Saturday, June 30, 2018

वर्षा ऋतु और वेद



वर्षा ऋतु और वेद 

डॉ विवेक आर्य 

वर्षा ऋतु का आगमन हो गया है। भीष्म गर्मी के पश्चात वर्षा का जल जब तपती धरती पर गिरता है। तो गर्मी से न केवल राहत मिलती है।  अपितु चारों जीवन में नवीनता एवं वृद्धि का समागम होता हैं। वेदों में वर्षा ऋतु से सम्बंधित अनेक सूक्त हैं। जैसे पर्जन्य सूक्त ( ऋग्वेद 7/101,102 सूक्त), वृष्टि सूक्त (अथर्ववेद 4/12) एवं प्राणसूक्त (अथर्ववेद 11/4 ) मंडूक सूक्त (ऋग्वेद 7/103 सूक्त)आदि। पर्जन्य सूक्त मेघ के गरजने, सुखदायक वर्षा होने एवं सृष्टि के फलने-फूलने का सन्देश देता हैं। जबकि मंडूक सूक्त वर्षा ऋतु में मनुष्यों के कर्तव्यों का प्रतिपादन करता हैं।  इस लेख में हम मंडूक सूक्त के 10 मन्त्रों में बताये गए आध्यात्मिक, सामाजिक और शारीरिक लाभों पर प्रकाश डालेंगे। मंडूक शब्द को लेकर कुछ विदेशी विद्वानों ने परिहास किया हैं।  (Brahma und die Brahmanen von Martin Haug,1871) उनका कहना था कि जब सूखा पड़ता है।  तब कुछ ब्राह्मण तालाब के निकट एकत्र होकर मेंढक के समान टर्र टर्र कर वेदों के इस सूक्त को पढ़ते हैं। जबकि अनेक विदेशी लेखकों जैसे ब्लूमफील्ड और विंटरनित्ज़ ने इसके व्यवहार अनुकूल व्याख्या करते हैं। 

विंटरनित्ज़ लिखते है-

 "ग्रीष्म ऋतू में मेंढक ऐसे निष्क्रिय पड़े रहते हैं जैसे मौन का व्रत किये हुए ब्राह्मण। इसके अनन्तर वर्षा आती है मंडूक प्रसन्नतापूर्वक टर्र टर्र के साथ एक दूसरे का स्वागत करते हैं। जैसे कि पिता पुत्र का। एक मंडूक दूसरे मंडूक की ध्वनि को इस प्रकार दोहराता है, जैसे शिष्य वेदपाठी ब्राह्मण गुरु के मन्त्रों को। मंडूकों के स्वरों के आरोह व अवरोह अनेक प्रकार के होते हैं। जिस जिस सोमयाग में पुरोहित पूर्ण पात्र के साथ ओर बैठकर गाते हैं, ऐसे ही मंडूक अपने गीतों से वर्षा ऋतु के प्रारम्भ मनाते हैं। "  

(सन्दर्भ-प्राचीन भारतीय साहित्य का इतिहास, हिंदी संस्करण, पृष्ठ 80, (A History Of Indian Literature) विदेशी लेखक ऍम विंटरनिटज M Winternitz)

 विदेशी लेखक  मंडूक से केवल मेंढक का ग्रहण  करते है। जबकि आर्य विद्वान् पंडित आर्य मुनि जी मंडूक से वेदानां मण्डयितार: अर्थात वेदों को मंडन करने वाले ग्रहण करते हैं। वर्षा ऋतु के साथ श्रावणी पर्व का आगमन होता है। इस पर्व में मनुष्यों को वेद का पाठ करने का विधान हैं।  इस पर्व में वेदाध्ययन को वर्षा आरम्भ होने पर मौन पड़े मेंढक जैसे प्रसन्न होकर ध्वनि करते है। वेद कहते है कि हे वेदपाठी ब्राह्मण वर्षा आरम्भ होने पर वैसे ही अपना मौन व्रत तोड़कर वेदों  सम्भाषण आरम्भ करे। मंडूक सूक्त के प्रथम मन्त्र का सन्देश ईश्वर के महत्त्व गायन से वर्षा का स्वागत करने का सन्देश हैं। इस सूक्त के अगले चार मन्त्रों में सन्देश दिया गया है कि गर्मी के मारे सुखें हुए मंडूक वर्धा होने पर तेज ध्वनि निकालते हुए एक दूसरे के समीप जैसे जाते हैं वैसे ही हे मनुष्यों तुम भी अपने परिवार के सभी सदस्यों, सम्बन्धियों, मित्रों, अनुचरों आदि के साथ संग होकर वेदों का पाठ करों। जब सभी समान मन्त्रों से एक ही पाठ करेंगे तो सभी की ध्वनि एक से होगी। सभी के विचार एक से होंगे। सभी के आचरण भी श्रेष्ठ बनेंगे। गुरुकुल में विद्यार्थी गुरु के पीछे एक समान मन्त्रों को दोहराये। गृहस्थी पुरोहित के पीछे दोहराये। वानप्रस्थी और सन्यासी भी अपने वेदपाठ द्वारा समाज को दिशानिर्देश दे। इन मन्त्रों का सामाजिक सन्देश समाज का संगतिकरण करना हैं।  यह सामाजिक सन्देश आज के समय में टूटते परिवारों के लिए भी अत्यंत आवश्यक हैं। जहाँ पर संवादहीनता एवं स्वार्थ मनुष्यों में दूरियां उत्पन्न कर रहा हैं। वही संगतिकरण का वेदों का सन्देश अत्यंत व्यावहारिक एवं स्वीकार करने योग्य हैं।  मंडूक सूक्त का छठा मंत्र वृहद् महत्व रखता है। इस मन्त्र में कहा गया है की मेंढ़कों में कोई गौ के समान ध्वनि करता है।  कोई बकरे के समान करता है। कोई मेंढक चितकबरे रंगा का तो कोई हरे रंग का होता है। अनेक रूपों वाला होने के बाद भी सभी मेंढक का नाम एक ही है। सभी मिलकर एक ही वेद वाणी बोलते है।   सामाजिक अर्थ चिंतन करने योग्य है। समाज में कोई मनुष्य धनी हैं, तो कोई निर्धन है।  सभी के वर्ण भी अलग अलग है।  भिन्न भिन्न पृष्ठ्भूमि , भिन्न भिन्न योग्यता ,भिन्न भिन्न व्यवसाय , भिन्न भिन्न वर्ण होने के बाद भी सभी मनुष्य बिना किसी भेदभाव के एकसाथ मिलकर वेदों का पाठ करे। यह सामाजिक सन्देश जातिवाद के विरुद्ध वेदों का अनुपम सन्देश हैं। मंडूक सूक्त के अगले तीन मन्त्रों में मनुष्यों को ईश्वरीय वरदान वर्षा ऋतु का आरम्भ तप करते हुए सोमयाग आदि अग्निहोत्र करने का सन्देश देते हैं। यज्ञ में संगतिकरण के अतिरिक्त इन मन्त्रों के पाठ करते हुए बड़े बड़े होम किये जाये। यह होम एवं आचरण रूपी व्रत एक दिन, चातुर्मास अथवा  वर्ष भर भी चल सकते हैं। वेद पाठ के आरम्भ को उपाकर्म कहा जाता है।  और व्रत समाप्ति पर किये जाने वाले संस्कार को उपार्जन कहते है।  यह वैदिक संस्कार मनुष्य को व्रतों के पालन का सन्देश देते हैं। वर्षा ऋतु में अग्निहोत्र करने का विधान पर विशेष बल इसलिए भी दिया गया है क्यूंकि इस ऋतु में अनेक बीमारियां भी फैलती हैं। इनबीमारियों से बचाव में यज्ञ अत्यंत लाभकारी हैं। पंडित भवानी प्रसाद जी अपनी पुस्तक आर्य पर्व पद्यति में वर्षाकाल में हवन सामग्री में काला अगर, इंद्र जौ, धूपसरल, देवदारु, गूगल, जायफल, गोला, तेजपत्र, कपूर, बेल, जटामांसी, छोटी इलायची, गिलोय बच, तुलसी के बीज, छुहारे, नीम आदि के साथ  गौ घृत से हवन करने का विधान लिखते हैं। यह वैदिक विज्ञान आदि काल से ऋषियों को ज्ञात था। इन जड़ी बूटियों के होम में प्रयोग से वे वर्षा ऋतु में फैलनी वाली बिमारियों से अपनी रक्षा करते थे। यह शारीरिक विज्ञान मंडूक सूक्त के सन्देश में समाहित हैं। इस सूक्त का अंतिम मन्त्र एक प्रकार से फलश्रुति है।  इस मन्त्र में वेदों के व्रत का पालन करने वाले के लाभ जैसे अनंत शिक्षा का लाभ, ऐश्वर्या और आयु वृद्धि की प्राप्ति का हृदय में प्रभाव, परमात्मा की उपासना का सन्देश आदि  बताया गया हैं। वेदव्रती ब्राह्मणों अर्थात मंडूकों से हमें सैकड़ों गौ की प्राप्ति हो अर्थात हमारा कल्याण हो। 

तुलसीदास रामायण में एक चौपाई मंडूक सूक्त से सम्बन्ध में आती है।

दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई॥
नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका॥
-किष्किन्धा काण्ड 

अर्थात वर्षा का वर्णन में श्रीराम जी लक्ष्मण को कहते हैं- वर्षा में मेंढको की ध्वनी इस तरह सुनाई देती है जैसे बटुकसमुदाय ( ब्रह्मचारीगण) वेद पढ़ रहे हों। पेड़ों पर नए पत्ते निकल आये है। एक साधक योगी के मन को यह विवेक देने वाला हैं। 

आईये मंडूक सूक्त से वेदव्रती होने का व्रत वर्षाऋतु में ले और संसार का कल्याण करें। 

सन्दर्भ ग्रन्थ-

ऋग्वेद भाष्य पंडित आर्यमुनि जी 
ऋग्वेद भाष्य पंडित श्री पाद दामोदर सातवलेकर 
ऋग्वेद भाष्य- पंडित हरिशरण सिद्धान्तालंकार 
आर्यपर्व पद्यति- पंडित भवानीप्रसाद 
वैदिक विनय- आचार्य अभयदेव 
प्राचीन भारतीय साहित्य का इतिहास- ऍम विंटरनिटज
रामचरितमानस -तुलसीदास

Friday, June 29, 2018

क्या वेद में काल्पनिक जन्नत है?





क्या वेद में काल्पनिक जन्नत है?
- कार्तिक अय्यर

।।ओ३म्।।
नमस्ते मित्रों ।
नास्तिक अंबेडकरवादी और मुसलमान आदि लोग वेदों पर काल्पनिक जन्नत होने का आक्षेप करते हैं। राकेश नाथ अपनी पुस्तक "कितने खरे हमारे आदर्श" और सुरेंद्रकुमार अज्ञात "क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदू धर्म" में आक्षेप करते हैं कि वेदों में काल्पनिक स्वर्ग का वर्णन है, इसी के लालच में हिंदू लोग ईश्वर,आत्मा,वेद आदि का पाखंड करते थे। अर्थात् हिंदुओं का धर्म-कर्म केवल ये स्वर्ग पाना ही है।

हम अथर्ववेद कांड ४ सूक्त ३४ का प्रमाण देते हैं, जहां पर गृहस्थाश्रम को ही स्वर्ग कहा गया है। दरअसल सुखविशेष को वेद स्वर्ग कहते हैं। कोई दूसरा ग्रह नहीं है, अपितु सुखद गृहस्थलोक को ही स्वर्ग कहा गया है। अवलोकन कीजिये:-

मंत्र-१ में ब्रह्मचर्य को (तपसः अधि) कहा गया है,यानी गृहस्थाश्रम में आने से पहले का तप।यहां गृहस्थाश्रम को विष्टारी कहा गया है, अर्थात् संतानोत्पत्ति द्वारा विस्तार करने वाला।

इसके अगले मंत्र में मुसलमान और नास्तिक लोग वेद में इस्लाम की जन्नत जैसा वर्णन होना बताते हैं। मंत्र इस तरह है:-

अनस्थाः पूताः पवनेन शुद्धाः शुचयः शुचिमपि यन्ति लोकम् ।
नैषां शिश्नं प्र दहति जातवेदाः स्वर्गे लोके बहु स्त्रैणमेषास्वामी।।२।।

"जो अस्थिपंजर नहीं है,अपितु मांसल और हृष्ट-पुष्ट है,आचार से पवित्र है, पवित्र वायु द्वारा शुद्ध है।विचारों द्वारा शुचि है,वे ही (शुचिम् लोकम्) शुचि-गृहस्थलोक में प्रविष्ट होते हैं। प्रज्ञानी ईश्वर (एषाम्)इनकी (शिश्नम्) प्रजनन-इंद्रिय को (न प्र दहति) प्रदग्ध नहीं करता,(स्वर्गे लोके) स्वर्ग रूप गृहस्थ लोक में इनके (बहु स्त्रैण) बहुत स्त्री समूह होते हुये भी।।२।।

लोकम्=गृहस्थलोक यथा " अदुर्मंगली पतिलोकमा विशेमं शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे"( अथर्ववेद १४/२/४०)। यहां यह भाव है कि जो व्यक्ति ब्रह्मचर्याश्रम में रहकर संयम-नियम से जीता है, गृस्थलोक में अनेक स्त्रियों के होते हुये भी केवल अपनी पत्नी से समागम करता है। परमेश्वर उसे कर्मफल देकर उसके शिश्नेंद्रिय को दाहरूपी दुष्फल यानी निर्वीर्य होना,सा अन्य घृणित रोग नहीं होने देता।
यहां कुछ मौलाना लोग अर्थ लगाते हैं कि यहां पर किसी काल्पनिक स्वर्ग लोक में हूरों की तरह शिश्न से भोग किया जायेगा। पर ये धारणा बिलकुल गलत है। स्वर्ग केवल सुख का नाम है। स्वर्ग के और स्वरूप देखें अथर्ववेद ६/१२२/२ में।

इसी सूक्त के ४थे मंत्र में स्वर्ग को भूलोक वाला कहा है:-

विष्टारिणमोदनं ये पचन्ति नैनान् यमः परि मुष्णाति रेतः ।
रथी ह भूत्वा रथयान ईयते पक्षी ह भूत्वाति दिवः समेति ॥४॥

यहां कहा है कि वीर्यवान गृहस्थी (रथी भूत्वा) रथ स्वामी होकर (रथयाने) रथ द्वारा जाने योग्य भूलोक में (ईयते)संचार करता है, और (ह) निश्चय से पक्षी होकर अंतरिक्ष प्रभृति ऊपप के लोकों को अतिक्रांत करके तत्रस्थ निवासियों के संग को प्राप्त करता है।।४।।
यहां पर 'रथयाने ईयते'- इसकी व्याख्या सायणाचार्य ने 'भूलोके' की है। इससे ज्ञात हुआ कि मंत्र २ में स्वर्ग लोक भूलोक में ही है, नाकि किसी काल्पनिक जन्नत का यहां वर्णन है।

मंत्र ६ में कुछ वामपंथी व मुसलमान इस्लामी जन्नत की तरह "शराब व शहद की नहरें" ढूंढ़ते हैं।

घृतह्रदा मधुकूलाः सुरोदकाः क्षीरेण पूर्णा उदकेन दध्ना ।
एतास्त्वा धारा उप यन्तु सर्वाः स्वर्गे लोके मधुमत्पिन्वमाना उप त्वा तिष्ठन्तु पुष्करिणीः समन्ताः ॥६॥

यहां पर (घृतह्रदाः) घृत के तालाब सदृश महाकाय मटके (मधुकूलाः) मधु द्वारा किनारे तक भरे हुये मटको(सुरोदकाः) आयुर्वैदिक अरिष्ट व आसववाले मटके (क्षीरेण) तथा,दूध द्वारा,उदक द्वारा, दधि द्वारा भरपूर भरे मटके, ये सब गृस्थलोकस्थ व्यक्ति को प्राप्त हो, ऐसा कहा गया है।।६।।

यहां पर सुरोदकाः= "सुरा उदकनाम" (निघंटु १/१२) अर्थात् संधानविधि द्वारा शुद्ध किया जल-यह अभिप्राय निघंटु से प्रतीत होता है। साथ ही, सुरा सोमलता का भी अर्थ देता है। अतः यहां "सुरा" का तात्पर्य शराब की नहरें न होकर आयुर्वैदिक अरिष्ट व आसव हैं।
( अथर्ववेद भाष्य, पं विश्वनाथ विद्यालंकारकृत, ४/३४)

इस तरह से पता चला कि वेद में सुखद गृहस्थाश्रम को ही स्वर्ग कहा गया है। यही सुखद गृहस्थ दूध,घी,शहद आदि वाला होता है। अतः नास्तिकों व मुस्लिमों के आक्षेप मिथ्या हैं।

संदर्भ ग्रंथ एवं पुस्तकें:-
अथर्ववेद भाष्य- पं विश्वनाथ विद्यालंकार

Thursday, June 28, 2018

वेदों में ईश्वर के एक होने के प्रमाण



वेदों में ईश्वर के एक होने के प्रमाण

लेखक-पंडित धर्मदेव विद्यामार्तण्ड

वेदों में ईश्वर के एक होने (Monotheism) का वर्णन है जबकि पश्चिमी विद्वानों द्वारा वेदों में अनेक ईश्वर (Polytheism) होना बताया गया है। स्वामी दयानंद द्वारा वेद विषयक वैचारिक क्रान्ति का मैक्समूलर पर इतना प्रभाव हुआ कि कालान्तर में मैक्समूलर भी वेदों में एकेश्वरवाद की धारणा का समर्थन करने पर विवश हो गये। इस सन्दर्भ में वेदों के प्रकाण्ड विद्वान् पण्डित धर्मदेव विद्यामार्तण्ड जी द्वारा लिखित यह अलभ्य लेख "वैदिक ईश्वरवाद" हमारी शंका का समाधान करने के साथ-साथ अत्यन्त रोचक और विचारणीय है।

(१) कई विद्वान 'वेद असभ्य जंगली लोगों द्वारा बनाये गये और उनमें इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के परिहार के लिये अग्नि, वायु, सूर्य, नदी, समुद्र, पर्वत आदि की पूजा का इन्द्र, मित्र, वरुण, मरुत आदि देवों के नाम से उपदेश है' ऐसा बताते हैं।

(२) अन्य कई विद्वान् वेदों में अनेकेश्वरवाद का जिसे अंग्रेजी में (Polytheism) कहते हैं विधान नहीं किन्तु Henotheism वा हीनदेवतावाद का प्रतिपादन है ऐसा कहते हैं। जिसका अभिप्राय यह है कि जब कोई भक्त अग्नि की स्तुति करने लगता है तो वह उसी को सर्वोत्तम, सबका उत्पादक और सर्वशक्तिमान् मानकर उसकी पूजा करता है और दूसरे सब देवताओं को उसकी अपेक्षा हीन मानता है। जब वही कवि इन्द्र की स्तुति करने लगता है तो उसे ही सबका स्वामी, सबका पिता और सर्वशक्तिमान् मानता और अन्य सब देवों को उसकी अपेक्षा हीन बताता है। इसी प्रकार वरुण, सविता आदि के विषय में भी समझना चाहिए। सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् प्रो० मैक्समूलर ने बहुत देर तक इसी मत का समर्थन किया था यद्यपि अपने अंतिम ग्रन्थ "Six Systems Of Philosophy" के लिखने के समय में उसके विचारों में परिवर्तन हो चुका था ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है।

(३) अन्य कई विकासवादी और ऐतिहासिक यह कहते हैं कि वैदिक कवि लोग पहले अनेकेश्वरवाद वा बहुदेवतावाद (Poly-theism) को ही मानते थे फिर वे हीनदेवतावाद को मानने लगे गये। क्रम से जब उनकी बुद्धि विकसित होती गई तो विशुद्ध एकेश्वरवाद (Pure monotheism) की कल्पना उनके मन में उत्पन्न हुई। इस प्रकार विकासवाद की दृष्टि से एकेश्वरवाद का प्रतिपादन करने वाले मन्त्र नवीन हैं।

(४) अन्य विद्वान ऐसा मानते हैं कि वेद ईश्वरीय ज्ञान रूप है। ऋषि मन्त्रों के कर्त्ता नहीं किन्तु "ऋषयो मन्त्र द्रष्टार" "ऋषिर्दर्शनान् सहीमान् ददर्शेति" "तद् यदेनास्तपस्यमानान् ब्रह्म स्वम्भ्य भ्यानर्शत् तदृषीणामृषित्वमिति विज्ञायते" (निरुक्तम्)।

इत्यादि प्रमाणों से वे मन्त्रों के द्रष्टा अर्थात् वेदों के गूढ़ अर्थ को समझ कर उनका प्रचार करने वाले थे। परमदयालु सर्वज्ञ भगवान् द्वारा प्राणिमात्र के उपकार के लिये सृष्टि के शुरू में प्रकट किये जाने के कारण वेद विशुद्ध रूप में एकेश्वरवाद का ही प्रतिपादन करते हैं न कि अनेकेश्वरवाद का। यह अन्तिम पक्ष ही हमको मान्य है। उसके समर्थक कुछ स्पष्ट प्रमाणों का यहां उल्लेख करके दूसरे विचारों की आलोचना की जायगी। निम्नलिखित वेद मन्त्र एकेश्वरवाद का अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादन करते हैं।

(१) इंद्र मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्। एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु:।। ऋ० १/१६४/४६

इस मन्त्र में यह स्पष्टतया बताया गया है कि परमेश्वर एक ही है किन्तु विद्वान् उसके अनन्त गुणों को सूचित करने के लिए इन्द्र मित्र वरुण आदि नामों से पुकारते हैं। इस प्रकार इन्द्र मित्र वरुणादि शब्द मुख्यतया ईश्वर-वाचक हैं यह स्पष्ट सिद्ध होता है। परमात्मा परमैश्वर्य सम्पन्न होने से इन्द्र, सबका मित्र तथा प्रेममय होने से मित्र, सबसे उत्तम और वरणीय तथा अविद्यादि दोष निवारक होने से वरुण, ज्ञान स्वरूप और अग्रणी सबसे श्रेष्ठ होने से अग्नि पद से उसे कहा जाता है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, महेश्वर, महादेव, बृहस्पति इत्यादि शब्द प्रधानतया उसी एक परमेश्वर को सूचित करते हैं। यह निम्न मन्त्रों से सिद्ध होता है।

(२) त्वमग्न इन्द्रो वृषभ: सतामसि त्वं विष्णुरुरुगायो नमस्य:। त्वं ब्रह्मा रयिविद्ब्रह्मणस्पते त्वं विधर्त: सचसे पुरंध्या।। ऋ० २/१/३

(३) त्वमग्ने राजा वरुणो धृतव्रतस्त्वं मित्रो भवसि दस्म ईड्य:। त्वमर्यमा सत्पतिर्यस्य सम्भुजं त्वमंशो विदथे देव भाजयु:।। ऋ० २/१/४

(४) त्वमग्ने रुद्रो असुरो महो दिवस्त्वं शर्धो मारुतं पृक्ष ईशिषे। त्वं वातैररुणैर्यासि शंगयस्त्वं पूषा विधत: पासि नु त्मना।। ऋ० २/१/६

(५) सोऽर्यमा स वरुण: स रुद्र: स महादेव:।
सो अग्नि: स उ सूर्य: स उ एव महायम:। अथर्व० १३/४/४, ५

(६) त्वमिन्द्रस्त्वम्महेन्द्रस्त्वं लोकस्त्वं प्रजापति:। तुभ्यं यज्ञो वि तायते तुभ्यं जुह्वति जुह्वतस्तवेद्विष्णो बहुधा वीर्याणि।। अथर्व० १७/१/१८

इन मन्त्रों पर यदि निष्पक्ष विचार किया जाये तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि एक ही परमात्मा के ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, इन्द्र, वृषभ, बृहस्पति, अग्नि, प्रजापति, वरुण, मित्र, अर्यमा, पूषा आदि नाम हैं और इस प्रकार वेदों में अनेकेश्वरवाद के भ्रम का कोई स्थान नहीं रहता। सत्य ग्रहण करने में उद्यत और पाश्चात्य विद्वानों की मानसिक दासता को स्वीकार करने वाले विद्वानों को इन मन्त्रों का अच्छी प्रकार मनन करना चाहिए तब उनका वैदिक एकेश्वरवाद में दृढ़ विश्वास हो जायेगा, इसमें सन्देह नहीं। इन मन्त्रों पर विचार करने से हीन देवतावाद का भी खण्डन हो जाता है।

(७) तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमा:।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ताऽआप: स प्रजापति:।। यजु० ३२/१

यह मन्त्र भी एकेश्वरवाद का प्रतिपादन करते हुए उसी परमेश्वर के अग्नि, आदित्य, वायु, चन्द्रादि नाम हैं, इस बात को स्पष्ट घोषित करता है। ऐसे मन्त्रों के भाव को लेकर ही कैवल्योपनिषद् में-

सब्रह्मा सविष्णु सरुद्र: सशिव: सोऽक्षर:।
स परम:स्वराट्। स इन्द्र: स कालाग्नि: स चन्द्रमा:।।

ऐसे कहा है।

भगवान् मनु ने भी-

प्रशासितारं सर्वेषां अणीयांसं अणोरपि।
रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विद्यात्तं पुरुषं परम्।।
एतं एके वदन्त्यग्निं मनुं अन्ये प्रजापतिम्।
इन्द्रं एके परे प्राणं अपरे ब्रह्म शाश्वतम्।। मनु० १२/१२१-१२३

इत्यादि श्लोकों द्वारा उसी वैदिक भाव का समर्थन किया है।

(८) यो नः पिता जनिता यो विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा। यो देवानां नामध एक एव तं सम्प्रश्नं भुवना यन्त्यन्या।। ऋ० १०/८२/३

इस मन्त्र में भी परमात्मा एक ही है जो देवों के नाम अग्नि, मित्र, वरुणादि को धारण करनेवाला है। ऐसा साफ कहा है। यही मन्त्र अथर्ववेद के २/१/३ में थोड़े पाठ भेद के साथ इस प्रकार पाया जाता है-

"स नः पिता जनिता स उत बन्धुर्धामानि वेद भुवनानि विश्वा। यो देवानां नामध एक एव तं सम्प्रश्नं भुवना यन्ति सर्वा।।"

इन दोनों मन्त्रों में प्रयुक्त "यो देवानां नामध एक एव" यह अंश विशेष मननीय है जो वेदों में अनेकेश्वर वाद विषय के भ्रम को दूर करने को पर्याप्त है।

(९) परमात्मा एक ही है जो सर्वदा और सर्वशक्तिमान होने से एक मात्र स्तुति करने योग्य है ऐसा निम्नलिखित ऋग्वेदीय मन्त्र में उपदेश किया गया है।

"य एक इत्तमु ष्टुहि कृष्टीनां विचर्षणि:। पतिर्जज्ञे वृषक्रतु:।।" ऋ० ६/४५/१६

इस मन्त्र में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में एकेश्वरवाद का प्रतिपादन है। ऐसी अवस्था में वेद अनेकेश्वरवाद वा हीन-देवतावाद का समर्थन करते हैं, ऐसा कहना कितना अशुद्ध तथा पक्षपात सूचक है यह बुद्धिमान स्वयं निश्चय कर सकते हैं।

(१०) ऋग्वेद ८/१/१ साम-द ३/१/१० में पाया जाने वाला निम्न मन्त्र इन्द्र पद से परमात्मा का बोध कराते हुए अनेकेश्वरवाद का खण्डन और एकेश्वरवाद का प्रबल समर्थन करता है।

"मा चिदन्यद्वि शंसत सखायो मा रिषण्यत। इन्द्रमित्स्तोता वृषणं सचा सुते मुहुरुक्था च शंसत।।"

अर्थ- हे मित्रो! केवल सर्वैश्वर्य सम्पन्न परमात्मा की स्तुति करो अन्य किसी की नहीं। इस प्रकार अन्यों की स्तुति करके दुःखी न होओ। बार-बार यज्ञादि सब शुभ कर्मों में समस्त सुखवर्षक भगवान् की ही स्तुति करते रहो।

(११) वही एक इन्द्रादि पद वाच्य परमात्मा ही पूजा करने योग्य है अन्य नहीं, यह भाव निम्न मन्त्र में भी स्पष्टतया पाया जाता है।

"य एक इद्धव्यश्चर्षणीनामिन्द्रं तं गीर्भिरभ्यर्च आभि:। य: पत्यते वृषभो वृष्ण्यावान्त्सत्य: सत्वा पुरुमाय: सहस्वान्।।" ऋ० ६/२२/१

'चर्षणी' शब्द का अर्थ निघण्टु में मनुष्य दिया ही है अतः वह एक परमेश्वर ही सब मनुष्यों का पूजनीय है यह मन्त्रार्थ है।

(१२) प्रजापति (सारी प्रजा का पालक) परमात्मा एक ही है और वही सर्व व्यापक, सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ होने से पूजनीय है, यह हिरण्यगर्भ सूक्त में अनेकेश्वरवाद का निराकरण करते हुए इस प्रकार स्पष्ट बताया गया है।

"प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव। यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्।।"

इसी सुप्रसिद्ध हिरण्यगर्भ सूक्त के "हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे"। इसी प्रथम मन्त्र को पहले उद्धत किया ही जा चुका है। उसी सूक्त में।

"यो देवेष्वधिदेव एक आसीत कस्मै देवाय हविषा विधेम।।" यही मन्त्र परमात्मा को देवाधिदेव बताते हुए उसी की पूजनीयता का प्रतिपादन करता है। इस सूक्त के बारे में प्रो० मैक्समूलर ने "History of the Sanskrit Literature" पृ० ५६८ में इस प्रकार लिखा है।

"I add only one more hymn (RIG 10.121) in which the idea of one God is expressed with such power and decision, that it will make us hesitate before we deny to the Aryan nature an instinctive monotheism."

अर्थात् मैं एक और सूक्त ऋ० १०/१२१ को उद्धृत करता हूं जिसमें एकेश्वरवाद का इतने स्पष्ट तथा प्रबल शब्दों में प्रतिपादन है कि हमें आर्य जाति में स्वाभाविक एकेश्वरवाद से इन्कार करने में बहुत ही संकुचित होना पड़ेगा।

(१३) अथर्व वेद के १३ काण्ड में भी अनेकेश्वर का निराकरण करते हुए एकेश्वरवाद का इन स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादन है।

"न द्वितीयो न तृतीयश्चतुर्थो नाप्युच्यते न पञ्चमो न षष्ठ: सप्तमो नाप्युच्यते। नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते स एष एक एक वृदेक एव।।" अथर्व० १३/४/१६-२१

यहां एक (वृत् का अर्थ एक सन् वृणोति- व्याप्नोति सर्वे जगत्) इस व्युत्पत्ति से सर्वव्यापक है। क्या इनसे साफ एकेश्वरवाद का प्रतिपादन हो सकता है? ऐसा होने पर भी जो महानुभाव वेदों को अनेकेश्वरवाद प्रतिपादक बताते हैं उनका विकासवादादि विषय में पक्षपात ही सूचित होता है न कि सत्य ग्रहण करने की इच्छा।

(१४) वह एक परमेश्वर ही सारे संसार का स्वामी और पूजनीय है इस विषय को निम्नलिखित दो अथर्ववेद के मन्त्र भी स्पष्टतया बताते हैं।

"दिव्यो गन्धर्वो भुवनस्य यस्पतिरेक एव नमस्यो विक्ष्वीड्य:। तं त्वा यौमि ब्रह्मणा दिव्य देव नमस्ते अस्तु दिवि ते सधस्थम्।।" अथर्व० २/२/१

(१५) मृडाद्गन्धर्वो भुवनस्य यस्पतिरेक एव नमस्य: सुशेवा:।। अथर्व० २/२/२

यहां गन्धर्व: का अर्थ (गा वाणी सूर्य भूमि वा धरतीति गन्धर्व) इस व्युत्पत्ति के अनुसार वाणी सूर्य वा भूमि का धारण करने वाला और सुशेवा का उत्तम, सुखदायक है। इस मन्त्र में प्रयुक्त 'एक एव नमस्य' वह एक परमेश्वर ही पूजा करने योग्य है ये शब्द वेदों में अनेकेश्वरवाद विषयक भ्रम को दूर करने के लिये पर्याप्त हैं यदि इन पर निष्पक्ष होकर विचार किया जाए। और भी सैकड़ों प्रमाण वेदों के विशुद्ध एकेश्वरवाद को सिद्ध करने के लिये दिये जा सकते हैं किन्तु विस्तारभय से इस विषय को यहीं समाप्त किया जाता है। भिन्न २ वेदों और स्थलों से उद्धृत ये मन्त्र स्पष्ट सिद्ध करते हैं कि वेदों में एकेश्वरवाद ओत प्रोत है। अनेकेश्वरवाद हीनदेवतावाद (Henotheism) वा विकासवाद (Evolution theory) के द्वारा इन मन्त्रों की किसी प्रकार भी व्याख्या नहीं की जा सकती। इसलिये निष्पक्ष अनेक प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान् भी अब वेदों में एकेश्वरवाद का प्रतिपादन है इस बात को मानने लगे गये हैं- जैसा कि निम्न उद्धरणों से प्रमाणित होता है।

पाश्चात्य विद्वान और वैदिक एकेश्वरवाद

(१) प्रो० मैक्समूलर के History of the Sanskrit Literature से एक उद्धरण पहिले दिया जा चुका है। निम्न उद्धरण उनके अन्तिम ग्रन्थ "Six Systems Of Philosophy" से दिया जाता है जिसमें उन्होंने स्पष्टतया स्वीकार किया है कि इन्द्र, अग्नि, मातरिश्वा, प्रजापति आदि नामों से वेदों में वस्तुतः एक ईश्वर का ही प्रतिपादन है।

“Whatever is the age when the collection of our Rigveda Sanhita was finished, it was before that age that the conception had been formed that there is but one, One Being, neither male nor female, a Being raised high above all the conditions and limitations of personality and nevertheless the Being that was really meant by all such names as Indra, Agni, Matarishva and by the name of Praja Pati- Lord of creatures. In fact, the Vedic Poets had arrived at a conception of Godhood which was reached once more by some of the Christian Philosophers of Alexandria, but which even at present is beyond the reach of many who call themselves Christians."

(२) मि० चार्ल्स कोलमैन (Charles Coleman) नामक सुप्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान् ने वैदिक ईश्वरवाद के विषय में अपना अभिप्राय इन शब्दों में प्रकट किया है।

“The Almighty, Infinite, Eternal, Incomprehensible, Self-existent, Being, He who sees everything though never seen is Brahma, the One Unknown True Being, the Creator, the Preserver and Destroyer of the Universe. Under such and innumerable other definitions is the Deity acknowledged in the Vedas.”
(Mythology of the Hindus)

भावार्थ यह है कि वेदों में परमात्मा को एक सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापक, अनन्त, नित्य, अविक्षेय, स्वयम्भू, सर्व द्रष्टा, जगत् का कर्ता, धर्ता और संहर्ता आदि रूप से बताया गया है।

(३) कौन्ट जार्न्स जर्ना नामक प्रसिद्ध विद्वान् ने 'Theogony of the Hindus' नामक पुस्तक में वेद मन्त्रों के प्रमाण देते हुए लिखा है-

“These truly sublime ideas can not fail to convince us that the Vedas recognise only one God, which is Almighty, Infinite, Eternal, Self-existent, the Light and Lord of the Universe.”

अर्थात इन उदाहरणों से हमें यह विश्वास हुए बिना नहीं रह सकता कि वेद एक ही परमात्मा को स्वीकार करते और उसका प्रतिपादन करते हैं जो सर्वशक्तिमान, अनन्त, नित्य, स्वयम्भू, जगत का प्रकाशक और स्वामी है।

(४) कोलब्रूक (Colebrook) नामक प्रसिद्ध अंग्रेज विद्वान ने प्राचीन हिन्दू धर्म के विषय में इस प्रकार लिखा है-

“The ancient Hindu Religion as founded on the hindu scriptures (Vedas) recognise but one God.”
(Asiatic Researches Vol III P 385)

सारांश यह है कि हिन्दू धर्म ग्रन्थों (वेदादि शास्त्रों) पर आश्रित हिन्दू धर्म एकेश्वरवाद का ही प्रतिपादन करता है।

(५) अर्नेस्ट वुड (Ernest Wood) नामक सुप्रसिद्ध अंग्रेज विद्वान ने "An English man defends mother Indra" नामक पुस्तक में ईश्वरवाद के विषय में यों लिखा-

In the eyes of the Hindus, there is but one, Supreme God. This was stated long ago in the Rigveda in the following words “एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति” Which may be translated, “The sages name the One Being variously.”
(Page 128.)

अर्थात् हिन्दुओं की दृष्टि में एक ही परमात्मा है। इसका प्रतिपादन बहुत प्राचीन समय में ऋग्वेद में 'एकं  सद्विप्रा बहुधा वदन्ति' इत्यादि शब्दों द्वारा किया गया था जिसका अर्थ है कि विद्वान् लोग एक ही परमेश्वर को अनेक नामों से पुकारते हैं।

अन्य भी अनेक उद्धरण पाश्चात्य विद्वानों के ग्रन्थों से वैदिक एकेश्वरवाद के समर्थन में दिये जा सकते हैं किन्तु विस्तार के भय से अभी इतने ही पर्याप्त समझकर देवों के विषय में विचार प्रारम्भ किया जाता है।

Tuesday, June 26, 2018

वन्दे मातरम गीत और बंकिम चंद्र चटर्जी



वन्दे मातरम गीत और बंकिम चंद्र चटर्जी

(बंकिम चंद्र चटर्जी के जन्मदिवस 27/6/1838 पर विशेष रूप से प्रकाशित)

डॉ विवेक आर्य

आज बंकिम चंद्र चटर्जी का जन्मदिवस है। आप प्रसिद्द गीत वन्दे मातरम के रचियता थे। हमारे देश के कुछ मुस्लिम भाई बहकावे में आकर वन्दे मातरम गान का बहिष्कार कर देते हैं। उनका कहना है कि वन्दे मातरम का गान करना इस्लाम की मान्यताओं के खिलाफ है। दुनिया में शायद भारत ही ऐसा पहला देश होगा जिसमें राष्ट्रीय गीत और राष्ट्रीय गान अलग अलग हैं। हमारे देश का यह दुर्भाग्य है कि अल्पसंख्यकों को प्रोत्साहन देने के नाम पर, तुष्टिकरण के नाम पर राष्ट्रगीत के अपमान को कुछ लोग आंख बंदकर स्वीकार कर लेते है।

भारत जैसे विशाल देश को हजारों वर्षों की गुलामी के बाद आजादी के दर्शन हुए थे। वन्दे मातरम वह गीत है, जिससे सदियों से सुप्त भारत देश जग उठा और अर्ध शताब्दी तक भारत के स्वतंत्रता संग्राम का प्रेरक बना रहा। इस गीत के कारण बंग-भंग के विरोध की लहर बंगाल की खाड़ी से उठ कर इंग्लिश चैनल को पार करती हुई ब्रिटिश संसद तक गूंजा आई थी। जो गीत गंगा की तरह पवित्र , स्फटिक की तरह निर्मल और देवी की तरह प्रणम्य है। उस गीत का तुष्टिकरण की भेंट चढ़ाना, राष्ट्रीयता का परिहास ही तो है। जबकि इतिहास इस बात का गवाह है कि भारत का विभाजन इसी तुष्टिकरण के कारण हुआ था। इस लेख के माध्यम से हम वन्दे मातरम के इतिहास को समझने का प्रयास करेगे।

1. वन्दे मातरम के रचियता बंकिम चन्द्र

बहुत कम लोग यह जानते हैं की वन्दे मातरम के रचियता बंकिम बाबु का परिवार अंग्रेज भगत था। यहाँ तक की उनके पैतृक गृह के आगे एक सिंह की मूर्ति बनी हुई थी। जिसकी पूँछ को दो बन्दर खिंच रहे थे, पर कुछ भी नहीं कर पा रहे थे। यह सिंह ब्रिटिश साम्राज्य का प्रतीक था। जबकि बन्दर भारतवासी थे। ऐसी मानसिकता वाले घर में बंकिम जैसे राष्ट्रभक्त का पैदा होना। निश्चित रूप से उस समय की क्रांतिकारी विचारधारा का प्रभाव कहा जायेगा। आनंद मठ में बंकिम बाबु ने वन्देमातरम गीत को प्रकाशित किया। आनंद मठ बंगाल में नई क्रांति के सूत्रपात के रूप में उभरा था।

2. वन्दे मातरम और कांग्रेस

कांग्रेस की स्थापना के द्वितीय वर्ष 1886 में ही कोलकाता अधिवेशन के मंच से कविवर हेमचन्द्र द्वारा वन्दे मातरम के कुछ अंश मंच से गाये गए थे। 1896 में कांग्रेस के 12वें अधिवेशन में रविन्द्र नाथ टैगोर द्वारा गाया गया था। लोकमान्य तिलक को वन्दे मातरम में इतनी श्रद्धा थी कि शिवाजी की समाधी के तोरण पर उन्होंने इसे उत्कीर्ण करवाया था। 1901 के बाद से कांग्रेस के प्रत्येक अधिवेशन में वन्दे मातरम गाया जाने लगा।

6 अगस्त 1905 को बंग भंग के विरोध में टाउन हॉल में सभा हुई। सभा में वन्दे मातरम को विरोध के रूप में करीब तीस हज़ार भारतीयों द्वारा गाया गया था। स्थान स्थान पर विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया और स्वदेशी कपड़ा और अन्य वस्तुओं का उपयोग भारतीय जनमानस द्वारा किया जाने लगा।यहाँ तक की बंग भंग के बाद वन्दे मातरम संप्रदाय की स्थापना भी हो गई थी। वन्दे मातरम की स्वरलिपि रविन्द्र नाथ टैगोर जी ने दी थी।

3. राष्ट्र कवि/लेखक और वन्दे मातरम

राष्ट्रीय कवियों और लेखकों द्वारा अनेक रचनाएँ वन्दे मातरम को प्रसिद्द करने के लिए रची गई जो उसके महत्व की सिद्ध करती हैं।

स्वदेशी आन्दोलन चाई आत्मदान

वन्दे मातरम गाओ रे भाई – श्री सतीश चन्द्र

मागो जाय जेन जीवन चले

शुधु जगत माझे तोमार काजे

वन्दे मातरम बले- श्री कालि प्रसन्न काव्य विशारद

भइया देश का यह क्या हाल

खाक मिटटी जौहर होती सब

जौहर हैं जंजाल बोलो वन्दे मातरम-श्री कालि प्रसन्न काव्य विशारद

अक्टूबर 1905 में ‘वसुधा’ में जितेंदर मोहम बनर्जी ने वन्दे मातरम पर लेख लिखा था।

1906 के चैत्र मास के बम्बई के ‘बिहारी अखबार’ में वीर सावरकर ने वन्दे मातरम पर लेख लिखा था।

22 अप्रैल को मराठा में ‘तिलक महोदय’ ने वन्दे मातरम पर ‘शोउटिंग ऑफ़ वन्दे मातरम’ के नाम से लेख लिखा था।

कुछ ईसाई लेखक वन्दे मातरम की प्रसिद्धि से जलभून कर उसके विरुद्ध अपनी लेखनी चलाते हैं जैसे

पिअरसन महोदय ने तो यहाँ तक लिख दिया कि मातृभूमि की कल्पना ही हिन्दू विचारधारा के प्रतिकूल है। बंकिम महोदय ने इसे यूरोपियन संस्कृति से प्राप्त किया है।

अपनी जन्म भूमि को माता या जननी कहने की गरिमा तो भारत वर्ष में उस काल से स्थापित है। जब धरती पर ईसाइयत या इस्लाम का जन्म भी नहीं हुआ था।

वेदों में इस तथ्य को इस प्रकार ग्रहण किया गया हैं –

वह माता भूमि मुझ पुत्र के लिए पय यानि दूध आदि पुष्टि प्रद पदार्थ प्रदान करे। – अथर्ववेद १२/१/२०

भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ। – अथर्ववेद १२-१-१५

वाल्मीकि रामायण में “जननी जन्मभूमि ” को स्वर्ग के समान तुल्य कहा गया है।

ईसाई मिशनरियों ने तो यहाँ तक कह डाला कि वन्दे मातरम राजनैतिक डकैतों का गीत हैं।

4. वन्दे मातरम और बंगाल में कहर

बंगाल की अंग्रेजी सरकार ने कुख्यात सर्कुलर जारी किया कि अगर कोई छात्र स्वदेशी सभा में भाग लेगा अथवा वन्दे मातरम का नारा लगाएगा। तो उसे स्कूल से निकाल दिया जायेगा।

बंगाल के रंगपुर के एक स्कूल के सभी 200 छात्रों पर वन्दे मातरम का नारा लगाने के लिए 5-5 रुपये का दंड किया गया था।

पूरे बंगाल में वन्दे मातरम के नाम की क्रांति स्थापित हो गई थी। इस संस्था से जुड़े लोग हर रविवार को वन्दे मातरम गाते हुए चन्दा एकत्र करते थे। उनके साथ रविन्द्र नाथ टैगोर भी होते थे। यह जुलुस इतना बड़ा हो गया कि इसकी संख्या हजारों तक पहुँच गई थी। 16 अक्टूबर 1906 को बंग भंग विरोध दिवस बनाने का फैसला किया गया था। उस दिन कोई भी बंगाली अन्न-जल ग्रहण नहीं करेगा। ऐसा निश्चय किया गया। बंग भंग के विरोध में सभा हुई और यह निश्चय किया गया की जब तक चूँकि सरकार बंगाल की एकता को तोड़ने का प्रयास कर रही है। इसके विरोध में हर बंगाली विदेशी सामान का बहिष्कार करेगा। हर किसी की जबान पर वन्दे मातरम का नारा था। चाहे वह हिन्दू हो, चाहे मुस्लिम हो, चाहे ईसाई हो।

वन्दे मातरम से आम जनता को कितना प्रेम हो गया था। इसका उदहारण हम इस प्रसंग से समझ सकते है। किसी गाँव में, जो ढाका जिले के अंतर्गत था, एक आदमी गया और कहने लगा कि मैं नवाब सलीमुल्लाह का आदमी हूँ। इसके बाद वन्दे मातरम गाने वाले और नारे लगाने वालो की निंदा करने लगा। इतना सुनते ही पास की एक झोपड़ी से एक बुढ़िया झाड़ू लेकर बाहर आई और बोली वन्दे मातरम गाने वाले लड़को ने मुझे बचाया हैं। वे सब राजा बेटा है। उस वक्त तेरा नवाब कहाँ था?

5. फूलर के असफल प्रयास

फूलर उस समय बंगाल का गवर्नर बना। वह अत्यन्त छोटी सोच वाला व्यक्ति था। उसने कहा कि मेरी दो बीवी हैं। एक हिन्दू और दूसरी मुस्लिम। मुझे दूसरी ज्यादा प्रिय है। फुलर का उद्देश्य हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़ना था। फुलर के इस घटिया बयान के विपक्ष में क्रान्तिकारी और कवि अश्वनी कुमार दत ने अपनी कविता में लिखा-

“आओ हे भारतवासी! आओ, हम सब मिलकर भारत माता के चरणों में प्रणाम करें। आओ! मुसलमान भाइयों, आज जाती-पाती का झगड़ा नहीं है। इस कार्य में हम सब भाई भाई है।इस धुल में तुम्हारे अकबर है और हमारे राम है।”

फूलर ने बंगाल के मुस्लिम जमींदारों को भड़का कर दंगा करवाने का प्रयास किया पर उसके प्रयास सफल न हुए।

अंग्रेज सरकार के मन में वन्दे मातरम को लेकर कितना असंतोष था कि उन्होंने सभी विद्यालाओं को सरकारी आदेश जारी किया। सभी छात्र अपनी अपनी नोटबुक में 500 बार यह लिखे कि “वन्दे मातरम चिल्लाने में अपना समय नष्ट करना मुर्खता और अभद्रता हैं। ”

6. वारिसाल में कांग्रेस का अधिवेशन और वन्दे मातरम

14 अप्रैल 1906 के दिन वारिसाल में कांग्रेस के जुलुस में वन्दे मातरम का नारा लगाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। शांतिपूर्वक निकल रहे जुलुस पर पुलिस ने निर्दयता से लाठीचार्ज किया। निर्दयता की हालत यह थी कि एक मकान की खूंटी पर वन्दे मातरम लिखा था। तो उस मकान को गिरा दिया गया। 10-11 वर्ष का एक बालक रसोई में वन्देमातरम गा रहा था। तो उसे घर से निकलकर कोर्ट के सामने चाबुक से पिता गया। दो हलवाइयों की दुकान पर यह नारा लिखा था तो उनके सर फोड़ दिए गए। सुरेंदर नाथ बनर्जी की गिरफ्तार कर 200 रुपये जुर्माने और अलग से कोर्ट की अवमानना पर 200 रुपये का दंड लेकर छोड़ दिया गया। इतनी निर्दयता के बावजूद भीड़ वन्दे मातरम का गान करते हुए अपने सभापति महोदय रसूल साहिब को लेकर सभास्थल पर पहुँच गई।

मंच पर हिन्दू नेताओं के साथ मुस्लमान नेताओं में सर्वश्री इस्माइल चौधरी, मौलवी अब्दुल हुसैन, मौलवी हिदायत बक्श, मौलवी हमिजुद्दीन अहमद, मौलवी दीन मुहम्मद, मौलवी मोथार हुसैन, मौलवी मोला चौधरी उपस्थित थे। वन्दे मातरम के गान से सभा का आरम्भ हुआ था। सभापति महोदय ने देश की आज़ादी के लिए सभी हिन्दू-मुसलमान को आपस में मिलकर लड़ने का आवाहन किया।

इतने में सुरेंदर नाथ बनर्जी अपने साथियों के साथ सभा स्थल पर जा पहुँचे। जिससे वन्दे मातरम के गगन भेदी नारों के साथ सम्पूर्ण सभा स्थल गूँज उठा। सभा में ब्रिटिश सरकार के द्वारा वन्दे मातरम को लेकर किये जा रहे अत्याचार को घोर निंदा की गई। जिस स्थान पर सुरेंदरनाथ बनर्जी को वन्दे मातरम गाने के लिए गिरफ्तार किया गया था। उस स्थान पर वन्दे मातरम स्तंभ बनाने के प्रस्ताव को सभा में पारित किया गया। अगले दिन के सभी समाचार पत्र वरिसाल के वन्दे मातरम संघर्ष की प्रशंसा और अंग्रेज सरकार की निंदा से भरे पड़े थे। वारिसाल की घटना के कारण लार्ड कर्जन को भारत के वाइसराय के पद से त्याग देना पड़ा।

7. वन्दे मातरम और योगी अरविन्द

वन्दे मातरम के नाम से पत्र आरंभ हुआ जिसे पहले विपिन चन्द्र पाल ने सम्पादित किया बाद में श्री अरविन्द ने। श्री अरविन्द ने इस पत्र से यह भली भांति सिद्ध कर दिया की तलवार से ज्यादा तीखी लेखनी होती है। और उसकी ज्वाला से क्रूर शासन भी भस्मीभूत हो सकता है। अरविन्द के पत्र के बारे में स्टेट्समैन अखबार लिखता है कि “अखबार की हर लाइन के बीच भरपूर राजद्रोह दीखता है। पर वह इतनी दक्षता से लिखा होता है कि उस पर क़ानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती।”

श्री अरविन्द ने वन्दे मातरम गीत के बारे में कहा है कि बंकिम ने ही स्वदेश को माता की संज्ञा दी है। वन्दे मातरम संजीवनी मंत्र है। हमारी स्वाधीनता का हथियार वन्दे मातरम है। उन्होंने कहा कि वन्दे मातरम साधारण गीत नहीं है। बल्कि एक ऐसा मंत्र है जो हमें मातृभूमि की वंदना करने की सीख देता है। उनकें इस व्यक्तव्य के कारण ही बंग-भंग के क्रांतिकारियों के लिए वन्दे मातरम का यह नारा वह गीत मंत्र बन गया।

अपनी पत्नी को 30 अगस्त 1908 को एक पत्र में श्री अरविन्द लिखते है- “मेरा तीसरा पागलपन यह है कि जहाँ दुसरे लोग स्वदेश को जड़ पदार्थ, खेत, मैदान, पहाड़, जंगल और नदी समझते हैं। वहां मैं अपनी मातृभूमि को अपनी माँ समझता हूँ। उसे अपनी भक्ति अर्पित करता हूँ और उसकी पूजा करता हूँ।माँ की छाती पर बैठ कर अगर कोई उसका खून चूसने लगे तो बेटा क्या करता है? क्या वह चुपचाप बैठा हुआ भोजन करता है? या स्त्री पुरुष के साथ रंगरलिया बनता है? या माँ को बचाने के लिए दौड़ जाता है?”

श्री अरविन्द को गिरफ्तार कर लिया गया। उससे देश में वन्दे मातरम की लहर चल पड़ी।

1906 को धुलिया, महाराष्ट्र में वन्दे मातरम के नारे से सभा ही रूक गयी। नासिक में वन्दे मातरम पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। जिस जिस ने प्रतिबन्ध को तोड़ा, तो उसे पीटा गया गया। कई गिरफ्तारियाँ हुई। इस कांड का तो नाम ही वन्दे मातरम कांड बन गया।

फरवरी 1907 को तमिलनाडू में मजदूरों ने हड़ताल कर दी और ब्रिटिश नागरिकों को घेर कर उन्हें भी वन्दे मातरम के नारे लगाने को बाध्य किया।

मई 1907 को रावलपिंडी में भी स्वदेशी के नेताओं की गिरफ़्तारी के विरोध में युवकों ने वन्दे मातरम के नारे को लगाते हुए लाठियाँ खाई।

26 अगस्त,1907 को वन्दे मातरम के एक लेख के कारण बिपिन चन्द्र पाल को अदालत में सजा हुई। तो उनका स्वागत हजारों की भीड़ ने वन्दे मातरम से किया। यह देखकर पुलिस अँधाधुंध लाठीचार्ज करने लगी। यह देखकर एक 15 वर्षीय बालक सुशील चन्द्र सेन ने एक पुलिस वाले मुँह पर मुक्का मार दिया। उस वीर बालक को 15 बेतों की सजा सुनाई गई थी। सुशील की इस सजा की प्रशंसा करते हुए संध्या में एक लेख छपा “सुशील की कुदान भरी, फिरंगी की नानी मरी”

सुशील युगांतर पार्टी के सदस्य थे। उनकी चर्चा सुरेंदर नाथ बनर्जी तक पहुँची तो उन्होंने उसे सोने का तमगा देकर सम्मानित किया।

अब युगांतर पार्टी के सदस्यों ने सुशील को सजा देने वाले अत्याचारी किंग्स्फोर्ड को यमालय भेजने की ठानी। यह कार्य प्रफुल्ल चन्द्र चाकी और खुदी राम बोस को सोंपा गया। षड़यंत्र असफल हो जाने पर चाकी ने आत्महत्या कर ली और खुदीराम ने फाँसी का फन्दा चूम कर सबसे कम उम्र में शहीद होने का सम्मान प्राप्त किया। इसी केस में श्री अरविन्द को भी सजा हुई थी।

8. वन्दे मातरम और राष्ट्रीय झंडा

कांग्रेस का लम्बे समय तक कोई निजी झंडा नहीं था।कांग्रेस के अधिवेशन में यूनियन जैक को फहराकर भारत के अंग्रेज भगत प्रसन्न हो जाते थे। 1906 में कोलकता में कांग्रेस के अधिवेशन में भगिनी निवेदिता ने सबसे पहले वज्र अंकित झंडे का निर्माण किया जिस पर वन्दे मातरम लिखा हुआ था। उसके बाद 18 अक्टूबर, 1907 को जर्मनी के स्टुअर्ट नगर में मैडम बीकाजी कामा ने वन्दे मातरम गीत के बाद राष्ट्रीय झंडा फहराया जिस पर वन्दे मातरम अंकित था। अपने भाषण में मैडम कामा ने पहले अंग्रेजों द्वारा भारत में किये जा रहे अत्याचारों का विवरण दिया जिससे की सुनने वालो के रोंगटे खड़े हो गए। उसके बाद भारत का झंडा निकालती हुई वह बोली " यह है भारतीय राष्ट्र का स्वतंत्र झंडा। यह देखिये फहरा रहा है। भारतीय देश भक्तों के रक्त से यह पवित्र हो चूका है। सदस्यगन, मैं आपसे अनुरोध करती हूँ कि आप खड़े होकर भारत की इस स्वतंत्र पताका का अभिवादन करे।”

सर्व प्रथम झंडे पर वन्दे मातरम को अंकित करने से पाठक उस काल में वन्दे मातरम के भारतीय जन समुदाय पर प्रभाव को समझ सकते है।

9. वन्दे मातरम का भारत व्यापी प्रभाव

मोतीलाल नेहरु ने जवाहरलाल नेहरु को 1905 में एक पत्र में लिखा था कि हम ब्रिटिश भारत के इतिहास की सबसे संकट पूर्ण अवधि से गुजर रहे है। इलाहाबाद में भी वन्दे मातरम आम अभिनन्दन बन गया हैं। यदि अभियान चलता रहा तो यहाँ लौटने पर भारत को, जब तुम गये, उससे बिलकुल बदला पाओगे।

25 नवम्बर 1905 को ट्रिब्यून अखबार लिखता है कि “बंगाल में लोगो ने वन्दे मातरम का जयघोष शुरू किया हैं। इन शब्दों का अर्थ है माता की वन्दना। इसमें कुछ भी भयंकर नहीं है। फिर दमनशाही द्वारा वन्दे मातरम की मनाही क्यूँ है? अब तो पंजाब में सुशिक्षित लोग एक दुसरे से भेंट होने पर वन्दे मातरम कहकर अभिनन्दन करते है। इस प्रकार सारे हिंदुस्तान में असंख्य मुखों से निरन्तर निकलते वन्दे मातरम को बंद करने में सरकार को कितने सिपाहियों और अधिकारीयों की आवश्यकता होगी? पूर्वी बंगाल की जनता के साथ सारे हिंदुस्तान की सहानभूति हैं।

जब हैदराबाद के निज़ाम के धर्मान्ध अत्याचारों के विरुद्ध आर्य समाज ने 1939 में हैदराबाद सत्याग्रह किया था तब जेल में रामचन्द्र के नाम से एक आर्यवीर को बंद कर दिया गया था। अपनी क्रूरता की धाक जमाने के लिए जेल में आर्य सत्याग्रहियों पर अत्याचार किया जाता था। जेल में दरोगा जब भी वीर रामचंद्र को बेंत मारते तो उनके मुख से वन्दे मातरम का नारा निकलता था। दरोगा जब तक मारते रहते जब तक की रामचंद्र बेहोश न हो गए पर उनके मुख से बेहोशी में भी नारा निकलता रहा। उनका जेल से छूटने के बाद आजीवन नाम ही रामचंद्र वन्देमातरम हो गया।

ऐसा अनुराग था देश और धर्म प्रेमियों को वन्दे मातरम के साथ।

10. वन्दे मातरम विदेश में

जुलाई 1909 को मदन लाल धींगरा को लन्दन में जब फाँसी दी गई तो उनके अंतिम शब्द थे “वन्दे मातरम”।

1909 को जिनेवा से एक पत्रिका वन्दे मातरम का का प्रकाशन आरंभ हुआ। अपने प्रथम अंक में पत्रिका ने कहा ‘विदेशी अत्याचार के विरुद्ध हमारे बहादुर और बुद्धिमान नेताओं ने बंगाल में जो यशस्वी अभियान शुरू किया है। वन्दे मातरम के माध्यम से हम उसे पूर्ण शक्ति और दृढ़ता के साथ में चलायेगे।

कनाडा से आ रहे जहाज कमागातामारू के झंडे पर वन्दे मातरम, सत श्री अकाल और अल्लाह हो अकबर के नारे लिखे थे।

साउथ अफ्रीका से जब महात्मा गाँधी भारत लौटे तो उन्होंने भारत आकार वन्दे मातरम गीत की प्रशंसा करी थी।(हरिजन 1 जुलाई 1938)

1922 में जब गोखले अफ्रीका गए तो हजारों भारत वासियों ने उनका स्वागत वन्दे मातरम से किया था।

1937 में तुर्की के अदान नगर में भारतीय मस्जिद पर वन्दे मातरम लिखा था। मस्जिद पर भारतीय तिरंगा लगा था और हर नमाज के साथ वन्दे मातरम का घोष किया जाता था।

11. भारतीय क्रांतिकारी और वन्दे मातरम

सन 1920 में लाला लाजपत राय ने दिल्ली से दैनिक वन्दे मातरम का प्रकाशन शुरू किया था।

सन 1930 में चन्द्र शेखर आजाद अपने पिता को पत्र लिखने समय वन्दे मातरम सबसे ऊपर लिखते हैं।

सन 1920 का असहयोग आन्दोलन, नमक सत्याग्रह में भी वन्दे मातरम का बोलबाला था।

रामचंद्र बिस्मिल ने काकोरी कांड में फाँसी पर लटकने से पहले वन्दे मातरम कहा था।

चटगांव सशस्त्र संघर्ष में वीर सूर्यसेन को फाँसी देने से पहले जब भी मार पड़ती तो वे वन्दे मातरम का जय घोष करते थे। उन्हें इतना मार गया था कि वे बेहोश हो गए और अचेत अवस्था में ही उन्हें फाँसी पर चढ़ा दिया गया था।

इसके अतिरिक्त अनेक सन्दर्भ हमें भारत की आज़ादी की लड़ाई में वन्दे मातरम को प्रेरणा के स्रोत्र के रूप में पाते हैं।

12. वन्दे मातरम का विरोध

वन्दे मातरम का विरोध जो लोग कर रहे हैं उनका अरबी, फारसी भाषा के शब्द मादरे वतन (हे माता तुझे सलाम करता हूँ), उम्मु कौरा (ग्राम्य जननी),उम्मुल मोमेनीन (विश्वासियो की जननी) और उम्मुल कैताब (ग्रन्थ जननी) आदि शब्द के बारे में उनका क्या कहना हैं।

कुछ मुसलमानों ने जो नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के नारे जय हिन्द का भी विरोध किया था पर वन्दे मातरम की तरह यह नारा धार्मिक नहीं अपितु देश भक्ति को बुलंद करने के लिए था।
ब्रिटिश काल में उन क्रांतिकारियों से पूछा जाये की वन्दे मातरम का उनके लिए क्या महत्व है? तब वे यही कहेंगे कि वन्दे मातरम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की आत्मा है, उसके प्राण है और उसके लिए सर्वस्व अर्पण है।
ऐसे महान राष्ट्रीय गीत को मज़हबी संक्रीणता से दूषित करना अपनी राष्ट्रीय पहचान और अपने इतिहास के साथ धोखा करना ही है।