Wednesday, September 16, 2020

श्राद्ध


श्राद्ध

लेखक- स्वर्गीय श्री वे०शा० स्वा० वेदानन्द जी तीर्थ
अनुवादिता- श्री स्वामी वेदानन्द जी वेदवागीश
प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ, डॉ विवेक आर्य

[प्रायः देखने में आता है कि एक सामान्य व्यक्ति श्राद्ध-कृत्य से मृतक जीवों के भोजनादि द्वारा तृप्ति करना मानता है अथवा कुछ लोग पितृयज्ञ को ही मृतक-श्राद्ध बतलाते हैं। उनके अनुसार ब्राह्मणों को तिथि विशेष पर भोजन कराने से उनके पितरों को सन्तुष्टि मिलती है। वेद के विचार इसमें अपनी सम्मति प्रदान नहीं करते हैं। वेदों के अनुसार शरीर नष्ट हो जाने के बाद वह कोई भी पदार्थ ग्रहण करने में समर्थ नहीं होता है तथा मनुष्य के दाहोपरान्त शरीर में उपस्थित आत्मा अपने कर्मानुसार ईश्वर के कर्मफल नियम के अधीन होकर उचित गति को प्राप्त होती है। इससे सिद्ध होता है कि मृतक जीवों को भोजनादि द्वारा तृप्त करना अवैदिक कृत्य है। पितृयज्ञ पञ्चमहायज्ञ के अनुष्ठान का एक अङ्ग है। जो यज्ञ माता-पिता तथा इनके पूर्वजों के सम्बन्ध में किये जायें, वह पितृयज्ञ कहलाता है। श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा एवं जीवित पितरों की श्रद्धा से सेवा और शुश्रुषा करना पितृयज्ञ का वैदिक स्वरूप है। इस सम्बन्ध में आर्यसमाज के सुप्रसिद्ध विद्वान् स्व० श्री स्वामी वेदानन्द जी तीर्थ ने एक निबन्ध-पुस्तिका लिखी थी, जिसे २८ भाद्रपद संवत् १९९७ विक्रमी को 'आफताब आलम प्रैस' हस्पताल रोड, लाहौर में उर्दू में छपवाई थी। स्वामीजी महाराज उस समय श्री चमूपति साहित्य विभाग (आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब) गुरुदत्त भवन लाहौर के अध्यक्ष थे। जन-सामान्य में फैली भ्रान्तियों के निवारण को आवश्यक समझते हुए स्वामीजी ने यह विचारोत्तेजक निबन्ध लिखा था। इस निबन्ध-पुस्तिका का हिन्दी में अनुवाद करने के लिए श्री आचार्य भगवान् देव जी, गुरुकुल झञ्जर ने श्री स्वामी वेदानन्दजी वेदवागीश के समीप भेजी थी। यह हिन्दी अनुवाद 'सुधारक' (मासिक) के सन् १९६५ के अंक में प्रकाशित हुआ था। पाठक इस निबन्ध को पक्षपातरहित भावना से पढ़ें और श्राद्ध के यथार्थ स्वरूप को जानकर वैदिक विचारधारा का पान करें। हमें पूर्ण विश्वास है कि पाठकों के लिए यह निबन्ध अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा। -प्रियांशु सेठ]

वेदमित्र- नमस्ते! भाई श्रद्धाराम जी। आज इस प्रकार सज-धज कर कहाँ जा रहे हो? इधर कई दिन से तुम मिले भी नहीं। क्या बात है?
श्रद्धाराम- भाई तुमने आवाज देकर टोक दिया, यह अच्छा नहीं किया। इस प्रकार कार्य में विघ्न उत्पन्न हो जाता है। मैं इस समय लाला घसीटाराम जी के घर श्राद्ध खाने जा रहा हूं। न मिलने का कारण यह है कि आजकल श्राद्धों के दिन हैं। एक-एक दिन में कई-कई यजमानों के यहां भोजन करने के लिए जाना पड़ता है। इस समय अवकाश कम मिलता है। श्राद्धों से निवृत्त होकर फिर पर्याप्त मिला करेंगे। हां, तुम भी तो ब्राह्मण हो, चलो मेरे साथ। तुम्हें भी भोजन करा देंगे। खीर, पूरी, कचौरी, दही-भल्ले इत्यादि इत्यादि स्वादिष्ट भोजन आज मिलेगा। दक्षिणा भी पुष्कल मिलेगी (वेदमित्र का हाथ खींचते हुये) चलो अवश्य चलो, इकट्ठे बैठेंगे।

वेदमित्र- अरे भाई! श्राद्ध-भोजन के लोभ में तुमने मित्र की नमस्ते का उत्तर भी नहीं दिया। अच्छा, चलो जाने दो इस बात को। यह तो बताओ- यह श्राद्ध है क्या वस्तु? आगे-पीछे तो यह लाला कभी किसी ब्राह्मण को भोज नहीं खिलाता। आज यह कैसे इतना उदार हो गया?
श्रद्धाराम- वेदमित्र! तू बड़ा मूर्ख है। तू श्राद्ध भोजन का अर्थ भी नहीं समझता। अच्छा, तुम तो आर्य समाजी हो। तुम पांच महायज्ञ मानते हो। उसमें एक पितृयज्ञ है। इसी को हम श्राद्ध कहते हैं। आज लाला घासीराम जी की माता का श्राद्ध है।

वेदमित्र- आज लाला घसीटाराम जी की माता का श्राद्ध है तो तुम्हारा व किसी दूसरे का वहां क्या काम? और विशेषतः ब्राह्मणों की वहां क्या आवश्यकता पड़ गई? हम तो पितृयज्ञ प्रतिदिन करते हैं। जब तक मैं पढ़ता रहा, माता-पिता दोनों से दूर रहा। वहां मुझे माता-पिता की सेवा का पवित्र अवसर नहीं मिला। अब जब से विद्या प्राप्त करके लौटा हूं, मैंने पिता जी और माता जी की सेवा का विशेष नियम कर लिया है। परमात्मा की दया से घर में परिचायक हैं, किन्तु माता-पिता की सेवा मैं अपने हाथों से ही करता हूं। प्रातः उनके स्नान के लिए जाता हूं। दोनों समय इनको खिलाकर खाता हूं। रात्रि को जब वे सोने लगते हैं, तो पिता जी के चरण भी दबाता हूं, और मेरी धर्मपत्नी मेरी माता जी के चरण दबाती है। इस प्रकार हम प्रतिदिन नियमानुसार पितृतर्पण करते हैं और वे तृप्त हुये हमें आशीर्वाद देते हैं। और अपने अनुभव सुनाकर हमें जीवन संग्राम में सफल होने का उपदेश भी करते हैं, मुझे तो इस काम में कभी किसी ब्राह्मण की आवश्यकता नहीं पड़ती।
श्रद्धाराम- अरे! श्राद्ध तो मृतक-पितरों का होता है। जीवितों का नहीं। लाला घसीटाराम जी की माता को मरे बहुत समय हो गया है। आज उनका श्राद्ध है।

वेदमित्र- ब्राह्मण क्या करता है श्राद्ध में? श्राद्ध मां का और भोजन ब्राह्मण को, यह बात कैसे बनी?
श्रद्धाराम- सुनो भाई। ब्राह्मण को भोजन खिलाने से मरे पितर को मिल जाता है।

वेदमित्र- कैसे मिल जाता है? ब्राह्मण वहां कैसे पहुंचता है?
श्रद्धाराम- तुम पढ़-लिख कर भी बुद्धि-हीन ही रहे। इसमें कौन सी कठिन बात है? देखो। यहां से तुम किसी दूसरे नगर में रुपये भेजना चाहते हो। तुम प्रेषालय में जाकर प्रपत्र भर कर रुपये देते हो। प्रेषालय वाले दूसरे नगर में केवल धन-प्रेष प्रपत्र भेजते हैं, किन्तु जिसके नाम का वह धन-प्रेष है, उसको रुपये मिल जाते हैं। इसी प्रकार यहां ब्राह्मण को खिलाया जाता है, वहां आगे पितरों को वह भोजन मिल जाता है।

वेदमित्र- तुम ऐसे चतुर तो न थे। अब बहुत कुशल हो गये हो, किन्तु यह युक्ति तुम्हारी अपनी नहीं, किसी और ने तुम्हें सिखाई है। तुमने श्राद्ध में भोजन करने वाले ब्राह्मण को प्रेषालय का प्रेषपति (पोस्ट-मास्टर) बनाया है। किन्तु एक बात में तुम चूक गये। तुम्हें पता है कि प्रतिदिन प्रेषालय बन्द करके सम्पूर्ण दिन में प्राप्त रुपया प्रशासन के नियत सुरक्षित प्रबन्ध में पहुंचा दिया जाता है। सम्पूर्ण दिन में प्राप्त किये रुपयों की बात तो जाने दो यदि प्रेषपति महोदय एक भी रुपया अपने पास रख लें तो जानते हो, क्या होता है, उसे कड़ा दण्ड दिया जाता है और इसके पश्चात् कार्य से भी हटा दिया जाता है। तुम्हारे श्राद्ध-भोजी ब्राह्मण भी तो राजकीय धरोहर के समान न देने वाले पापी होते हैं। श्राद्ध करने बोल तो अपने किसी पितर के लिए खिलाया किन्तु उन्होंने न कोई प्रपत्र आगे भेजा और न माल ही किसी निश्चित सुरक्षित स्थान में भिजवाया।
श्रद्धाराम- क्या बकते हो। तुम कुण्ठित बुद्धि हो। भले ही प्रेषपति धरोहर न दे और उसके कारण उसे कड़े से कड़ा दण्ड भी मिले, किन्तु रुपये तो जिसके नाम धन-प्रेष (मनीऑर्डर) किया गया है, उसे मिल ही जाता है। प्रपत्र तो सांसारिक प्रेषालय (डाकखाने) के लिये है। क्योंकि सांसारिक प्रशासन सर्वज्ञ नहीं है, इस हेतु उसे लिखकर काम करना पड़ता है। परमात्मा तो सर्वज्ञ है, वह जानता है कि इसने अमुक के लिए श्राद्ध किया है, इस कारण उसके पास पहुंचा देना चाहिए।

वेदमित्र- भाई! श्राद्ध भोजन में विघ्न जानकर आप क्रोध में आ गये। अच्छा कोई बात नहीं। मैं भी आपको तब जाने दूंगा, जब आप मुझे स्वीकार करने के लिये विवश कर देंगे। भाई! तुम्हारा यह तर्क मैं मान लेता हूं एक बात प्रमाणित कर दो।
श्रद्धाराम- मैं भी आज श्राद्ध-भोजन भले ही छोड़ दूं, किन्तु तुम्हें आज आस्तिक बनाये बिना यहां से न हिलूंगा। कहो तुम क्या प्रमाणित करना चाहते हो?

वेदमित्र- देखो! बात बड़ी सीधी है। तुम ब्राह्मण हो मेरे भाई वेदभानु रुग्ण पड़े हैं। मैं उनके लिए औषध लेने जा रहा हूं। मैं वैद्य के पास न जाकर तुम्हें घर ले चलता हूं और संकल्प पढ़ कर तुम्हारा मनोवाञ्छित भोजन तुम्हें खिला देता हूं। यदि तुम्हारे भोजन करने से मेरे भाई ने अनुभव किया कि उसके पेट में भोजन रूप औषध पहुंच गया तो मैं आज से मृतक श्राद्ध का पोषक बन जाऊंगा। देखो! ऐसा करने से मुझे एक लाभ भी है। वैद्य रोग के निदान में भूल कर सकता है और उस कारण औषध भी ठीक नहीं दे सकता। और इससे भयंकर हानि हो सकती है। किन्तु सर्वज्ञ परमात्मा तो त्रुटि नहीं करेंगे। वे मेरे भाई के पेट में औषध ठीक-ठीक पहुंचायेंगे। इस हेतु भाई चलो घर को। हम तुम्हें लाला घसीटाराम की अपेक्षा भोजन अच्छा करा देंगे और दक्षिणा भी अधिक देंगे।
श्रद्धाराम- वेदमित्र! यह नहीं हो सकता। परमात्मा ने यह व्यवस्था मृतकों के लिए बनायी है, जीवितों के लिए नहीं। जीवितों की सेवा करने के लिये इनके घर के लिए व्यक्ति और सम्बन्धी विद्यमान हैं, मृतक पितरों के लिए वह कोई नहीं, अतः परमात्मा ने यह व्यवस्था बांध दी।

वेदमित्र- परमात्मा ने यह व्यस्वथा बांधी अथवा हमारे धूर्त पूर्व पुरुषों ने अपने सन्तान के भोजन की चिन्ता दूर करने के लिए यह प्रबन्ध किया, यह विचार लिया जावेगा, किन्तु तुमने बात कुछ अट-पटी-सी की है। सुनो, तुम तो आस्तिक हो न, पुनर्जन्म मानते हो न, जब जीव के कर्मानुसार प्रभु ने इसे नवीन योनि में भेजा तो, क्या इसके भोजन का प्रबन्ध नहीं करेगा! हमने सुना है, शास्त्र में लिखा है- कर्मों का फल योनि, भोग और आयुष अर्थात् भोग की मर्यादा के रूप में मिलता है। दूसरा शरीर प्राप्त कर चुका। जीव अपने कर्म के अनुसार भोग भी प्राप्त करेगा। इस हेतु इसके लिए श्राद्ध करना कोई प्रयोजन नहीं रखता।
श्रद्धाराम- देखो, हम गमनागमन को मानते हैं। और जीवों के कर्म के अनुसार भोग का मिलना भी मानते हैं। इससे हम निषेध नहीं करते। हम तो केवल इतना कहना चाहते हैं- हमारे दिया हुआ भोजन इनका भोग बन जाता है। यदि हम श्राद्ध न करें, तो वे मृतक पितर अति कष्ट पावें और सम्भवतः भोजन न मिलने से मर जावें। इस कारण मृतक श्राद्ध आवश्यक है।

वेदमित्र- तुम्हारी वार्ता मैं स्वीकार करता हूं, किन्तु इसमें एक क्रियात्मक कठिनता है, श्राद्ध के मानने तथा करने वाले केवल सनातन धर्मी और थोड़े-से जैन भाई हैं, उनकी संख्या लगभग तीस करोड़ होगी। संसार की जनसंख्या दो अरब से ऊपर है अर्थात् लगभग पौने दो अरब मनुष्य श्राद्ध न मानते हैं और न करते हैं। आपकी उक्ति यदि मान ली जावे, तो केवल तीस करोड़ मनुष्यों को भोजन मिलता होगा। शेष संसार भूखा मरता होगा। क्योंकि तीस करोड़ में से पन्द्रह करोड़ के लगभग स्त्रियां हैं, उन्हें श्राद्ध का अधिकार नहीं। दस करोड़ के लगभग बालकों के अनुमान कर लिया जावे, उन्हें श्राद्ध करने का अधिकार नहीं; क्योंकि माता-पिता के जीवित रहते सन्तान को श्राद्ध करने का अधिकार नहीं है। शेष रह गये पांच करोड़ श्राद्ध किया जाता है- पिता, पितामह, प्रपितामह, माता, दादा और परदादी का। प्रत्येक श्राद्ध करने वाले को यदि अनिवार्य रूप से इन छह का श्राद्ध करना पड़े, तो केवल तीस करोड़ व्यक्तियों का श्राद्ध हो सकता है। शेष जनों का क्या बनेगा? इस कारण तुम्हारा वचन उचित नहीं है। जिस प्रकार पौने दो अरब मनुष्यों को उनके कर्मानुसार परमात्मा भोग पहुंचाता है, वैसे ही इन को भी पहुंचा देगा। इसलिए भोग-व्यवस्था में सहायता देने के लिए श्राद्ध करना निरर्थक है और सच पूछो तो एक प्रकार की नास्तिकता है, क्योंकि इस विधि से परमात्मा में निर्बलता माननी पड़ती है। वह दूसरे की अपेक्षा रखने सिद्ध होगा।
श्रद्धाराम- भाई वेदमित्र! मैंने इस सिद्धान्त को इस प्रकार कभी विचारा भी न था। तुम यह कहना चाहते हो कि यदि श्राद्ध ठीक माना जाये, तो पुनर्जन्म और भोग-व्यवस्था नहीं रहती। यदि पुनर्जन्म और भोग-नियम सुव्यवस्थित है, तो फिर श्राद्ध की आवश्यकता नहीं रहती।

वेदमित्र- जी, मेरा यही तात्पर्य है।
श्रद्धाराम- किन्तु श्राद्ध का एक और प्रयोजन भी है- पितरों को प्रेत योनि से छुड़ाना। यदि श्राद्ध न किया जावे, तो पितर असहाय बने प्रेत योनि में पड़े कष्ट उठाते रहेंगे।

वेदमित्र- भाई! प्रेत योनि कोई नहीं होती। मृत व्यक्ति को प्रेत कहते हैं। देखो, इधर अनेक घटनाएं ऐसी हुई हैं, जो पुनर्जन्म को प्रमाणित करती हैं। कुछ बालक अपने अतीत जन्मों के यथार्थ वृतान्त बताते हैं, जिनकी प्रामाणिकता राज्य द्वारा व अन्य विद्याओं से हो चुकी है। इन घटनाओं पर ध्यान देने से एक रहस्य खुला है कि इनके मृत्यु और जन्म के मध्य में इतना ही अवकाश था जितना कि एक गर्भ का काल होता है। इस कारण प्रेत योनि की कल्पना आपकी गप्प है। यदि तुम इन घटनाओं को सत्य नहीं मानोगे, तो तुम्हारी ही हानि है, क्योंकि प्रेत योनि के सम्बन्ध में तुम्हारे समीप कोई प्रमाण है नहीं और यदि प्रेत योनि की सिद्धि के हठ में पुनर्जन्म से सम्बन्धित इन प्रमाणों को नहीं मानते, तो तुम अपने एक मुख्य सिद्धान्त का व्याघात करोगे। इस कारण प्रेत योनि की कल्पना अनुचित है।
श्रद्धाराम- तुम्हारी यह तर्क ना समझ में तो आती है; परन्तु भाई, प्रेत योनि मानने वाले तो करोड़ों हैं, क्या वे सब भ्रम में पड़े हैं?

वेदमित्र- भाई श्रद्धाराम जी! धर्म के विषय का निर्णय बहुमत से नहीं हुआ करता। यदि बहुसम्मति से निश्चय करना हो, तो फिर आप सनातनधर्मी अथवा हिन्दू नहीं रह सकते। क्योंकि इस समय संसार के मनुष्यों का अधिक भाग हिन्दू धर्म के विरुद्ध है। भू-मण्डल में सबसे अधिक संख्या बौद्धों की है, इससे न्यून ईसाइयों की, इससे अल्प हिन्दुओं की और इससे कम मुसलमानों की है, तो क्या आप इस संख्या को देखकर सनातन धर्म को छोड़ देंगे? और भी देखिए- संसार में असत्य बोलने वालों की संख्या अधिक है तो क्या असत्य बोलना अनिवार्य और उचित हो जायेगा? इस हेतु बहुसम्मति कोई विशेष उपपत्ति नहीं है।
श्रद्धाराम- तो क्या तुम्हारे विचार में जीवित पितरों अर्थात् माता-पिता और वृद्धों की सेवा करना ही श्राद्ध है।

वेदमित्र- जी, भ्रातृवर! मेरी यंग दृढ़ भावना है। इसमें प्रमाण है। देखो, जैसा मैं आपसे पूर्व निवेदन कर चुका हूँ कि श्राद्ध पिता, दादा, परदादा और माता, दादी, परदादी का होता है, ये तीन पीढ़ियां ही बनती हैं। इन तीन का ही श्राद्ध क्यों? इनसे अगलों अर्थात् परदादा के पिता, दादा इत्यादि का श्राद्ध क्यों नहीं किया जाता?
श्रद्धाराम- भाई! शास्त्र में ऐसा ही लिखा है।

वेदमित्र- भाई! शास्त्र बनाने वाले ने कुछ सोच-समझकर ही ऐसा विधान किया होगा। ऐसे ही व्यर्थ का उल्लेख नहीं कर दिया होगा।
श्रद्धाराम- तुम बता सकते हो, इसमें क्या रहस्य है?

वेदमित्र- क्यों नहीं! सुनिये! साधारण रीति से मनुष्य का आयुष् सौ वर्ष होता है। ऋषियों ने इसे चार भागों में विभक्त किया है। पहिले पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य धारण करके विद्या ग्रहण करने में लगाने चाहियें। इसके पीछे यदि विवाह की इच्छा हो, तो विवाह करके पच्चीस वर्ष तक गार्हस्थ्य जीवन बिताना चाहिए। इसके पश्चात् वेद के आदर्शानुसार वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहिए। वहां तपस् और स्वाध्याय में पच्चीस वर्ष लगाने चाहियें। आयुष् का अन्तिम भाग संन्यास में बिताना चाहिए, यदि पूर्ण वैराग्य हो गया हो। अब यूं समझिये कि एक बालक को उसके पिता ने गुरुकुल से विद्या प्राप्त करके लौटा है। वह अपने पिता का सबसे ज्येष्ठ पुत्र और प्रथम सन्तान है। अनुमान करो, जब वह गुरुकुल से लौटा है, उस समय उसके पिता की अवस्था इकावन वा बावन वर्ष की है। यदि उस ब्रह्मचारी का दादा भी जीवित हो, तो उसका वय: छिहत्तर वा सतत्तर वर्ष होगा और यदि उसका परदादा भी जीवित हो, जो असम्भव नहीं, तो वह सौ वर्ष से एक-आध वर्ष अधिक ही होगा। इसी प्रकार उसकी मां, दादी और परदादी भी जीवित मिल सकती हैं। इससे अगली पीढ़ी अर्थात् परदादा के पिता वा माता के दर्शन लगभग असम्भव है। इसलिये, यदि ब्रह्मचारी को सेवा का अवसर मिल सकता है तो माता, पिता, दादी, दादा और परदादा, परदादी की सेवा का अवसर मिल सकता है, इससे अधिक नहीं। मेरी समझ में शास्त्रकारों ने इसी कारण तीन पीढ़ियों तक श्राद्ध करने का विधान किया है, इससे आगे नहीं। क्योंकि आगे श्राद्ध हो नहीं सकता। शास्त्रों का वैशिष्ट्य है कि वे निरर्थक और असम्भव उपदेश नहीं देते। यदि वे अर्थहीन उपदेश दें तो उन्हें शास्त्र कौन मानेगा। यदि तीसरी पीढ़ी से आगे का कोई व्यक्ति हो, तो वह भी सेवा का अधिकारी है। तीन पीढ़ियों के श्राद्ध करने का विधान तो युक्ति-युक्त है, किन्तु तब जब यह जीवित पितरों का माना जावे। यदि मृतक पितरों का श्राद्ध माना जावे, तो प्रश्न उपस्थित होता है कि फिर तीन पीढ़ियों तक का श्राद्ध क्यों? अधिक का क्यों नहीं? यदि कहो कि परपोते के मर जाने से परदादा की प्रेत योनि से मुक्ति हो जाती है, तो यह बात आपके माने हुये शास्त्र से सिद्ध नहीं होती और न ही इसमें कोई युक्ति है। यदि प्रेत योनि कर्मों का फल है, तो कर्मों के फलों की व्यस्वथा परमेश्वर करता है। इसमें आप अथवा अन्य कोई हस्तक्षेप करने वाला कौन? इसलिए भ्रातृवर! श्राद्ध जीवितों का सिद्ध होता है, मृतकों के नहीं।
श्रद्धाराम- अच्छा भाई, यदि ऐसा है तो पितरों के लिए अश्विन मास और कृष्ण पक्ष क्यों निश्चित किया गया है?

वेदमित्र- यह प्रश्न तो मैं आपसे करने वाला था। आपने मुझसे कर दिया, अच्छा, अब जब कि आपने किया है, तो लो मैं ही उत्तर देता हूं सुनिये, पितर शब्द पितृ का बहुवचन है। पितृ शब्द के बहुत-से अर्थ हैं। उनमें उत्पन्न करने वाला पिता, ज्ञानी और रक्षक मुख्य है। पिता का श्राद्ध करना तो उनके अनेक उपकारों के कारण सन्तान का कर्त्तव्य है। श्राद्ध की आड़ में उपकार करने वाले के प्रति आदर और कृतज्ञता का भाव काम कर रहा है। जो हमारा उपकार करें, हमें भी किसी न किसी रूप में उनके प्रति अवश्य ही कृतज्ञता प्रकाशित करनी चाहिए। अन्यथा हम कृतघ्न और निन्दनीय कहलायेंगे। अब आप देखिए, अंधेरी रात में जो हमारी, हमारे भवन की, हमारे मुहल्ले की, हमारे ग्राम वा नगर की रक्षा करता है, स्वयं जागरण कर हमें आराम से सोने देता है, वह हमारा रक्षक होने से पिता अथवा पितर कहलाने का अधिकारी है। देखिए, दिन में सब जाग रहे होते हैं, उस समय किसी विशेष रक्षक की आवश्यकता नहीं होती। रात्रि की वेला में सब पर निद्रा का साम्राज्य होता जाता है। इस कारण उस समय रक्षा की आवश्यकता पड़ती है और रात में जब कृष्ण पक्ष हो, तब संरक्षण की विशेष रूप से आवश्यकता प्रतीत होती है। जिसमें जो काम करे, वह समय उसका। क्योंकि ऐसे रक्षक रात्रि को ही और विशेषतः कृष्ण पक्ष की रात्रि को कार्य करते हैं, इस कारण कृष्ण पक्ष इन रक्षकों का, पितरों का होता है। यदि हमारा यह मत आपको स्वीकार न हो तो इसके लिए आपकी बुद्धि में हमारे उत्तर के अतिरिक्त और कोई उत्तर ही नहीं। रही आश्विन मास की बात। इसका समाधान भी सुनिए। वर्षा ऋतु में क्योंकि ऐसे रक्षकों को अधिक काम करना पड़ता है इस कारण वर्षा काल की समाप्ति पर इनका विशेष सत्कार करने के लिए यह मास निश्चित कर दिया है।
श्रद्धाराम- यदि आपको इन रक्षक पितरों की परिचर्या और सम्मान का ही प्रश्न हो, तो फिर आश्विन मास और कृष्ण पक्ष की ही संविदा क्यों? किसी भी मास किसी भी पक्ष में यह कार्य हो सकता है?

वेदमित्र- मेरे भाई! मैं तो प्रथम ही कह चुका हूं कि यह प्रश्न तो मुझे करना चाहिए, किन्तु कर दिया आपने। इसका जो उत्तर मैंने दिया, उस पर आपने आपत्ति उठा दी। मैं आपकी सन्तुष्टि के लिए निवेदन कर देना चाहता हूं कि मैं आपकी आपत्ति को उचित मानता हूं अर्थात् किसी भी दिन इन रक्षक पितरों की सेवा की जा सकती है। परन्तु श्रीमान् जी! आप तो मृतक पितरों के श्राद्ध के पुजारी हैं, इसीलिए श्राद्ध के लिए आश्विन मास का कृष्ण पक्ष निश्चित किया है।
श्रद्धाराम- भाई! वस्तुतः मृतक श्राद्ध वर्ष में दो बार होता है। एक तो जिस तिथि को मृत्यु हुआ हो, और दूसरा आश्विन मास के कृष्ण पक्ष के किसी भी दिन।

वेदमित्र- आपने यह नहीं बताया कि कृष्ण पक्ष और आश्विन मास क्यों निश्चित है। मृतक श्राद्ध वाले इसके लिए कोई युक्ति नहीं दे सकते। और हमें तो एक और भी आक्षेप है। वर्ष में दो बार आपने किसी पितर के निमित्त ब्राह्मण या ब्राह्मणों को भोजन खिलाकर श्राद्ध किया। वर्ष के शेष दिनों में वे क्या भूखे ही मरते रहेंगे? यदि कहो कि, उनके कर्मानुसार परमात्मा उनको अवश्य देता रहता है, तो भाई मैं पहले कह चुका हूं, उस दिन भी वा उन दिनों में भी उनके भोजन का प्रबन्ध वही कर्मफल विधाता परमेश्वर कर देगा।
श्रद्धाराम- आप जानते हैं, हम श्राद्ध में केवल ब्राह्मण ही को भोजन नहीं कराते, अपितु ब्राह्मण भोजन से पहले पितरों के निमित्त हवन भी करते हैं। तुम भी मानते हो कि हवन में डाला हुआ पदार्थ सब स्थानों पर पहुंच जाता है। हम भी यही कहते हैं कि पितरों के निमित्त अग्नि में डाला हुआ पदार्थ पितरों को मिल जाता है।

वेदमित्र- आपने तो अब ऐसी बात कह दी है, जिससे श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन खिलाना व्यर्थ सिद्ध होता है। यदि अग्नि में डालने से पितरों को मिल जाता है तो फिर ब्राह्मणों को खिलाने की कोई आवश्यकता नहीं। हमारे विषय में जो बात आपने कही है, वह ठीक नहीं है। हम तो यह मानते हैं कि हवन के लिए अग्नि में डाला हुआ पदार्थ अग्नि के द्वारा छिन्न-भिन्न और सूक्ष्म होकर टूट तक पहुंच जाता है और हवन के द्वारा वायु-जल की शुद्धि होती है। यदि आप कहें अग्नि और ब्राह्मण में कोई भेद नहीं, तो हमारा उत्तर है कि फिर तो एक की ही आवश्यकता है दूसरे की नहीं।
श्रद्धाराम- मनुस्मृति में स्पष्ट श्राद्ध का विधान लिखा है। और यह भी लिखा है कि यदि अग्नि न हो तो ब्राह्मण के हाथ पर आहुति दे दो।

वेदमित्र- हां! मनुस्मृति में तो श्राद्ध के प्रकरण में कुछ और भी लिखा है। वहां तो भिन्न-भिन्न जन्तुओं के मांस खिलाने का भी विधान लिखा है। क्या तुम वैसे करने को तैयार हो? मनुस्मृति के तीसरे अध्याय के २६८ से २७२ तक के श्लोकों में मछली, हिरण, भेड़, पक्षी, बकरी इत्यादि बीसियों जन्तुओं के मांस से श्राद्ध का विधान लिखा है। क्या आप मांस खाने को तैयार हैं?
श्रद्धाराम- कलियुग में मांस से श्राद्ध करना निषिद्ध है।

वेदमित्र- मनुस्मृति में तो कहीं नहीं लिखा। किन्तु यदि आपकी बात समीचीन मान ली जाय, तो यह मानना पड़ेगा कि सतयुग आदि में मांस से श्राद्ध होते थे। तुम्हारे सिद्धान्त के अनुसार सतयुग में धर्म के चारों चरण स्थिर थे। त्रेता में धर्म के तीन, द्वापर में दो शेष रहे और कलियुग में केवल एक रह गया। सतयुग में जो धर्म था वह कलियुग में अधर्म कैसे हो गया और फिर आपसे हम पूछना चाहते हैं कि कलियुग में मांस से श्राद्ध-निषेध क्यों किया गया?
श्रद्धाराम- भाई, सच तो यह है कि तुम्हारे आक्षेप बहुत उचित और प्रबल हैं। अच्छा, चलो मान लेता हूं कि श्राद्ध पितरों को नहीं पहुंचता। किन्तु इसमें क्या हानि है, यदि हम अपने माता-पिता इत्यादि की मृत्यु वाले दिन उनकी स्मृति में किसी ब्राह्मण को भोजन करा दें?

वेदमित्र- आप कहते हैं किन्तु इस दिन ब्राह्मण को भोजन कराने से क्या लाभ। उसे खिलाने से स्मरण कैसे होगा। स्मृति की ही बात है, तो इनका कोई स्मारक बना लीजिये। यद्यपि वह भी कोई स्थायी वस्तु नहीं; किन्तु इससे इस मरण प्राप्त पूर्व पुरुष को लाभ नहीं होगा।
श्रद्धाराम- आपका तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि कर्म का फल करने वाले को मिलता है, दूसरे किसी को नहीं। किन्तु मैं तुम्हें बताता हूं। पिता आम लगाता है, बेटे, पोते फल खाते हैं, पिता ऋण करता है और पुत्र उसे चुकाता है। चीरा वैद्य देता है, फोड़ा रोगी का अच्छा होता है। खेती किसान करता है, अन्न समस्त संसार खाता है। इससे स्पष्ट प्रमाणित होता है कि यह अनिवार्य नहीं कि जो मनुष्य कर्म करे अवश्य वह ही फल भोगे, अपितु इससे अतिरिक्त दूसरों को भी फल मिलता है।

वेदमित्र- भ्रातृवर! आपको किसी ने ठीक नहीं समझाया। सुनिये, किसान खेती करता है, दूसरे लोग मालिया देकर, अथवा परिवर्तन में दूसरी वस्तु देकर किंवा चोरी करके, दान लेकर अन्न खाते हैं अर्थात् किसान का अन्न लेने में सबको कोई-न-कोई कर्म करना पड़ता है। "वैद्य चीरा देता है और फोड़ा रोगी का ठीक होता है।" आपका इससे क्या आशय है? क्या आप यह कहना चाहते हैं को वैद्य को चीरा देने का कोई फल नहीं मिलता। यदि आपका ऐसा विचार है, तो आपकी यह भारी भूल है। बन्धुवर! चीरा देने के लिए वैद्य को शुल्क मिलता है। रोगी ने कुपथ्य किया था, उसका फल फोड़े के रूप में मिला। "पिता का ऋण पुत्र चुकाता है", इसका कारण है कि पुत्र ने पिता की सम्पत्ति भी प्राप्त की है और ऋण भी पुत्र आदि के लिए लिया गया था। तनिक ध्यान से सुनना- कर्म विभिन्न प्रकार के होते हैं। एक व्यक्तिगत होते हैं, दूसरे होते हैं- सामाजिक। वैयक्तिक कर्म का फल कर्त्ता को और समष्टि कर्म का फल समाज को आम लगाना, बगीचा लगाना, कुआं खुदवाना यह समष्टि सामाजिक कर्म है। इनका फल समाज को मिलता है, किन्तु इससे यह न समझना कि आम लगाने वाले को नहीं मिलता। आम लगाने का फल केवल आम के फल खाना ही नहीं, अपितु कुछ और भी है। वह है अपने चित्त की प्रसन्न्ता इत्यादि। इस पर भी मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूं कि आपका यह अन्तिम उदाहरण तो किसी प्रकार आपके मन्तव्य को समर्पित नहीं कर सकता। यहां जीवित पिता जीवित सन्तान के लिए वृक्ष लग रहा है और मृतक श्राद्ध में तो पुत्र, पौत्र किसी अज्ञान स्थान पर रहने वाले के लिए श्राद्ध कर रहा है। इस कारण यह उदाहरण ठीक नहीं। उदाहरण से कोई वस्तु प्रमाणित नहीं की जा सकती। उदाहरण तर्क की पुष्टि के लिए दिया जाता है। श्राद्ध का पोषक तर्क आपने कोई भी नहीं दिया। तर्क के बिना वाद अस्वीकार्य। अब तक आपने श्राद्ध पक्ष में जो कुछ कहा, मैंने उसका खण्डन कर दिया है और जीवित पितरों के श्राद्ध करने में युक्ति भी दे दी है। शास्त्र-प्रमाण मैंने जानकर नहीं दिये।
श्रद्धाराम- यह आपने अच्छा किया। शास्त्र-प्रमाणों के अर्थ के सम्बन्ध में कलह हो जाता। मैं आपकी बातों को मानने में विवश हूं। मैं आपको एक बात बता दूं। एक दिन एक सनातनी पण्डित ने मुझसे कहा कि पितर चार प्रकार के होते हैं- एक वे जो गाड़े हुए हैं, एक वे जो जला दिए गए हैं, एक वे जो बहा दिए गए हैं और एक वे जो कहीं जंगल में आदि में फेंक दिए गए हैं। मैंने इसका उत्तर जो उत्तर दिया, तुम्हें सुनता हूं। मैंने कहा- वेद में यह बात नहीं हो सकती, क्योंकि वेद में तो शरीर को भस्म कर देने का विधान है। इनका तात्पर्य कुछ और होगा। इसके पश्चात् जब मैंने स्वयं इस प्रकरण को देखा, तो पता चला कि वे पण्डित दग्ध, परोप्त, निखात और उद्धृत शब्दों का अनर्थ कर रहे थे। यह तो भूमि के दोष दूर करने, बीज बोने, भूमि खोदने, हल चलाने और फल काटने वाले किसानों के नाम प्रतीत हुए। अब मैंने यह निश्चय किया कि चाहे ये मृतक पितरों के नाम भी हों, तो भी मृतक श्राद्ध सिद्ध नहीं होता। मैं आपका कृतज्ञ हूं कि आपने मुझे एक भ्रम से बचाया है। अब तो मुझे मृतक श्राद्ध पाप दीख पड़ता है। इसने हमारी सारी ब्राह्मण जाति को निष्कर्मण्य और धन्धे के बिना बना दिया है। मैं आपसे प्रण करता हूं कि मैं अपना शेष आयुष ब्राह्मणों को इस पाप से छुड़ाने में लगा दूंगा।

वेदमित्र- आपका संकल्प शुभ और पवित्र है। भगवान् आपको इस पर दृढ़ रहने का बल दें। मैंने आपको बताया है कि पितर का अर्थ ज्ञानी भी होता है। ज्ञान तो अनेक प्रकार का है। इस कारण ज्ञानी भी अनेक प्रकार के हैं। पुराणों में पितरों के इकत्तीस गुण लिखे हैं। किसी-किसी पुराण में पैंतीस गुण भी लिखे हैं। फिर प्रत्येक गण (समुदाय) में सहस्त्रों पितर हैं और इन सब की पत्नी केवल एक 'स्वधा' है। क्या आपकी बुद्धि में यह बात या सकती है? भाई! यदि मान लिया जावे कि इकत्तीस अथवा पैंतीस वर्गों की पत्नी (रक्षण शक्ति) एक ही है, तो बात कुछ बन जाती है। 'स्वधा' के अर्थ हैं- अपनी शक्ति। किन्तु मृतक पितरों की यह पत्नी कैसे? ऐसी बीसियों अनर्गल बातें मृतक श्राद्ध के साथ सम्बन्धित हैं। किन्तु यत: पौराणिक पण्डित अब उन बातों को नहीं कहते; अतः मैंने भी जानबूझ कर आपको नहीं सुनाई। अन्त में आपसे क्षमा चाहता हूं कि मैंने आपको रोक कर कष्ट दिया।
श्रद्धाराम- नहीं भाई! मैं आपका धन्यवाद करता हूं, आपने सत्यता का ज्ञान कराया। अच्छा, अब आप मुझे आज्ञा दीजिये। नमस्ते!

वेदमित्र- नमस्ते, भ्रातृ श्रेष्ठ!
[२८ भाद्रपद संवत् १९९७ विक्रमी -स्वामी वेदानन्द तीर्थ]

पाद टिप्पणी- देखो भागवत् पुराण, चौदहवां स्कन्ध, प्रथम अध्याय, श्लोक संख्या ६३।

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