Friday, September 18, 2020

दान दिये धन ना घटे


दान दिये धन ना घटे
(दान प्रशंसा सूक्त)

-प्रो० रामप्रसाद वेदालंकार

ऋग्वेद : मण्डल-१०, सूक्त-११७, मन्त्र-१
ऋषि:- भिक्षु:। देवता- धनान्नदानप्रशंसा।

दान देने से धन घटता नहीं।
न वा उ देवा: क्षुधमिद् वधं ददुरुताशितमुपगच्छन्ति मृत्यव।
उतो रयि: पृणतो नोपदस्यत्युतापृणन्मर्डितारं न विन्दते।।१।।

अन्वय:- क्षुदम् इत् वधं, देवा: वै न उ ददु:, उत आशितं मृतय+उपगच्छन्ति। उत उ पृणतः रयि: न उनदस्यति। उत अपृणन् मर्डितारं न विन्दते।

१ केवलाघो भवति केवलादी।। ऋ० १०/११७/६
सं० अन्वयार्थ- केवल भूखों को ही मौत नहीं मारती। भूखे ही मरते हैं देवों ने कभी ऐसा नहीं कहा। वे तो कहते हैं कि मरते वे भी हैं जिनके पेट भरे रहते हैं और दाता का ऐश्वर्य क्षीण नहीं होता तथा जो अदाता-कृपण-कंजूस है, उसको कभी समय आने पर सुख देने वाला नहीं मिलता।

अन्वयार्थ- (क्षुधम् इत् वधं, देवा: वै न ददु:) भूखों को ही मृत्यु प्राप्त होती है, देवों-विद्वानों ने निश्चय ही यह विचार नहीं दिया, अर्थात् केवल भूखे व्यक्ति ही मरते हैं, देवों ने यह ही नहीं माना (उत् आशितं मृत्यव: उपगच्छन्ति) मृत्युएं भर पेट खाए पिये मनुष्यों को भी प्राप्त होती हैं। अर्थात् जिनका पेट भरा रहता है, मरते वे भी हैं। ऐसा देव जन मानते हैं। (उत उ पृणत: रयि: न उपदस्यति) और यह भी निश्चित है कि दाता का ऐश्वर्य कभी क्षीण नहीं होता, (उत अपृणन् मर्डितारं न विन्दते) और अदाता अर्थात् दूसरे को अपने धन-अन्न से न तृप्त करने वाला कभी समय आने पर अपने को सुख देने वाले को नहीं पाता।

भावार्थ- संसार में सिर्फ भूखे ही नहीं मरते वरन् जो भरपेट खाते हैं, मौत उन्हें भी नहीं छोड़ती। दाता का धन कभी घटता नहीं कभी क्षीण नहीं होता। इस पर भी अपने धन-अन्न आदि से जो किसी को सुख नहीं देता, तो समय आने पर उस को भी कोई सुख देने वाला नहीं मिलता।

व्याख्या- लोग प्रायः यही समझते हैं कि जो दुनिया में भूखे हैं, प्यासे हैं, नंगे हैं, वे ही केवल मरते हैं। परन्तु वेदों के अनुसार देवों की मान्यता है कि केवल वे ही नहीं मरते, जो भूखे-प्यासे हैं, वरन् मृत्यु उन्हें भी नहीं छोड़ती जिनका पेट भरा रहता है। संसार की इस सत्यता को देखकर मनुष्य को चाहिए कि यदि सौभाग्य से उसके घर में अन्न है, जल है, वस्त्र है, धन है तो वह अपने साथ-साथ दूसरों की भूख मिटाने का प्रयास भी करे, दूसरों की प्यास बुझाने का भी प्रयत्न करे, दूसरों के तन को ढककर उनकी लाज बचाने की कोशिश करे, दूसरों की धन से भी मदद करे। यदि वह ऐसा करेगा, तो वेद माता के अनुसार उसको यह निश्चित समझना चाहिए कि- 'पृणत: रयि: न उपदस्यति।' जो दूसरों को दान देता है जो दूसरों का तन ढककर दूसरों की लाज बचाता है, जो दूसरों को कपड़ा-लत्ता देकर उनको सर्दी गर्मी से बचाता है, जो दूसरों को अपने अन्न-जल आदि से तृप्त करता है, तो उसका वह दिया हुआ धन आदि व्यर्थ नहीं जाता। उससे जहां दूसरों को सुख मिलता है, तृप्ति मिलती है, जीवन मिलता है, वहां इनका भी हृदय प्रसन्न होता है, और इससे दाता का धन घटता भी नहीं अपितु प्रभु की महती अनुकम्पा से, महापुरुषों के आशीर्वाद से, अपने हितैषियों की मंगलकामनाओं से तथा दीन-दुखियों की हृदय से निकली हुई दुआओं से वह तो फिर और अधिक बढ़ता है।
देखो, यह धरती माता कितनों को खिलाती हैं, कितनों को पिलाती हैं, कितनों को पहनाती-ओढ़ाती हैं, कितनों की झोलियाँ धन-अन्न, फल-मूल, रत्न-मणियों आदि से भरती हैं, फिर भी इन सब पदार्थों से उसकी झोली कभी रिक्त नहीं होती। सूर्य अपने प्रकाश से चौबीसों घण्टे पृथिवी आदि को सतत् प्रकाश प्रदान करता रहता है, तेज प्रदान करता रहता है, फिर भी वह ज्यों का त्यों दिखायी देता है। गंगा-यमुना आदि नदियाँ न जाने कब से अनेकों प्राणियों को पानी पिला रही हैं और उनकी तृष्णा को शान्त कर रही हैं, न जाने कब से अनेकों प्राणियों को ये स्नान करा रही हैं और उनके शरीर की तपस् मिटा रही हैं उनके शरीर को धो-धाकर साफ-सुथरा कर रही हैं, सदियों से ये खेतों को तर-बतर करके हरा-भरा कर रही हैं, अनेकों को घर-परिवार में ले जाने के लिए भर-भर कर पानी के ड्रम-कनस्तर-घड़े-बाल्टियाँ प्यार से प्रदान कर रही हैं। सतत् यह सब करते हुए भी 'नदी न घट्यो नीर' रूप वाक्य के अनुसार उनका जल कभी घटा नहीं। वे वैसी की वैसी जल से भरी-भराई निरन्तर बिना भेद-भाव के सबकी सोत्साह सेवा-सहायता करने के लिए दौड़ी चली जा रही हैं। ऐसे ही आम-अमरूद, सेब-सन्तरे, आलूचे-आलूबुखारे, आडू-अनार, लीची-लोकाट, खरबूजे-तरबूजे, ककड़ी-खीरे आदि-आदि के वृक्ष और लताएं और पौधे न जाने कब से फल-फूलों से शाक-भाजियों आदि-आदि से लोगों की झोलियां व उदर पेट भर रहे हैं, फिर भी समय आने पर ये सब वृक्ष आदि फूल-फलादियों से भरे पड़े रहते हैं, लदे पड़े रहते हैं। हम इस दुनियां में देखते हैं कि जो देते रहते हैं वे सदा धनी बने रहते हैं। पर जो देने के सुअवसरों पर 'हमारे पास नहीं है, नहीं है', यह कहते रहते हैं, तो उनके पास फिर सचमुच कभी वह सब धन-अन्न-वस्त्र आदि नहीं ही हो जाता है। जैसे कि किसी संस्कृत के कवि ने कहा है कि- 'दरिद्रयमप्रदानेन तस्माद् दान परो भवेत्।' न देने से मनुष्य दरिद्र हो जाता है। मनुष्य कभी दरिद्र न हो, इसलिए उसे चाहिए कि वह दानी बने- दाता बने- सदा कुछ न कुछ देता ही रहे। देते रहने से मनुष्य बढ़ता ही है। अन्यत्र भी कहा है कि-

गोदुग्धं वाटिका पुष्पं विद्याकूपोदकं धनम्।
दानाद्विवर्धते नित्यमदानाच्च विनश्यति।

गाय का दूध, वाटिका के पुष्प, विद्या-ज्ञान, कुएँ का जल और धन-अन्न आदि यह सब कुछ देते रहने से बढ़ता है और अगर इनको न प्रदान किया जाए, तो यह सब कुछ नष्ट हो जाता है। अतः इस सबके देते रहने में ही हित है। ग्रहण करने वाले का तो उससे काम चल जाता है। उसकी तो उससे मुसीबत टल जाती है- और उस धन आदि का सदुपयोग करने से उस दाता को पुण्य मिलता है। उसका भला होता है। इस प्रकार जो दूसरों के तन को ढकने व उसको सर्दी-गर्मी से बचाने के लिए कपड़े देता है, दूसरों की अपने दाने-पानी से क्षुत्पिपासा को शान्त करता है, दूसरों की अन्य आवश्यक आवश्यकताओं को पूर्ण करता है, तो इससे उसका धन-अन्न आदि घटता नहीं उसका वह ऐश्वर्य क्षीण नहीं होता। वेद में उस प्यारे प्रभु का एक बड़ा ही सुन्दर विशेषण आया है। वह यह है कि 'वह प्रभु भूरिदा' है, वह बहुत देने वाला है। इतना कि कभी-कभी तो लेने वाला भी चकित रह जाता है। ऐसे व्यक्ति को वेद कहता है कि मनुष्य को एक बात और भी स्मरण रखनी चाहिए। वह यह कि यदि उसने अपने अच्छे दिनों में अपने धन-अन्न आदि पदार्थों से सम्पन्न दिनों में, अपने सुख-सौभाग्यों से प्रपन्न दिनों में, अपने धन-वैभवों से भरपूर दिनों में अपने धन-वैभवों से किसी अन्य की कुछ सहायता नहीं की, किसी अन्य के दुःख-दर्द को दूर नहीं किया, किसी अन्य को सुख-शान्ति नहीं पहुंचाई तो फिर यह निश्चित है कि समय पड़ने पर कभी बुरे दिन आने पर उसको पुकारने पर भी कोई सहायक नहीं मिलेगा, दुःख-दर्दों से कराहने पर भी कोई मददगार नहीं मिलेगा, जगह-जगह दुःखों से दुःखी होकर और सुखों के लिए प्रार्थना करने पर भी उसे ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिलेगा, जो उसके दुःख को दूर करे, जो उसके घाव पर मरहम लगाए। तो वेद के इस सदुपदेश को हृदयंगम कर मनुष्यों को चाहिए कि वे समय पड़ने पर परस्पर एक दूसरे की सहायता करें, परस्पर एक दूसरे की मदद करें, परस्पर एक दूसरे के दुःख-दर्दों को दूर करें, तथा जी-जान से एक दूसरे को सुखी करें, ताकि आगे चलकर उन्हें इस विषय में कभी पश्चाताप न करना पड़े।

[स्त्रोत- आर्ष-ज्योति: श्रीमद्दयानन्द वेदार्ष-महाविद्यालय-न्यास का द्विभाषीय मासिक मुखपत्र का सितम्बर २०२० का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]

Wednesday, September 16, 2020

स्वामी मुनीश्वरानन्दजी : एक परिचय


स्वामी मुनीश्वरानन्दजी : एक परिचय

प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ

स्वामी मुनीश्वरानन्दजी का कार्यकाल पं० अयोध्या प्रसादजी से भी पूर्ववर्ती है। यों तो उनका कार्यक्षेत्र बिहार रहा है फिर भी कलकत्ता और आर्यसमाज कलकत्ता में यहां के अंचलों में वेदधर्म के प्रचारार्थ उनका आगमन होता ही रहता था और पर्याप्त समय तक वे यहां निवास करते हुए आर्यसमाज का प्रचार करते रहते थे। स्वामी मुनीश्वरानन्दजी दानापुर (पटना) के दियारा, उत्तरी भाग के रहने वाले थे। ये बालब्रह्मचारी पुरुष थे। आरम्भिक दिनों में स्वामी मुनीश्वरानन्दजी कबीरपंथी थे। इनका सम्बन्ध मास्टर जनकधारी सिंह से हुआ। मास्टरजी स्वामी दयानन्द के भक्त, शिष्य और आर्यसमाजी विचारों के थे। इन्हीं के सम्पर्क में आकर स्वामी मुनीश्वरानन्दजी न केवल स्वामी दयानन्द के भक्त ही बने बल्कि संन्यासी बनकर उन्होंने आर्यसमाज का यावज्जीवन प्रचार किया। वे प्रायः आर्यसमाज दानापुर में रहा करते थे। स्वामीजी कठोर खण्डन को भी मृदु एवं हृदयग्राही बना देते थे। उनके सम्बन्ध में कलकत्ता में हमने शास्त्रार्थ की चर्चा सुनी थी। हम सन् १९४४-४५ ई० में कलकत्ता आये थे। उस समय के कुछ आर्यों के मुख से शास्त्रार्थ की यह घटना सुनी थी। अविश्वसनीयता का कोई कारण नहीं है, अतः इसे इतिहास के इस अंक में यथाश्रुत लिख रहे हैं-

डलहौसी स्क्वायर में (बी० बी० डी० बाग) पौराणिकों और आर्यसमाजियों के बीच शुद्धि पर शास्त्रार्थ था। पौराणिकों की ओर से प्रसिद्ध विद्वान् पं० अखिलानन्दजी आए हुए थे। आर्यसमाजियों की ओर से प्रमुख शास्त्रार्थ कर्त्ता स्वामी मुनीश्वरानन्दजी थे। जैसे ही शास्त्रार्थ आरम्भ होने की बात आयी, पं० अखिलानन्दजी ने एक चुटकीभरा व्यंग्यात्मक प्रश्न छेड़ दिया। उस समय डलहौसी स्क्वायर के बाहर-बाहर ट्राम लाइन थी और पार्क के बाहर चारों ओर खुली नालियां थी। पं० अखिलानन्दजी ने स्वामी मुनीश्वरानन्दजी से पूछा कि स्वामीजी! एक व्यक्ति आपके लिए रसगुल्ले ला रहा है। उसके हाथ से रसगुल्ले इन गन्दी नालियों में गिर पड़े और वे नष्ट हो गये। अब आप क्या उन रसगुल्लों को हवन-यज्ञ करके शुद्ध कर लेंगे और मलमूत्र में सने ये रसगुल्ले पवित्र होकर ग्रहण करने योग्य हो जायेंगे? और यदि नहीं, तो इन भृष्ट पतित विधर्मियों को हवन-यज्ञ द्वारा आप कैसे पवित्र बनाकर ग्रहण कर सकते हैं। अखिलानन्दजी की इस वाक्चातुरी पर पौराणिकों ने ताली पीट दी और बड़ा हर्ष मनाया। अखिलानन्दजी की सूझबूझ पर वाह-वाह होने लगा।
अब स्वामी मुनीश्वरानन्दजी की बारी थी। स्वामीजी ने डबल चुटकी ली। एक वाक्य में तो यह कहकर अखिलानन्दजी की बात हल्की कर दी कि मलमूत्र में गिरे रसगुल्ले तो हवन-यज्ञ से शुद्ध भी नहीं हो सकते, इसलिए उनके शुद्ध करने और ग्रहण करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। किन्तु इसके बाद जो चुटकी ली उससे अखिलानन्दजी को भी और पौराणिकों को भी लेने के देने पड़ गये। स्वामी मुनीश्वरानन्दजी ने कुछ इस प्रकार कहा- पं० अखिलानन्दजी विद्वान् आदमी हैं, इन्होंने गंगा-स्नान किया, चन्दन-टीका लगाया, रामनामी-शिवनामी ओढ़ी और खड़ाऊं पर चढ़कर यही स्क्वायर की सभा के लिए चल पड़े। संयोग की बात यदि इन्हीं नालियों के पास पण्डितजी का खड़ाऊं फिसल जाए और इन्हीं नालियों में पण्डितजी गिर जायें तो यह नाली का कूड़ा-कचरा न तो रामनामी-शिवनामी कपड़ों को छोड़ेगा और निश्चय ही कुछ न कुछ अंश पण्डितजी के मुँह-नाक में जा सकता है। पण्डितजी गिर पड़े, पतित हो गये, इतनी तो घटना है। अब हम यदि यह कहते हैं कि पण्डितजी को स्नान इत्यादि कराओ, मुँह आदि धुलवाओ, शुद्धस्वच्छ कपड़े पहला लो, तो क्या पं० अखिलानन्दजी भी छेने के रसगुल्ले हैं जो नालियों में गिर गये तो सदा के लिए पतित हो गये?

यह जहां शुद्धि का मार्मिक उत्तर था वहां अखिलानन्दजी की बोलती बन्द हो गयी और आर्यसमाजी सिद्धान्तों का जयजयकार होने लगा।
स्वामी मुनीश्वरानन्दजी वैदिक धर्म प्रचारार्थ यों तो सारे देश में घूमते थे, पर विशेषरूप से बिहार और उसी के साथ कलकत्ता भी प्रचारार्थ आते थे। स्वामीजी को वृद्धावस्था में कारवंकल (पच्छघाव फोड़ा) हो गया था। कहते हैं एक ओर मधुमेह और दूसरी ओर कारवंकल, स्वामीजी इससे स्वस्थ न हो पाये। स्वामी मुनीश्वरानन्दजी के सम्बन्ध में एक और महत्वपूर्ण सूचना है जिसके बिना उनके व्यक्तित्व को समझना अधूरा ही रह जायगा। स्वामी मुनीश्वरानन्दजी ने जब कारवंकल (पच्छघाव फोड़े) का ऑपरेशन कराया था तो क्लोरोफार्म सूंघ कर बेहोश होने से इन्कार कर दिया था। स्वामी मुनीश्वरानन्दजी का कहना था कि जब वे ध्यानावस्थित हो जायें तो डाक्टर आराम से उनका ऑपरेशन कर लें। ऐसा ही हुआ। स्वामी मुनीश्वरानन्दजी ने ध्यानावस्थित होकर इतने भयानक फोड़े का ऑपरेशन करा लिया और ऐसे निश्चेष्ट पड़े रहे कि जैसे उनका शरीर चेतनाहीन हो गया था।

स्वामी मुनीश्वरानन्दजी की मृत्यु के समय उनके पास कुछ रुपये निकले थे। बिहार प्रतिनिधि सभा ने उनकी स्मृति में और पर्याप्त धन लगाकर पटना में मुनीश्वरानन्द भवन (प्रतिनिधि सभा का भवन) बनवा दिया। मुनीश्वरानन्दजी साधु भी थे और योगी भी थे। ऋषिभक्त थे और प्रचारक भी थे। कलकत्ता में उनके प्रचार की मधुर स्मृतियां लोगों के हृदयों में संचित रही हैं।

[सन्दर्भ ग्रन्थ- आर्यसमाज कलकत्ता का १०० वर्षीय इतिहास; सम्पादक- स्वर्गीय उमाकांत उपाध्याय]

श्राद्ध


श्राद्ध

लेखक- स्वर्गीय श्री वे०शा० स्वा० वेदानन्द जी तीर्थ
अनुवादिता- श्री स्वामी वेदानन्द जी वेदवागीश
प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ, डॉ विवेक आर्य

[प्रायः देखने में आता है कि एक सामान्य व्यक्ति श्राद्ध-कृत्य से मृतक जीवों के भोजनादि द्वारा तृप्ति करना मानता है अथवा कुछ लोग पितृयज्ञ को ही मृतक-श्राद्ध बतलाते हैं। उनके अनुसार ब्राह्मणों को तिथि विशेष पर भोजन कराने से उनके पितरों को सन्तुष्टि मिलती है। वेद के विचार इसमें अपनी सम्मति प्रदान नहीं करते हैं। वेदों के अनुसार शरीर नष्ट हो जाने के बाद वह कोई भी पदार्थ ग्रहण करने में समर्थ नहीं होता है तथा मनुष्य के दाहोपरान्त शरीर में उपस्थित आत्मा अपने कर्मानुसार ईश्वर के कर्मफल नियम के अधीन होकर उचित गति को प्राप्त होती है। इससे सिद्ध होता है कि मृतक जीवों को भोजनादि द्वारा तृप्त करना अवैदिक कृत्य है। पितृयज्ञ पञ्चमहायज्ञ के अनुष्ठान का एक अङ्ग है। जो यज्ञ माता-पिता तथा इनके पूर्वजों के सम्बन्ध में किये जायें, वह पितृयज्ञ कहलाता है। श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा एवं जीवित पितरों की श्रद्धा से सेवा और शुश्रुषा करना पितृयज्ञ का वैदिक स्वरूप है। इस सम्बन्ध में आर्यसमाज के सुप्रसिद्ध विद्वान् स्व० श्री स्वामी वेदानन्द जी तीर्थ ने एक निबन्ध-पुस्तिका लिखी थी, जिसे २८ भाद्रपद संवत् १९९७ विक्रमी को 'आफताब आलम प्रैस' हस्पताल रोड, लाहौर में उर्दू में छपवाई थी। स्वामीजी महाराज उस समय श्री चमूपति साहित्य विभाग (आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब) गुरुदत्त भवन लाहौर के अध्यक्ष थे। जन-सामान्य में फैली भ्रान्तियों के निवारण को आवश्यक समझते हुए स्वामीजी ने यह विचारोत्तेजक निबन्ध लिखा था। इस निबन्ध-पुस्तिका का हिन्दी में अनुवाद करने के लिए श्री आचार्य भगवान् देव जी, गुरुकुल झञ्जर ने श्री स्वामी वेदानन्दजी वेदवागीश के समीप भेजी थी। यह हिन्दी अनुवाद 'सुधारक' (मासिक) के सन् १९६५ के अंक में प्रकाशित हुआ था। पाठक इस निबन्ध को पक्षपातरहित भावना से पढ़ें और श्राद्ध के यथार्थ स्वरूप को जानकर वैदिक विचारधारा का पान करें। हमें पूर्ण विश्वास है कि पाठकों के लिए यह निबन्ध अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा। -प्रियांशु सेठ]

वेदमित्र- नमस्ते! भाई श्रद्धाराम जी। आज इस प्रकार सज-धज कर कहाँ जा रहे हो? इधर कई दिन से तुम मिले भी नहीं। क्या बात है?
श्रद्धाराम- भाई तुमने आवाज देकर टोक दिया, यह अच्छा नहीं किया। इस प्रकार कार्य में विघ्न उत्पन्न हो जाता है। मैं इस समय लाला घसीटाराम जी के घर श्राद्ध खाने जा रहा हूं। न मिलने का कारण यह है कि आजकल श्राद्धों के दिन हैं। एक-एक दिन में कई-कई यजमानों के यहां भोजन करने के लिए जाना पड़ता है। इस समय अवकाश कम मिलता है। श्राद्धों से निवृत्त होकर फिर पर्याप्त मिला करेंगे। हां, तुम भी तो ब्राह्मण हो, चलो मेरे साथ। तुम्हें भी भोजन करा देंगे। खीर, पूरी, कचौरी, दही-भल्ले इत्यादि इत्यादि स्वादिष्ट भोजन आज मिलेगा। दक्षिणा भी पुष्कल मिलेगी (वेदमित्र का हाथ खींचते हुये) चलो अवश्य चलो, इकट्ठे बैठेंगे।

वेदमित्र- अरे भाई! श्राद्ध-भोजन के लोभ में तुमने मित्र की नमस्ते का उत्तर भी नहीं दिया। अच्छा, चलो जाने दो इस बात को। यह तो बताओ- यह श्राद्ध है क्या वस्तु? आगे-पीछे तो यह लाला कभी किसी ब्राह्मण को भोज नहीं खिलाता। आज यह कैसे इतना उदार हो गया?
श्रद्धाराम- वेदमित्र! तू बड़ा मूर्ख है। तू श्राद्ध भोजन का अर्थ भी नहीं समझता। अच्छा, तुम तो आर्य समाजी हो। तुम पांच महायज्ञ मानते हो। उसमें एक पितृयज्ञ है। इसी को हम श्राद्ध कहते हैं। आज लाला घासीराम जी की माता का श्राद्ध है।

वेदमित्र- आज लाला घसीटाराम जी की माता का श्राद्ध है तो तुम्हारा व किसी दूसरे का वहां क्या काम? और विशेषतः ब्राह्मणों की वहां क्या आवश्यकता पड़ गई? हम तो पितृयज्ञ प्रतिदिन करते हैं। जब तक मैं पढ़ता रहा, माता-पिता दोनों से दूर रहा। वहां मुझे माता-पिता की सेवा का पवित्र अवसर नहीं मिला। अब जब से विद्या प्राप्त करके लौटा हूं, मैंने पिता जी और माता जी की सेवा का विशेष नियम कर लिया है। परमात्मा की दया से घर में परिचायक हैं, किन्तु माता-पिता की सेवा मैं अपने हाथों से ही करता हूं। प्रातः उनके स्नान के लिए जाता हूं। दोनों समय इनको खिलाकर खाता हूं। रात्रि को जब वे सोने लगते हैं, तो पिता जी के चरण भी दबाता हूं, और मेरी धर्मपत्नी मेरी माता जी के चरण दबाती है। इस प्रकार हम प्रतिदिन नियमानुसार पितृतर्पण करते हैं और वे तृप्त हुये हमें आशीर्वाद देते हैं। और अपने अनुभव सुनाकर हमें जीवन संग्राम में सफल होने का उपदेश भी करते हैं, मुझे तो इस काम में कभी किसी ब्राह्मण की आवश्यकता नहीं पड़ती।
श्रद्धाराम- अरे! श्राद्ध तो मृतक-पितरों का होता है। जीवितों का नहीं। लाला घसीटाराम जी की माता को मरे बहुत समय हो गया है। आज उनका श्राद्ध है।

वेदमित्र- ब्राह्मण क्या करता है श्राद्ध में? श्राद्ध मां का और भोजन ब्राह्मण को, यह बात कैसे बनी?
श्रद्धाराम- सुनो भाई। ब्राह्मण को भोजन खिलाने से मरे पितर को मिल जाता है।

वेदमित्र- कैसे मिल जाता है? ब्राह्मण वहां कैसे पहुंचता है?
श्रद्धाराम- तुम पढ़-लिख कर भी बुद्धि-हीन ही रहे। इसमें कौन सी कठिन बात है? देखो। यहां से तुम किसी दूसरे नगर में रुपये भेजना चाहते हो। तुम प्रेषालय में जाकर प्रपत्र भर कर रुपये देते हो। प्रेषालय वाले दूसरे नगर में केवल धन-प्रेष प्रपत्र भेजते हैं, किन्तु जिसके नाम का वह धन-प्रेष है, उसको रुपये मिल जाते हैं। इसी प्रकार यहां ब्राह्मण को खिलाया जाता है, वहां आगे पितरों को वह भोजन मिल जाता है।

वेदमित्र- तुम ऐसे चतुर तो न थे। अब बहुत कुशल हो गये हो, किन्तु यह युक्ति तुम्हारी अपनी नहीं, किसी और ने तुम्हें सिखाई है। तुमने श्राद्ध में भोजन करने वाले ब्राह्मण को प्रेषालय का प्रेषपति (पोस्ट-मास्टर) बनाया है। किन्तु एक बात में तुम चूक गये। तुम्हें पता है कि प्रतिदिन प्रेषालय बन्द करके सम्पूर्ण दिन में प्राप्त रुपया प्रशासन के नियत सुरक्षित प्रबन्ध में पहुंचा दिया जाता है। सम्पूर्ण दिन में प्राप्त किये रुपयों की बात तो जाने दो यदि प्रेषपति महोदय एक भी रुपया अपने पास रख लें तो जानते हो, क्या होता है, उसे कड़ा दण्ड दिया जाता है और इसके पश्चात् कार्य से भी हटा दिया जाता है। तुम्हारे श्राद्ध-भोजी ब्राह्मण भी तो राजकीय धरोहर के समान न देने वाले पापी होते हैं। श्राद्ध करने बोल तो अपने किसी पितर के लिए खिलाया किन्तु उन्होंने न कोई प्रपत्र आगे भेजा और न माल ही किसी निश्चित सुरक्षित स्थान में भिजवाया।
श्रद्धाराम- क्या बकते हो। तुम कुण्ठित बुद्धि हो। भले ही प्रेषपति धरोहर न दे और उसके कारण उसे कड़े से कड़ा दण्ड भी मिले, किन्तु रुपये तो जिसके नाम धन-प्रेष (मनीऑर्डर) किया गया है, उसे मिल ही जाता है। प्रपत्र तो सांसारिक प्रेषालय (डाकखाने) के लिये है। क्योंकि सांसारिक प्रशासन सर्वज्ञ नहीं है, इस हेतु उसे लिखकर काम करना पड़ता है। परमात्मा तो सर्वज्ञ है, वह जानता है कि इसने अमुक के लिए श्राद्ध किया है, इस कारण उसके पास पहुंचा देना चाहिए।

वेदमित्र- भाई! श्राद्ध भोजन में विघ्न जानकर आप क्रोध में आ गये। अच्छा कोई बात नहीं। मैं भी आपको तब जाने दूंगा, जब आप मुझे स्वीकार करने के लिये विवश कर देंगे। भाई! तुम्हारा यह तर्क मैं मान लेता हूं एक बात प्रमाणित कर दो।
श्रद्धाराम- मैं भी आज श्राद्ध-भोजन भले ही छोड़ दूं, किन्तु तुम्हें आज आस्तिक बनाये बिना यहां से न हिलूंगा। कहो तुम क्या प्रमाणित करना चाहते हो?

वेदमित्र- देखो! बात बड़ी सीधी है। तुम ब्राह्मण हो मेरे भाई वेदभानु रुग्ण पड़े हैं। मैं उनके लिए औषध लेने जा रहा हूं। मैं वैद्य के पास न जाकर तुम्हें घर ले चलता हूं और संकल्प पढ़ कर तुम्हारा मनोवाञ्छित भोजन तुम्हें खिला देता हूं। यदि तुम्हारे भोजन करने से मेरे भाई ने अनुभव किया कि उसके पेट में भोजन रूप औषध पहुंच गया तो मैं आज से मृतक श्राद्ध का पोषक बन जाऊंगा। देखो! ऐसा करने से मुझे एक लाभ भी है। वैद्य रोग के निदान में भूल कर सकता है और उस कारण औषध भी ठीक नहीं दे सकता। और इससे भयंकर हानि हो सकती है। किन्तु सर्वज्ञ परमात्मा तो त्रुटि नहीं करेंगे। वे मेरे भाई के पेट में औषध ठीक-ठीक पहुंचायेंगे। इस हेतु भाई चलो घर को। हम तुम्हें लाला घसीटाराम की अपेक्षा भोजन अच्छा करा देंगे और दक्षिणा भी अधिक देंगे।
श्रद्धाराम- वेदमित्र! यह नहीं हो सकता। परमात्मा ने यह व्यवस्था मृतकों के लिए बनायी है, जीवितों के लिए नहीं। जीवितों की सेवा करने के लिये इनके घर के लिए व्यक्ति और सम्बन्धी विद्यमान हैं, मृतक पितरों के लिए वह कोई नहीं, अतः परमात्मा ने यह व्यवस्था बांध दी।

वेदमित्र- परमात्मा ने यह व्यस्वथा बांधी अथवा हमारे धूर्त पूर्व पुरुषों ने अपने सन्तान के भोजन की चिन्ता दूर करने के लिए यह प्रबन्ध किया, यह विचार लिया जावेगा, किन्तु तुमने बात कुछ अट-पटी-सी की है। सुनो, तुम तो आस्तिक हो न, पुनर्जन्म मानते हो न, जब जीव के कर्मानुसार प्रभु ने इसे नवीन योनि में भेजा तो, क्या इसके भोजन का प्रबन्ध नहीं करेगा! हमने सुना है, शास्त्र में लिखा है- कर्मों का फल योनि, भोग और आयुष अर्थात् भोग की मर्यादा के रूप में मिलता है। दूसरा शरीर प्राप्त कर चुका। जीव अपने कर्म के अनुसार भोग भी प्राप्त करेगा। इस हेतु इसके लिए श्राद्ध करना कोई प्रयोजन नहीं रखता।
श्रद्धाराम- देखो, हम गमनागमन को मानते हैं। और जीवों के कर्म के अनुसार भोग का मिलना भी मानते हैं। इससे हम निषेध नहीं करते। हम तो केवल इतना कहना चाहते हैं- हमारे दिया हुआ भोजन इनका भोग बन जाता है। यदि हम श्राद्ध न करें, तो वे मृतक पितर अति कष्ट पावें और सम्भवतः भोजन न मिलने से मर जावें। इस कारण मृतक श्राद्ध आवश्यक है।

वेदमित्र- तुम्हारी वार्ता मैं स्वीकार करता हूं, किन्तु इसमें एक क्रियात्मक कठिनता है, श्राद्ध के मानने तथा करने वाले केवल सनातन धर्मी और थोड़े-से जैन भाई हैं, उनकी संख्या लगभग तीस करोड़ होगी। संसार की जनसंख्या दो अरब से ऊपर है अर्थात् लगभग पौने दो अरब मनुष्य श्राद्ध न मानते हैं और न करते हैं। आपकी उक्ति यदि मान ली जावे, तो केवल तीस करोड़ मनुष्यों को भोजन मिलता होगा। शेष संसार भूखा मरता होगा। क्योंकि तीस करोड़ में से पन्द्रह करोड़ के लगभग स्त्रियां हैं, उन्हें श्राद्ध का अधिकार नहीं। दस करोड़ के लगभग बालकों के अनुमान कर लिया जावे, उन्हें श्राद्ध करने का अधिकार नहीं; क्योंकि माता-पिता के जीवित रहते सन्तान को श्राद्ध करने का अधिकार नहीं है। शेष रह गये पांच करोड़ श्राद्ध किया जाता है- पिता, पितामह, प्रपितामह, माता, दादा और परदादी का। प्रत्येक श्राद्ध करने वाले को यदि अनिवार्य रूप से इन छह का श्राद्ध करना पड़े, तो केवल तीस करोड़ व्यक्तियों का श्राद्ध हो सकता है। शेष जनों का क्या बनेगा? इस कारण तुम्हारा वचन उचित नहीं है। जिस प्रकार पौने दो अरब मनुष्यों को उनके कर्मानुसार परमात्मा भोग पहुंचाता है, वैसे ही इन को भी पहुंचा देगा। इसलिए भोग-व्यवस्था में सहायता देने के लिए श्राद्ध करना निरर्थक है और सच पूछो तो एक प्रकार की नास्तिकता है, क्योंकि इस विधि से परमात्मा में निर्बलता माननी पड़ती है। वह दूसरे की अपेक्षा रखने सिद्ध होगा।
श्रद्धाराम- भाई वेदमित्र! मैंने इस सिद्धान्त को इस प्रकार कभी विचारा भी न था। तुम यह कहना चाहते हो कि यदि श्राद्ध ठीक माना जाये, तो पुनर्जन्म और भोग-व्यवस्था नहीं रहती। यदि पुनर्जन्म और भोग-नियम सुव्यवस्थित है, तो फिर श्राद्ध की आवश्यकता नहीं रहती।

वेदमित्र- जी, मेरा यही तात्पर्य है।
श्रद्धाराम- किन्तु श्राद्ध का एक और प्रयोजन भी है- पितरों को प्रेत योनि से छुड़ाना। यदि श्राद्ध न किया जावे, तो पितर असहाय बने प्रेत योनि में पड़े कष्ट उठाते रहेंगे।

वेदमित्र- भाई! प्रेत योनि कोई नहीं होती। मृत व्यक्ति को प्रेत कहते हैं। देखो, इधर अनेक घटनाएं ऐसी हुई हैं, जो पुनर्जन्म को प्रमाणित करती हैं। कुछ बालक अपने अतीत जन्मों के यथार्थ वृतान्त बताते हैं, जिनकी प्रामाणिकता राज्य द्वारा व अन्य विद्याओं से हो चुकी है। इन घटनाओं पर ध्यान देने से एक रहस्य खुला है कि इनके मृत्यु और जन्म के मध्य में इतना ही अवकाश था जितना कि एक गर्भ का काल होता है। इस कारण प्रेत योनि की कल्पना आपकी गप्प है। यदि तुम इन घटनाओं को सत्य नहीं मानोगे, तो तुम्हारी ही हानि है, क्योंकि प्रेत योनि के सम्बन्ध में तुम्हारे समीप कोई प्रमाण है नहीं और यदि प्रेत योनि की सिद्धि के हठ में पुनर्जन्म से सम्बन्धित इन प्रमाणों को नहीं मानते, तो तुम अपने एक मुख्य सिद्धान्त का व्याघात करोगे। इस कारण प्रेत योनि की कल्पना अनुचित है।
श्रद्धाराम- तुम्हारी यह तर्क ना समझ में तो आती है; परन्तु भाई, प्रेत योनि मानने वाले तो करोड़ों हैं, क्या वे सब भ्रम में पड़े हैं?

वेदमित्र- भाई श्रद्धाराम जी! धर्म के विषय का निर्णय बहुमत से नहीं हुआ करता। यदि बहुसम्मति से निश्चय करना हो, तो फिर आप सनातनधर्मी अथवा हिन्दू नहीं रह सकते। क्योंकि इस समय संसार के मनुष्यों का अधिक भाग हिन्दू धर्म के विरुद्ध है। भू-मण्डल में सबसे अधिक संख्या बौद्धों की है, इससे न्यून ईसाइयों की, इससे अल्प हिन्दुओं की और इससे कम मुसलमानों की है, तो क्या आप इस संख्या को देखकर सनातन धर्म को छोड़ देंगे? और भी देखिए- संसार में असत्य बोलने वालों की संख्या अधिक है तो क्या असत्य बोलना अनिवार्य और उचित हो जायेगा? इस हेतु बहुसम्मति कोई विशेष उपपत्ति नहीं है।
श्रद्धाराम- तो क्या तुम्हारे विचार में जीवित पितरों अर्थात् माता-पिता और वृद्धों की सेवा करना ही श्राद्ध है।

वेदमित्र- जी, भ्रातृवर! मेरी यंग दृढ़ भावना है। इसमें प्रमाण है। देखो, जैसा मैं आपसे पूर्व निवेदन कर चुका हूँ कि श्राद्ध पिता, दादा, परदादा और माता, दादी, परदादी का होता है, ये तीन पीढ़ियां ही बनती हैं। इन तीन का ही श्राद्ध क्यों? इनसे अगलों अर्थात् परदादा के पिता, दादा इत्यादि का श्राद्ध क्यों नहीं किया जाता?
श्रद्धाराम- भाई! शास्त्र में ऐसा ही लिखा है।

वेदमित्र- भाई! शास्त्र बनाने वाले ने कुछ सोच-समझकर ही ऐसा विधान किया होगा। ऐसे ही व्यर्थ का उल्लेख नहीं कर दिया होगा।
श्रद्धाराम- तुम बता सकते हो, इसमें क्या रहस्य है?

वेदमित्र- क्यों नहीं! सुनिये! साधारण रीति से मनुष्य का आयुष् सौ वर्ष होता है। ऋषियों ने इसे चार भागों में विभक्त किया है। पहिले पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य धारण करके विद्या ग्रहण करने में लगाने चाहियें। इसके पीछे यदि विवाह की इच्छा हो, तो विवाह करके पच्चीस वर्ष तक गार्हस्थ्य जीवन बिताना चाहिए। इसके पश्चात् वेद के आदर्शानुसार वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहिए। वहां तपस् और स्वाध्याय में पच्चीस वर्ष लगाने चाहियें। आयुष् का अन्तिम भाग संन्यास में बिताना चाहिए, यदि पूर्ण वैराग्य हो गया हो। अब यूं समझिये कि एक बालक को उसके पिता ने गुरुकुल से विद्या प्राप्त करके लौटा है। वह अपने पिता का सबसे ज्येष्ठ पुत्र और प्रथम सन्तान है। अनुमान करो, जब वह गुरुकुल से लौटा है, उस समय उसके पिता की अवस्था इकावन वा बावन वर्ष की है। यदि उस ब्रह्मचारी का दादा भी जीवित हो, तो उसका वय: छिहत्तर वा सतत्तर वर्ष होगा और यदि उसका परदादा भी जीवित हो, जो असम्भव नहीं, तो वह सौ वर्ष से एक-आध वर्ष अधिक ही होगा। इसी प्रकार उसकी मां, दादी और परदादी भी जीवित मिल सकती हैं। इससे अगली पीढ़ी अर्थात् परदादा के पिता वा माता के दर्शन लगभग असम्भव है। इसलिये, यदि ब्रह्मचारी को सेवा का अवसर मिल सकता है तो माता, पिता, दादी, दादा और परदादा, परदादी की सेवा का अवसर मिल सकता है, इससे अधिक नहीं। मेरी समझ में शास्त्रकारों ने इसी कारण तीन पीढ़ियों तक श्राद्ध करने का विधान किया है, इससे आगे नहीं। क्योंकि आगे श्राद्ध हो नहीं सकता। शास्त्रों का वैशिष्ट्य है कि वे निरर्थक और असम्भव उपदेश नहीं देते। यदि वे अर्थहीन उपदेश दें तो उन्हें शास्त्र कौन मानेगा। यदि तीसरी पीढ़ी से आगे का कोई व्यक्ति हो, तो वह भी सेवा का अधिकारी है। तीन पीढ़ियों के श्राद्ध करने का विधान तो युक्ति-युक्त है, किन्तु तब जब यह जीवित पितरों का माना जावे। यदि मृतक पितरों का श्राद्ध माना जावे, तो प्रश्न उपस्थित होता है कि फिर तीन पीढ़ियों तक का श्राद्ध क्यों? अधिक का क्यों नहीं? यदि कहो कि परपोते के मर जाने से परदादा की प्रेत योनि से मुक्ति हो जाती है, तो यह बात आपके माने हुये शास्त्र से सिद्ध नहीं होती और न ही इसमें कोई युक्ति है। यदि प्रेत योनि कर्मों का फल है, तो कर्मों के फलों की व्यस्वथा परमेश्वर करता है। इसमें आप अथवा अन्य कोई हस्तक्षेप करने वाला कौन? इसलिए भ्रातृवर! श्राद्ध जीवितों का सिद्ध होता है, मृतकों के नहीं।
श्रद्धाराम- अच्छा भाई, यदि ऐसा है तो पितरों के लिए अश्विन मास और कृष्ण पक्ष क्यों निश्चित किया गया है?

वेदमित्र- यह प्रश्न तो मैं आपसे करने वाला था। आपने मुझसे कर दिया, अच्छा, अब जब कि आपने किया है, तो लो मैं ही उत्तर देता हूं सुनिये, पितर शब्द पितृ का बहुवचन है। पितृ शब्द के बहुत-से अर्थ हैं। उनमें उत्पन्न करने वाला पिता, ज्ञानी और रक्षक मुख्य है। पिता का श्राद्ध करना तो उनके अनेक उपकारों के कारण सन्तान का कर्त्तव्य है। श्राद्ध की आड़ में उपकार करने वाले के प्रति आदर और कृतज्ञता का भाव काम कर रहा है। जो हमारा उपकार करें, हमें भी किसी न किसी रूप में उनके प्रति अवश्य ही कृतज्ञता प्रकाशित करनी चाहिए। अन्यथा हम कृतघ्न और निन्दनीय कहलायेंगे। अब आप देखिए, अंधेरी रात में जो हमारी, हमारे भवन की, हमारे मुहल्ले की, हमारे ग्राम वा नगर की रक्षा करता है, स्वयं जागरण कर हमें आराम से सोने देता है, वह हमारा रक्षक होने से पिता अथवा पितर कहलाने का अधिकारी है। देखिए, दिन में सब जाग रहे होते हैं, उस समय किसी विशेष रक्षक की आवश्यकता नहीं होती। रात्रि की वेला में सब पर निद्रा का साम्राज्य होता जाता है। इस कारण उस समय रक्षा की आवश्यकता पड़ती है और रात में जब कृष्ण पक्ष हो, तब संरक्षण की विशेष रूप से आवश्यकता प्रतीत होती है। जिसमें जो काम करे, वह समय उसका। क्योंकि ऐसे रक्षक रात्रि को ही और विशेषतः कृष्ण पक्ष की रात्रि को कार्य करते हैं, इस कारण कृष्ण पक्ष इन रक्षकों का, पितरों का होता है। यदि हमारा यह मत आपको स्वीकार न हो तो इसके लिए आपकी बुद्धि में हमारे उत्तर के अतिरिक्त और कोई उत्तर ही नहीं। रही आश्विन मास की बात। इसका समाधान भी सुनिए। वर्षा ऋतु में क्योंकि ऐसे रक्षकों को अधिक काम करना पड़ता है इस कारण वर्षा काल की समाप्ति पर इनका विशेष सत्कार करने के लिए यह मास निश्चित कर दिया है।
श्रद्धाराम- यदि आपको इन रक्षक पितरों की परिचर्या और सम्मान का ही प्रश्न हो, तो फिर आश्विन मास और कृष्ण पक्ष की ही संविदा क्यों? किसी भी मास किसी भी पक्ष में यह कार्य हो सकता है?

वेदमित्र- मेरे भाई! मैं तो प्रथम ही कह चुका हूं कि यह प्रश्न तो मुझे करना चाहिए, किन्तु कर दिया आपने। इसका जो उत्तर मैंने दिया, उस पर आपने आपत्ति उठा दी। मैं आपकी सन्तुष्टि के लिए निवेदन कर देना चाहता हूं कि मैं आपकी आपत्ति को उचित मानता हूं अर्थात् किसी भी दिन इन रक्षक पितरों की सेवा की जा सकती है। परन्तु श्रीमान् जी! आप तो मृतक पितरों के श्राद्ध के पुजारी हैं, इसीलिए श्राद्ध के लिए आश्विन मास का कृष्ण पक्ष निश्चित किया है।
श्रद्धाराम- भाई! वस्तुतः मृतक श्राद्ध वर्ष में दो बार होता है। एक तो जिस तिथि को मृत्यु हुआ हो, और दूसरा आश्विन मास के कृष्ण पक्ष के किसी भी दिन।

वेदमित्र- आपने यह नहीं बताया कि कृष्ण पक्ष और आश्विन मास क्यों निश्चित है। मृतक श्राद्ध वाले इसके लिए कोई युक्ति नहीं दे सकते। और हमें तो एक और भी आक्षेप है। वर्ष में दो बार आपने किसी पितर के निमित्त ब्राह्मण या ब्राह्मणों को भोजन खिलाकर श्राद्ध किया। वर्ष के शेष दिनों में वे क्या भूखे ही मरते रहेंगे? यदि कहो कि, उनके कर्मानुसार परमात्मा उनको अवश्य देता रहता है, तो भाई मैं पहले कह चुका हूं, उस दिन भी वा उन दिनों में भी उनके भोजन का प्रबन्ध वही कर्मफल विधाता परमेश्वर कर देगा।
श्रद्धाराम- आप जानते हैं, हम श्राद्ध में केवल ब्राह्मण ही को भोजन नहीं कराते, अपितु ब्राह्मण भोजन से पहले पितरों के निमित्त हवन भी करते हैं। तुम भी मानते हो कि हवन में डाला हुआ पदार्थ सब स्थानों पर पहुंच जाता है। हम भी यही कहते हैं कि पितरों के निमित्त अग्नि में डाला हुआ पदार्थ पितरों को मिल जाता है।

वेदमित्र- आपने तो अब ऐसी बात कह दी है, जिससे श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन खिलाना व्यर्थ सिद्ध होता है। यदि अग्नि में डालने से पितरों को मिल जाता है तो फिर ब्राह्मणों को खिलाने की कोई आवश्यकता नहीं। हमारे विषय में जो बात आपने कही है, वह ठीक नहीं है। हम तो यह मानते हैं कि हवन के लिए अग्नि में डाला हुआ पदार्थ अग्नि के द्वारा छिन्न-भिन्न और सूक्ष्म होकर टूट तक पहुंच जाता है और हवन के द्वारा वायु-जल की शुद्धि होती है। यदि आप कहें अग्नि और ब्राह्मण में कोई भेद नहीं, तो हमारा उत्तर है कि फिर तो एक की ही आवश्यकता है दूसरे की नहीं।
श्रद्धाराम- मनुस्मृति में स्पष्ट श्राद्ध का विधान लिखा है। और यह भी लिखा है कि यदि अग्नि न हो तो ब्राह्मण के हाथ पर आहुति दे दो।

वेदमित्र- हां! मनुस्मृति में तो श्राद्ध के प्रकरण में कुछ और भी लिखा है। वहां तो भिन्न-भिन्न जन्तुओं के मांस खिलाने का भी विधान लिखा है। क्या तुम वैसे करने को तैयार हो? मनुस्मृति के तीसरे अध्याय के २६८ से २७२ तक के श्लोकों में मछली, हिरण, भेड़, पक्षी, बकरी इत्यादि बीसियों जन्तुओं के मांस से श्राद्ध का विधान लिखा है। क्या आप मांस खाने को तैयार हैं?
श्रद्धाराम- कलियुग में मांस से श्राद्ध करना निषिद्ध है।

वेदमित्र- मनुस्मृति में तो कहीं नहीं लिखा। किन्तु यदि आपकी बात समीचीन मान ली जाय, तो यह मानना पड़ेगा कि सतयुग आदि में मांस से श्राद्ध होते थे। तुम्हारे सिद्धान्त के अनुसार सतयुग में धर्म के चारों चरण स्थिर थे। त्रेता में धर्म के तीन, द्वापर में दो शेष रहे और कलियुग में केवल एक रह गया। सतयुग में जो धर्म था वह कलियुग में अधर्म कैसे हो गया और फिर आपसे हम पूछना चाहते हैं कि कलियुग में मांस से श्राद्ध-निषेध क्यों किया गया?
श्रद्धाराम- भाई, सच तो यह है कि तुम्हारे आक्षेप बहुत उचित और प्रबल हैं। अच्छा, चलो मान लेता हूं कि श्राद्ध पितरों को नहीं पहुंचता। किन्तु इसमें क्या हानि है, यदि हम अपने माता-पिता इत्यादि की मृत्यु वाले दिन उनकी स्मृति में किसी ब्राह्मण को भोजन करा दें?

वेदमित्र- आप कहते हैं किन्तु इस दिन ब्राह्मण को भोजन कराने से क्या लाभ। उसे खिलाने से स्मरण कैसे होगा। स्मृति की ही बात है, तो इनका कोई स्मारक बना लीजिये। यद्यपि वह भी कोई स्थायी वस्तु नहीं; किन्तु इससे इस मरण प्राप्त पूर्व पुरुष को लाभ नहीं होगा।
श्रद्धाराम- आपका तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि कर्म का फल करने वाले को मिलता है, दूसरे किसी को नहीं। किन्तु मैं तुम्हें बताता हूं। पिता आम लगाता है, बेटे, पोते फल खाते हैं, पिता ऋण करता है और पुत्र उसे चुकाता है। चीरा वैद्य देता है, फोड़ा रोगी का अच्छा होता है। खेती किसान करता है, अन्न समस्त संसार खाता है। इससे स्पष्ट प्रमाणित होता है कि यह अनिवार्य नहीं कि जो मनुष्य कर्म करे अवश्य वह ही फल भोगे, अपितु इससे अतिरिक्त दूसरों को भी फल मिलता है।

वेदमित्र- भ्रातृवर! आपको किसी ने ठीक नहीं समझाया। सुनिये, किसान खेती करता है, दूसरे लोग मालिया देकर, अथवा परिवर्तन में दूसरी वस्तु देकर किंवा चोरी करके, दान लेकर अन्न खाते हैं अर्थात् किसान का अन्न लेने में सबको कोई-न-कोई कर्म करना पड़ता है। "वैद्य चीरा देता है और फोड़ा रोगी का ठीक होता है।" आपका इससे क्या आशय है? क्या आप यह कहना चाहते हैं को वैद्य को चीरा देने का कोई फल नहीं मिलता। यदि आपका ऐसा विचार है, तो आपकी यह भारी भूल है। बन्धुवर! चीरा देने के लिए वैद्य को शुल्क मिलता है। रोगी ने कुपथ्य किया था, उसका फल फोड़े के रूप में मिला। "पिता का ऋण पुत्र चुकाता है", इसका कारण है कि पुत्र ने पिता की सम्पत्ति भी प्राप्त की है और ऋण भी पुत्र आदि के लिए लिया गया था। तनिक ध्यान से सुनना- कर्म विभिन्न प्रकार के होते हैं। एक व्यक्तिगत होते हैं, दूसरे होते हैं- सामाजिक। वैयक्तिक कर्म का फल कर्त्ता को और समष्टि कर्म का फल समाज को आम लगाना, बगीचा लगाना, कुआं खुदवाना यह समष्टि सामाजिक कर्म है। इनका फल समाज को मिलता है, किन्तु इससे यह न समझना कि आम लगाने वाले को नहीं मिलता। आम लगाने का फल केवल आम के फल खाना ही नहीं, अपितु कुछ और भी है। वह है अपने चित्त की प्रसन्न्ता इत्यादि। इस पर भी मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूं कि आपका यह अन्तिम उदाहरण तो किसी प्रकार आपके मन्तव्य को समर्पित नहीं कर सकता। यहां जीवित पिता जीवित सन्तान के लिए वृक्ष लग रहा है और मृतक श्राद्ध में तो पुत्र, पौत्र किसी अज्ञान स्थान पर रहने वाले के लिए श्राद्ध कर रहा है। इस कारण यह उदाहरण ठीक नहीं। उदाहरण से कोई वस्तु प्रमाणित नहीं की जा सकती। उदाहरण तर्क की पुष्टि के लिए दिया जाता है। श्राद्ध का पोषक तर्क आपने कोई भी नहीं दिया। तर्क के बिना वाद अस्वीकार्य। अब तक आपने श्राद्ध पक्ष में जो कुछ कहा, मैंने उसका खण्डन कर दिया है और जीवित पितरों के श्राद्ध करने में युक्ति भी दे दी है। शास्त्र-प्रमाण मैंने जानकर नहीं दिये।
श्रद्धाराम- यह आपने अच्छा किया। शास्त्र-प्रमाणों के अर्थ के सम्बन्ध में कलह हो जाता। मैं आपकी बातों को मानने में विवश हूं। मैं आपको एक बात बता दूं। एक दिन एक सनातनी पण्डित ने मुझसे कहा कि पितर चार प्रकार के होते हैं- एक वे जो गाड़े हुए हैं, एक वे जो जला दिए गए हैं, एक वे जो बहा दिए गए हैं और एक वे जो कहीं जंगल में आदि में फेंक दिए गए हैं। मैंने इसका उत्तर जो उत्तर दिया, तुम्हें सुनता हूं। मैंने कहा- वेद में यह बात नहीं हो सकती, क्योंकि वेद में तो शरीर को भस्म कर देने का विधान है। इनका तात्पर्य कुछ और होगा। इसके पश्चात् जब मैंने स्वयं इस प्रकरण को देखा, तो पता चला कि वे पण्डित दग्ध, परोप्त, निखात और उद्धृत शब्दों का अनर्थ कर रहे थे। यह तो भूमि के दोष दूर करने, बीज बोने, भूमि खोदने, हल चलाने और फल काटने वाले किसानों के नाम प्रतीत हुए। अब मैंने यह निश्चय किया कि चाहे ये मृतक पितरों के नाम भी हों, तो भी मृतक श्राद्ध सिद्ध नहीं होता। मैं आपका कृतज्ञ हूं कि आपने मुझे एक भ्रम से बचाया है। अब तो मुझे मृतक श्राद्ध पाप दीख पड़ता है। इसने हमारी सारी ब्राह्मण जाति को निष्कर्मण्य और धन्धे के बिना बना दिया है। मैं आपसे प्रण करता हूं कि मैं अपना शेष आयुष ब्राह्मणों को इस पाप से छुड़ाने में लगा दूंगा।

वेदमित्र- आपका संकल्प शुभ और पवित्र है। भगवान् आपको इस पर दृढ़ रहने का बल दें। मैंने आपको बताया है कि पितर का अर्थ ज्ञानी भी होता है। ज्ञान तो अनेक प्रकार का है। इस कारण ज्ञानी भी अनेक प्रकार के हैं। पुराणों में पितरों के इकत्तीस गुण लिखे हैं। किसी-किसी पुराण में पैंतीस गुण भी लिखे हैं। फिर प्रत्येक गण (समुदाय) में सहस्त्रों पितर हैं और इन सब की पत्नी केवल एक 'स्वधा' है। क्या आपकी बुद्धि में यह बात या सकती है? भाई! यदि मान लिया जावे कि इकत्तीस अथवा पैंतीस वर्गों की पत्नी (रक्षण शक्ति) एक ही है, तो बात कुछ बन जाती है। 'स्वधा' के अर्थ हैं- अपनी शक्ति। किन्तु मृतक पितरों की यह पत्नी कैसे? ऐसी बीसियों अनर्गल बातें मृतक श्राद्ध के साथ सम्बन्धित हैं। किन्तु यत: पौराणिक पण्डित अब उन बातों को नहीं कहते; अतः मैंने भी जानबूझ कर आपको नहीं सुनाई। अन्त में आपसे क्षमा चाहता हूं कि मैंने आपको रोक कर कष्ट दिया।
श्रद्धाराम- नहीं भाई! मैं आपका धन्यवाद करता हूं, आपने सत्यता का ज्ञान कराया। अच्छा, अब आप मुझे आज्ञा दीजिये। नमस्ते!

वेदमित्र- नमस्ते, भ्रातृ श्रेष्ठ!
[२८ भाद्रपद संवत् १९९७ विक्रमी -स्वामी वेदानन्द तीर्थ]

पाद टिप्पणी- देखो भागवत् पुराण, चौदहवां स्कन्ध, प्रथम अध्याय, श्लोक संख्या ६३।

Friday, September 11, 2020

लाला जगत नारायण जी के शाकाहारी बनने की कहानी


लाला जगत नारायण जी के शाकाहारी बनने की कहानी, उन्हीं की जुबानी

-लाल जगत नारायण

मेरा जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ जो आर्य समाजी था। मेरे पिता जी भी आर्य समाजी थे और माता जी तथा उनका परिवार भी आर्य समाजी था। हालांकि मैं यहां स्पष्ट कर दूं कि मेरे पिताजी के जीवन में कुछ विशेष परिवर्तन काफी लम्बे समय बाद घटित हुए। आर्यसमाज की विचारधारा के अनुरूप उनमें कई विशेषताएं थीं, जैसे सत्य बोलना, आर्यसमाजों के कार्यक्रमों में सम्मिलित होना, दूसरों के सेवा-सहायता के लिए हमेशा आगे रहना, किन्तु कई बार गलत संगति के कारण मदिरापान एवं अशुद्ध भोजन भी कर लेते थे। पिता जी कभी-कभी मदिरापान भी किया करते थे और माता जी हमेशा उनको शराब पीने से मना किया करती थीं और कई बार घर में मदिरापान और मांस खाने पर परस्पर झगड़ा भी हो जाया करता था।

जब पिता जी शराब पीकर घर आते थे तो मैं माता जी को बता दिया करता था कि आज पिता जी शराब पी कर आए हैं तो माता जी पिता जी को कहा करती थीं कि आप शराब न पीने का वायदा करके आज फिर क्यों शराब पीकर आए हैं तो पिता जी कहा करते थे कि मैंने शराब नहीं पी।
इस पर माता जी मुझे कहती थीं कि पिता जी का मुंह सूंघकर बताओ कि इन्होंने शराब पी हुई है या नहीं। तो मैं मुंह सूंघकर बता दिया करता था कि आज पिताजी शराब पीकर आए हैं और इस पर काफी झगड़ा हुआ करता था और मुझे भी थप्पड़ रसीद किए जाते थे।

यह बात 1905-1907 की है जब मैं 5-7 वर्ष का बालक था। मैं माता-पिता की इकलौती सन्तान था। अन्य बहन-भाई नहीं थे माता जी यद्यपि मांस खाने के बहुत विरुद्ध थीं, पर मुझे पिता जी के साथ मांस खाने से बहुत कम रोकती थीं क्योंकि वह घर में अधिक क्लेश पैदा करना नहीं चाहती थीं।
1907 में लायलपुर आर्य समाज मन्दिर में एक माता गंगा देवी उपदेशिका के रूप में पधारीं और उन्होंने 3-4 दिन मदिरापान तथा मांसाहार के विरुद्ध बड़े प्रभावशाली व्याख्यान दिए। उस उपदेशिका देवी ने मांसाहारी पुरुषों को संबोधित करते हुए कहा था कि क्या मासूम जानवरों का वध करके और उन्हें खाकर अपने पेट को कब्रिस्तान बना रहे हो!

मेरे पिता जी को उसी एक वाक्य ने इतना झकझोरा कि उन्होंने आर्य समाज के मंच पर यह घोषणा की कि मैं आज से न शराब पिऊंगा और न ही मांस खाऊंगा। श्रीमती गंगा देवी जी ने एक वाक्य यह भी कहा था कि मांस खाने वाले पशु-पक्षियों के जो बच्चे पैदा होते हैं वे पैदा होने के बाद पहले मां का दूध ही पीते हैं। शेरनी का बच्चा भी पैदा होने के बाद पहले मां का दूध ही पीता है और उसे मांस नहीं खिलाया जाता। पिता जी ने उस दिन के पश्चात् जब तक वह जीवित रहे न तो मांस खाया और न ही मदिरापान किया।
और तभी से मैंने भी मांस नहीं खाया और न ही अपने विवाहित जीवन के उपरान्त अपने पुत्रों चिरंजीव रमेश चंद्र तथा चिरंजीव विजय कुमार और न ही उनके परिवार तथा बच्चे मांस एवं शराब का सेवन करते हैं और न ही कभी हमारे परिवार को मांस खाने की प्रेरणा मिली है व न ही कभी मांस खाने की इच्छा किसी ने व्यक्त की है।

जो लोग यह प्रचार करते हैं कि मांसाहारी लोग बड़े योग्य और मजबूत होते हैं उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि हाथी और गैंडा दो ऐसे शक्तिशाली पशु हैं जो शेर के बाद पशुओं में बहुत शक्तिशाली माने जाते हैं परन्तु ये दोनों शाकाहारी हैं। आज से सौ वर्ष पहले तक भारत में जितने भी युद्ध हुए उनमें हाथी को एक विशेष स्थान प्राप्त होता था और जिस सेना के पास हाथी नहीं होते थे उसकी पराजय निश्चित समझी जाती थी।
इसके अतिरिक्त पुरातन समय में सहकारी सेना के भी चार भाग थे- पैदल, घुड़सवार, रथवाहिनी और हाथियों वाले सैनिक। रथों में घोड़े भी जोते जाते थे और बैल भी। इस प्रकार युद्ध में जो पशु काम आते थे वे तीनों ही शक्तिशाली व तीव्रगामी पशु बैल, घोड़ा, हाथी थे जो पूर्ण शाकाहारी हैं।
इतना ही नहीं बिजली का वेग बताने के लिए आज भी हार्स पावर अर्थात घोड़े की शक्ति शब्द का प्रयोग किया जाता है। किसी मांसाहारी पशु की शक्ति का शब्द नहीं। बहरहाल मैं अधिक तर्क पेश न करते हुए अपने परिवार तथा स्वयं को सुखी समझता हूं कि हमारा पूर्ण परिवार शाकाहारी है और हमें शाकाहारी होने पर गर्व है और बतौर माता गंगा देवी जी- हम अपने पेट में मासूम पशुओं के कब्रिस्तान नहीं बनने देते।

शाकाहारी जीवन एक पवित्र जीवन है और धार्मिक जीवन व्यतीत करने के लिए मनुष्य का शाकाहारी होना अत्यन्त आवश्यक है। संसार के सभी धर्म मनुष्य को शाकाहारी होने का उपदेश देते हैं इसलिए हमें अपनी धर्मपुस्तकों के अनुसार शाकाहारी बनना अत्यावश्यक है।

मेरा सारा जीवन राजनीति में गुजरा है। राजनीतिक व्यक्ति का जीवन बड़ा ही पापपूर्ण होता है। अगर किसी मनुष्य ने अत्यन्त धार्मिक जीवन व्यतीत कर अपनी आत्मा को शांति के मार्ग पर चलाने की कोशिश करनी हो तो उसको तब तक मन की शांति प्राप्त नहीं हो सकती जब तक वह मांस, मदिरा और तामसी भोजन का परित्याग नहीं करता।
अतः यह जरूरी है कि हम मांस, मदिरा व तामसी भोजन का त्याग करें, सादा जीवन बिताएं व संतों, महात्माओं, ऋषियों के मार्ग पर चलने का प्रयत्न करें। इसी में ही मनुष्य मात्र का कल्याण है।

[स्त्रोत- साप्ताहिक आर्य सन्देश : दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा का मुखपत्र का 7-13 सितम्बर, 2020 अंक]

Thursday, September 10, 2020

लाहौर की दो प्रमुख आर्यसमाजें : आर्यसमाज अनारकली एवं आर्यसमाज वच्छोवाली


लाहौर की दो प्रमुख आर्य समाजें : आर्यसमाज अनारकली एवं आर्यसमाज वच्छोवाली

-स्व० विश्वनाथ

पाकिस्तान बनने से पहले पंजाब की दो प्रमुख आर्यसमाजें थीं जहां से पंजाब ही नहीं, किसी सीमा तक देश भर के आर्यजगत् की गतिविधियों की कल्पना की जाती थी और उन्हें साकार किया जाता था। आर्यसमाज अनारकली आर्य प्रादेशिक सभा की प्रमुख समाज थी उसके प्रेरणा स्त्रोत महात्मा हंसराज जी थे। दूसरी थी- आर्यसमाज वच्छोवाली जिसकी धुरी थे महाशय कृष्ण जी जो दैनिक प्रताप और साप्ताहिक प्रकाश के सम्पादक और संचालक थे।

आर्यसमाज अनारकली-
पहले आर्यसमाज अनारकली की बात करूंगा। क्योंकि मेरा घर और कार्यालय, 'आर्य-पुस्तकालय' दोनों अनारकली बाजार के साथ लगती हुई हस्पताल रोड पर स्थित थे इसलिए विशेष आयोजन हो तो अनारकली समाज में जाता ही था। नाम तो अनारकली था परन्तु समाज अनारकली बाजार में नहीं थी। वह निकट की ही एक सड़क गणपत रोड पर बहुत बड़े भवन में स्थित थी। आर्यसमाज का अपना विशाल भवन था। इसकी ऊपरी मंजिल पर दैनिक उर्दू मिलाप का कार्य चलता था जिसके सर्वेसर्वा महाशय खुशहाल चंद खुर्सन्द जी थे जो उन दिनों भी अपना पूरा समय आर्यसमाज को देते थे और बाद में संन्यास लेकर जिन्होंने महात्मा आनन्द स्वामी के नाम से आर्यसमाज की अविस्मरणीय सेवा की। गणपत रोड पर ही एक मकान की पहली मंजिल पर उर्दू साप्ताहिक 'आर्य गजट' का कार्यालय था जिसके सम्पादक महात्मा हंसराज जी थे। कालान्तर में लाला खुशहाल चंद जी सम्पादक बने। उन दिनों उर्दू का बोलबाला था, उर्दू ही राजभाषा थी, इसलिए आर्यसमाज के समाचार पत्र भी उर्दू में ही छपा करते थे।

आर्यसमाज अनारकली में प्रवेश करने के लिए एक बड़े गलियारे में से गुजरना पड़ता था। इसे पार करके एक बड़ा आंगन और इसके बाद आर्यसमाज का विशाल भवन। अतिथियों के ठहरने के लिए कुछ कमरों की व्यवस्था थी। वहीं मैंने पहली बार वीतराग स्वामी सर्वदानन्द जी के दर्शन किये थे। रविवार के साप्ताहिक सत्संग में डी०ए०वी० आन्दोलन से जुड़े सभी प्रमुख व्यक्ति नियम से आते थे जिनमें जस्टिस मेहरचंद महाजन प्रिंसीपल श्री जी० एल० दत्ता, प्रिंसीपल मेहर जी, बक्षी रामरतन जी, लाला सूरजभान जी, प्रो० दीवानचंद शर्मा, प्रो० चारूदेव जी, प्रो० ए० एन० बाली आदि अनेकानेक महापुरुष नियम से आते थे। महात्मा जी अपनी उपस्थिति से सदा यह सन्देश देते थे- सत्संग में आना बड़ा महत्वपूर्ण है। उनके अपने उच्च उदाहरण से भी सभी प्रभावित होते थे। उन दिनों उपस्थिति बहुत अधिक होती थी और पूरा हॉल भर जाता था। कार्यक्रम की शुरुआत तो वैसी ही होती थी जो आज है। पहले यज्ञ, फिर प्रार्थना, वेद प्रवचन, सामयिक विषयों पर भाषण और बाद में मन्त्री द्वारा आर्यसमाज की गतिविधियों की सूचना और समाचार। मेरी स्मृति के अनुसार इस विशाल भवन में बिजली के पंखे लगे हुए थे। बड़ी बात यह है कि सभी आर्यपुरुष अपनी आन्तरिक प्रेरणा से नियमपूर्वक साप्ताहिक सत्संग में बड़े उत्साह से भाग लेते थे।

पाकिस्तान बन जाने के तीन चार वर्ष बाद मुझे पाकिस्तान जाने का अवसर मिला। वहां आर्यसमाज मन्दिर अनारकली की जो दुर्दशा देखी, हृदय रो उठा। मन्दिर के भव्य भवन को मुसलमान शरणार्थियों का अड्डा बना दिया गया था। मन्दिर के चारों ओर गन्दगी फैली थी। मन्दिर के सबसे ऊपर जो गुम्बद था, जिस पर ओ३म् ध्वज फहरा करता, वह टूटा हुआ था। सीलन और दुर्गन्ध में ही वहां लोग रह रहे थे। जैसे भारतवर्ष में महात्मा गांधी और नेहरू जी ने मस्जिदों की रक्षा के लिए पूरी शक्ति लगा दी थी कि पंजाब से आने वाले शरणार्थी वहां घुस न पायें, वैसे पाकिस्तान ने क्यों नहीं किया। वहां तो डी०ए०वी० कॉलेज लाहौर का नाम भी बदलकर इस्लामिया कॉलेज रख दिया गया और प्रवेश द्वार में घुसते ही कॉलेज के बड़े लान में सफेद संगमरमर की नई मस्जिद बना दी गई। इन सब बातों पर अलग से लिखूंगा। आर्यसमाज के साप्ताहिक सत्संग में कभी-कभी प्रिंसीपल दीवानचंद जी (कानपुर वाले), सर गोकुल चंद नारंग आदि महापुरुष आया करते थे और भाषण देते थे। बक्षी सर टेकचंद जी शायद इसलिए नहीं आते थे क्योंकि वे पंजाब हाईकोर्ट के जज थे। कैसे थे वे दिन, कैसा था वह उत्साह, कैसी थी आर्यसमाज के प्रति दीवानगी उन दिनों।
यहां पर एक बात का और जिक्र करना चाहूंगा कि पंजाब के आर्य युवकों को एक झण्डे के तले लाने के लिए आर्य युवक समाज की स्थापना लाहौर में हुई थी जिसमें हम चार युवक सक्रिय थे- श्री देवराज चड्डा, श्री यश जी (सुपुत्र महात्मा आनन्द स्वामी), श्री ओंकार नाथ जी (मुम्बई वाले) और मैं। मुझे याद है कि आर्यसमाज अनारकली की वार्षिकोत्सव के दिनों हम अपना विशेष अधिवेशन करते थे जिसमें पंजाब के सभी जिलों से आर्य युवक प्रतिनिधि बड़े उत्साह से भाग लेने आते थे।

आर्यसमाज वच्छोवाली-
अब आर्यसमाज वच्छोवाली की कुछ स्मृतियां। इस समाज की स्थापना महर्षि दयानन्द जी के जीवनकाल में ही लाहौर में हो गई थी। लाहौर के चारों ओर एक बड़ी भारी मजबूत फसील (दीवार) थी जिसमें १२ दरवाजे थे जैसे मोरी दरवाजा, भाटी दरवाजा, मोची दरवाजा इत्यादि। इनमें शाह आलमी दरवाजा भी था जिसके अन्दर अनेकों बाजारों, गली-कूचों में हिन्दुओं के परिवार रहते थे और हिन्दुओं की दुकानें भी थीं। इसके अन्दर एक गली का नाम वच्छोवाली था। महाराजा रणजीत सिंह के समय की एक विशाल हवेली में यह आर्यसमाज स्थित था जो उस समय की स्थापत्य-कला का नमूना था। बेसमेंट का रिवाज तो अब चला है परन्तु आर्यसमाज वच्छोवाली में एक बेसमेंट भी था और गुरुद्वारों की भांति अनेक सीढ़ियां ऊपर की ओर चढ़कर प्रवेश द्वार था जिसके अन्दर एक मुख्य हॉल और तीन दिशाओं में तीन छोटे हॉल थे जिनमें एक महिलाओं के लिए सुरक्षित था। उन दिनों आर्यसमाज के गणमान्य सभासद हाथों में बहुत बड़े कपड़े के झालरदार पंखे लेकर उन्हें झुलाया करते थे जिससे श्रोतागण को गर्मी का अहसास कम हो और वे सत्संग में शान्तिपूर्वक भाग ले सकें। एक ही सयम में आठ-दस व्यक्ति साप्ताहिक सत्संग में अलग-अलग स्थानों पर इन पंखों को झुलाते थे। साप्ताहिक सत्संग में नगर के गणमान्य व्यक्ति जिनमें महाशय कृष्ण जी, पं० ठाकुर दत्त जी अमृतधारा, पण्डित ठाकुर दत्त वैद्य मुलतानी, पण्डित हीरानन्द जी, पायनियर स्पोर्ट्स के रोशनलाल जी, लाहौर के पोस्ट मास्टर भाटिया जी, रेलवे के बड़े उच्च अधिकारी सरदार मेहर सिंह जी और ऐसे ही कितने अनेक व्यक्ति नियम से आते थे।

लाहौर में आर्यसमाज का केन्द्रीय कार्यालय, गुरुदत्त भवन रावी रोड पर स्थित था जहां आर्य प्रतिनिधि सभा का विशाल कार्यालय भी था। वहां से स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, स्वामी वेदानन्द जी, पं० प्रियरत्न जी, पण्डित बुद्धदेव जी विद्यालंकार, पण्डित ज्ञानचंद जी आर्यसेवक, पण्डित विश्वम्भरनाथ जी, आदि नियम से आते थे यदि वे लाहौर से बाहर नहीं गये हों। पूरा भवन खचाखच भरा रहता था। उन दिनों श्री देवेन्द्रनाथ अवस्थी एडवोकेट समाज में मन्त्री थे और मैं सहमन्त्री था।

वार्षिकोत्सव की धूम-
इन दोनों आर्यसमाजों का वार्षिकोत्सव नवम्बर के अन्तिम सप्ताह में एक साथ ही होता था। वच्छोवाली का वार्षिकोत्सव गुरुदत्त भवन के विशाल प्रांगण में होता था और अनारकली का डी०ए०वी० मिडल स्कूल लाहौर की ग्राउण्ड में और बाद में डी०ए०वी० हाई स्कूल के ग्राउण्ड में होने लगा। पंजाब भर के आर्यसमाजी नवम्बर में आने का कार्यक्रम समय से पहले ही बना लेते थे जहां उन्हें एक से बढ़कर एक विद्वान्, संन्यासी और प्राध्यापकों के विचार सुनने को मिलते थे और साथ ही विख्यात भजन मण्डलियों के भजन जिनमें चिमटा भजन मण्डली भी होती थी। कविवर कुंवर सुखलाल जैसे अद्वितीय कवि भी हुआ करते थे जो श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध कर देते थे। लोग रात के ११ बजे तक यह कार्यक्रम सुनते थे। पिछली पंक्तियों में खड़े लोग सुनते नहीं थकते थे। गुरुदत्त भवन और डी०ए०वी० को जोड़ने वाली सड़क पर भीड़ का तांता लगा रहता था सैकड़ों आर्यपुरुष, देवियां और बच्चे उत्साह से इधर से उधर जाते रहते थे- एक उत्सव से दूसरे उत्सव की ओर। वह एक दर्शनीय दृश्य होता था। अब तो बस इसकी यादें रह गई हैं। सम्भवतः आज की पीढ़ी को इन सब पर विश्वास करना कठिन हो परन्तु यह आर्यसमाज के स्वर्ण युग की झांकी है जो अब स्मृति शेष रह गई है।

वार्षिक उत्सव के प्रारम्भ में शुक्रवार के दिन विशाल नगर कीर्तन निकाला जाता था जो सारे नगर की परिक्रमा करता था और जिसकी शान और सजधज देखते बनती थी। प्रत्येक जिले से आर्यसज्जन अपनी-अपनी मण्डली बनाकर ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज का गुणगान करते हुए पैदल चलते थे। ऐसी मण्डलियां ५० से अधिक ही होती थीं। अलग-अलग जिलों से आने के कारण उनके पहनावे और बोली में भी काफी अन्तर होता था। जैसे फ्रंटियर के आर्यसमाजी और मुलतान से आने वाले सज्जन, दोनों का पहनावा और उच्चारण अपनी विशेषता लिए हुए होता था, मानो अनेकता में एकता का दर्शन हो। इस जुलूस में आर्यसमाज के प्रमुख विचारक और प्रचारक जगह-जगह प्रत्येक चौक में गाड़ी खड़ी करके वेद प्रचार करते थे। इसी प्रकार अनेक बैलगाड़ियों पर प्रसिद्ध गायक और भजन मण्डली पूरी साज-सज्जा के साथ भजन गाते थे। डी०ए०वी० कॉलेज और डी०ए०वी० स्कूलों के विद्यार्थी और अध्यापक केसरी रंग की पगड़ियां पहने हुए पंक्तिबद्ध होकर चलते थे और "हम दयानन्द के सैनिक हैं, दुनिया में धूम मचा देंगे" का गान करते थे तो एक समां बंध जाता था। आप सम्भवतः आश्चर्य करें कि डी०ए०वी० कॉलेज के सभी विद्यार्थियों की हाजिरी ली जाती थी ताकि प्रत्येक विद्यार्थी का नगर-कीर्तन में सम्मिलित होना सुनिश्चित हो। मुस्लिम बहुल लाहौर शहर में इस नगर कीर्तन के कारण मुसलमानों के हृदय पर परोक्ष रूप से आतंक भी छा जाता था। महात्मा हंसराज जी प्रायः अनारकली में प्रसिद्ध दुकान 'भल्ले दी हट्टी' के मुख्यद्वार पर बैठकर इस शोभायात्रा का आनन्द लेते थे। गलियों, बाजारों के दोनों ओर दुकानों और छतों से भी नर-नारी बच्चे उस नगर कीर्तन को देखते थे। इस भव्य यात्रा में शारीरिक व्यायाम के करतब, गतकों के खेल आदि भी देखने को मिलते थे। वार्षिकोत्सव शनिवार और रविवार को होता था, परन्तु लाहौर के गली-मोहल्लों में आर्यपुरुषों और देवियों की प्रभात फेरिया एक सप्ताह पहले से ही सबको सूचना देने के लिए शुरू हो जाती थी। डी०ए०वी० के अध्यापक पन्द्रह दिन पहले ही सारे नगर में वार्षिकोत्सव की सूचना देने वाले कपड़े के बोर्ड सड़कों के आर-पार लगा देते थे। आज न वे दिन रहे, न उत्साह, न धर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा।
-स्व० विश्वनाथ जी के आलेखों से

[स्त्रोत- टंकारा समाचार : श्री महर्षि दयानन्द सरस्वती स्मारक ट्रस्ट का मासिक पत्र का अगस्त २०२० का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]

Thursday, September 3, 2020

सिख-धर्मग्रन्थों में मातृशक्ति का गौरव


सिख-धर्मग्रन्थों में मातृशक्ति का गौरव

-ज्ञानी श्रीसतसिंह प्रीतम, एम०ए०

सिख सम्प्रदाय के दो मूल ग्रन्थ हैं- एक 'आदि-ग्रन्थसाहिब', जिसका सम्पादन गुरु अर्जुनदेवजी ने किया। इसमें गुरु नानक, गुरु अंगद, गुरु अमरदास, गुरु रामदास, गुरु अर्जुनदेव, गुरु तेगबहादुर तथा भारत के अन्य संत और भक्तों की वाणियाँ हैं। दूसरा 'दशम ग्रन्थ' है, जिसके रचयिता संत-सिपाही गुरु गोविन्दसिंहजी हैं। गुरु गोविन्दसिंहजी एक सच्चे कर्मयोगी थे। माता-सम्बन्धी विचार उनके दशम ग्रन्थ में अधिक है। आदिग्रन्थ की जय-वाणी में गुरु नानकदेवजी मां से ही सृष्टि का होना लिखते हैं।

एका माई जुगति वियाई तिनि चेले परवाण।
इकु संसारी इकु भण्डारी इकु लाए दीवाण।।
अर्थात् 'एक ही माता जब युक्ति से ब्रह्मद्वारा प्रसूत हुई, तब उससे ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवजी की उत्पत्ति हुई।'

गुरु अर्जुनदेवजी ब्रह्म को पिता और माता शब्द द्वारा सम्बोधित करते हैं-
तुम मात पिता हम बारिक तेरे तुमरी कृपा महि सूख घनेरे।

गुरु गोविन्दसिंहजी ने दशम-ग्रन्थ में अपना जीवन-चरित्र स्वयं लिखा है। आप अपने पिछले जन्म की कथा लिखते हुए कहते हैं कि पिछले जन्म में मैंने ब्रह्म (परब्रह्म परमात्मा) तथा माता काली की उपासना की थी। आप महाकाल, अकाल, अकाल पुरुष आदि नामों से ब्रह्म को पुकारते थे तथा ब्रह्म और शक्ति में अभेद मानते थे। उन्होंने दशम-ग्रन्थ में माता की स्तुति बड़े सुन्दर शब्दों में की है। जैसे-
होई कृपा तुमरी हम पै, तु सभै सवाने गुन हों धरिहौं।
जीय धार विचार तब वरबुध, महा अग्नि गुणकों हरिहौं।।
बिन खण्ड कृपा तुमरी कबहूँ, मुख ते नहीं अच्छर हौं करहौं।
तुमरो करे नाम किधें तुलहा, जिस बाक समुद्र बिखै तरहौं।।

और-
संकट हरन, सभ सिद्ध की करन,
चण्ड तारन तारन, शरण लोचन विशाल है।
आदिजा के आहि, बहै अन्त को न पारावार
शरण उबारण, करण प्रतिपाल है।।
असुर संघारन, अनिक दुख नासन,
सु पतित उधारन छुड़ाये जम जाल है।
देवी वर लायक, सु बुध हूँ की दायक,
सु देहि बर पायक बनावै ग्रंथ हाल है।।

इस पद में गुरु गोविन्दसिंहजी ने दशम-ग्रन्थ की रचना के समय मातृ-कृपा के लिए प्रार्थना की है। गुरु गोविन्दसिंहजी दशम-ग्रन्थ में सृष्टि की रचना लिखते समय माता अर्थात् भवानी का आविर्भाव इस प्रकार लिखते हैं। आप माता को निम्नतर ईश्वर नहीं मानते थे, अपितु ब्रह्म से अभिन्न मानते थे। जैसे-
प्रथम काल सब जगको ताता,
ताते तेज भयो विख्याता।
सोई भवानी नाम कहाई,
जिन एह सगली सृष्टि बनाई।।

उनके विचार से प्रभु की ज्योति, जो सृष्टि के आदि में संसार की उत्पत्ति का कारण बनी, माता ही हुई। छक्के पातशाही १० में आप लिखते हैं-
अटल छत्र धरनी तुही आदि देव,
सकल मुनि जना तोहि जिस दिन सरेव।
तुही काल आकाल की जोति छाजै,
सदा जय सदा जय सदा जय विराजै।
यही दास मांगै कृपा सिंधु कीजै,
स्वयम् ब्रह्मकी भक्ति सर्वत्र दीजै।।

ब्रह्म की भक्ति प्रदान करनेवाली माता ही है। माता से ही भक्ति की याचना की गयी है। आप माता को जगत्-जननी, अन्नदैनी, ब्रह्माण्ड-सरूपी आदि विशेषणों से स्मरण करते हैं-
तुही जगत जननी अनन्ती अकाल,
तुही अन्नदैनी सभनको सम्भाल।
तुही खण्ड ब्रह्माण्ड भूमं स्वरूपी,
तुही विष्णु, शिव, ब्रह्म, इन्द्रा अनूपी।।

माता के खेल तथा शक्ति की महिमा 'दशम-ग्रन्थ' में गुरुजी की कविता में दर्शनीय है-
तुही सब जगत को अपावै छुपावै,
बहुड़ आपे छिनक में बनावै खपावै।
जुगो जुग सकल खेल तुम्हीं रचायो,
तुमन खेलका भेद किनहँ न पायो।
तुमन कुदरती खेल कीनो अपारा,
तुमन तेज सो कोट रवि शशि उजारा।
तुही अम्बके शक्ति कुदरति भवानी
तुमन कुदरति जोति घट घट समानी।।

गुरु गोविन्दसिंहजी ने 'दशम-ग्रन्थ' में चण्डी-चरित्र को तीन बार लिखा है- दो बार ब्रजभाषा में, एक बार पंजाबी में। उसके अन्त में माहात्म्य लिखते हैं-
जे जे तुमरे ध्यान को नित उठि ध्यैंहैं संत।
अंत लहैंगे मुक्ति फुलु, पावहिंगे भगवंत।।
संत सहाई सदा जग मांई,
जह तह साधन होई सहाई।
दुर्गा-पाठ बनाया सभै पौड़ायाँ
फेर न जूनी आया जिन इहं गाइया।।
अंतर ध्यान भई जग माई
तब लंकुढीए गिरा अलाई।
मम बाना कछनी इहु लीजै
अपने सरब पंथ में दीजै।।

गुरुजी ने सिखों को आज्ञा दी कि पूजा के धन को ग्रहण न करना; क्योंकि यह विष-तुल्य है। एक बार सिख-सेवकों ने गुरु गोविन्दसिंहजी की शिकायत उनकी माता से की कि 'जो दान आता है वह सब गुरुजी ब्राह्मणों या दीनों को दे देते हैं।' माताजी ने गुरुजी को बुलाया और पूछा- 'पुत्र! क्या बात है?' उस समय गुरु गोविन्दसिंहजी ने जो वचन कहे, वे स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य हैं-

ज्यों जननी निज तनुजको निरख जहर नहीं देत।
स्यों पूजाके धान को मेरो सिख न लेत।
'जिस प्रकार मां अपने पुत्र को देखकर भी विष नहीं देती, उसी प्रकार पूजा के धान को मेरे सिखों को नहीं लेना चाहिए; क्योंकि यह विष के समान सिख धर्म को विनाश के कगार पर ले जायगा।'

आज सिख-सम्प्रदाय के लिए यह शब्द एक चेतावनी है। गुरुद्वारों के धन का सदुपयोग होना चाहिए। सिख को कर्मयोगी बनकर स्वयं कमाना चाहिए। सिख-सम्प्रदाय हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए बनाया गया था। आज स्थिति चिन्तनीय हो रही है! यह समय विचारपूर्वक चेतने और सँभलने का है।

[स्त्रोत- कल्याण : गीताप्रेस गोरखपुर का शक्ति उपासना अंक; वर्ष ६१; जनवरी १९८७ ई०; पृष्ठ ४७२-४७३; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]

महर्षि दयानन्द जी की दृष्टि में "यज्ञ"


महर्षि दयानन्द जी की दृष्टि में "यज्ञ"

लेखक- वैदिक गवेषक आचार्य शिवपूजनसिंहजी कुशवाहा 'पथिक', विद्यावाचस्पति, साहित्यालंकार, सिद्धान्तवाचस्पति

[पश्चिमी विद्वानों के द्वारा वेदों का अनर्थ करने के बाद यदि किसी ने वेद के मन्त्रार्थ को बिगाड़कर अध्यात्म-ज्ञान की हिंसा का श्रेय प्राप्त करना चाहा तो उसमें पौराणिक जगत् सदैव अग्रणी रहा है। वेदों के सत्यार्थ को जन-सामान्य में पुन: प्रतिष्ठित करके शास्त्रार्थ-परम्परा का उदय आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने किया। आर्यजगत् की शास्त्रार्थ परम्परा ने धर्म से भटके हुए न जाने कितने मनुष्यों को वेदों से परिचित कराकर सभी पर उपकार किया है। जिस समय हिन्दू समाज में स्वपक्ष का पोषण करने वाले पोपमण्डल ने अष्टादशपुराणों की निराधार मान्यताओं को चारों ओर फैलाया था, उस समय आर्यजगत् के दिग्गज विद्वानों ने इनके आधारहीन स्तम्भों को उजाड़कर रख दिया था। उन विद्वानों में आचार्य शिवपूजनसिंहजी कुशवाहा की भूमिका अतुलनीय रही है। पौराणिक जगत् के विद्वान् यज्ञ शब्द से केवल 'अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध पर्यन्त श्रौत कर्मों' का ही ग्रहण करते हैं, जबकि वेदों के पुनरुद्धारक स्वामी दयानन्दजी महाराज अपने वेदभाष्य में यज्ञ शब्द का अर्थ 'अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध पर्यन्त श्रौत कर्म' के अतिरिक्त 'अनेक शुभ कर्मों' का भी ग्रहण करते हैं। 'यज्ञ' शब्द 'यज्ञ देवपूजासंगतिकरणदानेषु' (धातुपाठ १/७२८) इस धातु से 'यजयाचयतविच्छप्रच्छरक्षो नङ्' (अष्टाध्यायी ३/३/९०) इस पाणिनीय वचनानुसार भाव में 'नङ् (न)' प्रत्यय होकर बनता है। 'यज' धातु के देवपूजा, संगतिकरण और दान ये तीन अर्थ हैं। इस ऐतिहासिक लेख में आर्यजगत् के अद्वितीय विद्वान् शास्त्रार्थ महारथी आचार्य शिवपूजनसिंह कुशवाहा जी ने पौराणिक जगत् की यज्ञ सम्बन्धी भ्रान्ति का निवारण किया है, जो 'वेदवाणी' (मासिक) के फरवरी १९५४ के अंक में प्रकाशित हुआ था। लेख में एकाध स्थल पर हुई अशुद्धियों को शोध करके यह लेख पाठकों के लाभार्थ उपलब्ध कराया जा रहा है। -प्रियांशु सेठ]

वेदों पर श्री स्कन्दस्वामी उद्गीथ वेंकटमाधव, आत्मानन्द, देवस्वामी, मुद्गल, हरिस्वामी, आनन्दबोध, देवयाज्ञिक, देवपाल, भवस्वामी, भट्ट भास्कर, भरत स्वामी आदि आचार्यों के भाष्य हस्तलेख रूप में प्राप्त हैं। श्री सायण, उव्वट, महीधर ने भी वेदभाष्य किए, परन्तु ये रूढ़िवाद में पड़कर वेदों के वास्तविक अर्थ से दूर रहे। इन्होंने वेदों के अश्लील तथा दूषित अर्थ किए। अश्व महिषी संगम, गोमांस आदि खाने तक के सम्पूर्ण वाममार्ग के सिद्धान्तों को प्रदर्शित किया जिससे वेदों की महिमा जाती रही। इनके भाष्य पर बंगाल के वेदों के सुप्रसिद्ध पण्डित आचार्य सत्यव्रतजी सामश्रमी लिखते हैं-
"वस्तुतो ध्वान्ताच्छन्नविज्ञानकालिकानामशेषशेमुषीमतामपि तेषां सायणमहीधरादीनामधिदेवतार्थतोऽपि मन्त्राभिप्रेतं प्रकृतविज्ञानं नैव स्फुरितं सम्यगिति तच्छोच्यमेवाभवत्।"
अर्थात्- "अन्धकार से आच्छन्न समय में होने के कारण परम विद्वान् होते हुए भी सायण, महीधरादि वैदिक विज्ञान न जान सके यह शोक है।"

वेदभाष्यकारों के विषय में वैदिक गवेषक श्री पं० भगवद्दत्तजी देहली ने भी विस्तृत विवेचन किया है। आर्यसमाज के संस्थापक योगिराज महर्षि दयानन्दजी महाराज ने भी अपनी लेखनी उठाकर वेदार्थ में क्रान्ति उत्पन्न कर दी। आपने वेदों को प्रभु की वाणी, नित्य और स्वतःप्रमाण कहा है और अपने 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका', 'सत्यार्थप्रकाश' आदि ग्रन्थों में भी लिखा है। आपका अर्थ त्रिविध प्रक्रिया के अनुसार है जिस प्रक्रिया को श्री स्कन्दस्वामी ने भी अपने निरुक्त भाष्य में स्पष्ट स्वीकार किया है। इनके भाष्य की प्रशंसा बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानों ने मुक्त कण्ठ से की है। इसका पूर्ण विवेचन हमने अपने ग्रन्थ 'महर्षि दयानन्दजी कृत वेदभाष्यानुशीलन' में किया है जो पाठकों को अवश्य देखना चाहिए।

आधुनिक काल के योगिराज परलोकवासी श्री अरविन्द घोष जी ने स्पष्ट लिखा है-
"There is nothing fantastic in Dayanand's idea that Veda contains other truths of science as well as Religion. I will add my own conviction that Veda contains other truths of science which the modern world does not possess at all. Immediately the character of the Veda is fixed in the sense Dayanand gave to it, the merely ritual mythological and polytheistic interpretation of Sayanacharya collapses, and the merely Naturalistic and mateorological interpretation of Europeans also collapses. We have instead, one of the world's Sacred Books and the Divine worth of lofty and noble religion."
अर्थात्- "ऋषि दयानन्द की इस धारणा में कि वेद धर्म और पदार्थ विद्या के भंडार हैं कोई अयुक्त वा अनहोनी बात नहीं है। मैं उनकी उत्तम धारण में अपना विश्वास और जोड़ना चाहता हूं कि वेदों में पदार्थ विद्या की अन्य ऐसी सच्चाइयां भी हैं जिनको आजकल का संसार यत्किंचित् भी नहीं जान पाया है। एक बार वेदों की स्थिति स्वामी दयानन्द के अभिमतानुसार समासीन हो जाने दो तो फिर देखोगे कि सायणाचार्य का केवल रूढ़िपरक और कपोल-कल्पित अनेक ईश्वरवाद पर आश्रित वेदों के भाष्य का भवन अपने आप गिर जाएगा और उसी के साथ-साथ पाश्चात्य विद्वानों का केवल भौतिक पदार्थ और प्राकृतिक पूजनपरक भाष्य भी धराशायी हो जाएगा और वेद एक उच्च तथा गौरवास्पद ईश्वरीय ज्ञान पुस्तक के रूप में हमारे पास शोभनीय होगा।"

'यज्ञ' शब्द के विषय में बड़ा मतभेद है। कुछ विद्वान् 'यज्ञ' शब्द से केवल 'अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध पर्यन्त श्रौर कर्मों' का ही ग्रहण करते हैं। काशी के पौराणिक पण्डित वेणीराम शर्मा गौड़, वेदाचार्य, काव्यतीर्थ ने 'यज्ञ-मीमांसा' नामक एक उत्तम पुस्तक लिखी है पर पौराणिक दृष्टिकोण से लिखी जाने के कारण हम पूर्णतः सहमत नहीं हैं।

'यज्ञ' का अर्थ 'यज्, देवपूजा, संगतिकरण, दानेषु' इस धात्वर्थ के आधार पर है। महर्षि दयानन्द जी महाराज अपने वेदभाष्य में 'यज्ञ' शब्द का अर्थ 'अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध पर्यन्त श्रौत कर्म' के अतिरिक्त 'अनेक शुभ कर्मों' का ग्रहण करते हैं। वैदिक और प्राचीन साहित्य में 'यज्ञ' शब्द का ऐसे ही व्यापक अर्थ में प्रयोग है और प्रत्येक श्रेष्ठ कर्म का उसमें अन्तर्भाव हो सकता है। यथा-
अध्वरो वै यज्ञ: (शतपथ ब्रा० १/२/४/५, १/४/१/३८), यज्ञो वै नम: (शतपथ ब्रा० ७/४/१/३०), यज्ञो वै भुज्यु: (यजुर्वेद अ० १८ मं० ४२), यज्ञो हि सर्वाणि भूतानि भुनक्ति (शतपथ ब्रा० ९/४/१/११), यज्ञो भग: (शतपथ ब्रा० ६/३/१/१९), यज्ञो ह वै मधु सारघम् (शतपथ ब्रा० ३/४/३/१४), यज्ञो वै स्व: (यजु० १/११), यज्ञो वै सुम्नम् (शतपथ ब्रा० ७/२/२/४), यज्ञो वै विशो यज्ञे हि सर्वाणि भूतानि विष्टानि (शतपथ ब्रा० ८/७/३/२१), ब्रह्म हि यज्ञ: (शतपथ ब्रा० ५/३/२/४), यज्ञो वै भुवनज्येष्ठ: (कौ० ब्रा० २५/११), यज्ञो वै भुवनस्य नाभि: (तैत्तिरीय ब्रा० ३/९/५/५), रेतो वाऽ अत्र यज्ञ: (शतपथ ब्रा० ७/३/२/९), यज्ञो वा अवति (ताण्ड्य० ब्रा० ६/४/५), ऋतुसंधिषु वै व्याधिर्जायते (गोपथ ब्रा० उ० १/१९, कौ० ब्रा० ५/१), आत्मा वै यज्ञ: (शतपथ ब्रा० ६/२/१/७), स्वर्गो वै लोको यज्ञ: (कौ० १४/१), यज्ञो विकंकत: (शतपथ ब्रा० १४/१/२/५), यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म (शतपथ ब्रा० १/७/१/५), यज्ञो हि श्रेष्ठतमं कर्म (तैत्तिरीय० ब्रा० ३/२/१/४), यज्ञो वै महिमा (शतपथ ब्रा० ६/३/१/१८), पुरुषो वै यज्ञ: (कौषीतकी ब्रा० १७/७), यज्ञो वै भुवनम् (तै० ३/३/७/५), यज्ञो वा ऽऋतस्य योनि: (शतपथ ब्रा० १/३/४/१६)।
इन वचनों से महर्षि के अर्थों की पुष्टि होती है। इन वाक्यों में लोकोपकारक सब श्रेष्ठ कर्मों को यज्ञ नाम से कहा गया है।

अब महर्षि दयानन्दजी महाराज के वेदभाष्य से कतिपय उदाहरण दिये जाते हैं-
(१) यजुर्वेद अ० १ मन्त्र २१ के भावार्थ में 'विद्वत्सङ्ग विद्योन्नितिर्होमशिल्पाख्यैर्यज्ञैर्वायुवृष्टिजलशुद्धयश्च सदैव कार्य्या इति' - विद्वानों का सङ्ग तथा विद्या की उन्नति से वा होम शिल्प कार्यरूपी यज्ञों से वायु और वर्षा जल की शुद्धि सदा करनी चाहिए।

(२) यजु० अ० ५ मन्त्र २ में 'उर्वशी' शब्द का यौगिक अर्थ करते हैं- 'ययोरूणि बहूनि सुखान्यश्नुवते सा यज्ञक्रिया' - बहुत सुखों को प्राप्त करानेवाली यज्ञ क्रिया है।
पौराणिक भाष्यकार यहां 'उर्वशी' से 'अप्सरा' का ग्रहण करते हैं जो भ्रममात्र है।
देखिए ऋग्वेद ७/३३/१० में 'उर्वशी' को 'विद्युतोज्योति:' - 'विद्युत की ज्योति' कहा है। ऋग्वेद १०/९५/१७ में 'उर्वशी' को वाणी कहा है।
निरुक्तसमुच्चय (४/१४) में 'उर्वशी' को 'विद्युत' बतलाया है। 'विद्युत उर्वशी' इति दुर्गाचार्य: (निरुक्तभाष्य ५/१४)
महीधर ने यजु० ५/२ का अश्लील अर्थ करते हुए लिखा है- 'यथोर्वशी पुरूरवोनृपस्य भोगायाधस्ताच्छेते...' अर्थात् 'जैसे उर्वशी, पुरुरवा राजा के भोग के लिए नीचे सोती है।
इनका अर्थ सर्वथा ही त्याज्य है क्योंकि महीधर वाममार्गी थे।

(३) यजु० अ० ५ मन्त्र ३ में यज्ञ शब्द का अर्थ- 'अध्ययनाध्यापनाख्यं कर्म' - पढ़ने-पढ़ाने रूप यज्ञ।
राजर्षि मनु जी ने भी लिखा है- 'अध्यापनं ब्रह्मयज्ञ:' (मनुस्मृति ३/७०)। इसकी व्याख्या करते हुए श्री कुल्लूक भट्ट लिखते हैं- 'अध्यापनशब्देनाध्य्यनमपि गृह्यते जपोऽहुत: इति वक्ष्यमाणत्वात्। अतोऽध्यापनमध्ययनं च ब्रह्मयज्ञ:।'
इससे महर्षि दयानन्द जी कृत - 'अध्ययनाध्यापनरूप' अर्थ का स्पष्ट समर्थन होता है।

(४) यजु० ७/३५ में 'सोमं' शब्द का अर्थ- 'सकलगुणैश्वर्य्यकल्याणकर्माध्य्यनाध्यापनाख्यं यज्ञम्' - समस्त अच्छे गुण, ऐश्वर्य और सुख करने वाले पठनपाठन-रूपी यज्ञ को।
इसी प्रकार इसी मन्त्र में 'सुयज्ञा:' शब्द का अर्थ- 'शोभनोऽध्य्यनाध्यापनाख्यो यज्ञो येषां त इव' - 'अच्छे पढ़ने-पढ़ाने वाले विद्वानों के समान।'

(५) यजु० ११/७ में तथा ९/१ में 'यज्ञं'- 'सर्वेषां सुखजनकं राजधर्मम्' - 'सब को सुख देने वाले राजधर्म का' (यजु० ९/१ में)। और 'यज्ञम्'- 'सुखानां सङ्गमकं व्यवहारम्' - 'सुखों के प्राप्त कराने हारे व्यवहार वह सब यज्ञ है' (यजु० ११/७ में)।

(६) यजु० अ० ११ मन्त्र ८ में 'यज्ञम्' - 'विद्या और धर्म का संयोग कराने हारे यज्ञ को।'

(७) यजु० अ० १८ मन्त्र १६ में  'यज्ञेन'- 'विद्यैश्वर्य्योन्नतिकरणेन' - 'यज्ञ उस साधन को कहते हैं, जिससे विद्या और ऐश्वर्य की उन्नति हो।'

(८) यजु० अ० १८ मन्त्र ९ में 'यज्ञेन'- 'सर्वरसपदार्थवर्द्धकेन कर्मणा' - 'यज्ञ उस कर्म को कहते हैं जो सर्व रसों और पदार्थों को बढ़ावे।'

(९) यजु० अ० १८ मन्त्र २६ में 'यज्ञेन'- 'पशुपालनविधिना' - 'जिस विधि से पशुपालन हो उस विधि का नाम यज्ञ है।'

(१०) यजु० अ० १८ मन्त्र २७ 'यज्ञेन'- 'पशुशिक्षाख्येन' - 'पशु शिक्षा भी यज्ञ है।'

(११) यजु० अ० १८ मन्त्र ६२ में 'यज्ञम्'- 'अध्ययनाध्यापनाख्यम्' - अध्ययनाध्यापन कर्म का नाम यज्ञ है।

(१२) यजु० अ० २२ मन्त्र ३३ में 'यज्ञ' शब्द बहुत बार आया है। इस मन्त्र में 'यज्ञ' शब्द से अनेक अर्थों का ग्रहण किया है। विद्यादान को भी यज्ञ कहा है। योगाभ्यास आदि कर्म भी यज्ञ है। श्रेष्ठ काम वा उत्तम काम यज्ञ है। यज्ञ का अर्थ यज्ञादि सत्कर्म करके प्रकट किया है कि जिन कर्मों को यज्ञ शब्द से ही प्रकट कर सकते हैं, उनसे अतिरिक्त कर्मों का ग्रहण भी 'यज्ञ' शब्द से करना युक्त है।
व्यापक परमात्मा और जीवात्मा दोनों यज्ञ हैं।

(१३) यजु० अ० २३ मन्त्र ५७ में 'यज्ञ' शब्द का अर्थ 'जगत् वा संसार' किया है।

(१४) यजु० अ० २३ मन्त्र ६२ में 'यज्ञ' शब्द से 'जगदीश्वर' अर्थ किया है।

(१५) यजु० अ० २५ मन्त्र २७ में 'यज्ञ' शब्द का अर्थ 'सत्कार' किया है।

(१६) यजु० अ० २५ मन्त्र २८ में 'यज्ञ' शब्द का अर्थ 'संगत' किया है।

(१७) यजु० अ० २५ मन्त्र ४६ में 'यज्ञ' शब्द का अर्थ 'विद्वानों के सत्कार आदि उत्तम काम' किया है।

(१८) यजु० अ० २६ मन्त्र १९ में 'यज्ञम्' का अर्थ 'धर्म्ये व्यवहारम्' - 'धर्मयुक्त व्यवहार' ऐसा किया है।

(१९) यजु० अ० २६ मन्त्र २१ में 'यज्ञम्' का अर्थ 'प्रशस्तव्यवहारम्' - 'उत्तम व्यवहार' किया है।

(२०) यजु० अ० २७ मन्त्र १३ में 'यज्ञ' का अर्थ 'सङ्गत व्यवहार' किया है।

(२१) यजु० अ० २७ मन्त्र २६ में 'यज्ञ' का अर्थ 'सङ्गत संसार' किया है।

(२२) यजु० अ० २९ मन्त्र ३६ में 'यज्ञ' का अर्थ 'अनेकविधव्यवहारम्' ऐसा किया है।

(२३) यजु० अ० ३० मन्त्र १ में 'यज्ञ' शब्द का अर्थ- 'राजधर्माख्यम्' - अर्थात् 'राजधर्मरूप यज्ञ को' ऐसा किया है।

(२४) यजुर्वेद अध्याय ३७ मन्त्र ८ में 'मखस्य' शब्द का अर्थ 'ब्रह्मचर्य्य आश्रम रूप यज्ञ के' किया है। इस अर्थ में 'ब्रह्मचर्य आश्रम' को यज्ञ कहा है।

(२५) यजु० अ० ३१ मन्त्र ७ में 'यज्ञ' का अर्थ - 'पूजनीयतम' किया है।

(२६) यजु० अ० ३१ मन्त्र १४ में 'यज्ञ' शब्द का अर्थ 'मानसज्ञान यज्ञ' किया है।

(२७) यजु० अ० ३१ मन्त्र १६ में 'यज्ञ' का अर्थ 'ज्ञानयज्ञ से पूजनीय सर्वरक्षक अग्निवत् तेजस्वि ईश्वर' किया है।

(२८) यजु० अ० ३३ मन्त्र ३३ में 'यज्ञ' शब्द का अर्थ 'यात्रा संग्राम वा हवनरूप यज्ञ' लिखा है।

(२९) यजु० अ० ३४ मन्त्र २ में 'यज्ञ' का अर्थ 'अग्निहोत्रादि वा धर्मसंयुक्त व्यवहार वा योग यज्ञ' ऐसा किया है।

(३०) यजु० अ० ३४ मन्त्र ४ में 'यज्ञ' का अर्थ 'अग्निष्टोमादि वा विज्ञानरूप व्यवहार' ऐसा किया है।

(३१) यजु० अ० ३८ मन्त्र ११ में 'यज्ञ' का अर्थ 'विद्वानों के सङ्ग' किया है।

(३२) ऋग्वेद मण्डल १ सूक्त ३ मन्त्र १० में 'यज्ञम्' का अर्थ- 'शिल्पिविद्यामहिमानं कर्म च' - 'शिल्प विद्या की महिमा और कर्मरूप यज्ञ को।'

(३३) ऋ० १/४/७ में 'यज्ञश्रियम्' की व्याख्या करते हुए 'यज्ञ' शब्द का अर्थ 'महिमा' किया है। इस प्रकार 'यज्ञश्रियम्' का अर्थ लिखा है 'चक्रवर्त्ती राज्य की महिमा की शोभा को।'
'राष्ट्रं वा अश्वमेध:' इस 'शतपथ ब्राह्मण' के प्रमाण से महर्षि दयानन्दजी कहते हैं कि 'यज्ञ' शब्द से 'राष्ट्र' का ग्रहण किया जाता है। यहां भी 'यज्ञो वै महिमा' शतपथ का प्रमाण दिया है।
इस प्रकार राष्ट्र का संघटन करना वा राष्ट्रोन्नति के सहायक सब कर्म यज्ञ कहलाते हैं।

(३४) ऋग्वेद १/१०/४ में 'यज्ञ' का अर्थ 'क्रियाकौशलम्' अर्थात् 'होम ज्ञान और शिल्पविद्यारूप क्रिया' किया है।

(३५) ऋग्वेद १/१२/१ में 'यज्ञ' का अर्थ 'शिल्पविद्या' किया है।

(३६) ऋ० १/१५/७ में 'यज्ञ' शब्द का अर्थ 'अग्निहोत्र आदि अश्वमेधपर्य्यन्त यज्ञ वा शिल्पविद्यालय यज्ञ' किया है।

(३७) ऋ० १/२०/२ में 'यज्ञम्' का अर्थ 'पुरुषार्थसाध्यम्' किया है। इस प्रकार "जो पुरुषार्थ साध्य है उस सबको महर्षि दयानन्दजी यज्ञ कहते हैं।"

(३८) ऋ० १/२१/२ में 'यज्ञेषु' का अर्थ- 'पठनपाठनेषु शिल्पमयादिषु यज्ञेषु' किया है। इससे स्पष्ट है, पठन-पाठन कार्य और शिल्पमयादि कार्य भी यज्ञ हैं।

(३९) ऋ० १/२२/३ में 'यज्ञम्' का अर्थ- 'सुशिक्षोपदेशाख्यम्' ऐसा कहा है। इससे स्पष्ट है कि श्रेष्ठ शिक्षा का नाम भी यज्ञ है।

(४०) ऋ० १/२७/१० में 'यज्ञियाय' का अर्थ- 'यज्ञ कर्मार्हतीति यज्ञियो योद्धा तस्मै' - 'यज्ञकर्म के योग्य जो हो उसे यज्ञिय कहते हैं।' 'यज्ञिय' शब्द से 'योद्धा' का ग्रहण करने से 'यज्ञ' का अर्थ 'युद्ध' है ऐसा स्पष्ट होता है।

(४१) ऋ० १/४१/५ में 'यज्ञम्' का अर्थ- 'शत्रुनाशकं श्रेष्ठपालनाख्यं राजव्यवहारम्' किया है। शत्रु का नाश और श्रेष्ठ का पालन जिससे हो ऐसे राजव्यवहार को 'यज्ञ' कहा है।

(४२) ऋ० १/४४/३ में 'यज्ञानाम्'- 'अग्निहोत्राद्यश्वमेधान्तानां योगज्ञानशिल्पोपासनाज्ञानानां' लिखा है।

आपने अपने 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' के 'वेदविषय विचार' में लिखा है- 'अग्निहोत्रमारभ्याश्वमेधपर्यन्तेषु यज्ञेषु' इससे कतिपय व्यक्ति यह समझते हैं कि अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध पर्यन्त कर्मों का नाम ही 'यज्ञ' है।
परन्तु यह धारणा भ्रमपूर्ण है क्योंकि उनके भाष्य को पढ़ने से अन्यान्य अर्थ भी होते हैं जैसा कि ऊपर थोड़े स्स प्रदर्शित किए गए हैं। जितने श्रेष्ठ कर्म हैं सब आपकी दृष्टि में 'यज्ञ' है। अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध पर्यन्त कर्म भी श्रेष्ठ कर्म है अतः ये कर्म भी यज्ञ हैं न कि ये कर्म यज्ञ हैं।
ऐसी विशाल अपूर्व व्याख्या अन्य किसी भाष्यकार ने नहीं की, महर्षि दयानन्दजी के इस कार्य से सभी आर्य ऋणी हैं क्योंकि उन्होंने अपनी १८ घण्टे की समाधि को त्याग कर यह महान कार्य किया।

पाद टिप्पणियां-
१. "ऐतरेयालोचनम्" पृष्ठ १८९ (द्वितीयसंस्करण, संवत् १९३३ वि० कलकत्ता)।
२. "वैदिक वाङ्मय का इतिहास" भाग प्रथम, खण्ड द्वितीय, प्रथम संस्करण।
३. मेसर्स जयदेव ब्रदर्स, आत्माराम पथ, बड़ोदा से प्रकाशित।
४. अर्द्धमासिक पत्रिका "सुधा" लखनऊ का "दयानन्द अंक" वर्ष ७, खण्ड १, अक्टूबर १६, सन् १९३३ ई०, संख्या ६, पृष्ठ ४६५।