिक धर्म का प्रतिपादन करना था जबकि स्वामी दयानन्द को वैदिक धर्म के प्रतिपादन के साथ साथ विदेशी मतों की मान्यताओं का भी पुरजोर खंडन करना पड़ा।

6. आदि शंकराचार्य के काल में धर्मक्षेत्र में कुछ प्रकाश अभी बाकि था। विद्वत लोग सत्य के ग्रहण एवं असत्य के त्याग के लिए प्राचीन शास्त्रार्थ परम्परा का पालन करते थे। जिसका मत विजयी होता था उसे सभी स्वीकार करते थे। पंडितों का मान था एवं राजा भी उनका मान करते थे। शंकराचार्य ने उज्जैन के राजा सुन्धवा से जैन मत के धर्मगुरुओं से शास्त्रार्थ का आयोजन करने के लिए प्रेरित किया। राजा की बुद्धि में ज्ञान का प्रकाश था। जैन विद्वानों के साथ हुए शास्त्रार्थ में शंकराचार्य विजयी हुए। राजा के साथ जैन प्रचारकों ने वैदिक धर्म को स्वीकार किया। स्वामी दयानन्द के काल में यह परम्परा भुलाई जा चुकी थी। स्वामी जी ने भी शास्त्रार्थ रूपी प्राचीन परिपाटी को पुनर्जीवित करने के लिए पुरुषार्थ किया। काशी में उन्होंने मूर्तिपूजा पर बनारस के सकल पंडितों के साथ काशी नरेश के सभापतित्व में शास्त्रार्थ का आयोजन किया। शास्त्रार्थ में स्वामी दयानन्द के विजय होने पर भी काशी नरेश ने उनका साथ नहीं दिया और पंडितों का साथ दिया। काशी नरेश और पंडितों के विरोध का स्वामी दयानन्द ने पुरजोर सामना किया मगर सत्य के पथ से स्वामी जी विचलित नहीं हुए। अडिग स्वामी दयानन्द को केवल और केवल ईश्वर का साथ था।

7. आदि शंकराचार्य के काल में वेदों का मान था। स्वामी दयानन्द के काल में स्थिति में परिवर्तन हो चूका था। स्वामी जी को एक ओर विदेशियों के समक्ष वेदों को उत्कृष्ट सिद्ध करना था। दूसरी ओर स्थानीय विद्वानों द्वारा वेदों के विषय में फैलाई जा रही भ्रांतियों का भी निराकरण करना था। वेदों को यज्ञों में पशुबलि का समर्थन करने वाला, जादू-टोने का समर्थन करने वाला, अन्धविश्वास का समर्थन करने वाला बना दिया गया था। स्वामी जी के वेदों के नवीन भाष्य को करने का उद्देश्य इन्हीं भ्रांतियों का निवारण करना था। स्वामी जी के पुरुषार्थ के दर्शन उनके यजुर्वेद और ऋग्वेद भाष्य को देखकर होते हैं। हमारे समाज को स्वामी जी के इस योगदान के लिए आभारी होना चाहिए।

8. आदि शंकराचार्य के काल में पंडित लोग सत्यवादी थे। सत्य को स्वीकार करने के लिए अग्रसर रहते थे। स्वामी दयानन्द के काल में पंडितों को सत्य से अधिक आजीविका की चिंता थी। वेदों को सत्य भाष्य को स्वीकार करने से उन्हें आजीविका छीनने का भय था, उनकी गुरुडम की दुकान बंद होने क भय था, उनकी महंत की गद्दी छीनने का भय था। इसलिए उन्होंने स्वामी दयानन्द को सहयोग देने के स्थान पर उनके महान कार्य का पुरजोर विरोध करना आरम्भ कर दिया। वैदिक धर्म सत्य एवं ज्ञान पर आधारित धर्म है। सत्य और ज्ञान अन्धविश्वास के शत्रु है। दयानन्द के भाग्योदय करने वाले वचनों को स्वीकार करने के स्थान पर उनका पुरजोर विरोध करना हिन्दू समाज के लिए अहितकारी था। काश हिन्दू समाज ने स्वामी दयानन्द को ठीक वैसे स्वीकार किया होता जैसा अदि शंकराचार्य के काल में स्वीकार किया था। तो भारत देश का स्वर्णिम युग आरम्भ हो जाता।

9. आदि शंकराचार्य को विदेशी मतों के साथ संघर्ष करने की आवश्यकता नहीं पड़ी। जबकि स्वामी दयानन्द के तो अपनों के साथ साथ विदेशी भी बैरी थे। इस्लामिक आक्रांताओं ने हिन्दुओं के आत्मविश्वास को हिला दिया था। वीर शिवाजी और महाराणा प्रताप सरीखे वीरों से हिन्दुओं की कुछ काल तक रक्षा तो हो पायी। मगर आध्यात्मिक क्षेत्र में हिन्दुओं की जो व्यापक हानि हुई उसे पुनर्जीवित करना अत्यंत कठिन था। रही सही कसर अंग्रेजों ने पूरी कर दी। उन्होंने हमारे देश की आत्मा पर इतना कठोर आघात किया कि हिन्दू समाज अपने प्राचीन गौरव को भूलकर बैठा। स्वामी दयानन्द को हमारे देशवासियों को अपनी प्राचीन ऋषि परम्परा एवं इतिहास से परिचित करवाने के लिए अत्यंत पुरुषार्थ करना पड़ा। भारतीयों के आत्मविश्वास को जगाने के लिए एवं विदेशी मतों को तुच्छ सिद्ध करने के लिए उन्हें उन्हीं की कमी से परिचित करवाना अत्यंत आवश्यक था। इसी प्रयोजन से स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के 13 वें एवं 14 वें समुल्लास की रचना की थी। स्वामी जी के इस पुरुषार्थ का मूल्याङ्कन नहीं हो पाया। अन्यथा समस्त हिन्दू समाज उनका आभारी होता।

हिन्दू समाज की व्याधि को स्वामी दयानन्द ने बहुत भली प्रकार से न केवल समझा अपितु उस बीमारी का उपचार भी वेद रूपी औषधि के रूप में खोज कर दिया। शंकराचार्य के काल में हमारे देश में स्वदेशी राजा था जबकि स्वामी जी के काल में विदेशी राज था। आदि शंकराचार्य से स्वामी दयानन्द का पुरुषार्थ किसी भी प्रकार से कमतर नहीं था। इसके विपरीत स्वामी जी को आदि शंकराचार्य से अधिक विषम चुनौतियों का सामना करना पड़ा। हमें उनके आर्य जाति के लिए किये गए उपकार का आभारी होना चाहिए। यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

मैं इस लेख को थियोसोफिकल सोसाइटी की संस्थापककर्ता मैडम ब्लावट्स्की के कथन से पूर्ण करना चाहुँगा।

"इस कथन में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भारत देश ने आदि शंकराचार्य के पश्चात आधुनिक काल में स्वामी दयानन्द के समान संस्कृत का विद्वान् नहीं देखा, आध्यात्मिक रोगों का चिकित्सक नहीं देखा, असाधारण वक्ता नहीं देखा और अज्ञान का ऐसा निराकरण करने वाला नहीं देखा। "

(नोट- इस लेख का उद्देश्य आदि शंकराचार्य एवं स्वामी दयानन्द के मध्य तुलना करना नहीं है। दोनों हमारे लिए महान एवं प्रेरणादायक है। इस लेख का उद्देश्य यह सिद्ध करना है कि स्वामी दयानन्द को अधिक विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था।इस लेख के लेखन में बावा छज्जू सिंह कृत स्वामी दयानन्द चरित्र का प्रयोग किया गया है।- लेखक)

Adi Shankrachaya and Swami Dayananda





Adi Shankracharya and Swami Dayananda

Dr Vivek Arya

Adi Shankracharya and Swami Dayananda are two greatest pillars in the History of our country. The mission of both personalities was the revival of Vedic Dharma. Both were born in Brahmin family and they fought against birth based Caste system. Both shared same childhood name Shankar and Mool Shankar. Both left their home at tender age. Both attained Vairagya at early age and practiced highest order of celibacy in their life. Both fought against the dogmatic practices on name of Religion. Their books are famous as trinity (three books). Adi Shankracharya’s famous works are the commentary of Gita, Brahamsukta and Upanishads. Swami Dayananda’s famous works are Satyarth Prakash, Rigvedadibashya-bhumuka and Sanskar Vidhi.
  1. Adi Shankracharya raised his voice against the anti Vedic sects like Buddhism and Jainism while Swami Dayananda faced different ritualistic sects/sub-sects among Hindus along with foreign sects like Islam and Christianity.
  2. No doubt that the work of both was difficult and herculean. Adi Shankracharya faced the indigenous sects shaped and fashioned in same workshop of our country. While Swami Dayananda had to contend against both indigenous and alien faiths.
  3. Adi Shankracharya needed to counter the arguments of Buddhists on which they rejected the authority of the Vedas. Swami Dayananda apart form the propagation of the Vedas needed to disapprove the claims of any foreign religion along with the different sects and subsets flourishing in the country.
  4. The opponents of Adi Shankracharya never looked him with hatred. His all opponents were his own countryman. And it is inherent philosophy of Hinduism to respect even our enemy. Swami Dayananda faced stiff resistance from his countryman as well as the foreign countryman. Dayananda the marathon champion accepted this challenge and neutralized all his opponents. His only supporter was the one and only one almighty God.
  5. In case of Adi Shankracharya an extensive knowledge of Hindu metaphysics was altogether necessary to do his work. While in case of Swami Dayananda had to work under entirely different circumstances. He had, unlike Shankracharya, to defend the Vedas not only against the attacks of those who did not admit their authority. He also fought against those who confined them to the unmeaning practices and grand absurd rituals.
  6. Adi Shankracharya era was scholarly era of our country. People used to accept the truth by participating in debates or Shastrarth. This was a huge support to Adi Shankracharya. He managed to implement his vision working on the same methodology. He advised Ujjain King Sunadhava to organize his Shastrarth with the Jain Scholars. The rule was defined that the views of the winner would be acceptable to all. Adi Shankracharya won the debate and he thus earned the supporters as well as the royal patronage in form of the King. On the other hand in the age of Swami Dayananda the Vedic glory was almost forgotten. Dense ignorance prevailed for centuries. Swami ji need to do gigantic effort to remind our countryman about the vast knowledge of Vedas. Our tradition of Shastrarth was forgotten. Swami Dayananda did all efforts to revive it. He even involved the King of Kashi in his debate with the learned Pundits of Benaras. But the Kashi King was different from the King of Ujjain. Instead of supporting the truth,the King of Kashi sided with the Benaras Pundits to dampen the voice of Dayananda. But the God believer Dayananda crossed all obstruction and defended one and only one the Truth.
  7. The Vedas were regarded and given due respect in the age of Adi Shankracharya. The age of Swami Dayananda was quite different. On one side there were disbelievers of the Vedas while on the other side their was a class of Vedic scholars for whom the Vedas were mere ritualistic texts supporting animal sacrifice, black magic and numerous superstitions. A close analytical study by Swami Dayananda convinced him that our people had completely forgotten the strictly scientific and etymological system of understanding the Vedas. Rishis of the Vedic age formulated the means to understand the Vedas but their directions were neglected. Swami Dayananda commentary on Rigveda and Yajurveda fully testifies the difficulties he had to confront when dealing with these people. One can understand his contribution towards the understanding of the Vedas by thoroughly reading his works.
  8. The minds of opponent Pundits in the age of Adi Shankracharya were not so polluted. They were sincere, readily gave-in their support to him at the moment they were proved incorrect. Shankracharya needed to demonstrate their insufficiency and un-tenability of their few opinions. The King as well as the masses followed the Pundits faithfully. Thus, the Shankracharya got early success in his mission of revival of the Hinduism. Swami Dayananda on contrary had to deal with the men of entirely different order. The priestly class of our country was not only ignorant but also lacked knowledge to differentiate between the true and false beliefs. Also the irrational religious practices and ceremonies were their source of income, worldly prosperity, continuation of life and inspiration for their followers. So, they instead of supporting Swami Dayananda opposed him with full force for fulfilling their personal vested interests. They started movement against Swami Dayananda to oppose him up-to any extent. This uphill task already difficult became more difficult due to the wrong attitude by our countrymen. And the foreign based sects added spice to the dish. They also raised their voice in the same tone and frequency against Swami Dayananda. Hindus who had lost the habit of testing the truth long back, instead of learning from Dayananda, preferred to remain blind. They could not respond to the appeal of Swami Dayananada. He offered them a religion which demanded from its votaries the highest exercise of the intellect. The Vedic religion is a religion of reason and no one can fully carry out its behests without intellect. Words of Dayananda fell on the deaf ears of Hindus while in the era of Shankara the knowledge and intellect had not touched so low.
  9. Adi Shankracharya was lucky that he did not face Islam and Christianity. Islamic invaders outraged the Hindus and degraded their intellectual status. Islamic faith lowered the educational and mental status of the Hindus. Hindus lost the capability of appreciating the beauty and truth of their ancient Religion. Hindus somehow survived the torture and cruel rule of Islamic invaders by constant opposition and brave attempts of brave hearts like Shiva Ji and Maharana Pratap. But, the rule of Britishers gave it a last blow. Hindus lost the confidence to counter the allegation raised by the Christian missionary on the religious beliefs and the practices of the Hindus. English education immensely accentuated this effect. Young Hindu mind was so influenced that it started thinking that the western culture and beliefs were always superior to those of our country. Swami Dayananda far vision was readily able to diagnose this disease as well as he invented the remedy for this problem. Swami Dayanand through his analytical research and comparative religion study established the superiority of Vedic Philosophy over the foreign ideas. We are amazed to learn his depth of comparative study in the 13th and 14th Chapter of his famous work, Satyarth Prakash. This remedy was like an instant cure to the diseased body of Hinduism.
Thus, the era of both reformers was entirely different. Shankracharya was born in the age when our country was governed by Hindu polity while Dayananda worked in the age of foreign rule. Though by no means inferior to Shankracharya, either in intellect or in the intensiveness and extensiveness of his learning, Swami Dayananda had to fight against more heavier and greater odds. Greater, much greater in proportion, is then his title to the glory he won, and deeper, much deeper the debt of gratitude which we owe him.

I will like to conclude my article with the statement of Madam Blavatsky, the founder of the Theosophical Society that-

"It is perfectly certain that India never saw a more learned Sanskrit scholar, a deeper meta physician, a more wonderful orator, and a more fearless denunciator of any evil than Dayanand, since the time of Shankracharya."

(Note- We have no intention to compare the two great reformers Adi Shankracharya and Swami Dayananda to prove the superiority of anyone. We respect both of them with full sincerity. We only compared the circumstances and challenges faced by the both reformers- Writer)
With inputs from Life and teachings of Swami Dayanand by Bawa Chajju Singh and Swami Dayananda Saraswati, a critical review of his career together with a short life sketch.

Thursday, April 27, 2017

ईसाई धर्मान्तरण: एक विश्लेषण



ईसाई धर्मान्तरण: एक विश्लेषण 

डॉ विवेक आर्य 

मेरे एक मित्र ने ईसाई मत की प्रचारनीति के विषय में मुझसे पूछा। ईसाई समाज शिक्षित समाज रहा है। इसलिए वह कोई भी कार्य रणनीति के बिना नहीं करता। बड़ी सोच एवं अनुभव के आधार पर ईसाईयों ने अपनी प्रचार नीति अपनाई है। ईसाईयों के धर्मान्तरण करने की प्रक्रिया तीन चरणों में होती हैं। 

प्रथम चरण Inculturation अर्थात संस्कृतीकरण
दूसरा चरण expansion अर्थात विस्तार 
तृतीय चरण domination अर्थात प्रभुत्व 

अंग्रेजी भाषा का एक शब्द है Inculturation अर्थात संस्कृतीकरण।  इस शब्द का प्रयोग ईसाई समाज में अनेक शताब्दियों से होता आया है। सदियों पहले ईसाई पादरियों ने ईसाइयत को बढ़ावा देने के लिए "संस्कृतीकरण" रूपी योजना का प्रयोग करना आरम्भ किया था। इसे हम साधारण भाषा में समझने का प्रयास करते है। 

1. प्रथम चरण में एक बाग में पहले एक बरगद का छोटा पौधा लगाया जाता है। वह अपने अस्तित्व के  संघर्ष करता हुआ किसी प्रकार से अपनी रक्षा कर वृद्धि करने का प्रयास करता है। उस समय वह छोटा होने के कारण अन्य पोधों के मध्य अलग थलग सा नहीं दीखता। 

2. अगले चरण में वह पौधा एक छोटा वृक्ष बन जाता है। अब वह न केवल अन्य पौधों से अधिक मजबूत दीखता है अपितु अपने हक से अपना स्थान घेरने की क्षमता भी अर्जित कर लेता है। अन्य पौधों से खाद,सूर्य का प्रकाश, पानी और स्थान का संघर्ष करते हुए वह उन पर विजय पाने की चेष्टा करता हुआ प्रतीत होता हैं। 
3. अंतिम चरण में वह एक विशाल वृक्ष बन जाता है। उसकी छांव के नीचे आने वाले सभी पौधे संसाधनों की कमी के चलते या तो उभर नहीं पाते अथवा मृत हो जाते हैं।  उसका एक छत्र राज कायम हो जाता हैं। अब वह उस बाग़ का बेताज बादशाह होता है।     

ईसाई समाज में धर्मान्तरण भी इन्हीं तीन चरणों में होता है। 

पहले चरण संस्कृतिकरण में एक गैर ईसाई देश में ईसाइयत के वृक्ष का बीजारोपण किया जाता है। ईसाई मत की मान्यताएं, प्रतीक, सिद्धांत, पूजा विधि आदि को छुपा कर उसके स्थान पर स्थानीय धर्म की मान्यताओं को ग्रहण कर उनके जैसा स्वरुप धारण किया जाता है। जैसे भारत के उदहारण से इसे समझने का प्रयास करते है। 

1. वेशभूषा परिवर्तन- ईसाई पादरी पंजाब क्षेत्र में सिख वेश पगड़ी बांध कर, गले में क्रोस लटका कर प्रचार करते है। हिंदी भाषी क्षेत्र में हिन्दू साधु का रूप धारण कर, गले में रुदाक्ष माला में क्रोस डालकर प्रचार करते है। दक्षिण भाषी क्षेत्र में दक्षिण भारत जैसे परिधान पहनकर प्रचार करते है। 

2. प्रार्थना के स्वरुप में परिवर्तन- पहले ॐ नम क्रिस्टाय नम। ॐ नम माता मरियमय नम। जैसे मनघड़त मन्त्रों का अविष्कार किया जाता है। फिर प्रार्थना गीत आदि लिखे जाते है जिनमें संस्कृत, हिंदी अथवा स्थानीय भाषा का उपयोग कर ईसा मसीह की स्तुति की जाती हैं। जिससे गाने पर यह केवल एक धार्मिक विधि लगे। 

3. त्योहार विधि में परिवर्तन- स्थानीय त्योहार के समान ईसाई त्योहारों जैसे गुड फ्राइडे, क्रिसमस आदि का स्वरुप बदल दिया जाता है। जिसे वह स्थानीय त्योहारों के समान दिखे। कोई गैर ईसाई इन त्योहारों में शामिल हो तो उसे अपनापन लगे। 

4. चर्च की संरचना में परिवर्तन- पंजाब में अगर चर्च बनाया जाता है  गुरुद्वारा जैसा दिखे, हिंदी भाषी क्षेत्र में किसी हिन्दू मंदिर के समान दिखे, दक्षिण भारत में किसी दक्षिण भारतीय शैली जैसा दिखे। चर्च के बाहरी रूप को देखकर हर कोई यह समझे की यह कोई स्थानीय मंदिर है। ऐसा प्रयास किया जाता है।   

5. साहित्य निर्माण- क्रिस्चियन योग, ईसाई ध्यान पद्यति, ईसाई पूजा विधि, ईसाई संस्कार आदि साहित्य के शीर्षकों को प्रथम चरण में प्रकाशित करता हैं। यह  स्थानीय मान्यताओं के साथ अपने आपको मिलाने का प्रयास  होता है। अगले चरण में चर्च स्थानीय भाषा में दया, करुणा,एकता, समानता, ईसा मसीह के चमत्कार, प्रार्थना का फल, दीन दुखियों की सेवा करने वाला साहित्य प्रकाशित करता हैं। इस चरण का प्रयास अपनी मान्यताओं को पिछले दरवाजे से स्वीकृत करवाना होता है। यीशु मसीह को किसी हिन्दू देवता एवं मरियम को किसी हिन्दू देवी के रूप में चित्रित करना चर्च के लिए आम बात है। भोले भाले लोगों को भ्रमित करने की यह कला चर्च के संचालकों से अच्छा कोई नहीं जानता। 

 इस चरण में गैर ईसाई क्षेत्रों में पादरियों की बकायदा मासिक वेतन देकर नियुक्ति होती है। उनका काम दिन-दुखियों की सेवा करना, बीमारों के लिए प्रार्थना करना, चंगाई सभा करना, रविवार को प्रार्थना सभा में शामिल होने के लिए स्थानीय लोगों को प्रेरित करना होता हैं। इस समय बेहद मीठी भाषा में ईसा मसीह के लिए भेड़ों को एकत्र करना एकमात्र लक्ष्य होता है। यह कार्य स्थानीय लोगों के माध्यम घुलमिलकर किया जाता है। जिससे किसी को आपके पर शक न हो। जितने अधिक धर्म परिवर्तन का लक्ष्य पूर्ण होता है उतना अधिक अनुदान ऊपर से मिलता है। यह कार्य शांतिपूर्वक, चुपचाप, बिना शोर मचाये किया जाता हैं।इस प्रकार से प्रथम चरण में स्थानीय संस्कृति के समान अपने को ढालना होता है। इसीलिए इसे संस्कृतिकरण कहते है। हमारे देश में दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, जम्मू कश्मीर, बंगाल आदि राज्य इस चरण के अंतर्गत आते हैं। जहाँ पर चर्च बिना शोर मचाये गरीब बस्तियों में विशेष रूप से दलितों को प्रलोभन आदि देकर उनका धर्म परिवर्तन करने में लगा हुआ है।  

द्वितीय चरण में विस्तार होता है। छोटा चर्च अब एक बड़ा बन जाता है। उसका विस्तार हो जाता है। अब वह छुप-छुप कर नहीं अपितु आत्म विश्वास से अपनी उपस्थिती दर्ज करवाता है। 

1. स्थानीय सभा के स्वरुप में परिवर्तन- अब वह हर रविवार को आम सभा में लाउड स्पीकर लगाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है। अनेक लोग सालाना ईसाई बनने लगते है। अब उसके पादरी ईसाई मत की क्यों श्रेष्ठ है और पगान स्थानीय देवी देवता क्यों असफल हैं। ऐसी बातें चर्च की दीवारों के भीतर खुलेआम बिना रूकावट के बोलने लगते है। न केवल उनका आत्मविश्वास बढ़ जाता है। अपितु वह धीरे धीरे आक्रामक भी होने लगते है। कुछ अंतराल में बड़ी बड़ी चंगाई सभाओं का आयोजन चर्च करता है। पूरे शहर में पोस्टर लगाए जाते है। स्थानीय टीवी पर उसका विज्ञापन दिया जाता है। दूर दूर से ईसाईयों को बुलाया जाता है। विदेशी मिशनरी भी अनेक बार अपनी गोरी चमड़ी का प्रभाव दिखाने के लिए आते है। 

2. चर्च के साथ मिशनरी स्कूल//कॉलेज का खुलना- अब चर्च के साथ ईसाई मिशनरी स्कूल खुल जाता है।  उस  स्कूल में हिन्दुओं के बच्चे मोटी मोटी फीस देकर अंग्रेज बनने आते हैं। उन बच्चों को रोज अंग्रेजी में बाइबिल की प्रार्थना करवाई जाती है।  ईसा मसीह के चमत्कार की कहानियां सुनाई जाती हैं। देश में ईसाई समाज की गतिविधियों के लिए दान कहकर धन एकत्र किया जाता है।  जो हिन्दू बच्चा सबसे अधिक धन अपने माँ-बाप से खोस कर लाता है। उसे प्रेरित किया जाता है। जो नहीं लाता उसे नजरअंदाज अथवा तिरस्कृत किया जाता हैं। कुल मिलाकर इन ईसाई कान्वेंट स्कूल से निकले बच्चे या तो नास्तिक अथवा ईसाई अथवा हिन्दू धर्म की मान्यताओं से घृणा करने वाले अवश्य बन जाते हैं। इसे आप का जूता आप ही के सर बोले तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। 

3. बिज़नेस मॉडल- चर्च अब धर्म परिवर्तित हिन्दुओं को अपने यहाँ रोजगार देने लगता है। चर्च शिक्षा, स्वास्थ्य,अनाथालय, NGO आदि के नाम पर विभिन्न उपक्रम आरम्भ करता है। चपरासी, वाहन चालक से लेकर अध्यापक , नर्स से लेकर अस्पताल कर्मचारी, प्रचारक से लेकर पादरी की नौकरियों में उनकी नियुक्ति होती हैं।  कुल मिलाकर यह एक बिज़नेस मॉडल के जैसा खेल होता हैं। धर्म परिवर्तित व्यक्ति  को इस प्रकार से चर्च पर निर्भर कर दिया जाता है कि अब उसे न चाहते हुए भी चर्च की नौकरी करनी पड़ती हैं। अन्यथा वह भूखे मरेगा। जिससे धर्म परिवर्तित वापिस जाने का न सोचे। यह मॉडल विश्व में अनेक स्थानों पर आजमाया जा चूका हैं। 

4. बाइबिल कॉलेज- चर्च अपने यहाँ पर धर्म परिवर्तित ईसाईयों के बच्चों को चर्च द्वारा स्थापित Theology अर्थात धार्मिक शिक्षा देने वाले विद्यालयों में भर्ती करवाने के लिए प्रेरित करता हैं। इस उद्देश्य दूसरी पीढ़ी को अपने पूर्वजों की जड़ों से पूरी प्रकार से अलग करना होता हैं। इन विद्यालयों में वे बच्चे पढ़ने जाते है जिनके माता-पिता में हिन्दू धर्म के संस्कार होते है। उनके बच्चें एक सच्चे ईसाई के समान सोचे और वर्ते। हिन्दू देवी-देवताओं और मान्यताओं पर कठोर प्रहार करे और ईसाई मत का सदा गुणगान करे। ऐसा उनकी मानसिक अवस्था को तैयार किया जाता है। इन  Theology कॉलेजों से निकले बच्चे ईसाइयत का प्रचाररात-दिन करते हैं। 

5. पारिवारिक कलह - ईसाई चर्च इस कला में माहिर है। जिस परिवार का कोई सदस्य ईसाई बन जाता है तथा अन्य सदस्य हिन्दू बने रहते है। वह घर झगड़ों का घर बन जाता हैं। शुरू में वह ईसाई सदस्य सभी सदस्यों को ईसाई बनने का दबाव बनता हैं। घर के कार्यों में सहयोग न करना। हिन्दू त्योहारों को बनाने का विरोध करना। हिन्दू देवी देवताओं की निंदा करना। अपनी क्षमता से अधिक दान चर्च को देना। अपनी पत्नी और बच्चों को ईसाई न बनने पर संसाधनों से वंचित करना। अपने माँ-बाप को ईसाई न बनने के विरोध में सुख सुविधा जैसे भोजन,कपड़े,चिकित्सा सुविधा आदि न देना। यह कुछ उदहारण है। अपना एक अनुभव साँझा कर रहा हूँ। बात 2003 की है। मैं कोयम्बटूर तमिल नाडु में MBBS का छात्र था। मेरे समक्ष  एक परिवार जो ईसाईयों के पेंटाकोस्टल सम्प्रदाय से था। अपने मरीज का ईलाज करवाने आया। इस ईसाई सम्प्रदाय में दवा के स्थान पर रोगी का ईसा मसीह की प्रार्थना से चंगा होने को अधिक मान्यता दी जाती है। उस परिवार का मुखिया अन्य सदस्यों के न चाहते हुए भी अस्पताल से एक गंभीर रोगी की छुट्टी करवाकर चंगाई प्रार्थना करवाने के लिए चर्च ले गया। रोगी का क्या हुआ होगा सभी समझ सकते है। जो ईसाई यह लेख पढ़ रहे है। वे कृपया आत्मचिंतन करे क्या परिवारों को उजाड़ना यीशु मसीह का कार्य है?

 इस दूसरे चरण में तमिलनाडु, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखण्ड, पंजाब आदि राज्य आते है।  इन राज्यों में सरकारें चर्च की गतिविधियों  की अनदेखी करती है। क्यूंकि वह चर्च के कार्यों में फालतू हस्तक्षेप करने से बचती है। सरकार की नाक के नीचे यह सब होता है मगर वह कुम्भकर्णी नींद में सोती रहती हैं।  

तीसरे चरण में चर्च एक विशाल बरगद बन जाता है। इस चरण को "प्रभुत्व" का चरण कहते है। इस चरण में ईसाई मत का गैर ईसाईयों के प्रति वास्तविक सोच के दर्शन होते है। चर्च के लिए इस चरण में जायज और नाजायज के मध्य कोई अंतर नहीं रहता। वह उसका साम-दाम दंड भेद से अपने उद्देश्य को लागु करने के लिए किसी भी हद तक जाता है। 

1.  हिंसा का प्रयोग -हिंसा पूर्व में उड़ीसा में ईसाई धर्म परिवर्तन का विरोध करने वाले स्वामी लक्ष्मणानंद जी की हत्या करना भी इसी नीति के अंदर आता हैं। उत्तर पूर्वी राज्य त्रिपुरा में रियांग जनजाति बस्ती थी। उस जनजाति ने ईसाई बनने से इंकार कर दिया। उनके गावों पर आतंकवादियों द्वारा हमला किया गया।  उन्हें हर प्रकार से आतंकित किया गया। ताकि वह ईसाई बन जाये। मगर रियांग स्वाभिमानी थे। वे अपने पूर्वजों की धरती छोड़कर आसाम में आकर अप्रवासी के समान रहने लगे। मगर धर्म परिवर्तन करने से इंकार कर दिया। खेद है कि कोई भी मानवाधिकार संगठन ईसाईयों के इस अत्याचार की सार्वजानिक मंच से कभी निंदा नहीं करता।  

2. सरकार पर दबाव- अपने संख्या बढ़ने पर ईसाई समाज एकमुश्त वोट बैंक बन जाता है। चुनाव के दौर में राजनीतिक पार्टियों के नेता ईसाई बिशप के चक्कर लगाते है। बहुत कम लोग यह जानते है कि देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने तो मिजोरम में भारतीय संविधान के स्थान पर बाइबिल के अनुसार राज्य चलाने की सहमति प्रदान की थी। पंजाब जैसे राज्य में सरकार द्वारा धर्म परिवर्तित ईसाईयों के लिए सरकारी नौकरियों में एक प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है। मदर टेरेसा दलित ईसाइयों के आरक्षण के समर्थन में दिल्ली पर धरने में बैठ चुकी है। (कमाल है धर्म परिवर्तन करने के पश्चात भी दलित दलित ही रहते हैं। ) केरल और उत्तर पूर्व में राजनीतिक पार्टियों के टिकट वितरण में ईसाई बहुल इलाकों में चर्च की भूमिका सार्वजानिक हैं। गोवा जैसे राज्य में कैथोलिक चर्च के समक्ष बीजेपी जैसी पार्टियां भी बीफ जैसे मुद्दों पर चुप्पी धारण कर लेती हैं। तमिलनाडु में तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता द्वारा पहले धर्म परिवर्तन के विरोध में कानून बनाने फिर ईसाई चर्च के दबाव में हटाने की कहानी अभी ज्यादा दिन पुरानी बात नहीं हैं। नियोगी कमेटी द्वारा प्रलोभन देकर जनजातियों और आदिवासियों को ईसाई बनाने के विरोध में सरकार को जागरूक करने का कार्य किया गया था। उस रिपोर्ट पर सभी सरकारें बिना किसी कार्यवाही के चुप रहना अधिक श्रेयकर समझती हैं। मोरारजी देसाई के कार्यकाल में धर्म परिवर्तन के विरोध में विधेयक पेश होना था। उस विधेयक के विरोध में मदर टेरेसा ने हमारे देश के प्रधानमंत्री को यह धमकी दी कि अगर ईसाई संस्थाओं पर प्रतिबन्ध लगाया गया, तो वे अपने सभी सेवा कार्य स्थगित कर देंगे। इस पर देसाई जी ने प्रतिउत्तर दिया कि इसका अर्थ तो यह हुआ कि ईसाई समाज सेवा की आड़ में धर्मान्तरण करने का अधिक इच्छुक है।  सेवा तो केवल एक बहाना मात्र है। खेद है कि मोरारजी जी की सरकार जल्दी ही गिर गई और यह विधेयक पास नहीं हुआ। इस प्रकार से ईसाई चर्च अनेक प्रकार से सरकार पर दबाव बनाता है। 

3. गैर ईसाईयों के घरों में प्रभुत्व के लिए संघर्ष- ईसाई समाज से सम्बंधित नौजवान लड़के-लड़कियों को ईसाइयत के प्रति समर्पण भाव बचपन से सिखाया जाता हैं। पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित होने के कारण उनका आपस में वार्तालाप चर्च के परिसर में, युथ प्रोग्राम में, बाइबिल की कक्षाओं में, गर्मियों के कैंप में, गिटार/संगीत सिखाने की कक्षाओं में आरम्भ हो जाता हैं। इस कारण से अनेक युवक युवती आपस में विवाह भी बहुधा कर लेते है। इसके साथ साथ वे अपने कॉलेज में पढ़ने वाले गैर हिन्दू युवक-युवतीयों से भी विवाह कर लेते हैं। इस अंतर धार्मिक विवाह को कुछ लोग सेक्युलर सामाज का अभिनव प्रयोग चाहे कहना चाहे। मगर इस सम्बन्ध का एक अन्य पहलू भी है। वह है प्रभुत्व। ईसाई युवती अगर किसी हिन्दू युवक से विवाह करती है तो वह ईसाई रीति-रिवाजों, चर्च जाने, बाइबिल आदि पढ़ने का कभी त्याग नहीं करती। उस विवाह से उत्पन्न हुई संतान को भी वह यही संस्कार देने का पूरा प्रयत्न करती है। वही अगर ईसाई युवक किसी हिन्दू लड़की से विवाह करता है,  तो वह अपनी धार्मिक मान्यताओं को उस पर लागु करने के लिए पूरा जोर लगाता है। जबकि गैर ईसाई युवक- युवतियां अपनी धार्मिक मान्यताओं को लेकर न इतने प्रबल होते और न ही कट्टर होते है। इस प्रभुत्व की लड़ाई में गैर ईसाई सदस्य बहुधा आत्मसमर्पण कर देते हैं। अन्यथा उनका घर कुरुक्षेत्र न बन जाये। धीरे धीरे वे खुद ही ईसाई बनने की ओर चल पड़ते है। ईसाई समाज के लड़के-लड़कियां हिन्दू समाज के प्रबुद्ध वर्ग जैसे डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत युवक-युवतियों से ऐसा सम्बन्ध अधिकतर बनाते हैं। इस प्रक्रिया के दूरगामी परिणाम  पर बहुत कम लोगों की दृष्टि जाती हैं। कम शब्दों में हिन्दू समाज की आर्थिक, सामाजिक, नैतिक प्रतिरोधक क्षमता धीरे धीरे उसी के विरुद्ध कार्य करने लगती हैं। पाठक स्वयं विचार करे।  यह कितना चिंतनीय विषय है। 

4. व्यापार नीति- बहुत कम लोग जानते है कि संसार के प्रमुख ईसाई देशों के चर्च व्यापार में भारी भरकम धन का निवेश करते हैं। चर्च ऑफ़ इंग्लैंड ने बहुत बड़ी धनराशि इंग्लैंड की बहुराष्ट्रीय कंपनियों में लगाई हुई है। यह विशुद्ध व्यापार है। यह एक प्रकार का चर्च और व्यापारियों का गठजोड़ है। इन कंपनियों से हुए लाभ को चर्च धर्मान्तरण के कार्यों में व्यय करता है। जबकि व्यापारी वर्ग के लिए चर्च धर्मान्तरित नये उपभोक्ता तैयार करता है। एक उदहारण लीजिये चर्च के प्रभाव से एक हिन्दू धोती-कुर्ता छोड़कर पैंट-शर्ट-कोट-टाई पहनने लगता है। व्यापारी कंपनी यह सब उत्पाद बनाती है। चर्च नये उपभोक्ता तैयार करता है। उसे बेचकर मिले लाभ को दोनों मिलकर प्रयोग करते हैं। यह प्रयोग अनेक शताब्दियों से संसार के अनेक देशों में होता आया हैं। प्रभुत्व के इस चरण में अनेक छोटे देशों की आर्थिक व्यवस्था प्रत्यक्ष रूप में इस प्रकार से बहुराष्ट्रीय कंपनियों और परोक्ष रूप से चर्च के हाथों में आ चुकी हैं। यह प्रक्रिया हमारे देश में भी शुरू हो चुकी हैं। इसका एकमात्र समाधान स्वदेशी उत्पादों का अधिक से अधिक प्रयोग हैं। 

5. सांस्कृतिक अतिक्रमण- विस्तार चरण में चर्च सांस्कृतिक अतिक्रमण करने से भी पीछे नहीं हटता। वह उस देश की सभी प्रचीन संस्कृतियों को समूल से नष्ट करने का संकल्प लेकर यह कार्य करता हैं। आपको कुछ उदहारण देकर समझाते है। केरल में कथकली नृत्य के माध्यम से रामायण के प्रसंगों का नाटक रूपी नृत्य किया जाता था। ईसाई चर्च ने कथकली को अपना लिया मगर रामायण के स्थान पर ईसा मसीह के जीवन को प्रदर्शित किया जाने लगा। तमिलनाडु में भरतनाट्यम नृत्य के माध्यम से नटराज/ शिव की पूजा करने का प्रचलन है। चर्च ने भरतनाट्यम के माध्यम से माता मरियम को सम्मान देना आरम्भ कर दिया। हिन्दू त्योहारों जैसे होली,दीवाली को प्रदुषण बताया और 14 फरवरी जैसे फूहड़ दिन को प्रेम का प्रतीक बताकर मानसिक प्रदुषण फैलाया। हर ईसाई स्कूल में 25 दिसंबर को सांता के लाल कपड़े पहन कर केक काटा जाने लगा। देखा देखी सभी हिन्दुओं द्वारा संचालित विद्यालय भी ऐसा ही करने लगे। किसी ने ध्यान नहीं दिया कि वे लोग किसका अँधा अनुसरण कर रहे है। इसे ही तो सांस्कृतिक अतिक्रमण कहते है।

तृतीय चरण में हमारे देश के केरल, उत्तर पूर्वी राज्य नागालैंड, गोवा आदि आते है। जहाँ की सरकार तक ईसाई चर्च की कृपा के बिना नहीं चल सकती। हिन्दुओं की इन राज्यों में कैसी दुर्गति है। समीप जाकर देखने से ही आपको मालूम चलेगा। अगर तीसरा प्रभुत्व का चरण भारत के अन्य राज्यों में भी आरम्भ हो गया तो भविष्य में क्या होगा?  यह प्रश्न पाठकों के लिए है। हिन्दू समाज को अपनी रक्षा एवं बिछुड़ चुके अपने भाइयों को वापिस लाने के लिए दूरगामी वृहद् नीति बनाने की अत्यंत आवश्यकता है। अन्यथा बहुत देर न हो जाये!

(यह लेख मैंने अपने जीवन के पिछले 15 वर्षों के अनुभव के आधार पर लिखा है। दक्षिण, मध्य और उत्तर भारत में रहते हुए मैंने पर्याप्त समय ईसाई समाज के विभिन्न सदस्यों के साथ संवाद किया। यह लेख उसी अनुभव के आधार पर आधारित है। - डॉ विवेक आर्य)

(सलंग्न चित्र में आप संस्कृतिकरण की छाप स्पष्ट देख सकते है। ईसा मसीह को जबरदस्ती श्री कृष्ण के साथ नत्थी करने का प्रयास किया जा रहा है। विस्तार चरण में इन्हीं श्री कृष्ण के चित्र की ईसाई पादरी निंदा करेंगे और प्रभुत्व चरण में जो कोई ईसाई बहुल इलाके में श्री कृष्ण की पूजा करेगा।  उसका पूरा विरोध चर्च  सदस्य करते हैं।)

Vedas on Animal Sacrifice



Vedas on Animal Sacrifice
This is again a big misconception that the Vedas supports Animal Sacrifice in Yajnas. The main reason for this misconception is wrong interpretation of the Vedic Mantras. In the middle ages a class of ignorant pundits arise in scenario who were fond of meat eating. To support their sinful act they started wrong interpretation of the Vedic Mantras. This unjustified act lead to killing of countless innocent animals on name of Vedas. More than that it brought mischief to the name of Vedas as Holy Texts.
There are many evidences from the Vedas which proves that Vedas never supports any violence in form of Animal Sacrifice.
Vedas against Animal Sacrifice
Look on all (Humans as well as Animals) with the eye of a friend. (Yajur Veda).
Friend to all should the Arya be! Friend to all! Sure he cannot destroy the life of any. Therefore he is ordered in the sacred scriptures. (Yajur 42-49).”
Thou shalt not kill the horse; thou shalt not kill the cow; thou shalt not kill the sheep or goat; thou shalt not kill the bipeds;oh man! Protect the gregarious deer; kill not the milch or otherwise useful animals.”Elsewhere the scripture says: “They that trouble others for the sake of their own good are Rakshas (monsters) and they that eat the flesh of birds and beasts are Pishachas (devils) (Yajur 34-51).
For flesh-eating, drinking, gambling and adultery, all, destroy and mar the mental faculties of a man (Atharva VI.7-70-71)
They are sinners as eat raw or cooked flesh or eggs go to destruction. (Atharva VIII.2-26-23).
The Veda considers the protection of animals to be a very sacred act—so, so very sacred that it lays down that a husband should solemnly ask his wife on the occasion of marriage “to be kind to animals and to try to protect the happiness of all bipeds and quadrupeds.” In return the husband promises to do the same.Further the Veda lays down that they who kill men or slay cows should be outlawed and ostracised (Rig I.16-114).
We must also learn about the meaning of word Yajna. The Yajna word is derived from Diva which has the following meanings:
(1) Krida.. Play and Diversion.
(2) Vijigisha.. Desire for Victory.
(3) Vyavahar.. Social Relations.
(4)Dyuti.. Sight.
(5)Stuti.. Praise.
(6)Moda.. Happiness.
(7)Mada.. Self-Consciousness.
(8)Swapana.. Negation of motion.
(9)Kanti.. Glory.
(10)Gatishu.. Knowledge, motion, and attainment.
Thus Yajna may be defined as “the association of men and concentration of powers for social happiness, conquest over nature or enemy (of one’s county or humanity); promotion of the well-being of society; the propagation and dissemination of enlightened principles; the maintenance of national self-respect; the increase of national glory; and the cultivation of acts of peace and war. It may also be added that Yajna also means such concentrated effort as secures man spiritual advancement and salvation. That the word Yajna was used in the above sense by the Vedic Aryas may be established by referring to certain well-known practices of the Rishis.
THE ASHWAMEDHA—HORSE SACRIFICE.
A great mischief has been caused by the misinterpretation of this Yajna. To understand the true significance of this Yajna we must understand what Ashwa is. As it is usually with the Vedic words, this word has a great number of meanings. Aurovindo Ghosh has emphasized the fact that the Vedic roots have various meanings. In supporting his position he has referred to the words ’Chandra’ and ’Gau.’ Ashwa according to the Shatapatha Brahmana (XIII.3.3) means God. Taking hold of this meaning we can without the least hesitation say that Ashwa Medha has spiritual significance. Ashwa means horse as well as all such physical forces which can enable us to move quickly. In another place we read Ashwa, the Agni (heat) carries, like the animals of conveyance, the learned who recognize its distance-carrying properties (Rig. 1.27-1). This idea is also supported by Shatapatha (III.3.29-30). On this principle Pt. Gurudatta translates the hymn of the Rig Veda. His translation of the opening verse is as under:
“We will describe the power generating virtues of the energetic horses endowed with brilliant properties or the virtues of the vigorous force of heat which learned or scientific men can evoke to work for purposes of appliances (not sacrifice).Let not philanthropists, noble men, judges, learned men, rulers, wise men and practical mechanics ever disregard these properties.”
Ashwamedha also refers to polity. Political wisdom should so pervade the notion as Ashwa(God) pervades the universe. This is supported by the Shatapatha in the following words: “A king administers justice to his subjects, governs them properly, encourages learning among them, and performs homa by throwing the samagri (odoriferous materials),clarified butter in fire. This is Ashwamedha.”
On this principle the great Swami Dayanand Saraswati translates the 23rd chapter of the Yajur Veda. The learned writer strengthens his position by quoting [Rigveda] i.21, Shatapatha XIII.2.12.14-17, XIII.1.3.2, 2.6.15-17 and also XIII.2.2.4-5 and several other authorities.
The greatest argument in favor of this translation is that in it there is nothing immoral, obscene and disgusting as is to be seen in the sacrificial translation. The Mimansis—our great authority on interpretation—say that we must always take for granted that the teaching of the Rishis are always reasonable and rational.
THE GOMEDHA—COW-SACRIFICE.
It is a well-known fact that from ages immemorial the Hindus have been looking upon the cow as a sacred animal, so much so that they call it their ’Mata’ (mother). One cannot conceive how this people could have ever offered their most sacred animal to fiendish gods. But the priests and orientalists say so; and for their statement they find support in the Shastras. As in the case of Ashwa Medha so here their dogmatism is founded in ignorance of the true significance of the words, ’ Go’ and ’Gomedha.’ Gomedha Yajna, therefore, is the method of improving, controlling and purifying speech. Go means earth. This meaning is also given in Nirukta. It also can be seen in such English compounds as Geography,Geometry, Geology, etc. (the hard sound being changed up soft one). Therefore Gomedha means cultivation and purification of earths.
Go means ray of light. This would make Gomedha, a science which teaches us the proper use of the rays of the sun and moon. This meaning of Go is clear from Gotaw which is another word for the moon (Chandra).Go means a sense. This meaning can be seen in the Sanskrit word Go char a which means the range or object of our senses. With this meaning Gomedha becomes an attempt or effort to control one’s senses.
That the above meanings are the real ones is proved by the following passage of the Shatapatha Brahmana as given by Swami Dayanand:
Gomedha means control of senses, purification of the days of light, of earth, dwelling place, etc.” The same Brahman calls speech a Yajna (III.r.)
That Gomedha cannot mean cow sacrifice could be established by referring to:
(i).Shatapatha (III.1.2.21) wherein it is said that he that eats the flesh of a cow or an ox is destroyer of all.
(ii).Rig Veda (1.16.5-40) and Atharva Veda (IX.5.10.5) says that where cow is called Aghanya (that which should not be killed).
(iii). Nighantu (1-8) wherein a Yajna is said to be Adhvara or such act as does not permit any kind of injury
Thus its clear by the evidences from Vedas as well as related Texts that Vedas do not support animal sacrifice in any way.
Well, then, may it be said that the practice of killing before God and in His name His own creatures being against Ahimsa is decidedly irreligious!
Dr Vivek Arya

Tuesday, April 25, 2017

महर्षि दयानंद के विषय में समाज सुधारकों/चिंतकों के विचार


महर्षि दयानंद के विषय में समाज सुधारकों/चिंतकों के विचार

*१*- “स्वराज्य और स्वदेशी का सर्वप्रथम मन्त्र प्रदान करने वाले जाज्वल्यमान नक्षत्र थे दयानंद |” – लोक मान्य तिलक

२- “आधुनिक भारत के आद्द्निर्मता तो दयानंद ही थे | महर्षि दयानन्द सरस्वती उन महापुरूषो मे से थे जिन्होनेँ स्वराज्य की प्रथम घोषणा करते हुए, आधुनिक भारत का निर्माणकिया । हिन्दू समाज का उद्धार करने मेँ आर्यसमाज का बहुत बड़ा हाथ है।- नेता जी सुभाष चन्द्र बोस

३- “सत्य को अपना ध्येय बनाये और महर्षि दयानंद को अपनाआदर्श|”- स्वामी श्रद्धानंद

४- “महर्षि दयानंद इतनी बड़ी हस्ती हैं के मैं उनके पाँवके जूते के फीते बाधने लायक भी नहीं |”- ए .ओ.ह्यूम

५- “स्वामी जी ऐसे विद्वान और श्रेष्ठ व्यक्ति थे, जिनका अन्य मतावलम्बी भी सम्मान करतेथे।”- सर सैयद अहमद खां

६- “आदि शङ्कराचार्य के बाद बुराई पर सबसे निर्भीक प्रहारक थे दयानंद |”- मदाम ब्लेवेट्स्की

७- “ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव लोगों को कारागार से मुक्त कराने और जाति बन्धन तोड़ने के लिए हुआ था। उनका आदर्श है-आर्यावर्त ! उठ, जाग, आगे बढ़।समय आ गया है, नये युग में प्रवेश कर।”- फ्रेञ्च लेखक रिचर्ड

८- “गान्धी जी राष्ट्र-पिता हैं, पर स्वामी दयानन्द राष्ट्र–पितामह हैं।”- पट्टाभि सीतारमैया

९- “भारत की स्वतन्त्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानन्द ने डाली थी।”- सरदार पटेल

१०- “स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने आर्यावर्त (भारत)आर्यावर्तीयों (भारतीयों) के लिए की घोषणा की।”-एनी बेसेन्ट

११- “महर्षि दयानंद स्वाधीनता संग्राम के सर्वप्रथम योद्धा थे |”-वीर सावरकर

१२- “ऋषि दयानंद कि ज्ञानाग्नि विश्व के मुलभुत अक्षर तत्व का अद्भुत
उदाहरण हैं |”-डा. वासुदेवशरण अग्रवाल

१३- “ऋषि दयानंद के द्वारा कि गई वेदों कि व्याख्या कि पद्धति बौधिकता,
उपयोगिता, राष्ट्रीयता एव हिंदुत्व के परंपरागत आदेशो के अद्भुत योग का परिणाम हैं |” -एच. सी. ई. जैकेरियस

१४- “स्वामी दयानंद के राष्ट्र प्रेम के लिए उनके द्वारा उठाये गए कष्टों, उनकी हिम्मत, ब्रह्मचर्य जीवन और अन्य कई गुणों के कारण मुझको उनके प्रति आदर हैं | उनका जीवन हमारे लिए आदर्श बन जाता हैं | भारतीयों ने उनको विष पिलाया और वे भारत को अमृत पीला गए|”-सरदार पटेल

१५- “दयानंद दिव्य ज्ञान का सच्चा सैनिक था, विश्व को प्रभु कि शरणों में लाने वाला योद्धा और मनुष्य व संस्थाओ का शिल्पी तथा प्रकृति द्वारा आत्माओ के मार्ग से उपस्थितकि जाने वाली बाधाओं का वीर विजेता था|”-योगी अरविन्द

१६- “मुझे स्वाधीनता संग्राम मे सर्वाधिक प्रेरणा महर्षि के ग्रंथो से मिली है |”-दादा भाई नैरो जी

१७- “मैंने राष्ट्र, जाती और समाज की जो सेवा की है उसकाश्री महर्षि दयानंद को जाता है|”-श्याम जी कृष्ण वर्मा

१८- स्वामी दयानन्द मेरे गुरु है मैने संसार मेँ केवल उन्ही को गुरु माना है वे मेरे धर्म के पिता है और आर्यसमाज मेरी धर्म की माता है, इन दोनो की गोदी मे मै पला हूँ, मुझे इस बात का गर्व है कि मेरे गुरु ने मुझे स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाया । -पंजाब केसरी लाला लाजपत राय

१९- “राजकीय क्षेत्र मे अभूतपूर्व कार्य करने वाले महर्षि दयानंदमहान राष्ट्रनायक और क्रन्तिकारी महापुरुष थे |”- लाल बहादुर शास्त्री

२०- सत्यार्थ प्रकाश का एक-एक पृष्ठ एक-एक हजार का हो जाय तब भी मै अपनी सारी सम्पत्ति बेचकर खरीदुंगा उन्होने सत्यार्थ प्रकाश को चौदह नालो का तमंचा बताया।-पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी

२१- मै उस प्रचण्ड अग्नि को देख रहा हूँ जो संसार की समस्त बुराइयोँ को जलाती हुई आगे बढ़ रही है वह आर्यसमाज रुपी अग्नि जो स्वामी दयानन्द के हृदय से निकली और विश्व मे फैल गयी ।- अमेरिकन पादरी एण्ड्यू जैक्सन

२२- आर्यसमाज दौडता रहेगा तो हिन्दू समाज चलता रहेगा। आर्यसमाज चलता रहेगा, तो हिन्दूसमाज बैठ जायेगा। आर्यसमाजबैठ जायेगा तो हिन्दूसमाज सो जायेगा। और यदि आर्यसमाज सो गया तो हिन्दूसमाजमर जायेगा।- पंडित मदन मोहन मालवीय

२३- सारे स्वतन्त्रता सेनानियोँ का एक मंदिर खडा किया जाय तो उसमेँ महर्षि दयानन्द मंदिर कीचोटी पर सबसे ऊपर होगा।- श्रीमती एनी बेसेन्ट

२४- महर्षि दयानन्द इतने अच्छे और विद्वान आदमी थे कि प्रत्येक धर्म के अनुयायियो के लिए सम्मान के पात्र थे।- सर सैयद अहमद खाँ

२५- अगर आर्यसमाज न होता तो भारत की क्या दशा हुई होती इसकी कल्पना करना भी भयावह है। आर्यसमाज का जिस समय काम शुरु हुआ था कांग्रेस का कहीँ पता ही नही था । स्वराज्य का प्रथम उद्धोष महर्षि दयानन्द ने ही किया था यह आर्यसमाज ही था जिसने भारतीय समाज की पटरी से उतरी गाड़ी को फिर से पटरी पर लाने काकार्य किया। अगर आर्यसमाज न होता तो भारत-भारत न होता।- अटल बिहारी बाजपेयी

What is great about Indian History?





What is great about Indian History?

Dr Vivek Arya

Indian civilization is the greatest civilization in the World’s History. India in past was glorified with its rich heritage and culture. No doubt India was the world teacher for centuries. Today western scholars are not interested in giving its credit to India. Many of them describes Indian race as barbaric and uncivilized race. This is a planned conspiracy to defame our country.

Still many unbiased scholars praised our contribution towards the world learning.

Here are few of the reviews.

On Glory of Vedas

Albert Einstein, American scientist: "We owe a lot to the Indians, who taught us how to count, without which no worthwhile scientific discovery could have been made."

Will Durant, American historian: "India was the motherland of our race, and Sanskrit the mother of Europe's languages: she was the mother of our philosophy; mother, through the Arabs, of much of our mathematics".

Mark Twain, American author: " Our most valuable and most instructive materials in the history of man are treasured up in India only."

Henry David Thoreau, American Thinker & Author:" Whenever I have read any part of the Vedas, I have felt that some unearthly and unknown light illuminated me. In the great teaching of the Vedas, there is no touch of sectarianism. It is of all ages, climbs, and nationalities and is the royal road for the attainment of the Great Knowledge. When I read it, I feel that I am under the spangled heavens of a summer night."

R.W. Emerson, American Author:" In the great books of India, an empire spoke to us, nothing small or unworthy, but large, serene, consistent, the voice of an old intelligence, which in another age and climate had pondered and thus disposed of the questions that exercise us."

William James, American Author: "From the Vedas we learn a practical art of surgery, medicine, music, house building under which mechanized art is included. They are encyclopedia of every aspect of life, culture, religion, science, ethics, law, cosmology and meteorology."

Hu Shih, former Ambassador of China to USA: "India conquered and dominated China culturally for 20 centuries without ever having to send a single soldier across her border."

On the Vedas and Upanishads Books:

Max Muller, German Scholar: "There is no book in the world that is so thrilling, stirring and inspiring as the Upanishads." ('Sacred Books of the East')

Emmelin Plunret: "They were very advanced Hindu astronomers in 6000 because. Vedas contain an account of the dimension of Earth, Sun, Moon, Planets and Galaxies." ('Calendars and Constellations')

Schopenhauer: "Vedas are the most rewarding and the most elevating book which can be possible in the world." (Works VI P.427)

Wheeler Wilcox: "India - The land of Vedas, the remarkable works contain not only religious ideas for a perfect life, but also facts which science has proved true. Electricity, radium, electronics, airship, all were known to the seers who founded the Vedas."

B.G. Rele: "Our present knowledge of the nervous system fits in so accurately with the internal description of the human body given in the Vedas (5000 years ago). Then the question arises whether the Vedas are really religious books or books on anatomy of the nervous system and medicine." ('The Vedic Gods')

On Sanskrit:

Sir William Jones, British Orientalist: "The Sanskrit language, whatever be its antiquity is of wonderful structure, more perfect than the Greek, more copious than the Latin and more exquisitely refined than either."

Professor Leonard Bloomfield (1887-1949) of Chicago University holds that Sanskrit language specially the scientific basis of its grammar is "one of the greatest monuments of human intelligence."

William Humboldt of Germany is of opinion that language cannot be created artificially, it is the manifestation of power and divinity in man.

We must feel pride on our Rich Heritage and Culture.

Sunday, April 23, 2017

Contribution of Swami Dayanand towards the understanding of the Vedas.





Contribution of Swami Dayanand towards the understanding of the Vedas.

Dr Vivek Arya

Swami Dayanand, the founder of Aryasamaj dedicated his whole life towards the propagation of the message of the Vedas. Swami Dayanand completed the commentary on Yajurveda and up-to the 7th mandala of the Rigveda. He also published Rigvedadibhashya-bhumika [preface to the four Vedas] as introduction to the Vedas. Before Swami Dayanand advent, Vedas were considered as a book of cumbersome rituals confined to the priest class.Swami ji not even made the Vedas accessible to the common man but also made their interpretation useful and worthy for everyone. He established certain landmarks for the understanding of the Vedas. This article is dedicated towards the understanding of contribution of Swami Dayanand to the Vedas.

Rigveda-10 mandalas, 1028 sukatas and 10552 mantras.

Yajurveda-40 Chapters and 1975 mantras.

Samaveda- 3 Archikas and 1873 mantras.

Atharveda- 20 kandas, 731 Suktas and 5977 mantras.

There are total 20,377 mantras in all four Vedas.

Landmarks established by Swami Dayanand

The authenticity of the Vedas

Swami Dayanand says that the Vedas are self sufficiently authoritative being the creation of the God. The Vedas being the perfect knowledge of God is not dependent on other man made texts. The texts other than the Vedas are considered true only if they are in accordance with the Vedas. Swami Dayanand in Satyarth Prakash writes that

“Of these [books other than the Vedas] too, those which appear to be contradictory to the Vedas, should be rejected; for the Vedas being created by the God, are infallible and self-sufficiently authoritative, that is to say, the Vedas are their own authority.”

Thus, Swami Dayanand established the landmark of supreme and self testified authority of the Vedas.

Revelation and the Rishis

Swami ji said that God is all knowing. So, he revealed his supreme knowledge of Vedas for the benefit of whole mankind. Swami ji said that the four Vedas Rigveda, Yajurveda, Samaveda and Atharveda were revealed in the conscience of the four Rishis Agni, Vayu, Aditya and Angira respectively by God.  God is all powerful and all pervading. So, he does not need mouth or vocal organs to reveal his knowledge. The four seers were not composer of the Vedas. They only realized and expounded the meaning of the Vedic verse. Thus, the Vedas are self authoritative true knowledge of God revealed to the four Rishis.

The Nirukta by Yaskacharya defines Rishi as one who sees or understands the meaning of the mantra.  Rishi is not one who created mantra but who realized the meaning of the mantra.

Thus, Swami Dayanand established the landmark that the Vedas were not composed by the four Rishis but realized by the four Rishis. God is the ultimate composer of the Vedas.

No History in the Vedas

One of the biggest achievement of Swami Dayanand was to establish this fact that Vedas are not History books just like Bible or Quran. Swami ji first established this fact that the four Vedas were revealed with the beginning of Human life. So, no question of inclusion of history appears in front of the Vedas. They were not created after passing of certain passage of time just like the Abrahamic beliefs. This confusion regarding History in Vedas arises due to misunderstanding of the Vedic words. There are certain words like Visvamitra, Vasistha, Urvashi etc. in the Vedas. There is an obsession among the Indian Acharyas like Sayana, Mahidhara and other Western indologists to impose history in Vedas using these words. To interpolate history using Vedic words lead to lot of confusions. Certain mantra seems to be promoting animal sacrifice, black magic, obscenity, polygamy etc. due to historical misinterpretation of the Vedas. Thus, this misinterpretation brought a bad name to the Vedas. Swami Dayanand established that there are three classes of meaning in the embellishment of language. They are Yaugika, Yogrurhi and Rurhi. Yaugika signifies the meaning of its root. Rurhi is the common name of definite concrete object. Yogrurhi is a combination of the both. Rishis in Vedic times regards Vedic terms to be Yaugika and Yogrurhi only. While the later age Acharyas regards them as Rurhi only. Swami Dayanand followed the way of ancient Rishis. He proved that the real sense of Vedas could only be reached by considering their root meaning.

Thus, Swami Dayanand established the landmark that there is no history in the Vedas.

The source of all True Knowledge and Sciences

Swami Dayanand is regarded as first scholar in modern times who welcomed the modern sciences. Before him it was believed that Science and Religion are enemies. Swami Dayanand established that they are allies not enemies. Swami ji in his work Rigvedadibhashya-bhumika proved that Vedas are the source of all true knowledge. He said that there is no self contradiction in the Vedas. Swami Dayanand quoted different mantras teaching us science of Astronomy, Medicine, Telegraphy etc. He considered that Vedas possess all seeds of knowledge embedded in them.

Maxmuller commented on Swami Dayanand's observation of science in Vedas as, “To him (Swami Dayanand) not only was everything contained in the Vedas perfect truth, but he went a step further, and by the most incredible interpretations succeeded in persuading himself and others that everything worth knowing, even the most recent inventions of modern science, were alluded in the Vedas.”

[Ref. F. Maxmuller,1884, Biographical Essays,Longman Green and Company, London,P.31]

Thus, Swami Dayanand established the landmark that the Vedas bear all true knowledge and Sciences.

Vedas and Monotheism

One of the most revolutionary landmark established by Swami Dayanand was that the Vedas preach Monotheism. It means only one God. Swami Ji proved that in Vedas God is one and he has countless qualities. He is called by different names .These names also apply on different material entities.

Take an example from first mantra of Rigveda.

ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्तिजम् । होतारं रत्नधातरम् ॥१॥

God is mentioned in this mantra by word ‘Agni’. Most of Acharyas and western indologists interpret Agni as materialistic fire. Swami Dayanand interprets using ancient method as the source of illumination of all noble activity.

In similar way Swami Dayanand interprets different words like Agni, Vayu , Aditya, Savita, Indra, Varna etc. as different names of one God as well as materialistic names. This interpretation was based on the method adopted by Ancient Rishis using Nirukta (Vedic Philology). This helps not even in establishing the fact that Vedas preach Monotheism but also there is no History in the Vedas. There is again a misconception that Swami Dayanand adopted the monotheistic concept in Vedas from the ideology of Islam and Christianity. It is again a myth because there are multiple mantras in Vedas supporting Monotheism.

Few Vedic Mantras supporting Monotheism in Vedas

Yajurveda 40.1:


This entire world is embedded within and managed by the One and Only One Ishwar. Never dare do any injustice or desire riches through unjust means. Instead follow the righteous path and enjoy His bliss. After all He alone is source of all bliss!

Rigveda 10.48.1:


Ishwar alone is omnipresent and manager of entire universe. He alone provides victory and eternal cause of world. All souls should look up only to Him in same manner as children look up to their Father. He alone provides for our sustenance and bliss.

Rigveda 10.49.1


Ishwar alone provides true knowledge to truth seekers. He alone is promoter of knowledge and motivates virtuous people into noble actions to seek bliss. He alone is the creator and manager of the world. Hence never worship anyone else except one and only Ishwar.

Atharvaveda 13.4.16-21


He is neither two, nor three, nor four, nor five, nor six, nor seven, nor eight, nor nine, nor ten. He is, on contrary, One and Only One. There is no Ishwar except Him. All devtas reside within Him and are controlled by him. So He alone should be worshiped, none else.

Thus, Swami Dayanand established this landmark that Vedas preach Monotheism.

Vedas and Devta

Swami Dayanand solved one of the biggest riddle regarding Vedas. It was assumed that the Vedas preach bahudevtavad or multiple Gods. After establishing the fact that Vedas preach Monotheism Swami ji solved the mystery of multiple devtas in Vedas. Vedas speak about multiple devtas like Indra, Vayu, Agni, Varuna etc. The earlier Acharyas and western indologists established the concept of Polytheism on basis of multiple devtas in Vedas. Swami dayanand interpreted the true meaning of the word ‘Devta

He writes that devta word can be used for any entity who provides us with knowledge, wisdom, peace, happiness and light. This interpretation was based on Nirukta 7/15. Now the following entities qualify to be called as devta as per Vedic philosophy.

1. The one and only almighty God who provides us everything.

2. King or Ruler who provides security and welfare.

3. Parents or Caretaker who provide all means of help and guidance.

4. Guru or Teacher who provides all sorts of knowledge and wisdom.

5. Traders who bring prosperity to the kingdom.

6. Five elements of nature who provide us all comforts like Sun, Water, Air, Earth and Sky.

Overall any entity which help us, benefit us in our life is Devta. So, all are respectable for us but the only one who is to be worshiped is the one almighty God.

Thus, Swami Dayanand established this landmark that Vedas speak of worship of only one God and respect to all Devtas.

Vedas and Idol worship

Swami Dayanand was the only scholar in modern times who established this fact that the Vedas do not support idol worship. Swami ji established that God is formless and omnipresent according to the Vedas. He could not be confined to small idols and an idol cannot represent him. Swami ji advocated worship of formless God through Stuti,Prarthna and Upasana.

Swami Dayanand provided with different mantras from Vedas like Yajurveda 32/3 : "Na tasya Pratima asti" means "There is no image of Him."

Swami Dayanand faced stiff resistance on his stand against idolatry especially from the Hindu society. Ironically he was not the only one to raise voice against idolatry. Before him Adi Shankracharya, Kabir, Nanak, Dadu, Basava etc. raised voice against idolatry analysing its demerits.

Thus, Swami Dayanand established this landmark that Vedas do not support idol worship.

The Vedas and the Yajna

Swami Dayanand revolutionary teachings related to Vedas was to dispel the myth that the Vedas support animal sacrifice in Yajnas. The middle age Acharyas like Sayana, Mahidhara and the western indologists were very keen to prove that the Vedas support animal sacrifice. This led to lot of confusion among the readers of the Vedas. Swami Dayanand revolutionized this belief that Vedas support non violence. Due to the vested interests or the erroneous understandings, these writers made baseless pronouncements regarding animal killing in the Vedas.

 Swami Dayanand established that the Cow is considered as adhvara (never to be killed) and aghanya (never to be hurt) in the Vedas. He also clarified the true meaning of Ashvamedha is not to kill horse but to serve the nation. Gomedha is not to kill Cow but to sanctify grain, body parts, rays and the earth. Narmedha is not to kill human being but to do ritualistic last rites after death.

I will like to quote Mahabharta shantiparva 26/59 which says that

"It is only the villains who have brought in the corruption of liquor and non-vegetarianism in Yajna. The Vedas have no where indicated it."

Thus, Swami Dayanand established this landmark teaching that the Vedas no where endorse meat eating and animal sacrifice in the Yajnas.

Right to Vedic Learning

Swami Dayanand biggest gift to the whole humanity is the right to learn Vedas irrespective of caste, creed or religion. During his days it was widely prevalent on our country that the shudras and women were forbidden to study or to even hear the Vedas. After centuries of discrimination Swami Dayanand opened the door of Vedas for everyone. Swami Ji paved the way for the emancipation of women and upliftment of the dalits . He clearly said that every human being has the right to study the Vedas.

The self testimony of the Vedas will prove his stand.

Yajurveda 26 /2 God says O! Humans i gift you with this blissful knowledge of Vedas for all Brahman, Kshatriya, Vaishya as well as Shudra. This knowledge is for benefit of everyone.

[God do not deny the knowledge of Vedas for Shudras. Shudras enjoys equal right to read Vedas as a Brahman. ]

Atharveda 19/62/1 I pray to God that O God! Let all Brahmans, Kshatriyas, Vaishyas and Shudras glorify me.

[Vedas do not discriminate between different classes.They consider everyone as equal.]

Yajurveda 18/46 says that O God make me so gentle that all Brahmans, Kshatriyas, Vaishyas and Shudras have affection for me.

[Vedas speak of good relations with all four classes]

Rigveda 5/60/5 says There is no one superior or inferior in the Vedas. All are equal just like brothers.All should help each other to attain the pleasures of this as well as the other world.

[This mantra considers all humans as equal irrespective of their duties.]

Swami Dayanand was the first person to publish the translation of the Vedas in Hindi and the credit of making the Vedas accessible to one and all, goes to him.

Thus, Swami ji established the landmark of

                                                    “Vedas for everyone”.

I will like to conclude this article by the comments of Sadhu T.L.Vasvani

“Swami Dayanand was in the first place, India's eye opener to the wisdom of the Vedas. I know none in modern India who was a so great a scholar as a Swami ”



Inputs from

Rigvedadibhashyabhumika by Swami Dayananad.

Satyarth Prakash by Swami Dayanand.

The Vedas by Dr Ramprakash

Aryasamaj and the Vedic worldview.

Vedon ka Yatarth Swarup by Dharamdev vidyamartnand

Arsh jyoti by Ramnath vedalankar

Pashu Yagya Mimansa by Vishvanath Vedalankar

Vedon ko jane by Dr Vivek Arya