Monday, March 25, 2019

लोक कवि कुंवर जौहरी सिंह जसराणा (सोनीपत)


लोक कवि कुंवर जौहरी सिंह जसराणा (सोनीपत)
-अमित सिवाहा
ओ३म् है जग का नियंता ओ३म् ही करतार है ओ३म् राजा न्यायकारी ओ३म् भव भंडार है।
ओ३म् कहने का मजा जिसकी जबां पर आ गया वो मुक्त जीवन हो गया चारों पदार्थ पा गया।
प्रेम से मिलकर चलो बोलो ज्ञानी बनो पूर्वजों की भांती तुम कर्त्तव्य के मानी बनो।
हरियाणा प्रदेश की जनता संगीत प्रेमी रही है। यहां की जनता गाने बजाने लय सुर ढोलक, हारमोनियम ,चिमटे की ताल पर मोह उठती है। हरियाणा का वाद्द संगीत बीन बांसुरी अति प्रसिद्ध है। जनता की भावनाओं से प्रेरित होकर यहां पर अनेकों संगीतज्ञ हूए हैं। जिनमें काव्य सम्राट ईश्वर सिंह गहलोत काकरोला निवासी का नाम अति प्रसिद्ध है। ये पिंगल शास्त्र के उत्कृष्ट विद्वान थे। इन्होने ता उम्र वैदिक धर्म व स्वामी दयानंद सरस्वती जी के सिद्धांत का प्रचार किया। इनकी भजन मंडली में शिष्यों की बात करें तो स्वामी नित्यानंद (सुरा किलोई झज्झर ), कुंवर जौहरी सिंह जी जसराणा, श्री सत़्यवीर सिंह भैंसवाल कलां सोनीपत शिरोमणि शिष्य थे। हरियाणा के लोक कवियों में जौहरी सिंह जी चमकते सितारों की भांती थे।
जन्म
कुंवर जौहरी सिंह जी का जन्म 9अगस्त 1913 को गांव जसराणा तहसील गोहाणा जिला सोनीपत में पिता श्री जुगलाल जी के कृषक परिवार में हूआ। ये अपने पिता की तीन संतानों में सबसे बड़े थे। व शिक्षित भी यही थे। इनके दो छोटे भाई श्री महासिंह व चन्द्र भान जी कृषि कार्य करते थे।
आर्य समाज व उपदेशकों से प्रभावित
जब कुंवर साहब 12वर्ष के थे तो गुरुकल भैंसवाल की तरफ से चौधरी भोलाराम त्योडी निवासी जसराणा में प्रचार करने आए। बाल्यावस्था होने के कारण ये तो पता नहीं क्या प्रचार किया लेकिन इसी प्रचार से इनके चाचा देशराज पुत्र जयराम चंदगी राम पुत्र दुलीचंद ने जनेऊ धारण किये। जिस से गांव वाले कहने लगे ये दोनों बिगड़ गए। इसके बाद भोलाराम भजनोपदेशक आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब में काम करने लगे ओर दोबारा श्री पंडित समर सिंह वेदालंकार को लेकर जसराणा गांव में वेद प्रचार करने आए।
उस प्रचार का लोगों पर बहुत प्रभाव पड़ा, कुंवर साहब समेत अनेकों ने जनेऊ धारण किया। लेकिन फिर भी वे आर्य समाज, वेद धर्म के महत्व को समझ नहीं पाए। इन्हीं दिनों आप 1928 में आठवीं कक्षा में (फरमाणा मिडल स्कूल) पढ़ रहे थे तो ईश्वर सिंह गहलोत जाट मिडल स्कूल के चंदे हेतू प्रचार करने आए। कुंवर साहब लिखते हैं की मैने लगातार एक महिना फरमाणा ,रिढाऊं, आंवली ,भैंसवाल कलां, माजरा में प्रचार सुना। ओर मन ही मन ख्याल आया की इनसे गाने की कला सिखनी चाहिए। गाने का शौक बचपन से ही था भगवान ने इतना सुंदर स्वस्थ शरीर, कोकिल जैसा कंठ भी बाल्यावस्था में दिया था। आपने चौधरी ईश्वर सिंह जी से गाना सीखने के लिए निवेदन किया। परंतु चौधरी साहब ने इनकी कम उम्र होने के कारण (बच्चा मान कर) मना कर दिया
सन् 1929 में मिडल पास करने के बाद ये दो साल ओर पढ़े, हिंदी विश्वविद्यालय दादरी से हिन्दी रत्न की परीक्षा उतीर्ण की ।
सन् 1931 में चौधरी ईश्वर सिंह जी जो पिंगल शास्त्र के ज्ञानी थे, उनकी जितनी भी कथाएं, भजन जो पिंगल शास्त्र पर थी सभी का लगातार सात साल तक स्वाध्याय किया। 1938 तक वे अच्छे प्रचार बन गए, ओर गुरू ईश्वर सिंह जी से आज्ञा लेकर,हैदराबाद सत्याग्रह में अलग पार्टी बनाकर प्रचार करने लग गए
समूचे हरियाणा में कुंवर साहब ने हैदराबाद सत्याग्रह के दौरान प्रचार किया व जत्थे भेजे। जसराणा से हैदराबाद सत्याग्रह में चौधरी अखेराम, चौधरी फुलसिंह, चौधरी मांगेराम, चौधरी बनी सिंह महाशय कृष्ण जी के साथ जत्थे में जेल गए। बाद में ये आजादी की जंग में कुद पड़े, ओर इनको भारत सरकार की तरफ से पैंशन भी मिली।
विवाह
कुंवर साहब का विवाह शादीपुर जुलाना (जींद) निवासी भोला नंबरदार की पुत्री फुलपती के साथ सन् 1936 में हूआ। जो की एक धार्मिक प्रवृत्ति, अतिथि सेवक महिला थी। इन को इन से नौ संताने हूई ,पांच लड़के, चार लड़कियां
कुंवर जी को इनके ही गांव के चौधरी रुपचंद होते थे जिन्होने सत्यार्थ प्रकाश, श्रग्वेदादिभाष्यभूमिका का काफी अध्ययन किया, जिसका इन पर अधिक प्रभाव पड़ा।
जसराणा आर्य समाज आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब संबंध हो चुकी थी। आपने गांव में बड़े उत्सव करवाए जिसमे चौधरी ईश्वर सिंह जी, श्री मोजीराम मांडी, हरिजन श्री गेलाराम भजनोपदेशको समेत शामिल हूए। ओर आपने लोगों के साथ साथ स्त्रीयों को भी जनेऊ धारण करवाए। आर्य समाजियों के घर हरिजनों को खाना खिलाया, जिससे जमींदारों में काफी रोष हूआ, लेकिन आप घभराए नहीं, मास्टर नान्हूराम का भरपुर सहयोग मिला।
कुंवर साहब समय समय पर आचार्य भगवान देव जी, आचार्य विष्णु मित्र जी, श्री सुखवीर शास्त्री जी, श्री जयलाल, स्वामी इन्द्र वेश जी, श्री नत्था सिंह जी, श्री मुंशीराम जी, वीरेन्द्र वीर आदि भजनोपदेशको को बुलाते ओर वेद प्रचार करवाते। सन् 1957 में कुंवर साहब ने हिंदी सत्याग्रह में बढ़ चढ़कर भाग लिया ओर प्रोफेसर शेर सिंह आदि सज्जनों के साथ तीन महिने जेल में रहे।
कुंवर साहब ने आजादी से पहले व बाद में कांग्रेस पार्टी खुब प्रचार किया। चौधरी सुलतान सिंह जी तो इनके भजनो के दिवाने हो गए। ओर आर्य समाज के मंच पर व अन्य मंचो पर जौहरी सिंह जी का नाम अदब के साथ लेते।
जौहरी सिंह जी अनेको संस्थाओ का प्रचार करते, जिससे लोग हस्थ मुक्त होकर दान देते। आर्य कन्या पाठशाला जसराणा, डी ए वी स्कूल सांघी, हाई स्कूल खंरैटी, डी ए वी हाई स्कूल मोखरा, कन्या हाई स्कूल भैंसवाल कलां, आर्य कन्या पाठशाला आहुलाना, गुरुकुल खानपुर कलां, हिंदी विश्वविद्यालय दादरी आदि संस्थानों में जम कर प्रचार किया।
आर्य समाज के प्रचार के दौरान आपको एक हुतात्मा भक्त फुल सिंह जी के साथ मुलाकात ने आपको ओर बुलंदियो पर पहूंचाया। आपको गुरुकल भैसंवाल, गुरुकुल खानपुर कलां का प्रचारी नियुक्त कर दिया। ओर आपने भी जी जान से मृत्युः पृयंत तक इन संस्थानों का निस्वार्थ भाव से प्रचार किया। इनके साथ साथ आपने, हैदराबाद सत्याग्रह, आर्य वीर दल, स्वाधीनता आंदोलन, कांग्रेस पार्टी, कुंडली बूचड़खाना, जमींदार पार्टी, हिंदी सत्याग्रह, शराबबंदी आंदोलन तथा विभिन्न संस्थानों के निर्माण में धन संग्रह हेतु प्रंशसनीय कार्य किया।
गायकी
आकाशवाणी दिल्ली से आपके गीत प्रसारित होते रहे हैं। समय समय पर विभिन्न विषयो के साथ श्री कपिल देव शास्त्री जी, व श्री सुखदेव शास्त्री जी व चौधरी रतन देव जी के साथ आपकी वार्ताएं प्रचारित हूई हैं।
आपने विभिन्न प्रकार की कविताएं पद्द रुप में लिखी हैं। जिनमे आल्हा, सवैया, दादरा, कव्वाली, हा हा, ख्याल, दोहा, राग, माल घोस, राग महैय्या, राग प्रभाती, गजल चौपाई, कुब्त, कुंडल, मुशायरा सम्मिलित हैं।
इनके संगीत से प्रभावित होकर सन् 1970 में गुरुकुल विद्यापीठ भैंसवाल कलां के दीक्षांत समारोह के अवसर पर आपको "संगिताचार्य" की प्रतिष्ठित उपाधी से विभूषित किया गया।
गुरुकुल सिंहपुरा में विभिन्न भजनोपदेशको की प्रतियोगिता में आपने प्रथम स्थान हासिल किया। 1972 में हरियाणा सरकार ने लोक कवि के नाते भाषा विभाग द्वारा सम्मानित किया गया।
आपकी भजन मंडली में कांशीराम चिमटे वाला, भिखन सिंह, इन्द्र सिंह ढोलकिया, कंवल सिंह, प्रभातिराम का महत्वपूर्ण स्थान है। इनके शिष्य की बात करें तो स्व रतन सिंह आर्य घिलोड कलां ,रामचन्द्र आर्य जसराणा, महाशय दयानंद रावलधी, कुंवर सुखलाल काकरोला, कुलदीप सिंह जसराणा, स्व श्री सरदार सिंह नंगली सकरावती ने उन्हीं तर्जों पर वेद प्रचार किया व कर रहे हैं।
कुंवर साहब आप वाकई धन्यवाद के पात्र हैं जिन्होने जीवन के 45 वर्ष वेद प्रचार व महर्षि दयानंद सरस्वती जी के मंतव्यो में लगाए।
आप एक निर्भीक कवि व उपदेशक थे जो लगातार एक एक महिना घर से बाहर ओर गांव गांव में सात आठ दिन लगातार, 9,9 घंटे नई नई कथाएं सुनाकर लोगों को वैदिक धर्म के प्रति लोटने के लिए आग्रह करते। आप की ओजस्वी वाणी तो वयोवृद्ध सन्यासी आर्य भद्र पुरुषों को आज भी याद हैं। बताते हैं 2/3 मील दुर से आपके गाने आवाज आती थी। न कोई साऊंड सिस्टम न माईक वगैरा। गुरुकुल भैसंवाल कलां की बात करें तो रात को भी लगभग गांव गुवांडो से प्रचार सुनने के लिए लगभग 20000से 25000 लोग इकट्टा होते थे। स्त्री व पुरुष कच्चे रास्तों से जाकर चौधरी जौहरी सिंह जी के व्याख्यान सुनते। कौन भूल सकता है वो टाईम
इन्होने जीवन के अंतिम वर्ष गुरुकुल भैसंवाल कलां अध्यापन में बिताए, वहीं रह कर महर्षि दयानंद सरस्वती जी के जीवन चरित्र को पद्द शैली में लिखा। उन्हीं में से एक भजन है :- आए थे उसी रास्ते चलेगें महाकाल सबको डसतें चलेगें, जौहरी सिंह भी एक दिन कर नमस्ते चलेगें। ऐसा प्रभावशाली भजनोपदेशक बीमार होने के कारण 16 जुलाई 1981 को हम से सदा के लिए विदा हो गए। सिर्फ यादें बाकी रह गई।
शुभ करनी करता चलिये, जश के दीपक चसते रह जाएगें। पूरा कृतव्य जो पा लेगा, अग्रिम विमान भी आ लेगा। जौहरी सिंह भी चढ चालेगा, पीछे लोग तरसते रह जाएगें। शत शत नमन महान आत्मा दादा जौहरी सिंह जसराणा जी को। वैदिक धर्म की जय।

ईश्वरोपासना


🌿🌹ईश्वरोपासना🌹🌿
क्या शरीर की पुष्टि ही जीवन का लक्ष्य है?
पौष्टिक आहार, व्यायाम और संयम द्वारा मनुष्य को अपना शरीर तो पुष्ट करना ही चाहिए, परन्तु इसी की पुष्टि मात्र ही जीवन का लक्ष्य नहीं है। भर्तृहरि जी महाराज ने शरीर की स्थिति का बहुत सुन्दर शब्दों में चित्रण किया है―
यदा मेरु: श्रीमान्निपतति युगान्ताग्निनिहित:
समुद्रा: शुष्यन्ति प्रचुरनिकर-ग्राह-निलया:।
धरा गच्छत्यन्तं धरणिधरपादैरपि धृता
शरीरे का वार्ता करिकलभकर्णाग्रचपले।
―(वै० श० ६०)
भावार्थ― जब प्रलयाग्नि से सुमेरु पर्वत गिर पड़ता है, बड़े-बड़े मगर और ग्राहों का घर समुद्र भी सुख जाता है तथा पहाड़ों से दबी हुई पृथिवी का भी नाश हो जाता है तो हाथी के कान के समान चञ्चल मनुष्य के शरीर की क्या गणना है?
इस प्रकार मनुष्य-शरीर जो अस्थायी है उसकी पुष्टि मानव-जीवन का उद्देश्य नहीं हो सकता।
क्या विषयों की पूर्ति और इन्द्रियों की तृप्ति जीवन का लक्ष्य है? आइए, इस बात पर विचार करें।
विषय-भोग के तीन प्रमुख लक्षण हैं―खाना, पीना और मौज उड़ाना। मनुष्य कितना भी खा ले, परन्तु वह पशुओं से अधिक नहीं खा सकता। कितना भी अधिक पी ले, परन्तु वह पशुओं से अधिक नहीं पी सकता। विषयों को भोगने की भी कोई सीमा है। बड़े-से-बड़े विषय-भोगी के जीवन में एक दिन आ जाता है जब उसकी इन्द्रियाँ विषय-भोग में अपनी असमर्थता प्रकट कर देती हैं। विषय-पूर्ति की साधन इन्द्रियाँ ही जवाब दे देती हैं। मनुष्य इच्छा रखते हुए भी इच्छा-पूर्ति में असफल हो जाता है।
कवि के शब्दों में―
हम फूल चुनने आये थे बागे-हयात में।
दामन को ख़ारज़ार में उलझा के यह गये।।
(ख़ारज़ार=काँटो वाली झाड़ियां)
गीता में इन्द्रियों से होने वाले सुख को राजसिक सुख माना है―
विषयेन्द्रियसंयोगात् यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्।।
―(गीता १८/३८)
जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से उत्पन्न होने वाला, आरम्भ में अमृत के समान और अन्त में विष के समान है, वह सुख रजोगुणी सुख माना गया है। यह इन्द्रियजन्य सुख पहले अमृत के समान सुखद प्रतीत होता है, परन्तु उसका परिणाम जहरीला होता है।
मनु महाराज ने इसी की पुष्टि में कहा है―
इन्द्रियाणां प्रसङ्गेण दोषमृच्छत्यसंशयम्।
सन्नियम्य तु तान्येव तत: सिद्धिं नियच्छति।।
―(मनु० २/९३)
आत्मा इन्द्रियों के सङ्ग से निस्सन्देह दोष को प्राप्त होता है और उन्हें वश में करके सिद्धि प्राप्त करता है। आत्मा को यदि इन्द्रियों के पीछे चलाया जाएगा तो आत्मा निश्चितरूप से पतन को प्राप्त होगा।
अत: विषयों की पूर्ति और इन्द्रियों की तृप्ति ही जीवन का लक्ष्य नहीं है।
इसी प्रकार केवल धन की प्राप्तिमात्र ही जीवन का लक्ष्य नहीं है। महर्षि याज्ञवल्क्य से उनकी पत्नी मैत्रेयी ने पूछा―
सा होवाच मैत्रेयी―यन्नु म इयं भगो: सर्वा पृथिवी वित्तेन पूर्णा स्यात् कथं तेनामृता स्यामिति। नेति होवाच याज्ञवल्क्यो यथैवोपकरणवतां जीवितं तथैव ते जीवितं स्यात् अमृतत्वस्य तु नाऽऽशाऽस्ति वित्तेनेति।
―(बृहदार०उप० २/४/२)
भावार्थ― मैत्रेयी याज्ञवल्क्य से कहने लगी कि यदि मेरे लिए यह सारी पृथिवी धन से परिपूर्ण हो जाए तो क्या मैं अमर हो जाऊँगी? इसपर महर्षि याज्ञवल्क्य कहने लगे कि जिस प्रकार धनवानों का जीवन होता है वैसे ही तेरा जीवन होगा। धन से अमृतत्व की आशा तो नहीं की जा सकती।
इसी प्रकार सांसारिक प्रेम, शानो-शौकत और साम्राज्य की प्राप्ति भी जीवन के लक्ष्य नहीं हैं।
यहाँ हमें इहलोकवाद और परलोकवाद का समन्वय करना होगा। हम शरीर की पुष्टि करें, उदरपूर्ति का साधन जुटाएँ, घर-गृहस्थी के काम भी करें, परन्तु आत्मा और परमात्मा का भी चिन्तन न भूलें। इसके विपरित यदि हम केवल शरीर की पुष्टि, इन्द्रियों की तृप्ति, विषयों की पूर्ति, धन-ऐश्वर्य, घर-गृहस्थी के कामों में ही उलझे रहते हैं तो मानो हम जीवन के लक्ष्य से भटक रहे हैं। हम जीवन के आधे लक्ष्य को पूरा कर रहे हैं। हमारी स्थिति बीजगणित के उस प्रश्न के समान है जो बड़ी लम्बी-चौड़ी रकम के साथ आरम्भ होता है, परन्तु उसका उत्तर शून्य '०' आता है। कवि के शब्दों में―
हो गये बरबाद हम पढ़कर किताबे-ज़िन्दगी।
कुछ वरक हमने फाड़ डाले कुछ हवा में उड़ गये।।
इसलिए ईशोपनिषद् में कहा गया है―
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।
―(ईशोप० १५)
भावार्थ― सत्य का मुख स्वर्ण के पात्र से ढका हुआ है। हे पूषन् ! उस सत्यधर्म के दिखाई देने के लिए तू उस आवरण को हटा दे। प्रार्थना की गई है कि इन भौतिक पदार्थों की चकाचौंध ने मनुष्य की आँख से सत्य को ओझल कर दिया है। भक्त सत्य के दर्शन करना चाहता है। सांसारिकता सोने का ढक्कन है और आत्म-परमात्म-चिन्तन वह सत्य है जिसे सांसारिकता छिपा देती है।
मानव-जीवन की सार्थकता इसी में है कि जीवन के सब कामों को करते हुए हम परमेश्वर का भी चिन्तन करते रहें। उपनिषत्कार ने क्या सुन्दर कहा है―
शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्न: पप्रच्छ।
कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति।।
―(मुण्ड० १/१/३)
बड़े घरवाले शौनक ने मर्यादा के साथ अङ्गिरा ऋषि के समीप जाकर पूछा―हे भगवन् ! निश्चय किसके जानने पर यह सब जाना हुआ हो जाता है?
ऋषि ने ईश्वर के विषय में वर्णन किया और कहा―
अस्मिन् द्यौ: पृथिवी चान्तरिक्षमोतं मन: सह प्राणैश्च सर्वे:।
तमेवैकं जानथ आत्मानमन्या वाचो विमुञ्चथामृतस्यैष सेतु: ।।
―(मुण्डक० २/२/५)
जिस परमेश्वर में प्रकाशवाले लोक, प्रकाशरहित लोक, आकाश और समस्त प्राणों के साथ मन समर्पित है, उस परमात्मा को ही जानो और उससे भिन्न अन्य बातों को छोड़ो। यही अमृत का पुल है।
उपनिषत्कार ऋषि ने कहा है―
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टि:।
भूतेषु भूतेषु विचिन्त्य धीरा: प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।।
―(केन० २/५)
यदि इस जन्म में परमेश्वर को जान लिया तो ठीक, परन्तु यदि उसे यहाँ न जाना तो सर्वनाश हो गया। धीर पुरुष प्रत्येक भूत में उसकी खोज करके अमरत्व को प्राप्त करते हैं।
संसार में निकृष्ट व्यक्ति वे नहीं हैं जो धन-धान्य से रहित हैं, अपितु वे निकृष्ट (नीच) हैं जो प्रभु की उपासना नहीं करते। संसार में वे व्यक्ति निकृष्ट नहीं हैं जो भूमि और सम्पत्ति से रहित हैं, अपितु वे व्यक्ति निकृष्ट हैं जो प्रभु का स्मरण नहीं करते। महर्षि व्यास जी ने इस विषय में बहुत सुन्दर कहा है―
केचिद् वदन्ति धनहीनजनो जघन्य:।
केचिद् वदन्ति जनहीनजनो जघन्य:।।
केचिद् वदन्ति दलहीनजनो जघन्य:।
केचिद् वदन्ति बलहीनजनो जघन्य:।।
व्यासो वदत्यखिलवेदविशेषविज्ञ:।
नारायणस्मरणहीनजनो जघन्य:।।
भावार्थ― कुछ लोग कहते हैं कि जिसके पास धन नहीं है, वह व्यक्ति निकृष्ट है। कुछ कहते हैं कि जिस व्यक्ति के साथ पारिवारिक जन नहीं है, वह निकृष्ट है। कुछ व्यक्ति कहते हैं कि जिसके साथ कोई दल नहीं है, वह निकृष्ट है। कुछ कहते हैं कि जिसकी भुजाओं में शक्ति नहीं है, वह घटिया है। वेदविशेष अर्थात् ईश्वर को जाननेवाले महर्षि वेदव्यास ने कहा है कि जो ईश्वर को स्मरण नहीं करता वह नीच है।
जीवन में ईश्वर की प्राप्ति ही सबसे बड़ी उपलब्धि है। कवि के शब्दों में―
हँसके दुनिया में मरा कोई तो कोई रोके भरा।
ज़िन्दगी पाई मगर उसने जो कुछ होके मरा।।
जी उठा मरने से वह जिसकी प्रभु पर थी नज़र।
जिसने दुनिया ही को पाया था वह सब कुछ खोके मरा।।
[साभार: 'वेद सन्देश' पुस्तक से, लेखक: प्रा. रामविचार एम.ए.]

Thursday, March 21, 2019

कत्लेआम पर वेद और क़ुरान की गवाही




कत्लेआम पर वेद और क़ुरान की गवाही

-आर्यवीर आर्य पूर्वनाम मुहम्मद अली 

(शास्त्रार्थ महारथी अमर स्वामी जी के ट्रैक्ट जिहाद के नाम पर कत्लेआम नामक ट्रैक्ट पर आधारित)

सोशल मीडिया के माध्यम से एक वीडियो मेरे देखने में आया। इसमें एक मोमिन यह दिखा रहा है कि वेदों में कत्लेआम, मारकाट, हिंसा का सन्देश दिया गया हैं। मोमिन का कहना है कि जो लोग क़ुरान पर हिंसा का आरोप लगाते है। वे कभी अपने वेदों को नहीं देखते। यह मोमिन अथर्ववेद और ऋग्वेद के कुछ उदहारण देकर अपनी बात को सिद्ध करने का प्रयास कर रहा हैं।  इसके वीडियो को देखकर एक ही निष्कर्ष निकलता है कि उल्लू को दिन में न दिखे तो यह सूर्य का दोष नहीं हैं। वेद रूपी ईश्वरीय ज्ञान को मानव कृत क़ुरान की रोशनी में देखने कुछ ऐसा ही हैं।

आईये वेद और क़ुरान में दिए गए सन्देश के अंतर को समझने का प्रयास करे।

 मोमिन श्री क्षेमकरण त्रिवेदी जी के वेदभाष्य से अथर्ववेद 12/5/62 का उदहारण देते हुए कहता है कि ," तू वेदनिंदक को काट डाल, चीर डाल,फाड़ दे, जला दे, फूंक दे, भस्म कर दे।  "

अथर्ववेद 12/5/68 का उदहारण देते हुए कहता है कि "वेद विरोधी के लोमों को काट डाल, उसके मांस के टुकड़ों की बोटी बोटी कर दे, उसके नसों को ऐंठ दे, उसकी हड्डियां मिसल कर, उसकी मिंग निकाल दे, उसके सब अंगों को, जोड़ों को ढीला कर दे।"

इन वेदमंत्रों के आधार पर मोमिन वेदों का हिंसा का समर्थक सिद्ध करने का प्रयास कर रहा है। जो शंका मोमिन ने उठाई है। यह कोई नवीन शंका नहीं हैं। पिछले 125 वर्षों में अब्दुल गफूर, सन्नाउल्लाह अमृतसरी, मौलवी असमतउल्लाह खां आदि ने यह शंका अनेक बार उठाई हैं। आर्यसमाज के विद्वानों ने उसका  यथोचित उत्तर भी समय समय पर दिया है।

मोमिन के चिंतन में गंभीरता की कमी देखिये जो वह यह न देख पाया कि वेदमंत्र वेद निंदक के विषय में ऐसा कह रहे हैं। वेद की आज्ञा धर्म का पालन है। धर्म  क्या है? सार्वजनिक पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन करना धर्म है। स्वामी दयानंद के अनुसार धर्म की परिभाषा -जो पक्ष पात रहित न्याय सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार है। उसी का नाम धर्म और उससे विपरीत का अधर्म है। साधारण भाषा में सत्य बोलना, ईश्वर की पूजा करना, शिष्टाचार, सदाचार यह धर्म है और चोरी,हत्या, असत्य भाषण, बलात्कार, अत्याचार आदि करना अधर्म है। अब मोमिन साहिब ही बताये कि क्या चोरी, लूट-पाट, हत्या, बलात्कार, हिंसा आदि करने वाले को दंड नहीं मिलना चाहिए? अवश्य मिलना चाहिए।  वेद यही तो कह रहा है। फिर भी आपके पेट में दर्द हो रहा है।

चलो एक अन्य तर्क देते है। वैदिक काल में कोई मत-मतान्तर, मज़हब आदि कुछ नहीं था। केवल वैदिक धर्म था। इसलिए इन वेद मन्त्रों को इस प्रकार से लेना कि वेदों में ये मुसलमानों के लिए हैं। केवल आपकी अज्ञानता है। वैदिक काल में इस्लाम ही नहीं था तो इस्लाम के मानने वालों पर अत्याचार की बात करना केवल ख्याली पुलाव है।

एक अन्य महत्वपूर्ण बात समझे। वेदों की शत्रु के नाश की आज्ञा किसके लिए हैं। वेदों की आज्ञा राजा, शासक, प्रशासन, न्यायाधीश के लिए हैं। वेद उन्हें अपने कर्त्तव्य निर्वाहन की आज्ञा दे रहा है। क्या भारतीय संविधान में आज किसी अपराधी को अपराध के लिए दंड देने, जेल भेजने, फांसी लगाने का विधान नहीं हैं? अवश्य है। तो क्या आप कभी यह कहते है कि हमारा संविधान हिंसा को बढ़ावा देता हैं। नहीं। फिर वेदों पर यह आक्षेप लगाना क्या आपकी मूर्खता नहीं है? इसी प्रकार से वेद गौहत्या करने वाले को सीसे की गोली से भेदने का आदेश देते हैं। पर यह सन्देश भी राजा या शासक के लिए हैं। गौ जैसे कल्याणकारी पशु के हत्यारे को राजा दण्डित करे। इस सन्देश में भला क्या गलत है?

अब जरा मोमिन अपने घर भी झांक ले। एक कहावत है। जिनके घर शीशे के होते है। वो दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंकते। आपकी क़ुरान की कुछ आयतों में खुदा की आज्ञा देखिये-

और जब इरादा करते हैं हम ये कि हलाक़ अर्थात क़त्ल करें किसी बस्ती को, और हुकुम करते हैं हम दौलतमंदों को उसके कि, पस! नाफ़रमानी करते हैं, बीच उसके! बस। साबित हुई ऊपर उसके मात गिजब की, बस! हलाक करते हैं हम उनको हलाक करना। -कुरान मजीद सूरा 7, रुकू 2, आयत 6
इसकी अगली आयत देखिये-

और बहुत हलाक किये हैं हमने क्यों मबलगो? तुम्हारा खुदा तो जब उसे किसी बस्ती के हलाक करने का शौक चढ़ आये तब उसमें रहने वाले दौलतमंदों को नाफ़रमानी करने का अर्थात आज्ञा न मानने वाले का हुक्म दे! या यूँ कहते हैं कि इसके इस हुक्म की तालीम करें की नाफ़रमानी करो तो उन्हें और उनके साथ बस्ती में रहने वाले बेगुनाहों, मासूम बच्चों तक को अपना शोक पूरा करने के लिए हलाक अर्थात क़त्ल करें।

स्वयं की रक्षा करना और अपनी सामाजिक व्यवस्था की रक्षा करने का नियम सामान्य ईश्वरीय नियम है। यह संसार के हर जीव का अधिकार है। और क़ुरान सूरा माइदा आयत 45 में  क्या लिखा है। प्रमाण देखिये-

हमने उन लोगों के लिए यह हुकुम लिख दिया कि- जान के बदले जान, आंख के बदले आंख, नाक के बदले नाक, कान के बदले कान, दाँत के बदले दाँत और सब जख्मों का इसी तरह बदला हैं।

अब वेद ने शत्रु के संहार की अनुमति दे दी तो क्या गज़ब कर दिया। क्या कोई मुसलमान यह कहेगा कि अपनी रक्षा करना क्या कोई अपराध है। नहीं। कोई समाज के नेक मनुष्यों को पीड़ित करें तो क्या उसे दण्डित न किया जाये। 

अब इस लेख के सबसे महत्वपूर्ण भाग को पढ़े। अगर एक मनुष्य उच्च चरित्र वाला हो, पूजा करने वाला हो, दानी हो, आस्तिक विचारों वाला हो, सब बुराइयों से बचा हुआ हो, ईश्वर को मानने वाला हो परन्तु किसी रसूल, किसी नबी, किसी पैग़म्बर, किसी मध्यस्थ, किसी संदेशवाहक, किसी मुख्तयार, किसी कारिंदा को न मानने वाला हो। तो क्या वह मनुष्य क़त्ल करने योग्य है? और जैसे भी, जहाँ भी मिले उसे मार दो, क़त्ल कर दो। क्या कोई व्यक्ति ईश्वर को छोड़कर किसी अन्य मध्यस्थ को न माने तो क्या वह क़त्ल के लायक है?  वेदों में अनेक मन्त्रद्रष्टा ऋषियों का वर्णन है। क्या कोई व्यक्ति केवल ईश्वर को मानता हो और सदाचारी जीवन व्यतीत करता हो पर किसी ऋषि को न मानता हो। क्या वह मारने योग्य है? नहीं। जबकि क़ुरान के अनुसार वह काफ़िर है। इसलिए मारने योग्य है। इस विषय में क़ुरान क्या कहती हैं। देखिये-

1. और क़त्ल कर दो यहां तक की न रहे बाकि फिसाद, यानि ग़लबा कफ़्फ़ार का। क़ुरान मजीद, सूरा अन्फाल,आयत 39 
2. मुशिरकों को जहां पाओ, क़त्ल कर दो और पकड़ लोऔर घेर लो और हर घात की जगह पर उनकी ताक में बैठे रहो। - क़ुरान मजीद, सूरा तौबा,आयत 5
3. ऐ नबी! मुसलमानों को कत्लेआम अर्थात जिहाद के लिए उभारों। - क़ुरान मजीद, सूरा अन्फाल,आयत 65
4. जब तुम काफिरों से भीड़ जाओ तब तुम उनकी गर्दनें उड़ा दो, यहां तक की जब उनकी खूब क़त्ल कर चुको , और जो जिन्दा पकड़े जायें, उनको मजबूती से कैद कर दो। - क़ुरान मजीद, सूरा मुहम्मद,आयत 4
5. ऐ पैगम्बर१ काफिरों और मुनाफिकों से लड़ो और उन पर सख्ती करो, उनका ठिकाना दोज़ख है, और बहुत ही बुरी जगह हैं। - क़ुरान मजीद, सूरा तहरीम,आयत 9

अब आप क्या कहेंगे मोमिन साहिब। इन आयतों में किसके क़त्ल की आज्ञा हैं। किसी डाकू-चोर, बलात्कारी को मारने की आज्ञा नहीं है। बल्कि कोई व्यक्ति चाहे कितना नेकदिल हो, कितने सत्कर्म करने वाला हो। उसे केवल मुहम्मद साहिब और रसूल पर विश्वास न लाने के कारण  मारने की बात करना क्या सही हैं? इसके विपरीत किसी आदमी में दुनिया की चाहे तमाम बुराइयां हो, उसका आचरण चाहे दुष्ट मनुष्य वाला हो। वह केवल पैगम्बर पर विश्वास लाने वाला हो। तो वह काफिर नहीं बल्कि मोमिन है। अब आप ही बताये दुनिया में किसी मज़हबी किताब में ऐसी बेइन्साफी, जुल्म, निरपराध का खून बहाने की आज्ञा होगी? हरगिज-हरगिज नहीं। दुनिया में इस्लाम और क़ुरान को छोड़कर ऐसा सन्देश कहीं नहीं है। पूरी क़ुरान ही ऐसी आज्ञाओं से भरी पड़ी हैं। जबकि इसके विरपित वेदों की शिक्षाओं पर जरा ध्यान दो। वेद कहते है-

1. हे मनुष्यों! तुम सब एक होकर चलो! एक होकर बोलो। तुम ज्ञानियों के मन एक प्रकार हो। तुम परस्पर इस प्रकार व्यवहार करो, जिस प्रकार तुमसे पूर्व पुरुष अच्छे ज्ञानवान, विद्वान, महात्मा करते हैं। -ऋग्वेद 10/191/2

2. हे मनुष्यों तुम सब आपस में ऐसे प्रेम करो जैसे एक गौ अपने बछड़े से करती है। -अथर्ववेद 3/30/4

3. हे मनुष्यों! तुम्हारे घरों में ये वेद  का ज्ञान दिया जाता है।   जिसके ज्ञान से विद्वान, परमात्मा लोग एक दूसरे से अलग नहीं होते। और न आपस में शत्रुता करते है। --अथर्ववेद 3/30/5

4. न कोई बड़ा है, न छोटा है।  सब भाई भाई आपस में मिलकर आगे बढ़ो। -यजुर्वेद 36/18

वेदों की शिक्षा सकल मानव जाति के लिए है। क़ुरान में ऐसे शिक्षाओं का स्थान ही नहीं हैं। जो थोड़ी बहुत है। वो केवल अन्य मुसलमानों के लिए है। क़ुरान की इन्हीं संदेशों के कारण सभी जानते है कि पिछले 1200 वर्षों में इस पवित्र भारत भूमि पर मुस्लिम आक्रांताओं ने इस्लाम के नाम पर असंख्य अत्याचार किये। 1947 में देश के दो टुकड़े करने, एक करोड़ लोगों का विस्थापन करने, लाखों निरपराध स्त्रियों का बलात्कार करने, लाखों बच्चों को अनाथ करने और लाखों की हत्या करने के बाद भी मुसलमान कभी यह स्वीकार नहीं करते कि इस्लाम के नाम पर उन्होंने सदा अत्याचार किया हैं। क्या इतिहास में लाखों हिन्दू मंदिरों को लूटना, तोड़ना, आग लगाना, उन्हें मस्जिद में तब्दील नहीं किया गया? इसके उलटे कुछ स्वयंभू मोमिन हिन्दुओं पर कट्टरवादी होने का दोष लगाते हैं। क्या आपने कभी सुना कि हिन्दुओं ने किसी इस्लामिक देश पर आक्रमण कर वहाँ के बाशिंदों के साथ ठीक वैसा ही व्यवहार किया जैसा मुसलमानों ने यहाँ के हिन्दुओं के साथ किया हैं। नहीं। फिर भी मुस्लिम समाज यह अपेक्षा करता है कि लोग उसे शांतिप्रिय कौम के नाम से जाने। सभी मुसलमानों को हठ और दुराग्रह छोड़कर गम्भीरतापूर्वक इस विषय पर विचार करना चाहिए कि कत्लेआम वेद सिखाते है अथवा क़ुरान।   

स्वामी श्रद्धानंद के जीवन का एक विस्मृत प्रसंग



स्वामी श्रद्धानंद के जीवन का एक विस्मृत प्रसंग

डॉ विवेक आर्य

[स्वामी श्रद्धानन्द के जीवन का एक विशेष गुण था। वह था निर्भीकता। यह गुण संसार में उन उन महान व्यक्तियों में प्रदर्शित होता हैं जो ईश्वरीय मार्ग के पथिक होते हैं। केवल और केवल सत्य से अनुराग, ईश्वर से अथाह प्रेम, आत्मा को सदा अनश्वर मानना, कर्मफल व्यवस्था में दृढ़ विश्वास, प्राणिमात्र के प्रति प्रबल सेवा भावना, सदाचार और संयम युक्त नियमित दिनचर्या, वेदादि धर्मशास्त्रों का साक्षात ज्ञान। यह गुण जिनमें होंगे वह व्यक्ति पहाड़ के समान भी कष्ट हो उसे निर्भीकता से झेल जायेगा। स्वामी दयानन्द शताब्दियों पश्चात पैदा हुई ऐसी ही एक महान विभूति थे। जिनके महान जीवन से न जाने कितनों उद्दार हुआ। ऐसी ही एक महान आत्मा जो दयानन्द रूपी कुंदन के स्पर्श से सोना बन गई। जिनका पुरा जीवन आर्यसमाज पर आई हर विपदा को दूर करने के लिए समर्पित हुआ। उनका नाम था स्वामी श्रद्धानंद। उनके पूर्वाश्रम का नाम महात्मा मुंशीराम जिज्ञासु था। स्वामी जी के जीवन चरित्र में अनेक अवसर उनकी निर्भीकता के हमें पढ़ने को मिलते हैं। इस लेख में उनके जीवन के ऐसे ही एक निर्भीक प्रसंग को हम पढ़ेंगे जिसमें हम विस्मृत कर चुकें हैं। इस लेख की सामग्री स्वामी जी के धर्मशाला प्रवास से सम्बंधित है। यह सामग्री मुझे आचार्य रामदेव जी द्वारा अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित वैदिक मैगज़ीन पत्रिका के सम्वत 1967 के अंकों से मिली हैं। यहाँ पर इसका संक्षिप्त हिंदी अनुवाद दिया जा रहा हैं। - डॉ विवेक आर्य]

1909 में पटियाला में आर्यसमाज की रक्षा करने के पश्चात स्वामी श्रद्धानंद (तत्कालीन महात्मा मुंशीराम) जी का स्वास्थ्य कुछ बिगड़ गया था। आप उन दिनों पटियाला अभियोग पर एक पुस्तक का लेखन भी कर रहे थे। इस अंग्रेजी पुस्तक का नाम था-"The Aryasamaj and its Detractors- A vindication" । आप गुरुकुल के कुछ ब्रह्मचारियों और अपने जमाता डॉ सुखदेव जी के साथ धर्मशाला के पहाड़ों में स्वास्थ्य लाभ के लिए चले गए। महात्मा जी पूर्व में शीर्घ अंग्रेज अधिकारी सर जॉन हेविट (Sir John Hewett) से मिलकर आर्यसमाज के पक्ष को भली प्रकार से प्रस्तुत कर चुके थे कि आर्यसमाज एक धार्मिक संस्था हैं। जिसका उद्देश्य अंग्रेज सरकार के विरुद्ध किसी भी कार्य में भाग लेना नहीं हैं। आर्यसमाज सरकारी नियमों का पालन करने के प्रति प्रतिबद्ध है। महात्मा जी के पक्ष को सुदृढ़ रूप से स्थापित करने के पश्चात भी उन्हें रेल में सफ़र करते समय प्रताड़ित करने का प्रयास किया गया। धर्मशाला में जहाँ वह रुके थे उस स्थान के आसपास CID के जासूस सदा उन पर निगरानी रखते थे। उनकी गतिविधियों के बारे में आस-पड़ोस में पूछते रहते थे। उनकी डाक के साथ भी छेड़खानी की जा रही थी। उनके साथ ऐसा व्यवहार किया जा रहा था जैसे कि वह कोई संगीन अपराधी हो। महात्मा जी ने इस दुर्व्यवहार को गंभीरता से लिया।

उन्होंने 15 जून,1910 को जिला पुलिस अधिकारी को पत्र लिखा-

मैं धर्मशाला में स्वास्थ्य लाभ के लिए आया हूँ। बाकि समय में अपनी पुस्तक के लेखन में व्यतीत करना चाहता हूँ । मैंने पाया कि आपका एक कर्मचारी यह जानने का प्रयास कर रहा है कि मैं अपनी पुस्तक में क्या लिख रहा हूँ। यह जानकारी मैं अपने मित्रों से साँझा कर रहा हूँ। अगर वह व्यक्ति मुझसे आकर सीधा पूछ लेता तो मैं यह जानकारी उसे सीधा ही बता देता। अभी तक मेरे स्वास्थ्य ने मुझे लेखन कार्य का अवकाश नहीं दिया है। मैं जो लिखना चाहता हूँ उसे एक सार्वजानिक सूची के रूप में सलंग्न कर रहा हूँ।
अगर आपको इसके अतिरिक्त कुछ अन्य जानकारी चाहिए तो आप मुझे सीधा लिख सकते हैं। मैं किसी भी प्रकार की अनावश्यक गलतफहमी नहीं चाहता।
आपका विनीत
मुंशीराम जिज्ञासु

इस पत्र के साथ एक अंग्रेजी में विज्ञप्ति सलंग्न थी जिसका शीर्षक था "The Aryasamaj and its Detractors- A vindication" इस विज्ञप्ति में आर्यसमाज को एक धार्मिक संगठन ठहराया था। उन्होंने यह भी लिखा कि भारत देश में, जो वैदिक धर्म का उत्पत्ति देश है, वहां भी सभी धार्मिक संस्थाओं में आर्यसमाज के विषय में जनता सबसे अधिक भ्रांतियों का शिकार हैं। ऐसे में विदेशी लोगों का भ्रम में पढ़ना स्वाभाविक है क्यूंकि उनकी जानकारी का मुख्य स्रोत्र पक्षपाती अंग्रेजी प्रेस हैं।

आत्मा को गर्वित करने वाली आर्यसमाज की शिक्षा जहाँ एक और हज़ारों पुण्यात्माओं का अज्ञान और अन्धविश्वास से पुनरुद्धार कर रही हैं। वहीं इसकी सफलता लाखों पक्षपाती मत-मतान्तर को असहनीय हो रही हैं। इसलिए वे इस शैशव काल अवस्था में चल रही संस्था का समूल मिथ्याप्रचार और निंदा से समाप्त करना चाहते हैं। प्रसिद्द पटियाला अभियोग इसी विरोध का अंतिम परिणाम था जिसमें अभियोग पक्ष के भाषण का निचोड़ आर्यसमाज के विरोधियों से मेल खाता था।
मैं जो कार्य कर रहा हूँ उसमें पटियाला अभियोग के विषय में विस्तार से जानकारी होगी, मिस्टर ग्रे महोदय के विख्यात भाषण की समुचित समीक्षा और भ्रम निवारण होगा। साथ में आर्यसमाज आंदोलन की विचारधारा, उसके संस्थापक स्वामी दयानन्द के विषय में जानकारी होगी। आर्यसमाज के सिद्धांतों की आलोचना की तार्किक समीक्षा भी लिखी जाएगी ताकि अध्ययनशील जनता के समक्ष आर्यसमाज के वास्तविक रूप को रखा जा सके। यह ग्रन्थ 800 से 1000 पृष्ठों का होगा। जो दिसंबर 1910 तक प्रकाशित होगा।

स्वामी जी के पत्र का उत्तर जिला पुलिस अधिकारी ने 24 जून, 1910 को निम्न प्रकार से दिया-

माननीय महोदय

आपने अपनी प्रकाशित होने वाली पुस्तक की जानकारी देकर उचित कदम उठाया। मेरा विश्वास है कि धर्मशाला की वायु आपको अवश्य शारीरिक लाभ देगी और आप शीघ्र ही अपने कार्य को संपन्न कर पाएंगे। वह कार्य निष्पक्षता और संयम से होगा और आप सभी आलोचकों को समुचित उत्तर देकर उनकी शंकाओं का समाधान करेंगे।
मैंने पाया की पुस्तक पटियाला अभियोग पर होगी जिसमें मिस्टर वारबुर्टोन (Mr Warburton) और उनके कार्यों का उल्लेख होगा। मैं आपको दो विषयों की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ। पहला तो यह कि मिस्टर वारबुर्टोन यूरोप निवासी नहीं हैं। वह एशिया महाद्वीप के निवासी है। दूसरा यह कि उनकी अपने प्रान्त में छवि एक सम्मानित और उत्कृष्ट पुलिस अधिकारी की हैं। उनके विषय में एक पंजाबी लोकोक्ति भी प्रसिद्द है।

"वारबुर्टोन दा सुनदिया नाम चोर जवाहिरान सोग तमन "

आपके अनेक देशवासी मिस्टर वारबुर्टोन का अत्यधिक सम्मान करते है। मैंने अपने एक मुल्तान स्थित मित्र से आपके द्वारा हरिद्वार में किये गए कार्य की प्रशंसा सुनी हैं। आपकी गुरुकुल कॉलेज की योजना बहुत उत्तम है और मेरे विचार से प्रशंसनीय भी हैं। मुल्तान छोड़ने से पहले मैं गुरुकुल डेरा बुद्दू गया था और मेरे पास उसकी प्रशंसा के अतिरिक्त कुछ शब्द नहीं हैं।

जहाँ तक पुलिस की छानबीन की बात है। मैं यह कहना चाहूंगा कि कुछ वर्ष पहले मैं जर्मनी के एक विशाल नगर में रहता था। मुझे वहां अपनी उपस्थिति की जानकारी पुलिस को देनी होती थी। ऐसे ही पेरिस में तीन वर्ष से कुछ अधिक रहते हुए भी पुलिस को अपने विषय में लिखित जानकारी देनी होती थी। भारत में व्यक्तिगत स्वतंत्रता यूरोप और अमेरिका की तुलना में बहुत अधिक प्राप्त है। मैंने भी आपको एक प्रबुद्ध नेता मानते हुए और आपके विचारों से प्रभावित होकर आपकी जानकारी लेनी चाही। जियो और जीने दो का श्रेष्ठ सिद्धांत है। आप एक सामाजिक और धार्मिक सुधारक है, जिन्हें मेरे जिले में कोई शिकायत का मौका अब नहीं मिलेगा। मैं आपको अपनी गतिविधियों की जानकारी देने के लिए धन्यवाद देता हूँ। हमें अपने कर्त्तव्य का निर्वाहन करना होता है। हम किसी की प्रसिद्धि से प्रभावित न होकर कार्य करते हैं और न ही किसी के अधिकारों का अनावश्यक अतिक्रमण करना चाहते हैं। हम समाज के हित में सभी कार्य करते है जो कभी कभी कुछ लोगों को कष्टप्रद लगते है।
आपके जैसे सुपठित व्यक्ति को सम्मान प्राप्त हो।
- जिला पुलिस अधिकारी

महात्मा मुंशी राम जी ने दिनांक 27 जून, 1910 को पुलिस अधिकारी को पत्र लिखा। महात्मा जी लिखते है-

मैं आपके उदार और नम्र प्रतिउत्तर देने के लिए धन्यवाद करता हूँ। मैं आपको ध्यान दिलाना चाहता हूँ कि मैं मिस्टर वारबुर्टोन से भली प्रकार से परिचित हूँ। मुझे उनसे वार्तालाप करने के लिए बहुत तैयारी करनी पड़ी थी। मैं यह समझता हूँ कि मैं उनकी खूबियों और कमियों, दोनों से परिचित हूँ। मैं सदा बिना किसी पक्षपात के संयम से उन जैसे व्यक्तियों की समालोचना करता हूँ। मैं आशा करता हूँ कि मैं अपनी इस मान्यता पर स्थिर रहूँगा। मैं गुरुकुल और मेरे विषय में आपकी द्वारा दी गई प्रतिक्रिया के लिए आपका आभारी हूँ। मैं आपके द्वारा पत्र के अंत में दी गई मलामत के लिए भी आपको धन्यवाद देता हूँ। मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कि मेरा एक पुलिस अधिकारी को उनकी जाँच में हस्तक्षेप करना मतिहीनता कहलाएगी। व्यक्तिगत रूप से पुलिस जाँच से मेरे लिए कोई असुविधा नहीं होती मगर आर्यसमाज के स्थान और प्रतिष्ठा को देखते हुए एक कम महत्व के पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट के आधार पर उसे किसी भी प्रकार की विपत्ति को न्योता नहीं देना चाहता। मेरे पत्र लिखने का केवल यही कारण है और मैं आशा करता हूँ कि आप मेरे इस उद्देश्य को भली प्रकार से समझेंगे।
आपका विनीत
मुंशीराम जिज्ञासु

मुंशीराम जी ने पुलिस अधिकारी के साथ साथ लाहौर में डाक विभाग के मुख्याधिकारी को भी अपनी डाक से हो रही छेड़छाड़ को लेकर शिकायत दर्ज करवाई।

स्वामी जी डाक अधिकारी को लिखते है-

मैं धर्मशाला में 9 अप्रैल, 1910 को बदलाव के उद्देश्य से आया था। मैंने पाया की मैं जासूसों की निगरानी में हूँ। पहले 15 दिनों तक मेरी डाक से कोई छेड़छाड़ नहीं हुई थी। पर मैंने पाया की मेरी डाक से छेड़छाड़ की जा रही हैं। जब मैं धर्मशाला आया तो एक हिन्दू अधिकारी कोतवाली स्थित डाकघर का प्रभारी था जिसे मेरे आगमन के कुछ काल बाद ही एक मुसलमान अधिकारी से बदल दिया गया। मैं उस समय चुप रहा क्यूंकि तब तक यह मेरे लिए कोई असुविधा का कारण नहीं था। मगर अब जब मुझसे चुप रहना मुश्किल हो गया। तब मैं आपसे संपर्क कर यह शंका दर्ज करवा रहा हूँ।

1. मैं आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब का सदस्य हूँ। सभा के मंत्री डॉ परमानन्द ने पत्र क्रमांक 722 दिनांक 27 जेठ (9 जून, 1910) को मुझे लिखा कि मुझे बैठक का निमंत्रण पिछले दिन भेजा जा चूका हैं। मुझे उनका लिखा पत्र 12 जून को मिल गया मगर बैठक का निमंत्रण अभी तक नहीं मिला।

2. 28 अप्रैल, 1910 को मैंने लंदन के अर्थव्यवस्था संस्थान से विवरण पत्रिका मंगवाई क्यूंकि एक युवक वहां पर प्रवेश के लिए इच्छुक था। 27 मई,1910 को सचिव ने मुझे लिखा कि आपको सभी सामग्री भेजी जा चुकी हैं। मुझे उनका पत्र 12 जून को प्राप्त हो गया जबकि वह सामग्री मुझे अभी तक नहीं मिली।

मैं आपसे विनती करता हूँ कि आप विभागीय जाँच कर यथोचित कार्यवाही करे।
आपका विनीत
मुंशीराम जिज्ञासु

डाक विभाग के अधिकारी ने 21 जून, 1910 को स्वामी जी को पत्र लिखकर सुचना दी कि हम विभागीय जाँच कर आपको उसकी सुचना देंगे।

23 जून, 1910 को उक्त अधिकारी को स्वामी जी ने पत्र लिखा। जिसमें लिखा था-

मैं आपको संज्ञान लेने के लिए धन्यवाद देना चाहता हूँ। मैं आपको सूचित करना चाहता हूँ कि लंदन से निकली डाक मुझे 10 दिन के पश्चात प्राप्त हो गई हैं। पैकेट लंदन के जिस संस्थान से था उस पर political science शब्द लिखा था। क्या इन्हीं शब्दों के कारण इस पैकेट को विभागीय जाँच के लिए रोका गया था। अथवा मैं लंदन से यह पता लगवाना चाहूंगा कि London School of Economics and Political Science जो लंदन के विश्वविद्यालय से मान्यता प्राप्त है में भारतीयों को प्रवेश अयोग्यता के अंतर्गत आता हैं। मुझे अभी तक लाहौर से निकली डाक प्राप्त नहीं हुई हैं।

मुझे जो डाक मिली है उस पर लंदन के डाकघर, धर्मशाला कैंट और कोतवाली बाजार तीन ही डाक विभाग की मोहर मुद्रित हैं।

[इस सारे प्रकरण से यह सिद्ध हुआ कि स्वामी जी की डाक को डाक विभाग द्वारा जाँच के लिए रोका जा रहा था।-लेखक]

महात्मा मुंशी राम जी की निर्भीकता उनके गुरुकुल के छात्रों में भी झलकती थी। धर्मशाला में हुआ एक ऐसा ही दृष्टान्त हम यहाँ पर देना चाहेंगे। गुरुकुल के ब्रह्मचारी महात्मा जी और डॉ सुखदेव के साथ धर्मशाला घूमने गए थे। वहां पर एक अंग्रेज अधिकारी ने उनके ऊपर ज्यादती करनी चाहे। अपने आत्मस्वाभिमान की रक्षा करते हुए उन्होंने उसे यथोचित उत्तर दिया। यह विस्मृत प्रसंग हमें उस काल में अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर किये जा रहे अत्याचारों की एक छोटी से झांकी प्रस्तुत करता हैं। उस काल के आर्यों का अत्याचारी शासक के सामने निडरता से खड़े होने का भी सन्देश भी देता हैं।

महात्मा मुंशी राम जी का एक लेख इस विषय पर प्रकाशित हुआ। उस लेख में धर्मशाला के अंग्रेज अधिकारी को लिखा पत्र इस प्रकार से था। -

माननीय श्रीमान

मैं 15 विद्यार्थियों के साथ धर्मशाला आया था। कल मेरे चिकित्सक डॉ सुखदेव और तीन छात्र हरिबोली में एक बेंच पर बैठे थे। तब एक काले घोड़े पर सवार अंग्रेज अधिकारी ने हिंदुस्तानी भाषा में उन्हें गलियां दी। उस अधिकारी का नाम अफ. दि. कब्बालड (F D Cobbald) है और वह गोरखा राइफल्स का अधिकारी है। यह सारा व्यक्य मुझे डॉ सुखदेव ने बताया जब मैं वापिस आया। ऐसा ही एक वाक्या डल झील से वापिस लौटते हुए हुआ। तब अंग्रेज अधिकारी ने एक छात्र की छाती पर घोड़े से चोट भी मार दी। वह भी उन्हें सलाम करने के लिए बाधित कर रहा था। गुरुकुल के छात्रों का यह पहला अवसर है जब उनका किसी अंग्रेज अधिकारी से पाला पड़ा है। अंग्रेज अधिकारीयों का व्यवहार उनके मस्तिष्क पर अच्छा प्रभाव नहीं डालेगा। किंग जॉर्ज की निष्ठावान प्रजा होने के नाते मैं इस व्यवहार से बहुत शर्मिंदा महसूस कर रहा हूँ। मैं एक शांतिप्रिय धार्मिक व्यक्ति हूँ जो सामन्य कष्टों पर कभी ध्यान तक नहीं देता। पर धर्मशाला में एक अधिकारी होने के नाते आपकी यह जिम्मेदारी बनती है कि आप अंग्रेज शासन की गरिमा की रक्षा करे। मैं आपसे आग्रह करता हूँ कि आप उक्त अंग्रेज अधिकारी के खेदजनक व्यवहार के लिए क्षमा दिलवाये। जो मेरे विचार से गलतफहमी के कारण हुआ। मैं आपको बार बार आग्रह करने के लिए क्षमा चाहूंगा।
आपका विनीत
मुंशीराम जिज्ञासु

स्वामी जी ने गोरखा राइफल के कमांडिंग अधिकारी को भी ऐसा ही पत्र लिखा। उक्त अधिकारी से स्वामी जी का पत्र व्यवहार हुआ। स्वामी जी को एक छात्र के बीमार होने के कारण वापिस गुरुकुल आना पड़ा। उन्होंने गुरुकुल से उक्त अधिकारी को पत्र लिखकर धर्मशाला छोड़ने की सुचना दी। उक्त अधिकारी ने अंत में क्या उत्तर दिया। यह अभी ज्ञात नहीं है। मुंशीराम जी ने पुरे दृष्टांत को वैदिक मैगज़ीन में अंग्रेजी में "The Gulf between the Rulers and the Ruled" शीर्षक से प्रकाशित किया। स्वामी जी का यह लेख इतिहास के विस्मृत हो चुकें हस्ताक्षर है, जो उनके निर्भीक व्यक्तित्व से हमें परिचित करवाते हैं।

(साभार- शांतिधर्मी मासिक हिंदी पत्रिका, फरवरी अंक, 2019, जींद, हरियाणा से श्री सहदेव समर्पित जी के मार्गदर्शन एवं कुशल सम्पादकीय में प्रकाशित)

Monday, March 11, 2019

कर्मफल के अनुरूप विभिन्न योनियों की प्राप्ति



कर्मफल के अनुरूप विभिन्न योनियों की प्राप्ति 

 मनुस्मृति में पाप और पुण्य की बहुत प्रकार की गति -

मानसं मनसैवायमुपभुङ्क्ते शुभाऽशुभम्।
वाचा वाचा कृतं कर्म कायेनैव च कायिकम्॥1॥ मनु॰12.8

अर्थात् मनुष्य इस प्रकार अपने श्रेष्ठ, मध्य और निकृष्ट स्वभाव को जानकर उत्तम स्वभाव को ग्रहण; मध्य और निकृष्ट का त्याग करे और यह भी निश्चय जाने कि यह जीव मन से जिस शुभ वा अशुभ कर्म को करता है उसको मन, वाणी से किये को वाणी और शरीर से किये शरीर से अर्थात् सुख-दुःख भोगता है॥1॥

शरीरजैः कर्मदोषैर्याति स्थावरतां नरः।
वाचिकैः पक्षिमृगतां मानसैरन्त्यजातिताम्॥2॥ मनु॰12.9
जो नर शरीर से चोरी, परस्त्रीगमन, श्रेष्ठों को मारने आदि दुष्ट कर्म करता है, उसको वृक्षादि स्थावर का जन्म, वाणी से किये पाप कर्मों से पक्षी और मृगादि तथा मन से किये दुष्ट कर्मों से चाण्डाल आदि का शरीर मिलता है॥2॥

यो यदेषां गुणो देहे साकल्येनातिरिच्यते।
स तदा तद्गुणप्रायं तं करोति शरीरिणम्॥3॥ मनु॰12.25
जो गुण इन जीवों के देह में अधिकता से वर्त्तता है, वह गुण उस जीव को अपने सदृश कर देता है॥3॥

सत्त्वं ज्ञानं तमोऽज्ञानं रागद्वेषौ रजःस्मृतम्।
एतद्व्याप्तिमदेतेषां सर्वभूताश्रितं वपुः॥4॥ मनु॰12.26
जब आत्मा में ज्ञान हो तब ‘सत्त्व’, जब अज्ञान रहे तब ‘तम’ और जब राग-द्वेष में आत्मा लगे तब ‘रजोगुण’ जानना चाहिये। ये तीन प्रकृति के गुण सब संसारस्थ पदार्थों में व्याप्त होकर रहते हैं॥4॥

तत्र यत्प्रीतिसंयुक्तं किञ्चिदात्मनि लक्षयेत्।
प्रशान्तमिव शुद्धाभं सत्त्वं तदुपधारयेत्॥5॥ मनु॰12.27
उसका विवेक इस प्रकार करना चाहिये कि जब आत्मा में प्रसन्नता, मन प्रसन्न प्रशान्त के सदृश शुद्धभानयुक्त वर्त्तें, तब समझना कि सत्त्वगुण प्रधान और रजोगुण तथा तमोगुण अप्रधान हैं॥5॥

यत्तु दुःखसमायुक्तमप्रीतिकरमात्मनः।तद्रजोऽप्रतिघं विद्यात् सततं हारि देहिनाम्॥6॥ मनु॰12.28
जब आत्मा और मन दुःखसंयुक्त प्रसन्नतारहित विषय में इधर-उधर गमन-आगमन में लगे, तब समझना कि रजोगुण प्रधान; सत्त्वगुण तथा तमोगुण अप्रधान हैं॥6॥

यत्तु स्यान्मोहसंयुक्तमव्यक्तं विषयात्मकम्।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं तमस्तदुपधारयेत्॥7॥ मनु॰12.29
जब ‘मोह’ अर्थात् सांसारिक पदार्थों में फँसा हुआ आत्मा और मन हो, जब आत्मा और मन में कुछ विवेक न रहे, विषयों में आसक्त तर्क-वितर्क-रहित जानने योग्य न हो तब निश्चय समझना चाहिये कि इस समय मुझमें तमोगुण प्रधान और सत्त्वगुण तथा रजोगुण अप्रधान हैं॥7॥

त्रयाणामपि चैतेषां गुणानां यः फलोदयः।
अग्र्यो मध्यो जघन्यश्च तं प्रवक्ष्याम्यशेषतः॥8॥ मनु॰12.30
अब जो इन तीन गुणों का उत्तम, मध्यम और निकृष्ट फलोदय होता है, उसको पूर्णभाव से कहते हैं॥8॥

वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धर्मक्रियात्मचिन्ता च सात्त्विकं गुणलक्षणम्॥9॥ मनु॰12.31
जब सत्त्वगुण का उदय होता है तब वेदों का अभ्यास, धर्मानुष्ठान, ज्ञान की वृद्धि, पवित्रता की इच्छा, इन्द्रियों का निग्रह, धर्म-क्रिया और आत्मा का चिन्तन होता है, यही सत्त्वगुण का लक्षण है॥9॥

आरम्भरुचिताऽधैर्य्यमसत्कार्यपरिग्रहः।
विषयोपसेवा चाजस्रं राजसं गुणलक्षणम्॥10॥ मनु॰12.32
जब रजोगुण का उदय; सत्त्व और तमोगुण का अन्तर्भाव होता है तब आरम्भ में रुचिता, धैर्य, त्याग, असत् कर्मों का ग्रहण, निरन्तर विषयों की सेवा में प्रीति होती है, तभी समझना कि रजोगुण प्रधानता से मुझमें वर्त्त रहा है॥10॥

लोभः स्वप्नोऽधृतिः क्रौर्यं नास्तिक्यं भिन्नवृत्तिता।
याचिष्णुता प्रमादश्च तामसं गुणलक्षणम्॥11॥ मनु॰12.33
जब तमोगुण का उदय; और दोनों का अन्तर्भाव होता है तब अत्यन्त ‘लोभ’ अर्थात् सब पापों का मूल बढ़ता, अत्यन्त आलस्य और निद्रा, धैर्य्य का नाश, क्रूरता का होना, ‘नास्तिक्य’ अर्थात् वेद और ईश्वर में श्रद्धा का न रहना, भिन्न-भिन्न अन्तःकरण की वृत्ति और एकाग्रता का अभाव, जिस किसी से ‘याचना’ अर्थात् माँगना, ‘प्रमाद’ अर्थात् मद्यपानादि दुष्ट व्यसनों में फँसना होवे, तब समझना कि तमोगुण मुझमें बढ़कर वर्त्तता है॥11॥

यत्कर्म कृत्वा कुर्वंश्च करिष्यंश्चैव लज्जति।
तज्ज्ञेयं विदुषा सर्वं तामसं गुणलक्षणम्॥12॥ मनु॰12.35
यह सब तमोगुण का लक्षण विद्वान् को जानने योग्य है कि जब अपना आत्मा जिस कर्म को करके, करता हुआ और करने की इच्छा से लज्जा, शङ्का और भय को प्राप्त होवे तब जानो कि मुझमें प्रवृद्ध तमोगुण है॥12॥

येनास्मिन्कर्मणा लोके ख्यातिमिच्छति पुष्कलाम्।
न च शोचत्यसम्पत्तौ तद्विज्ञेयं तु राजसम्॥13॥ मनु॰12.36
जिस कर्म से इस लोक में जीवात्मा पुष्कल प्रसिद्धि चाहता, दरिद्रता होने में भी चारण, भाट आदि को दान देना नहीं छोड़ता तब समझना कि मुझमें रजोगुण प्रबल है॥13॥

यस्सर्वेणेच्छति ज्ञातुं यन्न लज्जति चाचरन्।
येन तुष्यति चात्मास्य तत्सत्त्वगुणलक्षणम्॥14॥ मनु॰12.37
और जब मनुष्य का आत्मा सबसे जानने को चाहे, गुण ग्रहण करता जाये, अच्छे कर्मों में लज्जा न करे और जिस कर्म्म से आत्मा प्रसन्न होवे अर्थात् धर्माचरण ही में रुचि रहे, तब समझना कि मुझमें सत्त्वगुण प्रबल है॥14॥

तमसो लक्षणं कामो रजसस्त्वर्थं उच्यते।
सत्त्वस्य लक्षणं धर्मः श्रैष्ठ्यमेषां यथोत्तरम्॥15॥ मनु॰12.38
तमोगुण का लक्षण काम, रजोगुण का अर्थ-संग्रह की इच्छा और सत्त्वगुण का लक्षण धर्मसेवा करना है, परन्तु तमोगुण से रजोगुण और रजोगुण से सत्त्वगुण श्रेष्ठ है॥15॥

अब जिस-जिस गुण से जिस-जिस गति को जीव प्राप्त होता है, उस-उस को आगे लिखते हैंः—

देवत्त्वं सात्त्विका यान्ति मनुष्यत्वञ्च राजसाः।
तिर्यक्त्वं तामसा नित्यमित्येषा त्रिविधा गतिः॥1॥ मनु॰12.40
जो मनुष्य सात्त्विक हैं वे ‘देव’ अर्थात् विद्वान्, जो रजोगुणी होते हैं वे मध्यम मनुष्य और जो तमोगुणयुक्त होते हैं वे नीच गति को प्राप्त होते हैं॥1॥

स्थावराः कृमिकीटाश्च मत्स्याः सर्पाश्च कच्छपाः।
पशवश्च मृगाश्चैव जघन्या तामसा गतिः॥2॥ मनु॰12.42 
जो अत्यन्त (जघन्य) तमोगुणी हैं वे स्थावर वृक्षादि, कृमि, कीट, मत्स्य, सर्प, कच्छप, पशु और मृग के जन्म को प्राप्त होते हैं॥2॥

हस्तिनश्च तुरङ्गाश्च शूद्रा म्लेच्छाश्च गर्हिताः।
सिंहा व्याघ्रा वराहाश्च मध्यमा तामसी गतिः॥3॥ मनु॰12.43
जो मध्यम तमोगुणी हैं वे हाथी, घोड़ा, शूद्र, म्लेच्छ निन्दित कर्म करने वाले,सिंह , व्याघ्र, ‘वराह’ अर्थात् सुअर के जन्म को प्राप्त होते हैं॥3॥

चारणाश्च सुपर्णाश्च पुरुषाश्चैव दाम्भिकाः।
रक्षांसि च पिशाचाश्च तामसीषूत्तमा गतिः॥4॥ मनु॰12.44
जो उत्तम तमोगुणी हैं वे ‘चारण’ (जो कि कवित्त दोहा आदि बनाकर मनुष्यों की प्रशंसा करते हैं), सुन्दर पक्षी, ‘दाम्भिक’ पुरुष अर्थात् अपने मुख से अपनी प्रशंसा करनेहारे, ‘राक्षस’ जो हिंसक, ‘पिशाच’ जो अनाचारी अर्थात् मद्यादि के आहारकर्त्ता और मलिन रहते हैं, वह उत्तम तमोगुण के कर्म का फल है॥4॥

झल्ला मल्ला नटाश्चैव पुरुषाः शस्त्रवृत्तयः।
द्यूतपानप्रसक्ताश्च जघन्या राजसी गतिः॥5॥ मनु॰12.45
जो जघन्य रजोगुणी हैं वे ‘झल्ला’ अर्थात् तलवार आदि से मारने वा कुदार आदि से खोदनेहारे, ‘मल्ला’ अर्थात् नौका आदि के चलाने वाले, ‘नट’ जो बाँस आदि पर कला कढ़ना-चढ़ना-उतरना आदि करते हैं, शस्त्रधारी भृत्य, द्यूत और मद्यपान में आसक्त हों, ऐसे जन्म नीच रजोगुण का फल है॥5॥

राजानः क्षत्रियाश्चैव राज्ञां चैव पुरोहिताः।
वादयुद्धप्रधानाश्च मध्यमा राजसी गतिः॥6॥ मनु॰12.46
जो मध्यम रजोगुणी होते हैं वे राजा, क्षत्रियवर्णस्थ राजाओं के पुरोहित, वादविवाद करनेवाले, द्यूत, प्राड्विवाक (वकील-वारिष्टर), युद्ध-विभाग के अध्यक्ष का जन्म पाते हैं॥6॥

गन्धर्वा गुह्यका यक्षा विबुधानुचराश्च ये।
तथैवाप्सरसः सर्वा राजसीषूत्तमा गतिः॥7॥ मनु॰12.47
जो उत्तम रजोगुणी हैं वे गन्धर्व (गानेवाले), गुह्यक (वादित्र बजानेहारे), यक्ष (धनाढ्य), विद्वानों के सेवक और ‘अप्सरा’ अर्थात् जो उत्तम रूपवाली स्त्री उसका जन्म पाते हैं॥7॥

तापसा यतयो विप्रा ये च वैमानिका गणाः।
नक्षत्राणि च दैत्याश्च प्रथमा सात्त्विकी गतिः॥8॥ मनु॰12.48
जो तपस्वी, यति-संन्यासी, वेदपाठी, विमान को चलानेवाले, ज्योतिषी और ‘दैत्य’ अर्थात् देहपोषक मनुष्य होते हैं, उनको प्रथम सत्त्वगुण के कर्म का फल जानो॥8॥

यज्वान ऋषयो देवा वेदा ज्योतींषि वत्सराः।
पितरश्चैव साध्याश्च द्वितीया सात्त्विकी गतिः॥9॥ मनु॰12.49
जो मध्यम सत्त्वगुणयुक्त होकर कर्म करते हैं वे जीव यज्ञकर्त्ता, वेदार्थवित्, विद्वान्, वेद, विद्युत् आदि और काल-विद्या के ज्ञाता, रक्षक, ज्ञानी और ‘साध्य’ कार्यसिद्धि के लिये सेवन करने योग्य अध्यापक का जन्म पाते हैं॥9॥

ब्रह्मा विश्वसृजो धर्म्मी महानव्यक्तमेव च।
उत्तमां सात्त्विकीमेतां गतिमाहुर्मनीषिणः॥10॥ मनु॰12.50
जो उत्तम सत्त्वगुणयुक्त होके उत्तम कर्म करते हैं वे ‘ब्रह्मा’ सब वेदों का वेत्ता, ‘विश्वसृज’ सब सृष्टिक्रम विद्या को जानकर विविध विमानादि यानों को बनानेहारे, धार्मिक, सर्वोत्तम बुद्धियुक्त और अव्यक्त के जन्म और प्रकृतिवशित्व सिद्धि को प्राप्त होते हैं॥10॥

इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन धर्मस्यासेवनेन च।
पापान्संयान्ति संसारानविद्वांसो नराधमाः॥11॥ मनु॰12.52
जो इन्द्रियों के वश होकर विषयी, धर्म को छोड़कर अधर्म करनेहारे अविद्वान् हैं, वे मनुष्यों में ‘नीच-जन्म’ बुरे-बुरे दुःखरूप जन्म को पाते हैं॥11॥

इस प्रकार सत्त्व, रज और तमोगुणयुक्त वेग से जिस-जिस प्रकार का कर्म जीव करता है, उस-उस को उसी-उसी प्रकार का फल प्राप्त होता है। ( स॰प्र॰न॰समु॰)

Friday, March 8, 2019

साम्यवादी मानसिकता और वैचारिक प्रदुषण



साम्यवादी मानसिकता और वैचारिक प्रदुषण
डॉ विवेक आर्य
दिल्ली के सरकारी विद्यालयों कक्षा के सामाजिक विज्ञान की परीक्षा में विद्यार्थियों से हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को भड़काने वाले कुछ प्रश्न पूछे गए।
एक प्रश्न इस प्रकार था कि
श्री राम के देश में सभी फैसले राजा द्वारा लिए जाते हैं जो लोगों के द्वारा चुना हुआ नहीं हैं। इसी साथ अन्य विकल्प यह दिया गया था कि रहीम के देश में प्रत्येक व्यक्ति को समान मत का अधिकार हैं।
दूसरा प्रश्न देखिये-
सीता जी को गिरफ़्तार किये हुए दो वर्ष हो गए हैं परन्तु आज तक उसे मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत नहीं किया गया। इसी के साथ अन्य विकल्प दिया कि रहीम जी का संगठन सरकार की नीतियों के विरोध में जंतर-मंतर पर शांतिपूर्वक धरना देना चाहता था, परन्तु इसकी इजाज़त नहीं दी गई।
1. ऐसे प्रश्न अबोध बच्चों से पूछने का उद्देश्य क्या कोई बता सकता है?
2. क्या यह बच्चों के मस्तिष्क में हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य के बीजारोपण करने का प्रयास नहीं हैं?
3. साम्यवादी सदा हिन्दू समाज के प्रणेता श्री राम के विषय में विषवमन करते रहते हैं। क्या उन्हें इस अपराध के लिए उचित दंड नहीं मिलना चाहिए?
4. मुसलमानों को सदा शांतिप्रिय और पीड़ित दिखाना और हिन्दुओं को अत्याचारी और पक्षपाती दर्शाना क्या एक सुनियोजित षड़यंत्र नहीं हैं?
5. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम धर्मभावना का मखौल उड़ाना क्या अपराध नहीं हैं?
6. श्री राम और सीता जी के विषय में विषवमन करने वालों ने न वाल्मीकि रामायण पढ़ी हैं। न ही कभी क़ुरान और हदीसों को पढ़ा हैं। अन्यथा रामायण में वर्णित रामराज्य को जानने के पश्चात इस्लाम के रक्तरंजित इतिहास से अगर कोई तुलना करे तो दोनों में जमीन-आसमान का अंतर हैं।
मेरे विचार से हिन्दुओं को संगठित होकर इस अपराध के लिए कठोर दंड अदालत से दिलवाना चाहिए ताकि भविष्य में कोई ऐसे अपराध करने का षड़यंत्र न करें। इस लेख में हम वाल्मीकि रामायण में वर्णित आदर्श शासक श्री राम को जानने का प्रयास करेंगे।
महर्षि बाल्मीकि ने राम राज्य का वर्णन निम्नलिखित शब्दों में किया है:-
(१) श्रीराम के राज्य में स्त्रियां विधवा नहीं होती थी,सर्पों से किसी को भय नहीं था और रोगों का आक्रमण भी नहीं होता था।
(२) राम-राज्य में चोरों और डाकुओं का नाम तक न था।दूसरे के धन को लेने की तो बात ही क्या,कोई उसे छूता तक न था।राम राज्य में बूढ़े बालकों का मृतक-कर्म नहीं करते थे अर्थात् बाल-मृत्यु नहीं होती थी।
(३) रामराज्य में सब लोग वर्णानुसार अपने धर्मकृत्यों का अनुष्ठान करने के कारण प्रसन्न रहते थे।श्रीराम उदास होंगे,यह सोचकर कोई किसी का हृदय नहीं दुखाता था।
(४) राम-राज्य में वृक्ष सदा पुष्पों से लदे रहते थे,वे सदा फला करते थे।उनकी डालियां विस्तृत हुआ करती थी।यथासमय वृष्टि होती थी और सुखस्पृशी वायु चला करती थी।
(५) ब्राह्मण,क्षत्रीय,वैश्य और शूद्र कोई भी लोभी नहीं था।सब अपना-अपना कार्य करते हुए सन्तुष्ट रहते थे।राम-राज्य में सारी प्रजा धर्मरत और झूठ से दूर रहती थी।सब लोग शुभ लक्षणों से युक्त और धर्म परायण होते थे।
१. न पर्यदेवन् विधवा न च व्यालकृतं भयम्।
न व्याधिजं भयं चासीद् रामे राज्यं प्रशासति।।
२.निर्दुस्युरभवल्लोको नानार्थं कश्चिदस्पृशत्।
न च स्म वृद्धा बालानां प्रेतकार्याणि कुर्वते।।
३. सर्वं मुदितमेवासीत् सर्वो धर्मपरोsभवत्।
राममेवानुपश्यन्तो नाभ्यहिंसन् परस्परम्।।
४. नित्यमूला नित्यफलास्तरवस्तत्र पुष्पिताः।
कामवर्षी च पर्जन्यः सुखस्पर्शश्च मारुतः।।
५. ब्राह्मणाः क्षत्रीया वैश्याः शूद्रा लोभविवर्जिताः।
स्वकर्मसु प्रवर्तन्ते तुष्टाः स्वरैव कर्मभिः।।
--(वा० रामा० युद्ध० १२८/९८,१००,१०३,१०४)
आइये अब महाराज दशरथ के राज्य का अवलोकन कीजिए:-
१. तस्मिन् पुरवरे ह्रष्टा धर्मात्मानो बहुश्रुताः ।
नरास्तुष्टा धनैः स्वैः स्वैरलुब्धाः सत्यवादिनः ।।
अर्थात उस श्रेष्ठ नगरी में सभी मनुष्य प्रसन्न,धर्मात्मा,महाविद्वान,अपने-अपने धन से सन्तुष्ट,अलोभी और सत्यवक्ता थे।
२. नाल्पसंनिचयः कश्चिदासीत् तस्मिन्पुरोत्तमे ।
कुटुम्बी यो ह्यसिद्धार्थौs गवाश्वधनधान्यवान् ।।
अर्थात् वहाँ कोई ऐसा गृहस्थी न था जो थोड़े संग्रह वाला हो(प्रत्येक के पास पर्याप्त धन था),कोई ऐसा गृहस्थी नहीं था,जिसकी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति न होती हो और ऐसा भी कोई घर नहीं था जो गौ,अश्व और धन-धान्य से भरपूर न हो।
३. कामी वा न कदर्यो वा नृशंसः पुरुषः क्वचित् ।
द्रष्टुं शक्यमयोध्यायां नाविद्वान् न च नास्तिकः ।।
अर्थात् अयोध्या में कोई पुरुष ऐसा न था जो कामासक्त हो,कोई व्यक्ति ऐसा न था जो कंजूस हो,दान न देता हो।क्रूर,मूर्ख और नास्तिक(ईश्वर,वेद और पुनर्जन्म में विश्वास न रखने वाला) व्यक्ति तो अयोध्या में कोई दिखायी ही न देता था।
४. सर्वै नराश्च नार्यश्च धर्मशीलाः सुसंयताः ।
मुदिताः शीलवृत्ताभ्यां महर्षय इवामलाः ।।
अर्थात्-सभी स्त्री पुरुष धर्मात्मा,इन्द्रियों को वश में रखने वाले,सदा प्रसन्न रहने वाले तथा शील और सदाचार की दृष्टि से महर्षियों के समान निर्मल थे।
५. नाकुण्डली नामुकटी नास्रग्वी नाल्पभोगवान् ।
नामृष्टो न नलिप्तान्गो नासुगन्धश्च विद्यते ।।
अर्थात् अयोध्या में कोई भी व्यक्ति ऐसा न था जो कानों में कुण्डल,सिर पर मुकुट और गले में माला धारण न करता हो।अल्पभोगी,मैले अंगों वाला,चन्दन,इत्र,तेल,फुलैल न लगाने वाला भी वहाँ कोई नहीं था।
६. नानाहिताग्निर्नायज्वा न क्षुद्रो वा न तस्करः ।
कश्चिदासीदयोध्यायां न चावृत्तो न संकरः ।।
अयोध्या में कोई मनुष्य ऐसा न था जो प्रतिदिन अग्निहोत्र न करता हो,जो क्षुद्र-ह्रदय हो,कोई चोर नहीं था और न ही कोई वर्णसंकर था।
७. नाषडन्गविदत्रास्ति नाव्रतो नासहस्रदः ।
न दीनः क्षिप्तचित्तो वा व्यथितो वापि कश्चन ।।
अयोध्या में कोई ऐसा व्यक्ति भी नहीं था जो छह अंगों-(शिक्षा,कल्प,ज्योतिष,व्याकरण,निरुक्त और छन्द)-सहित वेदों को न जानता हो।जो उत्तम व्रतों से रहित हो,जो महाविद्वान न हो,जो निर्धन हो,जिसे शारीरिक या मानसिक पीड़ा हो-ऐसा भी कोई न था।
८. दीर्घायुषो नराः सर्वे धर्मं सत्यं च संश्रिताः ।
सहिताः पुत्रपौत्रैश्च नित्यं स्त्रीभिः पुरोत्तमे ।।
अर्थात् अयोध्या में सभी निवासी दीर्घ-जीवी,धर्म और सत्य का आश्रय लेने वाले,पुत्र,पौत्र और स्त्रियों सहित उस नगर में रहते थे।
--[वा० रामा० बाल० ६।६-१०,१२,१५,१८]
महाराज दशरथ और श्रीराम की आदर्श राज्य-व्यवस्था आगे भी पर्याप्त समय तक चलती रही।
महाराज अश्वपति ने अपने राज्य के सम्बन्ध में गर्वपूर्वक घोषणा की थी--
न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः ।
नानाहिताग्निर्नाविद्वान् न स्वैरी स्वैरिणी कुतः ।।--(छन्दोग्य० ५/११/५)
अर्थात मेरे राज्य में कोई चोर नहीं है,कोई कन्जूस नहीं है,कोई शराबी नहीं है,कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो प्रतिदिन अग्निहोत्र न करता हो।कोई मूर्ख नहीं है,कोई व्यभिचारी पुरुष नहीं है,फिर भला व्यभिचारिणी स्त्री तो हो ही कैसे सकती है?
ऐसे आदर्श शासक श्री राम पर अनुचित टिप्पणी करना अपना अज्ञानता का प्रदर्शन करने जैसा है।
सलंग्न चित्र- दिल्ली के सरकारी विद्यालयों में पूछे गए परीक्षा पत्र की प्रतिलिपि



Thursday, March 7, 2019

SANSKRIT INFLUENCE ON THE TAMIL LANGUAGE AND LITERATURE




SANSKRIT INFLUENCE ON THE TAMIL LANGUAGE AND LITERATURE

Author-P. Nilkantha Sharma, French Institute of Indology Pondicherry

[Our PrimeMinister Sh. Narender Modi ji in Pariksha Par Charcha said that Tamil is a beautiful language and its older than Sanskrit. Modi ji unknowingly quoted this as a mistake.Sanskrit is the mother of all languages. I am reproducing this research paper to prove this fact.This paper was presented in First International Sanskrit conference held in 1975 in Delhi. This Abridged version is reproduced by Dr. Vivek Arya from PROCEEDINGS OF THE 1ST INTERNATIONAL SANSKRIT CONFERENCE VOL-3 PT-2, 1975 available online on Archives]

It has been admitted that Sanskrit is one of the most ancient languages of the world. The language was once spoken by all. The Vedas, the Ramayana and Mahabharata are most famous Sanskrit texts. Few people considers Sanskrit as a dead language. A language can be considered dead only if it ceases to exercise any influence on the people as well as on the languages of the land. Viewed from this angle Sanskrit can never be considered dead. It continues to live in this land by invigorating and enriching not only the various languages in India, but also those in the Fareast and serves as the sole link, for bringing together the different languages of India, thus proving the unity and integrity of all the people in India. It is still being used for religious and philosophical purposes.

Dravidian Languages and Tamil

That Sanskrit, the Divine language, is the mother of all Indian languages is quite clear to any scholar of impartial views. Among the Dravidian languages Tamil is older than all of them, its initial stages going as far back as several centuries before Christ.  In spite of this fact, Tamil cannot be so ancient as Sanskrit. Because, even before the time when the Ramayana was composed, and when the art of writing was unknown to man, there existed in this land the great Vedas handed down from generation to generation, orally and hence called “Shruti”. There is nothing comparable to this in Tamil.

The chief factors of Sanskrit influence

Though from very early times up to the present day, orthodox Hinduism of the Vedas has been an eternal factor in the Sanskrit influence of Tamil, it has to be admitted that Buddhists and Jains had a considerable part in the improvement and growth of Tamil not only in the early period but also at the beginning of the middle ages. The major old works in Tamil were their productions and they did not hesitate to incorporate their dogmas and theories into them. All of them being proficient in Sanskrit, they left no stone unturned in imparting Sanskrit influence to Tamil. Anyway Tamil is surely indebted to them and that too in no small measure. In later times, Buddhism and Jainism had to give way to Saivism and Vaisnavism which had their renaissance from the songs of Tevaram and Divyaprabandham of the Saivaite and Vaisnavaite saints. Moreover with various tantric cults and puranas coming to prominence at this time on one side and the great philosophers like Sankara, Ramanuja and Madhva preaching their philosophical doctrines on the other, Sanskrit influence in Tamil became all the more widespread and it has continued to be so up to the present day.

Tamil lexicons

There are two lexicons in Tamil which are considered to be pretty old. They are Cintar Tivakaram and Pinkala Nikantu. If one happens to go through them, he will find that Sanskrit words either in their original forms or changed and Tamilised forms according to the rules laid down by Tolkappiyar, occupy a greater portion of the texts. In their enumeration of “ornaments of sense” and the eight-fold angas of Yoga both of them follow Natyashastra and Patajnjala Yogasutra respectively, not to speak of other minor items.

Now 'nikantu' is the Tamilised form of the Sanskrit word 'nighantu' or 'nighanta'. Originally it was the name of a Vedic glossary included by Yaska in his Nirukta. But subsequently it came to mean any collection of words or vocabulary.

The antiquity of Tamil

In Tolkappiyam II, 397, the author classifies words into four kinds as iyaRcol, tiricol, ticaiccol and vatacol. lyaRcol is indigenous word and vatacol is Sanskrit word. Tolkappiyar, Sanskrit words having been inseparably mixed up in Tamil. So, there can be no denial that Tamil is very ancient but, its development took place under Sanskrit influence.  Sanskrit influence in Tolkalppiyam and TirukkuRal have been proved by scholars like Vaiyapuri Pillai, Ramachandra Diksithar, Krishnaswami lyengar and others.

Sangam works

In AkanaNuRu PuRanaNuRu and others, the occurrence of words like yupum (yupa), avi (havis), avuti (ahuti), tun (sthuna), amarar (amara),vetam (vedu), mutti (tretagni) and tavam (tapas) clearly shows that even Vedic Sanskrit did have some sort of influence in those times. Words relating to the ordinary social life, pantam (bhanda), ulakam (loka), pokam (bhoga), amiLtu (amrta) and mantilam (mandala) and the like were also contributed by them.

There is a work called Acarakkovai, probably the last one of the Sangam anthologies. Its author was Mulliyar of Vankayattur. The work deals with the rules of conduct, customs and daily observances of the Hindus. The author himself avows in ‘ciRappuppayiram’ that he has based his work on materials drawn from various dharma Sastras or smritis. Apastamba's Grihya and Dharma-sutras, DharmaSastras of Bhaudhayana, Gautama, Visnu and Vasistha, the Smrtis of Manu, Yajnavalkya, Parasara, Likhita and Harita, Samhitas of Usanas and Visnu purana, some having been literally translated.

Cilappatikaram ard Manimekalai

Both these are twin epics, the story of the latter being a continuation of that of the former. Both contain thirty cantos each, each canto bearing the name of 'Katai' which is a Tamil form of the Sanskrit word gatha. In Cilappatikaram the whole of the third canto is based on the NatyaSastra of Bharata.A story from Pancatantra is reproduced in canto 15, 54-74. The knowledge of astronomy and astrology displayed in cantos 23 and 26 is noteworthy. The duties of people belonging to different castes, moral rules of diverse nature, the theories and tenets of various religious sects and many other kindred topics have found place in this work as a result of Sanskrit influence.

In'Manimekalai, canto 27 deals with Pramanwada, Ajivakavada, Sankhyavada, Saivavada, Nikhandavada, Bhutavada, Mantravada,Vedavada, Vaiseikavada and Vaisnavavada. Canto 29 describes the various aspects of anumana, hetvabhasas, drstantas of sadharmya and vaidharmya nature and drstantabhasas, all of which pertain to Sanskrit logic.

Arts and sciences

As in the entire field of the Indian languages, so even in Tamil, excepting those works which arc of a strictly classical nature and possess a purely literary value, all others concerning arts and sciences, like astronomy, astrology, music, medicine etc. are based only on the respective ancient treatises in Sanskrit. Even the Siddha system of medicine prevalent in the Tamil county is but an offshoot of Ayurveda following the works of Charaka, Shusruta and others.

The Tirumantiram of Tirumular

It is no exaggeration to say that the Sanskrit influence rose to the highest degree in Tirumantiram. Whatever is said about Tirumular, the author, by way of tradition, none can deny that he was a vast ocean of Sanskrit learning. He speaks about the four Vedas, the six Vedangas and the twenty-eight Agamas, with utmost regard, Verses 62 and 63 say that he obtained from his Guru, Nandi, nine among the 28 Agamas. In verses 73, 77 and 81. He says that he had been ordained by his Guru to render the Agamas and the Vedas in beautiful Tamil. The work contains a little above 3000 verses divided into nine tantras.

Conclusion

The reconciliation of Tamil grammar with that of Sanskrit attempted in Viraco Liyam, Pirayokavivekam and Ilakkanakkottu by their authors is another proof of how far Tamil grammar is indebted to Sanskrit. Moreover Shivanana Svamikal, has expressly stated that Tamil Learning not be complete for those who have not learnt Sanskrit.