Friday, April 23, 2021

मुहम्मद कुली खान बन चुके नेतोजी पालकर का छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा शुद्धिकरण


मुहम्मद कुली खान बन चुके नेतोजी पालकर का छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा शुद्धिकरण
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सन्‌ १६५९ में शिवाजी महाराज ने अपने एक साथी नेतोजी पालकर को सरनौबत (मराठी घुड़सवार सेना के नायक) के रूप में नियुक्त किया। तब तक शिवाजी महाराज के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करते हुए नेतोजी के कर्तृत्व व पराक्रम की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई थी और न केवल भारतीय बल्कि यूरोपीय लेखकों ने भी नेतोजी पालकर को 'दूसरे शिवाजी', 'शिवाजी की प्रतिकृति' जैसे विशेषणों से संबोधित करना शुरू कर दिया था। 

१६ जनवरी १६६६ के दिन जब शिवाजी महाराज ने पन्हाला दुर्ग पर धावा बोल दिया, तब नेतोजी पालकर किन्हीं कारणवश नियत समय पर शिवाजी महाराज की सहायता के लिए वहाँ नहीं पहुँच सके। अपनी इस चूक के लिए शिवाजी महाराज की ओर से फटकार मिलने पर नेतोजी रूष्ट हो गए और बीजापुर की आदिलशाही सल्तनत से चार लाख सोने के सिक्के लेकर उनकी सेवा में शामिल हो गए।

प्रारम्भ से ही स्वराज्य-साधना के कार्य में शिवाजी महाराज का सक्रिय सहयोग करने वाले, माता जीजाउ साहेब के स्नेहपात्र सरनौबत नेतोजी पालकर विधर्मी शत्रु के पक्ष में जा मिले, यह लोगों के लिए अविश्वसनीय था। बाद में, २२ मार्च १६६६ के दिन औरंगजेब के सेनापति मिर्जा राजा जयसिंह ने पाँच हज़ारी मनसब, कुछ जागीर और बहुत सारा धन देकर उन्हें मुगलों के पक्ष में शामिल कर लिया। 

१८ अगस्त १६६६ के दिन जब शिवाजी महाराज अपने बुद्धि-चातुर्य और साहस से आगरा में औरंगज़ेब की कैद से मुक्त होकर भाग निकले, तब नेतोजी पालकर मुगल मनसबदार होने से शिवाजी महाराज को कैद से भगाने में उनकी भी कुछ न कुछ भूमिका रही होगी, ऐसा सोचकर औरंगज़ेब ने नेतोजी पालकर को कैद कर दिल्ली लाने का हुक्म दिया।

दिल्ली कोतवाल ने नेतोजी को मौत से बचने के लिए इस्लाम कुबुल कर लेने के लिए तीन दिन का समय दिया। मुगल कारागार में कुछ दिन बिताने के बाद नेतोजी ने फरवरी १६६७ में मुगल बादशाह से निवेदन किया कि यदि वह उसे जीवनदान दे देता है तो वह इस्लाम में मतपरावर्तन करने के लिए तैयार हैं। २७ मार्च १६६७ के दिन नेतोजी का खतना किया गया और ‘मुहम्मद कुली खान’ नाम दिया गया। बाद में नेतोजी की दो पत्नियों को भी दिल्ली लाया गया और बादशाह के आदेशासार, उन पर भी इस्लाम कुबुल करने के लिए दबाव बनाया गया, लेकिन उनके इनकार करने पर नेतोजी (अब, मुहम्मद कुली खान) को उन्हें मनाने का आदेश दिया गया।

अंततः नेतोजी ने अपनी पत्नियों को इस्लाम कुबुल करने के लिए तैयार कर लिया और बादशाह ने मुस्लिम रीति-रिवाज के अनुसार उनकी दूसरी शादी करवाई। 

जून १६६७ में औरंगज़ेब ने नेतोजी (मुहम्मद कुली खान) को एक युद्ध अभियान पर अफघानिस्तान में काबुल भेज दिया। नेतोजी ने एक बार वहां से भागने का असफल प्रयास किया, लेकिन सन्‌ १६७४ में शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के बाद, औरंगजेब जब शिवाजी महाराज को अपने अधीन करने की योजना बनाने लगा तब वह एक ऐसे वफादार व सक्षम व्यक्ति की तलाश में था जो दक्खन की भौगोलिक स्थिति और वहाँ के प्रमुखों लोगों से सुपरिचित हो। वर्षों पूर्व शिवाजी महाराज के साथ संबंध विच्छेद कर मुसलमान बन चुके मुहम्मद कुली खान (नेतोजी पालकर) औरंगजेब की दृष्टि में इस कार्य के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति था। इस प्रकार, सन्‌ १६७६ में शिवाजी महाराज को फंसाने के लिए दिलिर खान के साथ उन्हें भी दक्खन के अभियान पर भेजा गया था। दक्षिण में मुगल सेना ने सतारा के पास डेरा डाला।

एक दिन सुबह में सुअवसर पाकर मुगल सैन्य शिविर से सफलतापूर्वक पलायन कर नेतोजी पालकर सीधे छत्रपति शिवाजी महाराज के पास पहुंच गए और पिछले कुछ वर्षों में विधर्मी मुगलों के बीच रहते हुए उनके और उनके परिवार के साथ क्या-क्या हुआ था, यह बताकर उसने शिवाजी महाराज से अपने शुद्धिकरण के लिए अनुरोध किया।

१९ जून १६७६ के दिन शिवाजी महाराज ने शुद्धिकरण अनुष्ठान का आयोजित कर मुहम्मद कुली खान बन गए नेतोजी पालकर को पुनः हिंदू बनाया। वह पुनः शिवाजी महाराज की सेवा में शामिल हुए और संभाजी महाराज के शासनकाल के दौरान वृद्धावस्था में उनकी मृत्यु हुई।

- राजेश आर्य

सन्दर्भ :

1. New History of the Marathas, Vol.1 (G. S. Sardesai)

2. Shivaji and His Times (Sir Jadunath Sarkar)

Wednesday, April 21, 2021

अभिवादन के लिए उत्तम शब्द "नमस्ते जी"


अभिवादन के लिए उत्तम शब्द "नमस्ते जी"

“नमस्ते” शब्द संस्कृत भाषा का है। इसमें दो पद हैं – नम:+ते । इसका अर्थ है कि ‘आपका मान करता हूँ।’ संस्कृत व्याकरण के नियमानुसार “नम:” पद अव्यय (विकाररहित) है। इसके रूप में कोई विकार=परिवर्तन नहीं होता, लिङ्ग और विभक्ति का इस पर कुछ प्रभाव नहीं। नमस्ते का साधारण अर्थ सत्कार = सम्मान होता है। अभिवादन के लिए आदरसूचक शब्दों में “नमस्ते” शब्द का प्रयोग ही उचित तथा उत्तम है।
 नम: शब्द के अनेक शुभ अर्थ हैं। जैसे - दूसरे व्यक्ति या पदार्थ को अपने अनुकूल बनाना, पालन पोषण करना, अन्न देना, जल देना,  वाणी से बोलना, और दण्ड देना आदि।  नमस्ते namaste शब्द वेदोक्त है। वेदादि सत्य शास्त्रों और आर्य इतिहास (रामायण, महाभारत आदि) में ‘नमस्ते’ शब्द का ही प्रयोग सर्वत्र पाया जाता है। 
सब शास्त्रों में ईश्वरोक्त होने के कारण वेद का ही परम प्रमाण है, अत: हम परम प्रमाण वेद  से ही मन्त्रांश नीचे देते है :-

नमस्ते namaste

                     परमेश्वर के लिए

1. - दिव्य देव नमस्ते अस्तु॥      – अथर्व० 2/2/1

   हे प्रकाशस्वरूप देव प्रभो! आपको नमस्ते होवे।

2. - विश्वकर्मन नमस्ते पाह्यस्मान्॥   – अथर्व० 2/35/4

3. - तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम: ॥     – अथर्व० 10/7/32

   सृष्टिपालक महाप्रभु ब्रह्म परमेश्वर के लिए हम नमन=भक्ति करते है।

4. - नमस्ते भगवन्नस्तु ॥  – यजु० 36/21

   हे ऐश्वर्यसम्पन्न ईश्वर ! आपको हमारा नमस्ते होवे।

                       बड़े के लिए

1. -  नमस्ते राजन् ॥ – अथर्व० 1/10/2

   हे राष्ट्रपते ! आपको हम नमस्ते करते हैं। 

2. -  तस्मै यमाय नमो अस्तु मृत्यवे ॥  – अथर्व० 6/28/3

   पापियों के लिए मृत्युस्वरूप दण्डदाता न्यायाधीश के लिए नमस्ते हो।

3. - नमस्ते अधिवाकाय ॥   – अथर्व० 6/13/2

   उपदेशक और अध्यापक के लिए नमस्ते हो।

                    देवी (स्त्री) के लिए

1. - नमोsस्तु देवी ॥   – अथर्व० 1/13/4

   हे देवी ! माननीया महनीया माता आदि देवी ! तेरे लिए नमस्ते हो।

2 -  नमो नमस्कृताभ्य: ॥   – अथर्व० 11/2/31

   पूज्य देवियों के लिए नमस्ते।

                   बड़े, छोटे बराबर सब को

1-  नमो महदभयो नमो अर्भकेभ्यो नमो युवभ्य: ॥     – ऋग० 1/27/13.

   बड़ों बच्चों जवानों सबको नमस्ते ।

2 -  नमो ह्रस्वाय नमो बृहते वर्षीयसे च नम: ॥      – यजु० 16/30.

   छोटे, बड़े और वृद्ध को नमस्ते ।

3 - नमो ज्येष्ठाय च कनिष्ठाय च नम: ॥          – यजु० 16/32

   सबसे बड़े और सबसे छोटे के लिए नमस्ते।

👉वैज्ञानिक महत्व:

हाथ के तालु में कुछ विशेष अंश हमारे मस्तिष्क और हृदय के साथ सुक्ष्म स्नायु माध्यम द्वारा संयुक्त है।

दोनो हाथ जब प्रणाम मुद्रा में आते हैं, तो उन विशेष अंश में उद्दीपन होते हैं, जो कि हृदय एवं मस्तिष्क के लिए लाभदायक है।
तो यही है नमस्ते की परम्परा।

इसलिए जब भी आप एक दूसरे का अभिवादन करना चाहें, तो ऋषियों के अनुसार चार कार्य करने चाहिएँ।। 
 पहला - सिर झुकाना।
दूसरा - हाथ जोड़ना।
 तीसरा - मुंह से "नमस्ते जी" बोलना।
और चौथा -  बड़ों का पांव छूना। 

यदि सामने वाला व्यक्ति आप से बड़ा नहीं है, धन में बल में विद्या में बुद्धि में अनुभव में किसी भी चीज में बड़ा नहीं है, बराबर का है, अथवा छोटा है, तो आप 4 में से चौथी क्रिया = (पांव छूने वाली क्रिया) छोड़ सकते हैं। बाकी तीन क्रियाएं तो करनी ही चाहिएँ।  तभी दूसरे का सम्मान ठीक प्रकार से हुआ, ऐसा माना जाता है।
सबको हमारा नमस्ते🙏🙏🙏

-  स्वामी विवेकानंद परिव्राजक

Sunday, April 18, 2021

The assassination of Mahashay Rajpal, the publisher of Rangeela Rasool: How secularism and freedom of expression died along with him


 


The assassination of Mahashay Rajpal, the publisher of Rangeela Rasool: How secularism and freedom of expression died along with him


Swargiya Mahashay Rajpal Malhotra was born in a Khatri family in Amritsar on the Panchmi tithi of Ashadh Samvat (AD 1885). Since childhood Mahashay Rajpal ji was very intelligent, hard working, perseverant and was a great student. His father, Swargiya Lala Ramdas Khatri, passed away when he was quite young.

In connection with his work, he met an Amritsar based, famous Aryasamaji Hakim Fatehchand, who was in need of an employee. He secured a job with Hakim ji on a monthly income of twelve rupees and with that, he earned a special place in Hakim ji’s heart with his qualities of duty, hard work, honesty and for being perseverant.

At the time, Hindi was not very prevalent in Punjab and there were hardly any Hindi publishers. Mahashay Rajpal ji in 1912 started “Rajpal and Sons” from Lahore. He would publish Hindi, English, Urdu and Punjabi books on social, political and religious topics. As a publisher he never shied away from controversial topics, such as publishing one of India’s first books on family planning titled “Santan Sankhya ka Seema Bandhan”.

In 1923, Muslims published two particularly offensive books to Hindus. “Krishna teri geeta jalani padegi” used derogatory and vulgar language against Shri Krishna and other Hindu deities and “Uniseevi sadi ka maharshi” which contained derogatory remarks on Arya Samaj founder Swami Dayanand Saraswati (incidentally written by an Ahmadi). This was the time before Sec 295A was introduced in the IPC.


To respond to this provocation, Pandit Chamupati Lal, a close friend of Mahashay Rajpal, wrote a short biography of the Islamic Prophet, Mohammed. Titled “Rangeela Rasool” this short pamphlet was a satirical take on the domestic life of Mohammed. Because of the sensitive nature of the pamphlet, Pandit Chamupati made Mahashay Rajpal promise that he would never reveal the name of the author.

The pamphlet was originally published anonymously under the name “doodh ka doodh aur panee ka panee”. On the surface, Rangeela Rasool had a laudatory tone of Mohammed’s life but at the same time pointing out uncomfortable truths about his domestic life.

Though historically accurate and written after due research of hadiths, this caused an outrage among the Muslims of Lahore. The first edition of the pamphlet sold out quickly, however a mere one month after the publication of the pamphlet, in June 1924 Mohandas Gandhi wrote in his weekly ‘Young India’ condemning the pamphlet indicating that it had already become a national issue as early as June 1924.

It is also worth pointing out that Mohandas completely ignored similar provocative articles written by Muslims to which this was a response. Before the second edition could be printed, the colonial government banned the pamphlet in late June 1924. This ban stands to this day (Although in the open internet era copies can be found easily. By July 1924, Muslims had filed a criminal case against Mahashay Rajpal under Sec 153A (promoting enmity between groups).


During the trial, he was offered to give up the name of the real author of Rangeela Rasool and go scot-free, but he declined it and upheld his promise. In legal proceedings that lasted close to three years, in May 1927 Mahashay Rajpal was acquitted of all charges. The judge contended that Sec. 153A does not prohibit historical analysis of ‘prophets’ of different religions and if it were to be so applied, works of serious historians could also be subject to it.

As soon as justice was delivered, Muslims all over the country went off into a frenzy holding large protests against the judgement. In several places, riots broke out after provocative speeches given by religious leaders. Al-Jamiat an official arm of the Jamiat-Ulaima-i-Hind warned in an article that “under sharia the punishment for insulting the prophet is death and it is legally permissible to kill those who insult the prophet”.

Maulana Mohammad Ali, once held up by Mohandas Gandhi as a great “ambassador of Hindu-Muslim unity” in a provocative speech at the Jama Masjid in July 1927 warned that should the judgement not be reversed, Muslims would be compelled to take the law in their own hands. Even avowed secularists like Motilal Nehru remarked to his son that “the Musslmans of India have all gone mad”.


The primary organized opposition to the judgement was driven by the Khilafatists and the Ahmadis. Ahmadis printed posters in several cities urging a total economic boycott of Hindus in response to the perceived insult to their prophet. The then spiritual head of the Ahmadiya community, Mirza Bashir ud-din Ahmad, wrote to the British viceroy in support of an anti-blasphemy law where insult to the “prophet” should be clearly mentioned and made illegal.


In a cruel twist of karma, this is the same law that is used today in Pakistan to persecute the Ahmadiya community. The British introduced 295A, criminalizing future speech deemed insulting to religious groups, passed easily in parliament with widespread support. Lala Lajpat Rai, Hindu Mahasabha leader, called the legislation a “temporary measure” necessary to “satisfy some hyper sensitive folk”.

He also introduced an amendment to introduce a sunset clause of 1930 which was defeated. Few members objected to it on the grounds that it was a dangerous concession given to the Muslim community.

By this time Mahashay Rajpal was a marked man. In 1927, the same year he was acquitted, there were two unsuccessful attempts on his life — a wrestler named Khuda Baksh attacked him in September 1927 when he was sitting in his shop but Khatri Rajpal ji caught him and handed him over to the authorities. Khuda Baksh was convicted and sentenced to ten years in prison.

The next month, a Muslim man named Aziz Ahmed attacked Swami Satyanand ji mistaking him to Khatri Rajpal. Luckily, the attack was not fatal and Swami ji recovered after a couple of months. On April 6th, 1929 a 19 year old carpenter named Ilm ud din stabbed Mahashay Rajpal on his chest eight times while he was seated in the outer verandah of his shop. Mahashay Rajpal did not survive the attack and attained the martyrdom on this day.


As word spread among the Hindus of Lahore, a crowd of thousands gathered. Fearing a law and order situation, the British authorities initially declined to give permission for a funeral procession but relented and gave permission for the next day. As the procession went across Lahore, people paid respects by flowering petals from their homes. In an editorial soon after his funeral, journalist and poet Nanak chand Naaz wrote of Mahashay Rajpal –

फ़ख से सर उनके ऊँ चे आसमान तक तक हो गए, हि दं ओु ने जब अर्थी उठाई राजपाल।
फू ल बरसाए शहीदों ने तेरी अर्थी पे खूब, देवताओंने तेरी जय जय बुलाई राजपाल।
हो हर इक हि न्दू को तेरी ही तरह दनिु निया नसीब जि स तरह तूने छुरी सि ने पै खाई राजपाल।
तेरे काति ल पर न क्यूँ इस्लाम भेजे लानतें, जब मुजम्मत कर रही हैं इक खुदाई राजपाल।
मैंने क्या देखा की लाखों राजपाल उठने लगे दोस्तों ने लाश तेरी जब जलाई राजपाल।

On the other hand, Mahashay Rajpal’s killer was represented in court by Mohammad Ali Jinnah, who argued for his innocence and at his funeral the poet Mohammad Iqbal, a favourite of Indian liberals today, eulogized the killer. Today his grave is a religious site in Pakistan and Pakistani textbooks eulogize him with the title of “Ghazi”.

After partition, Mahashay Rajpal’s family moved to Delhi from where “Rajpal and Sons” continues to operate today. Almost 70 years after his death, he was awarded the first “International Freedom to Publish Award” by then deputy PM LK Advani. Mahashay Rajpal inspired a generation and continues to inspire people today by his sacrifice.

References

Julia Stephens, The Politics of Muslim Rage: Secular Law and Religious
Sentiment in Late Colonial India, History Workshop Journal, Volume 77, Issue 1,
Spring 2014, Pages 45–64

Raj R. A Pamphlet and its (Dis)contents: A Case Study of Rangila Rasul and the
Controversy Surrounding it in Colonial Punjab, 1923–29. History and Sociology
of South Asia. 2015;9(2):146-162

महर्षि दयानन्द की दृष्टि में धर्म क्या है?


महर्षि दयानन्द की दृष्टि में धर्म क्या है?

लेखक- श्री आचार्य वैद्यनाथ शास्त्री
प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ

धर्म क्या है और अधर्म क्या है? यह एक विवेच्य विषय है। नीतिवादों का विचार यह है कि भक्षण और रक्षण आदि चेतनमात्र में स्वभावतः है और पशु एवं मानव इन विषयों में समान है। परन्तु रक्षण का विषय एक ऐसी विशेषता है जो मानव में ही पायी जाती है। मानव रक्षण करने में अपनी विशेषता रखता है। धर्म का मानव से सीधा सम्बन्ध है अतः इसका भी लक्षण करना उसके लिए अनिवार्य था। विविध लक्षण धर्म हमारे शास्त्रों में पाये जाते हैं। जो अपने अपने दृष्टिकोणों में परिपूर्ण हैं। परन्तु जहां अन्य आचार्यों ने इस धर्म के विविध सुन्दर लक्षण किये हैं वहाँ भगवान् दयानन्द ने लक्षणों को स्वीकार करते हुए धर्म का सुधरा और निखरा हुआ स्वरूप रखा है। वे स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश में लिखते हैं-

"जो पक्षपात रहित न्यायाचरण सत्यभाषणादियुक्त ईश्वराज्ञा वेदों से अविरुद्ध है, उसको धर्म और जो पक्षपात सहित, अन्यायाचरण मिथ्याभाषणादि ईश्वराज्ञा भंग वेद-विरुद्ध है उसको अधर्म मानता हूं।"

इसके अतिरिक्त अपने ग्रन्थों में उन्होंने कई स्थलों पर ऐसी ही मिलती-जुलती बातें धर्म के सम्बन्ध में कही हैं। परन्तु यह उनका कथन उनके मन्तव्य में से उद्धृत किया जा रहा है। इसकी विशेषता पर कुछ विचार आगे की पंक्तियों में किया जाता है।

मानव धर्म शास्त्र के प्रवक्ता मनु ने प्रसंगत: धर्म के विषय में कई प्रकार से विचार प्रस्तुत किया है। वेद, स्मृति, सदाचार और आत्मप्रियता को धर्म का चार लक्षण उन्होंने एक स्थल पर स्वीकार किया है। दूसरे स्थल पर उन्होंने धर्म के दश लक्षण स्वीकार किये हैं। यह भी कहा गया है कि धारण करने के कारण यह धर्म कहा जाता है और यह प्रजा का धारक है। महाभारत आदि ग्रन्थों में इसी प्रकार के अन्य लक्षण भी किये गए हैं। इन सभी लक्षणों में धर्म के लक्षण कहे गए हैं वा धर्म के कुछ आवश्यक तत्त्व बताये गये हैं- यह प्रश्न उठता है। विचार करने पर पता चलेगा कि इनमें लक्षण और लक्ष्य दोनों का वर्णन है। वेद, स्मृति, सदाचार और आत्मा की प्रियता धर्म के परिचय के साधन हैं अतः लक्षण हैं। परन्तु धृति, क्षमा आदि १० धर्म के तत्त्व हैं- अतः ये धर्म के लक्षित तत्त्व हैं। जब मानव की प्रवृत्तिमात्र को कसौटी पर कसने का विचार उठेगा तब इन्हीं दो प्रकार की दृष्टियों पर कसा जा सकेगा।

वैशेषिक दर्शन के कर्त्ता ने पदार्थ धर्म की दृष्टि से धर्म का लक्षण किया है। धर्म आत्मा का गुण है और आत्मा एवं मन के स्व व्यापार का प्रशस्त प्रकार भी है। वैशेषिककार धर्म का लक्षण करते हुए कहते हैं कि जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि हो उसका नाम "धर्म" है। इस धर्म के ज्ञान के लिए वेद आवश्यक है और वेद ईश्वर का ज्ञान होने से प्रमाण नहीं, परम प्रमाण है। वैशेषिक के इस लक्षण में पदार्थ धर्म की जहां दृष्टि है वहां कर्त्तव्याकर्त्तव्य रूप व्यापार का भी सन्निवेश है। परन्तु इस धर्म के ज्ञान के लिए वेद और ईश्वर दोनों की आवश्यकता है। तात्पर्य यह है कि धर्म आत्मा का गुण है जिस प्रकार रूप आदि अग्नि आदि के धर्म होने से गुण हैं। जब आत्मा इसे व्यापार में लाता है तब यह उसके और मन के सहयोग से सम्पन्न होता है। परन्तु आत्मा और मन का शरीरेन्द्रिय आदि से किया प्रत्येक व्यापार धर्म ही हो- ऐसा नहीं है। जो व्यापार वेद के अनुकूल और ईश्वर के नियम के अनुरूप होता है, वह धर्म है- तद्भिन्न धर्म नहीं।

मीमांसादर्शन में भी धर्म का लक्षण किया गया है। विधि और निषेध की प्रेरणा जिसमें पाई जावे वह धर्म है परन्तु मीमांसाकार ने इस धर्म की परीक्षा में वेद को परम प्रमाण माना है। उसका कारण यह भी प्रकट किया है कि वेद में सृष्टि के नियमों का प्रतिपादन जैसा किया गया है वे वस्तुतः संसार में उसी प्रकार से पाये जाते हैं और किसी प्रकार का वैतथ्य नहीं पाया जाता है। अतः वेद की धर्म के विषय में परम-प्रमाणता है। इसी प्रसंग में एक और भी तथ्य का उद्घाटन महर्षि जैमिनी ने किया है। वह यह है कि वेद के शब्दों के साथ उन्होंने सृष्टि के पदार्थों का औत्पत्तिक सम्बन्ध माना है। तात्पर्य यह है कि सृष्टि के पदार्थों की उत्पत्ति वेद शब्द पूर्वक है। व्यास इस सिद्धान्त के परमपोषक थे। वैशेषिकदर्शन में भी इसका मूल मिलता है। आचार्य जैमिनी के लक्षण में भी धर्म के साथ वेद का बहुत ही अटूट सम्बन्ध है।
वैशेषिकदर्शन पर उपस्कार लिखने वाले शंकर मिश्र ने धर्म को निवृत्ति लक्षण और विधि रूप माना है। सर्वदर्शन संग्रह कर्त्ता ने पुण्यात्मक प्रवृत्ति का नाम धर्म माना है। आचार्य जन धर्म को प्रत्यक्ष नहीं मानते। इसे अनुमानगम्य मानते हैं। इस प्रकार धर्म के विषय में विविध वर्णन मिलते हैं। परन्तु यह एक तथ्यभूत बात है कि वेद का और ईश्वर नियम का सम्बन्ध लगभग सभी में किसी न किसी रूप में पाया जाता है।

वेद के विरुद्ध न होना धर्म का लक्षण है परन्तु वेद का ज्ञान स्वयं ईश्वर की प्रेरणा का फल है। ईश्वर की आज्ञा वा ईश्वर का नियम सृष्टिगत नियम है। उससे भी धर्म की अविरुद्धता होनी चाहिए। वाक्, मन और शरीर से जो भी उत्तम प्रवृत्ति की जाती है वह धर्म है। सत्यभाषण, न्यायाचरण आदि इसी प्रकार की प्रवृत्तियाँ हैं। इन प्रवृत्तियों में न्याय्य वा अन्याय्य का निर्णय करना कठिन कार्य है। कौन-सी प्रवृत्ति वा कर्म न्याय्य है और कौन-सा अन्याय्य- इसका विचार करना सरल कार्य नहीं है। धृति, क्षमा आदि धर्म युक्त कर्म हैं- यह तो ठीक ही है- परन्तु ये धर्म और न्याय्य कर्म की कसौटी नहीं है। अतः ये लक्ष्य हैं, लक्षण नहीं। हां! जब ये किसी के द्वारा पालन किये हुए होकर दूसरों के पथ-प्रदर्शक बनते हैं तब ये सदाचार के अन्तर्गत होने से लक्षण की संज्ञा प्राप्त कर लेते हैं। सत्यभाषण आदि से युक्त न्यायाचरण धर्म है परन्तु उसमें पक्षपात का अभाव होना चाहिए। पक्षपात एक प्रकार पूर्व निश्चित धारणा है। यह खोज और सत्यान्वेषण के मार्ग में बाधक है। पक्षपात न्याय का भी इसी प्रकार विरोधी है। जहां पक्षपात है वहां न्याय की सम्भावना नहीं हो सकती है।
अतः सत्यभाषणादि युक्त न्यायाचरण वह है जो पक्षपात से रहित होकर किया जावे। परन्तु फिर भी प्रश्न यह उठता है कि पक्षपात न होने पर भी न्याय और सत्य के निर्णय की कोई कसौटी बनानी ही पड़ेगी? इसी का समाधान करने के लिए कहा गया है कि ईश्वरीय नियम की अनुकूलता और वेदों की अविरुद्धता आवश्यक है। ये दोनों ऐसी कसौटी हैं कि जिनके आधार पर न्यायाचरण को कस कर परखा जा सकता है और न्याय्यपने और अन्याय्यपने का निर्णय किया जा सकता है। जिन आचार्यों ने वेद को धर्म में परम प्रमाण माना है उनका भी आशय यही है। वे वेद को ईश्वर की आज्ञा व नियम मानकर ही ऐसा कह रहे हैं। उनकी दृष्टि में ईश्वराज्ञा और वेद में अन्तर नहीं है।

परन्तु भगवान् दयानन्द ने धर्म के लक्षण में दोनों को पृथक्-पृथक् रखकर लक्षण को और भी निर्दुष्ट कर दिया है। वेद को धर्म में परम प्रमाण मानने के भी अर्थ दूसरे हो सकते हैं। कोई यह कह सकता है कि वेद से जो प्रतिपादित हो वही धर्म है। परन्तु महर्षि की बात इसको स्पष्ट कर देती है कि जो ईश्वरीय नियम के अनुकूल हो और वेद के अविरुद्ध हो। कोई ऐसा भी मसला उठ सकता है जो वेद में प्रत्यक्षतः प्रतिपादित न दिखाई पड़े। ऐसी स्थिति में यह देखा जावेगा कि वह वेद के विरुद्ध तो नहीं है। वेद के अविरुद्ध होने से वह धर्म कहा जा सकेगा।

महर्षि दयानन्द के द्वारा दिखलाया गया धर्म का लक्षण सर्वथा ही परिमाजित एवं पूर्ण है। इसमें सभी आचार्यों की दृष्टियाँ समाविष्ट हैं। महर्षि के धर्म मीमांसा का यही स्वरूप है। यहां पर संक्षेप में इसके ही सम्बन्ध में कुछ लिखा गया।
-जन-ज्ञान (मासिक) के फाल्गुन अंक वि० सं० २०२९ से साभार

Thursday, April 15, 2021

Brave daughters of Raja Dahir - Suraj Devi and Parimal Devi


Brave daughters of Raja Dahir - Suraj Devi and Parimal Devi

[Instead of teaching false history we must teach the original history and the bravery of INDIAN WOMAN. This is the story of the daughters who very cleverly killed the first barbarous and brutal Muslim looter. Who destroyed the great kingdom of Indian king DAHIR.]

Tuhman Hamadani, accompanied by Abyssinian servants. One night the Khalif had the two girls brought into his haram, and he then gave them into the charge of the bedchamber attendants, with orders to pay them every attention, and present them when they had recovered from the fatigues of their journey. Two months afterwards the Khalif remembered these two Hindi slaves, and ordered them to be brought into his presence. An interpreter accordingly summoned them. When their veils were thrown back, the Khalif, on seeing them, became distracted with admiration of their great beauty. He then asked them their names; one said her name was Parmal-Devi, the other said her name was Suraj-Devi. The Khalif ordered the attendants to leave one of them there. She then rose and said: 'I am not fit for the bedchamber of the Khalif, because Muhammad bin Kasim dishonored us both before be sent us to the Khalif.' When the interpreter explained this, the fire of anger and jealousy was kindled in the Khalif, and he gave orders that as a punishment for this want of respect, Muhammad bin Kasim should be wrapped up in the raw hide of an ox, and be sent to the capital. To enforce this order, the Khalif wrote some words of menace in the margin of the letter in his own hand, 'Wherever Muhammad bin Kasim may be, when this reaches him, he is to come to the capital, and make no fail in obeying this order.' Muhammad bin Kasim was at Udhapur, when the Khalif's chamberlain brought this mandate. When he had read it he directed that officer to carry the order into effect. He accordingly wrapped Muhammad bin Kasim in a raw hide. Three days afterwards the bird of life left his body and flew to heaven. The chamberlain put the body into a box, and carried it to the capital. When he arrived in Syria, he brought the box before the Khalif on a day of public audience. The Khalif enquired if Muhammad were alive? The chamberlain replied that he had been enclosed in a raw skin, and that he died three days afterwards. The Khalif then directed the box to be taken into the female apartments, and ordered that it should be opened there in his presence. He then called for the daughters of Raja Dahir, and said, 'Come and see how supreme are my commands; behold, Muhammad bin Kasim!' They both came forward to look at him and recognized him, and, raising their hands, they blessed and praised the Khalif. They then said, Kings of great justice should not proceed hastily in perilous matters, nor act precipitately upon the information of friends or enemies in the most important of all concerns.' When the Khalif enquired what was the meaning of their address, they replied: 'We raised this charge against Muhammad bin Kasim out of enmity to him, because he slew our father, and through him dominion and wealth have departed from our house, we have come as prisoners into a foreign land; the king in his anger did not weigh our words, nor distinguish between our truth and our falsehood, but issued his fatal order. The truth is, this man was to us as a father, or a brother; his hands never touched the skirts of our purity; our object was to revenge our father, and so we made this accusation. Our wishes have been fulfilled, but there has been a serious failure in the king's justice.' When the Khalif heard this, he was overwhelmed with remorse for a whole hour; but the fire of anger then burst from the furnace of his bossom, and he gave orders for the two girls to be tied to the tails of horses, and, after being dragged round the city, to be thrown into the Tigris (Dajla). Muhammad bin Kasim was buried at Damascus. Two years after his death the people of India rebelled, and threw off their yoke, and only from Debalpur to the Salt Sea remained under the dominions of the Khalif."

[Reference- The History Of India As Told By Its Own Historians by SIR H.M. ELLIOT, K.C.B. ; Vol. I ; 1867 ; Presented by Priyanshu Seth]

Saturday, April 10, 2021

आर्यसमाज


आर्यसमाज

लेखक- श्री रामधारी सिंह 'दिनकर'

उन्नीसवीं सदी के हिन्दू नवोत्थान के इतिहास का पृष्ठ-पृष्ठ बतलाता है कि जब यूरोप वाले भारतवर्ष में आये तब यहां के धर्म और संस्कृति पर रूढ़ि की पर्तें जमी हुई थीं एवं यूरोप के मुकाबले में उठने के लिए यह आवश्यक हो गया था कि ये पर्तें एकदम उखाड़ फेंकी जाएँ और हिन्दुत्व का वह रूप प्रकट किया जाए जो निर्मल और बुद्धिगम्य हो। स्वामी जी के मत से यह हिन्दुत्व पौराणिक कल्पनाओं के नीचे दबा हुआ था। उस पर अनेक स्मृतियों की धूल जम गयी थी एवं वेद के बाद के सहस्रों वर्षों में हिन्दुओं ने जो रूढ़ियां और अन्धविश्वास अर्जित किये थे उनके ढूहों के नीचे यह धर्म दबा पड़ा था। राममोहन राय, रानाडे, केशवचन्द्र और तिलक से भिन्न स्वामी दयानन्द की विशेषता यह रही कि उन्होंने धीरे-धीरे पपड़ियां तोड़ने का काम न करके उन्हें एक ही चोट से साफ कर देने का निश्चय किया। परिवर्तन जब धीरे-धीरे आता है, तब सुधार कहलाता है किन्तु वही जब वेग से पहुंच जाता है, तब उसे क्रान्ति कहते हैं। दयानन्द के अन्य समकालीन सुधारकमात्र थे, किन्तु दयानन्द क्रान्ति के वेग से आये और उन्होंने निश्छलभाव से यह घोषणा कर दी कि हिन्दू-धर्म-ग्रन्थों में केवल वेद ही मान्य हैं। अन्य शास्त्रों और पुराणों की बातें बुद्धि की कसौटी पर कसे बिना मानी नहीं जानी चाहिएँ। छह शास्त्रों और अठारह पुराणों को उन्होंने एक ही झटके में साफ कर दिया। वेदों में मूर्तिपूजा, अवतारवाद, तीर्थों और अनेक पौराणिक अनुष्ठानों का समर्थन नहीं था अतएव स्वामी जी ने इन सारे कृत्यों और विश्वासों को गलत घोषित किया।

वेद को छोड़कर कोई अन्य धर्मग्रन्थ प्रमाण नहीं है। इस सत्य का प्रचार करने के लिए स्वामी जी ने सारे देश का दौरा करना आरम्भ किया और जहाँ-जहाँ वे गये, प्राचीन परम्परा के पण्डित और विद्वान् उनसे हार मानते गये। संस्कृत भाषा का उन्हें अगाध ज्ञान था। संस्कृत में वे धारावाहिक रूप से बोलते थे। साथ ही, वे प्रचण्ड तार्किक थे। उन्होंने ईसाई और मुस्लिम धर्म-ग्रन्थों का भी भली-भांति मंथन किया था। अतएव अकेले ही उन्होंने तीन-तीन मोर्चों पर संघर्ष आरम्भ कर दिया। दो मोर्चे तो ईसाइयत और इस्लाम के थे, किन्तु तीसरा मोर्चा सनातन धर्मी हिन्दुओं का था, जिनसे जूझने में स्वामी जी को अनेक-अनेक अपमान, कुत्सा, कलंक और कष्ट झेलने पड़े। उनके प्रचण्ड शत्रु ईसाई और मुसलमान नहीं, सनातनी हिन्दू ही निकले और कहते हैं अन्त में इन्हीं हिन्दुओं के षड्यन्त्र से उनका प्राणान्त भी हुआ। दयानन्द ने बुद्धिवाद की जो मशाल जलायी थी उसका कोई जवाब नहीं था। वे जो कुछ कह रहे थे उसका उत्तर न तो मुसलमान दे सकते थे, न ईसाई, न पुराणों पर पलने वाले हिन्दू पण्डित और विद्वान्। हिन्दू नवोत्थान अब पूरे प्रकाश में आ गया था और अनेक समझदार लोग मन ही मन यह अनुभव करने लगे थे कि सच ही पौराणिक धर्म में कोई सार नहीं है।

आर्यसमाज की स्थापना
सन् १८७२ ई० में स्वामी जी कलकत्ता पधारे। वहाँ देवेन्द्रनाथ ठाकुर और केशवचन्द्र सेन ने उनका बड़ा सत्कार किया। ब्रह्मसमाजियों से उनका विचार-विमर्श भी हुआ, किन्तु ईसाईयत से प्रभावित ब्रह्मसमाजी विद्वान् पुनर्जन्म और वेद की प्रामाणिकता के विषय में स्वामी जी से एकमत नहीं हो सके। कहते हैं कलकत्ता में ही केशवचन्द्र सेन ने स्वामी जी को यह सलाह दी कि यदि आप संस्कृत छोड़कर हिन्दी में बोलना आरम्भ करें तो देश का असीम उपकार हो सकता है। तभी से स्वामी जी के व्याख्यानों की भाषा हिन्दी हो गयी और हिन्दी प्रान्तों में उन्हें अगणित अनुयायी मिलने लगे। कलकत्ता से स्वामी जी बम्बई पधारे और वहीं १० अप्रैल सन् १८७५ ई० को उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की। बम्बई में उनके साथ प्रार्थना समाज वालों ने भी विचार-विमर्श किया किन्तु यह समाज तो ब्रह्मसमाज का ही बम्बई संस्करण था। अतएव स्वामी जी से इस समाज के लोग भी एकमत नहीं हो सके।

बम्बई से लौटकर स्वामी जी दिल्ली आये। यहाँ उन्होंने सत्यानुसंधान के लिए ईसाई, मुसलमान और पण्डितों की एक सभा बुलायी किन्तु दो दिनों के विचार-विमर्श के बाद भी लोग किसी निष्कर्ष पर नहीं जा सके। दिल्ली से स्वामी जी पंजाब गये। पंजाब में उनके प्रति बहुत उत्साह जागृत हुआ और सारे प्रान्त में आर्य समाज की शाखाएँ खुलने लगीं। तभी से पंजाब आर्यसमाजियों का प्रधान गढ़ रहा है।
स्वामी जी के देहावसान के बाद मादाम ब्लेवास्की ने लिखा था कि 'जनसमूह के उभरते हुए क्रोध के सामने कोई संगमरमर की मूर्ति भी स्वामी जी से अधिक अडिग नहीं हो सकती थी। एक बार हमने काम करते देखा था। उन्होंने अपने सभी विश्वासी अनुयायियों को यह कहकर अलग हटा दिया कि तुम्हें हमारी रक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। भीड़ के सामने वे अकेले ही खड़े हो गये थे। लोग उतावले हो रहे थे, क्रुद्ध सिंह के समान वे स्वामी जी पर टूट पड़ने को तैयार थे किन्तु स्वामी जी की धीरता ज्यों की त्यों बनी रही। यह बिल्कुल सही बात है कि शंकराचार्य के बाद से भारत में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ जो स्वामी जी से बड़ा संस्कृतज्ञ, उनसे बड़ा दार्शनिक, उनसे अधिक तेजस्वी, वक्ता तथा कुरीतियों पर टूट पड़ने में उनसे अधिक निर्भीक रहा हो।'

स्वामी जी की मृत्यु के बाद थियोसोफिस्ट अखबार ने उनकी प्रशंसा करते हुए लिखा था कि 'उन्होंने जर्जर हिन्दुत्व के गतिहीन ढूह पर भारी बम का प्रहार किया और अपने भाषणों से लोगों के हृदयों में ऋषियों और वेदों के लिए अपरिमित उत्साह की ज्योति जला दी। सारे भारतवर्ष में उनके समान हिन्दी और संस्कृत का वक्ता दूसरा कोई और नहीं था।'

आर्यसमाज की विशेषता
स्वामी जी ने ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों को अनादि माना है, किन्तु, यह तो इस्लाम से अधिक भारतीय योगदर्शन का मत है। भिन्नता यह है कि स्वामी जी यह नहीं मानते कि भगवान् पापियों के पाप को भी क्षमा करते हैं, बल्कि भगवान् की कृपा के सहारे पाप करने की बात के लिए उन्होंने इस्लाम और ईसाइयत की बार-बार आलोचना की है। हाँ, जिन बुराइयों के कारण हिन्दू-धर्म का ह्रास हो रहा था तथा अन्य धर्मों के लोग जिन दुर्बलताओं का लाभ उठाकर हिन्दुओं को ईसाई बना रहे थे, उन बुराइयों को स्वामी जी ने अवश्य दूर किया, जिससे हिन्दुओं के सामाजिक संगठन में वही दृढ़ता आ गयी जो इस्लाम में थी। स्वामी जी ने छुआछूत के विचार को अवैदिक बताया और उनके समाज ने सहस्रों अन्त्यजों को यज्ञोपवीत देकर उन्हें हिन्दुत्व के भीतर आदर का स्थान दिया। आर्य समाज ने नारियों की मर्यादा में वृद्धि की एवं उनकी शिक्षा-संस्कृति का प्रचार करते हुए विधवा विवाह का भी प्रचलन किया। कन्या-शिक्षा और ब्रह्मचर्य का आर्य समाज ने इतना अधिक प्रचार किया कि हिन्दी-प्रान्तों में साहित्य के भीतर एक प्रकार की पवित्रतावादी भावना भर गयी और हिन्दी के कवि कामिनी नारी की कल्पनामात्र से घबराने लगे। पुरुष शिक्षित और स्वस्थ हों, नारियां शिक्षित और सबला हों, लोग संस्कृत पढ़ें और हवन करें, कोई भी हिन्दू मूर्तिपूजा का नाम न ले, न पुरोहित, देवताओं और पण्डों के फेरे में पड़ें, ये उपदेश उन सभी प्रान्तों में कोई पचास सालों तक गूँजते रहे, जहाँ आर्य समाज का थोड़ा बहुत भी प्रचार हुआ था।

हिन्दुत्व की वीर भुजा
आर्यसमाज हिन्दुत्व की खड्गधार बाँह साबित हुआ। स्वामी जी के समय से लेकर, अभी हाल तक, इस समाज ने सारे हिन्दी-प्रान्त को अपने प्रचार से आँटा डाला। आर्यसमाज के प्रभाव में आकर बहुत से हिन्दुओं ने मूर्तिपूजा छोड़ दी, बहुतों ने अपने घर के देवी-देवताओं की प्रतिमाओं को तोड़कर बाहर फेंक दिया, बहुतों ने श्राद्ध की पद्धति बन्द कर दी और बहुतों ने पुरोहितों के अपने यहाँ से विदा कर दिया। जो विधिवत् आर्य समाजी नहीं बने, शास्त्रों और पुराणों से उनका विश्वास हिल गया और वे भी, मन ही मन, शंका करने लगे कि राम और कृष्ण ईश्वर हैं या नहीं और पाषाणों की पूजा से मनुष्य को कोई लाभ हो सकता है या नहीं। आर्यसमाजियों ने जगह-जगह अपने उद्देश्यानुकूल विद्यालय स्थापित किये, जिनमें संस्कृत की विशेष रूप से पढ़ाई होती है और जहाँ के स्नातक स्वामी दयानन्द के उद्देश्यों के मूर्तिमान् रूप बनकर बाहर आते हैं। इन विद्यालयों में कन्या और युवक ब्रह्मचर्य-वास करते हैं।

आगे चलकर आर्य समाज ने शुद्धि और संगठन का भी प्रचार किया। सन् १९२६ ई० में मोपला (मालाबार) में मुसलमानों ने भयानक विद्रोह किया और उन्होंने पड़ोस के हिन्दुओं को जबरदस्ती मुसलमान बना लिया। आर्य समाज ने इस विपत्ति के समय संकट के सामने छाती खोली और कोई ढाई हजार भ्रष्ट परिवारों को फिर से हिन्दू बना लिया। इसी काण्ड के बाद आर्यसमाजियों ने मलकाना-राजपूतों की शुद्धि आरम्भ की, जिससे मुस्लिम सम्प्रदाय में क्षोभ उत्पन्न हुआ और लोग कहने लगे कि आर्यसमाजी मुसलमानों से शत्रुता कर रहे हैं। किन्तु शत्रुता की इसमें कोई बात नहीं। जब अन्य धर्म वालों को यह अधिकार है कि वे चाहे जितने हिन्दुओं को ईसाई या मुसलमान बना सकते हैं, तब धर्म-भ्रष्ट हिन्दुओं को फिर से हिन्दू बना लेने में ऐसा क्या अन्याय है? किन्तु, आर्यसमाजियों के इस साहस से मुसलमान बहुत घबराये एवं भारतीय एकता का संकट कुछ पीछे की ओर लुढ़क गया।

आर्यसमाजियों ने अपने साहस का दूसरा परिचय सन् १९३६ में दिया जब हैदराबाद की निजाम सरकार ने यह फरमान जारी किया था कि हैदराबाद राज्य में आर्य समाज का प्रचार नहीं होने दिया जाएगा। इस आज्ञा के विरुद्ध आर्यसमाजियों ने सत्याग्रह का शास्त्र निकाला और एक-एक करके कोई बारह हजार आर्यसमाजी सत्याग्रही जेल चले गये।

ईसाइयत और इस्लाम के आक्रमणों से हिन्दुत्व की रक्षा करने में जितनी मुसीबतें आर्य समाज ने झेली हैं, उतनी किसी और संस्था ने नहीं। सच पूछिये तो उत्तर भारत में हिन्दुओं को जगाकर उन्हें प्रगतिशील करने का सारा श्रेय आर्य समाज को ही है। पण्डित चमूपति ने सत्य ही कहा है कि 'आर्य समाज के जन्म के समय हिन्दू कोरा फुसफिसिया जीव था। उसके मेरुदण्ड की हड्डी थी ही नहीं चाहे उसे कोई गाली दे, उसकी हंसी उड़ाये, उसके देवताओं की भर्त्सना करे या उसके धर्म पर कीचड़ उछाले, जिसे वह सदियों से मानता आ रहा है, फिर भी, इन सारे अपमानों के आगे वह दांत निपोरकर रह जाता था। लोगों को यह उचित शंका हो सकती थी कि यह गुस्से में आकर प्रतिपक्षी की ओर घूर भी सकता है या नहीं, किन्तु आर्य समाज के उदय के बाद अविचल उदासीनता की यह मनोवृत्ति विदा हो गयी। हिन्दुओं का धर्म एक बार फिर जगमगा उठा है। आज का हिन्दू अपने धर्म की निन्दा सुनकर चुप नहीं रह सकता। जरूरत हुई तो धर्म-रक्षार्थ अपने प्राण भी दे सकता है।'

[स्त्रोत- आर्य मर्यादा : आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब का प्रमुख पत्र का अप्रैल २०२१ का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]

Sunday, April 4, 2021

शुद्धि और हिन्दू समाज


 


शुद्धि और हिन्दू समाज


#डॉ_विवेक_आर्य

1946 में बंगाल की धरती नोआखली के भयानक हत्याकांड से लाल हो गई। हज़ारों हिन्दुओं को मौत के घाट उतारा गया। स्त्रियों का सतीत्व लूटा गया और न जाने कितनों को बलात मुसलमान बनाया गया। डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी उस समय अखिल भारतीय शुद्धि सभा के प्रधान थे। इस सारी समस्या पर विचार करने के लिए उन्होंने हिन्दू महासभा भवन में एक बैठक बुलाई। सनातन धर्मियों के प्रतिनिधि के रूप में स्वामी करपात्री जी उपस्थित थे और आर्यसमाज के प्रतिनिधि के रूप में स्वामी विद्यानन्द जी।

डॉ मुखर्जी ने दो प्रश्न विशेष रूप से प्रस्तुत किये-

1. बलात मुसलमान बनाये गये हिन्दुओं को कैसे वापस लाया जाये!
2. हिन्दू महासभा के हाथों में शासन की बागडोर जैसे आये!

पहले प्रश्न के उत्तर में स्वामी करपात्री जी ने कहा कि जो फिर से हिन्दू बनना चाहेगा, उसे एक पाव गौ का गोबर खाना होगा। आर्य समाज के प्रतिनिधि स्वामी विद्यानन्द ने कहा कि जो यह कहे कि मैं हिन्दू हूँ, उसे हिन्दू मान लिया जाये। उसके लिए न किसी प्रकार गोबर खाने की आवश्यकता है और न किसी प्रकार के संस्कार की।

डॉ मुखर्जी ने स्वामी विद्यानन्द जी की बात का समर्थन करते हुए आपबीती हुई एक अत्यंत मार्मिक घटना सुनाई। उन्होंने कहा कि जब मैं नोआखली गया तो मुझे एक बुढ़िया मिली। उसने मुझे बताया कि मुझे और मेरी तरह अन्य बहनों को एक प्रकार मुसलमान बनाया कि दो मौलवियों ने पगड़ी का एक-एक छोर पकड़ा और हमें तलवार का भय दिखाकर पगड़ी को हाथ से पकड़ने का आदेश दिया। डर के मारे हमने पगड़ी अपने हाथों में ले ली। मौलवियों ने कलमा पढ़ा और हमें मुसलमान मान लिया गया। परन्तु जिस समय वे कलमा पढ़ रहे थे, उस समय मैं मन ही मन राम-राम कह रही थीं। मुझे बताओ कि वह बुढ़िया मुसलमान कब हुई, जो उसे फिर से हिन्दू बनने के लिए पाव गोबर खाने के लिए कहूं। मैं दीक्षित जी से पूरी तरह सहमत हूँ।
हमारे देश का इतिहास उठाकर देखिये। हमारा हाजमा बहुत अच्छा था। मंगोल, कम्बोज सभी को हम अपने में हजम कर गए। पर 1200 वर्षों में आये मुसलमान और अंग्रेज हमसे हजम नहीं हुए। मध्यकाल का गिरावट का दौर आया तो हमने विदेश यात्रा करने वाले को मलेच्छ करार दे दिया। अन्यों को अपने में क्या मिलाना था जो किसी भूल वश प्रायश्चित्त कर वापिस आना चाहते थे। उन्हें भी आने से रोका। यूँ तो इतिहास में अनेक प्रमाण मिलते है जब हमारे पूर्वजों ने शुद्ध कर अपने से बिछुड़े हुओं को मिलाया। जैसे शिवाजी ने नेताजी पालकर की शुद्धि की थी, गोवा में अनेक ईसाई बने हुए हिन्दुओं को शुद्ध किया गया, विजयनगर साम्राज्य की स्थापना करने वाले हरिहरा-बुक्का को शुद्ध किया गया था। पर हम उसे भी भूल गये। धन्य हो स्वामी दयानन्द का जिन्होंने सदियों से बंद शुद्धि प्रक्रिया को फिर से आरम्भ किया। पर उनके पश्चात आर्यसमाज के सबसे अधिक विरोध और असहयोग शुद्धि के रण में हिन्दुओं ने ही किया। केरल में मोपला दंगों के समय हिन्दुओं को जब आर्यसमाज द्वारा शुद्ध किया गया तब जाकर हिन्दू समाज में शुद्धि के लिये स्वीकारता बढ़ी। पर खुले मन से इसे आज भी नहीं अपनाया गया। आज देश में जैसी स्थिति है। उसमें शुद्धि की परम आवश्यकता है। नहीं तो हिन्दुओं का भविष्य क्या होगा। पाठक स्वयं सोच सकते है।

राजस्थान में कैला देवी मंदिर और पशुबलि की कुप्रथा


 


राजस्थान में कैला देवी मंदिर और पशुबलि की कुप्रथा 


#डॉ_विवेक_आर्य 


राजस्थान के करौली जिले में कैला देवी मंदिर है। इस मंदिर में आज से कुछ दशक पहले धर्म के नाम पर भैंसे-बकरों की बलि दी जाती थी। अज्ञानियों द्वारा किया जाने वाला यह कृत्य न तो धर्म अनुकूल था न ही शास्त्रों के अनुकूल था। फिर भी परम्परा के नाम पर इस अन्धविश्वास को प्रोत्साहित किया जा रहा था। भरतपुर जिले में आर्य सन्यासी स्वामी सत्यानंद जी वैदिक धर्म के प्रचार में लगे हुए थे। स्वामी जी को उनके शिष्य ब्रह्मचारी ओमदत्त जी ने कैला मंदिर में होने वाले पशुबलि के विषय में जानकारी दी। स्वामी जी का अंतर्मन दुःख से कराह उठा। परमात्मा की मूक प्रजा की यह नृशंस हत्या! धर्म के नाम पर यह पापाचार!  स्वामी जी ने इस अत्याचार को समाप्त करने का दृढ़ संकल्प लिया। फरवरी 1960 में हिण्डौन आर्य समाज में इस विषय पर सभा हुई। सभी ने इस प्रस्ताव का अनुमोदन किया और तन-मन -धन से सहयोग देने का वचन दिया। स्वामी जी आर्यसमाज के प्राण श्री प्रह्लादकुमार जी के साथ सवाई माधोपुर, गंगापुर, मथुरा, हरिद्वार, भरतपुर, बल्लभगढ़, भुसावर, झिरना आदि अनेक स्थानों पर इस विषय में आर्यों को जागरूक किया। करौली में आर्यों के ठहरने के लिये कोई स्थान नहीं था। आर्यसमाज को अपने प्रचार के लिए कोई स्थान उपलब्ध नहीं था। इसलिए वेद मंदिर की स्थापना का निर्णय लिया गया। 


 स्वामी जी के दामाद श्री सुरेशचंद्र जी एवं अन्य आर्यों ने भवन के लिए धन आदि की व्यवस्था की जिससे वेद मंदिर का निर्माण हुआ। 26 जनवरी 1961 को स्वामी आनन्दभिक्षु जी की सम्मति से यह निर्णय लिया गया कि हमें 3 प्रकार से यह कार्य करना चाहिये। प्रचार, अनशन और सत्याग्रह। 8 फरवरी 1961 को आर्यसमाज भरतपुर  में सभा हुई और पैदल यात्रा की योजना बनी। 23 फरवरी को भरतपुर, बयाना, हिण्डौन से कैला देवी की पदयात्रा आरम्भ हुई जो वेद मंदिर में जाकर संपन्न हुई। 16 मार्च को वेद मंदिर में यजुर्वेद यज्ञ प्रारम्भ हुआ और वेद मंदिर का उद्घाटन  किया गया। 

 

14 मार्च से 25 मार्च को पूज्य आनन्दभिक्षु जी की अध्यक्षता में पशुबलि के विरोध में डटकर प्रचार हुआ। लगभग 100 आर्य इस कार्य में लगे। प्रतिदिन जुलूस निकाला जाता और पुरुष एवं नारी बाज़ारों में भजन गाते हुए ध्वनि उद्घोष (माइक ) से प्रचार करते। प्रतिदिन यज्ञ-हवन और प्रवचन होते। वैदिक साहित्य का वितरण किया जाता। कैलादेवी के मंदिर के सामने ही श्री स्वामी शिवानन्द जी और श्री मुंशी पन्नालाल जी ने आमरण अनशन आरम्भ कर दिया। अनशन और प्रचार का व्यापक प्रभाव हुआ। ग्रामों के पंचों के प्रतिनिधियों द्वारा यह कुकृत्य मिटाने का विश्वास दिलाने पर अनशन तोड़ा गया। एक शिष्ट मण्डल पशुबलि विरोध का प्रस्ताव लेकर करौली के राजा के पास गया। राजा जी ने भी आर्यसमाज का प्रस्ताव स्वीकार किया और बलि के लाया गया भैंसा वापिस भेज दिया। जनता ने भी आर्यों के प्रस्ताव का स्वीकार करना आरम्भ कर दिया और लोग बकरों को बिना बलि दिए वापिस लेकर जाने लगे। अंततः: राज्य सरकार की ओर से धार्मिक स्थल पर पशुबलि को प्रतिबंधित कर दिया गया। इस प्रकार से स्वामी जी के मार्गदर्शन में चलाया गया यह आर्यों का सत्याग्रह सफल हुआ। 


धर्म और परम्परा के नाम पर अन्धविश्वास के निवारण के लिए आर्यों द्वारा किये गये पुरुषार्थ को नमन।