Monday, June 4, 2018

आत्मा के दर्शन के उपाय



आत्मा के दर्शन के उपाय
प्रियांशु सेठ
संसार में यदि कोई दर्शन के योग्य वस्तु है,तो वह केवल आत्मा है।याज्ञवल्क्य ने इसके तीन उपाय बताए हैं जो इस प्रकार हैं-(१)श्रवण,(२)मनन,और(३)निदिध्यासन।
१.श्रवण
ब्रह्मविद्या को क्रियात्मक रूप से जानने वाले किसी विद्वान गुरु से या किसी मोक्ष-शास्त्र से उपदेश लेना 'श्रवण' कहलाता है।सच्चे गुरु के बिना और सत्य-शास्त्र के बिना सन्मार्ग का मिलना कठिन है।कठोपनिषद् में कहा है-
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत !
"उठो,जागो!चुने हुए आचार्यों के पास जाओ और समझो!"
यही कारण है कि आर्य-हिन्दुओं में यह कहा जाता है कि "गुरु बिना गति नहीं।"इसीलिए गुरु धारण करने की प्रथा अब तक चली आती है;परन्तु जिस प्रकार संसार के दूसरे क्षेत्रों में त्रुटियाँ आ गई हैं,इस क्षेत्र में भी ढोंग अधिक हो गया है।अतएव बड़ी सावधानी से गुरु को चुनना चाहिए।सच्चे अनुभवी और पहुंचे हुए गुरुओं का अभाव नहीं है।ऐसे महानुभावों के पास पहुँचकर सबसे पहला प्रभाव यह होता है कि हृदय को शान्ति-सी मिलती है।ऐसे ही गुरु आत्मा के दर्शन का मार्ग बतला सकते हैं।जिसने यह मार्ग स्वयं नहीं देखा,वह दूसरों को कैसे मार्ग दिखला सकता है?
पानी मिले न आपको,औरों बख्शत खीर।
आपन मत निश्चल नहीं,और बँधावत धीर।।
जो स्वयं दर्शन पा चुके हैं,जिन्होंने अपना जीवन सफल बना लिया है,जो काम-क्रोध आदि पर विजय प्राप्त करके आत्मा के निकटवासी बन चुके हैं,उनकी तलाश तो कबीर भी करते रहे।ऐसे ही साधुओं और गुरुओं के सम्बन्ध में कबीर कहते हैं-
सुख देवें,दुख को हरें, दूर करें अपराध।
कहें कबीर ये कब मिलें, परम सनेही साध।।
२.मनन
सत्य गुरु को पाकर,उनसे आत्मा के दर्शन का मार्ग जानकर अब साधक को स्वयं प्रयत्न और पुरुषार्थ करना होता है।जो उपदेश लिया है,उस पर दत्तचित्त होकर मनन करना,उसे युक्तियों से परखना और अनुभव से जानना,मनन कहलाता है।
३.निदिध्यासन
निरन्तर उसी पर ध्यान जमाना,उसी का चलते-फिरते,उठते-बैठते-जागते अपितु सोते भी ध्यान रखना,इसे निदिध्यासन कहते हैं।जब निरन्तर एक ही ध्येय पर ध्यान लगाया जाएगा तो उसका साक्षात्कार हो जाएगा।बस,इससे परे और क्या है?
कठोपनिषद् का ऋषि कहता है-
"इंद्रियों के परे(सूक्ष्म)अर्थ(सूक्ष्म-तन्मात्र-शब्द-तन्मात्र,स्पर्श-तन्मात्र,रूप-तन्मात्र,रस-तन्मात्र व गन्ध-तन्मात्र)है।"
कठ० ६।७।।
अर्थों से परे मन है।
मन से परे बुद्धि है।
बुद्धि से परे महान् आत्मा(महत्तत्त्व)है।
महत् से परे अव्यक्त(प्रकृति)है।
प्रकृति से परे पुरुष(परमात्मा)है।
पुरुष से परे कुछ नहीं है।
बस,यह सीमा(पराकाष्ठा)है।इसलिए कहा जाता है कि आत्मा को जान लेने पर फिर कुछ जानने योग्य नहीं रहता।

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