Thursday, May 28, 2020

आत्मा के साकार-निराकार विषयक पक्ष का निर्णय



आत्मा के साकार-निराकार विषयक पक्ष का निर्णय

लेखक- प्रियांशु सेठ

[इस लेख में प्रमाण-संग्रह में स्वाध्यायशील विद्वान् श्री भावेश मेरजा जी ने मेरी पर्याप्त सहायता की है। अतः उनको सहर्ष धन्यवाद देता हूं।]

अनेक दार्शनिक विद्वानों का आत्मा के साकार-निराकार विषयक पक्ष में विचार भेद है। एक पक्ष आत्मा के निराकार होने का दावा करता है, तो दूसरा पक्ष आत्मा के साकार होने का दावा करता है। दर्शन का सिद्धान्त है कि जिस पक्ष का प्रतिषेध हो गया, वह निवृत्त हो जाता है; जो अवस्थित रह गया, निर्णय का स्वरूप उसी से अभिव्यक्त होता है। न्यायदर्शन में कहा है कि जिन हेतुओं से अपने पक्ष की सिद्ध का प्रमाण और दूसरे के पक्ष का खण्डन करना है, वह निर्णय कहलाता है। इस सैद्धान्तिक दृष्टि से हम दोनों पक्षों को तर्क और प्रमाण की कोटि में रखकर सत्याऽसत्य का निर्णय करेंगे।

पूर्वपक्षी- आत्मा एकदेशी होने से साकार है।
उत्तरपक्षी- यह आवश्यक नहीं है कि यदि एकदेशी वस्तुएं साकार होती हैं, तो व्यापक वस्तुएं साकार नहीं होती हैं। प्रकृति पूरे ब्रह्माण्ड में व्यापक है फिर भी वे साकार है; अतः आपका पक्ष हेत्वाभास के होने से अग्राह्य है।

पूर्वपक्षी- आत्मा परिच्छिन्न (अणु) होने से एकदेशी है इसलिए वह साकार है। सत्यार्थप्रकाश, सप्तम समुल्लास में स्वामी दयानन्द जी लिखते हैं-
प्रश्न- जीव शरीर में भिन्न विभु है वा परिच्छिन्न?
उत्तर- परिच्छिन्न। जो विभु होता तो जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, मरण, जन्म, संयोग, वियोग, जाना, आना कभी नहीं हो सकता। इसलिए जीव का स्वरूप अल्पज्ञ, अल्प अर्थात् सूक्ष्म है और परमेश्वर अतीव सूक्ष्मात्सूक्ष्मतर, अनन्त सर्वज्ञ और सर्वव्यापक स्वरूप है।
उत्तरपक्षी- महर्षि ने यहां परिमाण की दृष्टि से परिच्छिन्न कहा है, रूप की दृष्टि से नहीं। परिमाण तीन होते हैं- विभु, मध्यम, अणु। इसलिए यह सत्य सिद्धान्त है कि आत्मा अणु होने से एकदेशी है, लेकिन आप परिमाण गुण को रूप गुण समझने की भूल कर रहे हैं। महर्षि कणाद ने इन दोनों गुणों को अलग-अलग बताया है [देखो- वैशेषिकदर्शन, सातवां अध्याय, पहला आह्निक]। यदि आपने दर्शनशास्त्रों का अध्ययन किया होता तो यह भ्रान्ति न होती। परिमाण गुण साकार और निराकार दोनों में होते हैं। आत्मा और परमात्मा में भी परिमाण गुण है। इसमें शास्त्रीय प्रमाण है; देखो- कठ० १/२/२०, श्वेता० ३/२०, मुण्डक० ३/१/९, छान्दोग्य० ६/८/७, ६/१५/३ तथा वैशेषिक० ७/१/२२]। इन प्रमाणों के आधार पर ईश्वर को एकदेशी और साकार मानना क्या आपको वांछनीय है? इसका उत्तर यही है कि यहां आपको परिमाण गुण ही मानना होगा। पैंगल उपनिषद् में आया है-
आकाशवत् सूक्ष्मशरीर: आत्मा न दृश्यते वायुवत्।। -४/१२
अर्थात् आत्मा का सूक्ष्म शरीर आकाशवत् है और वायु के समान अदृश्य है।

पूर्वपक्षी- निर् और आङ्-पूर्वक (डुकृञ् करणे) इस धातु से ‘निराकार’ शब्द सिद्ध होता है। ‘निर्गत आकारात् स निराकारः’ जिस का आकार कोई भी नहीं और न कभी शरीर-धारण करता है, इसलिए परमेश्वर का नाम ‘निराकार’ है। यह स्वामी दयानन्दजी का मत है। महर्षि द्वारा प्रतिपादित निराकार की इस परिभाषा को आत्मा पर घटित करने पर उसे साकार नहीं मान सकते।
उत्तरपक्षी- इसका उत्तर ध्यानपूर्वक सुनिये। 'य इन्दति परमैश्वर्यवान् भवति स इन्द्रः परमेश्वरः’ जो अखिल ऐश्वर्ययुक्त है, इस से उस परमात्मा का नाम ‘इन्द्र’ है। जबकि अष्टाध्यायी (अध्याय ५, पाद ३, सूत्र ९३) में आत्मा को भी इन्द्र कहा गया है [इन्द्र आत्मा 'इति काशिकायाम्']। अब आप मेरे इन प्रश्नों के उत्तर दीजिये-
• क्या आप इन्द्र (परमेश्वर) के अखिल ऐश्वर्ययुक्त गुण-स्वभाव को आत्मा पर घटित करने का साहस करेंगे? कदापि नहीं। क्योंकि ऐसा करने से आपके सिद्धान्त खण्डित होंगे। ठीक इसी प्रकार परमात्मा के 'निराकार' नाम की जो व्याख्या है, आपने उसको आत्मा पर घटित कर दिया।
• क्या आप आत्मा और परमात्मा में अन्तर जानते हैं? स्वामी दयानन्दजी अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में लिखते हैं- "प्रथम समुल्लास में ईश्वर के ओङ्काराऽऽदि नामों की व्याख्या।" महर्षि के इस वचन से यह सिद्ध होता है कि उन्हें प्रथम समुल्लास में ईश्वर के अनेक नामों की व्याख्या अभीष्ट है, फिर आपका ईश्वर विषयक प्रकरण आत्मा पर घटित करना कहाँ की ईमानदारी है? अतः आपकी पोल खुल चुकी है। यहां आप इस कहावत "कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा", को चरितार्थ कर रहे हैं।

पूर्वपक्षी- ईश्वर निराकार होने से सर्वव्यापक है। यदि आप आत्मा को निराकार मानते हैं तो उसे सर्वव्यापक भी मानना होगा।
उत्तरपक्षी- क्या आप परमात्मा की तुलना आत्मा से कर रहे हैं? परमात्मा अनन्त गुण-कर्म-स्वभाव वाला है। वेदादि शास्त्रों में कहा है कि उस (जगदीश्वर) के तुल्य अन्य कोई नहीं है। आत्मा का गुण-कर्म-स्वभाव सीमित है। वह सर्व गुण-कर्म-स्वभाव से रहित है। यदि आप आत्मा को सर्वशक्तिशाली मानेंगे तो आपको परमात्मा के अस्तित्व को नकारना होगा। परमात्मा के अस्तित्व को नकारते ही आपके सिद्धान्त खण्डित होंगे और नास्तिकों के सारे दोष आपके पक्ष में होंगे। इसलिए आत्मा निराकार तो है लेकिन सर्वव्यापी नहीं।

पूर्वपक्षी- आत्मा और परमात्मा दोनों चेतन सत्ता है। अगर आत्मा निराकार होती तो फिर भारत में बैठे हुए मुझे अमेरिका की भी खबर आत्मा के द्वारा होती।
उत्तरपक्षी- यदि आप आत्मा को साकार मानेंगे तो उसे जड़ पदार्थ मानना होगा। यह शाश्वत सिद्धान्त है कि जड़ पदार्थ के अतिरिक्त अन्य कोई पदार्थ साकार नहीं होता। आत्मा चेतन और अप्राकृतिक पदार्थ है; अतः आपका तर्क कि भारत में बैठकर अमेरिका की खबर आत्मा द्वारा पाना चूँ-चूँ का मुरब्बा है।

ऊपर सिद्ध है, पूर्वपक्षी आत्मा के साकार होने के पक्ष में कोई प्रमाण न दे सका। अब हम आत्मा के निराकारत्व के पक्ष में कतिपय दार्शनिक विद्वानों की सम्मति प्रस्तुत करते हैं। यथा-

१. महर्षि दयानन्द जी की दृष्टि में जीवात्मा निराकार है। यथा-
• 'उपदेश मञ्जरी' (पूना प्रवचन) के चतुर्थ प्रवचन में महर्षि दयानन्द जी ने कहा है- "जीव का आकार नहीं तो भी जीव का ध्यान होता है वा नहीं?"
• "...तथा वह (जीव) भी निराकार और नाश से रहित रहता है।" [महर्षि दयानन्द सरस्वती का पत्र-व्यवहार, भाग १, पृष्ठ २१७]

२. स्वामी दर्शनानन्द जी ने आत्मा को निराकार माना है- "जीवात्मा भी निराकार है।" [दर्शनानंद ग्रंथ संग्रह; पृ० २६; १९९७ संस्करण]

३. सुप्रसिद्ध शास्त्रार्थ महारथी पण्डित बिहारीलाल शास्त्री अपनी पुस्तक 'निराकार साकार निर्णय' (प्रकाशन वर्ष १९६५; प्रकाशक- डॉ० राजेन्द्र कुमार) में जीवात्मा को मुक्तकण्ठ से निराकार बतलाते हैं-
• "निराकार जीवात्मा शरीर में गति करता है तो शरीर के कारण वह साकार नहीं कहलायेगा।" [पृ० ८]
• "आपका शरीर साकार है। आप (आत्मा) निराकार है।" [पृ० २६]

४. महान् दार्शनिक विद्वान् लेखक श्री पण्डित गंगाप्रसाद जी उपाध्याय का पक्ष भी जीवात्मा के निराकारत्व में है।
• "कुछ निराकार वस्तुयें भी एक देशी हो सकती हैं, परन्तु कोई स्थूल या साकार वस्तु सर्वदेशी नहीं हो सकती।" [आस्तिकवाद; पृष्ठ १८६; प्रथम संस्करण]
• उन्होंने अपनी 'धर्म सार' नामक हिन्दी पुस्तक में जीवात्मा को निराकार लिखा है- "जीवात्मा निराकार है। उसको मोटा, पतला, काला, पीला नहीं कह सकते।" [पृष्ठ ३४]
[टिप्पणी- प्रा० राजेन्द्र जी जिज्ञासु द्वारा संपादित 'गंगा ज्ञान सागर' (प्रकाशन वर्ष २००० ई०) के दूसरे खण्ड में उपाध्याय जी रचित 'धर्म-सार' पुस्तक का समावेश किया गया है। अत: जीवात्मा को निराकार बताने वाला यह उद्धरण 'गंगा ज्ञान सागर' (दूसरा खण्ड) के पृष्ठ ७३ पर भी पढ़ा जा सकता है।]

५. स्वामी सत्यप्रकाश जी ने १९३८ में महर्षि दयानन्द सरस्वती के दार्शनिक चिन्तन पर एक महान् ग्रन्थ अंग्रेज़ी में लिखा है जिसका शीर्षक है- A Critical Study of the Philosophy of Dayananda. इसी ग्रन्थ को बाद में अन्य प्रकाशकों ने Dayananda's outline of Vedic Philosophy आदि अन्य शीर्षकों से प्रकाशित किया है। स्वामी सत्यप्रकाश जी के उपर्युक्त अंग्रेज़ी ग्रन्थ के छठे प्रकरण का शीर्षक है- The Ego अर्थात् जीवात्मा। इस प्रकरण में स्वामी सत्यप्रकाश जी ने जीवात्मा के सम्बन्ध में लिखा है-
1. "Living matter need not be cellular. Take the case of an ultramicroscopic virus which can pass through even a filter efficient to stop bacteria. Who can say, these ultramicroscopic filtrable viruses which cause many diseases in animals and plants may be particular kind of bacteria, almost approaching molecular dimensions. But the living life within them is still of a finer dimension. We say that it is a point with no dimensions. It is a reality in itself. It exhausts no space while it is in space." [P.136, 3rd edition 1984]
2. "According to Dayananda, souls are dimensionless units while the Absolute Brahman is the dimensionless unity." [Ibid, P.136]
3. "Just as God is a dimensionless unity, all-pervading and active (chetan), similarly, the souls are dimensionless units pervaded by God." [Ibid, p. 139]

स्वामी सत्यप्रकाश जी ने यहां जीवात्मा को लंबाई, चौड़ाई आदि परिमाणों से रहित वर्णित किया है। उनकी दृष्टि में जीवात्मा उस बिन्दु जैसा है जिसके कोई परिमाण नहीं। उनका मन्तव्य है कि आकाश में अवस्थित होते हुए भी जीवात्मा कोई स्थान नहीं घेरता है। स्वामी सत्यप्रकाश जी ने यहां यह भी लिखा है कि महर्षि दयानन्द जी भी जीवात्मा को ऐसा ही- लंबाई, चौड़ाई आदि परिमाणों से रहित मानते हैं।

६. प्रसिद्ध विद्वान् स्वामी वेदानन्द तीर्थ अपने 'वैदिक धर्म' नामक पुस्तक में वेद का प्रमाण देते हुए जीवात्मा को "निराकार" बताया है-
अपादिन्द्रो अपादग्निर्विश्वे देवा अमत्सत।
वरुण इदिह क्षयत्तमापो अभ्यनूषत वत्सं संशिश्वरीरिव।। -ऋग्वेद ८/६९/११
अर्थ- (इन्द्र:) अखिलैश्वर्य सम्पन्न प्रभु (अपात्) चिह्न रहित=निराकार है (अग्नि:) चेतन जीव (अपात्) निराकार है (विश्वे देवा: अमत्सत) सब इन्द्रियां या सूर्य-चन्द्र आदि सुख के साधन हैं अथवा आत्मा और परमात्मा के स्वरूप को जानकर (विश्वे देवाः अमत्सत) सब विद्वान् मोक्षानन्द पाते हैं। (वरुणः इत् इह क्षयत्) वरुण=सर्व श्रेष्ठ भगवान् ही इस संसार में वास करते हैं। अथवा (वरुण: इह इत् क्षयत्) सर्व श्रेष्ठ भगवान् इसी संसार में=इसी देह में ही रहते हैं। (इव शिश्वरी: वत्सं सम् ) जिस प्रकार वर्धक शक्तियां बच्चे को प्राप्त होती हैं उसी प्रकार (आपः तम् अभिअनूषत्) सब स्तुतिएं उसको प्राप्त होती हैं।

ईश्वर और जीव दोनों निराकार हैं। ईश्वर सर्वव्यापक भी है। उसे खोजने के लिए बाहर जाने की आवश्यकता नहीं। वह हमारे अन्दर वास करता है। जिस प्रकार अवस्था के कारण वर्धक शक्तियां बालक ही को विशेष रूप से बढ़ाती हैं, उसी प्रकार सारी स्तुतियां भी परमेश्वर की ही होती हैं, क्योंकि वही सकलगुणनिधान है। [पृष्ठ २०-२१; प्रकाशक- गोविन्दराम हासानन्द; १९६२ संस्करण]

७. श्री आचार्य आनन्द प्रकाश जी (आर्ष शोध संस्थान अलियाबाद, तेलंगाना), स्वामी श्री सत्यपति जी परिव्राजक के शिष्य हैं। आपने सांख्य, वैशेषिक आदि दर्शन शास्त्रों के हिन्दी में सरल सुगम भाष्य लिखे हैं। आपने सांख्य दर्शन के प्रथम अध्याय के २० से लेकर ५४ तक के ३५ सूत्रों को वैसे तो प्रक्षिप्त बताया है, पुनरपि ये सूत्र के प्रक्षिप्त होने के हेतु देते हुए उन पर अपनी महत्त्वपूर्ण टिप्पणियां भी दी हैं, जो पठनीय हैं। ५१वें सूत्र की समीक्षा में आप लिखते हैं-
"सांख्य के अनुसार प्रत्येक क्रियावान् पदार्थ मूर्त्त नहीं होता, अपितु व्यक्त क्रियावान् पदार्थ ही मूर्त्त होता है। अव्यक्त आत्मा क्रियावान् होते हुए भी मूर्त्त नहीं होता। इसलिए मूर्त्त पदार्थों के अन्य धर्मों की आत्मा में आशंका करना अनुचित है।" [पृ० ३५; प्रथम संस्करण]

८. सत्यार्थप्रकाश का विस्तृत भाष्य करने वाले सुप्रसिद्ध विद्वान् लेखक श्री स्वामी विद्यानन्द जी सरस्वती अपने ग्रन्थ 'सत्यार्थ भास्कर' के प्रथम भाग के पृष्ठ ८४६-८४७ पर ईश्वर का निराकारत्व तथा निराकार ईश्वर के द्वारा सृष्टि रचना - सत्यार्थ प्रकाश में वर्णित इन दार्शनिक विषयों पर लिखे गए अपने विवरण में स्वामी विद्यानन्द जी ने जीवात्मा को स्पष्टतः निराकार लिखा है।

९. षड्दर्शन आदि आर्ष शास्त्रों के सुविख्यात विद्वान् श्री स्वामी विवेकानन्द जी परिव्राजक (निदेशक- दर्शन योग महाविद्यालय, रोजड़) ने अपने लेख "आत्मा साकार है, या निराकार" में आत्मा को निराकार सिद्ध किया है।

१०. आत्मा परमात्मा दोनों निराकार हैं।" -पण्डित बुद्धदेव मीरपुरी [मीरपुरी-सर्वस्व; पृ० १८१]

११. प्रसिद्ध वैदिक विद्वान् स्व० आचार्य ज्ञानेश्वर आर्य 'दर्शनाचार्य' अपनी पुस्तक ईश्वर-जीव-प्रकृति में लिखते हैं-
• ईश्वर और आत्मा में यह समानता है कि दोनों ही चेतन, पवित्र, अविनाशी, अनादि, निराकार हैं। [पृष्ठ ४]
• जीवात्मा में कोई भार, रूप, आकार आदि गुण नहीं होते। [पृष्ठ १६]
• जैसे बिजली बड़े-बड़े यंत्रों को चला देती है ऐसे ही निराकार होते हुए भी जीवात्मा अपनी प्रयत्न रूपी चुंबकीय शक्ति से शरीरों को चला देता है। [पृष्ठ १९]

१२. स्वामी शान्तानन्द सरस्वती (एम०ए० दर्शनाचार्य) परमात्मा एवं जीवात्मा में समानता बतलाते हुए लिखते हैं-
"जीवात्मा का भी कोई आकार नहीं है। यह भी ईश्वर समान निराकार है। अर्थात् शरीर के समान किसी भी रूप से रहित है।" [परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति; पृष्ठ ३१; प्रथम संस्करण]

१२. 'वैदिक-पथ' (मासिक पत्रिका) के प्रधान सम्पादक डॉ० ज्वलन्तकुमार जी शास्त्री ने 'दयानन्द दर्शन' के पृष्ठ १६ पर आत्मा को "निराकार" लिखा है।

इस प्रकार ऐसे कई विद्वानों ने मुक्तकण्ठ से आत्मा के निराकारत्व का समर्थन किया है। उपरोक्त तर्क और प्रमाणों की दृष्टि से आत्मा का निराकारत्व पक्ष स्थापित होता है। अतः शास्त्रों का निर्णय यही है कि आत्मा निराकार है, ऐसा सबको निश्चय जानना चाहिए।

Sunday, May 24, 2020

यह विद्या का समय है



यह विद्या का समय है

【राजर्षि शाहू महाराज का दि० १९ अप्रैल १९१९ में उत्तर प्रदेश के कानपुर में अखिल भारतीय कुर्मी क्षत्रिय १३वीं समाजिक परिषद् का ऐतिहासिक भाषण】

हिंदी अनुवाद [मूल मराठी से]- महेश आर्य
सम्पादक- प्रियांशु सेठ

प्रिय क्षत्रिय बंधुओं!
मैं आपमें से ही एक हूं। मुझे मजदूर समझो या किसान समझो, हमारे पूर्वज यही काम करते थे। जो काम मेरे पूर्वज करते थे वही काम करने वाले लोगों का अध्यक्ष बनने के लिए मुझे आमंत्रित किया, उसके लिए मुझे बहुत खुशी हो रही है। मैं कोई ज्ञानी या विद्वान् नहीं, मेरे से ज्यादा विद्वान् लोग हैं। मेरी गुणवत्ता की तरफ ध्यान न देते हुए मैं केवल किसान और पराक्रमी छत्रपति शिवाजी महाराज और उनकी स्नुषा ताराबाई महारानी साहिबा उनके वंश का हूं, इसलिए अध्यक्ष पद का बड़ा सम्मान मुझे आपने दिया है। जिस समय आपकी आज्ञा मुझे मिली उस समय मुंबई में मुझे बहुत तेज बुखार था। लेकिन आप सबके आशीर्वाद से मैं जल्द ही ठीक हो गया। उसके साथ मेरे सामने पहाड़ जितनी आपत्ति आ खड़ी हुई। वह आपत्ति कौन-सी है, आपको लगता है, तो वह थी हिन्दी में भाषण करने की। तीन दिनों तक रेलगाड़ी में स्वाध्याय करके आपके सामने भाषण करने का निश्चय किया। मेरी मातृभाषा यह नहीं है और लिपी भी अपरिचित होने के कारण हमारे परमपूज्य स्वामी परमानंद जी मेरा भाषण पढ़कर सुनाएंगे। जो मेरे बिरादरी के भी हैं और मैं उनको पिता समान, गुरू समान मानता हूं। मेरे परमपूज्य खासेराव जाधव वह भी यहां तक आए हुये हैं, यह देखकर मुझे दोगुना आनंद हो रहा है। आपकी सेवा करने की मुझे शक्ति मिली है उसके लिए ईश्वर से प्रार्थना करता हूं। आगे आपकी जैसी आज्ञा मिले वैसी सेवा करने के लिए मैं तैयार हूं।
मैं और एक विषय पर बात करने वाला हूं। इस विषय पर बात करने का यह स्थान नहीं है, परन्तु आपको आसपास क्या चल रहा है, उसपर आंखों पर पट्टी बांध लेना नहीं है। आजकल जो बखेड़ा चल रहा है वो मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। अंग्रेज सरकार ने हमें विद्या का दान नहीं दिया होता तो यह झगड़ा कभी होता ही नहीं। सरकार विद्यारूपी ज्ञान हमें दे और उसके बदले हम उन्हें जहर खिलाएं, यह विसंगतपूर्ण व्यवहार नहीं है क्या? जिसने हमें विद्या का अमृत पिलाया, वो हमें परतंत्रता की बेड़ी से निसंदेह रिहा करेंगे; आपको जो चाहिए वह जिस प्रकार बच्चा अपने माता-पिता से मांग लेता है, उस प्रकार प्रेम से और जोर से सरकार से मांगो, वह जरूर देंगे। मुझे पूरा विश्वास है जो काम प्यार से होगा वह जोर-जबरदस्ती से कभी नहीं होता।
भारतवर्ष के प्रत्येक प्रांत में प्रगति होते हुए दिखाई दे रही है, यह बड़ी खुशी की बात है। हिंदुस्तान के प्रत्येक प्रांत में दिनों-दिन जाति सभा और धार्मिक समारोह अधिकाधिक होने लगी है। आजकल जितनी धार्मिक समारोह और जाति सभायें हैं, उसकी तरफ मैं बहुत ही आशावादी दृष्टिकोण से देख रहा हूं, उसकी उत्तरोत्तर प्रगति हो ऐसी मन से आशा कर रहा हूं। क्योंकि उसके द्वारा शिक्षण, सामाजिक सुधार, धर्म प्रचार, इस प्रकार की परोपकारी बातें हो गई हैं, हो रही हैं। आगे भी इन सभाओं का ध्येय ऊंचा रहा तो और भी उन्नति हो सकती है, ऐसा मुझे विश्वास है। इस जागृति का कारण क्या? इस प्रश्न‌ पर विचार करने से तीन महत्त्वपूर्ण कारण सामने दिखाई देगे; पहला और महत्त्वपूर्ण कारण यह कि ब्रिटिश सरकार राज्य, दूसरा अंग्रेजी शिक्षण और तीसरा धार्मिक आचार्यों का धर्म प्रचार।

भारतवासियों को यह याद रखना चाहिए कि इस ब्रिटिश सरकार के उपकार को न भूलते हुए आपको सदैव राजनिष्ठ रहना चाहिए। उसी प्रकार धार्मिक आचार्यों के उपकार भी नहीं भूलने चाहिए। विशेषकर जिन्होंने धार्मिक स्वराज्य देकर प्रजा को धार्मिक दासत्व से मुक्त कर दिया है, उस महर्षि दयानंद सरस्वती को भूलना मत।

अंग्रेजी शिक्षा से भारतीयों को तीसरी आंख आ गई है। यह कितना बड़ा फायदा है देखो! पहले हम कौन थे, हमारी क्या स्थिति थी, अब क्या स्थिति है, आगे क्या स्थिति होगी; ऐसी बातों का ज्ञान हो रहा है, यह बड़ी खुशी की बात है। भारतवर्ष में जो सभा, देश, जाति, धर्म, समाज-सुधारना आदि कार्य कर रहे हैं उसके लिए मेरी तहे दिल से सहानुभूति है। इन सब कार्य में मैं भाग लेता हूं इसी भावना से मैं इस सभा में आया हूं। अब विशेष कुछ न बोलते हुए अपने मुख्य विषय की तरफ आता हूं। हम जिस देश में रह रहे हैं उसका नाम आर्यावर्त्त है। इसे आर्यावर्त्त बोलने का कारण यह है कि पहले यहां आर्य लोग बसते थे। इस देश में रहने वाले लोगों को आर्य कहा जाता था। आर्यों का मूलस्थान तिबेट (त्रिविष्टप, तिब्बत) था। आर्य प्रथम दो वर्ण के थे; एक आर्यवर्ण, दूसरा दस्युवर्ण। यह सब एक ही माता-पिता की संतान थे।
आर्यों का गुण-कर्म-स्वभाव स्वीकार करते हुए कोई भी आर्य बन सकता था। और दस्यु के गुण-कर्म-स्वभाव स्वीकार करते हुए कोई भी दस्यु बन सकता था। आर्यो के कार्यों का विस्तार जिस प्रकार बढ़ने लगा वैसे कार्य करने के लिए चार वर्णों की स्थापना हुई। 'निरुक्त' में वर्ण का अर्थ इस प्रकार दिया है- 'वर्णो वृणोति'। "धर्माचरण से निचला वर्ण ऊपर के वर्ण में जा सकता है, वैसे ही ऊपर का वर्ण अधर्म के आचरण से नीचे के वर्ण में जाता है। वैदिक काल से महाभारत काल तक यही मर्यादा रही है।"

सभी वेदों को समझने के बाद अध्ययन करना; दूसरे को सिखाना; यज्ञ करना और कराना; दान देना और दान लेना यह ब्राह्मण का कर्म है। "शांति, तप, अंदर और बाहर से स्वच्छ रहना, क्षमा, ज्ञान, विज्ञान (ईश्वर, जीव, प्रकृति का ज्ञान), आस्तिक भाव यह ब्राह्मण का कर्म है।"
"प्रजा की रक्षा करना, प्रजा की रक्षा के लिए दान देना, यज्ञ करना, वेदों का पठन करना, युद्ध करना, युद्ध में चतुर रहना, न फंसना, युद्ध में पीठ न दिखाना, निर्भय होकर रहना, धैर्यवान् होना, विषयों में नहीं रमण होना, प्रजा के हित के लिए सर्वस्व न्यौछावर करना, ईश्वर पर विश्वास रखना यह क्षत्रिय का स्वाभाविक कर्तव्य है।"
"जानवरों को पालना और उसकी रक्षा करना, दान देना, यज्ञ कर्म करना, वेदों का सांगोपांग अध्ययन करना, देश-विदेश जाकर व्यापार करना, खेती करना यह वैश्य का कर्त्तव्य है।"
"शिल्प कला का ज्ञान अर्जित करना और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इनके काम में मदद करना यह शूद्र का कर्त्तव्य है।"

वैदिक काल में इस प्रकार स्वतंत्रता थी की जो कोई जिस वर्ण का काम करेगा उस वर्ण में उसे शामिल किया जाता था। वेद आदि शास्त्रों का अध्ययन करना प्रत्येक स्त्री-पुरुष का अधिकार रहता था। वैदिक काल में हर वर्ग के ऋषि हुए है। जब तक स्त्रियां मंत्र पठन किया करती थीं, तब तक यह आर्यावर्त्त एक स्वर्ग के समान था। 'स्त्रियां और शूद्रों को वेद को पढ़ना नहीं है' ऐसी कपोलकल्पित श्रुति का आवाज आकाश से नहीं आता था। उस समय शूद्रों ने वेद सुने तो उसके कान में सीसा पिघला कर डाला नहीं जाता था। जिस समय से वर्ण व्यवस्था वंश परंपरागत पंजीकृत हुई तब से एक वर्ण के मनुष्य को दूसरे वर्ण के मनुष्य का काम करना कठिन होने लगा और अपने वर्ण का कर्त्तव्य करने से धीरे-धीरे विमुख होने लगे। समाज की व्यवस्था बिगड़ने लगी। आखिर में जो वर्ण व्यवस्था गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित थी वह जन्म पर होकर रह गई। इस प्रकार इन नियमों के विरुद्ध कोई आवाज उठाने की हिम्मत न करें इसलिए श्रुति में मिलावट की गई। यानी वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित है यानि मां-बाप ब्राह्मण हैं तो उसे ही ब्राह्मण कहे। दूसरे किसी को बिल्कुल ब्राह्मण समझना नहीं है। वैसे ही जिसके मां-बाप क्षत्रिय हैं वही क्षत्रिय, फिर उसमें वह क्षत्रिय गुण हो या न हो। जिसके मां-बाप वैश्य वही वैश्य। जिसके मां-बाप शूद्र वही शूद्र, फिर उसमें कितनी भी उच्च गुणवत्ता हो‌। जो पुराने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य गुण-कर्म-स्वभाव से श्रेष्ठ बनकर जन्म अभिमान से ग्रसित होने लगे वैसे-वैसे दूसरे मनुष्य का ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य होना समाप्त हो गया। इस प्रकार हिंदू की अधोगति हो गई। वह इतिहास पाठक पूरी तरह जानते हैं। इस समय वह चार वर्ण से पांच हजार जातियों में बदल गया। इसके कारण हिंदू बलहीन होने लगा। हर एक जाति दूसरे जाति से खाना-पीना करते नहीं है, विवाह संबंध भी नहीं करते। एक जाति पर जुल्म होने लगा तो दूसरे जाति वाले सिर्फ देखते रहते हैं, उनको जरा भी दया नहीं आती। सच कहूं तो मनुष्य प्राणी की एक ही जाति है। जाति के लक्षण शास्त्रकारों ने इस प्रकार लिखे हैं- "जिसमें समान भाव, समान आकृति और समान उत्पत्ति है; उसे ही एक जाति समझना चाहिए।" इसी प्रकार व्याकरण शास्त्र में भी लिखा हुआ है कि जिसकी आकृति समान उसकी जाति एक; जैसे गाय, घोड़ा, हाथी, पिप्पल इत्यादि।
आज हिंदू लोगों की धारणा है कि हिंदुस्तान के अलावा और कहीं वर्णव्यवस्था नहीं है। यह हमारा भ्रम है। ऐतिहासिक जगत इसके बिल्कुल उल्टा है। हमारी तरह ही दूसरे भी आर्य वंशज हैं। हमारी तरह ही दूसरे देशों में भी वर्ण व्यवस्था है। हमारे और उनमें फर्क सिर्फ इतना है कि दूसरे देशों में वर्ण व्यवस्था गुण-कर्म पर आधारित है, पर हमारे यहां वह जन्म पर आधारित है। उनके यहां वर्णों का परिवर्तन इसी जन्म में होता है, पर हमारे यहां जन्म-जन्मान्तरों बाद भी परिवर्तन नहीं होता। यह सिर्फ रूढ़िवाद के कारण हुआ है। वेदादि शास्त्र तो इससे बिल्कुल उलट हैं। मनुस्मृति में लिखा है कि "क्षत्रियों के वंश में उपनयन संस्कार का लोप होने के कारण और ब्राह्मणों में सिर्फ देखने भर से संस्कारहीन हो जाता है, उनको क्या दोष देना?"
पौण्ड्र, चौण्ड्र, द्रविड़, कंबोज, यवन, शक, पारद, पह्लव, चीना, किरात, दाद इत्यादि का ब्राह्मणादि वर्ण संस्कार का लोप होने के कारण वह संस्कारहीन हो गये। दूसरे देशों में दूसरे जाति के नाम से पहचाने जाने लगे। इनमें से कुछ म्लेच्छ और कुछ आर्य भाषा बोलते थे। उन सबको दस्यु कहने लगे। केवल अन्य जातियों में वेदोक्त संस्कार का लोप होने के कारण ही नहीं, ब्राह्मणों की अज्ञानता और अत्याचार के कारण भी म्लेच्छ जाति उत्पन्न हो गई।
विष्णु पुराण के चौथे अध्याय में लिखा है कि त्रिशंकु के वंश में बाहु नाम का राजा हो कर गया। वो हह्य, ताल, जंघादि क्षत्रियों से हार कर अपने रानी के साथ जंगल में चला गया । आगे कुछ दिन बाद वह मर गया। तब वह रानी उसी के साथ सती जाने लगी। वह गर्भवती होने के कारण ऋषि ने उसे सती जाने से रोक दिया और कहा "हे रानी तेरे पेट से पराक्रमी पुत्र जन्म लेगा, वह सब क्षत्रियों का नाश करेगा।" रानी ने सती जाने का इरादा छोड़ वह ऋषि के आश्रम में रहने लगी। उस ऋषि का नाम था वशिष्ठ। आगे उसे पुत्र हुआ। उसका नाम सगर रखा। ऋषि ने उसे शस्त्र विद्या सिखाई। सगर बड़ा होने के बाद मां से उसे पूरी हकीकत पता चली। तब वह क्षत्रियों से युद्ध करने के लिए निकल पड़ा, और क्षत्रियों को जर्जर करके छोड़ा। उसके कारण सब क्षत्रिय वशिष्ठ जी को शरण गये। तब ऋषि वशिष्ठ जी ने सगर से कहा 'हे पुत्र, अब इन क्षत्रियों को मत मारो। मैंने इन क्षत्रियों को द्विजत्व से और धर्म से अलग कर दिया है। इनके जीते जी मार दिया हूँ। यह अब जीवित मुर्दे हैं, और सगर ने इन क्षत्रियों का वंश (वर्ण) परिवर्तन कर दिया। बहुत से लोगों की शिखा काट दी इनको 'यवन ' यह नाम दिया। इसके साथ ही वेदादि शास्त्र को पढ़ने का अधिकार भी छीन लिया। क्षत्रिय धर्म से उनको निकाल बाहर कर दिया। इसी प्रकार परशुराम के अत्याचार के कारण भी बहुत से क्षत्रिय, क्षत्रिय वर्ण से पृथक होकर दूसरी जातियां बन गईं।
हमारे इस देश में हजारों जातियां बन गई। वैसे ही किसी प्रकार की समय हमारी भी जाति क्षत्रिय से पृथक हो गई होगी। इस प्रकार इस जगत में ऐतिहासिक काल में कितनी बार परिवर्तन हो गया है, हो रहा है और आगे भी होता रहेगा। यह नैसर्गिक नियम है। महाभारत काल तक यहां के क्षत्रियों का विवाह दूसरे देश के क्षत्रियों से होते रहते थे। 'महाभारत' ग्रंथ में यह दिखाई देता है। अर्जुन का विवाह उलूपी के साथ, धृतराष्ट्र का विवाह गांधारी के साथ ऐसे हो चुके हैं। महाभारत के पूर्व भी कई राजाओं का विवाह सम्बंध दूसरे देश के राजाओं के साथ हुआ है, ऐसा इतिहास बताता है।

अब आगे विशेष कुछ न कहते हुए अपने विषय के संबंध में दो शब्द कहने हैं। अगर तुम अपने दिल से क्षत्रिय धर्म स्वीकार करना चाहते हैं तो आपका मैं तहे दिल से स्वागत करता हूं। आप क्षत्रिय बन चुके हैं। क्षत्रिय गुण-कर्म-स्वभाव का स्वीकार कीजिये। अपने देश के दुःखी प्रजा के रक्षा के लिए तैयार हों। आपको क्षत्रिय होने से वेदादि शास्त्रों की तरफ से अधिकार है। परमेश्वर ने आपको साधन भी उपलब्ध करवा दिए हैं। मुझे लगता है हर एक मनुष्य चार वर्ण की योग्यता प्राप्त कर लेगा तब देश में सुधार होगा। परंतु हमें एक बात याद रखनी चाहिए, वो वह कि यह विद्या का समय है। सबके अंतःकरण में ज्ञान का प्रकाश पड़ा है। सिर्फ जन्म से क्षत्रिय और ब्राह्मण हुए लोगों का अब कोई अदर नहीं करेगा। आप गुण-कर्म से क्षत्रिय बनो। सिर्फ नाम के क्षत्रिय की कतार में आपका नाम लगवाकर क्षत्रियों का भरना मत करना। इसी तरह हम क्षत्रिय थे, हमने अमुक वंश में जन्म लिया वगैरा-वगैरा ऐसे वितंडावाद में मत पड़ना। आपका किसी के साथ संबंध हो या न हो यह कोई उन्नति करने का मार्ग नहीं है। जनगणना रिपोर्ट के अधिकारी और दूसरे कोई भी आपको कुछ भी कहें, उसकी चिंता मत करना। आपकी जाति में वेदोक्त संस्कार, वेदोक्त कर्म का प्रसार और सदाचार की वृद्धि करना। अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दो, असहाय और गरीब भाई-बन्धु की मदद करो। 
कुर्मी क्षत्रिय समाज में विधवा विवाह प्रचलित हुआ देख मुझे बहुत ही खुशी हो रही है। हमारी क्षत्रिय जाति भ्रूणहत्या, व्यभिचार इन पापों से सुरक्षित रहेगा ऐसा मेरा विश्वास है। यह हमारा अपना धर्म है। मनुष्य समाज को निर्दोष करने के लिए है। वेदादि शास्त्रों का हमें आधार है। हमारी सरकार ने भी विधवा विवाह का कायदा पास कर दिया है। जिस जाति में धर्म का प्रचार नहीं उस जाति में भ्रूणहत्या, व्यभिचार आदि पाप हो रहे हैं। हजारों बच्चे प्रत्येक वर्ष मर रहे हैं। यह कितनी दुःख की बात है!
भारतवासी लोक उन्नति के तीन मुख्य साधन समझते हैं। पहला परदा , दूसरा विवाह निषेध और तीसरा किसी के साथ मिलकर भोजन न करना।
क्या आश्चर्य है! कोल्हापुर राज्य संस्थापक महारानी ताराबाई, महारानी सती अहिल्याबाई, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, महारानी कमलाबाई आदि क्षत्रिय स्त्रियों ने राज्य का रथ चलाया है। युद्ध के मैदान में जाकर शत्रुओं के साथ लड़ाई की है। यह सब काम परदे के पीछे रहकर केवल असंभव होता। आज भी परदा कि प्रथा सब देश में नहीं है। महाराष्ट्र, मद्रास, गुजरात वगैरा प्रांत में परदा बिल्कुल नहीं है। दूसरे प्रांत में कुछ थोड़े जातियों में ही परदा है। परदा प्रथा के कारण स्त्रियों में वीरता के गुणों का सर्वथा नाश हो जाता है। हमारी आजीविका विशेषकर कृषि कर्म पर आधारित थी, यह सुनकर मुझे बड़ा आनन्द हो रहा है। कृषि कर्म इतना पवित्र है कि वैदिक काल में, साल में एक बार चक्रवर्ती राजा और उनके मंत्री कृषि कर्म को प्रोत्साहित करने के लिए खुद हल चलाते थे। जिस कार्य में भूमी में एक दाना बोने से हजारों दाने मिलते हैं और जिस कृषि कर्म पर सारी मनुष्य जाति अपनी जीविका करती है, तो कृषि कर्महीन अथवा बुरा है ऐसा मैं बिल्कुल नहीं मानता। मैं मेरे युवराज को कृषि विद्या पढ़ाने के लिए विलायत और अलाहाबाद के कृषि स्कूल में भेजा था। आप तो जानते ही हैं कि कृषि कर्म से दोहरा उत्पन्न मिलता है। मनुष्य खुद सुखी होकर सभी मनुष्य जाति को भी सुख देता है। कृषि कर्म का संबंध पशुपालन और उनकी रक्षा से भी आता है। इसके लिए पशुपालन के संबंध में बहुत-से काम करना बाकी हैं। दूध, घी वगैरह से यह देश समृद्ध होना चाहिए।
कृषि कर्म करके क्षत्रियों के तेज को बाधा उत्पन्न होती है ऐसी कोई बात नहीं। जिस कर्म से मनुष्य समाज सुव्यवस्था और उन्नति की ओर बढ़ती हो वह कर्म नीच है यह समझना मुझे बिल्कुल रास नहीं आता। यूरोप में किसानों को प्रतिष्ठित समझा जाता है। वहां के किसान राज्य सरकार के उच्च स्तर पर नौकरी करते हैं। वैसे ही उधर शिल्पकला करने वाले लोगों की बड़ी प्रतिष्ठा है। जो आज चर्मकार या भंगी है उनको नीच ऐसा कहने का साहस किसी में नहीं है। उसका कारण यह है कि शिल्पकला सर्वथा उनके ही हाथों में होती है। यहां निर्धन और अज्ञानी लोग के रहते शिल्पकला का सुधार कैसे होगा? सुशिक्षित बी०ए०, एम०ए० हुए लोग यह काम डर के कारण हाथ में लेते नहीं है, क्योंकि हमको शूद्र कहा जाएगा, हमें निची जाति का समझा जाएगा। इस प्रकार से देश का ऐश्वर्य कैसे बढ़ेगा? ऐश्वर्य के बिना देश की उन्नति कैसे होगी?

हे परमेश्वर! हमारे देश के लोगों को सद्बुद्धि देकर उनके अंतःकरण में ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न हो, हम सब मनुष्य सद्गुणी, चिरायु होकर भाईचारे से रहें। दूसरे का दुःख वह अपना दुःख, दूसरे का सुख वही हमारा सुख ऐसा विचार मन में उमड़े। सब लोग मिलकर शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति कर सारे संसार को स्वर्ग बनायेंगे। अंत में कुर्मी क्षत्रियों को धन्यवाद देकर हमारी मनोकामना पूरी करो और हमारी जाति की सभा की दिनों-दिन बढ़ती होवे, ऐसी ईश्वर से प्रार्थना करता हूं।

____________________

[1] राजर्षि शाहू महाराज [जन्म- २६ जून १८७४ ; मृत्यु- ६ मई १९२२] कोल्हापुर नरेश थे। आप वीर छत्रपति शिवाजी के वंशज थे। आप पहले सत्यशोधक समाज के समर्थक थे, लेकिन आर्यसमाज के विचारों से आप इतने प्रभावित हुए कि सन् १९१८ में आपने कोल्हापुर में एक आर्यसमाज मन्दिर भी बनवाया था। आर्यसमाज के प्रचार में आप सदा अग्रणी रहते थे। आपने अपना प्रेरणास्त्रोत स्वामी दयानन्द सरस्वती जी को बताया है। आपके भाषण विचारोत्तेजक होते थे, जिसे सुन श्रोताओं में एक नई ऊर्जा का संचार होता था। निचली जातियों को रोजगार प्रदान करने के लिए सन् १९०६ में आपने 'शाहू छत्रपति बुनाई' और 'स्पिनिंग मिल' शुरू की। डॉ० अम्बेडकर के जीवन-निर्माण में आपका अप्रतिम योगदान है।

[2] निरुक्तकार ने 'वर्णो वृणोति' [२/१/४] के सिद्धान्त की घोषणा करके मनुष्यों को उसके गुण-कर्मानुसार चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र में यथायोग्य वरण होने का अधिकार दिया। इन चार वर्णों में तप, शौच, सत्य, दान, पवित्र, वेदाध्ययन से युक्त, यज्ञकर्त्ता, ज्ञान-विज्ञान में रुचि और निष्कलंक व्यक्ति को ब्राह्मण [ऋ० ७/५६/८, ता० १५/४/८, गीता १८/४२]; बलशाली, यज्ञकर्त्ता, राज्य-व्यवस्था व प्रजा की रक्षा, दिव्यगुण-युक्त, पराक्रमी और दानी व्यक्ति को क्षत्रिय [ऋ० १०/६६/८, महाभारत शांति० १८९/५, गीता १८/४३]; कृषि, पशुपालन, व्यापार, वेदाध्ययन से युक्त और दानी को वैश्य [यजु० ९/४०, मनु० १/९०]; सर्वकर्मपरायण, वेदज्ञान-रहित, अनाचारी, मिथ्यावादी, लोभी, शिल्पकला और परिश्रम करके जीविका चलाने वाले को शूद्र [शतपथ० ३/६/२/१०, महाभारत शांति १८९/८, मनु० १०/१२०] कहा है। वर्ण-व्यवस्था में धर्म-आचरण करने वाला मनुष्य शूद्र से ब्राह्मण तक के वर्ण को और अधर्म-आचरण करने वाला मनुष्य ब्राह्मण से शूद्र तक के वर्ण को प्राप्त होता है [शूद्रो ब्राह्मणतामेति... मनु० ]। ऋषियों का यह पूर्ण विश्वास था कि मानव समाज के लिए इससे सुन्दर और न्यायपूर्ण व्यस्वथा अन्य नहीं हो सकती।

[3] महर्षि दयानन्द सरस्वती जी अपने पाखण्ड-खण्डिनी ग्रन्थ 'सत्यार्थप्रकाश' में लिखते हैं- "वेद पढ़ने-सुनने का अधिकार सब को है। देखो! गार्गी आदि स्त्रियां और छान्दोग्य में जनश्रुति शूद्र ने भी वेद 'रैक्यमुनि' के पास पढ़ा था और यजुर्वेद के २६वें अध्याय के दूसरे मन्त्र में स्पष्ट लिखा है कि वेदों के पढ़ने और सुनने का अधिकार मनुष्यमात्र को है।" [एकादश समुल्लास]
यहां ध्यातव्य है कि ऋग्वेद के ब्राह्मण 'ऐतरेय-ब्राह्मण' के रचयिता 'ऐतरेय' दासीपुत्र थे। कवष, ऐलूष आदि भी दासीपुत्र होने के बावजूद वेदमन्त्रों के प्रचारक हुए। इन प्रमाणों के विरुद्ध जाकर यह प्रचारित करना कि स्त्री या शूद्रों को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं है, मनुष्यजाति के पतन का कारण बना।

[4] न्यायदर्शन में आया है- “आकृतिर्जातिलिङ्गाख्या” [२/२/६७]। इसका अर्थ है कि जिससे जाति के चिन्ह प्रकट होते हैं, वह आकृति है अर्थात् आकृति ही जाति को बतलाती है; जैसे मनुष्य की आकृति को देखकर मनुष्य जाति का ज्ञान होता है और वह व्यक्ति के अंगों की बनावट और उसके स्वरूप से पहचानी जाती है।
जाति का लक्षण बतलाते हुए आगे सूत्रकार कहते हैं- “समानप्रसवात्मिका जाति:”।।६८।। अर्थात् जो भिन्न-भिन्न पदार्थों में समता का भाव है या जिनकी उत्पत्ति (बनावट) एक जैसी हो, वह जाति है और वह आकृति और बनावट की समता जानी जाती है।

•महर्षि पतञ्जलि ने अपने ग्रन्थ 'महाभाष्य' के चतुर्थ अध्याय, प्रथम पाद में जाति का लक्षण विस्तार से बताया है।

[5] महाभारत में पौण्ड्र, पह्लव, शक आदि जातियों के सम्बन्ध में वर्णन मिलता है कि ये लोग ब्राह्मणों के क्रोध से शूद्र हो गए।

Wednesday, May 20, 2020

आर्य समाज के दीवाने भजनोपदेशक पण्डित प्रकाशचन्द्र कविरत्न



आर्य समाज के दीवाने भजनोपदेशक----------

                     [पंडित प्रकाशचन्द्र कविरत्न] 

             आनंद स्त्रोत बह रहा, पर तू उदास है।
            अचरज है जल में रहकर भी मछली को प्यास है।
 
          फुलों में ज्यों सुवास ईख में मिठास है,
          भगवन् का त्यों विश्व के कण कण में वास है।। 1।।

         टुक ज्ञान चक्षु खोल के तू देख तो सही, 
         जिसको तू ढूंढता है, सदा तेरे पास है।। 2।।

         कुछ तो समय निकाल आत्म - शुद्धि के लिए, 
         नर जन्म का उद्देश्य न केवल विलास है।। 3।।

         आनंद मोक्ष का न पा सकेगा तब तलक, 
         तू जब तलक "प्रकाश" इन्द्रियों का दास है।। 4।।

काव्य, गायन तथा प्रभावशाली प्रवचन इन तीनों का संगम पं. प्रकाश चन्द्र कविरत्न में देखा गया। यह कल्पना करना भी कठिन था कि पौराणिक जगरातों तथा रामलीला में भाग लेनेवाला कोई युवक आर्य समाज के सम्पर्क में आकर अपने अवशिष्ट जीवन को वैदिक धर्म तथा आर्य संस्कृति के प्रचार प्रसार में लगा देगा। प्रकाश चन्द्र जी के जीवन में इस तथ्य को प्रत्यक्ष देखा गया। उत्कृष्ट कवि, गायक तथा प्रचारक पं. प्रकाशचन्द्र का जन्म आश्विन शुक्ल ९वि. सं. १९६० वि. (सन् १९०३) में अजमेर में हुआ। पिता पं. बिहारी लाल कट्टर पौराणिक थे। उनके संस्कार पुत्र दुर्गाप्रसाद (कवि का पूर्व नाम)  को मिले जो अपना अधिकांश समय पौराणिक भजन गायन में व्यय करता था। 

 यही युवक जब राजस्थान आर्य प्रतिनिधि सभा के महोपदेशक पं. रामसहाय शर्मा के सम्पर्क में आया तो आर्य समाज का समर्पित प्रचारक बन गया। जीविका निर्वाह के लिए भड़ौच (गुजरात) की एक मिल में लिपिक का कार्य किया, किन्तु १९१९ में घटित जलियांवाला बाग के अमानुषिक हत्याकांड ने उन्हें विचलित कर दिया। और वे नौकरी छोड़कर वैदिक धर्म तथा स्वदेश की सेवा में लग गए। गुजरात में रहते समय शुक्लतीर्थ के मेले में ईसाई प्रचारकों को ग्रामीण एवं भोले भाले हिंदुवों का धर्म परिवर्तन कर उन्हें ईसाइयत में प्रविष्ट कराने का क्रुर कृत्य जब उन्होने देखा तो वे अपना भावी जीवन आर्य समाज के लिए समर्पित करने का निश्चय कर बैठे। 

अजमेर में उन्हें कुं. चांदकरण शारदा तथा पं. जियालाल आदि आर्य नेताओं का मार्ग दर्शन मिलता रहा। सन् १९२५ में जब मथुरा में ऋषि दयानंद की जन्माशताब्दी समारोह का आयोजन हुआ तो प्रकाशचन्द्र ने अपना प्रसिद्ध भजन वहां गाया जिसके बोल थे ---

  "वेदों का डंका आलम में बजवा दिया ऋषि दयानंद ने"

  इस मार्मिक भजन को असाधारण लोकप्रियता मिली और जन जन के कंठ ये यह गुंजरीत होने लगा। प्रकाश चन्द्र जी ने १९३० के सत्याग्रह संग्राम में भाग लेकर जेल यात्रा की। साथ ही सर्वत्र भ्रमण कर आर्य भजनोपदेशक के रुप में वैदिक धर्म का प्रचार करते रहे। 

दैव दुर्विचार से पं. प्रकाशचन्द्र वात रोग से ग्रस्त होकर प्राय: विकलांग हो गए तथापि धर्म प्रचार से विरत नहीं हुए। परोपकारिणी सभा द्वारा आयोजित ऋषि मेेले में आपका सार्वजनिक अभिनन्दन किया गया। शाहपुरा के विगत नरेश राजाधिराज सुदर्शन देवजी की अध्यक्षता में आयोजित इस समारोह में कविरत्न जी को अभिनन्दन ग्रंथ अर्पित किया गया। ११दिसम्बर १९७७ को अजमेर में उनका निधन हो गया। 

 कविरत्न जी कविता कामिनी कांत पं. नाथूराम शंकर शर्मा को अपना काव्य गुरु मानते थे। उनके प्रति काव्य प्रसून अर्पित करते हुए उन्होने लिखा था ---

 शंकर सरोज सुललित मृदु मकरंद 
 पान जिसने भी किया वो निहाल हो गया। 
 अनुराग रस की अनूप आभा अवलोक 
 अनुराग से विभोर अंतराल हो गया 
 गुरुदेव शंकर की कृपा से मैं प्रकाश हुआ 
 आज जन गण मन मंजु मराल हो गया 
 अथवा यूं कहूं कबीर के वचन भांति 
 लाली देखत चला था, मैं भी लाल हो गया 

  श्रेष्ठ संगीतज्ञ तथा गायक होने के साथ पं. प्रकाशचन्द्र उत्कृष्ट कवि भी थे। उनकी स्फुट रचनाएं प्रकाश भजनावली (५भाग) , प्रकाश भजन सत्संगी, प्रकाश गीत (४भाग) , प्रकाश तरंगिणि आदि शीर्षकों से छपी हैं। उन्होने स्वामी दयानंद के जीवन को चित्रित करते हुए दयानंद प्रकाश शीर्षक महाकाव्य लिखा जिसका पूर्वार्ध १९७१ में छपा। उनके जिन शिष्यों ने भजनोपदेशक के रुप में प्रशंसनीय कार्य किया उनमें पं. पन्नालाल पीयूष, श्री भद्रपाल सिंह, तथा त्रिलोकचंद राघव (चतुर्थाश्रम में स्वरुपानन्द सरस्वती) आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। 

      आपके रचित कतिपय भजन अधोलिखित है। 

                         "दयानंद -महिमा"

                 थे न मंदिर, हाट बाट ठाट। 
            सोना चांदी कहां पास पैसा था न धेला था। 
            तन पै न थे सुवस्त्र, हाथ थे न अस्त्र शस्त्र। 
            जोगी न जमात कोई चेली न चेला था। 
            सत्य की सिरोही से संहारे सब असत् मत। 
            संकट विकट मरदानगी से झेला था। 
            सारी दुनिया के लोग एक ओर थे। 
           "प्रकाश" एक ओर निर्भय दयानंद अकेला था।। 

            आपका एक भजन बेहद ही प्यारा है

                  "पहचान ना पाया मैं तुमको"

लेखक :- डॉ. भवानीलाल भारतीय 
पुस्तक :- आर्य भजनोपदेशक व्यक्तित्व एवं कृतित्व 
प्रस्तोता :- अमित सिवाहा

Tuesday, May 19, 2020

Refutation of Sita's Agni-Pariksha



Refutation of Sita's Agni-Pariksha

-Priyanshu Seth

Sita, the central character of the epic Ramayana is one of the most defining role model for womanhood in the world. The Ramayana describes that Sita had virtuousness, conscientiousness, delightful, adventuress, skilled in household works all these excellent qualities. But the episode of the Sita's Agni-Pariksha (Test by Fire) is marked as a disputed context in the Ramayana. This incident is mentioned in sargas 115 to 118 of the Yuddhakanda. According to this reference, after defeating Ravana in the war, Ram had taken Sita's Agni-Pariksha for accepting her. To accepting Sita it has been said by Ram that "your chastity has come under suspicion. Which man born in a noble family will take back a woman who had lived in another man's house?... I cannot take you back. I have no more any affection for you; you may go wherever you wish (115/17-21)". Sita then asks Lakshmana to light a fire and enters it, calling upon Agni, the God of fire, to vouch for her purity by protecting her (116/18-25). Sarga 117/6,9 says that the Gods remonstrated with Ram for rejecting Sita. Sarga 118/5-22 describes Agni deva coming out from the fire with Sita and praised her purity. Ram accepts Sita, saying that he had never doubt on Sita's purity and the Agni-Pariksha were ensured only in order to convince the men of the world at large of Sita's purity who might otherwise say that Ram accepted Sita out of pure lust.
This is the same context which have been the basis of criticisms on Ram & Sita by anti-religions. Let us review this. There are some question to consider to all antagonists and fake propagandists-

1. Firstly, we should see the character of Shri Ram in the Ramayana. We will get that he was so peaceful nature (Bala-Kanda 1/12-16). He was 'dharmajna', well versed in all the shastras, was always sweet-spoken and never got angry, not even when spoken to harshly. While in the Agni-Pariksha chapter, Ram appears to speak and act very harshly. Was it really Ram who was saying such things and acting so harshly? Based on this point how can we assume that Ram said disagreeable & obnoxious words to Sita which had constrained her to do the Agni-pravesh and prove her chastity?

2. The mutual love between Ram and Sita was so great that each could read the other's innermost heart. He loved her so much that he could never leave her behind or abandon her. Ram is full of praise not only for Sita's family, but for Sita herself, and says that she is dearer to him than life itself. Valmiki also declares that Sita was dearer to Ram than life itself (Aranyakanda 10/21 says that Sita was "pranebhyo api gariyasi" for Ram). Can it be accepted by seeing this mutual love between Ram and Sita that Ram will have be taken any examination for accepting Sita?

3. In the sarga 60/11-22 of the Aranyakanda are almost entirely on Ram's distressed lament at his separation from Sita when she was aducted by Ravana. His agony was so great that it drove him to near madness and he went about in the forest asking the trees and flowers for news of Sita. He also said that I shall rid the world of rakshasas (64/65). Even in Yuddhakanda (4/6), Ram had declared, "I shall kill Ravana and bring Sita back". Tell me when Ram knew that he has to liberate Sita from Ravana, so why did Ram say to give the Agni-Pariksha to Sita? Why would he talk about separation from her? If Ram wanted to take Sita's examination, why did he waged the war against Ravana?

4. A clue may be found in Rama's specifically instructing Vibhishana to bring Sita to his presence after she was bathed and anointed and decorated with ornaments etc. Like any one eager to meet a loved one after a long separation, she wanted to go and see her husband immediately, as she was, unbathed and unadorned, her hair unbraided, and dressed only in the well-worn and soiled dress that she was then wearing. She said to Vibhishana, 'I want to meet my husband without bathing (adornment)'. But he insisted that she should follow her husband's instructions (Yuddhakanda 114/7-11). How could Ram say like this while he also wanted to meet Sita after a long separation?

5. Lakshmana made line by fire on gestured by Ram, as it has come in the Yuddhakanda (116/21). But the Kishkindhakanda (6/22) says that Lakshmana worships of Sita every day. The Ramayana (Ayodhyakanda 40/9; Sundara-Kanda 38/57) declared that Sita is similar to mother for Lakshmana. With this proof how is this possible to draw the fire-line by Lakshmana for his mother?

6. When Ravana tries to touch Sita, she says, "If you are a jackal then I am a lioness, I'm always rare for you. Yet do you have courage to get me? Like no one can touch the effulgence of the sun, Similarly you can not touch me (Aranyakanda 47/37)." This proves Sita's chastity. I would like to give one more proof in my favour. Hanuman has said to Sita after reached in Lanka that "You sit on my back, I'll free your sadness from Rakshasas today." Sita says in its reply- "Keeping the husband's devotion, I do not want to touch the body of any another person other than Shri Ram (Sundara-Kanda 37/21 & 62)".
Every allegations which was supporting Sita's Agni-Pariksha becomes dashed in front of this predominent proof. When it has come clearly in Sundara-Kanda that Sita was only devoted to her husband, so what would be the big and other proof in her chastity?

Also it is impossible to accept Agni-Pariksha with scientific vision. The above analysis shows that the agni-pravesha episode is a biggest myth i.e. interpolation, with justification and in a manner consistent with the rest of the Ramayana.

ऋषि दयानन्द का इतिहास विषयक चिन्तन



ऋषि दयानन्द का इतिहास विषयक चिन्तन

प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ

ऋषि दयानन्द योगी, पण्डित, ब्रह्मचारी, समाजसुधारक, न्यायप्रिय आदि होने के साथ ही इतिहास के एक कुशल चिन्तक भी थे। उन्होंने अपने ग्रन्थों में मात्र वेदकाल का निर्णय ही नहीं स्थापित किया अपितु आर्यावर्तीय चक्रवर्ती राजाओं की शासनसारिणी भी यथाक्रम प्रकाशित की है। प्यारे पाठक! यदि तुम ऋषि दयानन्द के इतिहास विषयक चिन्तन पर दृष्टिपात करो, तो तुम आर्यवार्त्त के इतिहास की यथार्थता से भलीभांति परिचित होगे। इसलिए पक्षपातरहित होकर इस लेख को पढ़ो और अपने इतिहास विषयक ज्ञान का उपार्जन करो।

१. प्रश्न- जगत् की उत्पत्ति में कितना समय व्यतीत हुआ?
उत्तर- एक अर्ब, छानवें क्रोड़, कई लाख कई सहस्र वर्ष (आज तक के हिसाब से १९७२९४९०६३ वर्ष) जगत् की उत्पत्ति और वेदों के प्रकाश होने में हुए हैं। इसका स्पष्ट व्याख्यान मेरी बनाई भूमिका (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में लिखा है देख लीजिये। स०प्र० ८ समुल्लास)

२. प्रश्न- जिन वेदों का इस लोक में प्रकाश है उन्हीं का उन लोकों में भी प्रकाश है वा नहीं?
उत्तर- उन्हीं का है। जैसे एक राजा की राज्यव्यवस्था नीति सब देशों में समान होती है उसी प्रकार परमात्मा राजराजेश्वर की वेदोक्त नीति अपने-अपने सृष्टिरूप सब राज्य में एक सी है। (सत्यार्थप्रकाश ८ समु०)

३. प्रश्न- किसी देशभाषा में वेदों का प्रकाश न करके संस्कृत (वैदिक संस्कृत) में क्यों किया?
उत्तर- जो किसी देशभाषा में प्रकाश करता तो ईश्वर पक्षपाती हो जाता। क्योंकि जिस देश की भाषा में प्रकाश करता उनको सुगमता और विदेशियों को कठिनता वेदों के पढ़ने-पढ़ाने की होती। इसलिये संस्कृत (वैदिक संस्कृत) में ही प्रकाश किया; जो किसी देश की भाषा नहीं। और वेदभाषा अन्य सब भाषाओं का कारण है। उसी में वेदों का प्रकाश किया। (सत्यार्थप्रकाश ७ समु०)

४. जो कोई यह कहते हैं कि वेदों को व्यास जी ने इकट्ठे किये यह बात झूठी है क्योंकि व्यास जी के पिता, पितामह, प्रपितामह, पराशर, शक्ति वशिष्ठ और ब्रह्मा आदि ने भी चारों वेद पढ़े थे। यह बात क्योंकर घट सके? (सत्यार्थप्रकाश ११ समुल्लास)

५. जो कोई ऋषियों को मन्त्रकर्त्ता बतलावें उन को मिथ्यावादी समझें। वे तो मन्त्रों के अर्थप्रकाशक हैं। (स०प्र० ७ समु०)

६. यथा ब्राह्मणग्रन्थेषु मनुष्याणां नामलेखपूर्वका लौकिका इतिहासाः सन्ति न चैवं मन्त्रभागे। ...अतोऽनात्र मन्त्रभागे इतिहासलेशोऽप्यस्तीत्यवगन्तव्यम्। अतो यश्च सायणाचार्यादिभिर्वेदप्रकाशादिषु यत्र कुत्रेतिहासवर्णनं कृतं तद् भ्रममूलमस्तीति मन्तव्यम्। (ऋग्वेदभाष्य भू० वेदसंज्ञा प्रकरण)

७. अब जो वेदादि सत्यशास्त्र और ब्रह्मा से लेकर जैमिनी-मुनि पर्यन्तों के माने हुये ईश्वरादि पदार्थ हैं जिनको मैं भी मानता हूं सब सज्जन महाशयों के सामने प्रकाशित करता हूं। (स्वमन्त० प्रकाश)

८. प्रश्न- मनुष्यों की आदि सृष्टि किस स्थल में हुई?
उत्तर- त्रिविष्टप अर्थात् जिसको ‘तिब्बत’ कहते हैं।
प्रश्न- आदि सृष्टि में एक जाति थी वा अनेक?
उत्तर- एक मनुष्य जाति थी। पश्चात् "विजानीह्यार्यान्ये च दस्यवः" यह ऋग्वेद (१/५१/८) का वचन है। (इस नियम के अनुसार) श्रेष्ठों का नाम आर्य, विद्वान् देव और दुष्टों के दस्यु अर्थात् डाकू, मूर्ख नाम होने से आर्य और दस्यु दो नाम हुए। (स०प्र० ८ समु०)

९. प्रश्न- प्रथम इस देश का नाम क्या था और इस में कौन बसते थे?
उत्तर- इसके पूर्व इस देश का नाम कोई भी नहीं था और न कोई आर्यों के पूर्व इस देश में बसते थे क्योंकि आर्य लोग सृष्टि के आदि में कुछ काल के पश्चात् तिब्बत से सूधे इसी देश में आकर बसे थे।
प्रश्न- कोई कहते हैं कि ये लोग ईरान से आये। इसी से इन लोगों का नाम आर्य हुआ है। इनके पूर्व यहां जंगली लोग बसते थे कि जिनको असुर और राक्षस कहते थे। आर्य लोग अपने को देवता बतलाते थे और उनका जब संग्राम हुआ उसका नाम देवासुर संग्राम कथाओं में ठहराया।
उत्तर- यह बात सर्वथा झूठ है। क्योंकि ...यह लिख चुके हैं कि आर्य नाम धार्मिक, विद्वान्, आप्त पुरुषों का और इनसे विपरीत जनों का नाम दस्यु अर्थात् डाकू, दुष्ट, अधार्मिक और अविद्वान् है। तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य-द्विजों का नाम आर्य और शूद्र का नाम अनार्य अर्थात् अनाड़ी है। ...दूसरे विदेशियों के कपोलकल्पित को बुद्धिमान् लोग कभी नहीं मान सकते। ...किसी संस्कृत ग्रन्थ में वा इतिहास में नहीं लिखा कि आर्य लोग ईरान से आये और यहां के जंगलियों को लड़कर, जय पाके, निकाल इस देश के राजा हुए। पुनः विदेशियों का लेख माननीय कैसे हो सकता है? (स०प्र० ८ समु०)

१०. अर्थात् इक्ष्वाकु से लेकर कौरव पाण्डव तक सर्व भूगोल में आर्यों का राज्य और वेदों का थोड़ा-थोड़ा प्रचार आर्यावर्त्त से भिन्न देशों में भी रहता था। इसमें यह प्रमाण है कि ब्रह्मा का पुत्र विराट्, विराट् का मनु, मनु का मरीच्यादि दश और उनके स्वायम्भुवादि सात राजा और उनके सन्तान इक्ष्वाकु आदि राजा जो आर्यावर्त्त के प्रथम राजा हुए जिन्होंने यह आर्यवर्त्त बसाया है। (स०प्र० ८ समु०)

११. जैसे यहां सुद्युम्न, भूरिद्युम्न, इन्द्रद्युम्न, कुवलयाश्व, यौवनाश्व, वद्ध्र्यश्व, अश्वपति, शशविन्दु, हरिश्चन्द्र, अम्बरीष, ननक्तु, शर्याति, ययाति, अनरण्य, अक्षसेन, मरुत्त और भरत सार्वभौम सब भूमि में प्रसिद्ध चक्रवर्ती राजाओं के नाम लिखे हैं वैसे स्वायम्भुवादि चक्रवर्ती राजाओं के नाम स्पष्ट मनुस्मृति, महाभारतादि ग्रन्थों में लिखे हैं। इस को मिथ्या करना अज्ञानी और पक्षपातियों का काम है।

१२. और श्रीमान् महाराज स्वायम्भुव मनु से लेके महाराज युधिष्ठिर पर्यन्त का इतिहास महाभारतादि में लिखा ही है और ...इन्द्रप्रस्थ में आर्य लोगों ने श्रीमन्महाराज यशपाल पर्यन्त राज्य किया, जिनमें श्रीमन्महाराजे 'युधिष्ठिर' से महाराजे 'यशपाल' तक वंश अर्थात् पीढ़ी अनुमान १२४ (एक सौ चौबीस) राजा,  वर्ष ४१५७, मास ९, दिन १४ समय में हुए हैं। इनका ब्यौरा- (स०प्र० ११ समु०)
सूचना- यह समय १९३९ विक्रम तक का है।

१३. यह निश्चय है कि जितनी विद्या और मत भूगोल में फैले हैं वे सब आर्यावर्त्त देश ही से प्रचारित हुए हैं। देखो! एक जैकालियट साहेब पैरस अर्थात् फ्रांस देश निवासी अपनी "बायबिल इन इण्डिया" में लिखते हैं कि सब विद्या और भलाइयों का भण्डार आर्यावर्त्त देश है और सब विद्या तथा मत इसी देश से फैले हैं।

१४. जब तक आर्यावर्त्त देश से शिक्षा नहीं गई थी तब तक मिश्र, यूनान और यूरोप देश आदिस्थ मनुष्यों में कुछ भी विद्या नहीं हुई थी।

टिप्पणी-
१. आर्यावर्त्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ है सो भी विदेशियों के पादाक्रान्त हो रहा है। ...कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर के आग्रहरहित अपने और पराये का पक्षपात-शून्य प्रजा पर पिता माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।

[सन्दर्भ ग्रन्थ- वैदिकयुग और आदिमानव; लेखक- आचार्य वैद्यनाथ शास्त्री]

Sunday, May 10, 2020

महान दार्शनिक-उद्योतकर



महान दार्शनिक-उद्योतकर

(मित्रों कुमारील भट्ट का नाम तो आपने सुना ही होगा। बुद्धकाल में वेदों की रक्षा के लिए कुमारिल भट्ट ने महान पुरुषार्थ किया था। उसी काल में अनेक दर्शनचार्य हुए जिन्होंने वैदिक धर्म रक्षणार्थ अपना अपना श्रम किया। उनमें से एक थे उद्योतकर। डॉ देवदत्त द्वारा प्रेषित यह लेख उद्योतकर से हमें परचित करवाता हैं। ध्यान दीजिये किन परिस्थितियों में आदि शंकराचार्य, कुमारिल, उद्योतकर आदि ने कार्य किया था। वैदिक परम्परा के गुरुकुलों पर बौद्ध-जैन मत के शासक हमले करते थे। इसलिए नागा साधुओं के अखाड़े सभी शिक्षपीठों में बनाये गए। विदेश से धर्मशास्त्र रक्षा के लिए मठों निर्माण भारत की प्रत्येक सीमा में हुआ था। धर्मरक्षा को आरूढ़ हमारे महान पूर्वजों को नमन। - डॉ विवेक आर्य  )
 
उद्योतकर एक दार्शनिक है। प्राचीन न्याय दर्शन के विकास में जिन नैयायिकों के नाम अग्रगण्य हैं, उनमें उद्योतकर एक हैं। उद्योतकर दिङ्नाग तथा प्रशस्तवाद के पश्चात् हुए, यह निश्चित है। धर्मकीर्ति से उद्योतकर का क्या संबंध था, इस बारे मे विद्वानों में मतभेद हैं। कई विद्वानों ने ऐसा माना है कि उद्योतकर धर्मकीर्ति के पश्चात् हुए। लेकिन न्यायवार्तिक में जो बौद्धों के बहुत सारे तर्कशास्त्र विषयक संदर्भ आते हैं, वे दिङनाग तथा वसुबंधु से ही लिए हुए हैं। ऐसा कोई भी नहीं, जिसका धर्मकीर्ति से ही लिया जाना सिद्ध हो सके। इसलिए अधिकतर विद्वानों का यही कहना है कि धर्मकीर्ति के मत से उद्योतकर परिचित नहीं थे। संभवत: धर्मकीर्ति उद्योतकर के पश्चात् ही हुए। सुबंधुकृत 'वासवदत्ता' नामक आख्यायिका में 'न्यायस्थितिमिव उद्योतकरस्वरूपाम्' इस निर्दश से स्पष्ट है कि उद्योतकर सुबंधु से पहले हुए थे। इस तथा दूसरे प्रमाणों के आधार पर न्यायवार्तिक समय सातवीं सदी का पूर्वार्ध माना जा सकता है।

अन्य नाम

उद्योतकर का अन्य दो नामों से भी उल्लेख हुआ है। वाचस्पति मिश्र ने न्यायवार्तिकतात्पर्य टीका में उद्योतकर का निर्देश भारद्वाज नाम से किया है। गंगानाथ झा का मत है कि 'उद्योतकर' नाम उद्योतकर के भारद्वाज कुलोत्पन्न होने के कारण है। उद्योतकर को पाशुपताचार्य भी कहा गया है। शायद इस नाम के पीछे यह कारण है कि उद्योतकर शैव सम्प्रदाय के आचार्य थे।

बौद्ध तर्कशास्त्र

उद्योतकर के सामने एक प्रमुख प्रश्न बौद्ध तर्कशास्त्र के खंडन का था। इसलिए उद्योतकर के न्यायवार्तिक में तर्कशास्त्र विषयक बौद्धमतों के बहुत निर्देश आते हैं। दिङ्नाग, वसुबंधु जैसे बौद्ध आचार्यों के जो संस्कृत ग्रंथ आज लुप्त हैं, उनमें से कुछ अवतरण हमें न्यायवार्तिक में मिलते हैं। इसलिए न्यायवार्तिक प्राचीन बौद्ध तर्कशास्त्र की जानकारी के लिए भी उपयुक्त सिद्ध होता है। लेकिन उद्योतकर ने बौद्ध तर्कशास्त्र की आलोचना करते समय जो तरीका अपनाया है, उससे अनेक आधुनिक विद्वान् असंतुष्ट हैं। इस असंतोष का कारण यह है कि उद्योतकर बौद्धों की आलोचना करते समय निर्दय वैतंडिक प्रतिपक्षी के रूप में दिखाई देते हैं। कभी-कभी उद्योतकर की युक्तियाँ शाब्दिक विरोधमात्र लगती हैं, उनमें गंभीरता नहीं है। इससे ज्ञात होता है कि बौद्ध तर्कशास्त्र का प्रभाव उस समय इतनी अधिक हो गया था कि उद्योतकर जैसे नैयायिक उससे विचलित हो गए और जो भी तरीका वे अपना सकते थे, उसे तरीके से बौद्धों का खंडन करना उद्योतकर जैसों ने अपना प्रथम कर्तव्य समझा।

उद्योतकर के ग्रंथ

उद्योतकर का न्यायवार्तिक नामक ग्रंथ ही उपलब्ध है। न्यायवार्तिक में ही उद्योतकर ने अपने हेत्वाभासवार्तिक नामक ग्रंथ का भी उल्लेख किया है लेकिन वह ग्रंथ अब उपलब्ध नहीं है। न्यायवार्तिक वात्स्यायन भाष्य के ऊपर की हुई टीका है। उसमें अनेक जगह न्यायभाष्य में मिलने वाले मतों को एक ओर रखते हुए न्यायसूत्र की अलग व्याख्याएं दी गई हैं। वार्तिक का लक्षण है-

'उक्तानुक्त दुरूक्तानां चिंता यत्र प्रसज्यते। तं ग्रंथं वार्तिकं प्रहुर्वार्तिकज्ञा मनीषिण:।।'

तदनुसार यहाँ वात्स्यायन के मत में कुछ बढ़ाया गया है, कुछ दुरुक्तियाँ भी बताई गई हैं। इसलिए उद्योतकर का न्यायवार्तिक सच्चे अर्थ में वार्तिक है। लेकिन इस वार्तिक को दूसरी दृष्टि से भी देखा जा सकता है। यद्यपि न्यायवार्तिक में कभी-कभी न्यायभाष्य से भिन्न मत भी मिलते हैं तथापि कहीं भी न्यायभाष्य में प्रकटित मत का उद्योतकर ने स्पष्ट विरोध नहीं किया है। उद्योतकर ने न्यायसूत्रों की व्याख्या अपने ढंग से करते हुए न्याय में कुछ नये विचारों को प्रविष्ट किया है तथा न्यायदर्शन का विकास किया है। न्यायदर्शन के इतिहास की यह विशेषता लगती है कि उसका विकास न्यायसूत्रों के ग़लत व्याख्या के द्वारा हुआ है। बौद्ध दर्शन के उदय से न्यायदर्शन को बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। उसे नये विचार अपनाने पड़े। लेकिन परम्परावादी होने के कारण कोई भी नैयायिक परम्परागत न्यायसूत्र की उपेक्षा नहीं कर सकता था, जिससे बौद्ध न्याय का प्रतिरोध करने वाले नये विचार न्यायदर्शन के परम्परागत विचार ही माने जाते। उद्योतकर ने यही तरीका अपनाया। उद्योतकर ने न्यायसूत्र की नई व्याख्या की, बौद्धों के भी थोड़े बहुत विचार तथा पारिभाषिक शब्द अपनाकर उन्हें न्याय की परत्परागत विचार पद्धति में स्थान दिया।

दिङ्नाग के अनुसार

उदाहरण के रूप में हम बौद्धों के हेतु त्रैरूप्य सिद्धांत को ले सकते हैं। दिङ्नाग के अनुसार सद्-हेतु होने के लिए उसमें तीन रूपों का होता ज़रूरी है-
1. पक्षसत्व- हेतु को पक्ष में होना चाहिए (पक्ष वह आधार है, जिसमें साध्य का होना सिद्ध किया जाना है)।
2. सपक्षसत्व- हेतु को सपक्ष में भी होना चाहिए (सपक्ष ऐसा आधार है, जिसमें साध्य निश्चित रूप से मौजूद हो)।
3. विपक्षव्यावृत्तत्व- हेतु को विपक्ष में बिल्कुल नहीं होना चाहिए।

उद्योतकर के सिद्धांत

इस हेतु त्रैरूप्य-सिद्धांत का महत्त्व जानते हुए तथा इस सिद्धांत की परिभाषा को अपनाते हुए, उस परिभाषा को न्यायदर्शन में प्रविष्ट करते हुए भी उद्योतकर ने उस पक्ष के खंडन की कड़ी आलोचना की। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि ऐसा हेतु भी हो सकता है, जिसमें उक्त तीनों रूप मौजूद न हों। उद्योतकर ने अनुमान के ऐसे उदाहरण भी दिये, जिनमें हेतु के पक्षसत्व तथा सपक्षसत्व वाले दो रूप हैं, लेकिन विपक्षव्यावृत्तत्व वाला रूप नहीं है हेतु के पक्षसत्व तथा विपक्षव्यावृत्तत्व वाले दो रूप हैं, लेकिन सपक्षसत्व वाला रूप नहीं है।

इन दो अनुमानों को उद्योतकर ने क्रमश: 'अन्वयी' और 'व्यतिरेकी अनुमान' गौतम प्रणीत न्यायदर्शन में है। उद्योतकर ने गौतम के अनुमान के वर्गीकरण में ही अन्वयी तथा व्यतिरेकी अनुमान को स्थान दिया 'त्रिविधमिति अन्वयी, व्यतिरेकी, अन्वयव्यतिरेकी चेति'। ऐसा करते समय गौतम के अनुमान विषयक प्रस्तुत सूत्र का वात्स्यायन ने जो अर्थ लगाया था, उसे उद्योतकर ने उपेक्षित किया और यद्यपि अन्वयी तथा व्यतिरेकी अनुमान का विचार मूल न्यायसूत्र में कहीं नहीं दिखता है तथापि उद्योतकर ने जब इन अनुमानों का विचार किया, तब न्यायदर्शन में उन पर बड़ी चर्चा हुई और आखिर में केवलान्वयी, केवल व्यतिरेकी तथा अन्वयव्यतिरेकी इन तीन प्रकारों में अनुमान का तथा हेतु का वर्गीकरण न्यायदर्शन में सर्वसंमत हो गया।

षड्विधसन्निकर्ष का सिद्धांत

दूसरे भी ऐसे कई सिद्धांत हैं, जो पहली बार उद्योतकर के न्यायवार्तिक में दिखाई देते हैं और बाद में न्यायदर्शन में स्वीकृत किये गए। गौतम के प्रत्यक्ष लक्षण में जो 'इन्द्रियार्थसन्निकर्षजनयं' यह पद है, उसकी व्याख्या करते हुए उद्योतकर ने षड्विधसन्निकर्ष का सिद्धांत प्रस्तुत किया। बाद में प्रत्यक्ष का लौकिक तथा आलौकिक प्रत्यय में जो वर्गीकरण किया गया, उद्योतकर में यद्यपि नहीं मिलता है तथापि उस वर्गीकरण के बाद भी षड्विधसन्निकर्ष का सिद्धांत ज्यों का त्यों लौकिक प्रत्यक्ष के वर्गीकरण में समाविष्ट किया गया। इस सिद्धांत के अनुसार लौकिक प्रत्यक्ष में इन्द्रिय तथा अर्थ (विषय) में होने वाला संबंध छ: प्रकार का हो सकता है। द्रव्य के प्रत्यक्ष में उस गुण तथा तथा जाति के साथ घ्राणादि इन्द्रिय का संयुक्त समवाय नामक संन्निकर्ष होता है, द्रव्य में होने वाले गुण में जो जाति होती है, उसके प्रत्यक्ष में उस जाति के साथ इन्द्रिय का संयुक्तसमवेत समवाय सन्निकर्ष होता है। शब्द के प्रत्यक्ष में शब्द के साथ श्रोत्रेन्द्रिय का समवाय संबंध होता है, शब्दगत जाति के प्रत्यक्ष में जाति के साथ श्रोत्रेन्द्रिय का समवेत समवाय सन्निकर्ष होता है तथा समवाय और अभाव के प्रत्यक्ष में विशेष्यविशेषणभाव नाम का सन्निकर्ष कारण रूप में होता है। इस सन्निकर्ष सिद्धांत में हम देखते हैं कि न्यायदर्शन की ज्ञानमीमांसा के स्पष्टीकरण के लिए नैयायिक वैशेषिकों के सत्ताशास्त्र की सहायता ले रहे थे और धीरे धीरे न्यायदर्शन में वैशेषिक विचार का प्रभाव बढ़ता जा रहा था।

अनुमान तथा अनुमति का सिद्धांत

तीसरा इसी तरह का सिद्धांत जो पहली बार न्यायवार्तिक में दिखाई देता है और जो बाद में न्यायदर्शन के सिद्धांत के रूप में स्वीकृत किया गया, वह सिद्धांत अनुमान के स्वरूप के बारे में है। न्यायवार्तिक में पहली बार हम देखते हैं कि अनुमान तथा अनुमति में स्पष्ट भेद किया गया है, तथा अनुमान को अनुमिति का कारण माना गया है। हम देखते हैं कि गौतम के न्यायदर्शन में प्रमाण और प्रमा में स्पष्ट भेद कहीं नहीं दिखाया गया है। प्रमाणों के लक्षण बनाते हुए कहीं कहीं गौतम ने जो लक्षण बताया है, वह प्रमा के बारे में सही निकलता है। प्रत्यक्ष प्रमाण के गौतम कृत लक्षण में हम 'ज्ञानम्' यह भी लक्षण भेद पाते हैं, जिससे सूचित होता है कि गौतम वहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण नहीं कर रहे हैं, बल्कि प्रत्यक्ष प्रमा का ही लक्षण कर रहे हैं। उसी प्रकार अनुमान तथा उपमान के भी गौतमकृत लक्षण वस्तुत: अनुमिति तथा उपमिति के लक्षण प्रतीत होते हैं। गौतम के बाद धीरे धीरे प्रमाण और प्रमा में भेद दिखाना ज़रूरी हो गया। वस्तुत: अनुमान क्या है,
इनकी चर्चा करते हुए उद्योतकर ने तीन बातों का विचार किया है :
1. लिंगदर्शन
2. लिंगलिंगिसंबंधस्मरण्
3. लिंगपरामर्श

उद्योतकर के अनुमान

जब कोई आदमी पर्वत पर धुंआ देखकर वहाँ अग्नि के होने का अनुमान करता है, तब उसकी प्रक्रिया उद्योतकर के अनुसार इस प्रकार है- पहले वह आदमी पर्वत पर धुंआ देखता है (लिंगदर्शन) उसके तुरन्त बाद उसे स्मरण होता है कि जहाँ जहाँ मैंने धूम को देखा वहाँ वहाँ अग्नि को भी देखा (संबंधस्मरण)। इसके तुरन्त बाद उसकी समझ में आता है कि किस प्रकार अग्नि से सम्बद्ध धूम ही यहाँ पर्वत पर मौजूद है (लिंगपरामर्श) और तदनंतर यह अनुमिति होती है कि पर्वत पर अग्नि है। उद्योतकर समझते हैं कि पहले तीनों ज्ञान अनुमिति के अनिवार्य पूर्ववर्ती हैं, इसलिए उद्योतकर के अनुसार इन तीनों के अनुमिति का कारण यानी अनुमान समझने में कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन इन तीनों में अगर प्रधानगौणभाव का विचार करना है तो प्रधान रूप में लिंग परामर्श को ही अनुमान समझना चाहिए, लिंगदर्शन या संबंधस्मरण को नहीं। इसका कारण बताते हुए उद्योतकर कहते हैं कि लिंगपरामर्श के तुरन्त बाद अनुमिति हाती है, लेकिन लिंगदर्शन या संबंधस्मृति के तुरन्त बाद अनुमिति नहीं होती है। उद्योतकर के इस विवेचन में अनेक मुद्दे स्पष्ट होते हैं। यहाँ उद्योतकर ने प्रमाण तथा प्रमा करण तथा फल में ज़रूर भेद दिखाया है, लेकिन करण की स्पष्ट कल्पना उद्योतकर के मन में भी नहीं थी, यह भी यहाँ पर दिखता है। बाद में करण, व्यापार और फल इन तीनों में भेद तथा परस्पर संबंध स्पष्ट किया गया और अनुमान में व्याप्तिज्ञान को करण, परामर्श को व्यापार ता अनुमिति को फल माना गया। उद्योतकर ने 'प्रधानरूप से करण' की जो कल्पना यहाँ प्रस्तुत की है, उसमें करण की 'फलायोगव्यवच्छिन्नमं कारणम्' यह जो दूसरी कल्पना बाद में प्रस्तुत की गई, उसकी झलक मिलती है, क्योंकि इसी कल्पना के अनुसार लिंगपरामर्श को करण माना जा सकता है।

उद्योतकर के इस अनुमान विचार के बल पर कई विद्वानों ने ऐसा तर्क किया है कि यहाँ उद्योतकर ने व्याप्ति की कल्पना सर्वप्रथम प्रस्तुत की है। लेकिन न्यायवार्तिक के परिशीलन से तो यह प्रतीत होता है कि उद्योतकर ने जो लिंगलिंगिसंबंध बताया है, वह अनुभूत विश्व में दिखाई देने वाला संबंध है, समूचे विश्व में होने वाला सार्वत्रिक संबंध नहीं है। लिंगलिंगिसंबंधस्मृति का जो आकार उद्योतकर ने बताया है, वह इस प्रकार है- 'यत्र धूममद्राक्षं तत्राग्निमद्राक्षम्',[7] जिसका अर्थ है 'जहाँ मैंने धूम देखा, वहाँ मैंने अग्नि देखी।' यह आकार सार्वत्रिक (सर्वोपंसारोहण) व्याप्ति का नहीं हो सकता। सार्वत्रिक व्याप्ति का आकार 'जहाँ जहाँ धूम है, वहाँ वहाँ अग्नि है' ऐसा होना चाहिए। यहाँ हम देखते हैं कि दिङनाग ने जो अनुभूतविश्व में-सपक्ष तथा विपक्ष में-प्रकटित लिंगलिंगिसंबंध की कल्पना प्रस्तुत की थी वही उद्योतकर ने भी थोड़ी बहुत परिवर्तन करके अपनाई है।

हेतुचक्र से तुलना

उद्योतकर का और एक महत्त्वपूर्ण योगदान हेत्वाभास के विषयों में है। दिङनाग ने हेतुत्रैरुप्य का जो सिद्धांत स्थापित किया था, उसी के आधार पर हेतुओं तथा हेत्वाभासों के वर्गीकरण का एक ढाँचा दिङनाग ने प्रस्तुत किया था। (इस वर्गीकरण को दिङनाग ने 'हेतुचक्र' नाम दिया था)। उद्योतकर ने यद्यपि एक तरफ़ दिङनाग के हेतुत्रैरुप्य के सिद्धांत का खंडन करने का प्रयास किया, तथापि दूसरी तरफ हेत्वाभासों का वर्णन करते समय उद्योतकर ने दिङनाग के ही हेतु चक्र का अनुकरण तथा विस्तार किया। हेत्वाभास वर्गीकरण का विकास करते समय उद्योतकर ने कहा है कि हेत्वाभास वैसे तो अनगिनत हैं, फिर भी उद्योतकर ने बहुत वर्गीकरण तत्वों का विचार करते हुए दो हज़ार बत्तीस हेत्वाभासों की गिनती की है। वैसे इन हेत्वाभासों के वर्गीकरण के मूलतत्व संख्या में थोड़े ही हैं, लेकिन इन्हीं तत्वों के भिन्न भिन्न प्रकार से योग होने पर हेत्वाभासों के भिन्न भिन्न उपप्रकारों का परिगणन हो सकता है। उद्योतकर के इस वर्गीकरण को पूर्णत: स्वीकार बाद में किसी नैयायिक ने किया, ऐसा नहीं नजर आता है, लेकिन उद्योतकर ने जो विशेषणासिद्ध, विश्लेष्यासिद्ध, संदिग्धविशेषण, संदिग्धविशेष्य, व्याधिकरणसिद्ध, अन्यथासिद्ध जैसे हेत्वाभासों के मूल प्रकार बनाए, उनका विचार अंतरवर्ती नैयायिकों ने भी किया। उनमें से अन्यथासिद्ध विशेष महत्त्व रखता है, क्योंकि बाद में इसी का विकसित रूप 'अप्रयोजक', 'सोपाधिक' तथा 'व्याप्यत्वासिद्ध' नाम के हेत्वाभास में दीख पड़ता है।

उद्योतकर का युक्ति प्रदर्शन

बौद्धों के केवल तर्कशास्त्र पर ही उद्योतकर ने खंडनास्त्र चलाया है, ऐसी बात नहीं है, बल्कि बौद्धों के सत्ताशास्त्र का, विशेषत: उनके अनात्मवाद का खंडन करने का उद्योतकर ने भरसक प्रयास किया है।उद्योतकर ने जो युक्तियां प्रदर्शित की हैं, वे इस प्रकार हैं-

'आत्मा नहीं है, क्योंकि उसका जन्म ही नहीं हुआ, जैसे शशश्रृंग'। यह आत्मा का अस्तित्व खंडित करने के लिए बौद्धों की युक्ति है। इनमें अनेक असंगतियां हैं।

1. आत्मा नहीं है, ऐसा कहने में व्याघात है। क्योंकि आत्मा शब्द का उच्चारण करने से ही आत्मा का अस्तित्व सूचित होता है और फिर 'नहीं है' कहने से उसी का निषेध किया गया है।

2. जब किसी का अभाव बताया जाता है, तब वह किसी देश विशेष को या काल विशेष को लेकर बताया जा सकता है। लेकिन देश विशेष में या काल विशेष में आत्मा का अभाव नहीं सिद्ध किया जा सकता है।

3. कोई शब्द निरर्थक नहीं है, इसलिए आत्मा शब्द का अर्थ है ही।

4. बौद्धों के प्रामाणिक ग्रंथों में भी आत्मा का अस्तित्व स्वीकृत किया गया है। इसलिए बौद्धों का अनात्मवाद अपने ही आगम से बाधित होता है।

5. जो वस्तुत: है उसी को जन्मरहित कहा जा सकता है। इसलिए आत्मा अगर जन्मरहित है तो उसके होने में कोई शंका नहीं हो सकती।

6. बौद्धों के उपर्युक्त अनुमान में शशश्रृंग का दिया हुआ दृष्टांत भी असंगत है, क्योंकि शश या श्रृंग असत् नहीं है और शंश और श्रृंग में संबंध भी संभव है। शंशश्रृंग का निषेध वस्तुत: शश और श्रृंग में आरोपित कार्यकारणभाव का निषेध है।

आत्मा नहीं है, क्योंकि उसकी उपलब्धि नहीं होती। ऐसा अगर बौद्ध कहें तो वह भी ग़लत है। क्योंकि हरेक को 'मैं' के अनुभव में आत्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है।

कोई बौद्ध 'जीने वाला शरीर आत्मा से रहित है, क्योंकि वह सत् है' ऐसा तर्क करते हुए आत्मा के बजाए शरीर को पक्ष बनाते हैं। लेकिन वहां भी आत्मा शब्द का प्रयोग करके उसी के अर्थ का सार्वत्रिक निषेध करने से विरोध आता है।

आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए इस तरह के तर्क दिए जा सकते हैं-

1. आत्मा शब्द का विषय रूप, वेदना आदि शब्दों के विषयों से अतिरिक्त है, क्योंकि रूप आदि शब्दों से 'आत्मा' शब्द भिन्न है, जैसे घट शब्द।

2. चक्षु आदि इन्द्रिय किसी दूसरे के लिए (आत्मा के लिए) होते हैं, क्योंकि वे संधानरूप हैं, जैसे शयन, आसन आदि संधानरूप होते हुए, किसी दूसरे के लिए (आदमी के लिए) काम आते हैं।

उद्योतकर के द्वारा प्रस्तुत ये युक्तियां उसके उत्तरवर्ती नैयायिकों को बौद्धों की आलोचना करने में बहुत उपयुक्त सिद्ध हुई। ऐसा न्यायदर्शन के इतिहास के परिशीलन से प्रकट होता है।

Swami Dayanand On Bhakti



Swami Dayanand On Bhakti

Author- Tarachand D. Gajra
Presented By- Priyanshu Seth

Of the many charges that are repeatedly brought against the Arya Samajists, one is want of Bhakti. 'With an Arya Samajist', so says the critic, 'Dharma is synonymous with discussion. Devotion he has none and Shradha finds no place in the programme of his reform work. Vehemently criticising other sects, he spends his time in picking holes in the pockets of his antagonists and depicting in darkest hues the prophets of religious other than his own. Such a man, by his very nature, is incapable of developing a devout heart and a devoted soul. But the critic does not stop here. From the Arya Samajist he turns to his Guru. Finishing with the living members of the Samaj, he engages himself in digging out the bones of the dead and devoted Dayanand. "The Arya Samajist is not a Bhakta because his Guru Swami Dayanand never preached Bhakti. He spent his time in railing against other religious denominations. That appears to have been the sole aim of his life." This perhaps comes from a rather severe critic. But often a man who admires the Swamiji and the Samaj in several ways, heaves a sigh and says "All is well, but, alas! there is no spiritual life, no Bhakti, no devotion in the teachings." It is my belief that the above view of the critics is unfounded and due to the ignorance of the real teachings of the Swami. I therefore take his opportunity to glide with the reader through some of the works of Swamiji to get a true idea of his teachings on higher spiritual life.

Before I do this I shall just throw a glance at the history of India during the post Mahabharata period. The beginning of this period is one of the most certain dates in the history of India. The battle of the Mahabharata is not shrouded in mystery as several other events of Indian history are. The causes, the effects and the events of the war are well known to every one. At the time of the war, there was present in India a sage who was respected and revered by all in existence then. Bhishma and Vidura, Yudhishthir and Dhritarashtra, Kirpa and Drona all recognized his merit. Vyas sweetly sings: "The side on which the Yogeshwara (Powerful Yogi) Krishna stands and on which the holder of bow, Pratha plays his part, on that side you find prosperity and victory, happiness and firm morality, so I think." Thus then this great sage as described by the writer of Mahabharata is capable of having at once the earthly and the heavenly, the physical and the spiritual good. And why? The simple reply is that his teachings, his beliefs and ideals are all-embracing, harmonious. There is no one sidedness, no atrophy of one faculty, no hypertrophy of another.
Long after the battle of the Mahabharata, long after the teachings of Bhagwan Krishna were forgotten, the people of India passed through a strange transformation. Instead of the all sided development of man meaningless ritual and dead ceremonials were taken to be religion. The degradation was very great. The reality was altogether forgotten and the ritual distorted into immorality by the mischief of selfish and passion-loving Vam-Margis. India alone did not pass through this stage. There were other lands which underwent a similar transformation. The animal sacrifices of the old Testament and those of Vam Margis are closely allied. The assertion in the Scandinavian Scriptures that "animal sacrifices were invented by the selfish and the wicked" lends support to my view. But this is rather wandering away from the main point.

All morality was forgotten and Karma was mistaken for ritual. To put life in the dead skeleton was required a Messiah; to make the ritual a living force or to sweep it away and replace it by a living morality was wanted a reformer. He came in the form of the Great Buddha who to my mind stands primarily as the apostle of action, the preacher of Karma.
But great movements are often wrecked on the rock of human weakness. The followers of the 'Light of Asia' soon learnt to associate Karma with more austerities and asceticism. The spirit was dying when Swami Shankar-Acharya began his work. Karma is bound to degrade into mere forms if there is no Jnan behind it. To fulfil this want Shankar Swami called forth the people to 'Jnan' When I say so I am not to be understood to say that Shankar Acharya did not care for Karma and Bhakti. Not the least of it. Jnan stands prominent in his preaching because it was required most prominently in that age. Shankar's work after some time came to be forgotten and a newer movement, pushed on by a number of prophets, was inaugurated. This movement, whatever else may be said of it, has for its keynote 'Bhakti', Chaitanya or Lord Gauranga went through Bengal singing the praise of the Lord Kabir and Nanak worked in the Northern India; Tukaram, Dhyandeva and several others in Southern India. Complete devotion was what they preached. "No attachment to the world was what they taught" Justice Ranade speaks of a saint who killed his child by throwing it in a pit when he was accused of loving his child more than the Lord he talked of. Thus had the history run for some time. But during the confusion that came over the land after these saints were gone, the movement inaugurated by them bacame dead. Some had picked up one idea, others another. Those who had adopted Buddhism consciously or unconsciously stood for all kind of tortures and austerities. The Lamas and the monks of Buddhistic temples believed that the path to Nirvana was to live a severe life, to kill the flesh and to follow a certain prescribed routine detailing the number of times a man should stretch himself like a stick on the ground before the idol. The practices were imitated and adopted by several of the pure Hindu sects. Those who believed themselves to walk in the path of the great Shankar, came to identify the path of salvation with the cry "Aham Brahmasmi" (I am God). For them there was neither Karma (action), nor Bhoga (fruit of action). Devotion and Bhakti, too, had no place in their programme of human life. As for Jnan it was all lip deep. There was no realization of any kind. A smattering or a complete ignorance characterised the Sadhus and the laymen were no better. They had developed strange notions of Bhakti. Some held and preached that the repetition of 'Rama' was sufficient to take them to Heaven. Others thought a particular kind of Tilak (mark on forehead) stamped most sedulously was true devotion. Bathing the idol, keeping food before it and ringing the bells was a model of Bhakti to others. The mistaken notions of Bhakti in some cases led to the degrading institution of Devadasis and of giving over the children to the Fakirs and Saints. In the cases of others Bhakti was identified with over-doses of excited prayers, fumings of heart, simmerings of mind, suspension and destruction of reason. This when carried to excess produced dances and often amorous singing culminating in Ras Lila and Sufistic love for fair faces.

This was the situation when Swami Dayanand began his work. The keynote to his work is harmony. Yes harmony I say and say it inspite of so many critics. They who think that Swami Dayanand has created a sect and added to the wranglings of the sectarians, have never dispassionately studied his works. They have seen only one side and not the other. Dayanand's work in pulling down these wrong notions of ages is familiar to them, but his labour in building up a newer and manlier race is not known to them. They have seen Dayanand as the destroyer of superstition, but not as the constructor of a higher and better kind of religious consciousness. But the Swamiji's aim of life can properly be realized only when both the slides are seen.
The harmony is in fact the keynote to his mission can be seen from the principles of the Arya Samaj. He clearly lays down here that bodily, spiritual and social progress should go hand in hand. The idea is emphasised in the following words in the Satyarth Prakash. "By the increase of bodily strength and activity the intellect becomes so subtle, that it can easily grasp the most abstruse and profound subjects. It also helps to preserve and perfect the productive element in the human body which in its turn produces self-control, firmness of mind, strength, energy and acuteness of intellect." Taking hold of this keynote we can well understand why Swami Dayanand speaks of Jnan, (Knowledge) Karma (Action) and Upasana (Devotion) at the same time.

To Swami Dayanand one without the others has no meaning. If a man has to develop himself harmoniously he must cultivate all the three together. This idea of harmony is found in the writings of Swami Dayanand very conspicuously and the reason is not far to seek. A believer in the Vedic revelation- a revelation that divides itself into three parts, Jnan, Karma and Bhakti- Dayanand could not help emphasising harmony and speaking of all the three together. Dayanand clearly points out that the realization of the Lord is the highest aim. This can be very clearly seen from the following passage which Dayanand quotes from the Upnishad-
"Oh Nachiketa! that God, who is worthy of being realized and who is described in the Veda as free from all pains and miseries, and for realizing Whom the Veda opens its teaching, for realizing Whom is followed the path of true piety, is observed the vow of Brahmachary; and owing to the desire of union with Whom, the learned meditate and preach; that Brahma I briefly describe to you. He is Om."
He adds "Thus that Brahma, Who is worthy of being realized is present everywhere". 'Brahma then is the only object to hanker after' and therefore Dayanand's Revelation- the Veda "Describes especially the Brahma" and has "Brahma as its foremost subject". And why should it not be so, when "His glory is seen in, and vividly described by all the Vedas and Shastras, by nature and its beauty". The object of all the teachings of the Veda being the realization of the Lord, every human being is required by the Swami "to follow the threefold path of Jnan, Karma, and Upasana to realize the higher spiritual life." What higher spiritual life is, is hard to described in words. It is a matter of experience and experiment. They alone can fully grasp the import of the words of wisdom, who in their life have realized the reality behind the phenomenal word. To the ordinary mind mode often the truths of higher life have no reality. But the Reformer and the Prophet has to work for the salvation of these ordinary men. This compels him to put in words what has been realized by the soul. And Dayanand a real benefactor of mankind has tried to vividly describe these higher spiritual truths. Let them who doubt the statement peruse the 7th and 9th chapters of the Satyarth Prakash and ponder over the inspiring and elevating passages in the Bhashya Bhumika. What should invite us more eloquently to this higher life than the following words of Dayanand "For our protection we pray unto God, who is the Creator and Governor of the living and non-living, the Illuminator of the heart and the mind. He is the giver of strength to all. He is our Support and Protection. Oh God! Thou art the Giver of knowledge, wealth and fame. Have mercy upon us, take us under your protection and look after us……… Verily that God alone is the Support of all and hence is He called Saha……… May we through the mercy of the Remover of all pain realize the truth and may we follow the Dharma the expression of His will……… Oh Lord! The master of vows! mat I take the vow of following the path of rectitude……… Oh the Mighty One lead me on to this path, give me strength to observe my vow faithfully and sincerely"………
What can bring to our mind more vividly the thought of worshipping the Lord than the statement- "The bliss of Salvation can be obtained only by realizing the Lord and by uniting with Him through Dhyan (meditation) performed with all the powers of soul and Antahkarana (the internal power of mind)"? What can teach us more forcibly the ideal of resigning the self to the Divine will than the injunction, "Oh man, in order to realize the Lord, dedicate your whole life. Let all- the breath, the eye, the tongue, the mind, the soul, the Brahma or the knower of all the four Vedas, the performer of Yajnas- the lights- sun etc, Dharma (righteousness), happiness, the actions such as : Ashvamedha, the prayers and praises, the study of the Veda, in fact all the sources of pleasure and happiness be dedicated to the Great God?" What else can make our devotion complete and our love all - forgetting, if not the following precept- "There is neither a second God, nor a third God, neither a fourth God, nor a fifty God………" or the assertion "You will get true happiness and fame only when with sincere soul and humility and humbleness you devote yourself to the Sanatan (Brahma Eternal)."

These are but a few quotations taken at random from the works of Swami Dayanand. But they are sufficient to show the spirit of the Rishi and to prove that he was one of the greatest- if not the greatest- spiritual teacher and 'apostle of Bhakti' in modern times. Scientific and systematic in all other things the Swami does not leave the Bhakta to grope in the dark or to work at random. He goes out, seeks the Bhakta and takes him by hand on to the path of higher life. The course of prepration is carefully laid down. The body, the physical part of the man is first trained to be strong and vigorous and able to bear all troubles, so that the devotee may feel no encumbrance, no hindrance as he advances on the path of spirituality. Tapa and Brahmachary are the two great factors. A strong body should also be pure before the soul within can find itself in possession of a clean house where to invite the Lord. Daily bath, cleanliness and purity- purity secured by curbing the lower passions- are required to play their part. Thus is the 'Mala' destroyed.
Arjuna said to Krishna 'Oh Bhagwan the manas (mind) is chanchal (unsteady)'. What Arjuna felt 5,000 years hence, we feel even now. His difficulty is our difficulty. How many of the admirers of Swamiji might have enunciated their own difficulty in the words of Arjuna?
Then Swamiji teaches to conquer the mind by Pranayam (Deep controlled breathing). As a tender flowerplant stands in a tank so does the Manas stand in the tank of Hridaya. (Thoracic region full of air). The plant responds to every movement of the tank. The smallest waves make it vibrate. The plant can be kept in one position by stopping effectively the waves in the tank. The mind can be made steady by stopping the waves of the fluid filling the Hridaya. This is to be done by Pranayam. Two hours every day is the 'Jijnasoo' required to sit in a retired corner and perform Pranayam. One fails to understand why inspite of it the critic speaks of no Bhakti and no devotion in the Arya Samaj? He fails to understand how Swamiji's method is of a silent, serious and systematic character. There is no play of vague sentiments and of restlessness- the things which now-a-day are considered as essentials of Bhakti.

Suggesting how to steady the mind, the great Rishi removes the Avaran (curtain) that separates the Bhakta from the Brahma, the devotee from the object of devotion, the worshiper from the worshipped. Avidya (ignorance) should be dispelled. For this is required a peculiar atmosphere. The clouds never allow the sun to show its glory, till the surrounding atmosphere is favorable. So the cloud in the mind, 'Avidya', obstructs the devotee from getting a glimpse of the most Glorious Sun. The atmosphere is to be made favorable by constant and fervent prayer. The prayer that the Swami prescribes, the Vedic Sandhya is beautiful beyond compare. It starts by contemplating God as the personification of light and Love and as distributer of peace unto all. With the mind put in this attitude, the devotee looks to his body, the physical thing nearest to him and prays that its different parts may be strong and vigorous. Praying for power, he forgets not to pray for goodness. He remembers.

It is excellent, To have a giant's strength. But it is tyrannous. To use it like a giant, and prays that with the strength of the body he might have purity and excellence. The Mantra (verse) is highly elevating and there is a natural connection between the phrase of the Lord in which He is viewed and the importance of the organ or the sense that is to be pure. If the prayer is for the purification of the head, the Lord is viewed as the Life giver and supporter of the world. How beautiful and natural the relation. For the purification of the Hridaya (Heart) the Lord is contemplated as 'Mahan' (the Great). Great are the powers of heart-great both for good and evil. Regard and admiration, respect and reverence, generosity and charity, affection and love, all flow out of it. It too is the seat of evil passions like dislike and aversion, contempt and scorn, narrowness and stinginess, malice and hatred. Through the heart are the enemies conquered. Its evil passions repel all friends and change them into rebels. It can take man to Heaven, it can pave his path to hell. Verily it is 'Mahan' (Great) and well has God been invoked as 'Mahan' (the great one). They only can realize the underlying beauty of the Mantra, who ponder over and meditate upon it.
The body being strengthened, the organs purified, the devotee approaches his Lord and tries to realize Him as the Soul of his Soul, as the Giver of Beatitude and as the Dispenser of Peace. A close connection is formed. Seeing the power within, the devotee looks without to see its play. The world is the product of that power. Rit (knowledge Divine) and Sat (Nature) proceed from it. The mountain like wave of the sea, the thunder of the Heaven, the lightening in the cloud, the moon and the sun, the stars and the constellations, the expanse of the earth and the glory of Antaraksha (intervening space) all are the manifestations of the self-same power. To view the power more closely, to realize it more vividly and to feel it more intensely the devotee turns all round, seeks it in all directions. To the east he views it in the sun, the giver of light and heat and finds that its rays are a protective force. In reverence bows he to the rays, bows he to the power of the Lord and through them bows to the Lord Himself- free from all earthly connections. To make his environments suitable for the growth of spiritual life, he prays that his protective power- a combination of Light or Jnan (knowledge) and heat or Prem (Love) might serve to make him friend to all and all freinds to him and might put an end to every kind to hate. Similarly is the glory of the Lord seen in all the six directions and every time is the pious wish for protection and peace most piously expressed. The vivid realization of the play of the Divine power in nature and her glory makes him once more go deep down into the recesses of the unseen and low passing by the flag-staffs (Ketavah) of nature the Bhakta sees now face to face Uttam Jyoti (the Grand Light) free from all darkness, everlasting, ruling all and giving light to all. Realizing the bliss he cries, "Wonderful art Thou- wonderful art Thou- Thou art the life of all the things; Thou art the source of the power of the sun and the eye. Under Thy control are the earth and heaven. Verily, Thou art the Soul of the moveable and the immoveable. May I realize the reality! May I realize the reality!"

The trance passes and the dead reality forces itself on the Bhakta, for long life, for vigorous body, for sound organs, the devotee prays. But then comes to his mind that most sacred of the Vedic hymns- the hymn with which he was initiated into the path of Dharma and for a pure heart and elevating thought he approaches his Lord. Finally realizing the Peace- giving, the Bliss- yielding nature of the Divine, completely he resigns himself to the Higher will. This is Dayanand's method for destroying Avidya (Nescience), this is his Sandhya. Undoubtedly it is a most potent factor in inculcating the true spiritual life. May the critic realize this! May God remove his prejudice!

Before I take leave of you, dear reader, I shall mention a few more points. By the side of Sandhya or the Brahma Yajna, stands in Swamiji's system Havan or Deva Yajna. It is not to be mistaken for a mere mechanical process for the purification of the air. It has a deep significance. It throws the individual into the universal. It connects man with the forces of nature and establishes a direct communication between them. It practically teaches man to seek his good in the general weal, to feel his life in the all- embracing life. And look at the 'Mantras' (Verses recited); how forcibly and elegantly do they remind the 'Yajman' (performer of Havan) of the higher spiritual life. Oh! how beautifully does each speak of the Lord and His power! Each Mantra reminds the repeater of his own insignificance in the great 'Yajna' of the Lord and so he himself says "I do this for Thy sake, I do this for Thy sake".
It should also be borne in mind that the Sadhana (Process of arriving at the Higher Spiritual life) prescribed by Dayanand is Akhanda (continuous). Through Brahmachary, Grihastha and Vanprastha stages it is to be continued. Those who choose to have a detailed view of this may well spend a few days in going through the Sanskar-Vidhi (Hand Book of ritual) of Swamiji. I shall content myself with merely referring to the Mantras which a Grihasthi is required to meditate upon each morn. How eloquently do they teach him to yield his will to the Divine Will, to resign himself to the Lord.

Brother Arya Samajist! I have tried to vindicate the Swamiji. I have tried to remove misunderstanding regarding him. It is now for you to vindicate yourself and to vindicate the Samaj. In my humble opinion, it should be yours to walk on the path chalked out by your great Guru and to try to become a Bhakta yourself. Do you feel for the ignorant masses? Do you feel for the superstition- ridden sons of humanity? Does your heart grieve to see the troubles of mankind? Do you ever shed tears to see the load of sins with which the earth is heavy? Does your imagination ever fire you to be a sincere and devout follower of the Rishi? Do you ever feel that you are called upon to discharge the trust that has been left in your hand? Then brother! wake up and follow my humble suggestion. This alone will be sufficient to give us peace within and goodwill without; to bless us and make the world happy!

Footnotes:
1. Ordinarily taken to mean Horse-sacrifice. But interpreted by Swami Dayanand as the act of governing people properly. This is considered a deed of highest merit. For further details, please see the author's Animal Sacrifices in the light of World Scriptures.
2. Burning of clarified butter and odoriferous substances to purify the atmospheric air.

Friday, May 8, 2020

कुँवर सुखलाल आर्य मुसाफिर



कुँवर सुखलाल आर्य मुसाफिर 
अरनियां बुलंदशहर (उ0 प्रदेश)

तू ही इष्ट मेरा तू ही देवता है। तू ही बंधु मेरा, तू माता पिता है। जहालत से हम तुझको देखे न देखे। मगर तू हमें देखता है। पता पत्ता - पत्ता तेरा दे रहा है। सरासर गलत है कि तू लापता है। "मुसाफ़िर" जरा इस मुसाफिर से पूछो। कहां से चला ओर कहां जा रहा है।।
गंगा और यमुना के मध्य जिला बुलंदशहर में जी. टी. रोड़ पर बुलंदशहर से 20 और खुर्जा से 9 मील पूर्व, अलीगढ़ से 21 मील पश्चिम में एक छोटा सा गांव अरनियां है। भारत के अंतिम सम्राट पृथ्वी सिंह चौहान (राय पिथौरा) के वंशज इस ग्राम में निवास करते हैं।
ग्राम पर अंग्रेजों की क्रूर दृष्टि
सन् 1857 के गद्दर के समय इस गांव के लोगों ने दो अंग्रेजों को मार कर भूमि में दबा दिया था। इस गांव से बाहर एक फर्लांग की दूरी पर अंग्रेजों का बंगला था। उसी बंगले में स्त्रियों और बच्चों सहित वह रहते थे तथा गांव अरनियां के लोगों तथा आसपास के वासियों को अंग्रेज भक्त बने रहने का उपदेश देते रहते थे। साथ में डराते धमकाते थे। गांव अरनियां वासियों ने उन दोनों अंग्रेजों को मारकर दबा दिया तथा उनके बच्चों को अपनी सवारी में बैठाकर मेरठ छावनी में पहुंचा दिया। छावनी के कमांडर ने उन्हें वफादारी का परवाना लिखकर दे दिया।
दो अंग्रेजों के मरने की सूचना पाकर अंग्रेजों ने अरनियां के पास दो तोपें लगा दी। गांव को तोपों से उड़ाया जाना था। यह सूचना पाकर दूसरी अरनियां के जमींदार ठाकुर पदमसिंह जी जो 28 गांव के मालिक थे, इस अरनियां में आये और इस गांव को उड़ाये जाने से बचा लिया। वो अंग्रेजो के वफादार माने जाते थे। गांव तो बच गया, किंतु गांव पर गोरों की क्रूर दृष्टि बनी रही।
🏵जन्म🏵
कुंवर सुखलाल आर्य मुसाफिर जी का जन्म इसी ग्राम में सन् 1890 ई0 में हुआ। इनके पिता जी ठाकुर भीमसिंह तथा माता जी धर्म देवी था। मुसाफिर जी दो भाई थे। बड़े भाई स्वर्ण सिंह जी तथा छोटे थे कुंवर सुखलाल जी।
🏵शिक्षा🏵
अरनियां से एक मील की दूरी पर गांव कैरोला में प्राइमरी स्कूल था, उसमें मास्टर सरदार खां थे, जो मुसलमान होते भी रहन सहन व्यवहार से हिंदु थे। कुँवर साहब उनके श्रेष्ठतम शिष्यों में से थे।
🏵गायन 🏵
कंठ बहुत ही सुरीला था ठाकुर नारायण सिंह जी जो संबंध से इनके चाचा थे। वह गायक थे स्वयं ही गीत बनाते जाते थे, साथ ही गाते जाते थे। उनके साथ ही कुँवर साहब गाने लगे।
🏵आर्य समाज में प्रवेश🏵
चान्दौख जिला - बुलंदशहर के ठाकुर महावीर सिंह जी और ठाकुर गिरवर सिंह जी महर्षि दयानंद जी के शिष्य थे। उनके प्रभाव से अरनियां गांव में 20वीं शताब्दी के आरंभ में आर्य समाज की स्थापना हुई। ठाकुर बलवंत सिंह, और मुंशीराम सांवल सिंह जी यहां आर्य समाज के कर्णधार थे।
मुंशी सांवल जी आदि प्रति मास शुक्ल पक्ष में अपनी बैलगाड़ी जोड़कर निकट के गांवों में रात्री प्रचार के लिए जाया करते थे। प्रचार में ठाकुर नारायण, कुं. साहब तथा सरदार सिंह जी के भजन तथा व्याख्यान होते थे। सुखलाल जी की आवाज अच्छी होने केे कारण इनके भजन सुने जाते थे। उन दिनों खड़ताल बजाकर चौधरी तेजसिंह जी के ये भजन गाया करते थे। कुछ ही दिन में कुंवर साहब इस क्षेत्र में काफी लोकप्रिय हो गए। कुछ समय बाद कुँवर साहब गुरुकुल सिकंदाराबाद से जा जुड़े। वहीं पर कुंवर साहब ने हारमोनियम बजाना सीख लिया। फिर हारमोनियम पर गाने बजाने लगे धीरे धीरे कुंवर साहब बाहर जिलो में भी प्रसिद्ध हो गए।
🏵आर्य मुसाफ़िर मिशन से जुड़ाव 🏵
आर्य मुसाफिर पंडित लेखराम जी के निधन के पश्चात पंडित भोजदत्त (जानसठ - मुजफ्फरनगर) ने आगरे में " आर्य मुसाफिर मिशन की स्थापना" करके प्रचार कार्य आरंभ कर दिया " श्री पंडित लेखराम जी यादगार रुप - "आर्य मुसाफिर उपदेशक विद्यालय खोल दिया" ।
श्री पंडित भोजदत्त जी आर्य मुसाफिर, जो बड़े रत्न पारखी थे। उन्होने कुंवर सुखलाल जी को ढूंढ लिया। उनके सुयोग्य पुत्र थे डॉक्टर लक्ष्मीदत्त जी ओर पंडित ताराचंद आर्य मुसाफिर, श्री पं. भोजदत्त जी ने कुंवर साहब को आर्य मुसाफिर नाम देकर अपना तीसरा पुत्र बना लिया। इनके दोनों बेटों ने कुंवर साहब को अपना भाई मान लिया। कुंवर साहब ने स्वंय परिश्रम करके अंग्रेजी सीख ली, उर्दू, फारसी, और कुरान भी पढ़ लिया। थोड़े ही समय बाद श्री कुंवर साहब पुरे देश में प्रसिद्ध हो गए।
सन् 1914 में कुंवर साहब आगरा से प्राचार्थ पेशावर गये थे। अपने व्याख्यानों में आर्य समाज के सिद्धांतों का तो प्रचार करते ही थे पर हिंदु संगठन ,पतितों की शुद्धि और अछूतोद्धार पर सदा अधिक बल देते थे।
पेशावर में इनके भाषण में से सी. आई डी वालों ने यह वाक्य शिकायत के रुप में लिखा की -----
हिंदु लोग कुत्तों और बिल्लियों से तो प्यार करते हैं पर अपने भाइयों को अछूत बताते और उनसे घृणा करते हैं। रिपोर्ट देने वालों ने मूर्खता या धूर्तता से कुत्तों, बिल्लियों इन शब्दों का अर्थ ईसाई व मुसलमानों के लिए अपशब्द बोलने और नफरत फैलाने का दोष लगाया।
🏵गिरफ्तारी🏵
पुलिस ने कुंवर साहब को गिरफ्तार कर लिया और तौहिन मजहब कर अभियोग बनाकर अंग्रेज डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश कर दिया। पेशावर में इनकी पैरवी करने के लिए कोई वकील तैयार नहीं हुआ। कुंवर साहब ने कहा मैं खुद जिरह करूंगा। जब एक गवाह ने कहा कि - मेरे सामने इन्होने यह कहा था कि हिंदु लोग, कुत्तें और बिल्ली से मोहब्बत करते हैं,"" कुत्ता बिल्ली"", इन्होने मुसलमानों और ईसाईयों को कहा था।
कुंवर साहब ने गवाह से पूछा की - जब मैने यह कहा की हिंदु लोग कुत्तों और बिल्लियों से मोहब्बत करते हैं, तब इस फिकरे के साथ मैं हारमोनियम बजा रहा था कि नहीं ? गवाह ने बोला हां! आप हारमोनियम बजा रहे थे। और ढ़ोलकवादक ढो़लक बजा रहा था।
कुंवर साहब ने कहा कि - जनाब मजिस्ट्रेट साहब! यह फिकरा जो मेरे नाम पर लगाया गया है, यह लेक्चर में कहा जा सकता है। म्यूजिक में नहीं और हारमोनियम ढोलक म्यूजिक में बजते हैं लेक्चर में नहीं। इससे साफ होता है मैं निर्दोष हूं।
अंग्रेज मजिस्ट्रेट ने कहा - मिस्टर सुखलाल हम तुमको बरी करता है
पर यह पूछता है की आगरा यहां से सैंकड़ो मील दूर है। तूम यहां इतनी दूर क्यों आया है ??
कुंवर साहब बोले मजिस्ट्रेट साहिब। पेशावर ओर आगरा हिंदुस्तान में हैं! आपके ईसाई पादरी तो समुद्रों को पार करके गैर मुल्कों से हिंदुस्तान में प्रचार करने आते हैं। मैं तो अपने ही देश में गाता बजाता हूं। तब मजिस्ट्रेट ने कुंवर साहब को पुलिस द्वारा घर पहुंचा दिया। ऐसे ही कुंवर साहब की दुसरी गिरफ्तारी 1914 में मुल्तान में हुई। वहां भी इनके प्रचार को आपत्तिजनक समझा गया। वहां से भी इनको प्रचार करके सुरक्षित आगरा पहुंचा दिया।
🏵मुसलमानों द्वारा घातक आक्रमण 🏵
कोंच जिला जालोन उ0.प्र0 में एक मुसलमान प्रचारक ब्रह्मचारी कुतुबुद्दीन नामी आर्य समाज तथा हिंदुवो के विरुद्ध प्रचार करता था, पैरों में खड़ाऊ पहनता, गेरुवो कपड़े पहनता और शिर पर जटाएं रखता था।
कोंच आर्य समाज के उत्सव में कुंवर साहब का अति प्रभावशाली भाषण हुआ। रात्रि को 12 बजे उत्सव समाप्त हुआ। सब उपदेशक आर्य समाज के अधिकारियों के साथ अपने निवास स्थान को जा रहे थे। कुछ मुसलमानों ने उसी ब्रह्मचारी कुतुबुद्दीन के भड़काने से इन लोगों पर भंयकर आक्रमण कर दिया। मुसाफिर अखबार आगरा के मैनेजर बहादुर सिंह का चेहरा लोहे का पंजा मारकर बिगाड़ दिया, कुंवर साहिब का सिर फाड़ दिया। कुंवर साहब बेहोश होकर गिर पड़े। मुसलमानों ने सोचा की मर गए। गिरफ्तारी के भय से उनको पड़ा छोड़कर भाग गए। आर्य समाज के अधिकारी भी भाग गए। कुंवर साहिब अकेले पड़े रह गए। इस आक्रमण की सूचना पाकर डॉ लक्ष्मीदत्त जी आर्य मुसाफिर भी आगरा से कोंच पहुंचे। कुछ दिनों इलाज होने के पीछे सिर पर पट्टी बांधे कुंवर साहिब ने बड़ी सभा में बैठकर वीरतायुक्त भाषण दिया और गीत गाया ----
"शीष जिनके धर्म पै चढ़े हैं, झंडे दुनियां में उनके गडे हैं। एक लड़का हकीकत था नामी, सार जिसने धर्म की थी जानी। जगमें अब तक है उसकी निशानी, शीश कटवाने को खुश जो खड़े हैं ""।
उस सभा में कोंच का हिंदु बच्चा बच्चा उपस्थित था।। कुंवर साहिब का भाषण सुनकर सैंकड़ो लोगों से अश्रु धारा बह रही थी।
🏵हैदराबाद सत्याग्रह🏵

सन् 1939 में हैदराबाद सत्याग्रह हुआ। श्री अमर स्वामी परिव्राजक जी अमुक तिथि को लाहौर से जत्था लेकर हैदराबाद सत्याग्रह के लिए जा रहे थे। ऐसा उनको समाचार पत्रों द्वारा ज्ञात हुआ। उनको विदाई देने पहुंच गए ओर रो पड़े। कहा कि मैं इस सत्याग्रह के पक्ष में नहीं था पर भाई साहब जा रहे हैं तो मैं भी नहीं रुकुंगा!! हे पाठकों ये होती है मित्रता। आज किसी किसी आर्य जन में बची है। कुंवर साहब बोले भाई साहब में भी चलुंगा। आप चलिये! मैं भी आ रहा हूं। स्वामी जी लाहौर रेलमार्ग से 30 सत्याग्रहियों के साथ मुम्बई पहुंच गए। कुंवर साहब कराची गए। और वहां से जत्था बनाकर जलमार्ग से मुम्बई पहुंच गए। दोनों जत्थे मिलकर एक जत्था हो गया।
शोलापुर पहुंचकर पं. धीरेन्द्र जी शास्त्री सर्वाधिकारी के साथ 528 सत्याग्रहियों सहित शोलापुर से गुलवर्गा तक स्पेशल ट्रेन द्वारा पहुंचे। और वहां सत्याग्रह करके जेल में गए। इस जेल में रहते हुवे कुंवर साहब ने कई गजले बनाई। जिनमें से एक इस प्रकार थी ----
यह कैसा फसाना है, यह कैसी कहानी है
सुनकर जिसे महफिल की हर आंख में पानी है
इसका आखिरी मिसरा यह था -
क्या खाक लिखे, जबकि - महबस में मुसाफिर को
दो ज्वार की रोटी हैं और दाल का पानी है।
निजाम की जेलों में ज्वार की दो दो रोटियां और बहुत पतली दाल सबको मिलती थी। दाल रोटी के टुकड़े पर चढ़ नहीं सकती थी। इस कारण सभी सत्याग्रही रोटी को मोड़कर मिलाते ओर खाते थे।
कुंवर साहब को भाषण में हंसाना ओर रुलाना सर्वथा उनके वश में था।
🏵एक कुशल वक्ता 🏵
संगीतज्ञ, निष्णात गायक तो थे ही, उत्कृष्ट कोटि के कवि भी थे। उनकी कविता सरल हिंदी तथा सरल उर्दू दोनों भाषाओं में उपलब्ध होती है। प्राचीन भक्त कवियों की पद शैली का प्रयोग करते हुए उन्होने अनेक भजन लिखे हैं। सुखलाल जी के कवित्तो में यत्र तत्र ब्रज भाषा का माधुर्य तो है ही, सुहावरेदानी तथा वाग्विदग्धता भी कम नहीं है। भारत के प्रति दयादृष्टि करने की प्रार्थना करता हुआ कवि भगवान से विनय करता है ---
दासता की किच बीच भारत निवासी फंसे
करुणा निधान दया दृष्टि सों निहारियो।
भक्त नहीं तो भक्तन के पूत हैं यह
नाती है निहारो नेह, नाती न बिसारियो।
सुना है कि सदा तुम निर्बलो के साथ रहे
हम हैं निर्बल अब हम हूं को तारिये ??
अर्जी हमारी आगे मर्जी तुम्हारी
एक बात की है बात, बात कीजिये कि हारिये
मुसाफिर की गजले आर्य समाज के उर्दू काव्य का श्रंगार है।
उठ खड़े हो हिंदुवो काफी जलालत हो चूकी।
बुजदिलों मरदानगी सीखो नजाकत हो चूकी।।
लाल लाखों कौम के गैरों को अब तक दे चूके।
क्या गजब करते हो रहने दो सखावत हो चूकी।।
इस कविता में कवि ने महात्मा गांधी जी को अपने व्यंग्य बाणों का निशाना बनाया। कारण स्पष्ट है। मुसलमान मौलवियों द्वारा की जाने वाले तबलीक का प्रतिरोध करने तथा जातियो को इस्लाम की दावत को कबूल करने का आग्रह करने वालों को शुद्धि का संखनाद कर, मुंह तोड़ उत्तर देने वाले आर्य समाज को भी महात्मा गांधी ने गलत ठहरा दिया।
निजाम चाहते थे की चूड़ी बेचने वाले, फेरी वाले, कुंजड़े और हर किस्म के लोग इस्लाम के प्रचार के ध्वजवाहक बन जाए। फिर भला वे मंगला मुखियो को यह पाक काम क्यों न सौंपते। तभी मुसाफिर जी को लिखना पड़ा।
रंडियो को काम जब सौंपा गया तबलीक का,
उड़ गई तौहिद हजरत की रसातल हो चूकी।
कुंवर साहब जैसे निर्भिक वैदिक मिशनरी उपदेशकों व कवियों ने आर्य समाज व वैदिक धर्म की ज्योति विश्व में गुंजायमान कर दी। 2 जनवरी 1981 को 92 वर्ष की आयु में कुंवर साहब का निधन हुआ। कुंवर सुखलाल जी के पुरे जीवन पर एक ग्रंथ तैयार हो जाए। जैसी जानकारी मिली वो प्रस्तुत हैं। कुंवर सुखलाल आर्य मुसाफिर को शत शत नमन।
लेखक :- अमर स्वामी परिव्राजक
पुस्तक :- सिंह गर्जना (ऐतिहासिक भाषण एवं क्रांति गीत
सम्पादक :- ठाकुर विक्रम सिंह
प्रस्तुती :- अमीत सिवाहा